18लखनऊ निवासी प्रभाकर की शादी प्रीति के साथ हुई थी. शादी के 4 दिनों बाद चौथी की विदाई में प्रीति अपने घर गई. फिर कुछ दिनों बाद हनीमून पर जाने के लिए वापस ससुराल आ गई. हनीमून से वापस आने के बाद फिर वह वापस अपने मायके चली गई. जब पति प्रभाकर विदाई के लिए गया तो उस ने ससुराल आने से इनकार कर दिया. सो, झगड़ा हो गया. मामला पुलिस थाने तक गया. प्रभाकर पर घरेलू हिंसा
का केस दर्ज हो गया. परामर्श केंद्र में सुलहसमझौता हुआ. इस के बाद भी पतिपत्नी के बीच संबंध सामान्य नहीं हो सके. 6 माह भी नहीं बीते कि प्रीति ने धारा 498ए के साथसाथ रेप और अप्राकृतिक सैक्स का आरोप लगाते हुए पति के खिलाफ मुकदमा दर्ज करा दिया. अब पुलिस प्रभाकर को पूछताछ के लिए थाने बुलाने लगी. प्रभाकर मानसिक रूप से परेशान रहने लगा. वह बेरोजगार हो गया.
पुलिस और कचहरी की भागदौड़ के चलते उस की प्राइवेट जौब छूट गई. जो पैसा था वह भी खर्च हो गया. पत्नी प्रीति अपने वकीलों के जरिए समझौते के लिए 25 लाख रुपए की मांग करने लगी. प्रभाकर के पास इतने पैसे हैं नहीं. वह पुलिस के पास गया. वहां फाइनल रिपोर्ट लगाने के नाम पर 2 लाख रुपए की मांग की गई. कचहरी में प्रभाकर को अपने वकील को फीस के तौर पर अलग से पैसे देने पड़ रहे हैं.
हालात यह है कि प्रभाकर न तो पत्नी को साथ रख पा रहा है और न ही उसे तलाक मिल पा रहा है. दहेज कानून के चक्कर में उस का उत्पीड़न हो रहा है. वह कहता है, ‘‘शादी करना मेरे लिए मुसीबत बन गया है. मुझे समझ नहीं आता कि क्या करूं?’’ प्रभाकर जैसे लोगों की संख्या लगातार बढ़ रही है. ऐसे में विवाह संस्था से लोगों का भरोसा उठ रहा है.
सरल हो कानून
इस बात की लगातार जरूरत महसूस की जा रही थी कि दहेज और हिंदू तलाक कानून को सरल किया जाए. सरकार और कोर्ट इस के बाद भी कानून को सरल करने के बजाय उसे और जटिल बना रहे हैं. इस से लोगों में गुस्सा है. दहेज प्रताड़ना कानून में सुप्रीम कोर्ट के नए फैसले से परिवारों में रोष फैल
रहा है. सब से बड़ा रोष तो इस बात को ले कर है कि अब दहेज प्रताड़ना केस में पुलिस पहले के मुकाबले अधिक मनमाना काम करेगी. इस से भ्रष्टाचार को भी और बढ़ावा मिलेगा.
पति परिवार कल्याण समिति के नाम से संस्था चलाने वाली इंदू सुभाष कहती हैं, ‘‘दहेज प्रताड़ना कानून के दुरुपयोग की बात को हर कोई मान रहा है. ज्यादातर मामलों में लड़की केवल पति ही नहीं, बल्कि पूरे परिवार को फंसाना चाहती है. यह एक तरह का कानूनी आतंकवाद माना जा सकता है. यह विवाह संस्था को तोड़ने वाला काम साबित हो सकता है.’’
दहेज कानून में दर्ज मुकदमों की विवेचना से पता चलता है कि सालदरसाल मुकदमों के दुरुपयोग के मामले बढ़ते जा रहे हैं. ऐसे में नए बदलाव से पति के परिवार पर पुलिस की प्रताड़ना भी बढ़ सकती है.
साल 2003 में दिल्ली हाईकोर्ट के तत्कालीन जस्टिस जे डी कपूर ने दहेज प्रताड़ना कानून में बढ़ रही ऐसी प्रवृत्ति पर चिंता व्यक्त की थी. जस्टिस कपूर ने कहा था, ‘‘रिश्तेदारों और पति परिवार के सदस्यों को बेवजह परेशान किए जाने से शादी की बुनियाद हिल रही है. यह समाज और परिवार दोनों के हित में नहीं है.’’ जस्टिस कैलाश गंभीर ने तो कहा, ‘‘दहेज प्रताड़ना के मामले में पुलिस लापरवाही में केस दर्ज नहीं करती.’’
दहेज के मुकदमे लगातार बढ़ते जा रहे हैं. साल 2004 में 58 हजार के करीब मुकदमे दर्ज हुए थे. 2015 में यह संख्या बढ़ कर 1 लाख 13 हजार के पार पहुंच गई. ऐसे में यह समझा जा सकता है कि दहेज के मुकदमों से लोग कितने परेशान होते हैं. दहेज के मुकदमों में राहत हाईकोर्ट से ही मिलती है. हाईकोर्ट में मुकदमा लड़ने के लिए खर्च का दबाव अलग होता है. साधारण परिवार ऐसे मुकदमों में आर्थिक व मानसिक रूप से टूट जाते हैं.
कानून पर उठे सवाल
2014 में सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने फैसले में कहा था कि 7 साल तक की सजा वाले मामलों में बिना समुचित आधार के गिरफ्तारी नहीं होगी. पुलिस केवल मुकदमा दर्ज होने पर ही गिरफ्तारी नहीं करेगी. इस में दहेज प्रताड़ना कानून भी शामिल था. कोर्ट ने कहा था कि दहेज प्रताड़ना मामले में अगर पुलिस बिना पर्याप्त आधार के गिरफ्तारी करेगी तो पुलिस के खिलाफ भी कार्यवाही हो सकती है.
सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस सी के प्रसाद और पी सी घोष ने कहा था कि किसी की गिरफ्तारी सिर्फ इसलिए नहीं हो सकती कि मामला गैर जमानती और संज्ञेय है तथा पुलिस को ऐसा करने का अधिकार है.
27 जुलाई, 2017 को सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस ए के गोयल और जस्टिस यू यू ललित ने राजेश शर्मा बनाम स्टेट औफ यूपी के केस में दहेज प्रताड़ना मामले में छानबीन को ले कर गाइडलाइंस जारी की. इस में कहा गया कि देशभर में परिवार कल्याण समिति बनाई जाएं.
जिला लीगल अथौरिटी को ऐसी कमेटी बनाने को कहा गया, जिस में सिविल सोसाइटी के लोगों को भी शामिल किया गया हो. इस में कहा गया कि अगर दहेज प्रताड़ना की शिकायत पुलिस और मजिस्ट्रेट के पास आती है तो वे मामले को कमेटी के पास भेजेंगे. कमेटी दोनों पक्षों की शिकायतें सुनेगी. शिकायत के आधार को देखेगी. कमेटी पहले मामले को सुलझाने का प्रयास करेगी. लेकिन जब मामला नहीं सुलझेगा तो वह अपनी रिपोर्ट पुलिस या मजिस्टे्रट को देगी. इस के बाद ही आगे की कार्यवाही होगी. जब तक रिपोर्ट नहीं आएगी तब तक गिरफ्तारी नहीं होगी.
नए फैसले से बढ़ गया खतरा
सितंबर 2018 में चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अगुआई वाली बैंच ने परिवार कल्याण कमेटी और गिरफ्तारी पर रोक के प्रावधान को खत्म कर दिया. इस फैसले में कहा गया है कि परिवार कल्याण कमेटी सीआरपीसी के प्रावधानों के अनुरूप नहीं है. अब 7 साल से कम की सजा के मामले में गिरफ्तारी के कारण बताने होंगे. पुलिस को यदि संदेह हो कि क्राइम हुआ है और मामले की छानबीन जरूरी है तो वह वैसा कर सकती है. लेकिन पुलिस को धारा 41 और 41ए का ध्यान रखना होगा. इस में पुलिस आरोपी को नोटिस देगी. अगर नोटिस पर अमल हो रहा है तो आरोपी को पुलिस गिरफ्तार नहीं करेगी. अगर नोटिस का जवाब नहीं दिया जा रहा है तो गिरफ्तारी हो सकती है.
सुप्रीम कोर्ट ने परिवार कल्याण कमेटी को कानून के तहत नहीं माना है. वह समझौते के आधार पर केस को खत्म नहीं करा सकती. कानून की यह सही व्याख्या नहीं है. अगर बिना समझौते वाले केस में ऐसा होता भी है तो हाईकोर्ट केस को खत्म कर सकता है. परिवार कल्याण कमेटी के खारिज होने के बाद दहेज प्रताड़ना कानून के मामले में पुलिस का दखल बढ़ गया है. ऐसे में पुलिस उत्पीड़न और भ्रष्टाचार दोनों के बढ़ने की आशंका प्रबल हो जाती है.
इस फैसले के बाद दहेज प्रताड़ना कानून 2017 के पहले की तरह हो गया है. 27 जुलाई, 2017 से पहले दहेज प्रताड़ना कानून में जो प्रक्रिया अपनाई जाती थी वही अब अपनाई जाएगी. दहेज प्रताड़ना कानून गैर जमानती और गैर समझौतावादी है.
धारा 498 में अग्रिम जमानत का प्रावधान है. ऐसे में आरोपी को जमानत मिल सकती है. अब मामले परिवार कल्याण कमेटी के पास नहीं भेजे जाएंगे बल्कि पुलिस के अफसरों के संज्ञान में आने के बाद मामला दर्ज हो जाएगा.
बढ़ गया पुलिस का दखल
धारा 498ए के तहत पुलिस पति परिवार को बेवजह ही परेशान करती है. इस से समाज में बिखराव बढे़गा. ऐसे मामलों में जरूरी है कि पहले मामले के सच को परखा जाए, जिस से यह तय हो सके कि आरोपी को जेल भेजा जाए या बेल दी जाए.
हालांकि कोर्ट भी यह देखता है कि धारा 498ए के तहत होने वाली गिरफ्तारी गलत तो नहीं है. अगर ऐसा होता है तो संसद इस से बचाव के कानून बनाए. ऐसे में बेवजह पतियों को फंसाने वाले मामलों में शिकायत वाली कोर्ट को ही जमानत देने का अधिकार हो, जिस से उसे ऊपरी कोर्ट में न जाना पडे़. इस के लिए कोर्ट विचार कर रहा है.
कुछ मामलों में कोर्ट ने कहा है कि संज्ञेय मामलों में पुलिस मामला पता करने के बाद ही दर्ज करे. शुरुआती जांच को जरूरी बताया गया है. कोर्ट ने कहा है कि जब शिकायत वैवाहिक विवाद की हो, लेनदेन की हो, मैडिकल लापरवाही की हो तो पुलिस शिकायत मिलते ही जांच शुरू कर सकती है. उसे जांच में यह पता लगाना है कि संज्ञेय अपराध हुआ है या नहीं. अपराध संज्ञेय है, तो मुकदमा दर्ज किया जा सकता है.
कोर्ट ने गिरफ्तारी के मामले में कहा है कि पुलिस की ड्यूटी है कि आरोपी को वकील से मिलने दे. अरैस्ट मैमो में आरोपी के रिश्तेदार या दोस्त के हस्ताक्षर लेना जरूरी है. उस को पूरी जानकारी देनी पडे़गी. आरोपी का मैडिकल कराना होगा. अगर वह कस्टडी में है तो हर 48 घंटे के बाद उस का मैडिकल जरूरी है. जघन्य अपराध को छोड़ कर पुलिस रूटीन तरह से गिरफ्तारी नहीं कर सकती. आरोपी के भागने की स्थिति अगर बनती है या बनने वाली है तो ही गिरफ्तारी हो सकती है. अगर कोर्ट को यह लगता है कि आरोपी कानून का आदर कर रहा है तो उसे गिरफ्तार न किया जाए.