कब तक जवानों की आहुति देते रहेंगे हम?

अब आगे पढ़े-

सामाजिक जीवन में हर इंसान सुकून भरी जिन्दगी जीना चाहता है, मगर उन लोगों की जिन्दगी कैसी होती होगी, जो हर पल डर, भूख,जिल्लत, उत्पीड़न, बलात्कार और गोलियों का सामना करते गुजारते हैं. उनकी पीड़ा का अन्दाजा हम शहर में सुकून की जिन्दगी बसर कर रहे लोग कभी लगा ही नहीं सकते. असमानता और दमन से विद्रोह पैदा होता है और नक्सलवाद भी इसी दमन और असमानता का नतीजा है. भारत के एक फीसद लोगों ने देश के 73 फीसदी धन पर कब्जा किया हुआ है. यकीनन इस तरह की असमानताओं में हमेशा असंतोष के बीज होते हैं, जिनमें विद्रोह पैदा करने की क्षमता होती है.

‘नक्सलवादी विचारधारा’ एक आंदोलन से जुड़ी हुई है. 1960 के दशक में कम्युनिस्टों यानी साम्यवादी विचारों के समर्थकों ने इस आंदोलन का आरम्भ किया था. इस आंदोलन की शुरुआत पश्चिम बंगाल के दार्जिलिंग जिले के गांव नक्सलबाड़ी से हुई थी, इसलिए यह नक्सलवादी आंदोलन के रूप में चर्चित हो गया. इस आंदोलन में शामिल लोगों को कभी-कभी माओवादी भी कहते हैं. नक्सलवादी और माओवादी दोनों ही आंदोलन हिंसा पर आधारित हैं. लेकिन, दोनों में फर्क यह है कि नक्सलवाद बंगाल के नक्सलबाड़ी में विकास के अभाव और गरीबी का नतीजा है, जबकि चीनी नेता माओत्से तुंग की राजनीतिक विचारधारा से प्रभावित मुहिम को माओवाद का नाम दिया गया. दोनों ही आंदोलनों के समर्थक भुखमरी, गरीबी, अत्याचार, सामंतवादिता और बेरोजगारी से आजादी की मांग करते रहे हैं और सत्ता के खिलाफ हथियार उठाते रहे हैं.

किसानों पर जमींदारों द्वारा अत्याचार और उनके अधिकारों को छीनना एक पुरानी प्रथा रही है और देश भर में इसके हजारों साक्ष्य मौजूद हैं. लिहाजा, नक्सलबाड़ी के तत्कालीन किसान भी इसी समस्या का सामना कर रहे थे. आजादी के बाद भूमि सुधार की पहलें जरूर हुईं थीं, लेकिन, ये पूरी तरह कामयाब नहीं रहीं. नक्सलबाड़ी किसानों पर जमींदारों का अत्याचार बढ़ता चला गया और इसी के मद्देनजर किसान और जमींदारों के बीच जमीन विवाद पैदा हो गया. लिहाजा, 1967 में कम्युनिस्टों ने सत्ता के खिलाफ एक सशस्त्र आंदोलन की शुरुआत की जो नक्सली हिंसा के रूप में आज तक जारी है.

इसलिए केजरीवाल के साथ नहीं अग्रवाल समाज

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता चारु मजूमदार ने कानू सान्याल और जंगल संथाल के साथ मिलकर सत्ता के खिलाफ एक किसान विद्रोह किया. 60 के दशक के आखिर और 70 के दशक के शुरुआती दौर में, नक्सलबाड़ी विद्रोह ने शहरी युवाओं और ग्रामीण लोगों दोनों के दिलों में आग लगा दी. देखते ही देखते, इस तरह का आंदोलन बिहार, झारखंड और पश्चिम बंगाल में आम हो गया और धीरे-धीरे यह ओडिशा, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र तक फैल गया. आजाद भारत में पहली बार किसी आंदोलन ने गरीब और भूमिहीन किसानों की मांगों को मजबूती दी, जिसने तत्कालीन भारतीय राजनीति की तस्वीर बदल कर रख दी. अन्याय और गैर बराबरी से पैदा हुआ यह आंदोलन आज देश और समाज के लिए नासूर बन गया है. लेकिन, चिंता का विषय है कि हमारी सरकारें अभी तक इसकी काट नहीं ढूंढ सकी हैं. इच्छाशक्ति की कमी, राजनीतिक लोलुपता और भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे नेताओं ने नक्सल प्रभावित क्षेत्रों को अपना‘चुनावी तवा’ बना रखा है, जिस पर वे समय-समय पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते रहते हैं.

बन्दूक के जोर पर खत्म नहीं होगा नक्सलवाद

बात चाहे छत्तीसगढ़ के बस्तर की हो, सुकमा की या ओडिशा के मलकानगिरी अथवा महाराष्ट्र के गढ़चिरौली की हो, ये तमाम जिले सदियों से गरीबी, भुखमरी और कुपोषण से जूझ रहे हैं. अन्याय और गैर बराबरी के कारण ही यहां नक्सलवाद अपनी जड़ें जमा कर बैठा है. सामाजिक और आर्थिक विषमता का नतीजा बर्बरता के रूप में सामने आता है. गरीबी और बेरोजगारी के कारण निचले स्तर की जीवनशैली और स्वास्थ्य-सुविधाओं के अभाव में गंभीर बीमारियों से जूझते इन क्षेत्रों में असामयिक मौत कोई आश्चर्य नहीं है. ऐसे में जब वे खुद बेमौत मर रहे हैं तो फिर मारने में भी संकोच नहीं करते हैं.

वहीं देश का एक तबका अच्छी सुख-सुविधाओं से लैस है. सच तो यह है कि भारत ब्रिटिश राज से अरबपति राज तक का सफर तय कर रहा है. विश्व असमानता रिपोर्ट के अनुसार, भारत की राष्ट्रीय आय का 22 फीसदी भाग सिर्फ एक फीसद लोगों के हाथों में पहुंचता है और यह असमानता मोदी राज में और ज्यादा तेजी से बढ़ी है. देश में भ्रष्टाचार की जड़ें और ज्यादा गहरी हुई हैं. यही भ्रष्टाचार सारी समस्याओं की जड़ है. यही असंतोष का कारण है. इसी के चलते हमने नासिक से मुम्बई तक और देश भर से राजधानी दिल्ली तक लम्बी-लम्बी किसान यात्राएं और आन्दोलन देखे हैं. मंदसौर में पुलिस की गोलियों से मरते हुए किसानों को देखा है. गरीबों और वंचितों में असंतोष बढ़ता ही जा रहा है, मगर अम्बानी-अडानी की जेबें भरने में लगी मोदी सरकार नक्सलवाद की गम्भीर चेतावनी को समझने के लिए तैयार ही नहीं है. वह नक्सलवाद के मूल कारण तक पहुंचना ही नहीं चाहती. ग्रामीणों के अधिकारों और उनकी समस्याओं को प्रकाश में लाने की कोई कोशिश नहीं करती. वह गरीबी, भुखमरी, असमानता और बेरोजगारी से देश को निजात दिलाने के लिए सिर्फ दिखावा करती है. वह भूख को गोली से मारना चाहती है. वह बेरोजगारी को बारूद से समाप्त करना चाहती है. चार नक्सलियों के पीछे चालीस जवान भेज कर बदले में चार सौ नक्सली पैदा कर रही है.

लोकसभा चुनाव:- “बेहाल कर रही चुनावी ड्यूटी”

नक्सलवाद की बड़ी घटनाएं

2007 – छत्तीसगढ़ के बस्तर में 300 से ज्यादा नक्सलियों ने 55 पुलिसकर्मियों को मौत के घाट उतार दिया.

2008 – ओडिशा के नयागढ़ में नक्सलियों ने 14 पुलिसकर्मियों और एक नागरिक की हत्या कर दी.

2009 – महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में हुए बड़े नक्सली हमले में 15 सीआरपीएफ जवानों की मौत हो गयी.

2010 – नक्सलवादियों ने कोलकाता-मुंबई ट्रेन में 150 यात्रियों की हत्या कर दी.

2010 – पश्चिम बंगाल के सिल्दा कैम्प में घुसकर नक्सलियों ने अर्द्धसैनिक बल के 24 जवानों को मार गिराया.

2011 – छत्तीसगढ के दंतेवाड़ा में हुए बड़े नक्सलवादी हमले में कुल 76 जवानों की मौत हुई, जिसमें सीआरपीएफ जवानों के साथ कई पुलिसकर्मी भी शामिल थे.

2012 – झारखंड के गढ़वा जिले के पास बरिगंवा जंगल में 13 पुलिसर्मियों को नक्सलियों ने मार दिया.

2013 – छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में नक्सलियों ने कांग्रेस के नेता समेत 27 व्यक्तियों को मार गिराया.

2019 – महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में सी-60 कमांडो दस्ते को निशाना बनाया, जिसमें 15 जवान शहीद हो गये.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...