प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का ‘स्वच्छ भारत अभियान’ 2 अक्तूबर से जिस जोशोखरोश के साथ शुरू हुआ, लगातार कायम नहीं रह पाया. 2 सप्ताह बीततेबीतते फिर चारों ओर वही गंदगी का आलम दिखने लगा है. गलियों, सड़कों के किनारे कूड़े के ढेर देखे जा सकते हैं. मोदी ने सरकारी कर्मचारियों को स्वच्छता की शपथ दिलाते हुए कहा था कि यह अभियान लगातार चलता रहना चाहिए जब तक हमारे सारे शहर साफ नजर नहीं आने  लगें. शपथ में कहा गया था, ‘‘मैं स्वच्छता के प्रति समर्पित रहूंगा और इस की खातिर समय दूंगा. न मैं खुद गंदगी फैलाऊंगा और न किसी को फैलाने दूंगा.’’ मोदी के इस अभियान की शुरुआत के साथ ही केंद्रीय मंत्री, सांसद, विधायक, पार्षद झाड़ू ले कर रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों, सड़कों, गलियों में सफाईर् करते दिखाईर् दिए. अभिनेता, खिलाड़ी गांवों को गोद ले रहे हैं पर शीघ्र ही स्वच्छता का बुखार उतरता दिख रहा है.

अधिकतर नेताओं का मकसद सफाईर् से नहीं था. झाड़ू हाथ में ले कर उन के फोटो अखबारों में छपे और खानापूरी हो गई. इसी तरह अफसरों द्वारा भी सफाई की औपचारिकता निभ गई. जनता में भी पहले की तरह कूड़ाकचरा जहांतहां फेंकने, गंदगी फैलाने की आदत में कोई बदलाव नहीं आया. जिंदगी फिर पुराने ढर्रे पर चल पड़ी है.

मोदी ने 2 अक्तूबर को नई दिल्ली में पंचकुइयां रोड के पास जिस वाल्मीकि मंदिर से इस अभियान की शुरुआत की थी, उसी के बाहर इधरउधर कूड़ा बिखरा पड़ा है. दिल्ली में जगहजगह कूड़े के ढेर नजर आ रहे हैं. डलावघर गंदगी से उफन रहे हैं. आसपास रहने वाले लोगों के लिए जीना मुहाल हुआ जा रहा है. देश में गंदगी का क्या आलम है उस का जायजा लेने की शुरुआत दिल्ली से ही करते हैं. जहां मोदी सरकार खुद मौजूद है. दिल्ली के विख्यात दर्शनीय जापानी पार्क के पास स्थित रोहिणी सैक्टर 15 का जी ब्लौक करीब 180 गलियों वाला क्षेत्र है. यहां 2 डलावघर हैं. एक ए ब्लौक के कोने पर और दूसरा बिजली दफ्तर के पास. ये दोनों कूड़ाघर गंदगी से अटे पड़े हैं. कूड़ा बीनने वाले लोग इन में से अपने काम की चीजें बीन लेते हैं.

इलाके में करीब 120 सफाई कर्मचारी हैं. यह इलाका उत्तरी दिल्ली नगरनिगम क्षेत्र में आता है जो भारतीय जनता पार्टी के पास 8-10 सालों से है. सफाई का सिस्टम यह है कि सुबह 6.30 बजे नगर निगम के सफाई कर्मचारी आते हैं, वे निगम के हर्बल पार्क में बने एक कमरे में लगी बायोमीट्रिक मशीन से अपनी हाजिरी लगा कर गलियों, सड़कों पर सफाई करने चले जाते हैं.

इन कर्मचारियों में औरतें और पुरुष दोनों हैं. ये झाड़ू निकाल कर सड़क किनारे कूड़ा इकट्ठा करते चलते हैं और फिर इस कूड़े को डलावघर में डंप कर दिया जाता है. डंप किए हुए कूड़े को उठाने की जिम्मेदारी दूसरे लोगों की है. दिल्ली में कई डलावघरों में इकट्ठा कूड़ा उठाने का जिम्मा निगम कर्मियों के पास है तो कुछ डलावघर निजी ठेकेदारों के हवाले हैं. डलावघरों का कूड़ा निगम की ट्रकनुमा बड़ी गाडि़यों द्वारा उठा कर जीटी करनाल रोड बाईपास पर बने कूड़ा केंद्र में डंप किया जाता है.

सफाईर् कर्मियों के ऊपर सफाई सुपरवाइजर और उन से ऊपर सैनेटरी इंस्पैक्टर होते हैं. कर्मचारियों की हाजिरी 2 बार होती है, साढे़ 6 बजे और फिर साढे़ 11 बजे. ढाई बजे कर्मचारियों की छुट्टी हो जाती है. मजेदार बात यह है कि सफाई कर्मचारी दलित जाति के हैं लेकिन ज्यादातर सुपरवाइजर और इंस्पैक्टर ऊंची जातियों से आते हैं.

किस के भरोसे कूड़ाघर

इस व्यवस्था के अलावा नगर निगम द्वारा छोटी गाडि़यों के जरिए भी गलीगली घूम कर कूड़ा इकट्ठा कराया जाता है. इन में निगम और निजी कंपनियों दोनों के लोग हैं. ऐसी गाड़ी में केवल ड्राइवर होता है जो सायरन बजाता चलता है  और लोग अपने घर का इकट्ठा कूड़ा इस गाड़ी में डाल देते हैं. इस के अलावा घरघर से कूड़ा एकत्रित करने वाले निजी लोग भी हैं जो निचली जातियों के लड़कों को पैसा दे कर घरों से कूड़ा उठवाते हैं. इलाके का सारा कूड़ा जीटी करनाल रोड पर जाता है. जीटी करनाल रोड का यह कूड़ा केंद्र विशाल कूड़े का पहाड़ बन चुका है. दिल्ली में ऐसे एक दर्जन केंद्र बताए जाते हैं. लेकिन इन केंद्रों से कूड़ा निष्पादन का कोई पुख्ता इंतजाम न तो निगम के पास, न ही सरकार के पास है. इन कूड़ा केंद्रों की गंदगी और बदबू दूरदूर तक फैल कर वातावरण को दूषित कर रही है और बीमारियां बढ़ा रही है.

भेदभाव की सड़ांध

सफाई कर्मचारियों की अपनी समस्याएं भी हैं. स्वच्छता अभियान से सफाई कर्मियों पर दबाव बढ़ा है. सफाई सुपरवाइजर, इंस्पैक्टर इलाकों में ज्यादा चक्कर लगाने लगे हैं. अपने इलाके के साथसाथ सफाई कर्मचारियों को दूसरी जगहों पर ले जा कर भी उन से सफाई कराई जाती है. पर उन्हें समाज में हिकारत से देखा जाता है. उन के साथ छुआछूत, भेदभाव आज भी कायम है. सफाईकर्मी जगदीश बताता है, ‘‘हमारे सरकारी स्कूल में बेटे को 3 बार फेल कर दिया गया. टीचर कहते हैं, पढ़ कर क्या करेगा. टीचर जानबूझ कर हमारे बच्चों की ओर ध्यान नहीं देते. प्राइवेट स्कूलों में गरीबों का कोटा है पर वहां हमारे बच्चों को लेते नहीं हैं.’’ महिला सफाई कर्मचारी सुशीला कहती है कि निगम वरदी, झाड़ू भी समय पर नहीं देता. हमें खुद अपने ही पैसे से झाड़ू खरीदनी पड़ती है. एक झाड़ू और डंडा 150 रुपए का आता है. ड्यूटी दूर एरिया में लगाईर् जाती है. आनेजाने में वक्त और पैसा अधिक लगता है. कईकई कर्मचारी तो रोहतक, सोनीपत, पानीपत तक से यहां आते हैं. इन्हें मात्र 6 से 10 हजार रुपए तनख्वाह दी जाती है. कर्मचारियों का कहना है कि उन्हें न ईएसआई की चिकित्सा सुविधा दी जाती है, न पैंशन न ग्रेच्युटी की. नए लोगों के लिए पैंशन की सुविधा भी छीन ली गई है. हजारों कर्मचारी ठेके पर काम करने को मजबूर हैं. सफाई के इस काम में बड़ी धांधली है, भ्रष्टाचार है. ऊंची जातियों के अफसर ठेकेदारों से मिल कर ज्यादा लोगों के वेतन उठा लेते हैं.

यह भी कहा जाता है कि दिल्ली के सभी नगर निगमों में ऐसे कर्मचारी भी हैं जो खुद कहीं और काम करते हैं लेकिन अपनी जगह कम पैसे दे कर किसी और को सफाई करने भेज देते हैं. ऐसे में न ये कर्मचारी जिम्मेदारी से अपना काम करते हैं न इन के अधिकारी साफसफाई को गंभीरता से लेते हैं, जो ऊंची जातियों के हैं. यानी मिलीभगत से गड़बडि़यां चल रही हैं.

कर्मचारी और कामचोरी

सफाई कर्मचारियों में भी आदतन निकम्मापन है. बहुत से कर्मचारियों का यूनियनों में दबदबा है. वे अपनी पगार लेने के अलावा और कोई काम नहीं करते. दिल्ली में सफाई मजदूर वर्ग से जुड़ी दर्जनभर से ज्यादा यूनियनें हैं, जिन का काम दफ्तरों में नेतागीरी करना ही है. हाजिरी दे कर पार्कों में बैठे रहते हैं, ताश खेलते हैं, फिर अपने घर चले जाते हैं. अनेक कर्मचारी तो ड्यूटी के समय और बाद में शराब के नशे में रहते हैं.

भ्रष्टाचार का कूड़ा

ऐसे कर्मचारियों के संगठनों वाले स्वतंत्र संयुक्त मोरचा के अध्यक्ष संतलाल चावरिया भ्रष्टाचार की बात मानते हुए कहते हैं कि सफाई इंस्पैक्टर 50-50 हजार रुपए महीना निगम पार्षद तक पहुंचाते हैं. सफाई कर्मियों के पैसे खा लिए जाते हैं. उन की वरदी, साबुन, रेहड़ी, झाड़ू के पैसे इंस्पैक्टर उठा लेते हैं. जबकि कर्मचारी प्रदूषण से जूझते हैं, उन्हें मास्क तक नहीं दिए जाते. यह हालत दिल्ली में ही नहीं, कमोबेश हर जगह है. इसलिए हमारे शहर दुनिया के सब से गंदे शहरों में शुमार हैं. कुछ समय पहले ब्रिटेन की महारानी भारत आई थीं तो उन्होंने अपने देश में लौट कर कहा कि दिल्ली बहुत गंदा शहर है. विश्वभर में यह बात फैली और हमारे यहां इस की चर्चा काफी दिनों तक होती रही. तब केंद्र में इंद्रकुमार गुजराल सरकार थी. बाद में दिल्ली सरकार और नगर निगम के अफसरों की नींदें खुलीं और सफाई के नाम पर खासखास सड़कों पर झाड़ू लगाई गई, चूने की लकीरें साफसाफ दिखने लगीं. कुछ समय बाद फिर वही हाल.

लुटियंस जोन को छोड़ दिया जाए तो बाकी दिल्ली कूड़े के ढेर में तबदील दिखती है. गलियों, सड़कों से नाक पर रूमाल रख कर गुजरना पड़ता है. अवैध कालोनियों में तो हालात और बदतर हैं. गंदगी ने शहरों के जीवन की गुणवत्ता को छीन लिया है. चारों तरफ फैली भयानक गंदगी निम्नता की सीमा तक पहुंच रही है.

बदहाल नगरपालिका

कुछ समय पहले देश में नगरपालिकाएं, नगर परिषद गरिमापूर्ण संस्थाएं होती थीं. उन में प्रतिष्ठित लोग चुने जाते थे. वे जनता की समस्याओं का खयाल रखते थे और समाधान करते थे. सफाईर्, बिजली, पानी से ले कर शिक्षा, स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान दिया जाता था. आज हालत यह है कि माननीय सदस्य आएदिन शोरशराबे, हुल्लड़बाजी, राजनीतिक स्वार्थों और योजनाओं का पैसा अफसरों, ठेकेदारों, दलालों के साथ मिल कर डकारने की जुगत में रहते हैं.

देश में रोजाना हजारों मीट्रिक टन कचरा पैदा होता है. मुंबई और दिल्ली में दर्जन से अधिक कचरे के ढेर हैं जो अब पहाड़ की शक्ल ले चुके हैं. मुंबई में 100 हैक्टेअर से अधिक जगह में फैले देवनार कूड़ा स्थल पर 100 लाख टन से ज्यादा कूड़े का ढेर लग चुका है. कुछ ऐसा ही हाल दूसरे महानगरों और शहरों का है. यह कचरा जन स्वास्थ्य के लिए बड़ी चुनौती बनता जा रहा है. आज कितने ऐसे शहर हैं जिन पर गर्व किया जा सकता है? क्या आप स्वच्छता के मामले में अपने शहर पर गर्व कर सकते हैं?

हम हैं जिम्मेदार

हमारे मन में अपने शहर के प्रति गर्व की भावना उत्पन्न कैसे होगी, जब हर कदम पर हम उसे ज्यादा से ज्यादा गंदा बनाने में खुद शामिल हैं. बाहर दुनिया के किसी भी देश में लोगों को अपने शहर में भारत की तरह खुलेआम बेशर्मी से थूकते, पेशाब करते, कूड़ा फेंकते नहीं देखा जाता. ऐसा करते हमें न शर्र्म आती है, न पश्चात्ताप होता है और न किसी का भय रहता है. हम घर का कूड़ा गलियों, सड़कों पर बिना किसी हिचक के ऐसे फेंक देते हैं मानो गलियों, सड़कों, महल्ले की सफाई से हमें कोई मतलब नहीं है. ये सब करने में गांव और शहर वाले सब बराबर से जिम्मेदार हैं. अकसर हमारे शहरों की सड़कें, गलियां तभी साफसुथरी दिखती हैं जब कोई मंत्री,  नेता आने वाला होता है या विश्व का कोई नेता या विश्व बैंक का अफसर, वरना हम गंदगी में रहने, जने के आदी हो  चुके हैं. आदत ऐसी कि साफसुथरी जगह पर हमें नींद नहीं आती.   

हमारे यहां स्वच्छता को ले कर कोई सख्त, प्रभावी कानून नहीं है. हालांकि अनुच्छेद-21 के तहत लोगों को पानी और सफाई का संवैधानिक मौलिक अधिकार प्राप्त है. संविधान में सफाई का काम करने वाली निचली जातियों के साथ छुआछूत निषेध कानून भी है पर सफाई के मामले में सामाजिक व्यवस्था ज्यादा प्रभावी साबित हो रही है. लोग निचली जातियों पर ही सफाई के लिए निर्भर हैं. 74वें संविधान संशोधन द्वारा राज्य सरकारों की पानी आपूर्ति और सैनिटेशन की जिम्मेदारी का हस्तांतरण स्थानीय निकायों को कर दिया गया. इस के लिए राज्य सरकारों द्वारा वित्तीय मदद, नीतिनिर्धारण से स्थानीय निकायों का पूरी तरह सशक्तीकरण कर दिया गया लेकिन मुंबई, दिल्ली जैसे शहरों की  स्लम और अवैध बस्तियों में रहने वाली करीब 50 फीसदी आबादी को न्यूनतम शहरी कानून नकारते हैं. लिहाजा, यहां सफाई और पानी की आपूर्ति के प्रति कोई ध्यान नहीं दिया जाता.

2004 में शहरी विकास मंत्रालय ने सैनिटेशन के लिए सुधार की गाइडलाइन जारी की थी और पब्लिकप्राइवेट पार्टनरशिप पर जोर दिया था. इस से हुआ यह कि पिछले कुछ सालों में सफाईर् के कामों के लिए निजी कंपनियां निगमों द्वारा लाई गईं. इस में हुआ केवल इतना कि सफाई करने वाले और कूड़ा उठाने वाले लोग तो वही दलित ही रहे पर यह काम कराने वाली कंपनियां और ठेकेदार ऊंची जाति के आ गए.

जवाबदेही तय नहीं

असल में भारत की यह गंदगी धार्मिकसामाजिक देन है. हमारा व्यवहार अलग ही है. यहां सफाई के काम को नीचा आंका जाता है. सफाई करने वालों को नीची नजरों से देखा जाता है. हम सफाई जैसे महत्त्वपूर्ण काम को जातिगत पेशा मानते हैं. एक ऐसा कर्म जिसे निचली जातियां ही कर सकती हैं. प्रथा है, मैला, गंदगी, कूड़ाकचरा हम करते हैं, उसे उठाता कोई और है.सफाई का जिम्मा हम ने सदियों पहले समाज के सब से निचले वर्ग को दे दिया था. वही वर्ग आज तक कूड़ाकचरा उठाने से ले कर हमारा मलमूत्र तक साफ करता आ रहा है.    

यह वर्ग अब शिक्षित, समझदार हो रहा है और जातिगत पेशे से छुटकारा पाना चाहता है इसलिए निकृष्ट, नीचा समझे जाने वाले सफाई के काम में इन की अब अधिक रुचि नहीं है, न इन के ऊपर बैठे अफसरों को. कचरा उठाने के लिए जिम्मेदार संस्थाएं सफाई करने, इकट्ठा करने और ढुलाई में नाकाम साबित हो रही हैं. ऐसे में मोदी के स्वच्छता अभियान में सफाईकर्मियों अफसरों में सक्रियता और कार्यकुशलता में कोई अंतर नहीं आया है. हो सकता है प्रधानमंत्री मोदी वास्तव में महात्मा गांधी की तरह स्वच्छतापसंद व्यक्ति हों या स्वच्छता का संदेश देशभर में फैला कर जनजन को जागृत करना चाहते हों या फिर सफाई अभियान उन की कोई मजबूरी हो लेकिन सत्य यह है कि वे अंतर्राष्ट्रीय नेता बन रहे हैं. स्वयं दुनिया का दौरा कर रहे हैं और दुनिया के नेताओं को भारत में आमंत्रित कर रहे हैं.

विश्व बैंक जैसी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं और कईर् नामीगिरामी कंपनियां भारत आ रही हैं. भारत में अगर जगहजगह गंदगी देखने को मिलेगी तो कौन यहां आना, निवेश करना पसंद करेगा. लिहाजा, फायदे के लिए ऐसा किया जा रहा है.

खुद को बदलें

यह सच है कि भारत पर गंदगी और भ्रष्टाचार का धब्बा लगा है. अंतर्राष्ट्रीय निवेशक आजकल इस बात को ज्यादा तवज्जुह देने लगे हैं कि जहां वह पैसा लगाना चाहते हैं वे देश, उस के शहर साफसुथरे हों. इसलिए निवेश तब मिलेगा जब हमारे शहर साफसुथरे होंगे. यहां का वातावरण विदेशियों के अनुकूल होगा. लिहाजा, मोदी जानते हैं पैसा स्वच्छता से आएगा. सवाल है कि स्वच्छता को ले कर मोदी के इरादे नेक हैं लेकिन साफसफाई के प्रति हमारी जो पुरानी सामाजिक सोच है, क्या उस में बदलाव आ पाएगा? जब तक हमारी सोच औरों से सफाई करवाने वाली रहेगी, तब तक गंदगी हमारे जीवन में रचीबसी रहेगी. हम गंदगी फैला कर औरों के लिए अपराध कर रहे हैं. स्वच्छता की भावना हमारे गुणों में शामिल नहीं है. हमें स्वच्छता की सामूहिक भावना, सामूहिक विवेक को विकसित करना पड़ेगा.

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