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वृंदा मिश्रा

प्रियल सालों बाद अपनी दोस्त आहुति से नैनीताल में मिली थी पर इस मिलन में जितनी खुशी के पल थे उतने दुख के ज्वारभाटा थे. क्याकुछ नहीं घटा था उस के साथ. अपनों के स्वार्थ ने उसे बुरी तरह छला था. ‘‘बस, बहुत हुआ प्रियल, अब वापस होटल चलो,’’ नितिन ने कहा. ‘‘बस, यह आखिरी दुकान नितिन, फिर हम होटल चलते हैं,’’ प्रियल ने कहा. ‘‘तुम यहां हनीमून पर आई हो या शौपिंग करने?’’ नितिन ने थोड़ा मजाकिया लहजे में मु?ा से पूछा. ‘‘देखो, हम शादी के बाद पहली बार घूमने आए हैं. अगर सब के लिए कुछ न कुछ नहीं ले कर गए तो उन्हें बुरा लग सकता है. फिर क्या 15 दिन की छुट्टियों में हम एक दिन घर वालों के नाम पर नहीं निकाल सकते?’’ मैं ने सामने एक हैंडमेड चीजों की दुकान में घुसते हुए कहा. ‘‘जो हुजूर की मरजी. सच, तुम सब के बारे में सोचती हो सिवा अपने पति के.

’’ ‘‘शादी सिर्फ पति से ही नहीं, बल्कि पूरे परिवार से की है. सब से मेरा रिश्ता जुड़ा है और रिश्ते निभाने चाहिए,’’ कह कर मैं मुसकरा पड़ी. दुकान काफी बड़ी और अच्छी थी. मैं एक कोने से दूसरे कोने में उपहारों की तलाश में घूम रही थी कि तभी मेरी निगाह एक सांवली सी, लंबी लड़की पर पड़ी. उस के केश उस के घुटनों तक लंबे और घने, चेहरे पर एक मंद मुसकान. ‘‘क्या हुआ? रुक क्यों गईं?’’ नितिन ने पूछा. ‘‘वो...’’ मैं उस लड़की की तरफ इशारा करते हुए बोली, ‘‘वे मु?ो कुछ जानीपहचानी सी लग रही हैं. मैं ने देखा है उसे कहीं.’’ यह सुन कर नितिन हंस पड़े और बोले, ‘‘हम 10 दिनों से नैनीताल में हैं. न जाने कितनी जगहें घूमे हैं. वहीं कहीं देखा होगा तुम ने?’’ ‘‘नहीं नितिन, ये कोई चिरपरिचित हैं.’’ तब तक वह लड़की वहां से जाने लगी. ‘‘देखो, वह जा रही है. तुम्हें ऐसे ही भ्रम हुआ होगा.’’ मैं उस के पीछेपीछे आगे बढ़ी और एकाएक मेरे दिमाग में एक चेहरा कौंधा और मैं बोल पड़ी, ‘‘आहुति...’’

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