कश्मीर की समस्या का समाधान क्या सेना निकाल सकती है? हमारे लिये यह सवाल है, मगर केंद्र की मोदी सरकार इस निर्णय पर पहुंच चुकी है, कि हथियारों के साथ वार्ता ही समस्या का समाधान है.

गोलियां दागे, पैलट गन का उपयोग करे, कर्फ्यू हो और वार्ताओं की पेशकश भी हो और यह हिदायतें भी हों, कि जनाब, संभल कर बात करें, हम घुस कर मारते भी हैं. ‘घुस कर मारने‘ को सरकार अपनी ऐसी उपलब्धि समझ रही है, जिसमें सेना की बेबाक स्थिति है.

आप सवाल नहीं कर सकते. यह देश और सेना की भावनाओं के खिलाफ है.

अंजाने ही, या सोच समझ कर, आप यह कह रहे हैं, कि देश और सेना एक है. सरकार की सोच यह है, कि दोनों पर उसकी पकड़ है, इसलिये राजनीतिक हितों को साधने के लिये सेना को जरिया बनाना कारगर नीति है.

एक तस्वीर छपी इस खबर के साथ कि गांदरबल में सेना क्रिकेट प्रतियोगिता करा रही है. तस्वीर में दो जवान दस-बारह साल के पांच-सात लड़कों से हाथ मिला रहे थे जिन्हें खिलाड़ी कहा गया. एक बल्ला भी दिख रहा था मैदान से टिका हुआ. सेना जिला, तहसील और गांवों में ‘आवामी मुलाकात‘ का आयोजन कर रही है. विश्वास बहाली के लिये स्कूल और दुकानें खुलवायी जा रही हैं. खबर लिखने वाले ने इसे ‘मुन्ना भाई की झप्पी‘ कहा. हम क्या कहें? यह हमारी समझ से बाहर है.

हमारे खयाल से यह कश्मीर की समस्या को छोटा बनाना, गलत दिशा देना और वहां की आम जनता को धोखा देना है. हमारे खयाल से यह सेना के खतरे को बढ़ाना है.

यदि सेना की भूमिका राजनीति में बढ़ती चली जायेगी, तो आने वाले कल में सेना सरकार का उपयोग कर सकती है. वैसे भी, भारतीय लोकतंत्र के भीतर वित्तीय ताकतों ने, भाजपा और मोदी के जरिये, अपनी सरकार बना ली है, जिसमें सेना की हिस्सेदारी उनके हित में है. भारत में साम्राज्यवादी सहयोग से फासीवाद सेना को अपना सहयोगी बनाने में लगी है. जो कश्मीर या देश की किसी भी समस्या का समाधान नहीं.

 

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