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बाजार के बीचोबीच स्थित रामलीला मैदान में दोस्तों के साथ रामलीला देख रहे दिनेश पटेल ने कहा, ‘‘भाइयो, मैं तो अब जा रहा हूं. मैं

ट्यूबवेल चला कर आया हूं. मेरा खेत भर गया होगा. इसलिए ट्यूबवेल बंद करना होगा, वरना बगल वाले खेत में पानी चला गया तो काफी नुकसान हो जाएगा.’’

‘‘थोड़ी देर और रुक न यार, रामलीला खत्म होने वाली है. हम सब साथ चलेंगे. तुम्हें तुम्हारे खेतों पर छोड़ कर हम सब गांव चले जाएंगे.’’ दिनेश के बगल में बैठे उस के दोस्त कान्हा ने उसे रोकने के लिए कहा, ‘‘अब थोड़ी ही रामलीला बाकी है. पूरी हो जाने दो.’’

दिनेश गुजरात के बड़ौदा शहर से करीब 15-16 किलोमीटर दूर स्थित मंजूसर कस्बे में रहता था. मंजूसर कभी शामली तहसील जाने वाली सड़क किनारे बसा एक गांव था. लेकिन जब गुजरात सरकार ने यहां जीआईडीसी (गुजरात इंडस्ट्रियल डेवलपमेंट कारपोरेशन) बना दिया तो यहां छोटीबड़ी तमाम इंडस्ट्रीज लग गईं, जिस की वजह से मंजूसर गांव एक कस्बा बन गया.

दिनेश की जमीन सड़क से दूर थी, जिस पर वह खेती करता था. सिंचाई के लिए उस ने अपना ट्यूबवेल भी लगवा रखा था. बगल वाले खेत में पानी चला जाता तो उस का काफी नुकसान हो जाता, इसलिए वह कान्हा के रोकने पर भी वह नहीं रुका. एक हाथ में टौर्च और दूसरे हाथ में डंडा ले कर वह रामलीला से खेतों की ओर चल पड़ा.

उस समय रात के लगभग डेढ़ बज रहे थे. जिस रास्ते से वह जा रहा था, उस के दोनों ओर ऊंचेऊंचे सरपत खड़े थे, जिन में झींगुर अपनी पूरी ताकत से अपना राग अलाप रहे थे. कोई अगर पीछे से सिर में टपली मार कर चला जाए, तब भी पहचान में न आए उस समय इस तरह का अंधेरा था. उस सुनसान रास्ते पर दिनेश अपनी धुन में चला जा रहा था.

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