धर्म की दुकानदारी अंधभक्तों की भीड़ को सुख के सपने दिखाने पर टिकी है और बौद्ध धर्म इस बीमारी का अपवाद नहीं है. बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा भोपाल में नया कुछ नहीं बोले,  धर्म गुरुओं के पास नया कुछ बोलने को है भी नहीं. तमाम धर्म गुरु अपने बासे सिद्धांतों को नए शब्द देकर परोसते रहते हैं, ठीक वैसे ही जैसे होटल ढाबे वाले रात की बासी दाल सब्जी को दोबारा फ्राय कर पैसा बनाते हैं. ग्राहक भी गरम और चटपटा खाकर जीभ के स्तर पर संतुष्ट हो लेता है, दिक्कत तब खड़ी होती है जब कभी ज्यादा बासी खाना पेट में जाकर बीमार कर देता है.

दलाई लामा भी इस मानसिक अपच का शाब्दिक इलाज करते हुये कुछ चलताऊ बातें कर चलते बने. उन्होंने वही बोला जो स्वेट मार्टेन से लेकर शिव खेड़ा तक बोलते रहे हैं, मसलन मन में सुख है तो गरीब भी खुश है और मन में सुख नहीं तो अमीर भी प्रसन्न नहीं. भारतीय मनोवैज्ञानिक पद्धतियां सबसे उत्तम हैं. यानि हर हाल में खुश रहो और भजन करते रहो. पंडो धर्म गुरुओं को धर्म कर देते रहो तो दुख की अनुभूति नहीं होगी.

मध्य प्रदेश के मुख्य मंत्री शिवराज सिंह चौहान के धार्मिक अनुष्ठान नर्मदा सेवा यात्रा में रामदेव बाबा और श्री श्री रविशंकर के बाद दलाई लामा एक अलग फ्लेवर थे, जो पूरी तरह आरएसएस की भाषा बोलते रहे कि गांवों का विकास होना चाहिए. सार ये कि बढ़ता शहरीकरण धर्म का दुश्मन है, क्योंकि शहर जाकर गांव वाले एक नए माहौल में ढल जाते हैं, जिसमे भूख प्रधान होती है. धर्म तो इन  पलायनवादियों के लिए एच्छिक भी नहीं रह जाता. चीन की किरकिरी बने दलाई लामा जाने क्यों बौद्ध धर्म के बुनियादी उसूलों से कन्नी काटते दिखे कि नदी पहाड़ पेड़ वगैरह पूजने की नहीं उपभोग की चीजें हैं और इनको पुजवाकर भी पैसा बनाने वाले लुटेरे नहीं तो और क्या हैं.

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