यह मेरी दोस्त ‘आहुति वडालिया.’ 10वीं तक हम साथ पढ़े थे. अमृतसर में जब पापा की पोस्ंिटग हुई थी, तब हम साथ में पढ़ते थे. पक्की सहेलियां थीं हम. फिर पापा का तबादला हो गया और हम वहां से चले गए.’’ ‘‘आप दोनों बातें करिए, तब तक मैं थोड़ा सामान देख लेता हूं,’’ नितिन ने कहा और दूसरी दिशा में चल दिए. ‘‘पर, तू यहां कैसे आहुति? तेरी भी शादी हो गई क्या प्रथम से? क्या शादी के बाद तुम दोनों यहां शिफ्ट हो गए हो?’’ मैं ने उस की ओर घूमते हुए पूछा. वह थोड़ा सकते में आ गई. मेरे प्रश्न ने उस के चेहरे पर कठोर भाव ला दिए. ‘‘क्या बात है आहुति?’’ मैं ने उस के कंधे पर हाथ रखते हुए पूछा. ‘‘कुछ नहीं. मैं यहां अकेली ही रहती हूं,’’ उस ने रूखे स्वर में कहा. ‘‘क्यों? आंटी, अंकल और प्रथम?’’ ‘‘देख प्रियल, तू यहां मौज करने आई है तो घूम और एंजौय कर. ये फालतू की बातों से क्या लेनादेना,’’ उस ने टालते हुए कहा. ‘‘जिस बात से मेरी दोस्त का चेहरा मलिन हो जाए वह फालतू नहीं है.
बता, क्या हुआ है? सब कहां हैं?’’ मैं ने पूछा. इस से पहले वह कुछ कहती, वहां नितिन आ गए, ‘‘प्रियल, मां का फोन है.’’ आहुति ने मु?ो खींचते हुए कहा, ‘‘तू अभी और कितने दिन है नैनीताल में.’’ ‘‘ये ही चारपांच दिन और.’’ ‘‘तो ठीक है, अभी तू जा. कल दोपहर एक बजे यहीं आना, तब सारी बातें करेंगे और हो सके तो अकेले आना,’’ उस की आंखों में एक अलग सी आवश्यकता थी, भय था, संताप था जिसे देख मैं सिर्फ हां ही कर सकी. उस दिन घूमने में फिर मेरा मन कहां लगने वाला था? आहुति की आंखों में बु?ा हुई उदासी और एकाकीपन ने मु?ो अंदर से डरा दिया था. आखिर ऐसा क्या हुआ जो आहुति की चुलबुली मुसकान कहीं गुम हो गई. मु?ो आज भी याद है, स्कूल का वह पहला दिन.
पापा की नौकरी के कारण उन का तबादला होता रहता था और ऐसे में मेरे लिए हर बार एक नई जगह जाना, वहां से परिचित होना और फिर एक अनजान बन कर किसी और शहर की ओर रुख कर लेना मुश्किल होता था. यह कारण था कि कभी मेरी कोई पक्की मित्रता नहीं बन पाई, क्योंकि जब तक मित्रता का बंधन गहरा होता तब तक अलविदा कहने का समय आ जाता. इसी शृंखला में एक बार फिर पापा का तबादला हुआ था, इस बार जगह थी अमृतसर और एक बार फिर मैं अनजानों के बीच अपनी जगह तलाशने की लड़ाई में जू?ाने लगी थी. कक्षा में अकेली, गुमसुम बैठी थी मैं कि तभी मेरे पास मुसकराती हुई आई थी आहुति. उस की स्वच्छंद मुसकराहट ने मु?ो भी अपने संकोचों से मुक्त कर दिया था. फिर क्या होना था? हमारी जोड़ी पूरे स्कूल में मशहूर हो गई थी. हमारा उठनाबैठना, गानाबजाना, पढ़ाई, मस्ती, सब साथ ही होता था. इस उछलकूद में कब एक बार फिर अलविदा कहने का वक्त आ गया, पता ही नहीं चला. पापा का फिर तबादला हो रहा था और इस बार सामान समेटना इतना आसान नहीं था, क्योंकि सामान से ज्यादा यादें और रिश्ते समेटने थे. मैं और आहुति एकदूसरे के गले मिल कर खूब रोए थे और वादा किया था कि चाहे जो हो जाए, हमारी दोस्ती पर आंच नहीं आएगी.
मैं पापामम्मी के साथ अमृतसर से मुंबई आ गई. हमें मुंबई आए कुछ महीने ही हुए होंगे कि आहुति का पत्र आया, जिस में लिखा था कि आंटी की तबीयत बहुत खराब है और डाक्टरों ने जवाब दे दिया है. पत्र पढ़ कर मैं बुरी तरह से बेचैन हो गई थी. आखिर आंटी ने मु?ो सदा बेटी की तरह स्नेह दिया था. खत मिलने के साथ ही मैं और मम्मी अपना सामान बांधने लगे पर हमारे पहुंचतेपहुंचते ही आंटी का शरीर शांत हो चुका था. कुछ दिन वहां रह कर हम आहुति और अंकल को ढांढ़स बंधाते रहे. मम्मी ने तो यहां तक प्रस्ताव दिया था कि आहुति हमारे संग मुंबई आ जाए पर अंकल ने इस प्रस्ताव को मंजूरी नहीं दी. आखिर उन की भी बात सही थी, आंटी के जाने के बाद आहुति के अलावा उन का था ही कौन?
ऐसे में आहुति को खुद से दूर करना उन के लिए असंभव था पर क्या जीवनसाथी को खोने का दुख भी कम नहीं होता है? इसी दुख ने अंकल को धीरेधीरे एकाकीपन और फिर डिप्रैशन का शिकार बना दिया. आहुति के अगले कुछ महीनों के पत्रों में अंकल के डिप्रैशन का जिक्र बराबर बना रहा. हम जब भी फोन पर बात करते, अंकल के लिए उस की चिंता आंसुओं में फूट पड़ती. ऐसे में मैं खुद को बहुत असहाय महसूस करती. और फिर एक दिन उस का पत्र आया, ‘प्रिय प्रियल, यह बात मैं तुम्हें फोन पर ही बताना चाहती थी पर क्या करूं कि फोन ही खराब हो गया है.