2 फायदे अब तक किसान आंदोलन की वजह से किसानों को खुदबखुद मिले है. एक तो जातिधर्म की बेड़ियों को तोड़ कर सब किसान एक हो गए, दूसरा गांवो में खेती के काम मे सामूहिकता आ गई, " तुम मेरे खेत मे काम करवाओ, मैं तेरे खेत मे काम करवाऊंगा."
किसानों ने अब मान लिया है कि अहंकारी सरकार जल्द मांगे मानने के मूड में नहीं है, इसलिए उस हिसाब से तैयारी शुरू कर दी है. सिंघु, टिकरी, शाहजहांपुर से ले कर गाजीपुर बॉर्डर पर स्थाई ठिकाने बनाये जा रहे है. सत्ताधारी पार्टी व इस के मातृ संगठन बड़े जोरशोर से यह प्रचार करने में लगे है कि दिल्ली बॉर्डर पर नकली किसान है और असली किसान खेतों में है. किसान भी अब अपने असली का सबूत पेश करने की तैयारी में जोरशोर से लग गए है.
दिल्ली की सीमाओं के मोर्चे पर अब किसानों ने शिफ्ट ड्यूटी लगा ली है. गांवों में मिल कर आपस मे खेती कर रहे है. अपने खेतों में खुद के परिवार के लिए पर्याप्त फसल का क्षेत्र चिन्हित कर रहे है ताकि सरकार न माने तो आगे खड़ी फसल को जलाने में आसानी हो. किसान आंदोलन सिर्फ तीन कृषि कानूनों की वापसी व एमएसपी गारंटी को ले कर शुरू हुआ लेकिन सरकार की धोखेवाली रणनीति के कारण इस का विस्तार होता गया. सरकार जिधर सोचती है उस से पहले किसान तैयारी कर लेते है.
 पंजाब के किसानों को खालिस्तानी कहा तो पूरा हरियाणा एक झटके में उठ खड़ा हुआ जैसे पहले से तैयारी में थे कि सरकार इस तरह गलतबयानी करेगी और हमे तैयार रहना है. सिर्फ पंजाब के किसानों का आंदोलन बताया तो उत्तरांचल, राजस्थान, महाराष्ट्र से ले कर केरल तक के किसान विरोध में उतर आए.
जाटों का आंदोलन बताया तो महाराष्ट्र के मराठा, गुजरात के पटेलआदिवासी, राजस्थान के गुर्जरमीणामेघवाल, यूपी के गुर्जरयादव, तेलंगाना के कापू सहित देशभर के विभिन्न समाज सरकार के खिलाफ उतर पड़े.
किसानों को जातधर्म मे बांट कर लड़ाने का खूब प्रयास किया गया लेकिन किसानों ने जातधर्म की केंचुली उतार कर किनारे फेंक दी और एकजुट हो गए. सरकार को लग रहा था कि चुनावी राजनीति में इस का कोई फर्क नहीं पड़ेगा, लेकिन पंजाब में शहरी निकाय चुनावों में आईना दिखा दिया गया. अभी अहंकारी सत्ता को लग रहा है कि उत्तरी भारत मे जो नुकसान होगा उस की भरपाई पूर्व व दक्षिणी भारत मे कर लेंगे तो वो गलतफहमी में है.
किसानों ने असम से ले कर उड़ीसा-बंगाल तक किसान महापंचायत की तैयारी कर ली है. अब तय सरकार को करना है कि बिल वापसी की मांग को कुर्सी की वापसी तक ले जाना है या किसानो के साथ सम्मानजनक समाधान करना है. अहंकार, तानाशाही रवैये व निरंकुश शासन के भागते अश्वमेघ घोड़े की नकेल इस बार किसान ने थामी है और ऐसी मजबूती के साथ थामी है कि चाहे तो छटपटाहट में नाक तुड़वा ले या फिर डरडर के लीद करता रहे. किसान खाली हाथ वापिस नहीं जाएगा.
सरकार में बैठे संघी टोले को भारतीय किसान आंदोलनों का इतिहास पढ़ना चाहिए. साल 1988 में बाबा टिकैत से कांग्रेस टकराई थी, उस के बाद आजतक भानुमति का कुनबा बन कर भटक रही है. खुद के पैरों पर खड़ी हो कर केंद्र तो छोड़िए राज्य तक मे बीजेपी सरकार बनाने के काबिल नहीं बचेगी.

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