80 के दशक में जब जनसंघ से भारतीय जनता पार्टी का उदय हुआ, उस की राजनीति का केंद्र अयोध्या का राम मंदिर बना. अयोध्या में राम मंदिर का विवाद नया नहीं था. यह अदालत में चल रहा था. आजादी के बाद कांग्रेस इस मुद्दे को ले कर असमंजस में थी. कांग्रेस का एक धड़ा इस के समर्थन में था जबकि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सोच इस मुद्दे से दूर रहने की थी. जिस वजह से 80 के दशक तक यह मुद्दा फैजाबाद की कचहरी तक सीमित था. भाजपा को इस मुद्दे में जान दिख रही थी. आरएसएस इस आंदोलन की भूमिका बना चुका था. इस के लिए विश्व हिंदू परिषद और रामजन्मभूमि न्यास का गठन हो चुका था.
आरएसएस की सोच इस मुद्दे की लड़ाई को कोर्टकचहरी से बाहर राजनीतिक रूप से लड़ने की थी. इस में भाजपा की भूमिका प्रमुख थी. आंदोलन को धार देने के लिए शिलापूजन और ईंटपूजन जैसे कार्यक्रम हुए. जनता का रु?ान देख कर उस समय कांग्रेस के प्रधानमंत्री राजीव गांधी पर अयोध्या मसले में दखल देने का दबाव बना.
इस के बाद कांग्रेस ने मंदिर का ताला खुलवाने में प्रमुख भूमिका अदा की. उस समय भाजपा के नेता लालकृष्ण आडवाणी को इस की कमान सौंपी गई. उन के साथ कई प्रमुख नेताओं को लगाया गया. सोमनाथ से अयोध्या तक की रथयात्रा की कमान उन के हाथ में थी.
इस मुद्दे का असर था कि 1984 में लोकसभा की 2 सीटें जीतने वाली भाजपा ने 1989 के लोकसभा चुनाव में 88 सीट पा गई. दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में मंदिर मुद्दे ने कांग्रेस का नुकसान किया. नारायण दत्त तिवारी कांग्रेस के आखिरी मुख्यमंत्री बने, उस के बाद आज तक कांग्रेस कभी उत्तर प्रदेश में सरकार नहीं बना पाई.
उत्तर प्रदेश में राममंदिर आंदोलन बढ़ा. प्रधानमंत्री वी पी सिंह ने कमंडल की इस राजनीति का मुकाबला करने के लिए मंडल कमीशन की मांगें मान लीं. इस को ‘मंडल बनाम कमंडल’ मुद्दे के रूप में जाना जाता है.
1992 में कारसेवकों ने राममंदिर पर कार सेवा करने के नाम पर ढांचा गिरा दिया. इस बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे भाजपा नेता कल्याण सिंह, जिस वजह से पुलिस ने बल प्रयोग नहीं किया. 1999 से 2004 की अटल सरकार पर दबाव बना, लेकिन कुछ हो नहीं पाया. 2009 में इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला मंदिर के पक्ष में आया, जिस को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई.
10 साल बाद 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे को अतार्किक हल किया. मंदिर और मसजिद बनाने का रास्ता खोल दिया. उस समय केंद्र की मोदी सरकार ने इसे लपक लिया और मंदिर बनाने की कवायद सरकार ने ले ली. आज भी रामजन्मभूमि ट्रस्ट केवल दिखावे के लिए है.
मोदी सरकार ने 2024 के लोकसभा चुनाव के केंद्र में राममंदिर को रख कर तैयारी शुरू की. इस की योजना यह थी कि चुनाव के पहले मंदिर में प्राणप्रतिष्ठा कार्यक्रम हो पाए. भूमिपूजन से ले कर प्राणप्रतिष्ठा कार्यक्रम चुनावी और भव्य रखे गए जिस से वोट लेने में मदद मिले. भाजपा को उम्मीद थी कि चुनाव में मंदिर दर्शन न करने वाले नेताओं को जनता नकार देगी.
भाजपा को उम्मीद थी कि 2024 में उस की जीत में कोई दिक्कत नहीं आएगी. इसी आत्मविश्वास में 400 पार का नारा दे दिया. जब 4 जून को चुनाव परिणाम आए तो भाजपा को सब से करारी हार राम के उत्तर प्रदेश में मिली.
भाजपा का राममंदिर कार्ड पूरी तरह से फेल हो गया. पूरे देश में भाजपा को केवल 240 सीटें मिलीं हैं.
2024 के ताजा आमचुनाव में भाजपा के खराब प्रदर्शन ने राजनीति से मंदिर मुद्दे का फिलहाल पटाक्षेप कर दिया है. अब एनडीए की यह सरकार 1999 वाली अटल सरकार की तरह हिंदूवादी विवादित मुद्दों से दूर रहना पड़ेगा. नरेंद्र मोदी को अपनी कट्टर हिंदूवादी धार्मिक छवि सुधारनी होगी.