लेखिका: राधा श्रीवास्तव 

सलाखें सिर्फ जेल की ही नहीं होतीं, सलाखें हमारे मन में भी हैं. जेल की सलाखें बेशक लोहे की हों, और कई बार रजतपट पर हम ने उन्हें टूटते हुए भी देखा होगा, पर मन की सलाखें तोड़ते हुए हम ने किसी को नहीं देखा. वह इसलिए क्योंकि मन की सलाखें दिखाई नहीं देतीं. परंतु, मन की सलाखों को जो पहचान जाता है, महसूस कर लेता है, वह उन सलाखों को तोड़ कर बाहर निकल आता है. जेल की सलाखें टूटने का तो पता चल जाता है, पर जरूरी नहीं कि मन की सलाखें टूटने की आवाज आए. अंदाजा जरूर लगाया जा सकता है.

आप जब भी किसी को तमाम विपरीत परिस्थितियों के बाद भी सफलता के सोपान तय करते देखें तो समझ जाना कि उस ने मन की कई सलाखों को तोड़ा होगा. इन सलाखों को जो नहीं तोड़ता या तोड़ पाता है वह खुद में ही कैद हो कर रह जाता है और समय निकलने के बाद पछताता है.

देखना होगा कि ये सलाखें आप ने खुद तो नहीं खड़ी कर रखी हैं. यह भी देखना होगा कि ये सलाखें यदि आप ने नहीं, तो किस ने खड़ी कर रखी हैं. इन सलाखों को तोड़ने के लिए आप को अतिरिक्त मेहनत करनी होगी. आप को सब से पहले तो अदृश्य सलाखों को पहचानना होगा. पहचानना होगा कि सलाखों के पीछे आखिर कौन है. हो सकता है आप अकेले इन सलाखों को न तोड़ पाएं, इस के लिए देश और समाजहित में आप को एकजुट भी होना पड़ सकता है.

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