Hindi Cinema : पिछले कुछ सालों से हिंदी फिल्मों के खलनायक का रूपस्वरूप बदल गया है. अब या तो नायक ही खलनायक होने लगा है या फिर पूरी फिल्म ही खलनायक और खलनायकी प्रधान होने लगी है जिस में कोई एक प्रमुख खलनायक नहीं होता. यह हिंदी फिल्मों के उस तानेबाने को तोड़ती हुई बात है जिस में कहानी अच्छाई और बुराई के संघर्ष को दर्शाती थी. अब यह बदल चुकी है.
किन्हीं दो ऐसे खलनायकों के नाम बताइए जो आप को याद रह गए हों, तो सन 50 के दौर के दर्शक ?ाट से इस सवाल का जवाब देंगे कि ‘मदर इंडिया’ वाला सुक्खी लाला और ‘मधुमति’ फिल्म का रघुवीर सिंह यानी क्रमश: कन्हैया लाल और प्राण. सुक्खी लाला की कामुकता और धूर्तता आज तक दर्शक नहीं भूले हैं तो रघुवीर सिंह की क्रूरता- नायिका वैजयंती माला से बलात्कार करने का अंदाज भी नहीं भूल पाए.
‘मदर इंडिया’ फिल्म में सुक्खी लाला गांव का साहूकार है जो पूरी फिल्म में बहीखाता लिए नायिका नर्गिस के आगेपीछे लार टपकाता फिरता है. यह भूलने वाला किरदार नहीं है. इसी तरह मधुमति में गांव के जमींदार रघुवीर सिंह का एक आदिवासी युवती पर मोहित हो कर बलात्कार करने की कोशिश में असफल रहने पर उस की खी?ा देखने के काबिल थी.
50 के दशक का खलनायक जमींदार, साहूकार, लाला बनिया या गांव का कोई रसूखदार शख्स हुआ करता था जिस का पसंदीदा काम गरीबों का खून चूसना होता था. वह आमतौर पर धोतीकुरता ही पहनता था जो उन दिनों देशभर के पुरुषों की परंपरागत पोशाक हुआ करती थी. तब आजादी मिली ही थी और गांवों में गरीब, दलितों, आदिवासियों व औरतों का शोषण आम था. समाज की इस सच्चाई को उजागर करने में खलनायकों का रोल नायक से ज्यादा अहम था, जिसे 60 के दशक तक खूब दिखाया गया लेकिन इस दशक में खलनायक पैंटशर्ट भी पहनने लगा था और बीड़ीसिगरेट धौंकता नजर आने लगा था.
इस दशक की खलनायकी पर कब्जा और दबदबा हालांकि प्राण का ही रहा लेकिन अजीत ने भी अपनी सशक्त मौजूदगी दर्ज कराई. जो आमतौर पर राजसी भूमिकाओं के लिए जाने जाते थे लेकिन इस के बाद उन का गैटअप नितांत शहरी हो गया था. खलनायक अब गुंडा, स्मगलर और व्यापारी भी होने लगा था. अजीत ने अंत तक इन किरदारों को निभाया. एक स्टाइलिश विलेन के तौर पर वे पहचाने जाने लगे थे. 1966 की सुपरहिट फिल्म ‘सूरज’ में क्रूर राजकुमार प्रताप सिंह के रोल में वे दर्शकों के दिल में जगह बना बैठे थे.
बदलती इमेज खलनायकी की
जैसे 70 का दशक नायकों का स्वर्णिम काल कहा जाता है वैसे ही 60 का दशक खलनायकों का सुनहरा दौर माना जाता है जिस में मदनपुरी 1962 में प्रदर्शित ‘आरती’ और 1965 की सुपरडुपर हिट फिल्म ‘वक्त’ से पहचाने जाने लगे. ‘वक्त’ में उन का रोल हालांकि प्रमुख खलनायक रहमान के गुर्गे का था लेकिन इस फिल्म के एक दृश्य ने दर्शकों के जेहन में उन्हें स्थापित कर दिया था.
रहमान और राजकुमार में जब तूतूमैंमैं हो रही थी तब मदनपुरी ने राजकुमार पर चाकू निकाल लिया था. राजकुमार उन के हाथों से चाकू छीन कर कहते हैं, ‘यह चाकू है… लग जाए तो खून निकल आता है.’ बस, यहीं से मदनपुरी दर्शकों को याद रह गए क्योंकि वे राजकुमार की संवाद अदायगी का शिकार हुए थे. ‘वक्त’ फिल्म का राजकुमार का रहमान से बोला गया एक और डायलौग आज भी हर कभी बोला जाता है, ‘जिन के अपने घर कांच के होते हैं वे दूसरों के घरों पर पत्थर नहीं फेंका करते.’
रहमान ने हालांकि विलेन के ज्यादा रोल नहीं किए लेकिन जितने भी किए उन में दर्शकों की वाहवाही लूटी. ‘वक्त’ फिल्म इन मानो में भी खास थी कि उस में विलेन रहमान को बेहद कूल दिखाया गया था जो स्विमिंग पूल की ईजी चेयर पर अधलेटा पड़ा, मुंह में मोटी सिगार दबाए व बियर की चुस्कियों का लुत्फ उठाता रहता है. यहीं से विलेन का ग्रामीण परिवेश खत्म हुआ और शहरी हो गया. उस के धोतीकुरता उतरे और वह सूटबूट पहनने लगा. सिगरेटसिगार उस की उंगलियों में दबे ही रहते थे, उस के हाथ में जाम भी आम हो गया था.
60 का दशक औद्योगीकरण का था. तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू उद्योग पर उद्योग लगाए जा रहे थे जिस का असर फिल्मों पर भी पड़ा. जमींदार और साहूकार का शोषण फिल्मों में कम दिखने लगा था. उन की जगह गिरोहबद्ध खलनायक लेने लगे थे. ये गिरोह तस्करों के अलावा समाजसेवियों और सफेदपोशों के भी होते थे. इन का एक बौस होता था जिस के दर्जनों गुर्गे खलनायकी को आसान बनाते थे. अब विलेन सुक्खी लाला और रघुवीर सिंह की तरह अकेले अपने रोल को अंजाम नहीं देता था. उस के लिए एक गैंग अनिवार्य हो गया था. 60 के दशक में जो और खलनायक छाप छोड़ने में सफल रहे उन में कैरी आंखों वाले के एन सिंह, अमजद खान के पिता जयंत और जीवन के नाम उल्लेखनीय हैं जिन की अपनी एक अलग स्टाइल और नाक से बोलने की अलग व अजीब सी शैली थी जिसे उन्होंने आखिर तक अपनाए रखा.
इसी दशक में डाकू आधारित फिल्मों का उदय हुआ जो चली भी खूब थीं, मसलन ‘जिस देश में गंगा बहती है’, ‘मु?ो जीने दो’, ‘गंगा जमुना’, ‘सूरज’ और ‘राम और श्याम’. इन में से अधिकतर फिल्मों में डाकू हीरो होता था और विलेन जमींदार होता था. यह दौर भीषण जातिवाद का भी था और गरीबों के शोषण का भी, जिस के चलते प्रतिशोध की आग में जलता हीरो जंगलों का रास्ता पकड़ जय भवानी का नारा बुलंद कर डाकू बन जाता था. उसी वक्त में उस के माथे पर तिलक चमकने लगता था जो डाकू होने की बड़ी पहचान हुआ करता था. यह रौबिनहुडनुमा डाकू जमींदारों, साहूकारों, सेठों और दूसरे शोषकों से बदला लेता था.
70 के दशक का खलनायक
खलनायकी के लिहाज से 60 का दशक मिलाजुला रहा था जिस में हर पैटर्न के खलनायक थे लेकिन 70 का दशक, जो हिंदी फिल्मों का स्वर्णिम काल कहलाता है, वैरायटी वाली खलनायकी के लिए भी जाना जाता है. जमींदार, साहूकार जैसे खलनायकों की पूरी तरह विदाई हुई जिन की जगह स्मगलर, गैंगस्टर और डौन सरीखे किरदारों ने ले ली. नीचे का दर्शक अब तक विलेन को गुंडा, बेईमान या गद्दार कहता था, उसे भी सम?ा आ गया कि अब खलनायक बौस हो गया है.
बुढ़ाते पुराने खलनायकों को या तो अघोषित रूप से संन्यास ले लेना पड़ा या फिर वे भी प्राण जैसे चरित्र भूमिकाएं निभाने लगे. मसलन, ‘विक्टोरिया नंबर 203’ और 1973 की फिल्म ‘जंजीर’ जिस में प्राण एक अलग शेड में दिखे थे जिसे दर्शकों ने हाथोंहाथ लिया. इस फिल्म में उन्होंने खान का किरदार निभाया था जबकि मुख्य खलनायक स्टाइलिश अजीत थे. अमिताभ बच्चन को मुकाम देने वाली ‘जंजीर’ में प्राण और अमिताभ बच्चन पर फिल्माई कव्वाली ‘यारी है ईमान मेरा यार मेरी जिंदगी…’ आज भी शिद्दत से गाई और सुनी जाती है. अजीत इस दशक की हिट फिल्मों में छाए रहे, ‘यादों की बारात’ इन में प्रमुख थी. उन का ‘मोना डार्लिंग और लिली डोंट बी सिली’ जैसा डायलौग भी आम दर्शकों की जुबान पर चढ़ा था. मदनपुरी 60 के दशक की हर दूसरी फिल्म में नजर आए, वे गलीमहल्ले के गुंडे भी बने, धूर्त व्यापारी भी बने और गैंग के बौस भी.
गब्बर ने लूटी वाहवाही
आज जिस ‘शोले’ फिल्म की 50वीं वर्षगांठ के चर्चे आम हैं उस ने खलनायकी के तमाम नएपुराने रिकौर्ड ध्वस्त कर दिए थे. गब्बर के तौर पर अमजद खान कुछ ऐसे छाए थे कि उन के आगे संजीव कुमार, अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र जैसे कलाकार भी फीके पड़ गए थे. सही मानो में ‘शोले’ पहली खलनायक प्रधान फिल्म थी. ‘कितने आदमी थे…’ ‘बहुत याराना लगता है…’ ‘अरी ओ छमिया…’ और ‘अरे ओ सांभा…’ जैसे छोटेछोटे डायलौग देश के गलीमहल्लों की रोजमर्रा की आवाज हो गए थे. दरअसल, एक बुरे आदमी या डाकू का असल आतंक और खूंखारपना क्या होता है, यह शोले फिल्म ने बताया था.
लेकिन इस के बाद भी इस दशक ने खलनायकों की सब से बड़ी खेप दी, जिस में प्रमुख नाम हैं- प्रेम चोपड़ा, डैनी, रंजीत, अमरीश पुरी और कादर खान जो थे लेखक लेकिन खलनायकी में लंबे वक्त तक छाए रहे और फिर बतौर हास्य अभिनेता भी खूब चले. इस से पहले नायक के रोल निभाते रहे प्रेमनाथ भी खलनायकी में आ गए थे. ‘जौनी मेरा नाम’ में राय साहब भूपेंद्र सिंह का किरदार भूलने वाला नहीं. 70 के दशक के 2 खलनायक प्रेम चोपड़ा और रंजीत तो बलात्कार विशेषज्ञ माने जाने लगे थे. रंजीत को 1971 में प्रदर्शित फिल्म ‘शर्मीली’ से पहचान मिली थी तो प्रेम चोपड़ा को 1973 में आई सुपरडुपर हिट ‘बौबी’ फिल्म से जिस में उन का बोला डायलौग ‘प्रेम, प्रेम नाम है मेरा, प्रेम चोपड़ा’ खूब लोकप्रिय हुआ था.
मिश्रित रहा 80 का दशक
80 के दशक की खलनायकी में खास और नया कुछ नहीं था सिवा इस के कि कई प्रतिभाशाली नए खलनायकों का पदार्पण हुआ, मसलन शक्ति कपूर, कुलभूषण खरबंदा, रजा मुराद, सत्येन कप्पू, गुलशन ग्रोवर, अनुपम खेर, परेश रावल और सदाशिव अमरापुरकर. शक्ति कपूर ‘हीरो’ और ‘कुरबानी’ जैसी हिट फिल्मों में छोटे रोल निभाने के बाद पहचान बना पाए थे तो मदनपुरी के छोटे भाई अमरीश पुरी को ‘हीरो’ के बाद ‘हम पांच’ से खलनायक होने की मान्यता मिली थी लेकिन ‘मिस्टर इंडिया’ के मोगैम्बो बन कर वे घरघर पहचाने जाने लगे थे. ‘मोगैम्बो खुश हुआ’ वाला डायलौग आज भी याद किया जाता है. ‘नागिन’ फिल्म में तांत्रिक का रोल निभा कर उन्होंने जताया था कि वे सभी तरह के रोल बखूबी निभा सकते हैं.
परेश रावल ‘नाम’ फिल्म के डौन बन कर ऊपर चढ़ना शुरू हुए थे हालांकि कुछ ही फिल्मों के बाद वे भी कादर खान की तरह हास्य और चरित्र भूमिकाओं में नजर आने लगे थे. कुलभूषण खरबंदा को बड़े बजट की मल्टीस्टारर फिल्म ‘शान’ से ब्रेक मिला था. इस फिल्म में उन्होंने गंजे शाकाल का रोल निभाया था जो दर्शकों को खास रास नहीं आया था. गुलशन ग्रोवर को शुरू में बड़ी फिल्में नहीं मिली थीं. ‘हम पांच’, ‘अवतार’ और ‘सदमा’ जैसे छोटे बजट की फिल्मों से दर्शकों ने उन्हें पहचाना लेकिन ‘राम लखन’ के बैडमैन बन कर वे छा गए थे. सदाशिव अमरापुरकर ने जरूर लीक से हट कर रोल किए. ‘अर्धसत्य’ एक आर्ट फिल्म थी जिस में वे एक क्रूर और भ्रष्ट रामा शेट्टी के किरदार में थे. उन की डायलौग बोलने की स्टाइल पसंद की गई थी. फिर ‘सड़क’ फिल्म की महारानी बन कर उन्होंने साबित कर दिया था कि खलनायकी में भी कुछ कर दिखाने के स्कोप अभी भी मौजूद हैं. देह व्यापार पर बनी इस फिल्म की थीम कुछ अलग हट कर थी जिस में हीरो एक कौलगर्ल को चाहने लगता है.
70 के दशक में ‘नमक हराम’ फिल्म में शराबी शायर की भूमिका में दिखे रजा मुराद ने भी कई फिल्में बतौर खलनायक दीं लेकिन असल पहचान उन्हें ‘प्रेम रोग’ फिल्म के ठाकुर वाले रोल से मिली जो अपने छोटे भाई की विधवा से बलात्कार करता है. अनुपम खेर ‘कर्मा’ फिल्म के डाक्टर डेंग के किरदार से पहचान बनाने में सफल हुए थे लेकिन बाद में वे भी चरित्र और हास्य भूमिकाएं निभाने लगे थे. 80 के दशक की खलनायकी की खासीयत उस की विविधता थी जिस में स्मगलर, गैंगस्टर, डाकू सभी थे लेकिन आतंकवादी विलेन की शुरुआत भी इसी दशक से हुई. खलनायकी में हास्य का तड़का भी इसी दशक से लगा जिसे 1981 में आई ‘हिम्मतवाला’ फिल्म से कादर खान और अमजद खान ने शुरू किया था.
उसी साल ‘नसीब’ फिल्म भी रिलीज हुई थी जिस में खलनायकों की भरमार थी कादर खान, अमजद खान, प्राण, प्रेम चोपड़ा, शक्ति कपूर, अमरीश पुरी और ओम शिवपुरी एकसाथ नजर आए थे जो दर्शकों के लिए एक नया और रोमांचक अनुभव था.
नायक बना खलनायक
90 का दशक एक तरह से 80 का रीप्ले ही था. होने के नाम पर हुआ इतना भर था कि अब नायक भी खलनायक का रोल निभाने लगा था. यह भी एक नया अनुभव दर्शकों के लिए था जिसे उन्होंने पसंद भी किया था.
1993 में शाहरुख खान की 2 फिल्मों ‘बाजीगर’ और ‘डर’ ने नायक की आदर्श और उसूलवादी इमेज को तोड़ा था लेकिन साथ ही यह भी साबित किया था कि खलनायक कोई भी हो सकता है वह शख्स भी जिस से आप नायक या उस के जैसे होने की उम्मीद पाले हुए होते हैं. शाहरुख खान ने फिर यह फार्मूला अपनाए रखा जो पहले की तरह कामयाब नहीं हुआ. उन की ‘अंजाम’ और ‘यस बौस’ जैसी फिल्में उतनी ही फ्लौप साबित हुई थीं जितनी कि ‘डर’ और ‘बाजीगर’ हिट रही थीं.
इसी फार्मूले पर 1993 में ही संजय दत्त ‘खलनायक’ फिल्म में खलनायक बने थे जिस में दिखाया गया था कि कैसे कोई मध्यवर्गीय युवक गुमराह हो कर आतंक की राह पर चल पड़ता है. अपने खास अंदाज और अलग किस्म की संवाद अदायगी के चलते दर्शकों ने ‘खलनायक’ को हिट करा दिया था. हीरो के विलेन बनने का सिलसिला नया नहीं था लेकिन 90 के दशक में ऐसी 9 फिल्में आईं जिन में हीरो विलेन बना था. 1981 में प्रदर्शित ‘कुदरत’ फिल्म में राजकुमार इस शेड में दिख चुके थे और इस से भी पहले 1973 में प्रदर्शित हुई फिल्म ‘गहरी चाल’ में अमिताभ बच्चन बतौर विलेन नजर आए थे. यह फिल्म खास नहीं चली थी जबकि इस में जितेंद्र और हेमा मालिनी जैसे बिकाऊ सितारे भी थे लेकिन ‘कुदरत’ ठीकठाक बिजनैस दे गई थी.
अब नया कुछ नहीं
2000 के बाद की खलनायकी में उल्लेखनीय कुछ नहीं है क्योंकि अधिकतर फिल्मों की कहानियां कुछ इस तरह लिखी गई थीं कि उन में खलनायक को करने के लिए कुछ खास नहीं था. कई फिल्में हौलीवुड स्टाइल में बनीं, मसलन जौन अब्राहम और रितिक रोशन अभिनीत ‘धूम’ और ‘धूम 2’ जिन्हें हीरो टर्न्ड विलेन फिल्म कहा जाता है. इस दौर में यथार्थवादी खलनायक ‘कंपनी’ व ‘सरकार’ फिल्मों में दिखा जो नई पीढ़ी के दर्शकों को तो देखने को मिला लेकिन परंपरागत नायकखलनायक वाली फिल्में देखने वाले दर्शकों के सिर से इस तरह की फिल्में बाउंसर हुईं. पुराने ट्रैंड पर बनी ‘नायक’ जैसी फिल्म ने खासा बिजनैस किया था जिस में अमरीश पुरी एक भ्रष्ट मुख्यमंत्री के किरदार में थे.
एक बार फिर से हीरो के विलेन बनने का सिलसिला भी शुरू हो कर जल्द खत्म भी हो गया. अजय देवगन 2002 में ‘कंपनी’ फिल्म में इस शेड में नजर आए जो एक गैंगस्टार था. दरअसल, 2000 के बाद ब्रैंडेड विलेन ही खत्म हो गया, नहीं तो पहले दर्शक फिल्म पर पैसे तभी खर्च करता था जब उस में खलनायक भी दमदार होता था. अब फिल्में आतंकवाद के साथसाथ माफिया पर भी बन रही थीं लेकिन वे ‘कर्मा’ और ‘दीवार’ जैसी स्पष्ट व सहज नहीं रह गई थीं. साल 2002 में संजय दत्त अभिनीत फिल्म ‘कांटे’ उन की ही 10 साल पहले अभिनीत फिल्म ‘खलनायक’ के आसपास भी नहीं फटक पाई थी. यही हाल उन की 2004 में प्रदर्शित फिल्म ‘मुसाफिर’ का हुआ था कि नैगेटिव रोल में उन्हें पसंद नहीं किया गया था लेकिन 2012 में आई अमिताभ बच्चन की ‘अग्निपथ’ चली थी, इस की वजह इस का रीमेक होना था.
इसी साल नाना पाटेकर की ‘एतराज’ का भी यही हश्र हुआ था. असल में अब तक खलनायक का रूपरंग पूरी तरह बदल गया था. वह डाकू या तस्कर नहीं रह गया था बल्कि अंडरवर्ल्ड का सरगना होता जा रहा था लेकिन यह रोल चूंकि हीरो ज्यादा निभा रहे थे इसलिए दर्शकों ने उन्हें इस रूप में स्वीकारा नहीं. अब हाल यह है कि हिंदी फिल्मों से खलनायक गायब ही हो गया है जिस से फिल्म उद्योग को भारी नुकसान भी उठाना पड़ रहा है लेकिन निर्माताओं को यह बात समझ नहीं आ रही है कि अगर उन्हें पैसा कमाना है तो असल मनोरंजन परोसना पड़ेगा. ‘पुष्पा’ और ‘पुष्पा 2’ जैसी फिल्में अपनी तेज गति के चलते चल जाती हैं लेकिन उन में हीरो ही विलेन होता है. दर्शक एक हद तक ही इस नए रूप को मान्यता देता है, इस के बाद वह ऊबने लगता है. Hindi Cinema