आरएसएस के एक प्रमुख प्रचारक इंद्रेश कुमार जयपुर के पास कनोता में रामरथ अयोध्या यात्रा दर्शन पूजन समारोह में बोल रहे थे. उन्होंने कहा, राम सब के साथ न्याय करते हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव को ही देख लीजिए. जिन्होंने राम की भक्ति की उन में धीरेधीरे अहंकार आ गया. उस पार्टी को सब से बड़ी पार्टी घोषित कर दिया गया. उन को जो पूर्ण हक मिलना चाहिए जो शक्ति मिलनी चाहिए वो भगवान ने अहंकार के कारण रोक दी.

जिन्होंने राम का विरोध किया उन्हें बिलकुल भी शक्ति नहीं दी. उन में से किसी को भी शक्ति नहीं दी, सब मिला कर भी नम्बर 1 नहीं बने, नम्बर 2 पर खड़े रह गए. इसलिए प्रभु का न्याय विचित्र है. सत्य है आनंददायक है.

इंद्रेश कुमार प्रवचन कर रहे थे या लोकसभा चुनाव का विश्लेष्ण कर रहे थे यह कहना और समझना मुश्किल नहीं है लेकिन एक बात जो उन्होंने तुक की कही और जिस के लिए उन्होंने रामकथा सी भूमिका बांधी वह बात महज इतनी सी थी कि भाजपा की दुर्गति आनंददायक है. रही बात चुनावी विश्लेष्ण की तो वे भी भूल गए यह लोकतंत्र है जिस में न्याय या चयन कोई भगवान राम नहीं बल्कि जनता करती है. और राम अगर न्यायप्रिय होते तो सीता, शूर्पनखा, बालि और शम्बूक के प्रति जो उन्होंने किया वह किस एंगल से न्याय होता है यह तो उन का राम जाने.

यह सोचना भी बेमानी है कि आरएसएस और भाजपा में कोई सैद्धांतिक या वैचारिक मतभेद हैं. दोनों का मकसद एक ही है मनुवाद थोपना और भारत को हिंदू राष्ट्र बनाना. भाजपा तो संघ का सियासी टूल है जिस में सभी जातियों वर्गों के लोग हैं. लेकिन खुद संघ पर एक जाति विशेष के लोगों का कब्जा शुरू से ही रहा है. यह जाति चितपावन ब्राह्मण है.

विकिपीडिया में इस समुदाय के बारे में लिखा गया है कि, चितपावन ब्राह्मण या कोकणस्थ ब्राह्मण महाराष्ट्र राज्य के तटीय क्षेत्र में रहने वाला एक हिंदू महाराष्ट्रीय ब्राह्मण समुदाय है. 17वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में संदेशवाहक और जासूस के रूप में काम करने वाले इस समुदाय ने 18वीं शताब्दी में तब प्रसिद्धि पाई जब बालाजी विश्वनाथ के भट परिवार से पेशवा के उत्तराधिकारी मराठा साम्राज्य के वास्तविक शासक बन गए. 18वीं शताब्दी तक कर्नाटक, महाराष्ट्र क्षेत्र के पुराने स्थापित ब्राह्मण समुदाय देशस्थ द्वारा चितपावनों को कम सम्मान दिया जाता था.

अव्वल तो हिंदुओं में सभी जातियों की उत्पप्ति या उद्भव की एक दिलचस्प कहानी है. इस समुदाय की भी कम दिलचस्प नहीं. स्कन्द पुराण के एक प्रसंग के मुताबिक भगवान विष्णु के छठे अवतार परशुराम जो अपने अनुष्ठान के लिए कोंकण में कोई ब्राह्मण नहीं ढूंढ पाए तो उन्होंने 60 मछुआरों को पाया जो समुद्र तट के पास एक अंतिम संस्कार की चिता के पास एकत्र हुए थे. इन 60 मछुआरा परिवारों को शुद्ध किया गया और ब्राह्मणत्व के लिए संस्कृत किया गया. चूंकि अंतिम संस्कार की चिता को चिता और शुद्ध पावना कहा जाता है इसलिए इस समुदाय को तब से चितपावन या अंतिम संस्कार की चिता के स्थान पर शुद्ध नाम से जाना जाता था.

इतिहासकारों में हालांकि चितपावन ब्राह्मणों को ले कर जो कुछ मतभेद हैं वे भी कम दिलचस्प नहीं लेकिन आरएसएस का जनक यही समुदाय है जो हिंदू राष्ट्र का कट्टर हिमायती रहा है और ब्राह्मणवाद फैलाना भी इस का मकसद रहा है. इसी समुदाय के कुछ चर्चित नामों को सुन कर ही यह धारणा तथ्य में बदल जाती है ये कुछ नाम हैं – विनायक दामोदर सावरकर, नाना फडवनीस, बाल गंगाधर तिलक, गोपाल कृष्ण गोखले, विनोबा भावे, नाथूराम गोडसे, नारायण आप्टे, गोपाल गोडसे और संघ के संस्थापक केशव बलिराम हेडगेवार से ले कर वर्तमान मुखिया मोहन भागवत तक सभी चितपावन ब्राह्मण हैं जिन में हिंदू राष्ट्र की जिद जूनून की हद तक मौजूद है.

इस जूनून के पीछे की वजह यह भी है कि चितपावन ब्राह्मण हिंदुत्व के सूत्र अपने हाथ में रखना चाहते हैं. इसलिए अपवादों को छोड़ कर ही आरएसएस का मुखिया चितपावन ब्राह्मण ही रहा. दरअसल में चितपवानों को दूसरे ब्राह्मण सम्मान नहीं देते हैं और उन से रोटीबेटी के रिश्ते करने से भी कतराते रहे हैं. यह अनदेखी और अपमान आक्रामक तरीके से चितपावन ब्राह्मणों में आया तो वे देखते ही देखते हिंदुत्व के ठेकेदार और पैरोकार बन बैठे. लेकिन आज भी उन्हें स्थानीय ब्राह्मण ब्राह्मणों सरीखा दर्जा नहीं देते लेकिन काम उन्हीं की छत्रछाया में करते हैं.

हिंदू राष्ट्र के अपने मकसद को परवान चढ़ाने आरएसएस ने तबियत से पूजापाठ मठमंदिरों के कारोबार को हवा दी जिस का फायदा दूसरे ब्राह्मणों ने उठाया. मनुवादी होने के नाते वे भी चाहते हैं कि युग पौराणिक हो या लोकतंत्र का हो उन का धंधा फलताफूलता रहे समाज के नुकसान से इन्हें भी कोई सरोकार या वास्ता नहीं.

भीमराव आंबेडकर संघ को बीमार लोगों का संगठन बताते थे. अपनी किताब जातियों के विनाश में उन्होंने इस विषय पर विस्तार से व्याख्या की है जो कहीं से भी अतार्तिक नहीं लगती. मौजूदा दौर के नेता भी संघ को कटघरे में खड़ा करने का कोई मौका नहीं चूकते खासतौर से कांग्रेस और राहुल गांधी तो हर कभी हमलावर रहते हैं.

इंद्रेश कुमार के बयान से जो बबंडर सियासी गलियारों में मचा है उस पर कांग्रेस नेता और प्रवक्ता पवन खेड़ा कहते हैं कि आरएसएस को कोई गंभीरता से नहीं लेता तो हम क्यों लें. आरएसएस वक्त पर क्यों नहीं बोला कि भाजपा और मोदी अहंकारी हो चले हैं और अहंकार के ये बीज बोए भी तो उसी ने थे. आरएसएस ने भी सत्ता का सुख लिया. इंद्रेश कुमार के विपक्ष को रामद्रोही कहने पर भी उन्होंने एतराज दर्ज कराया.

अब तो इस वाक युद्ध में जेडीयू भी कूद पड़ी है जिस का असर गठबंधन सरकार पर पड़ सकता है. जेडीयू के एक एमएलसी खालिद अनवर के मुताबिक इंद्रेश कुमार आरएसएस के बड़े नेता हैं इन के ऊपर आतंकवाद और ट्रेन ब्लास्ट के आरोप थे. जब भाजपा की सरकार आई तो इन को मुक्ति मिली. भाजपा का अगर बुरा हाल हुआ है तो इस पर वही मंथन करेगी इस में आरएसएस को नहीं पड़ना चाहिए.

लेकिन इस पचड़े में पड़ना आरएसएस की एक चालाक मजबूरी हो गई है. जिस का मकसद या याद दिलाना है कि भाजपा को सत्ता के शिखर तक पहुंचाया तो हम ने ही है. तय है पवन खेड़ा हों या खालिद अनवर वे यह भी बेहतर जानते हैं कि संघ और भाजपा का रिश्ता पिता पुत्र सरीखा है. यह और बात है कि बेटे के पांव में पिता का जूता आ जाने के बाद भी पिताजी जूते पर से अपनी दावेदारी नहीं छोड़ रहे.

असल में भाजपा की दुर्गति और फिर उस का गठबंधन सरकार बना लेना वह भी जद यू और टीडीपी जैसे सैक्युलर दलों के साथ, संघ को हजम नहीं हो रहा. इस से उस की की हिंदू राष्ट्र और मनुवाद थोपने की मुहिम खटाई में पड़ने लगी है. शपथ के पहले ही नरेंद्र मोदी का संविधान को माथे से लगाना इस का आगाज ही है.

रही बात अहंकार की तो वाकई में मोदी अहंकारी हो गए थे. चुनाव प्रचार अभियान उन्ही के इर्दगिर्द रहा था. वोट भाजपा के नहीं बल्कि मोदी के नाम पर मांगे गए थे. गारंटी भी मोदी की दी गई थी भाजपा की नहीं. बातबात में मोदी मैंमैं करते रहे थे और आखिर में तो खुद को नौन बायोलौजिकल बता कर अहंकार की सीमाएं पार कर दी थीं.
4 जून को वोटर ने दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया. इस सदमे से मोदी और भाजपा मुद्दत तक उबर पाएंगे ऐसा लग नहीं रहा. इंद्रेश कुमार जैसे संघियों को भी समझना चाहिए कि वोट धर्म हिंदुत्व या राम के नाम पर नहीं पड़ा है और मोदी अगर संघ को भाव नहीं दे रहे तो यह राजनीति का पौराणिक सिद्धांत भी है कि इस में बाप पर भी भरोसा न करने की नसीहत हर कोई देता है.

बेहतर तो यही है कि संघ, भाजपा और मोदी को अब हिंदू राष्ट्र के लिए नहीं बल्कि धर्म निरपेक्ष भारत के लिए काम करना चाहिए. राम नाम का जप छोड़ देना चाहिए जिस का राष्ट्रीय स्वाभिमान से कोई लेनादेना नहीं. इस के बाद भी वे वाज नहीं आते हैं तो जनता है, उस का विवेक और शक्ति है जो उन्हें और नीचे ला पटकेगी. राम ने नहीं बल्कि जनता ने यह फैसला दिया है कि मोदी और भाजपा सैक्युलर पार्टियों से दब कर और डर कर जनहित के काम करें, नहीं मानेंगे तो विकल्प भी जनता के सामने हैं जिस को शक्ति भी उसी ने दी है.

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