यह किसी मशहूर किताब का विवरण नहीं बल्कि हमारे साथ (लेखक के साथ) घटी सत्य घटना है. मेरा बेटा हैदराबाद के कलिनरी एकेडमी ऑफ़  इंडिया से पास आउट ग्रेजुएट है. उस्मानिया यूनिवर्सिटी के इस इंस्टीट्यूट की गिनती पाक विद्या पढ़ाने वाले दुनिया के सर्वश्रेष्ठ संस्थानों में छठवें नंबर पर होती है, भारत ही नहीं एशिया का यह सबसे अच्छा इंस्टीट्यूट माना जाता है. बेटे ने यहीं से ग्रेजुएशन किया और आईटीसी कोलकाता में उसका सीधे कैम्पस प्लेसमेंट हो गया. लेकिन कुछ दिनों के बाद उसने नौकरी छोड़ दी और इस साल जुलाई में अपना खुद का रेस्टोरेंट खोलने का मन बनाया. हमने पूर्वी दिल्ली के शकरपुर, लक्ष्मीनगर इलाके में करीब 15 दिन घूमें. इस दौरान हमारी पसंद की हमें कम से कम सात जगहें मिलीं, इनमें से छह जगहें हमें ऐन मौके पर यह कहकर दिये जाने से मना कर दी गईं कि हम रेस्टोरेंट में नॉनवेज बनाएंगे.

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हैरानी की बात यह है कि जिन छह लोगों ने हमें रेस्टोरेंट के लिए जगह देने से नॉनवेज की वजह से मना किया, उनमें से छह के छहों लोग नॉनवेज  खाते हैं. बहरहाल सातवीं जगह हमें इसलिए मिली क्योंकि इस जगह के मालिक खुद उस जगह नहीं रहते. खैर, जब हमने किराये पर जगह लेकर वहा फर्नीचर वगैरह बनाना शुरु किया तभी मुहल्ले की एक दंबग महिला आयी और बोली मेरा घर बगल में है,यह बात अच्छी तरह से सुन लो कि रेस्टोरेंट में किसी भी कीमत पर नॉनवेज  नहीं बनेगा. पहले भी यहां एक रेस्टोरेंट था और मैंने उसे सख्त हिदायत दे रखी थी. हम एक नये संकट में फंस गये थे, जिसका हल अंतत हमारे प्राॅपर्टी डीलर ने उस दबंग महिला से यह कहते हुए निकाला कि ये भी अपने विरादरी के लोग हैं और मैंने इनसे कह दिया है कि ये बस थोड़ा बहुत हल्का फुल्का नाॅनवेज ही यहां बनाएंगे.

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