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पुरस्कार- भाग 3: आखिर क्या हुआ विदाई समारोह में?

‘‘एक दिन मुझे एक बैंक पासबुक पकड़ाते हुए उन्होंने कहा था, ‘मैं ने यह सब तुम्हारे उपकार के लिए नहीं किया. इस में मेरा भी स्वार्थ है. नई दुकान पर तुम्हें जितना भी लाभ होगा, उस का 5 प्रतिशत तुम स्वयं ही मेरे इस खाते में जमा कर दिया करना.

‘‘उन के आशीर्वाद ने ऐसा करिश्मा कर दिखाया कि मेरी दुकान दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करती गई और आज वह दुकान एक शानदार रेस्तरां का रूप ले चुकी है. मैं और मेरा बेटा तो अब उस का प्रबंध ही देखते हैं. आज तक नियमित रूप से मैं लाभ का 5 प्रतिशत इस पासबुक में जमा करा रहा हूं.

‘‘इसी तरह एक बूढ़ा सिर पर फल की टोकरी उठाए गलीगली भटक कर अपनी रोजीरोटी चलाता था. बढ़ती उम्र के साथ उस का शरीर इतना कमजोर हो गया था कि टोकरी का वजन सिर पर उठाना उस के लिए कठिन होने लगा था. एक दिन इसी तरह केलों की टोकरी उठाए जब वह बूढ़ा चिलाचिलाती धूप में घूम रहा था तो संयोग से तुम्हारे पापा पास से गुजरे थे. सहसा बूढ़े को चक्कर आ गया और वह टोकरी समेत गिर गया.

‘‘तुम्हारे पापा उसे सहारा दे कर फौरन एक डाक्टर के पास ले गए और उस का उपचार कराया. उस के बाद उस बूढ़े ने उन्हें बताया कि वह 600 रुपए मासिक पर एक अमीर आदमी के लिए फल की फेरी लगाता है, जिस ने इस तरह के और भी 10-15 लाचार लोगों को इस काम के लिए रखा हुआ है जो गलीगली घूम कर उस का फल बेचते हैं.

‘‘तुम्हारे पिताजी उस बूढ़े की हालत देख कर द्रवित हो उठे और मुझ से बोले, ‘मैं इस बुजुर्ग के लिए कुछ करना चाहता हूं, जरा मेरी पासबुक देना.’

‘‘कुछ ही दिन बाद उन्होंने एक ऐसी रेहड़ी तैयार करवाई जो चलने में बहुत हलकी थी. रेहड़ी उस बूढ़े के हवाले करते हुए उन्होंने कहा था, ‘इस रेहड़ी पर बढि़या और ताजा फल सजा कर निकला करना. आप की रोजीरोटी इस से आसानी से निकल आएगी. काम शुरू करने के लिए यह 10 हजार रुपए रख लो और हां, मैं आप के ऊपर कोई एहसान नहीं कर रहा हूं. अपने काम में आप को जो लाभ हो उस का 5 प्रतिशत श्यामलाल को दे दिया करना, ताकि यह मेरे खाते में जमा करा दे.’

‘‘वह बूढ़ा तो अब इस दुनिया में नहीं है पर उसी रेहड़ी की कमाई से अब उस का बेटा एक बड़ी फल की दुकान का मालिक बन चुका है. वह भी अब तक नियमित रूप से लाभ का 5 प्रतिशत मेरे पास जमा कराता है, जिसे मैं तुम्हारे पिताजी की पासबुक में जमा करता रहता हूं. उस बूढ़े के बाद उन्होंने 7-8 वैसे ही दूसरे फेरी वालों को रेहडि़यां बनवा कर दीं जो अब खुशहाली का जीवन बिता रहे हैं और उन के लाभ का भाग भी इसी पासबुक में जमा हो रहा है.

‘‘इतना ही नहीं, एक नौजवान की बात बताता हूं. एम.ए. पास करने के बाद जब उस को कोई नौकरी न मिली तो उस ने पटरी पर बैठ कर पुस्तकें बेचने का काम शुरू कर दिया. एक बार तुम्हारे पिताजी उस ओर से निकले तो उस पटरी वाली दुकान पर रुक कर पुस्तकों को देखने लगे. यह देख कर उन्हें बहुत दुख हुआ कि उस युवक ने घटिया स्तर की अश्लील पुस्तकें बिक्री के लिए रखी हुई थीं.

‘‘लालाजी ने जब उस युवक से क्षोभ जाहिर किया तो वह लज्जित हो कर बोला, ‘क्या करूं, बाबूजी. साहित्य में एम.ए. कर के भी नौकरी न मिली. घर में मां बिस्तर पर पड़ी मौत से संघर्ष कर रही हैं. 2 बहनें शादी लायक हैं. ऐसे में कुछ न कुछ कमाई का साधन जुटाना जरूरी था. अच्छी पुस्तकें इतनी महंगी हैं कि बेचने के लिए खरीदने की मेरे पास पूंजी नहीं है. ये पुस्तकें काफी सस्ती मिल जाती हैं और लोग किराए पर ले भी जाते हैं. इस तरह कम पूंजी में गुजारे लायक आय हो रही है.’

‘‘‘यदि चाहो तो मैं तुम्हारी कुछ आर्थिक सहायता कर सकता हूं. यदि तुम वादा करो कि इस पूंजी से केवल उच्च स्तर की पुस्तकें ही बेचने के लिए रखोगे, तो मैं 40 हजार रुपए तुम्हें उधार दे सकता हूं, जिसे तुम अपनी सुविधानुसार धीरेधीरे वापस कर सकते हो. मेरा तुम पर कोई एहसान न रहे, इस के लिए तुम मुझे अपने लाभ का 5 प्रतिशत अदा करोगे.’

‘‘शायद तुम्हें यह जान कर आश्चर्य होगा कि तुम्हारे पिताजी द्वारा लगाया गया वह पौधा आज फलफूल कर कैपिटल बुक डिपो के रूप में एक बड़ा वृक्ष बन चुका है और शहर में उच्च स्तर की पुस्तकों का एकमात्र केंद्र बना हुआ है.

‘‘एक बार मैं ने तुम्हारे पिताजी से पूछा था, ‘बाबूजी, बुरा न मानें, तो एक बात पूछूं?’

‘‘वह हंस कर बोले थे, ‘तुम्हारी बात का बुरा क्यों मानूंगा. तुम तो मेरे छोटे भाई हो. कहो, क्या बात है?’

‘‘‘आप ने बीसियों लोगों की जिंदगी को अंधेरे से निकाल कर उजाला दिया है. उन की बेबसी और लाचारी को समाप्त कर के उन्हें स्वावलंबी बनाया है पर आप स्वयं सदा ही अत्यंत सादा जीवन व्यतीत करते रहे हैं. कभी एक भी पैसा आप ने अपनी सुविधा या सुख के लिए व्यय किया हो, मुझे नहीं लगता. आखिर बैंक में जमा यह सब रुपए…’

‘‘और बीच में ही मेरी बात काट दी थी उन्होंने. वह बोले थे, ‘यह सब मेरा नहीं है, श्यामलाल. इस पासबुक में जमा एकएक पैसा मेरे छोटे बेटे और बहू की अमानत है. तुम्हें छोटा भाई कहा है तभी तुम से कहता हूं, मेरे बड़े बेटे और बहुएं अपनेअपने बच्चों को ले कर मेरे बुढ़ापे का सारा बोझ छोटे बेटे पर छोड़ कर दूसरे शहरों में जा बसे हैं और ये मेरे छोटे बच्चे दिनरात मेरे सुख और आराम की चिंता में रहते हैं. बहू ने तो मेरी दोनों बेटियों की कमी पूरी कर दी है. मेरा उस से वादा है श्यामलाल कि मैं उसे एक दिन उस की सेवा का पुरस्कार दूंगा. मेरी बात गांठ बांध लो. जब मैं न रहूं, तब यह पासबुक जा कर मेरी बहू के हाथ में दे देना और उन्हें सारी बात समझा देना. मैं ने अपनी वसीयत भी इस लिफाफे में बंद कर दी है जिस के अनुसार यह सारी पूंजी मैं ने अपनी बहू के नाम कर दी है. यही उस का पुरस्कार है.’’’

बहू की आंखों से गंगाजमुना बह चली थीं. श्यामलाल ने उसे ढाढ़स बंधाते हुए एक लिफाफा और पासबुक उस के हाथों में थमा दिए. बहू रोतेरोते उठ खड़ी हुई और धीरेधीरे चल कर पिता की तसवीर के सामने जा पहुंची और हाथ जोड़ कर खड़ी हो गई. उस की आंखों से निरंतर आंसू बह रहे थे. उस के मुख से केवल इतना ही निकला, ‘‘पापा…’’

अंत भला तो सब भला- भाग 1: ग्रीष्मा की जिंदगी में कैसे मची हलचल

माहभर बाद जब ग्रीष्मा अपने स्कूल पहुंची तो पता चला कि पुराने प्रिंसिपल सर का तबादला हो गया है और नए प्रिंसिपल ने 2 दिन पहले ही जौइन किया है. जैसे ही उस ने स्टाफरूम में प्रवेश किया सभी सहकर्मी उस के प्रति संवेदना व्यक्त करते हुए बोले, ‘‘ग्रीष्मा अच्छा हुआ जो तुम ने स्कूल जौइन कर लिया. कम से कम उस माहौल से कुछ देर के लिए ही सही दूर रह कर तुम खुद को तनावमुक्त तो रख पाओगी. आज ही प्रिंसिपल सर ने पूरे स्टाफ से मुलाकात हेतु एक मीटिंग रखी है. तुम भी मिल लोगी वरना बाद में तुम्हें अकेले ही मिलने जाना पड़ता.’’

प्रेयर के बाद अपनी कक्षा में जाते समय जब ग्रीष्मा प्रिंसिपल के कक्ष के सामने से गुजरी तो उन की नेमप्लेट पर नजर पड़ी. लिखा था- ‘‘प्रिंसिपल विनय कुमार.’’

शाम की औपचारिक बैठक के बाद घर जाते समय आज इतने दिनों के बाद ग्रीष्मा का मन थोड़ा हलका महसूस कर रहा था वरना वही बातें… सुनसुन कर उस की तो जीने की इच्छा ही समाप्त होने लगी थी. नए सर अपने नाम के अनुकूल शांत और सौम्य हैं. सोचतेसोचते वह कब घर पहुंच गई उसे पता ही न चला.

रवींद्र की अचानक हुई मौत के बाद अब जिंदगी धीरेधीरे अपने ढर्रे पर आने लगी थी. रवींद्र के साथ उस का 10 साल का वैवाहिक जीवन किसी सजा से कम न था. अपने मातापिता की इकलौती नाजों से पलीबढ़ी ग्रीष्मा का जब रवींद्र से विवाह हुआ तो सभी लड़कियों की भांति वह भी बहुत खुश थी. परंतु शीघ्र ही रवींद्र का शराबी और बिगड़ैल स्वभाव उस के सामने उजागर हो गया.

रवींद्र का कपड़ों का पुश्तैनी व्यवसाय था. मातापिता की इकलौती बिगड़ैल संतान थी. शराब ही उस की जिंदगी थी. उस के बिना एक दिन भी नहीं रह पाता था. ग्रीष्मा ने शुरू में बहुत कोशिश की कि रवींद्र की शराब की लत छूट जाए पर बरसों की पड़ी लत उस की जरूरत नहीं जिंदगी बन चुकी थी.

अपने तरीके से जीना उस की आदत थी. दुकान बंद कर के देर रात तक यारदोस्तों के साथ मस्ती कर के शराब के नशे में धुत्त हो कर घर लौटना और बिस्तर पर ग्रीष्मा के शरीर के साथ अठखेलियां करना उस का प्रिय शौक था. यदि कभी ग्रीष्मा नानुकुर करती तो मार खानी पड़ती थी.

ऐसे ही 1 माह पूर्व शराब के नशे में एक रात घर लौटते समय रवींद्र की बाइक एक कार से टकरा गई और वह अपने प्राणों से हाथ धो बैठा. उस की मृत्यु से ग्रीष्मा सहित उस के सासससुर पर जैसे गाज गिर गई. इकलौते बेटे की मृत्यु से उन का खानापीना सब छूट गया. नातेरिश्तेदार अपना शोक जता कर 13 दिनों के बाद 1-1 कर के चले गए.

रवींद्र के जाने के बाद ग्रीष्मा ने अपने बिखरे परिवार को संभालने में पूरी ताकत लगा दी. मातापिता के लिए इकलौते बेटे का गम भुलाना आसान नहीं होता. संतान जिस दिन जन्म लेती है मातापिता उसी दिन से उस के साथ रोना, हंसना और जीना सीख लेते हैं और उस के साथ भविष्य के सुनहरे सपने बुनने लगते हैं पर जब जीवन के एक सुखद मोड़ पर अचानक वही संतान साथ छोड़ देती है तो मातापिता तो जीतेजी ही मर जाते हैं.

कहने के लिए तो रवींद्र उस का पति था, परंतु रवींद्र के दुर्व्यवहार के कारण उस के प्रति प्रेम जैसी भावना कभी जन्म ही नहीं ले पाई. रवींद्र से अधिक तो उसे अपने सासससुर से प्यार था. उन्होंने उसे सदैव बहू नहीं, बल्कि एक बेटी सा प्यार दिया.

अपने बेटे रवींद्र के आचरण का वे भले ही प्रत्यक्ष विरोध न कर पाते थे, परंतु जानते सब थे और इसीलिए सदैव मन ही मन अपराधबोध से ग्रस्त हो कर अपने प्यार से उसे कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी. इसलिए रवींद्र के जाने के बाद अब वे उस की ही जिम्मेदारी थे. बड़ी मुश्किल से पोते कुणाल का वास्ता देदे कर उस ने उन्हें फिर से जीना सिखाया.

रवींद्र की मृत्यु के बाद आज पहली बार वह स्कूल गई थी. सासससुर ने ही उस से कहा, ‘‘बेटा, घर में रहने से काम नहीं चलेगा… जाने वाला तो चला गया अब तू ही हमारा बेटा, बेटी, और बहू है. तू अपनी नौकरी जौइन कर ले. दुकान तो हम दोनों संभाल लेंगे.’’

ग्रीष्मा विवाह से पहले एक स्कूल में पढ़ा रही थी और पति ने उसे रोका नहीं था. किचन का काम समाप्त कर के वह जब बिस्तर पर लेटी तो बारबार मन सुबह की मीटिंग में हुई प्रिंसिपल सर की बातों पर चला गया. न जाने क्या था उन के व्यक्तित्व में कि ग्रीष्मा का मन उन के बारे में सोच कर ही प्रफुल्लित हो उठता.

एक दिन स्कूल से घर के लिए निकली ही थी कि झमाझम बारिश शुरू हो गई. स्कूटी खराब होने के कारण वह उस दिन रिकशे से ही आई थी. बारिश रुकने के इंतजार में वह एक पेड़ के नीचे खड़ी हो गई.

तभी विनय सर की गाड़ी उस के पास आ कर रुकी, ‘‘मैडम, आइए मैं आप को घर छोड़ देता हूं,’’ कह कर उन्होंने अपनी गाड़ी का दरवाजा खोल दिया.

‘‘नहींनहीं सर मैं चली जाऊंगी. आप परेशान न हों,’’ कह कर ग्रीष्मा ने उन्हें टालने की कोशिश की.

मगर वे फिर बोले, ‘‘मान भी जाइए मैडम, बारिश बहुत तेज है. आप भीग कर बीमार हो जाएंगी और फिर कल लीव की ऐप्लिकेशन भेज देंगी.’’

ग्रीष्मा चुपचाप गाड़ी में बैठ गई.

गाड़ी में पसरे मौन को तोड़ते हुए विनय सर ने कहा, ‘‘मैडम, आप कहां रहती हैं? कौनकौन हैं आप के घर में?’’

‘‘सर यहीं अरेरा कालोनी में अपने सासससुर और एक 10 वर्षीय बेटे के साथ रहती हूं.’’

‘‘आप के पति?’’

‘‘सर अभी 1 माह पूर्व ही उन का देहांत हो गया,’’ ग्रीष्मा ने दबे स्वर में कहा.

यह सुन विनय सर लगभग हड़बड़ाते हुए बोले, ‘‘ओह सौरी… आई एम वैरी सौरी.’’

‘‘अरे नहींनहीं सर इस में सौरी की क्या बात है… आप को तो पता नहीं था न, तो पूछना जायज ही है. सर… आप के परिवार में… कहतेकहते ग्रीष्मा रुक गई.’’

‘‘मैडम मैं तो अकेला फक्कड़ इंसान हूं. विवाह हुआ नहीं और मातापिता एक दुर्घटना में गुजर गए. बस अब मैं और मेरी तन्हाई,’’ कह कर विनय सर एकदम शांत हो गए.

‘‘जी सर…बसबस सर यहीं उतार दीजिए. वह सामने मेरा घर है,’’ सामने दिख रहे घर की ओर इशारा करते हुए ग्रीष्मा ने कहा.

उसे उतार कर विनय की गाड़ी तेजी से निकल गई. अपने कमरे में आ कर ग्रीष्मा

सोचने लगी कि कितने सुलझे इंसान हैं सर. अपने बारे में उन की साफगोई ने उसे अंदर तक प्रभावित कर दिया था… और एक रवींद्र. उस के बारे में सोचते ही उस का मन वितृष्णा से भर उठा. न जाने विनय सर में ऐसा क्या था कि उन से बात करना, मिलना उसे अच्छा लगा था. विनय सर के बारे में सोचतेसोचते ही उस की आंख लग गई.

एक दिन जैसे ही ग्रीष्मा स्कूल पहुंची, चपरासी आ कर बोला, ‘‘मैम, आप को सर बुला रहे हैं.’’

जब वह प्रिंसिपल कक्ष में पहुंची तो विनय सर बोले, ‘‘मैम, बालिका शिक्षा पर कल एक सेमिनार में जाना है…आप जा सकेंगी.’’

‘‘जी सर,’’ उस ने सकुंचाते स्वर में कहा.

‘‘चिंता मत करिए मैं भी चलूंगा साथ में,’’ विनय सर ने उसे आश्वस्त करते हुए कहा.

‘‘जी सर,’’ कह कर वह जैसे ही कक्ष से बाहर जाने लगी तो विनय सर फिर बोले, ‘‘कल सुबह 10 बजे यहीं से मेरे साथ चलिएगा.’’

‘‘जी,’’ कह कर वह प्रिंसिपल के कक्ष से बाहर आ गई.

अपनी कक्षा में सीट पर आ कर बैठी तो उस का दिल जोरजोर से धड़क रहा

था. विनय सर के साथ जाने की कल्पना मात्र से ही वह रोमांचित हो उठी थी. उसे लगने लगा जैसे उस के दिल और दिमाग में एकसाथ अनेक घंटियां बजने लगी हों. फिर अचानक वह तंद्रा से जागी और सोचने लगी कि वह यह नवयुवतियों जैसा क्यों सोच रही है. तभी लंच समाप्त होने की घंटी बज गई और क्लास में बच्चे आ जाने से उस के सोचने पर विराम लग गया.

अगले दिन सुबह चंपई रंग की साड़ी पहन, माथे पर छोटी सी बिंदी लगा कर और बालों की ढीली सी चोटी बना कर वह जैसे ही स्कूल पहुंची तो विनय सर उसे बाहर ही मिल गए. उसे देखते ही एकदम बोल पड़े, ‘‘मैडम, आज तो आप बहुत स्मार्ट दिख रही हैं.’’

वह शर्म से लजा गई. सेमिनार के बाद घर पहुंच कर उस ने एक बार नहीं कई बार अपनेआप को आईने में निहारा. सर के एक वाक्य ने उस के दिलदिमाग में प्रेमरस का तूफान जो ला दिया था. अगले दिन सुबह कुणाल के स्कूल में पीटीएम थी. सो जैसे ही तैयार हो कर वह कमरे से बाहर आई तो उसे देखते ही कुणाल बोला, ‘‘मां, कितने दिनों बाद आज आप ने अच्छी साड़ी पहनी है. आप बहुत अच्छी लग रही हो.’’

Monsoon Special: ऐसे रखें अपनी सेहत का ध्यान

वर्षा ऋतु का आगमन रिमझिम फुहार से होता है. पृथ्वी को भी शीतलता का एहसास होता है. पशु-पक्षियों को भी सुखद अनुभूति होती हैं. सूखे दरख्तों पर भी रौनक आ जाती है. मगर इसी बारिश के मौसम में कई प्रकार के रोग भी आक्रमण शुरू कर देते हैं. गंदगी और कीचड़ से मच्छरों और मक्खियों का आतंक शुरू हो जाता है. हैजा, पीलिया, डेंगू एवं मलेरिया से पीड़ितों का इलाज चिकित्सालयों के लिए कठिन चुनौती बन जाता है. वही सर्दी, खांसी और बुखार आम बात हो जाता हैं, साथ ही डायरिया भी कहर ढाने लगता है. इस मौसम में पानी की अधिकता के कारण पानी वाले फल एवं सब्जियां बेस्वाद लगने लगती हैं. कुछ चटपटा खाने का मन करता हैं. जब हम मन की बात सुन कर  कुछ चटपटा खाते हैं, इस दफा हम कई बार बीमारियो को बुलावा दे देते हैं. साफ-सफाई पर खास ध्यान दें. इस मौसम में आहार संबंधित कुछ सावधानियां अवश्य बरतनी चाहिए. तो आईये एक नजर ड़ालते हैं उन विशेष सावधानियो पर

*  कटे फल, सब्जियां व खुले में रखा खाद्य पदार्थ बिल्कुल न खाएं.

* फ्रिज में रखी वस्तुओं को गरम कर खाएं. बेहतर होगा कि खाद्य वस्तुएं फ्रिज में न रखें.

* साफ-सुथरे बर्तन में खाना पकाएं.

* फलों को धोकर खाएं तथा सब्जियों को पकाने से पूर्व ठीक तरह से धोएं.

*  फास्ट फूड व शीतल पेय से दूरी बनाएं रखें.

* भिण्डी, करेला, केला, पपीता सेहत की दृष्टि से लाभदायक होते हैं.

* पानी उबाल कर पिएं. ’ बासी भोजन न करें.

*  बच्चों को वसायुक्त आहार दें. ी पत्तागोभी एवं फूलगोभी की सब्जी न खाएं.

*  चटपटा खाने का मन करे तो व्यंजन घर पर ही बनाएं और खाएं.

*  संतुलित आहार हर मौसम में फायदा करता है.

*  त्वचा की ठीक ढंग से देखभाल करें. पैरों की, नाखूनों की सफाई पर ध्यान दें.

* गीले वस्त्र न पहनें. बारिश में भींगने पर घर लौटते ही सन करें. तुलसी की काली चाय फायदेमंद मानी गई है.

* पेट के रोगी खान-पान संबंधित सावधानियां बरतें.

काजू करी से लेकर खट्टी करी तक, Monsoon में लीजिए इन रेसिपीज का मजा

लहसुन, प्याज, अदरक, टमाटर, नारियल, इमली, दही व सभी खड़े मसालों व पिसे मसालों के मेल से बनी तरी, रसा, शोरबा या करी कहलाता है. भारतीय करी की विशेषता यह है कि मसाले ताजे पीसे जाते हैं जिस से रंग, स्वाद व खुशबू अलग ही होती है. भारत बहुप्रांतीय देश है, इसलिए हर प्रांत का तड़का भोजन को लजीज बनाता है.

1 सौंफ और काजू करी

सामग्री

4-5 उबले आलू या 150 ग्राम पनीर, 1-1 छोटा चम्मच जीरा व सौंफ, 10-12 काजू, 1/2-1/2 छोटा चम्मच नमक व गरममसाला, 3-4 कली लहसुन, 1/2 छोटा चम्मच अदरक पिसा, 1 प्याज पिसा, 11/2 बड़ा चम्मच औलिव औयल.

विधि
तेल गरम करें व आलू के कतले काट कर तलें या पनीर के टुकड़े काट कर रखें. भीगे काजू, सौंफ, जीरा, नमक, गरममसाला, अदरक, लहसुन, प्याज एकसाथ पीसें. गरम तेल में पेस्ट डाल कर सभी मसालों के साथ भूनें. जब मसाला भुन जाए तब 1/2 गिलास पानी डाल कर उबालें. करी तैयार हो गई. तले आलू या पनीर डाल कर परोसें.



2 धनिया व पालक करी

सामग्री

2-2 कप कटा धनिया, पालक, 1 बड़ा प्याज, 1/2 कप मलाई, 1 बड़ा चम्मच बेसन, 3/4-3/4 छोटा चम्मच नमक व गरममसाला, 1/4-1/4 छोटा चम्मच लाल- मिर्च व हलदी, 2-3 तेजपत्ते, 3-4 बड़ी इलायची, 1/2 चम्मच औलिव औयल.

विधि
पालक व धनिए को ढके बरतन में रख कर भाप में गला लें या 1/4 कप पानी डाल कर उबाल कर ठंडा करें. उस में बेसन मिला कर पीस लें. तेल गरम करें, तेजपत्ते व बड़ी इलायची डाल कर कड़काएं. पिसा लहसुन भूनें. फिर कटा प्याज व मलाई डाल कर भूनें. जब मलाई से घी बन जाए तब मसाले डाल कर 1/4 कटोरी पानी के साथ भूनें. पिसा पालक, धनिया डाल कर पकाएं. जब पिसा पालक पक जाए तब उस में तले या उबले आलू, कटा पनीर या उबले अंडे या तला चिकन डाला जा सकता है.

3 टमाटर मलाई करी

सामग्री

6-7 लाल टमाटर, 3-4 छोटी इलायची, 1 बड़ा प्याज, चुटकीभर चीनी, 1/2-1/2 छोटा चम्मच नमक व काली मिर्च, 1/4 कप मलाई, कच्चे ताजे मटर के दाने.

विधि
कड़ाही में थोड़ा तेल डाल कर कटे प्याज तले. प्याज लाल होने पर टमाटर काट कर डालें. नमक, कालीमिर्च व चीनी  के साथ मलाई भी डाल कर अच्छी तरह भूनें जब तक कि घी न निकले. फिर थोड़े पानी के साथ उबाल कर करी तैयार करें. मटर डाल कर गलाएं. अब टमाटर मलाई करी गरमागरम परोसें.

 

4. दही खड़ा मसाला करी

सामग्री

15-20 न्यूट्रीला चंक्स, 2 टमाटर, 1 छोटा चम्मच पिसा अदरक, 5-6 लाल सूखी मिर्चें, 1 प्याला दही, 1/2-1/2 छोटा चम्मच नमक व पिसा गरममसाला,  1 नीबू का रस, 1/4 छोटा चम्मच हलदी, 2 छोटे चम्मच धनिया पाउडर, 1 छोटा चम्मच तेल. खड़ा मसाला : 1-1 छोटा चम्मच काली मिर्च, दालचीनी व लौंग, 5-6 तेजपत्ते, 5-6 बड़ी इलायची.

विधि

सारे खड़े गरममसालों को महीन कपड़े में बांधें. तेल गरम करें, लाल सूखी मिर्चें कड़काएं. कटे टमाटर डालें व कपड़े में बंधे मसाले डालें. दही में बाकी सारे मसाले मिला कर डालें. पानी में भीगे चंक्स डाल कर सारे मिश्रण को अच्छी तरह से मिला कर कुकर बंद करें व 1 सीटी आने के बाद 10 मिनट तक मंदी आंच पर पकाएं. बंधे मसाले की पोटली निकाल कर गरमागरम करी परोसें.

5. खट्टी करी

सामग्री
250 ग्राम हरा धनिया, 5-6 हरी मिर्चें, 3-4 कलियां लहसुन, 11/2 छोटा चम्मच जीरा, 3 छोटे चम्मच अमचूर, 1 छोटा चम्मच नमक, 1 प्याज, 1/2 बड़ा चम्मच तेल, 11/2 कप उबले कौर्न.

विधि
धनिया साफ करें व काट कर ग्राइंडर में डालें. कटी मिर्चें, लहसुन, जीरा, नमक व अमचूर डाल कर 1/2 कप पानी के साथ पीस लें. तेल गरम करें, कटा प्याज डाल कर फ्राई करें व पिसी सामग्री डाल कर मिलाएं. उबले कौर्न डाल कर परोसें. इसे ठंडा भी परोसा जा सकता है.

7 बजे की ट्रेन: कौन-सी कमी रेणु को उदासी की तरफ धकेलती थी

एक उदास शाम थी. स्टेशन के बाहर गुलमोहर के पीले सूखे पत्ते पसरे हुए थे जो हवा के धीमे थपेड़ों से उड़ कर इधरउधर हो रहे थे. स्टेशन पहुंचने के बाद उन्हीं पत्तों के बीच से हो कर रेणू प्लेटफौर्म के अंदर आ चुकी थी. वह धीमेधीमे कदमों से प्लेटफौर्म के एक किनारे पर स्थित महिला वेटिंगरूम की ओर जा रही थी. 7 बजे की ट्रेन थी और अभी 6 ही बजे थे. ट्रेन के आने में देर थी.

शहर में उस की मां का घर स्टेशन से दूर है और ट्रांसपोर्टेशन की भी बहुत अच्छी सुविधा नहीं है. इसलिए वहां से थोड़ा समय हाथ में रख कर ही चलना पड़ता है, लेकिन आज संयोग से तुरंत ही एक खाली आटो मिल गया जिस के कारण रेणू स्टेशन जल्दी पहुंच गई थी.

पिताजी की मृत्यु के बाद मां घर में अकेली ही रह गई थी. घर के सामने सड़क के दूसरी ओर एक पीपल का पेड़ था और उस के बाद थोड़ी दूरी पर एक बड़ा सा तालाब. दोपहर के समय सड़क एकदम सुनसान हो जाती थी. कम आबादी होने के कारण इधर कम ही लोग आतेजाते थे. सुबह तो थोड़ी चहलपहल रहती भी थी पर दोपहर होतेहोते, जिन्हें काम पर जाना होता वे काम पर चले जाते बाकी अपने घरों में दुबक जाते.

दूर तक सन्नाटा पसरा रहता. यह सूनापन मां के घर के आंगन में भी उतर आता था. घर के आंगन में स्थित हरसिंगार की छाया तब छोटी हो जाती.

मां कितनी अकेली हो गई थी. आज जब वह घर से निकल रही थी तो मां उस का हाथ पकड़ कर रोने लगी. इतना लाचार और उदास उस ने मां को कभी नहीं देखा था. उस की आंखों में अजीब सी बेचैनी और बेचारगी झलक रही थी.

जब वह छोटी थी तो घर की सारी जिम्मेदारियां मां ही उठाती थी. वह मानसिक रूप से कितनी मजबूत थी. पिताजी तो अपने काम से अकसर बाहर ही रहते थे. बस, वे महीने के आखिर में अपनी सारी कमाई मां के हाथ में रख देते थे.

घरबाहर का सारा काम मां ही किया करती थी. उसे स्कूल, ट्यूशन छोड़ना और लाना सब वही करती थी. उस समय तो वह इलाका जहां आज उन का घर है, और भी उजाड़ था. स्कूल बस के आने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता था.

उसे याद है जब एक बार वह बीमार हो गई थी और कोई रिकशा नहीं मिल रहा था तो मां उसे अपनी गोद में ले कर उस सड़क तक ले गई थी जहां आटोरिकशा मिलता था. उस के बाद वहां से शहर के नामी अस्पताल में ले गई थी और उस का इलाज कराया था. तब उसे डाक्टरों ने 3 दिन तक अस्पताल में भरती रखा था.

मां कितनी मुस्तैदी से अकेले ही अस्पताल में रह कर उस की देखभाल करती रही थी. पिताजी तो उस के एक सप्ताह बाद ही आ पाए थे. इस बार मां बता रही थी कि जब वह बीमार हुई तो 3 दिन तक बुखार से घर में अकेले तड़पती रही. कोई उसे डाक्टर के पास ले जाने वाला भी कोई नहीं था. वह तो भला हो दूध वाले का, जिस ने दया कर के एक दिन उसे डाक्टर के यहां पहुंचा दिया था.

यह सब बताते हुए मां कितनी बेबस और कमजोर दिख रही थी. उम्र के इस पड़ाव में अकेले रह जाना एक अभिशाप ही तो है. रेणू यह सब सोच ही रही थी.

रेणू अपने मांबाप की इकलौती संतान थी. उस के मातापिता ने कभी दूसरे संतान की चाहत नहीं की. वे कहते कि एक ही बच्चे को अगर अच्छे से पढ़ायालिखाया जाए तो वह 10 के बराबर होता है. रेणू को याद है कि उस की बड़ी ताई ने जब उस की मां से कहा था कि अनुराधा, तुम्हारे एक बेटा होता तो अच्छा रहता, तो कैसे उस की मां उन पर झुंझला गई थी. वह कहने लगी थी कि आज के जमाने में बेटी और बेटा में भी भला कोई अंतर रह गया है. बेटियां आजकल बेटों से बढ़ कर काम कर रही हैं. हम तो अपनी बेटी को बेटे से बढ़ कर परवरिश देंगे.

प्लेटफौर्म पर कोई ट्रेन आ कर रुकी थी, जिस के यात्री गाड़ी से उतर रहे थे. अचानक प्लेटफौर्म पर भीड़ हो गई थी. लाउडस्पीकर पर ट्रेन के आने और उस के गंतव्य के संबंध में घोषणा हो रही थी. रेणू ने तय किया कि वेटिंगरूम में जाने से पूर्व एक कप चाय पी ली जाए और तब फिर आराम से वेटिंगरूम में कोई पत्रिका पढ़ते हुए समय आसानी से गुजर जाएगा. यही सोच कर वह एक टी स्टौल पररुक गई.

उस के मांपिताजी ने उसे पढ़ाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. इंजीनियरिंग करने के बाद रेणू आज बेंगलुरु में एक अच्छी कंपनी में कार्य कर रही थी. उस के पति भी वहीं एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत थे. दोनों की मासिक आय अच्छीखासी थी. किसी चीज की कोई कमी नहीं थी.

अब तक प्लेटफौर्म पर भीड़ छंट चुकी थी. प्लेटफौर्म पर आई गाड़ी निकल चुकी थी. रेणू ने वेटिंगरूम की ओर जाने का निश्चय किया. बगल के बुक स्टौल से उस ने एक पत्रिका भी खरीद ली थी. रेणू धीरेधीरे वेटिंगरूम की ओर बढ़ रही थी पर उस का मन फिर उड़ कर मां के उदास आंगन की ओर चला गया था. क्या मां ने चाय पी होगी? वह सोचने लगी. मां बता रही थी कि अब वह एक वक्त ही खाना बनाती है. एक बार सुबह कुछ बना लिया, फिर उसे ही रात में भी गरम कर के खा लेती थी. जितनी बार खाना बनाओ, उतनी बार बरतन धोने का झंझट.

इस बार रेणू ने अपनी मां को कुछ ज्यादा ही उदास पाया था. इस बार वह आई भी तो पूरे 1 साल के बाद थी. प्राइवेट कंपनी में वेतन भले ही ज्यादा मिलता हो पर जीने की आजादी खत्म हो जाती है और अभी तो उस का तरक्की करने का समय है. अभी तो जितनी मेहनत करेगी उतनी ही तरक्की पाएगी. इतनी दूर बेंगलुरु से बारबार आना संभव भी तो नहीं था. जब तक पिताजी थे, मां अकसर फोन कर के भी उस का हालचाल लेती रहती थी पर अब वह इस बात से भी उदासीन हो गई थी.

पहले बगल में मेहरा आंटी रहती थीं तो मां को कुछ सहारा था. उन से बोलबतिया लेती थी और एकदूसरे को मदद भी करती रहती थीं. इस बार जब रेणू आई और उस ने मेहरा आंटी के बारे में पूछा तो मां ने बताया कि उस का बेटा विनीत उसे मुंबई ले कर चला गया है अपने पास. हालांकि रेणू ने यह महसूस किया था कि जैसे मां कह रही हो कि उस का तो बेटा था, उसे अपने साथ ले गया.

अपनी इन्हीं विचारों में डूबी रेणू अचानक से किसी चीज से टकराई, नीचे देखा तो वह एक आदमी था, जिस के दोनों पैर कटे थे. वह हाथ फैला कर उस से भीख मांग रहा था. वह आदमी बारबार अपने दोनों पैर दिखा कर उस से कुछ पैसे देने का अनुरोध कर रहा था. उस के चेहरे पर जो भाव थे, उसे देख कर रेणू चौंक गई. उसे लगा वह मानो गहरे पानी में डूबती जा रही है और सांस नहीं ले पा रही है.

ऐसे ही भाव तो उस की मां के चेहरे पर भी थे जब वह अपनी मां से विदा ले रही थी. उसे लगा वह चक्कर खा कर गिर जाएगी. वह बगल में ही पड़ी एक बैंच पर धम्म से बैठ गई. वह आदमी अब भी उस के पैरों के पास उसे आशाभरी नजरों से देख रहा था. उसे उस आदमी की आंखों में अपनी मां की आंखें दिखाई दे रही थीं. ऐसी ही आंखें… बिलकुल ऐसी ही आंखें तो थीं उस की मां की जब वह घर से स्टेशन के लिए निकल रही थी.

रेणू ने अपनी आंखें बंद कर लीं और वहीं बैठी रही. 7 बज गए थे. बेंगलुरु जाने वाली ट्रेन का जोरजोर से अनाउंसमैंट हो रहा था. ट्रेन निकल जाने के बाद प्लेटफौर्म पर शांति छा गई और रेणू के मन में भी. रेणू थोड़ी देर वहीं बैठी रही.

अब उस का मन बहुत हलका हो गया था. आटो में बैठे हुए उस के मोबाइल पर मैसेज प्राप्त होने का रिंगटोन बजा. उस ने देखा कि बेंगलुरु जाने वाली अगले दिन की ट्रेन में 2 लोगों के टिकट कन्फर्म हो गए हैं. उस ने अपने पति को एक थैंक्स का मैसेज भेज दिया.

‘‘मां, आज क्या खाना बना रही हो? बहुत जोरों की भूख लगी है,’’ मां ने जैसे ही दरवाजा खोला, रेणू ने मां से कहा.

‘‘अरे, गई नहीं तुम? क्या हुआ, तबीयत तो ठीक है? ट्रेन तो नहीं छूट गई?’’ मां के स्वर में बेटी की खैरियत के लिए स्वाभाविक उद्विग्नता थी.

‘‘हां, मां सब ठीक है,’’ कहती हुई रेणू सोफे पर बैठ गई और मां को खींच कर वहीं बिठा लिया और उस की गोद में अपना सिर रख दिया. ऐसी शांति और ऐसा सुख, मां की गोद के अलावा कहां मिल सकता है. रेणू सोच रही थी. उस के गाल पर पानी की 2 गरम बूंदें गिर पड़ीं. ये शायद मां की खुशी के आंसू थे. अगले दिन बेंगलुरु जाने वाली ट्रेन में 2 औरतें सवार हुई थीं.

Anupamaa: डेट पर जाएंगे पाखी और अधिक, अनुपमा को होगा शक

टीवी सीरियल अनुपमा में  इन दिनों बड़ा ट्विस्ट देखने को मिल रहा है. शो में अब तक आपने दखा कि वनराज सबके सामने अनुपमा की बेइज्जती करता है. ऐसे में अनुज भी चुप नहीं रहता है और वनराज को खरी-खोटी सुनाता है. वह अनुपमा को शाह परिवार से दूर रहने के लिए कहता है. इसी बात को लेकर अनुपमा और अनुज के बीच बहस होती है. शो के अपकमिंग एपिसोड में खूब धमाल होने वाला है. आइए बताते है शो के नए एपिसोड के बारे में…

शो में आप देखेंगे कि अनुज-अनुपमा अपने झगड़े को खत्म कर एक-दूसरे को सॉरी बोलेंगे. बरखा यह देखकर परेशान होगी कि अनुज-अनुपमा के बीच सुलह हो गया है. उसे लगा था कि अनुज-अनुपमा का झगड़ा बढ़ता जाएगा.

 

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तो वहीं अधिक पाखी को फोन करके उसे चीयर अप करने का नाटक करेगा. पाखी को यह काफी अच्छा लगेगा. अधिक बात को आगे बढ़ाते हुए पाखी को कॉफी डेट पर चलने के लिए कहेगा. पाखी की खुशी-खुशी डेट पर जाने के लिए तैयार हो जाएगी.

 

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अधिक अपनी बहन बरखा की प्लानिंग में मदद करने वाला है. अधिक पाखी को बुरी तरह फंसाने वाला है.  वह पाखी को अपने झांसे में फंसाकर शाह परिवार को नीचा दिखाने वाला है. शो में आप ये भी देखेंगे कि अनुपमा को समझ आएगा कि  अधिक और पाखी के बीच में कुछ ना कुछ चल रहा है. शो में अब ये देखना होगा कि क्या अनुपमा अपनी बेटी पाखी को संभाल पायेगी?

 

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शो में ये भी दिखाया जाएगा कि राखी दवे शाह हाउस पहुंचेगी.  बाबूजी के सामने ही राखी दवे और बा के बीच बहस छिड़ जाएगी. राखी दवे एक ही बात पर अड़ी रहेगी कि उसकी बेटी किंजल की गोदभराई उसके घर में होगी. यह सुनकर शाह परिवार को धक्का लगेगा.

‘दिया और बाती हम’ की संध्या बींदड़ी ने माता-पिता को लेकर दिया ये संदेश, पढ़ें इंटरव्यू

दिल्ली के मध्यमवर्गीय परिवार मे जन्मी दीपिका सिंह को घर के आर्थिक हालात के चलते बीच में पढ़ाई  छोड़कर माता पिता की मदद के लिए नौकरी करते हुए पत्राचार से पढ़ाई पूरी करनी पड़ी. उन्होंने एक तरफ एमबीए की पढ़ाई पूरी की, तो दूसरी तरफ इवेंट का काम व थिएटर वगैरह करती रही. अंततः उन्हे 2011 में टीवी सीरियल ‘‘दिया और बाती हम’’ में अभिनय करने का अवसर मिला.पूरे  पांच वर्ष तक यह सीरियल प्रसारित होता रहा. इस सीरियल की शूटिंग के दौरान ही इसी सीरियल के निर्देशक रोहित राज गोयल से 2 मई 2014 को विवाह रचा लिया था.

शादी के बाद भी दीपिका सिंह अपने माता पिता की मदद करने के लिए तैयार रहती हैं. उसके बाद मई 2017 में वह एक बेटे की मां भी बन गयी. 2018 में उन्होने एक वेब सीरीज ‘‘द रीयल सोलमेट’ की. फिर 2019 में सीरियल ‘कवच’ में अभिनय किया. और अब वह अपने पति रोहित राज गोयल के ही निर्देशन में एक संदेश देने वाली फिल्म ‘‘टीटू अंबानी’’ में मौसमी का किरदार निभाया है, जिसकी सोच यह है कि शादी के बाद भी लड़की को अपने माता पिता की मदद करनी चाहिए. यह फिल्म आठ जुलाई को सिनेमाघरों में पहुंचने वाली है.

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प्रस्तुत है दीपिका सिंह से हुई बातचीत के अंश..

जब आप अभिनय को कैरियर बनाना चाहती थी, तो फिर एमबीए करने की क्या जरुरत महसूस की थी?

पहली बात तो मेरी तकदीर मुझे अभिनय के क्षेत्र में ले आयी. वास्तव में मैं एक इवेंट कंपनी में काम कर रही थी. इसी वजह से एक फैशन शो में हम गए थे, जहां एक लड़की के न आने से मुझे उसका हिस्सा बनना पड़ा और मैं विजेता भी बन गयी.उसके बाद कुछ न कुछ काम मिलता गया और मैं करती रही. मैने दिल्ली में ही रहते हुए थिएटर भी किया और फिर सीरियल ‘‘दिया और बाती हम’’ में अभिनय करने का अवसर मिला.

तो क्या एमबीए की पढ़ाई परिवार वालों के दबाव में किया?

जी नहीं..यह मेरा खुद का निर्णय था. मैंने एमबीए की पढ़ाई कारेस्पोंडेंस से किया. पहले मैं आई टी कर रही थी. लेकिन परिवार में आर्थिक संकट के चलते मुझे पढ़ाई रोकनी पड़ी थी और फिर मैंने कारेस्पोंडेस से पढ़ाई की.

आईसीआईसीआई बैंक में मेरी नौकरी लग गयी थी और मैं अपने माता पिता की मदद करती थी. मेरी राय में अच्छी शिक्षा ही इंसान को कहीं से कहीं पहुंचा सकती है.रेगुलर पढ़ाई कर पाना मेरे लिए संभव नहीं हुआ, तो मैंने पत्राचार से पढ़ाई की. पढ़ाई तो मेरा शौक रहा है.

तो यह माना जाए कि आपको बिना संघर्ष किए ही सीरियल ‘‘दिया और बाती हम’’ का हिस्सा बनने का अवसर मिल गया था?

इस संसार में बिना संघर्ष किए कुछ नहीं मिलता. पर ऑडिशन देने के बाद एक माह के अंदर ही मेरा चयन संध्या राठी के किरदार के लिए हो गया था. मैं इसे अपनी डेस्टिनी मानती हूं. पर पहले मैंने दिल्ली में इस सीरियल के लिए ऑडिशन दिया था. फिर मुंबई आकर एक माह तक ऑडीशन व लुक टेस्ट वगैरह होते रहे.

दिया और बाती हमके समय ऑडीशन की जो प्रक्रिया थी और अब ऑडीशन की जैसी प्रक्रिया है, उसमें कितना अंतर आ गया है?

कोई बदलाव नहीं आया. बाद में मैंने ‘कवच’ के लिए भी ऑडीशन दिया था.पहले लोग जानते नहीं थे, अब लोग जानते हैं, इसलिए फर्क आ गया है. क्योंकि किरदार के अनुरूप चेहरा होने पर ही चयन होता है. अब लोग जानते हैं तो जब किरदार के अनुरूप मैं नजर आती हूं, तभी बुलाते हैं. पहले हम लाइन में लग कर हर ऑडीशन देते थे. अब लोग मेरे चेहरे व मेरी प्रतिभा से वाकिफ हैं, तो उपयुक्त किरदार के लिए ही बुलावा आता है. अब लाइन में लगकर ऑडीशन देने की जरुरत नहीं पड़ती. तब मुझे लोगों को बताना पड़ता था कि मैं अभिनय कर सकती हॅूं. पहले भी मेरे अंदर टैलेंट था, मगर तब आत्मविश्वास की कमी थी. अब आत्मविश्वास भी आ चुका है.फिर भी ऑडीशन हमेशा टफ होते हैं.

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ऑडीशन में रिजेक्शन को किस तरह से लेती रही हैं?

जिंदगी में स्वीकार्यता कम मिलती है, रिजेक्शन ज्यादा मिलते हैं. इसलिए मैं कभी निराश नहीं होती थी. मैं हमेशा मान लेती थी कि ऑडीशन अच्छा नहीं हुआ होगा, इसलिए रिजेक्शन आया.

उसके बाद अभिनय में सुधार लाने के लिए क्या करती थी?

देखिए, जब हम अभिनय करते हैं,  तो बहुत सी चीजे होती हैं. हम सही ढंग से पटकथा को पढ़कर किरदार को समझते हैं. सेट पर हमें सही ढंग से समझाने के लिए निर्देषक होते हैं. फिर सामने सह कलाकार होते हैं. सह कलाकार के साथ तालमेल से भी अभिनय करना असान हो जाता है.वैसे भी अभिनय तो ‘एक्शन का रिएकशन’ ही है. इसीलिए मैंने कहा कि ऑडीशन टफ होते हैं.

सीरियल ‘‘दिया और बाती हम’’ व इसके संध्या राठी के किरदार को जबरदस्त सफलता मिली. आपको स्टारडम मिला.पर फिर इसे आप भुना नही पायी? कहां गड़बड़ी हुई?

गड़बड़ी कहीं नही हुई. मैंने बहुत मेहनत की थी, तब जाकर वह स्टारडम मिला. देखिए, डेस्टिनी आपको एक दरवाजे पर लाकर खड़ा कर देती है .उसके बाद आपकी कठिन मेहनत, आपका इंटेशन, आपका विलिंग पावर ही काम आता है. इसी आधार पर आप खुद को टिकाए रख पाते हैं. पर मुझे जो स्टारडम मिला, उसे मैं सिर्फ डेस्टिनी नही कहॅूंगी, बल्कि मेरी कठिन मेहनत व लगन से मिला. डेस्टिनी ने मुझे सीरियल दिलवा दिया था, मगर उसके बाद उसमें खुद को बनाए रखना मेरी मेहनत,लगन व मेरे टैंलेंट से ही संभव हुआ. उसके बाद भी मैंने हमेशा अच्छे काम को ही प्रधानता दी. मैं तो बचपन से ही चूजी हॅूं.मैं बहुत ही ज्यादा चुना हुआ काम करती हॅूं.

2016 के बाद कोई बड़ा सीरियल नहीं किया?

जी हां, मैं अपनी निजी जिंदगी में आगे बिजी रही थी. मैने विवाह रचाया. मेरा परिवार बना.पारिवारिक जीवन को इंजॉय कर रही थी. मेरे परिवार का हर सदस्य बहुत ही ज्यादा सहयोगी है. इसलिए वहां से मुझे मेरे काम पर रूकावट डालने की बजाय हमेशा बढ़ावा ही मिला. पर मैं खुद को अपने दर्शकों के प्रति जिम्मेदार मानती हूं. ‘दिया और बाती हम’ के बाद मुझे बेहतरीन व चुनौतीपूर्ण पटकथा नहीं मिली, जहां मुझे लगे कि इसे किया जाना चाहिए. पर जब भी अच्छी पटकथा मिली,मैने की.जैसे कि मैने ‘हलाला’ की.‘कवच’ किया. फिर ‘कोविड’ आ गया. फिर मैने फिल्म ‘टीटू अंबानी’ की. तो मुझे जब भी अच्छा काम करने का अवसर मिला,उसे मैने किया. पर मैंने लगातार काम नहीं किया. वैसे मैं उस तरह की इंसान नहीं हूं. मैंने लगातार ‘दिया और बाती हम’ के तीन सौ एपीसोड कर लिए थे, यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी.

फिल्म ‘‘टीटू अंबानी’’ में क्या खास बात पसंद आयी कि आपने इसे करना चाहा?

इसकी कई वजहें रहीं. इसमें कई बड़े बड़े कलाकार हैं. इसकी पटकथा व कहानी जबरदस्त है. इसके संवाद हर किसी को मोह लेने वाले हैं. गीत भी अच्छे हैं. जब मैने पटकथा पढ़ती, तो जिस तरह से इस कहानी में एक अच्छा संदेश पिरोया गया है, उसने मुझे फिल्म को करने के लिए उकसाया. यह फिल्म हंसते व गुदगुदाते हुए अपनी बात कह जाती है. इसमें मैं ही एकमात्र टीवी की कलाकार हूं, बाकी सभी तो फिल्मों से जुड़े कलाकार है. मुझे तो मौसमी का किरदार जीवंत करना था.फिल्म के निर्देशक रोहित को बहुत कुछ पता था.सभी सह कलाकार काफी सपोर्टिब रहे. बीच में कोविड के ब-सजय़ने से हमें शूटिंग में जरुर कुछ तकलीफें हुई. यह फिल्म महज नारी प्रधान फिल्म नही है. इसमें एक लड़के यानी कि टीटू का अपना संघर्ष है. टीटू के भी अपने सपने व महत्वाकांक्षाएं हैं. तो मौसमी के भी अपने सपने व महत्वाकांक्षाएं हैं.

अपने मौसमी के किरदार को लेकर क्या कहेंगी?

मौसमी बहुत ही ज्यादा जिम्मेदार लड़की है. वह अपनी जिम्मेदारियों को गंभीरता से निभाती है. मौसमी अपने माता पिता की इकलौटी बेटी है, तो वह उनके प्रति अपने कर्तव्य व जिम्मेदारी का पूरी तरह से निर्वाह करती है. उसकी सोच यह है कि जिस तरह लड़के से उसकी शादी के बाद नहीं पूछा जाता कि वह अपने माता पिता की सेवा क्यों कर रहा है, उसी तरह उससे यानी कि लड़की से भी न पूछा जाए.

मौसमी चाहती है कि वह अपने माता पिता की मदद करे और उनके माता पिता को डिग्नीफाइड रूप में देखा जाए.इसमंे टीटू किस तरह से मौसमी की मदद करता है या नही करता है? यह तो फिल्म देखने पर ही पता चलेगा.क्या हालात बनते हैं? मौसमी की यात्रा कैसे आगे ब-सजय़ती है,यह सब फिल्म में नजर आएगा.

दीपिका सिंह और मौसमी में कितना अंतर है?

देखिए, मौसमी का किरदार लेखक व निर्देशक रोहित ने बहुत मेहनत से सजय़ा है. इसलिए दीपिका व मौसमी एकदम अलग हैं. लेकिन दोनों जानते हैं कि अपने अपने हालात में कैसे आगे बढ़ा जाए. हां दोनों में समानता यही है कि मेरी ही तरह मौसमी भी हमेशा अपने माता पिता की मदद के लिए तैयार रहती है. मैं चाहती हूं कि हर लड़की अपने माता पिता की मदद कर पाए. इक्वालिटी आफ रिस्पांसिबिलिटी होनी चाहिए. समाज लड़की के इस कदम को डिग्नीफाइड वे में देखे.समाज के दबाव के चलते बेटी की शादी हो जाने के बाद माता पिता चाहे जितनी मुसीबत में हो, पर वह अपनी बेटी से अपनी समस्या नहीं बताते. उससे मदद नहीं लेते. वह बेटी से कहते हैं कि अब ससुराल ही तुम्हारा घर है. उसी पर ध्यान दो. आधुनिक युग में भी हर मां बाप यही सोचता है कि हमारे बुढ़ापे का सहारा, तो मेरा बेटा ही होगा. हमारी फिल्म में कहने का प्रयास किया गया है कि श्रवण कुमार बेटियां भी हो सकती हैं.

फिल्म के लेखक व निर्देशक रोहित राज गोयल निजी जिंदगी में आपके पति हैं.तो उन्हे पता है कि आप अपने माता पिता की मदद करती हैं, इसीलिए उन्होंने फिल्म में इस बात को समाहित किया?

जी नहीं…ऐसा नहीं है. रोहित की जिंदगी में कई ऐसी लड़कियां है, जो अपने माता पिता की मदद कर रही हैं. रोहित को इसकी प्रेरणा कहां से मिली, पता नहीं. मौसमी इकलौटी बेटी है. जबकि मेरी दूसरी बहन भी है. मेरी बहन अनु तो हमेशा माता पिता की मदद के लिए खडी रहती है. मेरा भाई भी है. वह भी माता पिता के साथ रहता है. बहन अनु की अभी शादी नही हुई है. तो दीपिका और मौसमी में बहुत अंतर है. वैसे हर लड़की अपने माता पिता की मदद करना चाहती है, सवाल यह है कि उसे सपोर्टिव इंवायरमेंट कितना मिलता है.

समाज काफी बदला है. नारी स्वतंत्रता व नारी उत्थान को लेकर पिछले कुछ समय में बहुत कुछ कहा गया. इसका समाज में क्या असर पड़ा और यह मुद्दा आपकी फिल्म टीटू अंबानीमें किस तरह से है?

समाज में काफी बदलाव हुआ है. अभी भी मेरी राय में मानवीय रिश्तों में भी समानता होनी चाहिए. अब लगभग हर दूसरे परिवार में नारी कामकाजी है. पहले ऐसा नहीं था. पहले औरत की जिम्मेदारी घर में खाना पकाना, बच्चे पैदा करना और बच्चे पालना ही होती थी. बच्चे को अच्छी तरह से संभाले यही कहा जाता था.जब बच्चे आठ दस साल की उम्र के हो जाएं, तब उन्हें अपने शौक को पूरा करने या काम करने की छूट मिलती थी.लेकिन उस उम्र में कामकाजी महिला के लिए पुनः वापसी करना मुश्किल हो जाता था. अब औरतें बराबरी पर चल रही है. हमारी फिल्म ‘‘टीटू अंबानी’’ में ‘इक्वालिटी इन रिस्पांसिबिलिटी’ की बात की गयी है.लेकिन फिल्म में मनोरंजन भी है.

बौलीवुड में हीरो व हीरोईन की पारिश्रमिक राशि में बड़ा अंतर है? यानी कि बौलीवुड में समानता है ही नहीं?

मुझे लगता है कि हीरो डिजर्व करते हैं. इस पर मैं कुछ नहीं कहना चाहती. जब आपने ‘दिया और बाती हम’ से कैरियर शुरू किया था, उस वक्त टीवी के कलाकारों को फिल्मों में काम नहीं मिल पाता था. पर अब ऐसा नहीं है.

अब टीवी कलाकार आसानी से फिल्में कर रहे हैं. ऐसे में आप खुद को कहां पाती हैं?

मैं बहुत भाग्यशाली हॅूं कि मुझे प्राइम टाइम नौ बजे के सीरियल में अभिनय करने का मौका मिल गया था.वह भी लीड किरदार मिला था, जिसकी मैंने उम्मीद भी नहीं की थी. मैं तो सोचती थी कि मुझे बहन वगैरह के किरदार मिलेंगे.पर लीड किरदार मिला. मैंने इस सीरियल में अपने बालों में सफेदी पोटकर भी किरदार निभाया. मेरे लिए अभिनय करना अमैजिंग होता है. मैं अभिनेत्री इसीलिए बनी कि एक ही जिंदगी में कई अलग अलग जिंदगियां जीने का अवसर मिलेगा.

मुझे अभिनय से प्यार है. जब तक सीरियल का प्रसारण शुरू नहीं हुआ, तब तक तो मुझे यकीन ही नही हो रहा था कि मैं लीड किरदार निभा रही हॅूं.तो मेरा सोचने का नजरिया अलग है. लेकिन तब से अब तक टीवी व फिल्म इंडस्ट्री में काफी बड़ा बदलाव आ चुका है.इस बदलाव में अहम भूमिका ओटीटी ने निभायी है.आज यह बंदिश नहीं रही कि टीवी कर रहे हैं, तो फिल्म या वेब सीरीज नही कर पाएंगे. अब तो दिग्गज सुपर स्टार भी ओटीटी व टीवी पर आ रहे हैं. अब सिर्फ नाम का फर्क रह गया अन्यथा टीवी,  ओटीटी व फिल्म सब एक ही है.मैं भी फिल्म का हिस्सा बन चुकी हॅूं. अब कलाकार को टाइम कास्ट नही किया जाता. दर्शक के लिए कलाकार सिर्फ कलाकार है.

आप ओड़िसी डांस सीख रही है. कोई खास वजह?

जी हां! मैं ओड़िसी डांस सीख रही हॅूं. इसके काफी फायदे हैं. यह मेरे लिए साधना है. मैं बहुत Spiritual हॅूं और मैं ओड़िसी डांस स्प्रिच्युआलिटी के लिए करती हॅूं.यह डांस मेरे लिए प्रेयर करने का एक तरीका है. काफी कुछ सीखने को मिलता है. मेरा दिमाग भी एक्टिब रहता है. ओड़िसी डांस के फायदे मैं शब्दों में नहीं गिना सकती. इससे मेरी सोच में भी बदलाव आता है. मेडीटेशन में और वर्तमान में जीने में मदद करता है.

दीपिका सिंह के कई रूप हैं. आप औरत,मां,पत्नी,बहू और अभिनेत्री हैं.किसे कितना समय देती है?

जिस वक्त जिसे जरुरत होती है, उसे उतना समय देने का प्रयास करती हॅूं. अपनी तरफ से पूरा सामंजस्य बैठाने का प्रयास करती हॅूं. सबसे ज्यादा समय मैं खुद को देती हॅं. मेरी ससुराल में सभी कोआपरेटिव हैं, इसलिए सब कुछ आसानी से मैनेज हो जाता है. सबसे ज्यादा जरुरत होती है हर किसी को सम्मान देना,जिसमें मेरी तरफ से कोई चूक नहीं होती.

वो क्या जाने पीर पराई- भाग 2: हेमंत की मृत्यु के बाद विभा के साथ क्या हुआ?

सवेरे की शताब्दी एक्सप्रैस से विमल ने मु?ो रवाना कर दिया. क्या मालूम था कि कानपुर इस तरह अकेले जाना पड़ेगा. नियति तो कोई बदल नहीं सकता पर सहज विश्वास नहीं होता. अतीत वर्तमान से इतना दूर तो नहीं था.

कानपुर के वीएसएसडी कालेज के

2 वर्षों के ममता के साथ ने हमें अत्यधिक निकटता प्रदान की. हम दोनों ही साइंस की छात्राएं थीं, इसलिए उठनाबैठना, कैंटीन तथा लाइब्रेरी में इस तरह साथसाथ जाना, इस कोएजुकेशन क्लास में हमारी मजबूरी भी थी और जरूरत भी. निकटता हमारे घरों और दिलों में प्रवेश कर गई.

मेरा घर कालेज के पास होने के नाते अकसर वह घर ही चली आती. पिताजी का दिल्ली ट्रांसफर होने के बाद भी हमारी मित्रता में कोई कमी नहीं आई. कालेज के एक प्रोफैसर से उस के संबंधों की एकमात्र मैं ही राजदार थी. कई बार ममता मेरे घर का बहाना बना कर मोती?ाल और जेके टैंपल लौन में बैठी रहती.

इन के मिलन से मेरे मन में ईर्ष्यामिश्रित गुदगुदी होती रहती. दिल्ली जाने के कुछ ही दिनों बाद पता चला कि उन का प्रणय निवेदन अस्त होते सूरज की भांति गहराता गया. प्रोफैसर की जल्दी विवाह की जिद और ममता के अविवाहित बड़े भाईबहन की मजबूरी ने इस प्रेम को परवान न चढ़ने दिया. वह करती भी क्या, फूटफूट कर फोन पर रोई. दिल की सारी भड़ास कागज पर उतार कर मु?ो भेजी.

औरत भला और कर भी क्या सकती है? हमारी संस्कृति की नियति भी यही है और गरिमा भी. बड़ों से पहले छोटों के विवाह को सवालिया नजरों से जो देखा जाता है.

जैसेतैसे मन मार कर पिता ने जहां बात पक्की की, ममता ने हामी भर दी. हंसमुख स्वभाव का हेमंत आईआईटी से कैमिकल इंजीनियरिंग कर एक प्राइवेट कंपनी में एक्जीक्यूटिव था. 3-4 बच्चों को घर पर ही ट्यूशन पढ़ाता. उसे भी ममता पसंद आ गई और शादी के लिए वह मान गया.

ममता के लिए तो स्वीकृतिअस्वीकृति का प्रश्न ही नहीं, सूनी आंखों से मांग में सिंदूर भरा. विदाई की घड़ी में पाषाण सी बनी चुपचाप चली गई. मु?ा से गले लिपट कर रो लेती तो अच्छा था. भरी बरात में मेरे सिवा उस का दुख कौन जान सकता था. उस के लिए पिता के घर से जाने का विछोह और उस से भी कहीं ज्यादा प्रोफैसर की सारी यादें समेट कर मन के किसी कोने में दफन कर देना एक त्रासदी से कम न था. मैं शादी पर नहीं गई होती तो शायद वह घुट कर मर ही जाती.

भैया का ट्रांसफर कानपुर हो जाने से ममता के साथ दिल जुड़ा रहा. कुछ भी अनकहाअनछुआ नहीं था हम दोनों के बीच. मात्र संयोग ही था जो हम दोनों के बीच अवसाद के दरिया को सूखने से बचाता रहा.

विमल से कहीं ज्यादा मु?ो ममता जानती थी. भीतर की घुटन और त्रासदी को हम दोनों मिल कर हलका करते रहे. हेमंत की मधुर स्मृति आंखों के सामने तैरती रही. कैसे बिताएगी बेचारी इतना लंबा वैधव्य जीवन? 10 वर्ष भी परस्पर दोनों का साथ नहीं रह सका.

कानपुर पहुंची तो मैं ड्राइंगरूम में सफेद साड़ी में लिपटी ममता को पहचान न पाई. सभी अपरिचित चेहरे, करुण जैसा खामोश सन्नाटा और एकदम अलगथलग ममता. मेरे वहां पहुंचते ही वह फूटफूट कर रो पड़ी. मु?ा से सचमुच दिल दहला देने वाला खामोश वातावरण देख कर रहा नहीं गया. उस ने मु?ो अंक में भींच लिया. कब तक एकदूसरे के साथ सटी रहीं, पता नहीं.

‘‘कब से तेरा बेसब्री से इंतजार कर रही थी बेचारी. कहां थी तू?’’ उस की मां ने पीठ पर कोमल हाथ फेर कर मु?ा से कहा, ‘‘जा, दूसरे कमरे में ले जा इसे, थोड़ा चैन मिलेगा तेरे आने से.’’

‘‘मैं एकदम अकेली पड़ गई, विभा…’’ कहते हुए उस की रुलाई रुक नहीं पा रही थी. सहारा दे कर मैं उसे दूसरे कमरे में ले गई. दोनों बच्चों की आंखों में दहला देने वाली खामोशी थी. मु?ो उन की आंखों से डर लगने लगा. उन में अजीब सा भय व्याप्त था. उस खामोशी को तोड़ना अनिवार्य हो गया था.

‘‘ममता, थोड़ा धीरज तो रख,’’ मैं ने उस की अश्रुधारा अपनी साड़ी के पल्लू से पोंछते हुए कहा, ‘‘थोड़ा पानी पी ले, मैं बच्चों को हाथमुंह धुलवा कर खाना खिलाती हूं, फिर तेरे पास बैठूंगी.’’

‘‘तू कहीं न जा मु?ो छोड़ कर,’’ वह बहुत ही कातर स्वर में मेरी बांह पकड़ कर बोली, ‘‘मां बच्चों को खाना खिला देंगी. मैं अकेली रह गई विभा. कैसे होगा सबकुछ, मु?ो तो कुछ मालूम भी नहीं है. कभी सोचा भी न था कि…’’ कह कर वह सुबकसुबक कर रो पड़ी. आगे के शब्द उस की जबान से ही न निकले.

मैं उसे रो लेने देना चाहती थी क्योंकि जितना मन हलका हो सके, अच्छा है.

‘‘यों दिल छोटा न करें. कोई न कोई रास्ता निकल ही आएगा,’’ मैं ने सांत्वना देते हुए कहा.

‘‘रास्ता ही निकलना होता तो हेमंत ही क्यों मु?ो छोड़ कर जाते? इतनी असाध्य बीमारी तो थी भी नहीं. अस्थमा की कभीकभी शिकायत करते थे. जिस ने जैसा कहा वैसा ही करते रहे और ऐसी कोई हालत भी खराब नहीं थी. बस, उस रात तेज खांसी उठी और सबकुछ खत्म हो गया. कोई दवा काम न आई,’’ कहते हुए वह गंभीर हो उठी.

मेरे पास न कोई तर्क था न कोई शब्द. थोथे व्याख्यान सुनतेसुनते तो वह भी अपना आपा खो बैठी थी. 35 साल की उम्र और पहाड़ सा जीवन, कैसे व्यतीत करेगी भला वह? कहां रह गया नियति का न्याय?  परंतु कोई सामने हो तो गिला भी करे, मगर वह कहां गुस्सा उतारे?

हेमंत को गुजरे अभी 10 दिन भी पूरे नहीं हुए थे. सभी लोग एकएक कर चलते गए. घर फिर वीरान सा लगने लगा. सभी दोस्त, संगीसाथी सांत्वना के दो शब्द कहने के लिए आतेजाते रहे परंतु ममता निर्जीव सी पड़ी रही.

हेमंत के पिता उसे अपने साथ ले जाना चाहते थे परंतु ममता ने स्वयं ही खुद को संभालने का निर्णय लिया. इन 10 दिनों में उस ने सारे कोण नाप लिए, रास्ता दिखाने वाले आतेजाते रहे और तरस का पात्र सम?ा कर दिल और दुखा जाते. वह करती भी क्या?

एक दिन हिम्मत कर के मैं ने ममता को सम?ाया कि अब अपने बारे में भी कुछ सोचे, ऐसा भला कब तक चलेगा? वह कोई तरस की पात्र तो नहीं है. अपनी मंजिल तो उसे स्वयं ही तय करनी होगी.

सवेरे बच्चों को तैयार कर मैं भारी मन से उन्हें स्कूल छोड़ने के लिए जाने लगी तो ममता से बोली, ‘‘चल, तु?ो भी साथ ले चलूं. थोड़ा मन बहल जाएगा.’’

बहुत कहने पर साधारण सी सफेद साड़ी बदन पर लपेट कर चलने लगी तो मैं ने सम?ाया, ‘‘ऐसे चलेगी क्या? जो होना था सो हो चुका. अपनी गृहस्थी तो अब तु?ो ही संभालनी है. क्या सभी रीतियों को भी पूरा करना होगा? लाचार सी बन कर घर से निकलेगी तो लाचारी का ही सामना करना पड़ेगा. लोग तु?ो लाचार सम?ा कर ही व्यवहार करेंगे. ऐसा चाहती है क्या तू?’’

सुलझती जिंदगियां : रागिनी के साथ ऐसा क्या हुआ, जिसे वह भुला नहीं पाई

विवाह स्थलअपनी चकाचौंध से सभी को आकर्षित कर रहा था. बरात आने में अभी समय था. कुछ बच्चे डीजे की धुनों पर थिरक रहे थे तो कुछ इधर से उधर दौड़ लगा रहे थे. मेजबान परिवार पूरी तरह व्यवस्था देखने में मुस्तैद दिखा.

इसी विवाह समारोह में मौजूद एक महिला कुछ दूर बैठी दूसरी महिला को लगता घूर रही थी. बहुत देर तक लगातार घूरने पर भी जब सामने बैठी युवती ने कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की तो सीमा उठ कर खुद ही उस के पास चली गई. बोली, ‘‘तुम रागिनी हो न? रागिनी मैं सीमा. पहचाना नहीं तुम ने? मैं कितनी देर से तुम्हें ही देख रही थी, मगर तुम ने नहीं देखा, तो मैं खुद उठ कर तुम्हारे पास चली आई. कितने वर्ष गुजर गए हमें बिछुड़े हुए,’’ और फिर सीमा ने उत्साहित हो कर रागिनी को लगभग झकझोर दिया

रागिनी मानो नींद से जागी. हैरानी से सीमा को देर तक घूरती रही. फिर खुश हो कर बोली, ‘‘तू कहां चली गई थी सीमा? मैं कितनी अकेली हो गई थी तेरे बिना,’’ कह कर उस ने उसे अपनी बांहों में भर लिया. दोनों की आंखें छलक उठीं.

‘‘तू यहां कैसे?’’ सीमा ने पूछा.

‘‘मेरे पति रमन ओएनजीसी में इंजीनियर हैं और यह उन के बौस की बिटिया की शादी है, तो आना ही था अटैंड करने. पर तू यहां कैसे?’’ रागिनी ने पूछा.

‘‘सुकन्या यानी दुलहन मेरी चचेरी बहन है. अरे, तुझे याद नहीं अकसर गरमी की छुट्टियों में आती तो थी हमारे घर लखनऊ में. कितनी लड़ाका थी… याद है कभी भी अपनी गलती नहीं मानती थी. हमेशा लड़ कर कोने में बैठ जाती थी. कितनी बार डांट खाई थी मैं ने उस की वजह से,’’ सीमा ने हंस कर कहा.

‘‘ओ हां. अब कुछ ध्यान आ रहा है,’’ रागिनी जैसे अपने दिमाग पर जोर डालते हुए बोली.

फिर तो बरात आने तक शौपिंग, गहने, मेकअप, प्रेमप्रसंग और भी न जाने कहांकहां के किस्से निकले और कितने गड़े मुरदे उखड़ गए. रागिनी न जाने कितने दिनों बाद खुल कर अपना मन रख पाई किसी के सामने.

सच बचपन की दोस्ती में कोई बनावट, स्वार्थ और ढोंग नहीं होता. हम अपने मित्र के मूल स्वरूप से मित्रता रखते हैं. उस की पारिवारिक हैसियत को ध्यान नहीं रखते.

तभी शोर मच गया. किसी की 4 साल की बेटी, जिस का नाम निधि था, गुम हो गई थी. अफरातफरी सी मच गई. सभी ढूंढ़ने में जुट गए, तुरंत एकदूसरे को व्हाट्सऐप से लड़की की फोटो सैंड करने लगे. जल्दी ही सभी के पास पिक थी. शादी फार्महाउस में थी, जिस के ओरछोर का ठिकाना न था. जितने इंतजाम उतने ही ज्यादा कर्मचारी भी.

आधे घंटे की गहमागहमी के बाद वहां लगे गांव के सैट पर सिलबट्टा ले कर चटनी पीसने वाली महिला कर्मचारी के पास खेलती मिली. रागिनी तो मानो तूफान बन गई. उस ने तेज निगाह से हर तरफ  ढूंढ़ना शुरू कर दिया था. बच्ची को वही ढूंढ़ कर लाई. सब की सांस में सांस आई. निधि की मां को चारों तरफ  से सूचना भेजी जाने लगी, क्योंकि सब को पता चल गया था कि मां तो डीजे में नाचने में व्यस्त थी. बेटी कब खिसक कर भीड़ में खो गई उसे खबर ही न हई. जब निधि की दादी को उसे दूध पिलाने की याद आई, तो उस की मां को ध्यान आया कि निधि कहां है?

बस फिर क्या था. सास को मौका मिल गया. बहू को लताड़ने का और फिर शोर मचा कर सास ने सब को इकट्ठा कर लिया.

भीड़ फिर खानेपीने में व्यस्त हो गई. सीमा ने भी रागिनी से अपनी छूटी बातचीत का सिरा संभालते हुए कहा, ‘‘तेरी नजरें बड़ी तेज हैं… निधि को तुरंत ढूंढ़ लिया तूने.’’

‘‘न ढूंढ़ पाती तो शायद और पगला जाती… आधी पागल तो हो ही गई हूं,’’ रागिनी उदास स्वर में बोली.

‘‘मुझे तो तू पागल कहीं से भी नहीं लगती. यह हीरे का सैट, ब्रैंडेड साड़ी, यह स्टाइलिश जूड़ा, यह खूबसूरत चेहरा, ऐसी पगली तो पहले नहीं देखी,’’ सीमा खिलखिलाई.

‘‘जाके पैर न फटे बिवाई वो क्या जाने पीर पराई. तू मेरा दुख नहीं समझ पाएगी,’’ रागिनी मुरझाए स्वर में बोली.

‘‘ऐसा कौन सा दुख है तुझे, जिस के बोझ तले तू पगला गई है? उच्च पदस्थ इंजीनियर पति, प्रतिष्ठित परिवार और क्या चाहिए जिंदगी से तुझे?’’ सीमा बोली.

‘‘चल छोड़, तू नहीं समझ पाएगी,’’ रागिनी ने ताना दिया.

‘‘मैं, मैं नहीं समझूंगी?’’ अचानक ही उत्तेजित हो उठी सीमा, ‘‘तू कितना समझ पाई है मुझे, क्या जानती है मेरे बारे में… आज 10 वर्ष के बाद हम मिले हैं. इन 10 सालों का मेरा लेखाजोखा है क्या तेरे पास? जो इतने आराम से कह रही है? क्या मुझे कोई गम नहीं, कोई घाव नहीं मिला इस जिंदगी में? फिर भी मैं तेरे सामने मजबूती से खड़ी हूं, वर्तमान में जीती हूं, भविष्य के सपने भी बुनती हूं और अतीत से सबक भी सीख चुकी हूं, मगर अतीत में उलझी नहीं रहती. अतीत के कुछ अवांछित पलों को दुस्वप्न समझ कर भूल चुकी हूं. तेरी तरह गांठ बांध कर नहीं बैठी हूं,’’ सीमा तमतमा उठी.

‘‘क्या तू भी किसी की वासना का शिकार बन चुकी है?’’ रागिनी बोल पड़ी.

‘‘तू भी क्या मतलब? क्या तेरे साथ भी यह दुर्घटना हुई है?’’ सीमा चौंक पड़ी.

‘‘हां, वही पल मेरा पीछा नहीं छोड़ते. फिल्म, सीरियल, अखबार में छपी खबर, सब मुझे उन पलों में पहुंचा देते हैं. मुझे रोना आने लगता है, दिल बैठने लगता है. न भूख लगती है न प्यास, मन करता है या तो उस का कत्ल कर दूं या खुद मर जाऊं. बस दवा का ही तो सहारा है, दवा ले कर सोई रहती हूं. कोई आए, कोई जाए मेरी बला से. मेरे साथ मेरी सास रहती हैं. वही मेड के साथ मिल कर घर संभाले रहती हैं और मुझे कोसती रहती हैं कि मेरे हीरे से बेटे को धोखे से ब्याह लिया. एक से एक रिश्ते आए, मगर हम तो तेरी शक्ल से धोखा खा गए. बीमारू लड़की पल्ले पड़ गई. मैं क्या करूं,’’ आंखें छलछला उठीं रागिनी की.

‘‘तू अकेली नहीं है इस दुख से गुजरने वाली. इस विवाहस्थल में तेरीमेरी जैसी न जाने कितनी और भी होंगी, पर वे दवा के सहारे जिंदा नहीं हैं, बल्कि उसे एक दुर्घटना मान कर आगे बढ़ गई हैं. अच्छा चल, तू ही बता तू रोड पर राइट साइड चल रही है और कोई रौंग साइड से आ कर तुम्हें ठोकर मार कर चला जाता है, तो गलत तो वही हुआ न? ऐसे ही, जिन्होंने दुष्कर्म कर हमारे विश्वास की धज्जियां उड़ाईं, दोषी वे हैं. हम तो निर्दोष हैं, मासूम हैं और पवित्र हैं. अपराधी वे हैं, फिर हम घुटघुट कर क्यों जीएं, यह एहसास तो हमें उन्हें हर पल कराना चाहिए, ताकि वे बाकी की जिंदगी घुटघुट कर जीएं.’’ सीमा ने आत्मविश्वास से कहा.

‘‘क्या तू ने दिलाया यह एहसास उसे?’’ रागिनी ने पूछा.

‘‘मेरा तो बौयफ्रैंड ही धोखेबाज निकला. आज से 10 साल पहले जब हम पापा के दिल्ली ट्रांसफर के कारण लखनऊ छोड़ कर चले गए थे, तब वहां नया कालेज, नया माहौल पा कर मैं कितना खुश थी. हां तेरी जैसी बचपन की सहेली से बिछुड़ने का दुख तो बहुत था, मगर मैं दिल्ली की चकाचौंध में कहीं खो गई थी. जल्दी ही मैं ने क्लास में अपनी धाक जमा ली…

‘‘धु्रव मेरा सहपाठी, जो हमेशा प्रथम आता था, दूसरे नंबर पर चला गया. 10वीं कक्षा में मैं ने ही टौप किया तो धु्रव जलभुन कर राख हो गया, मगर बाहरी तौर पर उस ने मुझ से आगे बढ़ कर मित्रता का हाथ मिलाया और मैं ने खुशीखुशी स्वीकार भी कर लिया. 12वीं कक्षा की प्रीबोर्ड परीक्षा में भी मैं ने ही टौप किया तो वह और परेशान हो उठा. मगर उस ने इसे जाहिर नहीं होने दिया.

‘‘इसी खुशी में ट्रीट का प्रस्ताव जब धु्रव ने रखा तो मैं मना न कर सकी. मना भी क्यों करती? 2 सालों से लगातार हम साथ कालेज, कोचिंग और न जाने कितने फ्रैंड्स की बर्थडे पार्टीज अटैंड करते आए थे. फर्क यह था कि हर बार कोई न कोई कौमन फ्रैंड साथ रहता था. मगर इस बार हम दोनों ही थे और धु्रव पर अविश्वास करने का कोई प्रश्न ही नहीं था.

‘‘पहले हम एक रेस्तरां में लंच के लिए गए. फिर वह अपने घर ले गया. घर में किसी को भी न देख जब मैं ने पूछा कि तुम ने तो कहा था मम्मी मुझ से मिलना चाहती हैं. मगर यहां तो कोई भी नहीं है? तो उस ने जवाब दिया कि शायद पड़ोस में गई होंगी. तुम बैठो मैं बुला लाता हूं और फिर मुझे फ्रिज में रखी कोल्डड्रिंक पकड़ा कर बाहर निकल गया.

‘‘मैं सोफे पर बैठ कर ड्रिंक पीतेपीते उस का इंतजार करती रही, मुझे नींद आने लगी तो मैं वहीं सोफे पर लुढ़क गई. जब नींद खुली तो अपने को अस्तव्यस्त पाया. धु्रव नशे में धुत पड़ा बड़बड़ा रहा था कि मुझे हराना चाहती थी. मैं ने आज तुझे हरा दिया. अब मुझे समझ आया कि धु्रव ने मेरे नारीत्व को ललकारा है. मैं ने भी आव देखा न ताव, पास पड़ी हाकी उठा कर उस के कोमल अंग पर दे मारी. वह बिलबिला कर जमीन पर लोटने लगा, मैं ने चीख कर कहा कि अब दिखाना मर्दानगी अपनी और फिर घर लौट आई. बोर्ड की परीक्षा सिर पर थी. ऐसे में अपनी पूरी ताकत तैयारी में झोंक दी. फलतया बोर्ड परीक्षा में भी मैं टौपर बनी.

‘‘धु्रव का परिवार शहर छोड़ कर जा चुका था. उन्हें अपने बेटे की करतूत पता चल गई थी,’’ कह कर सीमा पल भर को रुकी और फिर पास से गुजरते बैरे को बुला कर पानी का गिलास ले कर एक सांस में ही खाली कर गई.

फिर आगे बोली, ‘‘मां को तो बहुत बाद में मैं ने उस दुर्घटना के विषय में बताया था.

वे भी यही बोली थीं कि भूल जा ये सब. इन का कोई मतलब नहीं. कौमार्य, शारीरिक पवित्रता, वर्जिन इन भारी भरकम शब्दों को अपने ऊपर हावी न होने देना… तू अब भी वैसी ही मासूम और निश्चल है जैसी जन्म के समय थी… मां के ये शब्द मेरे लिए अमृत के समान थे. उस के बाद मैं ने पीछे मुड़ कर देखना छोड़ दिया,’’ सीमा ने अपनी बात समाप्त की.

‘‘मैं तो अपने अतीत से भाग भी नहीं सकती. वह शख्स तो मेरे मायके का पड़ोसी और पिताजी का मित्र है, इसीलिए मेरा तो मायके जाने का ही मन नहीं करता. यहीं दिल्ली में पड़ी रहती हूं,’’ रागिनी उदास स्वर में बोली.

‘‘कौन वे टौफी अंकल? वे ऐसा कैसे कर सकते हैं? मुझे अच्छी तरह याद है वे सफेद कुरतापाजामा पहने हमेशा बैडमिंटन गेम के बीच में कूद कर गेम्स के रूल्स सिखाने लगते थे और फि र खुश होने पर अपनी जेब से टौफी, चौकलेट निकाल कर ईनाम भी देते थे. हम लोगों ने तो उन का नाम टौफी अंकल रखा था,’’ सीमा ने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा.

‘‘वह एक मुखौटा था उन का अपनी घिनौनी हरकतें छिपाने का. तुझे याद है वे हमारे गालों पर चिकोटी भी काट लेते थे गलती करने पर और कभीकभी अपने हाथों में हमारे हाथ को दबा कर रैकेट चलाने का अभ्यास भी कराने लगते थे. उन सब हरकतों को कोई दूर से देखता भी होगा तो यही सोचता होगा कि वे बच्चों से कितना प्यार करते हैं. मगर हकीकत तो यह थी कि वे जाल बिछा रहे थे, जिस में से तू तो उड़ कर उन की पहुंच से दूर हो गई पर रह गई मैं.

‘‘अपने हाथ से एक पंछी निकलता देख वे बौखला उठे और तुम्हारे जाने के महीने भर बाद ही मुझे अपनी हवस का शिकार बना लिया. उस दिन मां ने मुझे पड़ोस में आंटी को राजमा दे कर आने को कहा. हमेशा की तरह कभी यह दे आ, कभी वह दे आ. मां पर तो अपने बनाए खाने की तारीफ  सुनने का भूत जो सवार रहता था. हर वक्तरसोई में तरहतरह के पकवान बनाना और लोगों को खिला कर तारीफें बटोरना यही टाइम पास था मां का.

‘‘उस दिन आंटी नहीं थीं घर पर… अंकल ने मुझ से दरवाजे पर कहा कि अांटी किचन में हैं, वहीं दे आओ, मैं भीतर चली गई. पर वहां कोई नहीं था. अंकल ने मुझे पास बैठा कर मेरे गालों को मसल कर कहा कि वे शायद बाथरूम में हैं. तुम थोड़ी देर रुक जाओ. मुझे बड़ा अटपटा लग रहा था. मैं उठ कर जाने लगी तो हाथ पकड़ कर बैठा कर बोले कि कितने फालतू के गेम खेलती हो तुम… असली गेम मैं सिखाता हूं और फिर अपने असली रूप में प्रकट हो गए. कितनी देर तक मुझे तोड़तेमरोड़ते रहे. जब जी भर गया तो अपनी अलमारी से एक रिवौल्वर निकाल कर दिखाते हुए बोले कि किसी से भी कुछ कहा तो तेरे मांबाप की खैर नहीं.

‘‘मन और तन से घायल मैं उलटे पांव लौट आई और अपने कमरे को बंद कर देर तक रोती रही. मां की सहेलियों का जमघट लगा था और वे अपनी पाककला का नमूना पेश कर इतरा रही थीं और मैं अपने शरीर पर पड़े निशानों को साबुन से घिसघिस कर मिटाने की कोशिश कर रही थी.

‘‘धीरेधीरे मैं पढ़ाई में पिछड़ती चली गई और मैं 10वीं कक्षा में फेल हो गई. मां ने मुझे खूब खरीखोटी सुनाई, मगर कभी मेरी पीड़ा न सुनी. मैं गुमसुम रहने लगी. सोती तो सोती ही रहती उठने का मन ही न करता. मां खाना परोस कर मेरे हाथों में थमा देती तो खा भी लेती अन्यथा शून्य में ही निहारती रहती. सब को लगा फेल होने का सदमा लग गया है, किसी ने सलाह दी कि मनोचिकित्सक के पास जाओ.

3-4 सीटिंग के बाद जब मैं ने महिला मनोचिकित्सक को अपनी आपबीती बताई तो उन्होंने मां को बुला कर ये सब बताया. मगर वे मानने को ही तैयार न हुईं. कहने लगीं कि साल भर तो पढ़ा नहीं, अब उलटीसीधी बातें बना रही है. इस की वजह से हमारी पहले ही कम बदनामी हुई है, जो अब पड़ोसी को ले कर भी एक नया तमाशा बनवा लें अपना… जब मेरी कोई सुनवाई ही नहीं तो मैं भी चुप्पी लगा गई. मुझे ही आरोपी बना कर कठघरे में खड़ा कर दिया गया था. फिर इंसाफ  किस से मांगती?

‘‘तब से अपना मुंह बंद कर जीना सीख लिया. मगर इस दिल और दिमाग का क्या करूं. जो अब भी चीखचीख कर इंसाफ  मांगता है जब दर्द बरदाश्त से बाहर हो जाता है तो नशा ही मेरा सहारा है, उन गोलियों को खा बेहोशी में डूब जाती हूं. तू ही बता कोई इलाज है क्या इस का तेरे पास?’’ रागिनी ने सीमा के हाथों को अपने हाथों में ले कर पूछा.

‘‘हां है… हर मुसीबत का कोई न कोई हल जरूर होता है. बस उसे ढूंढ़ने की कोशिश जारी रहनी चाहिए. इस बार तेरे मायके मैं भी साथ चलूंगी और उस शख्स के भी घर चल कर, बलात्कारियों की सजा पर चर्चा करेंगे. बलात्कारियों को खूब कोसेंगे, गाली देंगे और बातों ही बातों में उस शख्स के चेहरे पर लगे मुखौटे को उस की पत्नी के समक्ष नोंच कर फेंक देंगे.

‘‘उन्हें भी तो पता चले उन के पतिपरमेश्वर की काली करतूत…देखो बलात्कारी की पत्नी उस की कितनी सेवा करती हैं… उन का बुढ़ापा नर्क बना कर छोड़ेंगे… रोज मरने की दुआ मांगता न फिरे वह तो मेरा नाम बदल देना,’’ सीमा ने रागिनी के हाथों को मजबूती से थाम कर बोला.

रागिनी के चेहरे पर मुसकराहट तैर गई. तभी रमन ने आ कर रागिनी के कंधे पर हाथ रख कर कहा, ‘‘बचपन की सहेली क्या मिल गई, तुम तो एकदम बदल ही गई. यह मुसकराहट कभी हमारे नाम भी कर दिया करो.’’

सीमा ने रागिनी के हाथों को रमन के हाथों में सौंपते हुए कहा, ‘‘अब से यह इसी तरह मुसकराएगी, आप बिलकुल फिक्र न करें… इस के कंधे से कंधा मिलाने के लिए मैं जो वापस आ गई हूं इस की जिंदगी में.’’

सहारा: क्या मोहित अपने माता-पिता का सहारा बना?

‘इनसान को अपने किए की सजा जरूर मिलती है. दूसरे की राह में कांटे बोने वाले के अपने पैर कभी न कभी जरूर लहूलुहान होते हैं.

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