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कियारा और सिद्धार्थ के लिए सजा सूर्यगढ़ पैलेस, ईशा अंबानी आईं नजर

बॉलीवुड फिल्म स्टार कियारा अडवाणी और सिद्धार्थ मल्होत्रा की शादी राजस्थान के सूर्यगढ़ पैलेस से होने वाली है, ऐसे में इस पैलेस को बेहद खूबसूरत तरीके से सजाया गया है.सूर्यगढ़ पैलेस कलर से सजा हुआ दिख रहा है.

कियारा और सिद्धार्थ कि संगीत और मेहंदी में जमकर धूम मचा हुआ है, बाहर के नजारे को देखने के बाद आप अंदाजा लगा सकते हैं.बता दें कि कियारा और सिद्धार्थ की शादी में शामिल होने के लिए बॉलीवुड के तमाम सितारे एयरपोर्ट पर सिरकत करते नजर आएं.

 

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ऐसे में इस शादी में चार चांद लगाने पहुंची कियारा आडवाणी की बचपन की सहेली ईशा अंबानी, ईशा अपने पति आनंद पिरामल के साथ साही अंदाज में शादी में एंट्री करती नजर आईं, तो वहीं ईशा ने अपना गेटअप भी काफी ज्यादा रॉयल किया हुआ था, तो वहीं आनंद ब्लैक कलर के सूट में नजर आएं.

बता दें कि सिद्धार्थ और कियारा कि शादी की फंक्शन शुरू हो चुकी है, जहां उनके खास दोस्त और रिश्तेदार मौजूद हैं.बता दें कि यह खूबसूरत जोड़ी फिल्म शेरशाह से चर्चा में आई थी इसके बाद से ये कपल कई बार एक साथ घूमते हुए नजर आएं .

लंबे समय से एक -दूसरे को डेट करने के बाद से ये कपल एक साथ जीवन बीताने का फैसला कर लिया है, इस कपल की शादी का इंतजार फैंस को भी था.

अभिनेत्री अनन्या खरे किताबें कम पढने को लेकर क्यों है उदास, पढ़े इंटरव्यू

दूरदर्शन की प्रसिद्ध धारावाहिक ‘हमलोग’ और ‘देख भाई देख’ से अभिनय क्षेत्र में कदम रखने वाली अभिनेत्री अनन्या खरे से कोई अपरिचित नहीं. उन्होंने कई पोपुलर शो में काम किया, जिसमे ‘आहट’, ‘पुनर्विवाह’, ‘रंग रसिया’आदि है.

अनन्या ने सिर्फ टीवी शो ही नहीं फिल्मों में भी जबरदस्त भूमिका निभाई है, जिसमे ‘चांदनी बार’ फिल्म की दीपा से ‘देवदास’ फिल्म की कुमुद है. कई शानदार किरदारों से इंडस्ट्री में अलग पहचान बनाने वाली अभिनेत्री अनन्या खरे ने पर्दे पर कुछ नकारात्मक और सकारात्मक भूमिका निभाये है और हिंदी एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री में उन्होंने दर्शकों का प्यार हमेशा पाया है. टेलीविजन हो या हिंदी फिल्में उन्होंने अपने अभिनय से सबको मोहित किया है.

क्रिएटिव माहौल में जन्मी अनन्या के पिता विष्णु खरे एक पत्रकार हुआ करते थे,उनके दादा संगीतज्ञ थे. हालाँकि अनन्या ने कभी अभिनय के बारें में सोचा नहीं था, लेकिन क्रिएटिव फील्ड उन्हें पसंद था और यही वजह थी कि वह मुंबई आई और अभिनय की शुरुआत की. काम के दौरान उन्होंने 10 साल का ब्रेक लिया और पति डेविड के साथ रहने विदेश चली

गयी, लेकिन बाद में वह फिर आकर इंडस्ट्री से जुड़ गयी. वह स्पष्टभाषी है और समय के साथ चलना जानती है. अनन्या स्क्रीन पर निगेटिव किरदार निभाकर अधिक प्रसिद्ध हुई और इस चरित्र में उन्हें काफी पसंद भी किया गया. फिल्म ‘देवदास’ के बाद उन्हें नकारात्मक किरदार के लिए पहचाना गया और उनकी एक अलग पहचान बनी.

उनके लिए हर भूमिका को निभाना एक चुनौती होती है. जी टीवी पर उनकी शो ‘मैत्री’ आने वाली है, जिसमे उन्होंने एक देसी पर बुद्धिमान सास की भूमिका निभाई है, जो किसी बात को आज की परिवेश के हिसाब से मानती है और इस भूमिका को लेकर बहुत उत्साहित है. अनन्या ने अपनी इस सफल जर्नी के बारें में गृहशोभा के साथ शेयर की.

वह इस पत्रिका के प्रोग्रेसिव विचार से बहुत प्रभावित है और चाहती है कि इसमें महिलाओं के लिए कैरियर आप्शन पर लगातार कुछ लेख दिए जाय, ताकि महिलाएं आत्मनिर्भर बनने की दिशा में अधिक अग्रसर हो. इसे वे खुद ही नहीं,बल्कि उनकी दादी को भी पढ़ते हुए देखा है.सही मित्र का होना जरुरी इस शो में काम करने की उत्सुकता के बारें में पूछे जाने पर वह कहती है कि मुझे फॅमिली शो करना पसंद है, जिसे दर्शक पूरे परिवार के साथ बैठकर देख सकें.

मैत्री एक ऐसा कांसेप्ट है, जो हर किसी उम्र या वर्ग के लिए अहम होता है. हर किसी को एक अच्छी दोस्ती और दोस्त की जरुरत होती है. विषय काफी रोचक है, इसमें काफी उतार-चढ़ाव है, तीन दोस्त कैसे अपनी दोस्ती को परिवार के साथ बनाये रखने में सफल होते है, उसे दिखाने की कोशिश की गयी है. मेरी भूमिका इसमें देसी सासूमाँ की है. पढ़ी-लिखी नहीं है और देहाती चरित्र है, जो मूर्ख नहीं, प्रैक्टिकल, आत्मविश्वासी, समझदार और चुनौती लेने वाली है.

इसके अलावा वह स्ट्रोंग हेडेड भी है.आवश्यकता है सही लिखावट की देसीपन को पर्दे पर लाने के लिए अनन्या ने काफी तैयारी की है, लेकिन इस चरित्र को लिखने वाले ने काफी मेहनत से इसे लिखा है, जिससे उन्हें अधिक तैयारी नहीं करनी पड़ी. इसके अलावा वह दिल्ली की है, जहाँ हर तरह की भाषा बोलने वाले लोग साथ रहते है. बदला है जमाना सासूमाँ की कल्पना पहले से आज काफी बदल चुकी है और इस बदलाव को अनन्या जरुरी भी मानती है.

वह कहती है कि मैंने अपने आसपास जो चाची और मामियां है, वे काफी रिलेक्स रहती है. बहू का अपनी मर्जी से काम करना, बच्चों को पालना, जॉब करना आदि को बहुत ही साधारण तरीके से लेती है, किसी में दखलंदाजी नहीं करती. सामंजस्य बनाये रखती है.

पहले की सास की तरह कम पढ़ी-लिखी नहीं, आज की सास कॉलेज तक जा चुकी है.इत्तफाक था अभिनय करना अपनी सफल जर्नी के बारें में अनन्या का कहना है कि अभिनय मेरे लिए एक इत्तफाक था,क्योंकि मैं इस प्रोफेशन में आना नहीं चाहती थी. मुझे टीचर या आई ए एस बनना था.

उसके बाद मैंने ट्रांसलेशन करने की इच्छा रखती थी. मैंने जर्मनी भाषा में मास्टर किया है,मैंने उस दिशा में बहुत कोशिश की, लेकिन कोई ढंग का काम नहीं मिला. इसके बाद मैंने इंडस्ट्री की ओर रुख किया और धीरे-धीरे आगे बढती गई. मैंने अपने काम को लेकर कभी कोई रिग्रेट नहीं किया है. जो नहीं मिला, उसकी कोई वजह होगी, इसे मैंने हमेशा माना है,

इसलिए मलाल नहीं हुआ. खास समय पर खास जगह पर होना मेरे लिए जरुरी होता है औरमैं वहां पहुँच जाती हूँ.एक्टर डायरेक्टर कीअनन्या खुद को डायरेक्टर की एक्टर मानती है, वह कहती है कि फिल्म और कैमरा, राइटरऔर डायरेक्टर का ही माध्यम है. एक्टर एक टूल है, जिससे पॉलिश किया जा सकता है.इसलिए एक एक्टर जितना खुद को पॉलिश करेगा, डायरेक्टर उसका उतना ही अच्छे से

प्रयोग कर सकेगा.बदलाव हमेशा अच्छी हो जरुरी नहींएंटरटेनमेंट इंडस्ट्री की कहानियों में परिवर्तन के बारें में पूछे जाने पर वह कहती है कि आजकल इंटररिलेशनशिप पर अधिक फिल्में बन रही है. आज परिवारों के अकार छोटे होते जारहे है. वही चीजे फिल्मों और टीवी शोज में देखे जा रहे है. बड़े परिवार और गांव के शोजकम है, जबकि शहरों से सम्बंधित शो अधिक दिखाए जाते है. मैन स्ट्रीम में शहरों परआधारित शो को अधिक महत्व दिया जाता है. इन्ही शो को वे डबिंग करवाकर बाहर के देशोंमें भी रिलीज़ करते है, इसलिए कहानियों के बीच अधिक गैप नहीं रख पाते.

पहले डीडी मेट्रो के जो शोज थे, उनका दौर काफी अलग था. उपन्यासों पर शोज बनते थे, जो अब नहीं बनते, क्योंकि पढने की आदत बच्चों में कम हो गयी है, वे किताबे नहीं पढ़ते वे सिर्फ देखते है. इसके अलावा इंटरनेशनल लेवल पर किसी चीज को ले जाने के लिए कहानियां वैसी ही होनी चाहिए, ताकि सभी इससे जुड़ सकें. समाज में बदलाव जरुरी है, लेकिन ये बदलाव हमेशा अच्छाई के लिए हो, जरुरी नहीं.

किताबों का पढना है जरुरी वह आगे कहती है कि पढने का कल्चर मेन्टेन रहना चाहिए, किताबों का जो कल्चर चला गया है वह ठीक नहीं. अब लोग सिर्फ मोबाइल पर सब देखते है. ऐसे में लेखक और उन्हें छापने वालों का क्या होगा? ये मस्तिष्क को एकाग्र रखने का एक अच्छा माध्यम है.

किताब खोलकर पढने का चाव है, उसका मजा अलग है. मोबाइल पर खोलकर पढने से उसकीस्पिरिट खोती हुई दिखाई पड़ती है. साथ ही आज के बच्चे बाहर जाकर खेलते नहीं समय नहीं होता, हर जगह एक प्रतियोगिता है, हर जगह पर काम के लिए मारधाड़ लगी हुई है.बच्चे को भी उसी रेस में जाना पड़ेगा. मैं इसे अच्छा और पॉजिटिव विकास नहीं मानती.

सीखा है सबसे हर अभिनय में सहजता लाने के बारें में अनन्या का कहना है कि मैंने एक्टिंग की कोई ट्रेनिंग नहीं ली है. मैंने कोई कोर्स भी नहीं किया है, जितना मैंने काम किया है, उतना ही मैंने सीखा है, इसमें मैंने छोटे-बड़े जैसी किसी को नहीं देखा , सभी से कुछ सीखने को मिलता है. इसके अलावा मेरे पिता काफी टैलेंटेड थे. वे पत्रकार थे, उन्होंने हिंदी और मराठी में बहुत लिखा है. उनकी क्रिएटिविटी मुझे किसी रूप में आई है.

मेरे दादा भी सितार बजाते थे.

मैं 21 साल की युवती हूं,मेरे दोनों स्तनों में पिछले 5 सालों से 2-2 छोटीछोटी गांठें हैं,मुझे क्या करना चाहिए?

सवाल
मैं 21 साल की युवती हूं. मेरे दोनों स्तनों में पिछले 5 सालों से 2-2 छोटीछोटी गांठें हैं. मैं ने डाक्टर को दिखाया तो उन का कहना है कि मुझे मैमोग्राफी करानी चाहिए. मन ही मन डरती हूं कि कहीं ये गांठें कैंसर के कारण तो नहीं हैं. मुझे क्या करना चाहिए?

जवाब
सामान्य रूप से 40 साल की उम्र से पहले मैमोग्राफी जांच करना उचित नहीं समझा जाता. इस का सब से बड़ा कारण यह है कि इस उम्र तक स्तन इतनी हाई डैंसिटी यानी उच्च घनत्व के होते हैं कि उन के भीतर क्या कुछ छिपा है, यह मैमोग्राफी की मदद से ठीक से जान पाना मुमकिन नहीं होता. फिर मैमोग्राफी करते समय स्तनों को विकिरण यानी रैडिएशन से भी गुजरना पड़ता है, जो अस्वास्थ्यकारी साबित हो सकता है.

आप के केस में ये गांठें 5 साल से जस की तस बनी हुई हैं. अत: इन में कैंसर होने की संभावना न के बराबर है. फिर भी अच्छा होगा कि आप किसी सुयोग्य सर्जन से अपनी जांच करा लें. यदि उन के मन में कोई शक आता है, तो वे गांठ की एफएनएसी जांच कराने के लिए कह सकते हैं.

एफएनएसी में पहले गांठ में सूई डाल कर कोशिकीय नमूना प्राप्त करते हैं, जिसे फिर पैथोलौजिस्ट सूक्ष्मदर्शी के नीचे कई हजार गुना बड़ा कर यह देखने की कोशिश करता है कि गांठ किस कारण से बनी है. उस के बाद कारण के आधार पर सर्जन उस का इलाज बता देता है.

आप की उम्र में स्तन में गांठें होने का सब से आम कारण या तो फाइब्रौयडेनोसिस या फिर फायब्रौयडेनोमा है. इन दोनों ही विकारों का इलाज कठिन नहीं है.

फाइब्रौयडेनोसिस में ब्रैस्ट को दिनरात सहारा देने से आराम मिलता है. इसीलिए डाक्टर चौबीसों घंटे ब्रेजियर पहनने की हिदायत देते हैं. विटामिन ई के कैप्सूल भी फायदेमंद साबित हो सकते हैं.

कभीकभी हारमोनल दवाएं भी लेनी पड़ सकती हैं. फायब्रौयडेनोमा को ज्यों का त्यों छोड़ा जा सकता है, पर कुछ स्थितियों में सर्जन उसे निकालने का भी फैसला ले सकते हैं.

Valentine’s Special – कल हमेशा रहेगा : भाग 5

अनिकेत एवं आस्था तो भाभी के दीवाने थे. हर पल उस के आगेपीछे घूमते रहते. उन की हर जरूरत का खयाल रखने में श्री को बेहद सुख मिलता. श्री एवं अनिकेत दोनों की उम्र में बहुत फर्क नहीं था. अनिकेत ने एम.बी.ए. की डिगरी प्राप्त की थी. अब वह अपने पिता एवं बड़े भाई के व्यवसाय में हाथ बंटाने लगा था लेकिन अपनी हर छोटीबड़ी जरूरतों के लिए श्री पर ही निर्भर रहता. वह उस से मजाक में कहती भी थी, ‘अनिकेत भैया, अब आप की भाभी में आप की देखभाल करने की शक्ति नहीं रही. जल्दी ही हाथ बंटाने वाली ले आइए वरना मैं अपने हाथ ऊपर कर लूंगी.’

आस्था का कहना था कि ‘जिस घर में इतनी प्यारी भाभी बसती हों उस घर को छोड़ कर मैं तो कभी नहीं जाने वाली,’ फिर भाभी के गले में बांहें डाल कर झूल जाती.

वेदश्री के खुशहाल परिवार को एक ही ग्रहण वर्षों से खाए जा रहा था कि विश्वा भाभी की गोद अब तक खाली थी. वैसे भैयाभाभी दोनों शारीरिक रूप से पूर्णतया स्वस्थ थे पर भाभी के गर्भाशय में एक गांठ थी जो बारबार की शल्यक्रिया के बाद भी पनपती रहती थी. भाभी को गर्भ जरूर ठहरता, पर गर्भ के पनपने के साथ ही साथ वह गांठ भी पनपने लगती जिस की वजह से गर्भपात हो जाता था.

बारबार ऐसा होने से भाभी के स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ता जा रहा था. इसी बात का गम उन्हें मन ही मन खाए जा रहा था. श्री हमेशा भाभी से कहती, ‘भाभी, मैं आप से उम्र में बहुत छोटी हूं और उम्र एवं रिश्ते के लिहाज से बड़ी भाभी, मां समान होती हैं. आप मुझे अपनी देवरानी समझें या बेटी, हर लिहाज से मैं आप को यही कहूंगी कि आप इस बात को कभी मन पर न लें कि आप की अपनी कोई संतान नहीं है मैं अपने तीनों बच्चे आप की गोद में डालने को तैयार हूं. आप को मुझ पर भरोसा न हो तो मैं कानूनी तौर पर यह कदम उठाने को तैयार हूं. बच्चे मेरे पास रहें या आप के पास, रहेंगे तो इसी वंश से जुडे़ हुए न.’’

सुन कर भाभी की आंखों में तैरने वाला पानी उसे भीतर तक विचलित कर देता. मांबाबूजी श्री के इन्हीं गुणों पर मोहित थे. उन्हें खुशी थी कि घरपरिवार में शांति एवं खुशी का माहौल बनाए रखने में छोटीबहू का योगदान सब से ज्यादा था. बड़ी बहू भी उस की आत्मीयता में सराबोर हो कर अपना गम भुलाती जा रही थी. तीनों बच्चों को वह बेहद प्यार करती. श्री घर के कार्य संभालती और भाभी बच्चों को. घर की चिंताओं से मुक्त पुरुष वर्ग व्यापार के कार्यों में दिनरोज विकास की ओर बढ़ता जा रहा था.

‘‘श्री,’’ विश्वा भाभी ने उसे आवाज दी.

‘‘जी, भाभी,’’ ऋचा के बाल संवारते हुए श्री बोली और फिर हाथ में कंघी लिए ही वह ड्राइंगरूम में आ गई, जहां विश्वा भाभी, मांजी एवं दादीमां बैठी थीं.

‘‘आज हमें एक खास जगह, किसी खास काम के लिए जाना है. तुम तैयार हो न?’’ भाभी ने पूछा.

‘‘जी, आप कहें तो अभी चलने को तैयार हूं लेकिन हमें जाना कहां होगा?’’

‘‘जाना कहां है यह भी पता चल जाएगा पर पहले तुम यह तसवीर देखो,’’ यह कहते हुए भाभी ने एक तसवीर उस की ओर बढ़ा दी. तसवीर में कैद युवक को देखते ही वह चौंक उठी. अरे, यह तो सार्थक है, अभि का दूसरा भांजा…प्रदीप का छोटा भाई.

‘‘हमारी लाडली बिटिया की पसंद है….हमारे घर का होने वाला दामाद,’’ भाभी ने खुशी से खुलासा किया.

‘‘सच?’’ उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था. फिर तो जरूर अभि से भी मिलने का मौका मिलेगा.

घर के सभी लोगों ने आस्था की पसंद पर अपनी सहमति की मोहर लगा दी. सार्थक एक साधारण परिवार से जरूर था लेकिन एक बहुत ही सलीकेदार, सुंदर, पढ़ालिखा और साहसी लड़का है. अनिकेत के साथ ही एम.बी.ए. कर के अब बहुराष्ट्रीय कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत है.

उन की सगाई के मौके पर एक विशाल पार्टी का आयोजन होटल में किया गया. साकेत व वेदश्री मुख्यद्वार पर खड़े हो कर सभी आने वाले मेहमानों का स्वागत कर रहे थे. जब सार्थक के साथ अभि, उस की बहन और बहनोई ने हाल में प्रवेश किया तो श्री व साकेत ने बड़ी गर्मजोशी से उन का स्वागत किया.

अभि ने वर्षों बाद श्री को देखा तो बस, अपलक देखता ही रह गया. एक बड़े घराने की बहू जैसी शान उस के अंगअंग से फूट रही थी. साकेत के साथ उस की जोड़ी इतनी सुंदर लग रही थी कि अभि यह सोचने पर मजबूर हो गया कि उस ने वर्षों पहले जो फैसला श्री की खुशी के लिए लिया था, वह उस की जिंदगी का सर्वोत्तम फैसला था.

अभि ने अपनी पत्नी भव्यता से श्री का परिचय करवाया. भव्यता से मिल कर श्री बेहद खुश हुई. वह खुश थी कि अभि की जिंदगी की रिक्तता को भरने के लिए भव्यता जैसी सुंदर और शालीन लड़की ने अपना हाथ आगे बढ़ाया था. उन की भी एक 2 साल की प्यारी सी बेटी शर्वरी थी.

श्री ने बारीबारी से सार्थक के मम्मीपापा तथा अभि की मां के पैर छुए और उन का स्वागत किया. वे सभी इस बात से बेहद खुश थे कि उन का रिश्ता श्री के परिवार में होने जा रहा है. अभि की मम्मी बेहद खुश थीं, उन्होंने श्री को गले लगा लिया.

साकेत को अपनी ओर देखते हुए पा कर श्री ने कहा, ‘‘साकेत, आप अभिजीत हैं. सार्थक के मामा.’’

‘‘अभिजीत साहब, आप से दोबारा मिल कर मुझे बेहद प्रसन्नता हुई है,’’ कह कर साकेत ने बेहद गर्मजोशी से हाथ मिलाया.

‘‘दोबारा से आप का क्या तात्पर्य है, साकेत’’ श्री पूछे बिना न रह सकी.

‘‘श्री, तुम शायद नहीं जानती कि हमारा मानव इन्हीं की बदौलत दोनों आंखों से इस संसार को देखने योग्य बना है.’’

‘‘अभि, तुम ने मुझ से यह राज क्यों छिपाए रखा?’’ यह कहतेकहते श्री की आंखें छलक आईं. वह अपनेआप को कोसने लगी कि क्यों इतनी छोटी सी बात उस के दिमाग में नहीं आई….मानव की आंखें और प्रदीप की आंखों में कितना साम्य था? उन की आंखों का रंग सामान्य व्यक्ति की आंखों के रंग से कितना अलग था. तभी तो मानव की सर्जरी में इतना अरसा लग गया था. क्या प्रदीप की आंख न मिली होती तो उस का भाई…इस के आगे वह सोच ही नहीं पाई.

‘‘श्री, आज के इस खुशी के माहौल में आंसू बहा कर अपना मन छोटा न करो. यह कोई इतनी बड़ी बात तो थी नहीं. हमें खुशी इस बात की है कि मानव की आंखों में हमें प्रदीप की छवि नजर आती है…वह आज भी जिंदा है, हमारी नजरों के सामने है…उसे हम देख सकते हैं, छू सकते हैं, वरना प्रदीप तो हम सब के लिए एक एहसास ही बन कर रह गया होता.’’

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श्री ने मानव को गले लगा लिया. उस की भूरी आंखों में उसे सच में ही प्रदीप की परछाईं नजर आई. उस ने प्यार से भाई की दोनों आखोंं पर चुंबनों की झड़ी सी लगा दी, जैसे प्रदीप को धन्यवाद दे रही हो.

साकेत, अभि की ओर मुखातिब हुआ, ‘‘अभिजीत साहब, हम आप से तहेदिल से माफी मांगना चाहते हैं, उस खूबसूरत गुनाह के लिए जो हम से अनजाने में हुआ,’’ उस ने सचमुच ही अभि के सामने हाथ जोड़ दिए.

‘‘किस बात की माफी, साकेतजी?’’ अभि कुछ समझ नहीं पाया.

‘‘हम ने आप की चाहत को आप से हमेशाहमेशा के लिए जो छीन लिया…यकीन मानिए, यदि मैं पहले से जानता तो आप दोनों के सच्चे प्यार के बीच कभी न आता.’’

आप अपना मन छोटा न करें, साकेतजी. आप हम दोनों के प्यार के बीच आज भी नहीं हैं. मैं आज भी वेदश्री से उतना ही प्यार करता हूं जितना किसी जमाने में किया करता था. सिर्फ हमारे प्यार का स्वरूप ही बदला है.

‘‘वह कैसे?’’ साकेत ने हंसते हुए पूछा. उस के दिल का बोझ कुछ हलका हुआ.

‘‘देखिए, पहले हम दोनों प्रेमी बन कर मिले, फिर मित्र बन कर जुदा हुए और आज समधी बन कर फिर मिले हैं…यह हमारे प्रेम के अलगअलग स्वरूप हैं और हर स्वरूप में हमारा प्यार आज भी हमारे बीच मौजूद है.’’

‘‘श्री, याद है, मैं ने तुम से कहा था, कल फिर आएगा और हमेशा आता रहेगा?’’

श्री ने सहमति में अपना सिर हिलाया. वह कुछ भी बोलने की स्थिति में कहां थी.

सार्थक एवं आस्था ने जब एकदूसरे की उंगली में सगाई की अंगूठी पहनाई तो दोनों की आंखों में एक विशेष चमक लहरा रही थी, जैसे कह रही हों…

‘आज हम ने अपने प्यार की डोर से 2 परिवारों को एक कभी न टूटने वाले रिश्ते में हमेशा के लिए बांध दिया है…कल हमेशा आता रहेगा और इस रिश्ते को और भी मजबूत बनाता रहेगा, क्योंकि कल हमेशा रहेगा और उस के साथ ही साथ सब के दिलों में, एकदूसरे के प्रति प्यार भी.

Yrkkh: अभिमन्यु करेगा रुही के साथ रहने का वादा, जानें क्या होगा आगे?

सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है में इमोशनल ड्रामा खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है, इस शो में कई ऐसी जोड़ीयां बनी जिनके बिछड़ने से लोगों का दिल टूट जाता है, इन दिनों भी सीरियल में कुछ ऐसा ही चल रहा है. अक्षरा और अभिमन्यु एक दूसरे से जुदा हो गए हैं.

इस सीरियल में पिछले एपिसोड में आपने देखा है कि आरोही को चोट लगी है वहां पर भी अभिमन्यु और अक्षरा में बहस हो रही होती है. अभिमन्यु अस्पताल में रूही को वादा करता है कि वह आरोही का साथ कभी नहीं छोड़ेगा. वहीं दूसरी तरफ अक्षरा मुस्कान को लेकर प्लान . मुस्कान की जॉब उदयपुर में लगी हुई है और अक्षरा उसे भेजने जा रही है.

अक्षु को तेज बुखार है ऐसे में अबीर उसे काम करने से मना कर देता है, रूही की तबीयत ज्यादा बिगड़ जाती है, इसका कारण होती है सपना बुरा देखना जिस वजह से इसकी तबीयत बिगड़ जाती है और वह अस्पताल में भर्ती हो जाती है.

लेकिन इस कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब अभिमन्यु अभिनव को कॉल करके अक्षरा के हाथ का बना हुआ जैम मांगता है.

Bigg Boss 16: घर से बाहर आते ही अपनी भड़ास निकाली सुंबुल, कहा कान का कच्चा

बिग बॉस 16 के घर से सुंबुल तौकीर खान बाहर हो चुकी हैं, उन्होंने घर से बाहर आते ही जहर उगलना शुरू कर दिया है. अदाकारा ने बाहर आते ही सबसे पहले शालीन भनोट के खिलाफ आवाज उठाते हुए उसे कान का कच्चा बोला है.

इसके बाद से जब अदाकार से पूछा गया कि क्या वह  घर से बाहर आकर शालीन भनोट से दोस्ती रखेंगी तो उन्होंने साफ मना कर दिया.

सुंबुल ने इस पर जवाब देते हुए कहा कि मैं इनसे बिल्कुल भी दोस्ती नहीं रखना चाहूंगी,मैं घर में भी उनसे बात बंद कर दी थी,बाद में मैं उनसे बाद कि भी तो इसलिए क्योंकि वह बुरे दौर से गुजर रहे थें. वो मंडली के लोगों के साथ आकर बैठते थें तो बात हो जाती थी.

सुबुंल ने बताया कि शालीन भनोट ने उन्हें काफी दुख पहुंचाया है, सुंबुंल ने कहा कि अगर मेरे पापा भी कहेंगे तो मैं उनके साथ दोस्ती नहीं रखूंगी. आगे सवाल में जब उनसे पूछा गया कि वह उनकी केयर भी करते थें तो उस पर सुंबुल ने जवाब देते हुए कहा कि अगर उन्हें हमारी फिक्र होती तो वह टीना का मुंह बंद करवा देते, जब वह हमारे बारे में उल्टा सीधा बोल रही थी.

आगे सुंबुंल ने कहा कि यह बात मुझे पता है कि शालीन कान के कच्चे हैं, मुझे उनसे बात नहीं करनी ना ही कोई रिश्ता आगे रखना है.

Holi Special: कड़वा फल- भाग 3

‘‘मिस्टर राजीव, मैं आप की सहायता करना चाहता हूं, पर नियमों के कारण मेरे हाथ बंधे हैं,’’ मैनेजर की प्रतिक्रिया बड़ी रूखी थी, ‘‘अपनी जीवन बीमा पालिसी पर आप ने पहले ही हम से लोन ले रखा है. किसी जमीनजायदाद के कागज आप के पास होते, तो हम उस के आधार पर लोन दे देते. आप को अपने बेटे को उच्च शिक्षा दिलाने के लिए बहुत पहले से कुछ प्लानिंग करनी चाहिए थी. मुझे अफसोस है, मैं आप की कोई सहायता नहीं कर सकूंगा.’’

क्लब में पापा के दोस्त राजेंद्र उन के ब्रिज पार्टनर भी हैं. काफी लंबाचौड़ा व्यवसाय है उन का. पापा ने उन से भी रुपयों का इंतजाम करने की प्रार्थना की, पर बात नहीं बनी.

राजेंद्र साहब के बेटे अरुण से मुझे उन के इनकार का कारण पता चला.

‘‘रवि, अगर तुम्हारे पापा ने मेरे पापा से लिए पुराने कर्ज को वक्त से वापस कर दिया होता, तो शायद बात बन जाती. मेरे पापा की राय में तुम्हारे मम्मीडैडी फुजूलखर्च इनसान हैं, जिन्हें बचत करने का न महत्त्व मालूम है और न ही उन की आदतें सही हैं. मेरे पापा एक सफल बिजनेसमैन हैं. जहां से रकम लौटाने की उम्मीद न हो, वे वहां फंसेंगे ही नहीं,’’ अरुण के मुंह से ऐसी बातें सुनते हुए मैं ने खुद को काफी शर्मिंदा महसूस किया था.

दादाजी, चाचाओं और बूआओं से हमारे संबंध ऐसे बिगड़े हुए थे कि पापा की उन से इस मामले में कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं पड़ी.

मम्मी ने भी अपने रिश्तेदारों व सहेलियों से कर्ज लेने की कोशिश की, पर काम नहीं बना. यह तथ्य प्रमाणित ही है कि जिन की अपनी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होती है उन्हें बैंक और परिचित दोनों ही आर्थिक सहायता देने को तैयार रहते हैं. मेरी राय में अगर मम्मीपापा के पास अपनी बचाई आधी रकम भी होती, तो बाकी आधी का इंतजाम कहीं न कहीं से वही रकम करवा देती

अंतत: मैडिकल कालेज में प्रवेश लेने की तिथि निकल गई. उस दिन हमारे घर में गहरी उदासी का माहौल बना रहा. पापा ने मुझे गले लगा कर मेरा हौसला बढ़ाने की कोशिश की, तो मैं रो पड़ा. मेरे आंसू देख कर मम्मीपापा और छोटी बहन शिखा की पलकें भी भीग उठीं.

कुछ देर रो कर मेरा मन हलका हो गया, तो मैं ने मम्मीपापा से संजीदा लहजे में कहा, ‘‘जो हुआ है, उस से हमें सीख लेनी होगी. आगे शिखा के कैरियर व शादी के लिए भी बड़ी रकम की जरूरत पड़ने वाली है. उस का इंतजाम करने के लिए हमें अपने जीने का ढंग बदलना होगा, मम्मीपापा.’’

‘‘मेहनती और होशियार बच्चे अपने मातापिता से बिना लाखों का खर्चा कराए भी काबिल बन जाते हैं. रवि, तुम अपनी नाकामयाबी के लिए न हमें दोष दो और न ही हम पर बदलने के लिए बेकार का दबाव बनाओ,’’ मम्मी एकदम से चिढ़ कर गुस्सा हो गईं.

पापा ने मेरे जवाब देने से पहले ही उदास लहजे में कहा, ‘‘मीनाक्षी, रवि का कहना गलत नहीं है. छोटे मकान में रह कर, फुजूलखर्ची कम कर के, छोटी कार, कम खरीदारी और सतही तड़कभड़क के आकर्षण में उलझने के बजाय हमें सचमुच बचत करनी चाहिए थी. आज हमारी गांठ में पैसा होता, तो रवि का डाक्टर बनने का सपना पूरा हो सकता था.’’

‘‘ऐसा होता, तो वैसा हो जाता, ऐसे ढंग से अतीत के बारे में सोचने से चिंता और दुखों के अलावा कुछ हाथ नहीं आता है,’’ मम्मी भड़क कर बोलीं, ‘‘हमें भी अपने ढंग से जिंदगी जीने का अधिकार है. रवि और शिखा को हम ने आज तक हर सुखसुविधा मुहैया कराई है. कभी किसी तरह की कमी नहीं महसूस होने दी.

‘‘डाक्टर बनने के अलावा और भी कैरियर इस के सामने हैं. दिल लगा कर मेहनत करने वाला बच्चा किसी भी लाइन में सफल हो जाएगा. कल को ये बच्चे भी अपने ढंग से अपनी जिंदगी जिएंगे या हमारी सुनेंगे?’’

‘‘तुम भी ठीक कह रही हो,’’ पापा गहरी सांस छोड़ कर उठ खड़े हुए, ‘‘रवि बेटा, जैसा तुम चाहो, जिंदगी में वैसा ही हो, इस की कोई गारंटी नहीं होती. दिल छोटा मत करो. इलैक्ट्रौनिक्स आनर्स में तुम ने प्रवेश लिया हुआ है. मेहनत कर के उसी लाइन में अपना कैरियर बनाओ.’’

कुछ देर बाद मम्मीपापा अपने दुखों व निराशा से छुटकारा पाने को क्लब चले गए. शिखा और मैं बोझिल मन से टीवी देखने लगे.

कुछ देर बाद शिखा ने अचानक रोंआसी हो कर कहा, ‘‘भैया, मम्मीपापा कभी नहीं बदलेंगे. भविष्य में आने वाले कड़वे फल उन्हें जरूर नजर आते होंगे, पर वर्तमान की सतही चमकदमक वाली जिंदगी जीने की उन्हें आदत पड़ गई है. उन से बचत की उम्मीद हमें नहीं रखनी है. हम दोनों एकदूसरे का सहारा बन कर अपनीअपनी जिंदगी संवारेंगे.’’

मैं ने शिखा को गले से लगा लिया. देर तक वह मेरा कंधा अपने आंसुओं से भिगोती रही. अपने से 5 साल छोटी शिखा के सुखद भविष्य का उत्तरदायित्व सुनियोजित ढंग से उठाने के संकल्प की जड़ें पलपल मेरे मन में मजबूत होती जा रही थीं.

जिद्दी बच्चों से कैसे निबटें

जिद्दी बच्चे चाहे छोटे हों या बड़े, उन से डील करना पेरैंट्स के लिए बहुत बड़ा चैलेंज होता है. बच्चा अगर शुरू से जिद्दी है तो डेली लाइफ की चीजें, जैसे सोना, खाना या नहाना उन के साथ रोज का एक युद्ध बन जाता है. निधि और राघव की शादी हुए एक महीना ही हुआ था. एक दिन एक छोटी सी बात पर निधि की राघव से लड़ाई हो गई. 3 भाइयों की इकलौती बहन निधि स्वभाव में थोड़ी तेज थी. पति से तकरार हुई तो वह उस पर ?ापट पड़ी. राघव ने खुद को बचाते हुए उसे धक्का दिया तो वह जमीन पर जा फिसली. इसी बीच छोटे देवर ने दौड़ कर उसे उठाया और कमरे में ले गया.

राघव गुस्से में घर से बाहर चला गया. उस वक्त निधि के सासससुर घर पर नहीं थे. देवर ने यह सोच कर कि थोड़ी देर में भाभी ठीक हो जाएंगी, अपने कालेज चला गया. मगर निधि के सिर पर तो जैसे जनून सवार हो गया. उस ने चार कपड़े बैग में डाले और रिकशा कर के मायके चली गई. निधि का मायका उस की ससुराल से कुछ ही दूरी पर था. वहां पहुंच कर उस ने राघव के बारे में अपने भाइयों और मातापिता से दो की चार लगाईं. वह मु?ो मारता है, गंदीगंदी गालियां देता है, पता नहीं क्या देख कर आप लोगों ने मेरी शादी उस घर में कर दी आदि जैसी बातें रोरो कर सुना डालीं. निधि की बातें सुन कर उस का बड़ा भाई सुरेश तैश में आ गया. सुरेश का अपनी बहन से कुछ ज्यादा ही स्नेह था. सुरेश सब भाईबहनों में सब से बड़ा था और घर के ज्यादातर कामों में उस की राय ली जाती थी.

वह गुस्सैल और जिद्दी स्वभाव का था. उस के इस स्वभाव ने गली के लौंडेलफाडि़यों से निधि और छोटे भाइयों की सुरक्षा भी की, मगर हर चीज गुस्से से नहीं सुल?ाई जा सकती है. अब की उस के गुस्सैल और जिद्दीपन ने तो बहन का घर ही बरबाद कर दिया. निधि ने तो यह सोच कर सारी कहानी बनाई थी कि इस बहाने वह कुछ दिन मायके में रह लेगी और जब राघव उस को मना कर लेने आएंगे तो वह थोड़ेबहुत नखरे के साथ अपनी ससुराल लौट जाएगी. मगर निधि की यह सोच धरी की धरी रह गई. उस की आंखों में आंसू देख कर सुरेश ऐसा भड़का कि वह किसी से कुछ कहे बगैर सीधे राघव के घर जा धमका और महल्ले वालों के सामने उस की धुनाई कर दी. राघव के सिर और नाक से खून बह निकला. किसी ने पुलिस को इन्फौर्म किया तो पुलिस दोनों को पकड़ कर थाने ले आई.

राघव ने सुरेश के खिलाफ मारपीट का मुकदमा दर्ज करवा दिया. उधर सुरेश ने भी बहन के साथ मारपीट का मामला लिखवाया. बात इतनी बढ़ गई कि राघव ने निधि को अपने घर लाने से इनकार कर दिया. दोनों घरों के बड़ों के बीच पंचायत हुई. राघव ने सब के सामने बोल दिया- वह अपनी मरजी से बिना किसी को बताए गई थी. अपनी मरजी से आए मगर अब मु?ा से वह कोई उम्मीद न रखे. मु?ो ऐसी ?ाठी औरत की जरूरत नहीं है. 6 महीने से ऊपर हो गए हैं, निधि मायके में ही है. वह पछता रही है कि उस ने अपने भाइयों के आगे पति के बारे में ?ाठी बातें क्यों बोलीं. वहीं निधि के मातापिता को यह अफसोस हो रहा है कि उन्होंने घर के सारे फैसले करने का हक बड़े बेटे सुरेश को क्यों सौंप रखा है? न उस के पास यह हक होता और न वह तमतमा कर राघव के घर पहुंचता और बवाल करता. अगर घर के फैसले घर के बड़ेबुजुर्ग ही लेते तो मामले का शांतिपूर्ण समाधान निकल आता और निधि पूरी इज्जत के साथ अपने घर लौट जाती.

सुरेश ने तो अपने गुस्सैल व जिद्दी स्वभाव से बहन का घर ही उजाड़ दिया. कांति शर्मा घर का हर फैसला अपने बड़े बेटे रघुवर से पूछ कर लेते हैं. बचपन से ही उन्होंने रघुवर को घर के हर मामले में इन्वौल्व किया है. अब तो यह हाल हो गया है कि कोई बात अगर कांति शर्मा और उन की पत्नी को ठीक नहीं भी लगती है, उस के लिए भी बेटे के दबाव में उन्हें हां कहनी पड़ती है. बचपन से हर मामले में अंतिम फैसला करने वाला रघुवर स्वभाव से जिद्दी है. इसी जिद के चलते उस ने कांति शर्मा के औफिस को भव्य और सुंदर दिखाने के चक्कर में तमाम दीवारों पर वालपेपर लगवा दिया. कांति शर्मा चाहते थे कि औफिस का लुक ठीक करने के लिए टिकाऊ और सुंदर रंग से पेंट करवा लिया जाए. मगर रघुवर की जिद थी वालपेपर लगवाने की. उस का कहना था कि आजकल वालपेपर का जमाना है. बाजार में आकर्षक डिजाइन के वालपेपर मिल रहे हैं. औफिस की दीवारें चमक जाएंगी.

खर्चा भी पेंट के मुकाबले कम आएगा. फिर एक दिन वह खुद जा कर वालपेपर और्डर कर आया और लेबर लगा कर पूरे औफिस में वालपेपर लगवा दिया. कांति शर्मा बेटे की जिद्द के आगे कुछ न बोल सके. वालपेपर से औफिस का लुक तो बदल गया मगर 3 दिनों बाद ही यह बदलाव एक भयानक मंजर में तबदील हो गया. तीसरे दिन जब नौकर ने दुकान का शटर खोला और साफसफाई कर के एसी का स्विच औन किया तो एक चिनगारी उड़ी और वालपेपर ने आग पकड़ ली. चंद मिनटों के भीतर पूरा औफिस जल कर राख हो गया. तमाम डौक्यूमैंट्स खाक हो गए. लाखों का औफिस वालपेपर के कारण कोयले में तबदील हो गया. आग की लपटों ने आसपास के दफ्तरों को भी अपनी चपेट में ले लिया.

जिद्दी बच्चे चाहे छोटे हों या बड़े, उन से डील करना पेरैंट्स के लिए बहुत बड़ा चैलेंज होता है. बच्चा अगर शुरू से जिद्दी है तो डेली लाइफ की चीजें, जैसे सोना, खाना या नहाना उन के साथ रोज का एक युद्ध बन जाता है. जिद्दी बच्चों को हर चीज अपने हिसाब से चाहिए और अगर उन्हें मनमुताबिक चीज न मिले तो उन का दूसरा ही रूप देखने को मिलता है. कई बच्चे तो जिद पूरी न होने पर घर का सामान ही तोड़नेफोड़ने लगते हैं या खुद को कमरे में लौक कर लेते हैं. वे कहीं कोई उलटासीधा कदम न उठा लें, इस डर से मातापिता उन की जिद पूरी कर देते हैं. अमूमन मातापिता या अन्य लोग बच्चे के इस व्यवहार के लिए उस पर गुस्सा करते हैं या नाराजगी जाहिर करते हैं. लेकिन क्या आप ने कभी एकांत में बैठ कर सोचा है कि बच्चे के इस व्यवहार के पीछे वास्तव में कौन जिम्मेदार है,

बच्चा या आप? अगर आप ईमानदारी से इस सवाल का जवाब देंगे तो आप को अपनी ऐसी कई गलतियां नजर आएंगी जिन्होंने बच्चे को उग्र व जिद्दी बनाया है. आप शुरूशुरू में उन के टैट्रम्स को बढ़ावा दे कर उन की इस आदत को बिगाड़ते हैं और बाद में यह आप के लिए आफत बन जाती है. थोड़ी खुशी थोड़ा गम, नोंक?ांक, प्यार, लड़ाई, रूठनामनाना ये सब एक परिवार का हिस्सा हैं. परिवार का दूसरा नाम है हर सदस्य के प्रति समर्पण और आत्मीयता की भावना. लेकिन आधुनिकता के दौर में हम ने वह सब खो दिया है जिस को परिवार कहते हैं और पाया है सिर्फ कंक्रीट का घर जिस में न बच्चों के लिए समय है न परिवार के अन्य सदस्यों के लिए. आधुनिकता की दौड़ में हम परिवार और सामाजिक रिश्तों को पीछे छोड़ते जा रहे हैं, जिस का सब से बुरा असर पड़ रहा है बच्चों पर. संयुक्त परिवार में रहने वाले बच्चे संस्कारों के साथ एक आत्मीय रिश्ता भी निभाना सीखते हैं.

बच्चों को बड़ों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए व छोटों से कैसे बात करनी चाहिए, इस का पहला पाठ परिवार से ही सीखने को मिलता है. पतिपत्नी के नौकरी करने की दशा में बच्चों का खयाल दादा, दादी, चाचा, चाची और बाकी घर के सदस्य आसानी से कर लेते हैं. यहां बच्चे कोई फैसला लेते हैं तो उस पर अपने बड़ों की राय अवश्य लेते हैं. आज के समय में एकल परिवार का दौर चल रहा है. पतिपत्नी नौकरी करते हैं, बच्चा घर पर रहता है. बच्चे की देखभाल के लिए एक मेड होती है. हम बच्चे को सिखा कर जाते हैं कि मेड से कैसे आदेशात्मक स्वर में बात करनी है. उसे आदेश देना है और वह उस का पालन न करे तो डांट लगानी है. ऐसे में बच्चे का स्वभाव गुस्से वाला और जिद्दी हो जाता है.

साथ ही, उस में बचपन से ही फैसला लेने व उस को कार्यान्वित कराने की आदत पड़ जाती है. बड़ा होने पर वह घर का हर फैसला स्वयं लेने लगता है और उसे लगता है वह सही कर रहा है. दरअसल एकल परिवार में बच्चों को वे संस्कार नहीं मिल पाते जो संयुक्त परिवार में मिलते हैं. जौब करने वाले पतिपत्नी अलग चिंता में रहते हैं कि बच्चे ने खाना खाया कि नहीं और स्कूल से आया कि नहीं. वे अपने ही बच्चों की देखभाल नहीं कर पा रहे हैं. बच्चों को समय न देने के कारण इस का बच्चों पर बुरा असर पड़ता है. वे अच्छेबुरे की पहचान नहीं कर पाते हैं.

एकल परिवार में रहने वाले बच्चे अपने मातापिता को ही जानते हैं, जिस से बच्चों में सैल्फ सैंटर्ड होने की भावना उत्पन्न होती है. उन के लिए समाज और सोसाइटी से कोई मतलब नहीं रह जाता है. अपने फैसलों में किसी से रायमशवरा लेना या किसी की राय जानना उन के लिए कोई अहमियत नहीं रखता है. द्य क्या करें कि बच्चा जिद्दी न हो बच्चे जिद्दी और आक्रामक न हों, परिवार के बड़ेबुजुर्गों से रायमशवरा किए बगैर ही खुद की और दूसरों की जिंदगी के फैसले न लेने लगें, इस का खयाल बचपन से ही रखना जरूरी है.

बच्चों की परवरिश में पेरैंट्स की गलतियां दिनोंदिन भारी पड़ती चली जाती हैं और बच्चा पूरी तरह से नियंत्रण से बाहर निकल जाता है. मनोवैज्ञानिकों और पेरैंटिंग एक्सपर्ट्स की मानें तो जिद्दी बच्चों को संभालने का सब से कारगर तरीका है कि आप उन के बुरे बरताव पर किसी भी तरह की प्रतिक्रिया न दें, जबकि उन के अच्छे व्यवहार की हमेशा तारीफ करें. उन्हें सुनें, बहस न करें : अगर आप चाहते हैं कि आप का जिद्दी बच्चा आप को सुने तो इस के लिए आप को खुद उस की बात ध्यान से सुननी होगी. मजबूत इच्छाशक्ति वाले बच्चों की राय भी बहुत मजबूत होती है और वे कई बार बहस करने लगते हैं. अगर आप उन की बात नहीं सुनेंगे तो वे और ज्यादा जिद्दी हो जाएंगे.

अगर उन्हें यह महसूस होने लगे कि उन की बात नहीं सुनी नहीं जा रही है तो वे धीरेधीरे आप की हर बात को दरकिनार करना शुरू कर देंगे. अधिकतर समय जब आप का बच्चा कुछ करने या न करने की जिद करे तो आप शांति और धैर्य से उस की बात सुनें जरूर, उस की बात खत्म होने से पहले उन्हें न टोकें. आप उस से कभी भी गरम मूड में बात न करें. बच्चों के साथ जबरदस्ती बिलकुल न करें : जब आप अपने बच्चों के साथ किसी भी चीज को ले कर जबरदस्ती करते हैं तो वे स्वभाव से विद्रोही होते चले जाते हैं. तात्कालिक तौर पर तो कई बार जबरदस्ती से आप को समाधान मिल जाता है लेकिन आगे के लिए यह खतरनाक होता चला जाता है. बच्चों से जबरन कुछ करवाने से वे वही कुछ करने लगते हैं जिन से उन्हें मना किया जाता है. आप अपने बच्चों से कनैक्ट होने की कोशिश करें.

शांत रहें : अगर आप हर बात पर अपने बच्चे पर चिल्लाएंगे या डांटेंगे तो शायद आप का बच्चा आप के चीखने को जबानी लड़ाई का निमंत्रण सम?ाने लगे. इस से आप का बच्चा अपनी तहजीब भूलता चला जाएगा. आप हमेशा बातचीत को एक निष्कर्ष तक ले जाएं न कि किसी लड़ाई में उसे तबदील करें. आप वयस्क हैं, इसलिए बच्चों की तरह बरताव बिलकुल न करें.

इन्वौल्व हों : बच्चों के साथ उन के किसी फेवरेट काम में शरीक जरूर हों. इस से आप उन का ‘वोट’ जीतने में कामयाब रहेंगे और उन्हें अपने हिसाब से ढालने में भी. दरअसल हम पर उन्हीं लोगों की बात का असर पड़ता है जो हमारे दिल के करीब होते हैं. बच्चों का सम्मान करें : अगर आप चाहते हैं कि आप का बच्चा आप का और आप के फैसलों का सम्मान करे तो आप को भी उस का सम्मान करना होगा. उस की जो बात ठीक न लगे, उस को तर्कसहित सम?ाएं कि वह बात क्यों ठीक नहीं है. आप का बच्चा आप की अथौरिटी बिलकुल बरदाश्त नहीं करेगा अगर आप उस पर कुछ थोपते हैं.

ब्रिज द गैप: बुजुर्गों के जीवन का आईना

समाज में बुजुर्गों की संख्या बढ़ रही है. भारत में लगभग 13.8 करोड़ बुजुर्ग रहते हैं जो कुल आबादी का लगभग 10 प्रतिशत है. संख्या के साथ ही साथ बुजुर्गों की परेशानियां बढ़ रही हैं. हैल्पऐज इंडिया ने बुजुर्गों की परेशानियों को ले कर भारत के 22 शहरों में बड़े पैमाने पर विभिन्न सामाजिक एवं आर्थिक श्रेणियों में रहने वाले 4,399 बुजुर्गों और उन की देखभाल करने वाले 2,200 युवाओं पर एक सर्वे किया. हैल्पऐज इंडिया ने विश्व बुजुर्ग दुर्व्यवहार जागरूकता दिवस के अवसर पर इस सर्वे को सार्वजनिक किया है. इस रिपोर्ट का नाम ‘ब्रिज द गैप’ रखा गया. इस के जरिए बुजुर्गों की आवश्यकताओं को सम झने की कोशिश की गई है.

पिछले 2 वर्षों से हैल्पऐज ने बुजुर्गों पर कोरोना महामारी के प्रभाव पर शोध किया. इस रिपोर्ट में न केवल अस्तित्व संबंधी मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया गया बल्कि जो बुजुर्ग दिनप्रतिदिन के आधार पर सहते हैं उन के संपूर्ण अनुभव को सम झने का प्रयास भी किया गया. हैल्पऐज इंडिया के सीईओ रोहित प्रसाद कहते हैं, ‘‘इस साल जो थीम रखी है वह है ‘ब्रिज द गैप’. बुजुर्ग दुर्व्यवहार को सम झने के साथसाथ बुजुर्गों की सुरक्षा व उन की सामाजिक एवं डिजिटल जानकारी के महत्त्व को भी उस में शामिल किया गया है.’’

बुढ़ापे में भी काम करना चाहते हैं बुजुर्ग

‘ब्रिज द गैप’ सर्वे में पता चलता है कि 47 फीसदी बुजुर्ग आय के लिए परिवार पर निर्भर हैं. 34 फीसदी पैंशन एवं नकद हस्तांतरण पर निर्भर हैं. हैल्पऐज  इंडिया के निदेशक ए के सिंह ने उप्र की सर्वे रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्षों पर चर्चा करते हुए बताया कि 63 फीसदी बुजुर्गों ने बताया कि उन की जो आय है वह पूरी नहीं है. इसी दौरान 35 फीसदी बुजुर्गों ने कहा कि वे आर्थिक रूप से सुरक्षित महसूस नहीं करते. इस का हवाला देते हुए कि उन के ‘बचत/आय से अधिक खर्च हैं’. 37 फीसदी बुजुर्गों को अपनी पैंशन पर्याप्त नहीं लगती है. इस के लिए बुजुर्ग बुढ़ापे में भी काम करना चाहते हैं.

हैल्पऐज  इंडिया के निदेशक ए के सिंह कहते हैं, ‘‘इन हालात को देखते हुए यह पता चलता है कि बुजुर्गों की आर्थिक और सामाजिक सुरक्षा दोनों तरह की सुरक्षा पर अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है. जिन के पास कोई आय का कोई पर्याप्त साधन या पैंशन नहीं है उन को हर माह 3,000 रुपए की पैंशन मिलनी चाहिए.

यह कटु सत्य है कि 82 फीसदी बुजुर्ग काम नहीं कर रहे हैं. 52 फीसदी बुजुर्ग काम करने को तैयार हैं और उन में से

29 फीसदी जितना हो सके, काम करना चाहते हैं. 76 फीसदी  बुजुर्गों को लगता है कि उन के लिए ‘पर्याप्त और सुलभ रोजगार के अवसर’ उपलब्ध नहीं हैं. लगभग 32 फीसदी बुजुर्ग खाली समय का सदुपयोग करने के लिए स्वयंसेवा करने और समाज में योगदान देने के इच्छुक हैं. वे ‘वर्क फ्रौम होम’ को बेहतर मानते हैं. 28 फीसदी ने कहा कि काम करने वाले बुजुर्गों को अधिक सम्मान मिले. 33 फीसदी ने कहा कि सेवानिवृत्ति की आयु में वृद्धि की जाए.

घर वालों के साथ समझते हैं सुरक्षित

बुजुर्गों ने यह माना कि वे परिवार के साथ ही सुरक्षित महसूस करते हैं. 85 फीसदी बुजुर्गों ने कहा कि उन के परिवार उन के खानपान का उत्तम ध्यान रखते हैं और अच्छा खाना देते हैं.

41 फीसदी का कहना है कि उन का परिवार उन की चिकित्सकीय खर्च का खयाल रखता है. सर्वे में एक अच्छी बात यह है कि 87 फीसदी बुजुर्गों ने कहा कि आसपास स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं. 85 फीसदी बुजुर्गों ने कहा कि ऐप आधारित औनलाइन स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध नहीं थीं.

85 फीसदी के पास कोई स्वास्थ्य बीमा नहीं है. केवल 8 फीसदी सरकारी बीमा योजनाओं के अंतर्गत आते हैं. 52 फीसदी बुजुर्गों ने बेहतर स्वास्थ्य बीमा और बेहतर स्वास्थ्य सुविधाओं के माध्यम से अपने बेहतर स्वास्थ्य की आकांक्षा व्यक्त की है. 69 फीसदी यह बताते हैं कि घर से अधिक सहयोग होना चाहिए जिस से कि बुजुर्गों का जीवन कट सके.

बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार

अधिकांश भारतीय परिवारों में बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार एक संवेदनशील मसला है. ‘ब्रिज द गैप’ सर्वे में पता चलता है कि बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार होता है. 50 फीसदी बुजुर्गों को लगता है कि समाज में बुजुर्गों के साथ दुर्व्यवहार होता है. दुर्व्यवहार को दो तरह से देखा जाता है. 41 फीसदी बुजुर्गों को लगता है कि उन के साथ अनादर हो रहा है.

23 फीसदी को लगता है कि उन की उपेक्षा की जाती है. 25 फीसदी कहते हैं कि उन के साथ शारीरिक गालीगलौज, पिटाई और थप्पड़ भी होती है. 8 फीसदी बुजुर्गों ने दुर्व्यवहार के लिए 53 फीसदी रिश्तेदारों, 20 फीसदी संतानों 26 फीसदी ने बहू को जिम्मेदार माना.

दुर्व्यवहार के कारणों पर चर्चा करते हुए बुजुर्गों ने बताया कि अनादर

33 फीसदी, मौखिक दुर्व्यवहार 67 फीसदी, उपेक्षा 33 फीसदी, आर्थिक शोषण 13 फीसदी होता है. एक भयावह यह कि 13 फीसदी बुजुर्गों ने पिटाई और थप्पड़ के रूप में शारीरिक शोषण के बारे में भी बताया. दुर्व्यवहार सहने वालों में से 40 फीसदी बुजुर्गों ने कहा कि उन्होंने दुर्व्यवहार का सामना करने की प्रतिक्रिया के रूप में ‘परिवार से बात करना बंद कर दिया’.

परिवार होता है खास

परिवार महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है. दुर्व्यवहार की रोकथाम के संबंध में 41 फीसदी बुजुर्गों ने कहा कि ‘परिवार के सदस्यों को परामर्श’ की आवश्यकता है, जबकि

49 फीसदी बुजुर्गों ने कहा कि दुर्व्यवहार से निबटने के लिए सरकार को सामाजिक समस्या व्यवस्था पर जोर देने के बारे में सोचने की जरूरत है. 46 फीसदी बुजुर्गों को किसी भी दुर्व्यवहार नियंत्रण के बारे में पता नहीं है. केवल 5 फीसदी बुजुर्गों को मातापिता और वरिष्ठ नागरिकों को भरणपोषण और कल्याण अधिनियम 2007 के बारे में जानकारी है.

77 फीसदी बुजुर्गों के पास स्मार्टफोन नहीं है. जरूरत इस बात की है कि बुजुर्गों को स्मार्टफोन का प्रयोग करना सीखना चाहिए. इस से उन की तमाम परेशानियां हल हो सकती हैं. इस का उपयोग

42 फीसदी कौलिंग के लिए, 19 फीसदी सोशल मीडिया के लिए और 17 फीसदी बैंकिंग के लिए करते हैं. 34 फीसदी बुजुर्ग चाहते हैं कि वे स्मार्टफोन चलाना सीख लें. बुजुर्गों की हालत देख कर लगता है कि समाज और सरकार दोनों को मिलजुल कर काम करना चाहिए, जिस से बुजुर्गों का जीवन आराम से कट सके.

कोशिशें जारी हैं: शिवानी और निया के बीच क्या था रिश्ता

‘‘पहलीबार पता चला कि निया तुम्हारी बहू है, बेटी नहीं…’’ मिथिला शिवानी से कह रही थी और शिवानी मंदमंद मुसकरा रही थी.

‘‘क्यों, ऐसा क्या फर्क होता है बेटी और बहू में? दोनों लड़कियां ही तो होती हैं. दोनों ही नौकरियां करती हैं. आधुनिक डै्रसेज पहनती हैं. आजकल यह फर्क कहां दिखता है कि बहू सिर पर पल्ला रखे और बेटी…’’

‘‘नहीं… फिर भी,’’ मिथिला उस की बात काटती हुई बोली, ‘‘बेटी, बेटी होती है और बहूबहू. हावभाव से ही पता चल जाता है. निया तुम से जैसा लाड़ लड़ाती है, छोटीछोटी बातें शेयर करती है, तुम्हारा ध्यान रखती है, वैसा तो सिर्फ बेटियां ही कर सकती हैं. तुम दोनों की ऐसी मजबूत बौंडिग देख कर तो कोई सपने में भी नहीं सोच सकता कि तुम दोनों सासबहू हो. ऐसे हंसतीखिलखिलाती हो साथ में कि कालोनी में इतने दिन तक किसी ने यह पूछने की जहमत भी नहीं उठाई कि निया तुम्हारी कौन है. बेटी ही समझा उसे.’’

‘‘ऐसा नहीं है मिथिला. यह सब सोच की बातें हैं. कुछ अपवादों को छोड़ दिया जाए तो अधिकतर लड़कियां ठीक ही होती हैं. लेकिन जिस दिन लड़की पहला कदम घर में बहू के रूप में रखती है, रिश्ते बनाने की कोशिश उसी पल से शुरू हो जानी चाहिए, क्योंकि हम बड़े हैं, इसलिए कोशिशों की शुरूआत हमें ही करनी चाहिए और अगर उन कोशिशों को जरा भी सम्मान मिले तो कोशिशें जारी रहनी चाहिए. कभी न कभी मंजिल मिल ही जाती है. हां, यह बात अलग है कि अगर तुम्हारी कोशिशों को दूसरा तुम्हारी कमजोरी समझ रहा है तो फिर सचेत रहने की आवश्यकता भी है,’’ शिवानी ने अपनी बात रखी.

‘‘यह तो तुम ठीक कह रही हो… पर तुम दोनों तो देखने में भी बहनों सी ही लगती है. ऐसी बौंडिग कैसे बनाई तुम ने? प्यार तो मैं भी करती हूं अपनी बहू से पर पता नहीं हमेशा ऐसा क्यों लगता है कि यह रिश्ता एक तलवार की धार की तरह है. जरा सी लापरवाही दिखाई तो या तो पैर कट जाएगा या फिसल जाएगा. तुम दोनों कितने सहज और बिंदास रहते हो,’’ मिथिला अपने मन के भावों को शब्द देती हुई बोली.

‘‘बहू तो तुम्हारी भी बहुत प्यारी है मिथिला.’’

‘‘है तो,’’ मिथिला एक लंबी सांस खींच कर बोली, ‘‘पर सासबहू के रिश्ते का धागा इतना पतला होता है शिवानी कि जरा सा खींचा तो टूटने का डर, ढीला छोड़ा तो उलझने का डर. संभलसंभल कर ही कदम रखने पड़ते हैं. निश्चिंत नहीं रह सकते इस रिश्ते में.’’

‘‘हो सकता है… सब के अपनेअपने अनुभव व अपनीअपनी सोच है… निया के साथ मुझे ऐसा नहीं लगता,’’ शिवानी बात खत्म करती हुई बोली.

‘‘ठीक है शिवानी, मैं चलती हूं… कोई जरूरत हो तो बता देना. निया भी औफिस से आती ही होगी,’’ कहती हुई मिथिला चली गई. शिवानी इतनी देर बैठ कर थक गई थी, इसलिए लेट गई.

शिवानी को 15 दिन पहले बुखार ने आ घेरा था. ऐसा बुखार था कि शिवानी टूट गई थी. पूरे बदन में दर्द, तेज बुखार, उलटियां और भूख नदारद. निया ने औफिस से छुट्टी ले कर दिनरात एक कर दिया था उस की देखभाल में. उस की हालत देख कर निया की आंखें जैसे हमेशा बरसने को तैयार रहतीं. शिवानी का बेटा सुयश मर्चेंट नेवी में था. 6 महीने पहले वह अपने परिवार को इस कालोनी में शिफ्ट कर दूसरे ही दिन शिप पर चला गया था. 4 साल होने वाले थे सुयश व निया के विवाह को.

शिवानी के इतना बीमार पड़ने पर निया खुद को बहुत अकेला व असहाय महसूस कर रही थी. पति को आने के लिए कह नहीं सकती थी. वह बदहवास सी डाक्टर, दवाई और शिवानी की देखरेख में रातदिन लगी थी. इसी दौरान पड़ोसियों का घर में ज्यादा आनाजाना हुआ, जिस से उन्हें इतने महीनों में पहली बार उन दोनों के वास्तविक रिश्ते का पला चला था, क्योंकि सुयश को किसी ने देखा ही नहीं था. निया जौब करती, शिवानी घर संभालती. दोनों मांबेटी की तरह रहतीं और देखने में बहनों सी लगतीं.

निया की उम्र इस समय 30 साल थी और शिवानी की 52 साल. हर समय प्रसन्नचित, शांत हंसतीखिलखिलाती शिवानी ने जैसे अपनी उम्र 7 तालों में बंद की हुई थी. लंबी, स्मार्ट, सुगठित काया की धनी शिवानी हर तरह के कपड़े पहनती. निया भी लंबी, छरहरी, सुंदर युवती थी. दोनों कभी जींसटौप पहन कर, कभी सलवारसूट, कभी चूड़ीदार तो कभी इंडोवैस्टर्न कपड़े पहन कर इधरउधर निकल जातीं. उन के बीच के तारतम्य को देख कर किसी ने यह पूछना तो गैरवाजिब ही समझा कि निया उस की कौन है.

शिवानी लेटी हुई सोच रही थी कि कई महिलाएं यह रोना रोती हैं कि उन की बहू उन्हें नहीं समझती. लेकिन न हर बहू खराब होती है, न हर सास. फिर भी अकसर पूरे परिवार की खुशी के आधार, इस प्यारे रिश्ते के समीकरण बिगड़ क्यों जाते हैं. जबकि दोनों की जान एक ही इंसान, बेटे व पति के पास ही अटकी रहती है और उस इंसान को भी ये दोनों ही रिश्ते प्यारे होते हैं. इस एक रिश्ते की खटास बेटे का सारा जीवन डांवाडोल कर देती है, न पत्नी उसे पूरी तरह पा पाती है और न मां.

बहू जब पहला कदम घर में रखती है तो शायद हर सास यह बात भूल जाती है कि वह अब हमेशा के लिए यहीं रहने आई है, थोड़े दिनों के लिए नहीं और एक दिन उसी की तरह पुरानी हो जाएगी. आज मन मार कर अच्छीबुरी, जायजनाजायज बातों, नियमों, परंपराओं को अपनाती बहू एक दिन अपने नएपन के खोल से बाहर आ कर तुम्हारे नियमकायदे, तुम्हें ही समझाने लगेगी, तब क्या करोगे?

बेटी को तुम्हारी जो बातें नहीं माननी हैं उन्हें वह धड़ल्ले से मना कर देती है, तो चुप रहना ही पड़ता है. लेकिन अधिकतर बहुएं आज भी शुरूशुरू में मन मार कर कई नापसंद बातों को भी मान लेती हैं. लेकिन धीरेधीरे बेटे की जिंदगी की आधार स्तंभ बनने वाली उस नवयौवना से तुम्हें हार का एहसास क्यों होने लगता है कुछ समय बाद. उसी समय समेट लेना चाहिए था न सबकुछ जब बहू ने अपना पहला कदम घर के अंदर रखा था.

दोनों बांहों में क्यों न समेट लिया उस खुशी की गठरी को? तब क्यों रिश्तेदारों व पड़ोसियों की खुशी बहू की खुशी से अधिक प्यारी लगने लगी थी. बेटी या बहू का फर्क आज के जमाने में कोई खानपान या काम में नहीं करता. फर्क विचारों में आ जाता है.

बेटी की नौकरी मेहनत और बहू की नौकरी मौजमस्ती या टाइमपास, बेटी छुट्टी के दिन देर तक सोए तो आराम करने दो, बहू देर तक सोए तो पड़ोसी, रिश्तेदार क्या कहेंगे? बेटी को डांस का शौक हो और घर में घुंघरू खनकें तो कलाप्रेमी और बहू के खनकें तो घर है या कोठा? बेटी की तरह ही बहू भी नन्हीं, कोमल कली है किसी के आंगन की, जो पंख पसारे इस आंगन तक उड़ कर आ गई है.

आज पढ़लिख कर टाइमपास नौकरी करना नहीं है लड़कियों के शौक. अब लड़कियों के जीवन का मकसद है अपनी मंजिल को हर हाल में पाना. चाहे फिर उन का वह कोई शौक हो या कोई ऊंचा पद. वे सबकुछ संभाल लेंगी यदि पति व घरवाले उन का बराबरी से साथ दें, खुले आकाश में उड़ने में उन की मदद करें.

ऐसा होगा तो क्यों न होगी इस रिश्ते की मजबूत बौंडिंग. सास या बहू कोई हव्वा नहीं हैं, दोनों ही इंसान हैं. मानवीय कमजोरियों व खूबियों से युक्त एवं संवेदनाओं से ओतप्रोत. शिवानी अपनी सोचों के तर्कवितर्क में गुम थी कि तभी बाहर का दरवाजा खुला, आहट से ही समझ गई शिवानी कि निया आ गई. एक अजीब तरह की खुशी बिखेर देती है यह लड़की भी घर के अंदर प्रवेश करते ही. निया लैपटौप बैग कुरसी पर पटक कर उस के कमरे में आ गई.

‘‘हाय ममा.. हाऊ यार यू…,’’ कह कर वह चहकती हुई उस से लिपट गई.

‘‘फाइन… हाऊ वाज युअर डे…’’

‘‘औसम… पर मैं ने आप को कई बार फोन किया, आप रिसीव नहीं कर रही थीं. फिर सुकरानी को फोन कर के पूछा तो उस ने बताया कि आप ठीक हैं. वह लंच दे कर चली गई थी.’’

‘‘ओह, फोन. शायद औफ हो गया है.’’ शिवानी मोबाइल उठाती हुई बोली, ‘‘चल तेरे लिए चाय बना देती हूं.’’

‘‘नहीं, चाय मैं बनाती हूं. आप अभी कमजोर हैं. थोड़े दिन और आराम कर लीजिए’’, कह कर निया 2 कप चाय बना लाई और चाय पीतेपीते दिन भर का पूरा हाल शिवानी को सुनाना शुरू कर दिया.

‘‘अच्छा अब तू फ्रैश हो जा बेटा. चेंज कर ले. सुकरानी भी आ गई. मनपसंद कुछ बनवा ले उस से.’’

‘‘ममा, सुकरानी के हाथ का खा कर तो ऊब गई हूं. आप एकदम ठीक हो जाओ. कुछ ढंग का खाना तो मिलेगा,’’ वह शिवानी की गोद में सिर रख कर लेट गई और शिवानी उस के बालों को सहलाती रही.

जब सुयश शिप पर होता था तो निया शिवानी के साथ ही सो जाती थी. खाना खा कर दिन भर की थकी हुई निया लेटते ही गहरी नींद सो गई. उस का चेहरा ममता से निहारती शिवानी फिर खयालों में डूब गई. ‘कौन कहता है कि इस रिश्ते में प्यार नहीं पनप सकता… उन दोनों का जुड़ाव तो ऐसा है कि प्यार में मांबेटी जैसा, समझदारी में सहेलियों जैसा और मानसम्मान में सासबहू जैसा.’

छत को घूरतेघूरते शिवानी अपने अतीत में उतर गई. पति की असमय मृत्यु के बाद छोटे से सुयश के साथ जिंदगी फूलों की सेज नहीं थी उस के लिए. कांटों से अपना दामन बचाते, संभालते जिंदगी अत्यंत दुष्कर लगती थी कभीकभी. वह ओएनजीसी में नौकरी करती थी. पति के रहते कई बार घर और सुयश के कारण नौकरी छोड़ देने का विचार आया. पर अब वही नौकरी उस के लिए सहारा बन गई थी. सुयश बड़ा हुआ. वह उसे मर्चेंट नेवी में नहीं भेजना चाहती थी पर सुयश को यह जौब बहुत रोमांचक लगता था. सुयश लंबे समय के लिए शिप पर चला जाता और वह अकेले दिन बिताती.

इसलिए वह सुयश पर शादी के लिए दबाव डालने लगी. तब सुयश ने निया के बारे में बताया. निया उस के दोस्त की बहन थी. निया मराठी परिवार से थी और वह हिमाचल के पहाड़ी परिवार से. सुन कर ही दिल टूट गया उस का. पता नहीं कैसी होगी? पर विद्रोह करने का मतलब इस रिश्ते में वैमनस्य का पहला बीज बोना.

उस ने कुछ भी बोलने से पहले लड़की से मिलने का मन बना लिया पर जब निया से मिली तो सारे पूर्वाग्रह जैसे समाप्त हो गए. लंबी, गोरी, छरहरी, खूबसूरत, सौम्य, चेहरे पर दिलकश मुसकान लिए निया को देख कर विवाह की जल्दी मचा डाली. निया अपने मम्मीपापा की इकलौती लाडली बेटी थी. अच्छे संस्कारों में पली लाडली बेटी को प्यार लेना और देना तो आता था पर जिम्मेदारी जैसी कोई चीज लेना आजकल की बच्चियों को नहीं आता. बिंदास तरह से पलती हैं और बिंदास तरह से रहती हैं.

और इस बात को बेटी न होते हुए भी, बेटी की मां जैसा अनुभव कर शिवानी ने निया के गृहप्रवेश करते समय ही गांठ बांध लिया. दोनों बांहों से उस ने ऐसा समेटा निया को कि उस का माइनस तो कुछ दिखा ही नहीं, बल्कि सबकुछ प्लसप्लस होता चला गया. निया देर से सो कर उठती, तो घर में काम करने वाली के पेट में भी मरोड़ होने लगती पर शिवानी के चेहरे पर शिकन न आती.

निया के कुछ कपड़े संस्कारी मन को पसंद न आते पर पड़ोसियों से ज्यादा परवाह बहूबेटे की खुशियों की रहती. उन दोनों को पसंद है, पड़ोसी दुखी होते हैं तो हो लें. कुछ महीने रह कर सुयश 6 महीने के लिए शिप पर चला गया. निया अपनी जौब छोड़ कर आई थी इसलिए वह अपने लिए नई जौब ढूंढ़ने में लगी थी. शिवानी ने सुयश के जौब में आने के बाद रिटायरमैंट ले लिया था. वह अब दौड़तीभागती जिंदगी से विराम चाहती थी. फिलहाल जो एक कोमल पौधा उस के आंगन में रोपा गया था, उसे मजबूती देना ही उस का मकसद था.

पर सुयश के शिप पर जाने के बाद निया मायके जाने के लिए कसमसाने लगी थी. शिवानी इसी सोच में थी कि अब उसे अकेले नहीं रहना पड़ेगा. पर जब निया ने कहा, ‘‘ममा, जब तक सुयश शिप में है, मैं मुंबई चली जाऊं? सुयश के आने से पहले आ जाऊंगी?’’

न चाहते हुए भी उस ने खुशीखुशी निया को मुंबई भेज दिया. यह महसूस कर कि अभी वह बिना पति के इतना लंबा वक्त उस के साथ कैसे बिताएगी. नए रिश्ते को, नए घर को अपना समझने में समय लगता है. सुयश के आने से कुछ दिन पहले ही निया वापस आई. हां, वह मुंबई से उसे फोन करती रहती और वह खुद भी उसी की तरह बिंदास हो कर बात करती. अपने जीवन में उस की खूबी को महसूस कराती. घर में उस की कमी को महसूस कराती पर अपनी तरफ से आने के लिए कभी नहीं कहती.

सुयश ने भी कुछ नहीं कहा. निया वापस आई तो शिवानी ने उसे बिछड़ी बेटी की तरह गले लगा लिया. सुयश कुछ महीने रह कर फिर शिप पर चला गया. पर इस बार निया में परिवर्तन अपनेआप ही आने लगा था. स्वभाव तो उस का प्यारा पहले से ही था पर अब वह उस के प्रति जिम्मेदारी भी महसूस करने लगी थी. इसी बीच निया को जौब मिल गई.

शिवानी खुद ही निया के रंग में रंग गई. निया ने जब पहली बार उस के लिए जींस खरीदने की पेशकश की तो उस ने ऐतराज किया, ‘‘ममा पहनिए, आप पर बहुत अच्छी लगेगी.’’

और उस के जोर देने पर वह मान गई कि बेटी भी होती तो ऐसा ही कर सकती थी. समय बीततेबीतते उन दोनों के बीच रिश्ता मजबूत होता चला गया. औपचारिकता के लिए कोई जगह ही नहीं रह गई. कोशिश तो किसी भी रिश्ते में सतत करनी पड़ती है. फिर एक समय ऐसा आता है जब उन कोशिशों को मुकाम हासिल हो जाता है.

जितना खुलापन, प्यार, अपनापन, विश्वास, उस ने शुरू में निया को दिया और उसे उसी की तरह जीने, रहने व पहनने की आजादी दी, उतना ही वह अब उस का खयाल रखने लगी थी. बेटी की तरह उस की छोटीछोटी बातें अकसर उस की आंखों में आंसू भर देती. कभी वह उस को शाल यह कह कर ओढ़ा देती, ‘‘ममा ठंड लग जाएगी.’’ कभी उस की ड्रैस बदला देती, ‘‘ममा यह पहनो. इस में आप बहुत सुंदर लगती हैं. मेरी फ्रैंड्स कहती हैं तेरी ममा तो बहुत सुंदर और स्मार्ट है.’’

निया ने ही उसे ड्राइविंग सिखाई. हर नई चीज सीखने का उत्साह जगाया. वह खुद ही पूरी तरह निया के रंग में रंग गई और अब ऐसी स्थिति आ गई थी कि दोनों एकदूसरे को पूछे बिना न कुछ करतीं, न पहनतीं. हर बात एकदूसरे को बतातीं. इतना अटूट रिश्ता तो मांबेटी के बीच भी नहीं बन पाता होगा. सोच कर शिवानी मुसकरा दी.

सोचतेसोचते शिवानी ने निया की तरफ देखा. वह गहरी नींद में थी. उस ने उस की चादर ठीक की और लाइट बंद कर खुद भी सोने का प्रयास करने लगी. दूसरे दिन रविवार था. दोनों देर से सो कर उठीं.

दैनिक कार्यक्रम से निबट कर दोनों बैडरूम में ही बैठ कर नाश्ता कर रही थीं कि उन की पड़ोसिनें मिथिला, वैशाली, मधु व सुमित्रा आ धमकीं. निया सब को नमस्ते कर के उठ गई.

‘‘अरे वाह, आओआओ… आज तो सुबहसुबह दर्शन हो गए. कहां जा रही हो चारों तैयार हो कर?’’ शिवानी मुसकरा कर नाश्ता खत्म करती हुई बोली.

‘‘हम सोच रहे थे शिवानी कि कालोनी का एक गु्रप बनाया जाए, जिस से साल में आने वाले त्योहार साथ में मनाएं मिलजुल कर,’’ मिथिला बोली.

‘‘इस से आपस में मिलनाजुलना होगा और जीवन की एकरसता भी दूर होगी,’’ वैशाली बात को आगे बढ़ाते हुए बोली.

‘‘हां और क्या… बेटेबहू तो चाहे साथ में रहें या दूर अपनेआप में ही मस्त रहते हैं. उन की जिंदगी में तो हमारे लिए कोई जगह है ही नहीं… बहू तो दूध में पड़ी मक्खी की तरह फेंकना चाहती है सासससुर को,’’ मधु खुद के दिल की भड़ास उगलती हुई बोली.

‘‘ऐसा नहीं है मधु… बहुएं भी आखिर बेटियां ही होती हैं. बेटियां अच्छी होती हैं फिर बहुएं होते ही वे बुरी कैसे बन जातीं हैं, मां अच्छी होती हैं फिर सास बनते ही खराब कैसे हो जाती हैं? जाहिर सी बात है कि यह रिश्ता नुक्ताचीनी से ही शुरू होता है. एकदूसरे की बुराइयों, कमियों और गलतियों पर उंगली रखने से ही शुरुआत होती है.

‘‘मांबेटी तो एकदूसरे की अच्छीबुरी आदतें व स्वभाव जानती हैं और उन्हें इस की आदत हो जाती है. वे एकदूसरे के स्वभाव को ले कर चलती हैं पर सासबहू के रूप में दोनों कुछ भी गलत सहन नहीं कर पाती हैं. आखिर इस रिश्ते को भी तो पनपने में, विकसित होने में समय लगता है. बेटी के साथ 25 साल रहे और बहू 25 साल की आई, तो कैसे बन पाएगा एक दिन में वैसा रिश्ता.’ उस रिश्ते को भी तो उतना ही समय देना पड़ेगा. कोशिशें निरंतर जारी रहनी चाहिए. एकदूसरे को सराहने की, प्यार करने की, खूबसूरत पहलुओं को देखने की,’’ शिवानी ने अपनी बात रखी.

‘‘तुम्हें अच्छी बहू मिल गई न… इसलिए कह रही हो. हमारे जैसी मिलती तो पता चलता,’’ सुमित्रा बोली.

‘‘लेकिन बेटे की पत्नी व बहू के रूप में देखने से पहले उसे उस के स्वतंत्र व्यक्तित्व के साथ क्यों नहीं स्वीकार करते? उस की पहचान को प्राथमिकता क्यों नहीं देते? उस पर अपने सपने थोपने के बजाए उस के सपनों को क्यों नहीं समझते? उस के उड़ने के लिए दायरे का निर्धारण तुम मत करो. उसे खुला आकाश दो जैसे अपनी खुद की बेटी के लिए चाहते हो, उस के लिए नियम बनाने के बजाए उसे अपने जीवन के नियम खुद बनाने दो, उसे अपने रंग में रंगने के बजाए उस के रंग में रंगने की कोशिश तो करो, तुम्हें पता नहीं चलेगा, कब वह तुम्हारे रंग में रंग गई.

‘‘आखिर सभी को अपना जीवन अपने हिसाब से जीने का पूरा हक है. फिर बहू से ही शिकायतें व अपेक्षा क्यों?’’ बड़े होने के नाते आज उस की गलतसही आदतों को समाओ तो सही, कल इस रिश्ते का सुख भी मिलेगा. कोशिश तो करो. हालांकि, देर हो गई है पर कोशिश तो की जा सकती है. रिश्तों को कमाने की कोशिशें सतत जारी रहनी चाहिए सभी की तरफ से,’’ शिवानी मुसकरा कर बोली.

‘‘मैं यह नहीं कहती कि इस से हर सासबहू का रिश्ता अच्छा हो जाएगा पर हां, इतना जरूर कह सकती हूं कि हर सासबहू का रिश्ता बिगड़ेगा नहीं,’’ उस ने आगे कहा.

चारों सहेलियां विचारमग्न सी शिवानी को देख रहीं थी और बाहर से उन की बातें सुनती निया मुसकराती हुई अपने कमरे की तरफ चली गई.

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