शादी के बाद पतिपत्नी के बीच यदि सब ठीक नहीं चल रहा, कोई विवाद खड़ा हो गया तो उन के आगे तलाक का विकल्प होता है, पर तलाक लेने गए दंपती को एड़ीचोटी घिसनी पड़ जाती है. इस दौरान उन्हें घुटघुट कर जीना पड़ता है. सवाल यह है कि जब तुरंत शादी की व्यवस्था है तो तुरंत तलाक की क्यों नहीं?
तलाक का यह मुकदमा एक पत्नी पूनम द्वारा 9 सितंबर, 2003 को दायर किया गया था, जिस का फैसला 30 सितंबर को हो पाया. यानी लगभग 18 साल मुकदमा चला, जबकि शादी तय होने में 18 दिन और होने में
18 घंटे भी नहीं लगे थे. वजह कोई भी हो, शादी के बाद अगर पतिपत्नी में पटरी न बैठे तो क्या तलाक के लिए इतना इंतजार करना या करवाया जाना न्याय कहा और माना जाना चाहिए? इस सवाल का जवाब हां में देना शायद ही कोई पसंद करे.
पूनम की शादी 9 जून, 2002 को सुरेंद्र कुमार से हुई थी. ठीक 20 दिनों बाद उस ने पति के खिलाफ रिपोर्ट लिखाई कि दहेज की मांग पूरी न किए जाने पर उसे ससुराल में दाखिल होने की इजाजत ही नहीं दी गई थी. आईपीसी की धाराओं 498 ए (क्रूरता) और 406 (आपराधिक विश्वासघात) के तहत मामला दर्ज हुआ. इस के बाद पूनम ने तलाक की याचिका ट्रायल कोर्ट में दायर कर दी.
क्रूरता और विश्वासघात वाली याचिका अदालत ने 1 जनवरी, 2006 को खारिज कर दी क्योंकि पीडि़ता के भाई ने ही उस के खिलाफ बयान दिया था. इस पर पीडि़ता ने एतराज दर्ज कराते हुए गुहार लगाई कि उस के गवाहों- दूसरे भाई सुभाष चंद्र और भाभी रानी देवी- की गवाही पर ध्यान नहीं दिया गया जिन के सामने उस का उत्पीड़न हुआ था, बल्कि उस भाई की गवाही पर भरोसा किया गया जो कि परिवार से अलग रहता है और अपने मांबाप से बात तक नहीं करता.