21 दिन के लाकडाउन की घोषणा के बाद पूरा देश थम गया. देश बोले तो घिसती रगड़ खाती इकोनोमी. इस इकोनोमी में खुद को सुरक्षित पाते वह मालदार लोग आते हैं जिन की तिजोरियां भरी हुई हैं, बैंक खातों के अंक हर सेकंड बढ़ते जाते हैं. उन्हें चिंता है तो अपने नफेनुकसान की. गिरते शेयरों की. बंद पड़े अपने कारखानों की. फिर आता है वह पढ़ालिखा तबका जिन के लिए कोरोना से लड़ाई मतलब बालकोनी से हाथ हिलाना, सोशल मीडिया पर ‘घरों पर ही रहने’ का सन्देश देना, कहीकहीं भूखे को खाना खिला इन्स्टा, ट्विटर पर फोटो चिपका देना और पलायन करने वाले गरीब मजदूरों को दिन भर गाली देना है.
यह अभिजात तबका पहले कांग्रेस कार्यकाल में खराब सरकारी व्यवस्ता की किरकिरी करता था और समस्याएं गिनाता था. बहरहाल अब शासन बदला है, तो इन के ऊपर अंधराष्ट्रवाद का खुमार और भक्ति सर चढ़ कर बोल रहा है चाहे देश और ज्यादा गर्त में चला गया हो. इन के लिए चिंता बस यही है कि ‘हद है यार, एक तो कोरोना का वैक्सिनैसन नहीं बना है ऊपर से ये गरीब लोग भीड़ के साथ झोला उठा अपने घर चल दिए हैं..’
अब आते हैं देश के सब से निचले पायदान में खड़े इन्ही गरीबों के पास, जिन के लिए देश न रुका है न ही रुक सकता है. उन का नाम “चलती को जिन्दगी” है क्योंकि वे मानते हैं “रुकता वही है जिन का बसेरा होता है.” नहीं समझे?
मतलब यह कि न तो उन के पास हाथ हिलाने के लिए बालकोनी और घर है, न ही अपने शेयर गिरने की चिंता. सच है, ये घुमंतू हैं जहाँ दानाखाना की आश है वहां चल देंगे, अगर देश में सीमाएं न हो तो उन्हें भी लांघ जाएंगे. फिलहाल ये शहरों में उड़ कर आएं हैं. शहर में काम करने आए ये नवयुवक मजदूर महज 6-8 हजार रूपए में छोटी फक्ट्रियों में महीने के हिसाब से नौचे जा रहे हैं.
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आज देश को जब बंद किया तो इन्ही मजदूरों को इतनी दिक्कत हुई कि इन्होने सरकार के लाकडाउन का फरमान मानने से इनकार कर दिया. आखिर क्यों जिस बिमारी को पूरी दुनिया में इस समय सब से बड़ा खतरा बताया जा रहा है उसे यह ठोकर मार आगे बढ़ गए?
“रहने को घर नहीं है हिन्दोस्तां हमारा”
“साहब, कोरोना बाद में मारेगी पहले भूख मार देगी” यह कहते हुए 20 वर्षीय युवा ललित फैक्ट्री के मालिक से अपने इस महीने की तनख्वाह ले कर दिल्ली से बरेली चल दिया. ललित के पास न मकान था न किराया का कमरा. वह वहीँ बलजीत नगर की एक छोटी सी फैक्ट्री में ही रहता था. उस का काम चार्जर बनाने का था. अब फैक्ट्री बंद है तो उसे बिना पैसों के वहां रुकना ठीक नहीं लगा. यही हाल अलगअलग राज्यों में असंख्य मजदूरों का भी है. जब ललित से पूछा कि सरकार तो राशन और खातों में पैसे मुहैय्या करवा रही है. तुम जा क्यों रहे हो? तो तपाक से कहता है “न मेरे पास राशन कार्ड है न बैंक खाता.”
फिर मुस्कुराते हुए कहता है “वैसे भी मोदी जी ने कहा है अपने घर में ही रहे, तो में अपने घर जा रहा हूं. लम्बा सफ़र है फिर कभी मिलेंगे”
ललित की तरह कई मजदूर ऐसे ही लाकडाउन की परवाह किये बिना निकल चुके है उन्हें सरकार की राहत घोषणाओं पर ख़ासा विश्वास नहीं है. जाहिर है उन्होंने कई सरकारों को बदलते देखा है लेकिन अपने हालातों को नहीं. वे यह घोषणाएं हमेशा सुनते आएं हैं. नेताओं की बड़ीबड़ी हांके अब उन के लिए आम बात है. यह अविश्वास इतना हो गया है कि उन्हें लगता है ये तो मौत पर भी सियासत करने से बाज नहीं आएंगे, यह मजदूर भूखे प्यासे सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा कर रहे हैं. कई अपने छोटे बच्चों को गोद में लिए चल दिए हैं. तो वहीँ अपनी बीवी को कंधे पर बैठाए 257 किलोमीटर की दूरी तय करते मजदूर की सनसनाती तस्वीर देश को आइना दिखा रही है.
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असहाय वे बच्चे हैं जिन के लिए कोरोना नहीं बल्कि गरीबी आफत बन कर आई है. अपनी इस छोटी उम्र में उन्होंने बचपन की शेतानियों को वेसे भी खो दिया था बस अब बाकी था तो बचपन का पूरी तरह ख़त्म होना सो वो भी हुआ. यह सिर्फ 4 या 5 दिन की लम्बी पैदल यात्रा नहीं बल्कि आजीवन चिपकने वाली वह काली याद है जिसे सोच मजदूरों को हमेशा अपनी लाचारी महसूस होती रहेगी. ऐसे हालत में कुछ लोगों की रास्ते में भूख व दुर्घटना से मौत हो चुकी है. यह मोतें कोरोना के कारण आई समस्या से हुई है लेकिन कोरोना की फ़ाइल में इन मौतों को चिपकाया नहीं जाएगा. बमुश्किल है कि इन मौतों का कोई खाका भी बन पाए. अलबत्ता ये वों मजदूर होंगे जिन की हाजरी कभी किसी सरकारी कागजों में नहीं होगी.
यही कारण होगा कि जर्मनी के महान समाजवादी विचारक कार्ल मार्क्स ने मजदूरों को ले कर कहा था कि “मजदूरों का कोई देश नहीं होता.” इसी तर्ज पर उन्होंने “दुनिया के मजदूरों एक हो” का नारा दिया. इस नारे के कई गहन मतलब निकल सकते हैं लेकिन जो फ़िलहाल समझ आ रहा है यह कि मजदूर किसी जगह(देश) पर जन्म ले तो सकता है लेकिन उन की सरकारों ने कभी उन्हें अपना नहीं समझा. आज अभिजातों के लिए विदेश में हवाई जहाज भेज कर रेस्क्यू ओप्रेशन चलाया जा रहा है. वहीँ लाचार गरीबों को बसों में ठूसठूस कर जानवरों सा व्यवहार किया जा रहा है. यहाँ तक कि उन पर कीड़ेमकोड़ों की तरह केमिकल का छिडकाव किया जा रहा है. उन के लिए मजदूर सिर्फ मशीन के कलपुर्जे है.
देश को देश बनाने में इन मजदूरों ने अपना खूनपसीना लगा दिया. फिर भी ये मजदूर अपने यहाँ ही परदेशी है. देश की इकोनोमी में अपनी मेहनत लगाने वाले ये बेघर है, अनाथ हैं जिन के पास रहने की जगह भी है तो वह गन्दी बस्तियां हैं जहाँ बच्चों के लिए धुलमिटटी ही उन का खिलौना है और मांबाप के लिए रोजीरोटी. इन्हें कोरोना से लड़ने के लिए पहले गरीबी को मात देनी पड़ेगी. कोरोना की मौत से न डरने वाले ये मजदूर जानीपहचानी मौतों से डर रहे हैं, वह है भूख जिस का वैक्सीनेशन खाना है जो हमेशा से सरकारों के पास था. लेकिन इतने सालों बाद भी इन तक नहीं पहुंचा है. यह सारे अंतर्विरोध आज उठउठ कर सामने आ रहे हैं. भले ही आज पुरे विश्व में पूंजी की बात कहने वालों का डंका बज रहा है लेकिन जमीन पर मची यह खलबली कहीं मार्क्स की प्रासंगिकता की जीवन्तता की तरफ इशारा तो नहीं?
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