पश्चिम बंगाल की 42 सीटों के महत्त्व की पुष्टि इसी बात से हो जाती है कि यहां सभी 7 चरणों में राजनीतिक गलियारों में एक सवाल खूब उछल रहा है कि अब की लोकसभा चुनाव में बाजी कौन मारेगा- राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी या फिर राज्य में तेजी से जनाधार बढ़ा रही भाजपा?
राजनीति के पंडितों की मानें तो 1977 के बाद से लगातार कमजोर होती कांग्रेस और 2011 के बाद से करीबकरीब हाशिए पर पहुंचे वाममोरचा के बाद जिस तरह से सूबे में भाजपा ने पैठ बनाई है उस से ऐसा प्रतीत होता है कि इस दफा संसद की कुंजी पश्चिम बंगाल के हाथों में हो सकती है. सूबे की सभी 42 की 42 लोकसभा सीटों पर कब्जा जमाने के लिए सत्तारूढ़ पार्टी तृणमूल बेचैन है. वहीं, लंबे समय तक (1977 से 2011 तक) वाममोरचा के गढ़ रहे इस राज्य में भाजपा अब न केवल दूसरे नंबर पर पहुंच गई है, बल्कि तृणमूल को कड़ी टक्कर भी दे रही है.
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भाजपा सूबे की 23 सीटें जीत कर अपनी दिल्ली की राह आसान करने को बेताब है. उधर गठबंधन न होने को ले कर वाममोरचा और कांग्रेस एकदूसरे को जिम्मेदार बताते हुए अपनीअपनी सीटों पर साख बचाने की जुगत में है. कांग्रेस व वाममोरचा के बीच गठबंधन न होने पर भी दोनों ने 2-2 सीटें एकदूसरे के लिए छोड़ी है. कांग्रेस ने जादवपुर व बांकुडा और वाममोरचा ने बहरमपुर व मालदा में उम्मीदवार नहीं उतारे हैं. ये दोनों दल 40-40 सीटों में चुनाव लड़ रहे हैं. इस गणित से भले ही राज्य के 38 सीटों में चौतरफा मुकाबला नजर आ रहा हो, लेकिन मुख्य लड़ाई तृणमूल और भाजपा के बीच ही हैं. 17वीं लोकसभा के महासंग्राम में चारों प्रमुख पार्टियां (कांग्रेस, भाजपा, माकपा व तृणमूल) समेत कई दूसरे क्षेत्रीय दल और निर्दलीय उम्मीदवार भी ताल ठोक रहे हैं.
तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी जहां ज्यादा से ज्यादा सीटें जीत कर गैरभाजपाई, गैर कांग्रेसी सरकार बनाने की स्थिति में प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रही हैं, वहीं भाजपा पिछली बार जीती सीटों को 10 गुना कर के उत्तर प्रदेश में होने वाले संभावित नुकसान की भरपाई में जुटी है.
इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि कुछ सालों से भाजपा बंगाल में खासा जोर दे रही है. भाजपा को इस के सकारात्मक नतीजे भी देखने को मिले हैं. पिछले 3 वर्षों में हुए पंचायत चुनाव से ले कर लोकसभा या फिर विधानसभा उपचुनावों में भाजपा माकपा व कांग्रेस को पछाड़ कर मुख्य विपक्षी दल बन कर उभरी है. इस वजह से तृणमूल खेमे में हलचल है. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि भाजपा उत्तर प्रदेश के संभावित नुकसान की भरपाई जिन राज्यों से करना चाहती है उन में बंगाल सब से प्रमुख है. खुद भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने बंगाल में 23 सीटें जीतने का लक्ष्य निर्धारित किया है. इसी रणनीति के साथ भाजपा की बंगाल इकाई और कभी ममता बनर्जी के दाएं हाथ रहे मुकुल राय आगे बढ़ रहे हैं. तृणमूल में सेंधमारी की जा रही है. तृणमूल के कई नेताओं को केशरिया खेमे के नीचे लाया जा रहा है.
हाल में सांसद सौमित्र खां व अनुपम हाजरा तृणमूल छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए हैं. दूसरी और तृणमूल प्रमुख और मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने पार्टी नेताओं व कार्यकताओं से साफ कहा है कि उन्हें बंगाल में 42 की 42 सीटें चाहिए. भाजपा को एक भी सीट न मिले. यह सुनिश्चित करें. ममता इस के लिए सीधेसीधे भाजपा को घेरने की कोशिश कर रही हैं. वे खुल कर कहती हैं कि उन के लिए दुश्मन नंबर एक भाजपा और मोदी हैं. उस की बानगी ममता ने 18 जनवरी को परेड ब्रिगेड में आयोजित रैली में देशभर के 21 विपक्षी दलों को एकत्रित कर दिखाईर् थी.
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ममता को पता है कि बंगाल में पिछली बार की 34 सीटों की तुलना में अधिक सीटें नहीं मिलीं तो दिल्ली में उन का कद नहीं बढ़ेगा. इस बीच, भाजपा ने अल्पसंख्यक की राजनीति के लिए मशहूर बंगाल में तृणमूल कांग्रेस के गढ में घुसपैठ करने के लिए 7 फीसदी अनुसूचित जातियों, 22 फीसद अनुसूचित जनजातियों के वोटबैंक में पैठ के साथसाथ आदिवासी (ओरांव टिग्गा, तिर्के, टोटो), गोरखा, कामतापुरी, राजवंशी, मतुआ (नामशुद्र समुदास), बंगलादेश से बंगाल आए हिंदू शरणार्थियों और हिंदुत्व का सहारा लिया है.
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने आदिवासी और दलित इलाकों में काफी काम किया है. इस की वजह से आरएसएस की शाखाओं की संख्या दोगनी हो गई हैं. वहीं, ममता ने यह आरोप लगाया है कि भाजपा आरएसएस की मदद से बंगाल में चुनाव फतह करना चाहती है.
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यह बिलकुल सही है कि वोट फीसद के हिसाब से पिछले चुनाव में भाजपा तीसरे नंबर पर रही थी. उसे तृणमूल की तुलना में आधे से भी कम और वाममोरचा की तुलना में 12 फीसद कम वोट मिले थे. बावजूद इस के भाजपा पूरे दमखम से राज्य की आधी से ज्यादा सीटों पर विजय हासिल करने के लिए जीतोड़ मेहनत कर रही हैं. मोटेतौर पर देखें तो वाममोरचा व कांग्रेस के वोट भाजपा की झोली में नहीं जाते हैं. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राष्ट्रवाद की बात पर इस दफा यह गणित बदल या बिगड़ सकता है. भाजपा द्वारा अल्पसंख्यक उम्मीदवारों को चुनावी मैदान में उतारने के बावजूद अल्पसंख्यक कमल का बटन दबाने से परहेज करेंगे, लेकिन तीन तलाक के मुद्दे पर भाजपा अल्पसंख्यक महिलाओं के वोट जरूर पा सकती है. इस के अलावा भाजपा राष्ट्रवाद के नाम पर हिंदूओं को एक करने में जुटी हैं. इस में कोई आश्चर्य नहीं कि हिंदू के नाम पर कांग्रेस व वाममोरचा के वोट इस बार भाजपा के पाले में आ जाएं.
जानकार यह भी कहते हैं कि अल्पसंख्यक वोटबैंक अब भी बंगाल की राजनीति पर हावी है. आखिर क्यों न हो? राज्य के कुल मतदाताओं में से करीब 27 फीसद लोग अल्पसंख्यक हैं और वे राज्य की लगभग 16 से 18 लोकसभा सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाते हैं. उत्तर बंगाल में राजगंज, कूचबिहार, बालुरघाट, मालदा उत्तर, मालदा दक्षिण, मुर्शिदाबाद और दक्षिण बंगाल में डायमंड हार्बर, उलबेडिया, हावड़ा, बीरभूम, कांथी, तमलुक, जयनगर जैसी संसदीय सीटों पर मुसलिमों की आबादी काफी है. तृणमूल कांग्रेस का इन पर और इनका तृणमूल कांग्रेस पर भरोसा अटूट बना हुआ है. हालांकि वाममोरचा और कांग्रेस भी इस वोटबैंक में घुसपैठ की लगातार कोशिश कर रहे हैं. लेकिन भाजपा की हिंदुत्व छवि इस वोटबैंक में उस की घुसपैठ में बड़ी बाधा है.
भाजपा ने इन के मुकाबले में आदिवासी, दलित, हिंदुत्व और तृणमूल विरोधी समुदाय में प्रभाव विस्तार का मार्ग चुना है और उन के सहारे वह लगातार अपने प्रभाव और वोटबैंक में विस्तार कर रही है.
हालांकि, ममता ने भी चुनाव के मद्देनजर सौफ्ट हिंदुत्व का रास्ता अपना कर इन का मुकाबला करने का रास्ता अपनाया है. वैसे, यह सब आकलन है, पूरी तसवीर 23 मई को होने वाली मतगणना के बाद ही साफ हो पाएगी.