आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत और बसपा प्रमुख मायावती दोनों एक दूसरे को उकसा रहे हैं , हालांकि मायावती के मुंह लगना, भागवत की शान और उसूल दोनों के खिलाफ है, लेकिन उनकी मजबूरी यह है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा कतई अच्छी स्थिति में नहीं है, ऐसे में यह जरूरी हो चला है कि बात मुद्दों और नरेंद्र मोदी के कार्यकाल की उपलब्धियों की न होकर हिन्दुत्व के इर्द गिर्द इस तरह रहे कि दलितों के दामन पर किसी तरह के छींटे न पड़ें.

आगरा में मोहन भागवत ने हिंदुओं को ज्यादा बच्चे पैदा करने का मशवरा दिया, तो आगरा में ही मौजूद मायावती ने बात दिल्ली तो दूर की बात है प्रतिक्रिया के लिए लखनऊ भी नहीं जाने दी और मंच से तुरंत वह सवाल पूछ डाला जो अक्सर ज्यादा बच्चे पैदा करने के हिंदुवादी संगठनों की सलाह पर आम लोगों की जुबां और जेहन मे आता है कि बच्चे तो हम पैदा कर लें पर उन्हें पालने पोसने की ज़िम्मेदारी क्या मोदी सरकार लेगी. मायावती ने फ़ौरीतौर पर हाट लूट ली पर शायद यह नहीं समझ पाईं कि भागवत का मशवरा हिंदुओं के लिए था, दलितों के लिए नहीं, इसलिए पहले उन्हे भागवत से यह स्पष्ट करवा लेना चाहिए कि दलितों को  किस तरह का हिन्दू वे मानते हैं शूद्र, बौद्ध या फिर हरिजन.

मनुवाद और मनुवादियों से मायावती का बैर क्यों खत्म हो चला है और दलितों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा, बिलाशक इस मसले पर एक तात्कालिक शोध की जरूरत है, क्योंकि भाजपाइयों और संघियों द्वारा गले लगाए जाने के बाद भी दलितों की हालत यानि बदहाली ज्यों की त्यों है. क्या गुजरात के ऊना से मायावती ने हमदर्दी दिखाने भर का सबक वोटों के लिए सीखा है, इस सवाल का जबाब भी कम से कम जागरूक और शिक्षित हो चले दलित चाहते हैं, जिससे दलित अत्याचारों पर मायावती का रुख साफ हो. भाजपा और भज भज मंडली की दलितों से हमदर्दी अगर दिखावा और छलावा है तो बसपा की ईमानदारी भी शक के दायरे में है जो जाने क्यों उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों के वक्त में ही फट पड़ रही है.

बसपा को सत्ता इसलिए नहीं मिली थी कि वह दलित हिमायती दल है बल्कि इसलिए मिली थी कि भाजपा और कांग्रेस सहित तमाम दूसरे दल मनुवादी थे लेकिन भाजपा ने ठीक वक्त पर चोला उतार फेका है जिसकी हकीकत मायावती दलितों को नहीं बता पा रहीं कि दरअसल में भाजपा अब आर्थिक मनुवाद फैलाने पर उतारू हो आई है. स्मार्ट सिटी की अवधारणा इसकी बेहतर मिसाल है जिससे फ़ायदा शहरी सवर्णों को होगा, गांव देहातों मे अगड़ों का कहर झेल रहे दलितों को इससे कोई फ़ायदा नहीं होने वाला. रही बात ज्यादा बच्चे पैदा करने की तो यह अपील उन दलितों से नहीं की गई थी जो अभी भी बच्चे पैदा करने के मामले में उदार हैं, बल्कि उन ऊंची जाति बालों से की गई थी जो एक से ज्यादा बच्चा पैदा करने में कतराने लगे हैं.

भागवत की नजर में ये ही असल हिन्दू हैं, दलित तो कहने भर को उनके भाई हैं, जैसे राम के साथ हनुमान और जामवंत थे. चुनावी समर के लिए मायावती ने भागवत के रूप मे योद्धा तो ठीक चुना है, पर लड़ाई गलत ढंग से लड़ रही हैं, जो उन्हे महंगी भी पड़ सकती है. इससे पहले उन्होंने मोहन भागवत के इस बयान पर बबाल मचाने की कोशिश की थी की औरतें रसोई में ही अच्छी लगती हैं, किसी और फील्ड में नहीं, तब मायावती ने ओलंपिक की पदक विजेताओं साक्षी मालिक और पी वी सिंधु की मिसाल दी थी, लेकिन कमजोर प्रचार तंत्र के चलते वे इसे बड़े पैमाने पर असरदार तरीके से नहीं बता पाईं थी कि इन हिंदुवादियों की नजर में औरतों और शूद्रों में कोई खास फर्क नहीं है ये दोनों ही प्रताड़ना के अधिकारी हैं.

जाहिर है जब तक मायावती अपने पुराने अवतार तिलक, तराजू और तलवार ….पर वापस नहीं आतीं तब तक तमाम विश्लेषकों और सर्वेक्षणों में उत्तर प्रदेश मे बसपा की सीटों का आंकड़ा सौ के आस पास ही घूमता रहेगा और यही भागवत चाहते हैं.        

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...