Suicide : दुनियाभर में हर साल कोई 8 लाख लोग आत्महत्या करते हैं और इस सवाल का जवाब ढूंढ़ पाना आसान नहीं है कि क्यों कोई आत्महत्या करता है और इस के पहले सिर्फ और सिर्फ यही क्यों सोचता रहता है कि इसे कैसे अंजाम देना है. क्यों नहीं वह अपने मन की भड़ास किसी से शेयर कर पाता?
‘आत्महत्या मनोवैज्ञानिक नहीं बल्कि सामाजिक समस्या है’, प्रसिद्ध फ्रैंच समाजशास्त्री एमाइल दुर्खीम द्वारा 1897 में प्रकाशित फ्रैंच भाषा की पुस्तक, ‘ले सुसाइड: एट्यूड डे सोशियोलौजी’ में यह बात कही गई है. आज जैसेजैसे वास्तविक दुनिया से कट कर लोग सोशल मीडिया की गिरफ्त में फंसते जा रहे हैं वैसेवैसे वे डिप्रैशन और फ्रस्ट्रेशन के शिकार भी होते रहे हैं.
हैरत की बात यह है कि अधिकतर आत्महत्याएं अचानक कम बल्कि सुनियोजित तरीके से ज्यादा हो रही हैं. इन्हें रोका तो नहीं जा सकता लेकिन कम तो किया जा सकता है बशर्ते विक्टिम के पास कोई सही सलाह देने वाला हो. लेकिन, वह है कौन? आइए देखते हैं-
राजधानी दिल्ली के भारत नगर इलाके में 12 मई को एक दंपती और उन के 2 बच्चों ने सुबह कैमिकल पी लिया. इस घटना में पति व दोनों बच्चों की इलाज के दौरान मौत हो गई. पुलिस की शुरुआती जांच में आर्थिक तंगी की वजह से खुदकुशी करने की बात सामने आई.
पुलिस के मुताबिक 45 वर्षीय हरदीप सिंह, पत्नी हरजीत कौर और 2 बच्चों के साथ चंदर विहार में रहते थे. परिजनों के मुताबिक, हरदीप पत्नी और बच्चों सहित रात से ही गायब थे. सुबह वे संगम पार्क स्थित अपनी दुकान में पहुंचे. वहां जंग रोकने वाला कैमिकल रखा हुआ था जिसे चारों ने पी लिया. जब उन की तबीयत बिगड़ने लगी तो बेटे ने अपनी बूआ अवनीत कौर को फोन कर आत्महत्या करने की बात बताई.
ऐसी खबर को पढ़ कर कुछ देर के लिए हर किसी का मन खिन्न हो जाता है लेकिन उन के बारे में ज्यादा सोचने की हिम्मत किसी की नहीं पड़ती जिन्हें, चाहे जो वजह हो, आत्महत्या या परिवार सहित आत्महत्याएं करने जैसा आत्मघाती कदम उठाना पड़ता है.
कितना अकेला हो गया होगा हरदीप और उन का परिवार जो बिलकुल सांसें उखड़ते वक्त ही अपनी मौत की खबर नजदीकी रिश्तेदार को दी. न भी देते तो क्या होता, कुछ घंटों बाद ही परिजन पुलिस में गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाते और ऐसा नहीं होता तो 2-3 दिन बाद दुकान से बदबू आनी शुरू हो जाती और सूचना मिलने पर पुलिस आती, शटर तोड़ती, पंचनामा बनाती, रिपोर्ट लिखती, फिर इन्वेस्टिगेशन करती. कुछ दिनों बाद वह मामले की फाइल क्लोज कर देती.
क्या यह सोचा जाना वाजिब और अहम नहीं है कि हरदीप के बेटे ने अगर कुछ घंटों या कुछ दिनों पहले अवनीत कौर को फोन कर यह बताया होता कि बूआ, हम लोग आत्महत्या की प्लानिंग कर रहे हैं या सोच रहे हैं तो क्या होता. खुद हरदीप भी बहन को अपनी परेशानी बता कर मशवरा ले सकता था, अपने दिल पर पड़ा बोझ हलका कर सकता था लेकिन ऐसा नहीं किया गया तो सहज समझ जा सकता है कि उन्हें किसी पर भरोसा नहीं रह गया था या वे इस की जरूरत ही महसूस नहीं कर रहे थे.
अगर भरोसा होता तो यह नौबत ही न आती. एक अच्छाखासा परिवार यों ही देखते ही देखते उजड़ गया तो क्या इस के लिए सिर्फ वही जिम्मेदार है, उस से जुड़े दूसरे लोग नहीं?
सामाजिक दबाव है वजह
इस सिचुएशन के बारे में एमिल दुर्खीम का यह कथन सटीक बैठता है कि आत्महत्या की दर तब बढ़ जाती है जब समाज में लोगों के बीच सामाजिक बंधन या तो बहुत मजबूत होते हैं या फिर पर्याप्त रूप से मजबूत नहीं होते. एक तरह से उन का यह कथन प्लेटो के इस विचार का खंडन ही है कि आत्महत्या करना ईश्वर की इच्छा के विरुद्ध है.
दुर्खीम हालांकि पूर्ण नास्तिक नहीं थे लेकिन सैक्युलर थे. मशहूर मनोविज्ञानी सिगमंड फ्रायड के आत्महत्या संबंधी दर्शन या विचारों को भी दुर्खीम की थ्योरी नकारती है जो आत्महत्या को अचेतन से जोड़ते थे. अब यह बहुत स्पष्ट होता जा रहा है कि सामाजिक दबाव जब नाकाबिले बरदाश्त हो जाते हैं तब आत्महत्याएं ज्यादा होती हैं.
कम ही दार्शनिकों ने आत्महत्या को ईश्वर से हट कर देखा है. नास्तिक दार्शनिक फ्रेडरिक नीत्से उन में प्रमुख हैं. उन की नजर में आत्महत्या व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आत्मनिर्णय से जुड़ा फैसला है. हालांकि वे जीवन की चुनौतियों का सामना करने और जीवन का अर्थ खोजने पर जोर देते हैं और हार मान कर आत्महत्या कर लेने को गलत मानते हैं. दार्शनिकों के बीच पसरे इस विरोधाभास का मौजूदा समाज से कोई सीधा कनैक्शन नहीं दिखता है.
भारत में सामाजिक संबंधों के बारे में पूरे दावे और आत्मविश्वास से कहा जा सकता है कि ये बेहद कमजोर और टूटन के दौर से गुजर रहे हैं. किसी से किसी को कोई सरोकार नहीं रह गया है.
धर्म और जाति के नाम पर तो खाई गहरी ही है, साथ ही, कालोनियों और अपार्टमैंटों में पड़ोस के घर में क्या हो रहा है, यह जानना तो दूर की बात है, लोगों को यही नहीं मालूम रहता कि पड़ोस में रहता कौन है.
जहां तक बात आत्महत्या की बढ़ती दर की है तो आंकड़े इस की गवाही देते हैं कि यह बहुत अनियंत्रित तरीके से बढ़ रही है. दुनियाभर में हर साल कोई 8 लाख लोग आत्महत्या करते हैं. भारत में साल 2022 में एक लाख 71 हजार मामले आत्महत्याओं के दर्ज किए गए थे जो साल 2021 के मुकाबले 4.2 फीसदी और 2018 के मुकाबले 27 फीसदी ज्यादा थे.
इस सवाल का जवाब ढूंढ़ पाना आसान नहीं है कि, क्यों कोई आत्महत्या करता है और इस के पहले सिर्फ और सिर्फ यही क्यों सोचता रहता है कि इसे कैसे अंजाम देना है कि किसी को भनक न लगे. हरदीप के मामले में तो एकसाथ 4 लोगों ने दुनिया से खुद को दिमागी तौर पर छिपाए रखा था.
पहले की तरह विक्टिम अब इस बात की परवा नहीं करता कि उस के पीछे घर, परिवार और दोस्तों पर क्या गुजरेगी. शायद इसीलिए वाकई में जो लोग किसी आत्महत्या से वास्तविक और सीधेतौर पर प्रभावित होते हैं उन से भी जीने का अधिकार घर का मुखिया छीन लेता है.
हैरानी तो इस बात पर ज्यादा होती है कि आत्महत्या करने वाले अधिकतर लोग धार्मिक प्रवृत्ति के होते हैं लेकिन अपनी जान लेते वक्त वे ईश्वर से डरते नहीं. हरेक धर्म ने आत्महत्या को पाप मानते इस से बचने की सलाह बड़े खौफनाक तरीके से दी है.
धर्मग्रंथों में आत्महत्या बुरी चीज
सब से पहले बात हिंदू धर्म की करें तो मरने के बाद के जीवन पर लिखी गई किताब गरुड़ पुराण कहती है कि जो मनुष्य आत्महत्या करने का पाप करता है उसे परलोक में भी जगह नहीं मिलती. उस की आत्मा भटकती रह जाती है. उसे नरक में 60 हजार साल बिताने पड़ते हैं. यह पुराण आत्महत्या को ईश्वर के प्रति पाप बताता है.
अब अगर किसी ने आत्महत्या करने का पाप किया है तो उस का प्रायश्चित्त भी पंडेपुजारी करवाते हैं और विक्टिम के घर वाले मारे डर के उन के बताए आदेशोंनिर्देशों पर अमल भी करते हैं.
घर में 10 दिन नियमित गरुड़ पुराण का पाठ कराया जाता है जिस से अकाल मौत मरने वाले को गरुड़ पुराण में वर्णित भीषण नारकीय यातनाएं न भुगतनी पड़ें. इस के लिए तबीयत से दानदक्षिणा पंडा लेता है जिस में भूमिदान, गौदान, स्वर्णदान, अन्न और वस्त्रदान, शय्या दान जैसे दर्जनभर दानों के नाम पर विक्टिम के घर वाले लुटते हैं.
अब कहा जा सकता है कि जीतेजी ही विक्टिम का हर तरह से खयाल रखा होता तो वह आत्महत्या करता ही क्यों. जाहिर है, आत्महत्या में परिजन अपनी भूमिका देख डर और सहम जाते हैं. वे इस बात से खौफ खाते हैं कि कहीं उन का सगा वाला भूतप्रेत बन कर परेशान न करे.
बिना गरुड़ पुराण या दूसरा कोई धर्मग्रंथ पढ़ा हर कोई जानता है कि अकाल मौत मरने वाले को मुक्ति नहीं मिलती लेकिन पंडा चाहे तो मुक्ति दिला सकता है. जो वह लाखपचास हजार रुपए ले कर दिलाता भी है. मरने वाला तो ईश्वरीय सत्ता को नकार कर चला गया लेकिन उस के खौफजदा परिजन ईश्वरीय सत्ता नहीं नकार पाते, जो मृतक के फैसले या इच्छा की अनदेखी ही है.
एक अजीब और दोहरी बात यह भी है कि सनातन धर्म में सती होने को आत्महत्या नहीं माना गया था बल्कि इसे पुण्य कार्य माना जाता था. एक पत्नी पति की चिता पर जिंदा जल जाए तो उस का महिमामंडन और पूजापाठ होने लगता था. समाज द्वारा धर्म के नाम पर बलात जिंदा जला दी गई औरत सती मैया करार दे दी जाती थी.
वह तो भला हो राजा राममोहन राय का जिन्होंने अभियान चला कर इस का विरोध किया और लौर्ड विलियम बेटिक से कानून बनवा कर इस कुप्रथा पर अंकुश लगवाया नहीं तो आज गलीगली में सती मैय्या के मंदिर बने होते और पंडा वहां भी पूजापाठ करता, दोनों हाथों से दक्षिणा बटोर रहा होता. इसी तरह राजपूत महिलाओं की सामूहिक आत्महत्याओं यानी जौहर को भी आत्महत्या जैसे जघन्य पाप की श्रेणी से बाहर रखा गया है.
इसलाम में भी आत्महत्या करने वालों को तबीयत से डराया गया है. एक हदीस के मुताबिक जो आदमी खुदकुशी करता है उसे कयामत के दिन उसी तरह की सजा दी जाएगी जिस तरह से उस ने आत्महत्या की है. जैसे अगर वह फांसी लगा कर मरा है तो उसे बारबार फांसी दी जाएगी. अगर उस ने जहर खा कर जान दी है तो उसे बारबार जहर पीने की सजा दी जाएगी. (सहीह बुखारी, किताब अल-जनाइज हदीस न. 1,365, सहीह मुसलिम किताब अल-ईमान हदीस न. 110).
यानी, इस तर्ज पर तो अगर कोई ट्रेन से कट कर मरा है तो उसे बारबार ट्रेन से कट कर मरने की सजा दी जानी चाहिए. अब ऊपर ट्रेनें कहां से और कैसे ले जाई जाएंगी, यह अल्लाह, कहीं हो तो, जाने. हकीकत में कुरान लिखते वक्त ट्रेनें नहीं थीं, इसलिए उन का जिक्र बतौर उदाहरण भी नहीं दिया जा सकता था. इसलिए सजा आत्महत्या के तत्कालीन तौरतरीकों तक सिमटी है जो ऊपर की दुनिया की पोल खोलती हुई है कि वह दुनिया कहीं होती ही नहीं सिवा धर्मग्रंथों के पन्नों के.
दुनिया के सब से बड़े धर्म ईसाई धर्म में भी आत्महत्या को पाप करार दिया गया है. यह ईश्वर द्वारा दिए गए जीवन का अपमान है. लेकिन बाइबिल में इस पाप की कोई सजा निर्धारित नहीं की गई है. (कैथोलिक चर्च की केटकेसिस 2260 – 2263) में कहा गया है कि आत्महत्या एक पाप है. लेकिन गंभीर तनाव, मानसिक बीमारी या अन्य परिस्तिथियों के कारण इस की गंभीरता कम हो सकती है.
कुछ दशकों पहले तक आत्महत्या करने वालों को चर्च के कब्रिस्तान में दफनाने की इजाजत नहीं थी लेकिन अब मिलने लगी है. कैथोलिक प्रोटैस्टैंट और और्थोडौक्स चर्च इस पाप की बाबत ईश्वर से क्षमाप्रार्थना करते हैं.
जैन धर्म में भी आत्महत्या को पाप और मोक्ष में बाधक माना गया है. लेकिन सल्लेखना को नहीं और दिलचस्प बात यह कि सल्लेखना धर्मगुरुओं की निगरानी में समारोहपूर्वक की जाती है. इस में साधक धीरेधीरे मरता है क्योंकि वह क्रमश: खानापीना छोड़ देता है और मरने के लिए यह जरूरी भी है. कहीं साधक डर कर यह मृत्युव्रत बीच में छोड़ या तोड़ न दे, इस बाबत धर्मगुरु और उस के परिजन उस का उत्साह बढ़ाने को मौजूद रहते हैं. वे इसे आध्यत्मिक यात्रा कहते हैं.
क्यों नहीं छोड़ा सुसाइड नोट
हरदीप सिख धर्म से था जिस में आत्महत्या को वाहेगुरु की इच्छा के खिलाफ कार्य माना जाता है, जो आत्मा के जन्ममरण यानी चक्र को प्रभावित कर सकता है. ऐसा माना जाता है कि आत्महत्या करने वाले को मोक्ष नहीं मिलता. इस का आखिरी फैसला वाहेगुरु करते हैं.
ईसाई धर्म की तरह सिख भी अब मानसिक स्वास्थ्य को गंभीरता से लेने लगे हैं. वे इसे अत्यधिक तनाव या मानसिक बीमारी की देन मानने लगे हैं. इस के लिए संगतसेवा की सलाह दी जाती है क्योंकि यह तनाव से नजात पाने का बेहतर तरीका है. लेकिन यह तरीका अगर कारगर होता तो हरदीप परिवार सहित आत्महत्या न करता बल्कि कहीं संगत की सेवा में लगा होता.
पुलिस की मानें तो हरदीप का हाथ इन दिनों तंग था. यानी, वह आर्थिक तनाव से ग्रस्त और त्रस्त थे. आजिज आ कर उन्होंने सपरिवार आत्महत्या का फैसला लिया. मुमकिन है कि यह सच हो लेकिन आजकल के दूसरे कई ऐसे हादसों की तरह इस में भी हैरत की बात यह है कि सुसाइड नोट नहीं छोड़ा गया था. जबकि तय है कि हरदीप खासे पढ़ेलिखे होंगे और दोनों बच्चे हाईस्कूल में थे. अब से कोई 20 साल पहले तक आत्महत्या करने वाला कुछ और करे न करे, सुसाइड नोट लिखने की रस्म जरूर निभाता था. लेकिन अब यह चलन कम हो रहा है.
सोशल मीडिया जब से रोजमर्रा की जिंदगी का हिस्सा बन गया है तब से लोगों के पढ़नेलिखने की आदत छूट रही है. सिर्फ स्कूली बच्चे ही पेन, पैंसिल और कौपी का इस्तेमाल कर रहे हैं या फिर वे लोग कर रहे हैं जिन का काम बिना पढ़ेलिखे नहीं चलना, मसलन प्रिंट मीडिया और अदालतें वगैरह.
कहने का मतलब यह कि अब ‘वह’ पढ़नालिखना खत्म सा है जिस से जानकारियां, ज्ञान, समाचार, तर्क, विश्लेषण, मशवरा वगैरह मिलते थे और कुछ इस ढंग से मिलते थे कि बुद्धि और तर्कक्षमता भी निखरती थी और किसी भी विषय पर सोचने के काफी कुछ पहलू मिलते थे.
अब जब सबकुछ औनस्क्रीन है तब गिनती के लोग ही पत्रपत्रिकाएं पढ़ रहे हैं. उन लोगों की गिनती तो उंगलियों पर की जा सकती है जो अपने काम से इतर कुछ लिख रहे हैं. अब फिर से बात हरदीप और उन के परिवार की जिन से सुसाइड नोट भी लिखते न बना. क्यों, क्योंकि वे भी स्मार्टफोन के आदी हो गए थे. एक ऐसी आभासी दुनिया में और लोगों की तरह वे भी रह रहे थे जहां कहने को ही हजारों लोग आपस में जुड़े रहते हैं जबकि हकीकत में इर्दगिर्द कोई नहीं होता सिवा मैं और मेरे स्मार्टफोन के जिस ने लोगों को कुछ इस तरह तनहा कर दिया है कि वे अपनी तनहाई से भी बात नहीं कर सकते.
रिश्तों में पड़ती दरार
हरदीप दुनिया, समाज, परिवार और दोस्तों से इतने कट गए थे कि उन्हें कोई अपना नजर नहीं आ रहा था जिस से वे अपनी परेशानी शेयर कर पाते. आर्थिक तंगी कोई ऐसा बड़ा या अहम मसला नहीं होता जिसे हल न किया जा सके. फिर हरदीप का ठीकठाक कारोबार था, घर था, दुकान थी, कारोबारी दोस्त और रिश्तेदार थे. मांगते तो कोई तो उन की मदद करता पर इस तरफ लगता है उन्होंने सोचा ही नहीं और अगर सोचा भी होगा तो उन के स्वाभिमान ने किसी के सामने हाथ फैलाने की इजाजत उन्हें न दी होगी.
यहां बात एमाइल दुर्खीम की थ्योरी के मुताबिक समाज और रिश्तों पर आ कर अटक जाती है कि क्यों कोई किसी को इस लायक भी नहीं समझता कि उस से सलाह ले सके, अपनी समस्या का समाधान पूछ सके. अब से कुछ सालों पहले तक यह काम एक सीमा तक पत्रपत्रिकाएं करते थे. उन के लेखों और कहानियों में एक समस्या और उस का समाधान भी होता था.
पाठक अपनी समस्या पढ़ कर उन से कनैक्ट हो जाता था या फिर सीधे पत्र लिख कर संपादक से पूछ सकता था. समस्याओं के समाधान के लिए एक स्तंभ ही अलग से होता था. आज भी जो चुनिंदा पत्रिकाएं छप और बिक रही हैं उन में आज भी यह कौलम है. दिल्ली प्रैस की पत्रिकाएं सरिता, मुक्ता, गृहशोभा और सरस सलिल में ये स्तंभ किसी न किसी नाम से जारी हैं.
पत्रिकाओं की रचनाओं में मनोरंजन भी होता था और विविधता भी होती थी. सोशल मीडिया जैसा भोथरा और खोखला ज्ञान नहीं होता था जिन से कुछ हल मिलने के बजाय कचरा सामग्री ज्यादा मिलती है जो किसी काम की नहीं होती. मुट्ठी में कैद इस स्क्रीन ने लोगों से लिखनेपढ़ने की आदत छीन ली जो अभिव्यक्ति का एक सशक्त माध्यम हुआ करती थी. ऐसा नहीं कि तब लोग आत्महत्या नहीं करते थे. करते थे, लेकिन उस की दर कम थी क्योंकि यह आखिरी विकल्प हुआ करता था.
आर्थिक दिक्कतें बनीं वजह
हरदीप उस दौर में होते तो अव्वल यह नौबत आने की संभावना कम थी कि बाहर से तो वे पैसे वाले दिखते लेकिन हकीकत में थे नहीं. पढ़ाईलिखाई के दौर से ले कर अब तक लेख और कहानियां यह नसीहत देते रहे हैं कि अपनी आमदनी से ज्यादा खर्च मत करो. चादर के मुताबिक पैर पसारने की बात अब कम ही सुनने में आती है क्योंकि हर तरह का लोन अब आसानी से मिल रहा है. लोग दिखावे के लिए बेतहाशा खर्च कर रहे हैं. आम आदमी बैंकों के कर्जे में गलेगले तक डूबे ब्याज की दलदल में धंसे जा रहे हैं. यही हरदीप के साथ हो रहा था.
दूसरे, हरदीप के बच्चे महंगे स्कूल में पढ़ रहे थे जिन की फीस भी उन्हें भारी पड़ने लगी थी. पैसा हो तो महंगे स्कूल की पढ़ाई एतराज की बात नहीं लेकिन आप फीस भी अफोर्ड न कर पा रहे हों तो बच्चों को सस्ते स्कूल में पढ़ाने का मशवरा सोशल मीडिया पर नहीं मिलता. वह पत्रिकाओं में ही मिलता है. अब आप अगर पत्रिकाएं पढ़ ही न रहे हों तो इस की कीमत तो आप को चुकानी पड़ेगी ही.
सुसाइड नोट लिखना छोड़ना इसलिए भी कम हो रहा है कि 20-25 हजार रुपए का फोन रखने वालों के पास 5-10 रुपए का पेन और मुफ्त के भाव का कागज भी नहीं होता. यह एक मनोवैज्ञानिक सच है कि जब आप कुछ लिखते हैं, खासतौर से अपनी कोई समस्या, तो आप का मन हलका होता है और कई बार लिखतेलिखते ही समस्या का समाधान दिखाई देने लगता है या कि महसूस होने लगता है. इस से जीने की ललक बढ़ती है और निराशा कम होती है.
एक आंकड़े के मुताबिक, आत्महत्या करने वालों में से लगभग 15 से 40 फीसदी ही सुसाइड नोट छोड़ते हैं. जापान जैसे देश में यह दर 30 फीसदी है. भारत के बारे में आंकड़ा उपलब्ध नहीं है क्योंकि इस दिशा में कोई काम या अध्ययन नहीं हो रहा. लेकिन समाचारपत्रों में छप रही खबरों पर गौर करें तो 50 फीसदी मामलों में ही लोग सुसाइड नोट छोड़ रहे हैं. भोपाल के 10 मामलों में से 5 में सुसाइड नोट नहीं मिल रहे हैं, यह हालत देशभर की भी हो सकती है.
सुसाइड नोट क्यों जरूरी
सुसाइड नोट लिखने का अपना एक अलग मकसद हुआ करता है या था जिसे साहित्यिक व दार्शनिक भाषा में कहें तो स्वयं को उद्घाटित कर देने का है. अगर विक्टिम किसी से पीड़ित है तो उसे कठघरे में जरूर खड़ा करता था. एक तरह से यह आत्मअभिव्यक्ति थी कि मरने के बाद लोग अन्यथा कुछ कयास न लगाने लगें.
दूसरे, पुलिस परिजनों को परेशान न करे, यह अपील हर दूसरे सुसाइड नोट में हुआ करती थी कि मैं अपनी मरजी से आत्महत्या कर रहा/रही हूं. मेरी मौत के बाद मेरे परिवार वालों को परेशान न किया जाए.
इस का कम होता रिवाज बताता है कि लोग खुद को व्यक्त ही नहीं कर पा रहे हैं. इस की भी वजह यह है कि सोशल मीडिया ने उन से यह मौका या अधिकार कुछ भी कह लें छीन लिया है. वहां सिर्फ दूसरों की सुननी पड़ती है जिन से आप का दूरदूर तक कोई वास्ता नहीं होता.
भोपाल के एक कालेज के प्रोफैसर बताते हैं कि 80 के दशक में कालेज के दिनों में मैं प्यार के चक्कर में पड़ गया था और असफल होने पर आत्महत्या करने का भी मन बना चुका था. लेकिन एक दिन कालेज की लाइब्रेरी में एक मैगजीन में एक लेख पड़ा जिस में यह बताया गया था कि आप के बाद आप के अपनों पर क्या गुजरती है.
सोशल मीडिया पर इतनी गहराई तो क्या उथलेपन से भी यह पढ़ने को नहीं मिलता कि प्यार या पढ़ाई में या जिंदगी के किसी भी मोरचे पर नाकाम होने पर आत्महत्या की बात सोचना अपनों के साथ ज्यादती है, क्रूरता है और आदमी दुख सह कर, झटके खा कर हौसला रखे यानी जिंदा रहे तो काफीकुछ हासिल कर सकता है.
वह सबकुछ आज मेरे पास है जिस के अरमान मैं ने जवानी के दिनों में संजोए थे और सपने देखे थे. इन प्रोफैसर साहब के मुताबिक, अगर उस वक्त वे अपने फैसले पर अमल कर डालते तो सब से ज्यादा दुख उन के मांबाप और भाईबहनों को होता जिन्होंने एमपी पीएससी में मेरे सलैक्ट होने पर जश्न मनाया था.
अब तो खासतौर से बड़े शहरों में जश्न मनाने और अर्थी को कंधा देने को भी चार लोग जुटाना मुश्किल होता जा रहा है. समाज में आए बदलावों की वजहें कुछ भी हों, उन्होंने आदमी को भी इतना बदल दिया है कि वह एक हद तक ही दुनिया में खुद को फिट और सहज महसूस करता है. और जब यह हद भी टूट जाती है या बरदाश्त नहीं होती तो वह झट से खुदकुशी कर लेता है.
सोशल फिटनैस है जरूरी
सोशल फिटनैस के लिए किसी तरह की उल्लेखनीय पहल कहीं होती नहीं दिख रही है. यह सोचना बेमानी है कि धर्म और राजनीति वे प्लेटफौर्म्स हैं जो लोगों को जोड़े रखे हुए हैं. हकीकत तो यह है कि इन्हीं दोनों की वजह से लोगों में गोत्र तक की दूरियां बढ़ रही हैं.
भीड़ इकट्ठी होना सोशल फिटनैस या मेलमिलाप का उदाहरण नहीं होता, खासतौर से तब जब यह भीड़ अपनी खुदगर्जी और कारोबार के लिए जुटाई जाती हो. फसाद की असल जड़ समाज का तेजी से विघटित होना है जिस का असर हरदीप जैसे खासे खातेपीते लोगों पर कुछ इस तरह पड़ता है कि किसी को हवा भी नहीं लगती कि असल में वे किस परेशानी से हार रहे हैं.
हरेक आत्महत्या की वजह देखनेसुनने में ही अलग लगती है, जिन्हें एक सूत्र में पिरोया जाए तो वजह थोपे गए सामाजिक कायदे, कानूनों और बंदिशों को मानने की मजबूरी ही निकलती है.
राष्ट्रीय अपराध रिकौर्ड ब्यूरो यानी एनसीआरबी की साल 2019 की एक रिपोर्ट के मुताबिक पारिवारिक समस्याओं के चलते 32.4 फीसदी लोग आत्महत्या करते हैं. इस के बाद दूसरी वजह बीमारियों से तंग आए लोगों की है जिन का फीसदी 17.1 है.
नशे की गिरफ्त में आ कर 5.6 फीसदी लोग खुदकुशी करते हैं तो 5.5 फीसदी लोग विवाह संबंधी मुद्दों को ले कर अपनी जान दे देते हैं. प्रेमप्रसंग के चलते 4.5 फीसदी, तो कर्ज में डूब कर आत्महत्या करने वालों की संख्या 4.2 फीसदी है. बेरोजगारी, परीक्षा में असफलता के चलते 2-2 फीसदी लोग आत्महत्या करते हैं. इस के बाद जो कारण आत्महत्या के हैं उन में से हरेक का फीसदी एक से कम है. मसलन प्रियजन की मृत्यु, अवैध संबंध, बां?ापन और नपुंसकता व सामाजिक प्रतिष्ठा में गिरावट होना आदि.
इन में से असाध्य बीमारियों वाली वजह को छोड़ दें तो लगभग सारी वजहें किसी न किसी रूप में समाज के इर्दगिर्द की ही हैं. लेकिन हैं तो, अब जरूरत आत्महत्याओं की दर को कम करने की है क्योंकि जीने का हक सभी को है.
यह सच है कि आत्महत्या किसी के लिए भी आखिरी विकल्प होता है पर उस तक पहुंचने से पहले हरदीप जैसों को कैसे रोका जाए, इस पर गौर किया जाना जरूरी है. मौजूदा सामाजिक विसंगतियों को दूर करने के लिए जरूरी है कि हम सभी मानसिक रूप से मजबूत समाज के निर्माण में भागीदार बनें.