ब्रजेश पाठक बसपा में उस समय जुडे थे जब बसपा का ब्राह्मणों से दूध और नींबू जैसा रिश्ता था. ब्रजेश लखनऊ विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति से आगे बढ़े थे. बसपा में लंबे समय तक रहे. बसपा में ब्रजेश को ब्राह्मण समाज का बड़ा चेहरा माना जाता था. ब्रजेश पाठक के समय केवल रामवीर उपाघ्याय ही ब्राह्मण नेता थे जो बसपा में थे. सतीश मिश्रा ने बसपा बाद में ज्वाइन की थी. 2007 के विधानसभा चुनावों में बसपा सुप्रीमो मायावती ने ‘सोशल इंजीनियरिंग’ का नारा दिया था. उस समय तमाम ऊंची जातियां बसपा के पक्ष में खड़ी थी, यह वह लोग थे जो समाजवादी पार्टी में जा नहीं सकते थे और भाजपा-कांग्रेस में जाने से कोई लाभ नहीं दिख रहा था.
2007 का विधानसभा चुनाव जीत कर मायावती ने बहुमत की सरकार बनाई तो इस जीत का श्रेय ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के बजाय कुछ ब्राह्मण नेताओं को दिया जाने लगा. उस समय इस जीत के लिये प्रयास करने वाले ब्रजेश पाठक जैसे लोगों को दरकिनार किया जाने लगा. बसपा के ब्राह्मण नेताओं में उस समय की खींचतान शुरू हो गई थी.
उत्तर प्रदेश में दलित जातियों का बड़ा समूह है. जिसका वोटबैंक बड़ा है. यह वोट बैंक बहुत समय पहले तक केवल बसपा के साथ खड़ा होता था. अब इस वोट बैंक में भी अलग अलग जातियों के समूह बन गये हैं. हर समूह के तमाम छोटे बड़े नेता हो गये हैं. यह नेता अब बसपा में अपना अलग स्थान और महत्व चाहते हैं. मायावती ने इन सबको दबा कर रखा था. चुनाव के समय जब इनको दूसरी पार्टियों ने महत्व देना शुरू किया तो बसपा में भगदड़ मच गई. परेशानी की बात यह है कि बसपा को अब यह पता नहीं चलता कि उनका कौन सा नेता कब कहां जा रहा है. बसपा को हमेशा दूसरे नेता के दूसरी पार्टी में शामिल हो जाने के बाद पता चलता है कि वह चला गया है. ब्रजेश पाठक से लेकर आरके चौधरी और स्वामी प्रसाद मौर्य तक यही देखने को मिला है.