आधी रात बीतने के बावजूद शलभ की आंखों में नींद नहीं थी. शादी के घर में आधी तो क्या, पूरीपूरी रात जागरण हो जाता है, फिर मई की चढ़ती गरमी, ऊपर से बिजली बिना घर. शोरगुल हो ही रहा था.
थोड़ी ही देर में ढोलक की थाप के साथ ही बंसी सा मधुर स्वर गूंजा, ‘‘अरे सुन बाबुल मोरे, काहे को ब्याही विदेश…’’
शलभ ने नजदीक लेटे संजय की ओर देखा, वह आंखें मीचे पड़ा था. आंखें अलसाई थीं. ढोलक की थाप ने नींद उचटा दी थी.
‘‘संजय, कौन गा रहा है यह? बहुत मीठा स्वर है.’’
‘‘भाभी की चचेरी बहन रानो और मेरी भतीजी सुधा गा रही हैं. रानो गजलें बहुत अच्छी गाती है.’’
‘‘आई कहां से है?’’
‘‘हमीरपुर से.’’
‘‘रानो की शादी हो चुकी है क्या?’’
‘‘नहीं. एक तो मात्र इंटर तक पढ़ी है, दूसरे बहनबहनोई के पास कुछ देनेलेने को नहीं है.’’
‘‘क्या मांबाप नहीं हैं?’’
‘‘नहीं, कोई नहीं है. न भाई न अन्य कोई. एकमात्र बड़ी बहन रामेश्वरी के ऊपर निर्भर है. जब यह छोटी ही थी, तभी मांबाप मर गए थे.’’
गाना इतना मधुर था कि शलभ का मन बारबार उधर ही खिंच रहा था.
शलभ बड़े भाई की ससुराल आया था भाभी की बहन की शादी पर. भैया यदि बीमार न होते तो वह न आता. उस की 2 माह की छुट्टियां चल रही थीं, लिहाजा न चाहते हुए भी उसे आना पड़ा था.
एक तो प्रचंड गरमी, ऊपर से बिना बिजली का देहात. यहां आ कर वह पछता रहा था. कहां घर में सारे साधन, कहां यह फुंकता कसबा.
अब नींद शलभ की आंखों से कोसों दूर थी. नीचे से दूसरे गीत के बोल सुनाई पड़ रहे थे. लय की कडिय़ां थरथराती ऊपर आ रही थीं, ‘‘तनिक ठहरो तो बाबूजी डोला, बन्नी करे पुकार बन्नो मेरी लाड़ली…’’
तभी किसी के सिसकने की आवाज आने लगी. एकाएक ढोलक की थाप और गीत का स्वर थम गया. भाभी की बहन, जिस की शादी हो रही थी, भावावेश में आ कर मां की गोद में सिर डाले फूटफूट कर रो रही थी.
तभी रामेश्वरी बोली, ‘‘आग लगे तेरे गीत में रानो, तुझे कब अक्ल आएगी. क्यों गाई री बन्नी. देखती नहीं, इस के बोल बरछे से कलेजे में लगते हैं.’’
‘‘लो, तुम भी हद करती हो, रामेश्वरी. तुम्हीं सब ने तो जबरन उस से गवाया, अब ऊपर से उसे डांट रही हो. बन्नी तो होती ही ऐसी है.’’ कोई दूसरी बोली, ‘‘जिया, पर आजकल की पढ़ीलिखी, सयानी लड़कियां कहां रोती हैं इतना. खुशीखुशी डोली में चढ़ कर बैठ जाती हैं.’’
‘‘पर उमा तो 15 दिन से रो रही है, उस में रानो का क्या दोष भला. उसे वैसे ही डांट रही हो.’’
‘‘क्या करूं, जिया, जब मन कुढ़ता है तो ऐसे ही डांट देती हूं, फिर बाद में भले ही पछता लेती हूं. 2 साल हो गए जब दरवाजे से बरात लौट गई. यह लडक़ी मुझे दुश्मन सी दिखती हैं. ऐसे ग्रह ले कर जन्मी है कि होते ही तो मांबाप सिरा गए. एक बड़ा भाई था वह भी नहीं रहा. मैं ले आई तो यहां भी इस के ग्रहों ने रंग दिखाया. 3 बेटियों के बाद बेटे का मुंह देख पाई हूं. अब चारचार लड़कियों की चिंता खाए जा रही है. जैसेतैसे दुजिया वर जुटा पाए थे कि वे भी दहेज के पीछे भाग खड़े हुए. तब से कहीं भी बात नहीं बन पा रही है.’’
‘‘तो इस में रानो का क्या दोष?’’
‘‘यही तो इस की नियति है, है न?’’
‘‘अरे, धत, किस के कब दिन फिर जाएं. रूप और गुण में तो नंबर एक है तुम्हारी बहन. देखो, अब मैं तलाश में रहूंगी अच्छे लडक़ों की.’’
रानो अपने आंसू पोंछती हुई ऊपर चली गई.