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राष्ट्रपति क्यों शामिल नहीं हो रहे हैं संसद भवन के उद्घाटन में ?

जिन लाखों लोगों के पास रहने लायक छत नहीं है और तिरपाल या पौलिथिन की छत के नीचे दिल्ली की सॢदयां, गॢमयां और बरसात गुजार देते हैं उन के कुछ मील या बस दूर पर एक भव्य 65000 मीटर में 7 लाख वर्गफुट का नया संसद भवन बन गया है. नरेंद्र मोदी को उस नए भवन से इतना लगाव है कि उन्होंने इस का शिलान्यास का पत्थर भी खुद रखा और अब 28 मई को उद्घाटन भी खुद किया. न राष्ट्रपति की दोनों मामलों में जरूरत थी न अध्यक्ष की.

राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्म को शायद इसलिए नहीं बुलाया जा रहा कि वे दलित अछूत हैं. रामनाथ कोंविद को भी शिलान्यास के समय नहीं बुलाया गया था क्योंकि वास्तु के पंडितों के हिसाब से यह भवन बना है. किस के दिमाग में क्या है, यह कौन जाने या जो दिख रहा है वह यह है कि इस संसद भवन में दलितों की पहचान केवल इतनी है कि सारा 20,045 मीट्रिक टर्न लोहा 63,807 मीट्रिक टन सीमेंट और 9,689 मीट्रिक टन दलित मजदूरों ने ही सिर पर ढोह होगी.

देश का संसद भवन आरामदेय हो पर जब देश भर में पंचायत घर सीधेसादे मकानों से चल सकते है तो संसद भवन और उस के आसपास के भवनों पर 2,000 करोड़ तो सीधेसीधे और दूसरे कई हजार करोड़ दूसरे विभागों से खर्च कराना एक महज फिजूलखर्ची है. प्रधानमंत्री गारंटी से कह नहीं सकते कि इस संसद भवन के 10 किलोमीटर कोई गरीब पटरी पर नहीं सो रहा, कोई दुकान तिरपाल के नीचे नहीं है, कोई सडक़ टूटी नहीं, कोई पटरी टेढ़ीमेढ़ी नहीं है. किसी महल्ले में गंदगी का ढेर नहीं है.

देश में अमीरीगरीबी के बीच की बढ़ती लाइन का एक सरकारी अमूल है यह संसद भवन. ऐसा ही नमूना वे 2 बड़े 8000-8000 करोड़ के हवाई जहाज हैं जो प्रधानमंत्री केवल विदेशी दौरों में अब साल में 8-10 बार करते हैं.

1921 में जब पुराना संसद भवन बना था तब देश अंगरेजों का गुलाम था. तब गरीब तो क्या अमीर भी सरकार के रहमोकरम पर जिदा रहते थे. चुङ्क्षनदा कश्मीरों के अलावा नई दिल्ली के इलाकों में इक्कादुक्का भारतीय सेठों के मकान थे. हां तब भी झोंपडिय़ां थीं पर इतनी नहीं क्योंकि अंगरेजों ने नौकरों को भी पक्के मकान बना कर दिए थे जो आज भी संसद भवन के आसपास देखे जा सकते हैं.

आज यह हाल बदल चुका है. अब भाग्य का मामला है. पिछले जन्म के कर्मों के फल का हवाला देकर मुंह बंद कर दिया जाता है. नरेंद्र मोदी के भाग्य में है कि वे गरीब जनता से इक्_ïी की गई टैक्स की रकम पर मौज कर सकें. मंदिर, भाजपा कार्यालय, संघ के दफ्तर बनबा सकें. उन्हें गरीबों की कोई ङ्क्षचता नहीं है, प्रधानमंत्री का बुलडोजर 2 जगह चलता है, एक संसद भवन जैसे विशाल चमचम करते मकान बनाने में ओर दूसरे झुग्गियां तोडऩे में, जिस दिन संसद का उद्घाटन हुआ उसी दिन दिल्ली में ही तुगलकाबाद में बुलडोजरों से गिराए गए मकानों के मामलों से लोग अपनी कीमती चीजें ढूंढ रहे थे.

देश का तीनचौथाई गरीब गरीब रहेगा, यह पक्की गारंटी है पर देश का अमीर कितना अमीर हो जाएगा इस की कोई गारंटी कहीं दे सकता.

 

क्या कोई टैस्ट है, जिससे मैं साबित कर सकूं कि विवाह से पूर्व मेरा कोई शारीरिक संबंध नहीं था?

सवाल

मैं 42 वर्षीय महिला हूं. मेरे विवाह को अभी 4 साल हुए हैं. मेरी परेशानी यह है कि हमारी सैक्सुअल लाइफ सही नहीं चल रही है. मेरे पति को लगता है कि मेरे देरी से विवाह का कारण मेरा विवाह से पूर्व कोई लव अफेयर है. जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है. विवाह से पूर्व मेरा किसी के साथ कोई प्रेम संबंध नहीं था. क्या ऐसा कोई टैस्ट है जिस से मैं अपने पति को साबित कर सकूं कि विवाह से पूर्व मेरा किसी के साथ कोई शारीरिक संबंध नहीं था. मैं अपना वैवाहिक रिश्ता कैसे सुधारूं?

जवाब

आप के पति को ऐसा क्यों लगता है कि विवाह पूर्व आप के किसी के साथ शारीरिक संबंध थे. कहीं ऐसा तो नहीं उन्होंने आप से विवाह किसी पारिवारिक दबाव में मजबूरीवश किया हो और वे आप से दूरी बनाने के लिए आप पर आरोप लगा रहे हों? जहां तक आप के पति के सामने आप के वर्जिन साबित करने वाले टैस्ट की बात है तो यह टैस्ट होता है लेकिन इस टैस्ट का कोई औचित्य नहीं है. इसे टू फिंगर टैस्ट भी कहा जाता है. इस टैस्ट में जांच की जाती है कि महिला की हाइमन झिल्ली बरकरार है या नहीं. लेकिन वास्तव में यह झिल्ली इतनी लचीली होती है कि मात्र खेलतेकूदते समय ही यह टूट जाती है. इस के अलावा हाइमनोप्लास्टी द्वारा भी आर्टिफिशियल हाइमन की तरह के टिशूज भी बनाए जा सकते हैं. इसलिए इस टैस्ट के कोई माने नहीं हैं.

वैवाहिक रिश्ते विश्वास पर चलते हैं न कि टैस्ट पर. इस बात की क्या गारंटी है कि आप के वर्जिनिटी टैस्ट में पास होने के बाद भी वे आप पर शक नहीं करेंगे और आप के संबंध सुधर जाएंगे और यह भी हो सकता है कि टैस्ट में पता चले कि आप की झिल्ली खेलकूद या किसी शारीरिक गतिविधि के कारण टूट गई हो तो उन का शक और गहरा हो जाएगा. इसलिए कोई टैस्ट वर्जिनिटी को साबित नहीं कर सकता.

अगर आप अपने पति के साथ वैवाहिक रिश्ते को सुधारना चाहती हैं तो उन के मन से शक का बीज हटा कर विश्वास की जड़ें पैदा करें. अपनी सैक्सुअल लाइफ को बेहतर बनाने के लिए नएनए तरीके अपनाएं. उन्हें अपनी ओर आकर्षित करने के लिए खुद को फिट रखें. लेटेस्ट फैशन व ब्यूटी अपडेट्स के लिए पत्रिकाएं पढें.

मैंगो सैंडविच हो या मैंगो रबड़ी, आम से बनाएं ये 6 यम्मी डिश

गर्मी के दिन में आम का कई तरह से इस्तेमाल किया जा सकता है, ऐसे में आप अपने घर पर मैंगो रबड़ी अपने घर पर बना सकते हैं. तो आइए जानते हैं कैसे बनाएं मैंडो रबड़ी.

  1. मैंगो सैंडविच

सामग्री

– 1 आम के टुकड़े – 200 ग्राम दूध – 8 ब्रैडस्लाइस – 1/2 छोटा चम्मच इलायची पाउडर – 1/2 छोटा चम्मच दूध में भीगा केसर – 100 ग्राम घी – शक्कर स्वादानुसार.

विधि

दूध को पका कर रबड़ी बना लें. ब्रैडस्लाइस को कटोरी से गोल काट कर 1 घंटे तक सुखा लें. कड़ाही में घी गरम कर ब्रैडस्लाइस को सुनहरा होने तक तल लें. आम के टुकड़ों को मिक्सी में चला लें. कांच के प्याले में रबड़ी, आम का पल्प, शक्कर, थोड़ा इलाइची पाउडर व थोड़ा केसर डाल कर अच्छी तहर मिला लें, 2 ब्रैडस्लाइस पर तैयार मिश्रण लगा कर दूसरा ब्रैडस्लाइस मिश्रण लगे पहले ब्रैडस्लाइस पर लगाएं. ब्रैड के ऊपर वाले हिस्से पर तैयार मिश्रण और अच्छी तरह लगा लें. मैंगो सैंडविच पर केसर और इलायची पाउडर डाल कर सर्व करें.

2. मैंगो रबड़ी का श्रीखंड

सामग्री

– 1 किलोग्राम दूध – 1/4 छोटा चम्मच हरी इलायची का पाउडर – 1/4 छोटा चम्मच दूध में भीगा केसर – 1 छोटा चम्मच ताजा दही – 2 आम – 1 छोटा चम्मच गुलाब का शरबत – शक्कर स्वादानुसार.

विधि

कड़ाही में दूध को तब तक उबालती रहें जब तक वह 400 ग्राम न रह जाए. ठंडा होने पर उसे कांच के प्याले में निकाल लें. उस का दही जमने रख दें. दही को मलमल के कपड़े में बांध 1 घंटे के लिए लटका दें. आम की कतरन को मिक्सी में चला लें. तैयार दही रबड़ी में शक्कर, इलायची पाउडर, केसर, आम का पल्प एवं गुलाब का शरबत डाल कर चम्मच से अच्छी तरह मिला लें. फ्रिज में ठंडा कर मैंगो रबड़ी के श्रीखंड पर आम के छोटेछोटे टुकड़े, केसर, इलायची पाउडर डाल सर्व करें.

3. मैंगो कोल्ड सूप

सामग्री

– 2 आम – 1/2 छोटा चम्मच जलजीरा – 60 ग्राम दही – 1 बड़ा चम्मच मक्खन

– 1/4 छोटा चम्मच सफेद मिर्च पाउडर – भुजिया इच्छानुसार – 1 बड़ा चम्मच क्रीम – 1/2 छोटा चम्मच गुलाबजल – नमक व शक्कर स्वादानुसार.

विधि

आम का पल्प निकाल लें. मिक्सी में आम का पल्प, दही, शक्कर, नमक, जलजीरा, कालीमिर्च पाउडर, गुलाबजल एवं क्रीम डाल कर पीस लें. कड़ाही में मक्खन गरम कर तैयार मिश्रण डाल पका कर फ्रिज में ठंडा कर मैंगो कोल्ड सूप पर आम के टुकड़े, जलजीरा पाउडर, भुजिया एवं क्रीम डाल कर सर्व करें.

4. मैंगो भल्ले

सामग्री

– 2 आम – 100 ग्राम मूंग की दाल – 1/2 छोटा चम्मच अदरक कद्दूकस किया – 200 ग्राम दही – 1 बड़ा चम्मच इमली की चटनी – 100 ग्राम तेल – 1/2 छोटा चम्मच भूना जीरा पाउडर – 1 बड़ा चम्मच बेसन – 1 बड़ा चम्मच धनियापत्ती की चटनी – शक्कर एवं लालमिर्च पाउडर स्वादानुसार – नमक स्वादानुसार.

विधि

मूंग की दाल को 3 घंटे पानी में भिगो लें. आधी दाल को मिक्सी में मोटी एवं आधी को बारीक पीस लें. एक आम की कतरन कर मिक्सी में चला लें. कांच के प्याले में दाल, 2 बड़े चम्मच आम की कतरन, अदरक, बेसन एवं मसाले डाल कर अच्छी तरह मिला लें. कड़ाही में तेल गरम कर हाथ से दाल के भल्ले बना तेल में सुनहरा होने तक तल लें. गरम पानी में मैंगो भल्ले डाल दें. दही में आम का पल्प एवं मसाले डाल मथ लें. दही में मैंगो भल्ले पानी लगे हाथ से दबा कर निकाल कर, इमली की चटनी, नमक, जीरा, मिर्च पाउडर, आम की कतरन, धनियापत्ती की चटनी डाल लें. फ्रिज में ठंडा कर मैंगो भल्ले पर इमली व धनिया की चटनी, आम की कतरन और जीरा पाउडर डाल कर सर्व करें.

5. मैंगो टिक्का

सामग्री

– 2 आम – थोड़ी सी पिसी शक्कर – 70 ग्राम पनीर – 1/2 छोटा चम्मच काली मिर्च पाउडर – 50 ग्राम हंग कर्ड – 1/4 छोटा चम्मच जलजीरा – 1/4 छोटा चम्मच जीरा भुना व दरदरा किया – नमक स्वादानुसार.

विधि

आम और पनीर के मनचाहे आकार के टुकड़े कर लें. कांच के प्याले में हंग कर्ड, आम व पनीर के टुकड़े, शक्कर, नमक, कालीमिर्च पाउडर एवं थोड़ा जलजीरा डाल कर अच्छी तरह मिला कर फ्रिज में ठंडा कर कालीमिर्च पाउडर व जलजीरा डाल कर मैंगो टिक्का सर्व करें.

6. आम की खट्टीमीठी इडली

सामग्री

– 1/2 छोटा चम्मच जलजीरा – 200 ग्राम इडली का घोल – 2 बड़े चम्मच मक्खन – 1/4 छोटा चम्मच फू्रट साल्ट – शक्कर स्वादानुसार – 2 आम – 1/2 छोटा चम्मच सफेद तिल तवे पर मक्खन में सिंके – 1/2 छोटा चम्मच जीरा – 1 छोटा चम्मच नारियल कद्दूकस किया – नमक स्वादानुसार.

विधि

छिले आम के टुकड़ों को मिक्सी में चला लें. कांच के प्याले में आम का पल्प, इडली का घोल, शक्कर, नमक, सफेद तिल, 2 बड़े चम्मच आम के छोटेछोटे टुकड़े डाल मिला लें. मिश्रण में फू्रट साल्ट मिला कर उसे इडली के सांचे में मक्खन लगा कर डाल इडली बना लें. खट्टीमीठी आम की इडली पर मक्खन लगा गरमगरम मैंगो सौस के साथ सर्व करें.

व्यंजन सहयोग : मंजु जैसलमेरिया

‘गुम है किसी के प्यार में’ सीरियल के दर्शकों ने सई की हरकत से हुए नाराज

स्टार प्लस का सबसे ज्यादा सुर्खियों में रहने वाला सीरियल गुम है किसी के प्यार में आएं दिन कुछ न कुछ नया ड्रामा देखने को मिलते रहता है. इन दिनों सीरियल को देखने के बाद से फैंस ज्यादातर गाली दे रहे हैं.

दर्शकों ने न केवल मेकर्स को खरीखोटी सुनाया है बल्कि सबकी चहेती सई को भी खूब खरी खोटी सुनाया है. जिसके बाद से लगातार नीचे कमेंट आ रहे हैं. इस सीरियल को लेकर दर्शक खूब सोशल मीडिया पर बवाल बना रहे हैं.

सीरियल में दिखाया जाता है कि सत्या के साथ हादसा हो जाता है और वह अस्पताल में रहता है,सई जैसे ही घर पहुंचती है उसे विराट नशे की हालत में मिलता है उसे नशे में देखकर सई कि आंखों में आंसू आ जाते हैं और वह खुद को रोक नहीं पाती है. उसे खूब समझाती है.

तभी वहां अंबा जाती है और वह विराट औऱ सई को ऐसी हालत में देखकर आग बबूला हो जाती है. वह सई के चरित्र पर सवाल खड़े करते हुए उसे बेशर्म भी कहती है. लेकिन सई अपना आंसू पोछकर वहां से चली जाती है. इसके अलावा गुम है किसी के प्यार के दर्शक भी सई को कैरेक्टरलेस कह रहे हैं.

राज्यपालों का दुरुपयोग

केंद्र सरकार या यों कहिए नरेंद्र मोदी के कहने पर भाजपाई राज्यपालों ने देशभर में विपक्षी दलों की सरकारों को तंग करने की मुहिम चला रखी थी. मई में मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ व 4 अन्य जजों की सर्वसहमति से हुए 2 निर्णयों ने राज्यपालों को फटकारा है और उन की खुले शब्दों में भर्त्सना की है.

असल में तो यह लताड़ नरेंद्र मोदी को है क्योंकि उन के द्वारा तैनात किए गए दिल्ली के बैजल से ले कर सक्सेना तक सभी उपराज्यपाल अरविंद केजरीवाल की सरकार को तंग करने में लगे थे. दरअसल, भारतीय जनता पार्टी को 3 बार विधानसभा चुनावों में और अब नगर निगम चुनाव में आम आदमी पार्टी ने बुरी तरह हराया है जबकि हर बार भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नाम पर ही चुनाव लड़ा था. मोदी भाजपा को जिता नहीं सके तो उपराज्यपाल को विघ्न डालने के लिए लगा दिया जैसे विष्णु वामन अवतार बन कर राजा बलि के यहां पहुंचे थे. राज्यपाल वामन अवतार की तरह बेमतलब की मांगें कर रहे थे.

दूसरे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र में सत्ता पलट में तब के राज्यपाल कोशियारी की जम कर खिंचाई की है. आशा तो थी कि सुप्रीम कोर्ट शिंदे सरकार को हटा देगी लेकिन चुनावों से एक साल पहले बेकार में उथलपुथल करने की जगह फैसला ऐसा दिया है कि शिंदे सरकार अब सूली पर अटकी रहेगी. सुप्रीम कोर्ट ने पार्टी की कमान शिंदे से छीन कर उद्धव ठाकरे को पकड़ा दी है जो चुनाव आयोग ने एकनाथ शिंदे को दे दी थी.

राज्यपालों का गलत इस्तेमाल करना संविधान की हत्या करना है पर भारतीय जनता पार्टी तो शायद विश्वास करती है कि जैसे दुवासा ऋषि जब चाहें जो मांग कर सकते थे, वैसे ही भाजपा भी संविधान को तोड़मरोड़ सकती है. इंदिरा गांधी ने भी यह खूब किया था. कांग्रेस आमतौर पर राज्यपालों की अति पर चुप रहती है क्योंकि 40-50 साल जब पूरा राज कांग्रेसी प्रधानमंत्री के हाथों में था, राज्यपालों को विपक्षी सरकारों को हडक़ाने का काम दिया जाता है. अब डिग्री का फर्क है और राज्यपाल गैरभाजपा सरकारों में बंदूकधारी शिकारी की तरह शेर के शिकार में लगे रहते हैं. किसी भी भाजपा राज्य सरकार का राज्यपाल से कोई मतभेद नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों के अधिकारों को दायरे में तो बांधा है पर आने वाली विपक्षी सरकारें हर मामले में सुप्रीम कोर्ट ही जाएं, यह रास्ता खुला रखा है. उस ने दिल्ली और महाराष्ट्र के राज्यपालों पर संविधानविरोधी काम करने पर कोई दंड नहीं दिया है. यह भी हो जाता तो फालतू के राज्य सरकार और राज्यपाल के विवाद कम हो जाते.

धुंधलाने लगी है धर्म की राजनीति

जो लोग कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और पूर्व मुख्यमंत्रियों येदियुरप्पा और बसवराज बोम्मई के नामों का उच्चारण भी सही से नहीं कर पाते, 13 मई को टीवी पर आंखें और कान लगाए बैठे थे. उस दिन कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे घोषित हो रहे थे. हिंदीभाषी राज्यों के लोग भी बड़ी उत्सुकता से जानना चाह रहे थे कि कर्नाटक में भाजपा का धर्म और हिंदुत्व का कार्ड चला या नहीं.

शाम तक पूरे नतीजे आ गए कि पिछले चुनाव में 104 सीटें जीतने वाली भाजपा महज 66 पर सिमट कर रह गई है और कर्नाटक के लोगों ने उत्साहपूर्वक 224 में से 135 सीटें कांग्रेस को दे दी हैं. 2018 के मुकाबले कांग्रेस को जबरदस्त फायदा हुआ.

नतीजों के विश्लेष्ण से साफ हुआ कि किसी भी जाति या धर्म के लोगों ने भाजपा पर भरोसा नहीं किया, उलट इस के, कांग्रेस पर लिंगायतों, वोक्कालिंगाओ और कुरुबा सहित दलित आदिवासियों ने भी बराबर से भरोसा जताया.

जिन लिंगायतों के दम पर भाजपा परचम लहराने का ख्वाब देख रही थी उसी समुदाय के दबदबे वाले मुंबई कर्नाटक इलाके की 50 में से 33 सीटें कांग्रेस ने जीतीं. 2018 के चुनाव में भाजपा को लिंगायत बेल्ट से 31 सीटें मिलीथीं.सालों बाद कांग्रेस अपने उस सुनहरे दौर में पहुंच रही है जब सभी तबकों के वोट उसे मिलते थे.

भाजपा का आईटी सैल सोशल मीडिया पर इस आशय की पोस्टें वायरल करने लगा कि उन लोगों यानी मुसलमानों ने तो एकजुट हो कर मतदान कांग्रेस के पक्ष में किया लेकिन हिंदू चूक गए जिन्हें खमियाजा भुगतने को तैयार रहना चाहिए. तरहतरह से मुसलमानों का डर दिखाया गया था.

ऐसे उतरा रंग

भाजपा को चिंता अब 6 महीने बाद होने जा रहे मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों की सताने लगी है. इन तीनों ही राज्यों में 2018 में कांग्रेस ने उसे अप्रत्याशित पटखनी दे कर सत्ता छीनी थी.

कर्नाटक को हिंदुत्व की प्रयोगशाला भी कहा जाता है और इस चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राम, शिव और कृष्ण की अपेक्षा एक छोटे से भगवान बजरंगबली के भरोसे दिखे. लेकिन जितने बड़े पैमाने पर उन्हें खारिज किया गया,वह जरूर चौंका देने वाली बात रही. मई के पहले हफ्ते में ही भगवा खेमे के हाथपांव माहौल देख फूलने लगे थे और चुनाव नीरस व एकतरफा होता जा रहा था.

5 से 8 मई तक नरेंद्र मोदी ने ताबड़तोड़ रैलियां और रोड शो कर्नाटक में किए. मोदी को एक मुद्दा बजरंगदल पर प्रतिबंध लगाए जाने का मिल गया था. असल में कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में कट्टर इसलामिक संगठन पीएफआई और कट्टर हिंदूवादी संगठन बजरंगदल को बैन करने की बात कही थी. इस के बाद तो जोश से लबरेज नरेंद्र मोदी ने जय बजरंगबली का नारा लगवाना और लगाना शुरू कर दिया.

यह कहने की मुकम्मल वजह है कि कर्नाटक के शैव मत को मानने वाले लोगों के दिलोदिमाग में वैष्णवों का डर बैठ गया था जिस के फूलपत्ते अब भले ही न दिखते हों पर जड़ें बहुत गहरी हैं. लिंगायतों ने तो भाजपा से किनारा किया ही,वहीं वोक्कालिंगा समुदाय के रुख ने यह बिलकुल साफ कर दिया कि जो भी हो सत्ता भाजपा के हाथ नहीं जानी चाहिए.

जब नरेंद्र मोदी को यह इल्म हो आया कि यहां राम, कृष्ण और काशी व केदारनाथ वाले शिव भी नहीं चलेंगे तो उन्होंने बजरंग बली को थाम लिया, लेकिन वजह बहुत गलत बजरंगदल पर प्रतिबंध की चुनी. इस का न तो मौका था न मौसम और न ही दस्तूर. यह, बस, एक आखिरी प्रयोग था.

अपने भाषणों में नरेंद्र मोदी ने हनुमान का नाम ले कर लोगों की धार्मिक भावनाओं को भड़काने में कोई कोरकसर न छोड़ी. 3 मई को मूडबिद्री में उन्होंने एकदो नहीं, बल्कि 6 बार जय बजरंगबली का नारा लगाया और भीड़ को यह कहते उकसाने की भी कोशिश की कि, ‘जब पोलिंग बूथ में बटन दबाओ तो जय बजरंगबली बोल कर इन्हें यानी कांग्रेसियों को सजा देना. जब रावण ने हनुमानजी को बंदी बनाना चाहा, लंका स्वाहा हो गई. समझिए, ताले में बंद करने वालों का क्या हाल होगा.’

इस के पहले विजयनगर की रैली में नरेंद्र मोदी ने दहाड़ते हुए कहा था कि कांग्रेस ने पहले श्रीराम को ताले में बंद किया और अब बजरंगबली बोलने वालों को ताले में बंद करने की बात कह रही है. पहले ही दिन बजरंगबली का नाम लेने से मीडिया रिस्पौंस अच्छा मिला तो मोदी ने बारबार बजरंग का नाम लिया.

दरअसल, ऐसा कर वे खुद का भी मनोबल बढ़ा रहे थे जो भाजपा की हालत देख गिरता जा रहा था. एक और भाषण में उन्होंने जोर दे कर कहा कि,‘मैं हनुमान की भूमि पर आया हूं, मैं सौभाग्यशाली हूं कि मुझे हनुमान की भूमि पर मत्था टेकने का अवसर मिला. लेकिन दुर्भाग्य देखिए कि जब मैं यहां अपनी श्रद्धा प्रकट कर रहा हूं तभी कांग्रेस ने अपने घोषणापत्र में भगवान हनुमान को बंद करने का फैसला लिया है.’

मीडिया ने भी बजरंगबली को हाथोंहाथ लपका. कोई बजरंग की जन्मभूमि कर्नाटक में कहां है, यह दिखाने लगा तो किसी ने हनुमान के दर्जनों नाम गिना डाले.

धर्म की राजनीति कैसे हिट और कैसे फ्लौप हुई, इसे आंकड़ों के जरिए भी सहज समझा जा सकता है. इस के लिए पहले चुनावी आंकड़े देखें- कांग्रेस को 136 सीटें 43 फीसदी वोटों के साथ मिलीं जबकि भाजपा को 65 सीटें 36फीसदी वोटों के साथ मिलीं. साफ दिख रहा है कि भाजपा को सीटों का ज्यादा नुकसान हुआ, वोट और सीटें दोनों गंवांने भी पड़े.

भगवा गैंग के लिए चिंता की एक बड़ी बात नरेंद्र मोदी की घटती और राहुल गांधी की बढ़ती स्वीकार्यता व लोकप्रियता है जिसे आंकड़ों के आईने में देखें तो पता चलता है कि राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ कर्नाटक के7जिलों की 51 विधानसभाई सीटों के इलाकों से हो कर गुजरी उन में से कांग्रेस को 37 सीटें मिलीं, यानी, स्ट्राइक रेट 72फीसदी रहा. उलट इस के,नरेंद्र मोदी का स्ट्राइक रेट महज 33 फीसदी रहा. उन्होंने 20 जिलों की164 सीटों पर प्रचार किया था जिन में से भाजपा केवल 55 ही जीत पाई.

हिंदी बेल्ट के लिए अलार्म

यह दूसरे राज्यों के क्षेत्रीय दलों के लिए एक खतरे की घंटी है कि न केवल मुसलमान बल्कि दलित, आदिवासी व पिछड़ा वोट भी कांग्रेस के पाले में जा सकता है क्योंकि इन तबकों को भाजपा की धर्मकर्म की देवीदेवताओं की राजनीति में अपना नुकसान फिर से नजर आने लगा है. उत्तर प्रदेश में सपा प्रमुख अखिलेश यादव और बसपा सुप्रीमो मायावती को तो खासतौर से चिंता होनी चाहिए कि जो वोटबैंक उन्होंने कांग्रेस से छीना था उस की घरवापसी हो सकती है.

बिहार में जेडीयू प्रमुख मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और राजद के तेजस्वी यादव भी अब बेफिक्र नहीं रह सकते हालांकि उन्हें पहले से यह ज्ञान प्राप्त हो रहा है कि अगर जनता दल (एस) की सी हालत से बचना है तो कांग्रेस का दामन थाम लो नहीं तो लोकसभा और एक साल बाद होने वाले विधानसभा चुनावों में कांग्रेस आगे भी निकल सकती है.

भाजपा की असल चिंता मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ हैं जहां धर्म का कार्ड अब पहले जैसा असरदार नहीं रहा.ऐसे में जितना मुमकिन हो धर्म की राजनीति से वह बचने की कोशिश तो करेगी लेकिन इस में कामयाब नहीं हो पा रही है. इस की वजह साफ है कि इस के अलावा उसे कुछ और आता ही नहीं.

हिंदू वोटों का ध्रुवीकरण इन राज्यों में आसानी से हो जाता है लेकिन छत्तीसगढ़ में ऐसा होता नहीं दिख रहा क्योंकि वहां 35 फीसदी आदिवासी हैं जो हिंदुत्व और देवीदेवताओं की राजनीति से बिदकते हैं. कर्नाटक में आदिवासियों के लिए 15 सीटें रिजर्व हैं जिन में से 14 पर कांग्रेस और एक पर जनता दल (एस) जीती.

यही हाल दलित बाहुल्य सीटों का रहा. कांग्रेस ने आरक्षित 36 में से 21 सीटें जीतीं जबकि भाजपा को 13 से तसल्ली करनी पड़ी. दलित समुदाय के मल्लिकार्जुन खड्गे को अध्यक्ष बनाने का कांग्रेस का दांव कामयाब रहा.

मध्य प्रदेश और राजस्थान में भी भाजपा की चिंता आदिवासियों के साथसाथ पिछड़े, मुसलमान और दलित हैं. कर्नाटक की तरह इन राज्यों में भी मुसलिम समुदाय बेहद असुरक्षा में जी रहा है, लिहाजा, उस ने सिर्फ कांग्रेस को ही वोट देने का मन अभी से बना लिया है. मध्य प्रदेश में तो अब सवर्ण भी भाजपा से नाराज हो चले हैं जिन्हें18 साल के भाजपा और शिवराज सिंह चौहान के राज में कुछ नहीं मिला. उन के बच्चे बेरोजगार घूम रहे हैं और महंगाई की मार के अलावा बढ़ते भ्रष्टाचार ने भी उन का जीना मुहाल कर दिया है.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह अभी से मीडिया पर झल्लाने लगे हैं कि यह क्या कर्नाटकफर्नाटक लगा रखा है. यह मध्य प्रदेश है और मेरे तरकश में अभी बहुत तीर बाकी हैं. दरअसल, इन तीनों राज्यों में कर्नाटक का असर दिखने लगा है क्योंकि लोगों को यह भी समझ आ रहा है कि भाजपा कोई अजेय पार्टी नहीं है. अब यह कांग्रेस पर निर्भर है कि वह कैसे इस मानसिकता को भुना पाती है.

नेहरू से मोदी तक का धर्म

धर्म की राजनीति कोई नई या अजूबी बात नहीं है जिस का इस्तेमाल नेता अपनी इमेज चमकाने और नाकामियां ढकने को करते रहे हैं. नरेंद्र मोदी न केवल इस के विशेषज्ञ हो गए हैं बल्कि आदी भी हो गए हैं. अपने पहले कार्यकाल में वे ऐसा कम करते थे लेकिन बाद में धर्म का मतलब उन के लिए सिर्फ हिंदुत्व रह गया और वे हर कभी सार्वजनिक रूप से पूजापाठ, आरती, यज्ञ, हवन वगैरह करते धार्मिक किस्सेकहानियां भी सुनाने लगे. इस दौरान उन की बौडी लैंग्वेज और ड्रैस भी धार्मिक हुआ करती है. वे पौराणिक काल के ऋषिमुनियों जैसी वेशभूषा धारण करते हैं.

सब से पहले बड़े स्तर पर 31 अक्तूबर, 2017 को केदारनाथ मंदिर से उन्होंने यह सिलसिला शुरू किया था. इस दिन वे माथे पर त्रिपुंड लगाए हुए थे. अपने भाषण में ‘जयजय केदार जयजय भोले’ का नारा बुलंद करने के बाद उन्होंने कहा था कि वे बाबा भोले नाथ के बेटे हैं. बाबा ने ही उन्हें बुलाया है. कहने की जरूरत नहीं कि कभी बनारस में गंगा मां ने भी उन्हें इसी तरह बुलाया था. इस बार कर्नाटक में बजरंगबली नेबुला लिया तो यह कोई हैरत की बात नहीं थी.

धार्मिक टोटकों से इंदिरा गांधी भी परहेज नहीं करती थीं. उन्होंने भी 70 के दशक में खासतौर से धर्म का सहारा लिया था. हिंदू दिखने के लिए इंदिरा गांधी भी गले में रुद्राक्ष की बड़ी माला लटकाए रखती थीं, योग और ध्यान भी वे करने लगीं थीं और हर कभी मंदिरों में जा कर मूर्तियों के सामने माथा टेकती नजर आती थीं.

ओडिशा के प्रसिद्ध जगन्नाथ पुरी के मंदिर में 1984 में प्रधानमंत्री रहते पंडों ने उन्हें पारसी महिला कहते प्रवेश देने से मना कर दिया था तो वे तिलमिला उठी थीं. लेकिन बजाय धर्म की राजनीति से सबक सीखने या किनारा करने के वे उस में और डूबती गईं. ऐसे में उन का साथ एक शंकराचार्य स्वरूपानंद सरस्वती ने दिया था जो अपनी जिंदगी के आखिरी दिन तक नेहरूगांधी परिवार के फैमिली पंडित रहे. सोनिया और राहुल गांधी दोनों उन के आगे नतमस्तक रहते थे. धर्म के मामले में तब के कई सवर्ण सनातनी कांग्रेसियों ने इंदिरा गांधी की हिम्मत ही बढ़ाई थी जो मन से सनातनी थे लेकिन मारे मैडम के डर के, अपने जनेऊ टाई के नीचे छिपा कर रखते थे.

असल में यह वह दौर था जब कांग्रेस में टूटफूट शुरू हो गई थी और जनसंघ व हिंदू महासभा आरएसएस के सहारे एक नया खेल हिंदू राष्ट्र का खुल कर खेलने लगे थे. इंदिरा गांधी हिंदू दिखना तो चाहती थीं लेकिन हिंदू राष्ट्र नहीं चाहती थीं. जब वे हिंदूवादी दलों और संगठनों के दबाब में आ गईं तो ब्रैंडेड संत-शंकराचार्यों के चरण छूने लगीं और जम कर धरमकरम करने लगीं.

पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू बेहद सधे नेता था. उन्हें समझ आ गया था कि अगर देश को जातपांत,शोषण, आडंबर और जकड़न से आजाद कराना है तो विकास और आधुनिकता पर ही फोकस करना पड़ेगा. लिहाजा, उन्होंने बिजली, रेललाइनों, कारखानों, बांधों और सड़कों सहित शिक्षा पर जोर दिया जो उस दौर की बड़ी चुनौतियांथीं.

नेहरू ने कभी किसी मंदिर में शायद ही माथा टेका हो या किसी संतमहंत के पैरों में लोट लगाई हो. वे अगर ऐसा करते और आधुनिक भारत की नींव न रख पाते तो जाहिर है हम आज भी सांपसपेरों वाले ही कहला रहे होते. शायद इसीलिए नेहरू को सख्तमिजाज वाला नेता कह कुछ लोग प्रचारित करने लगे थे.

इंदिरा गांधी भले ही ऊपर से सख्त दिखती और लगती थीं पर वे धर्म के चलते अंदर से काफी भयभीत रहने लगी थीं जो यह तो समझती थीं कि अगर कट्टर हिंदुत्व की गिरफ्त में देश आ गया तो मुसलमानों, दलितों,आदिवासियों और पिछड़ों सहित सवर्ण औरतों का जीना मुहाल हो जाएगा लेकिन धर्म की इतनी शोबाजी वे कर चुकी थीं कि पीछे हटना भी उन के लिए मुमकिन न था. मुमकिन है वे खुद पर झल्लाने लगी हों और इसी झल्लाहट में उन्होंने आपातकाल लगाने जैसा अप्रिय फैसला ले लिया था.

इन पैमानों पर नरेंद्र मोदी और इंदिरा गांधी में कोई खास फर्क नहीं है सिवा हिंदू राष्ट्र के विचार के. लेकिन इस से देश पिछड़ रहा है, चारों तरफ बेचैनी और अफरातफरी मची है जिसे बहुसंख्यवादी जानबूझ कर अनदेखा कर रहे हैं और यही उम्मीद हर किसी, खासतौर से मीडिया, से करते हैं.

कर्नाटक के फैसले को सिर्फ राजनीतक नजरिए से देखना एक किस्म की चालाकी ही कही जाएगी. वहां के वोटर ने किसी जनून या झांसे में आ कर कांग्रेस को नहीं चुना है. इस फैसले का एक सामाजिक और सांस्कृतिक पहलू भी है जिसे राहुल गांधी अकसर बेहद आसान शब्दों ‘नफरत’ और ‘मोहब्बत’ में लपेट कर बयां करते रहे हैं. कांग्रेस की जीत के बाद पहली प्रैस कौन्फ्रैंस में भी उन्होंने यही कहा था.

लोकतंत्र में रातोंरात बदलाव नहीं आते और न ही घंटों में लोगों की मानसिकता बदलती है. इस में सदियों नहीं तो कुछ दशक तो लग ही जाते हैं. यह कहना कतई जल्दबाजी नहीं होगी कि कर्नाटक से भाजपा के बुरे दिन शुरू हो चुके हैं. अगर वह अपने अच्छे दिन चाहती है तो उसे अपना रूट तो बदलना पड़ेगा जो उत्तर भारत में उस के लिए संभव नहीं. तो क्या भाजपा अब शेर की सवारी कर रही है, यह समझने को राजस्थान, मध्य प्रदेश सहित आदिवासी बाहुल्य राज्यों छत्तीसगढ़ और झारखंड के आगामी चुनावों के परिणामों को बहुत बारीकी से देखना व समझना होगा.

TMKOC: तारक मेहता के प्रौड्यूसर असित मोदी पर लगा सेक्शुल हैरेसमेंट का आरोप, जेनिफर ने किया शिकायत

टीवी शो तारक मेहता का उल्टा चश्मा सीरियल के प्रॉड्यूसर पर हाल ही में गंभीर आरोप लगे हैं, जेनिफर मिस्त्री ने शो के प्रॉड्यूसर असित मोदी पर सेक्शुअल हैरेशमेंट का आरोप लगाया है. इसके आलावा उन्होंने और दो लोगों पर आरोप लगाएं हैं.

बता दें कि जेनिफर ने असित मोदी के प्रॉडक्ट हेड सोहेल रमानी और जतीन बजाज के खिलाफ भी आरोप लगाए हैं. जिसका बयान पवई पुलिस में दर्ज कराया गया है. उन्होंने एक रिपोर्ट में खुलासा किया है. जेनिफर ने बताया है कि मैं रिपोर्ट दर्ज कराके वहां से निकल चुकी हूं. अब पुलिस ने अपना काम करना शुरू कर दिया है.

बता दें कि आरोप लगाने के बाद से जेनिफर के बतमीज और गंवार महिला बोला गया,बता दें कि सीरियल में काम करने वाली प्रिया अहूजा और बाकी सदस्य ने असित मोदी को सपोर्ट किया है, हालांकि जेनिफर ने सेट पर चिल्ला-चिल्ला कर कहा है कि मैं पैसों के लिए काम नहीं कर रही हूं.

जेनिफर ने एक रिपोर्ट में बात करते हुए कहा है कि मैंने सुना है कि कुछ लोग कह रहे हैं कि असित ने मेरे साथ फिजिकल रिलेशन बनाया है तो ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, मैं बता दूं कि असित मोदी ने मेरा इस्तेमाल किया है जिस वजह से मैं मैंटली डिस्टर्ब भी हुईं हूं.

 

मुझे मेरे बौयफ्रैंड से परेशानी है,वह बहुत शक्की है और व्यवहार भी ठीक नहीं, कृपया बताएं क्या करूं?

सवाल

मैं 20 वर्षीय कालेज की स्टूडैंट हूं. मुझे मेरे बौयफ्रैंड से परेशानी है. वह बहुत शक्की है और व्यवहार भी ठीक नहीं. मैं कालेज में किसी भी लड़के से बात करूं तो उसे जलन होती है. मैं कहां जाती हूं किस के साथ जाती हूं वह सब जानना चाहता है समझता है मैं उसी की बात मानूं जिस से कहे बात करूं. कृपया बताएं मैं क्या करूं?

जवाब

आप का बौयफ्रैंड शक्की है तो शक का कोई इलाज नहीं लेकिन आप समाधान बन सकती हैं उस पर इतना प्यार उढ़ेलिए कि किसी अन्य के पास जाने पर भी उसे न लगे कि उस का प्यार बंट रहा है. साथ ही अपनी सोच को पौजिटिव बनाइए उस के व्यवहार को ऐसे समझिए कि वह कितना केयरिंग है. आप की कितनी परवा है उसे. किसी भी गलत व्यक्ति से बातचीत पसंद नहीं वह आप का बुरा नहीं चाहता.

इस तरह की सोच से आप उस के प्रति समर्पित होंगी फिर जिस से उसे शक लगे उस से मिलवाइए व खुद से ज्यादा उस की तारीफ के पुल बांधिए जब सब से घुलमिल जाएगा तो आप को गलत नहीं समझेगा. हां, गलती से भी इन बातों के कारण उसे डांटिएगा नहीं क्योंकि इस से उसे लगेगा कि आप दूसरे की वजह से उसे डांट रही हैं. इस से दूरी बढ़ेगी और अगर आप उसे प्यार से कहेंगी कि कितने केयरिंग हो तुम. कितना ध्यान रखते हो मेरा. तो उसे लगेगा कि वह भी कुछ है उस की हीनभावना भी समाप्त होगी और शक वाली बातें भी.

स्किन के लिए लाभदायक ह्यालुरोनिक एसिड

गरमी में हमारी स्किन काफी मुरझाई हुई सी रहती है, इसलिए इस मौसम में स्किन की देखभाल करना काफी जरूरी हो जाता है, जैसे बाहर निकलते समय आपको पूरे कपड़े पहनने चाहिए और स्किन को बारबार साफ करते रहना चाहिए और सबसे जरूरी सनस्क्रीन का प्रयोग करना चाहिए. लेकिन इसके बाद भी स्किन में डलनैस दिखने ही लगती है.

अपने चेहरे को गरमी के दौरान ग्लो अप देने के लिए आप ह्यालुरोनिक एसिड का प्रयोग करना शुरू कर सकती हैं. यह स्किन केयर इंग्रीडिएंट इन दिनों काफी चर्चा में है और इसके प्रसिद्ध होने की वजहें भी सटीक हैं क्योंकि यह सही में आपकी स्किन के लिए काफी लाभदायक होता है. आइए जानते हैं इसे प्रयोग करने के लाभ.

सन डैमेज से आपको बचाता है : गरमी में ज्यादा समय तक सूर्य के संपर्क में रहने से आपकी स्किन को सनबर्न और हाइपर पिग्मेंटेशन हो सकता है. इससे बचने के लिए ह्यालुरोनिक एसिड का प्रयोग करें. यह आपकी स्किन के मौइश्चर लैवल को बनाए रखता है और सेल रिजनरेशन में मदद करता है. यह आपकी स्किन से सन सपौट और हाइपर पिग्मेंटेशन को कम करने में मदद करता है. इससे स्किन पहले से काफी ब्राइट हो सकती है.

सभी स्किन टाइप के लिए है सूटेबल : अधिकतर प्रोडक्ट्स को प्रयोग करने से पहले हम यह देखते हैं कि यह हमारी स्किन के टाइप का है या नहीं. लेकिन ह्यालुरोनिक एसिड सभी स्किन टाइप के लिए सूटेबल होता है, इसलिए इसका प्रयोग हर कोई कर सकता है जो काफी अच्छी बात है. यह एक्ने प्रोन स्किन के लिए भी सहायक है. यह स्किन में औयल कंट्रोल करने में भी मदद करता है.

एंटी औक्सीडैंट्स से भरपूर : ह्यालुरोनिक एसिड में एंटी औक्सीडैंट काफी ज्यादा होते हैं. इसलिए यह आपकी स्किन को वातावरण में मौजूद पौल्यूटैंट्स, जैसे प्रदूषण, धूलमिट्टी और फ्री रैडिकल्स आदि से बचा सकता है. फ्री रैडिकल्स आपकी स्किन को डैमेज कर सकते हैं और आपको एजिंग के लक्षण कम उम्र में ही देखने को मिल सकते हैं.

ह्यालुरोनिक एसिड को अपने स्किन केयर रूटीन में शामिल करके आप इन सभी चीजों से स्किन को बचा सकते हैं. इसके अलावा आप इसका प्रयोग करके सूर्य की यूवी किरणों का प्रभाव भी कम कर सकते हैं.

एजिंग के लक्षणों से बचाता है : जैसेजैसे आपकी उम्र बढ़ती जाती है वैसेवैसे आपकी स्किन ड्राई होती जाती है और झुर्रियों जैसे एजिंग के लक्षण आपको देखने को मिलते हैं. ह्यालुरोनिक एसिड का प्रयोग करने से आप इन लक्षणों से बच सकते हैं. समय से पहले होने वाली एजिंग से आप स्किन को बचा सकती हैं और स्किन को मौइश्चराइज भी रख सकती हैं.

डार्क सर्कल कम करने में सहायक : ह्यालुरोनिक एसिड का प्रयोग अगर आप आंखों के नीचे करती हैं तो इससे आपको डार्क सर्कल्स कम होने में भी मदद मिल सकती है. यह आपकी स्किन में कोलेजन के उत्पादन में मदद करता है जिस कारण आपकी स्किन से इस तरह की डार्कनैस कम हो सकती है. इसका प्रयोग आपको आंखों के नीचे थोड़ीथोड़ी मात्रा में ही करना चाहिए. अगर आपकी स्किन काफी पतली है तो उससे डील करने में भी यह लाभदायक रहने वाला है.

ये सारे लाभ आपको इस एक इंग्रीडिएंट का प्रयोग करके मिल सकते हैं, इसलिए आपको अपने स्किन केयर प्रोडक्ट्स में इस इंग्रीडिएंट से बनने वाले प्रोडक्ट्स का प्रयोग जरूर करना चाहिए ताकि गरमी में भी आपके चेहरे का निखार कहीं जाए न.

क्या है डबल बर्डन सिंड्रोम

प्रसव के डेढ़ महीने ही बीते थे कि मोनिका ने औफिस जाना शुरू कर दिया. अगले 6 महीनों तक घर पर बच्चे की देखभाल मोनिका की गैरमौजूदगी में कभी उस की सास तो कभी उस की मां करती रहीं. मगर बच्चे के साल भर के होते ही दोनों ने ही अपनीअपनी मजबूरी के चलते बच्चे को संभालने में आनाकानी शुरू कर दी.

अब बच्चे को क्रेच में डालने के अलावा मोनिका के पास और कोई रास्ता नहीं बचा था. वह जौब नहीं छोड़ना चाहती थी. मगर बच्चे को भी क्रेच में डाल कर खुश नहीं थी. औफिस में काम के दौरान कई बार उस का मन बच्चे की ओर चला जाता तो वहीं घर में बच्चे के साथ रहने पर उसे औफिस में अपनी खराब होती परफौर्मैंस का एहसास होता.

दोनों जिम्मेदारियों के बीच मोनिका पिसती जा रही थी. चिड़चिड़ाहट और घबराहट के कारण काम करने में उस से गलतियां होने लगी थीं. घर वालों के ताने और बौस की डांट धीरेधीरे मोनिका को डबल बर्डन सिंड्रोम जैसी मानसिक बीमारी का शिकार बना रही थी. एक समय ऐसा भी आया जब मोनिका खुद को बच्चे और अपने बौस का अपराधी समझने लगी. आखिरकार उस ने जौब छोड़ दी और गृहिणी बन कर बच्चे की परवरिश में जुट गई.

क्या कहता है सर्वे

मोनिका जैसी हजारों महिलाएं हैं, जो अच्छे पद, अच्छी आमदनी होने के बावजूद प्रसव के बाद या तो बच्चे और औफिस की दोहरी जिम्मेदारी निभाते हुए डबल बर्डन सिंड्रोम की शिकार हो जाती हैं या फिर अपने कैरियर से समझौता कर के घर और बच्चे तक खुद को सीमित कर लेती हैं.

केली ग्लोबल वर्कफोर्स इनसाइट सर्वे के अनुसार, शादी के बाद लगभग 40% भारतीय महिलाएं नौकरी छोड़ देती हैं वहीं 60% महिलाएं मां बनने के बाद बच्चे की परवरिश को अधिक महत्त्व देती हैं और नौकरी छोड़ देती हैं. इस के अतिरिक्त 20% महिलाएं जो घर और नौकरी दोनों जिम्मेदारियां निभा रही होती हैं, वे कभी न कभी जिम्मेदारियों के बोझ तले दब कर डबल बर्डन सिंड्रोम की शिकार हो जाती हैं.

इस बाबत एशियन इंस्टिट्यूट औफ मैडिकल साइंस की मनोचिकित्सक डाक्टर मीनाक्षी मनचंदा का कहना है, ‘‘भारतीय समाज है ही ऐसा. यहां महिला सशक्तीकरण की बड़ीबड़ी बातें की जाती हैं, मगर महिलाएं जब सशक्त  होने का प्रयास करती हैं, तो यही समाज उन्हें परिवार की जिम्मेदारी की बेडि़यों में जकड़ देता है.’’

पुष्पावती सिंघानियां रिसर्च इंस्टिट्यूट की मनोचिकित्सक डाक्टर कौस्तुबि शुक्ल का मानना है, ‘‘यह सिंड्रोम महिला और पुरुष दोनों को होता है. मगर भारत में इस सिंड्रोम की शिकार अधिकतर महिलाएं ही होती हैं. इस की बड़ी वजह यहां की संस्कृति है, जो कहती है कि महिलाएं अपने पेशेवर जीवन में कितनी भी उन्नति कर लें, मगर घर के प्रमुख कार्यों की जिम्मेदारी उन्हें ही संभालनी होगी. हालांकि नौकरों और आधुनिक तकनीकों की मदद से जिम्मेदारियों का बोझ कुछ हद तक हलका हो जाता है, मगर बच्चा होने के बाद इन जिम्मेदारियों का स्वरूप बदल जाता है. आधुनिक तकनीक और नौकरों के साथ मातापिता को खुद भी बच्चे की देखभाल में समय देना पड़ता है. इस स्थिति में भी बच्चे की जिम्मेदारी मां पर डाल दी जाती है और पिता खुद को आर्थिक मददगार बनने की बात कह कर बचा लेता है.’’

मगर सवाल यह उठता है कि इस से फायदा क्या है? देखा जाए तो घर के किसी सदस्य के नौकरी छोड़ने पर परिवार की आर्थिक स्थिति मजबूत होने के स्थान पर कमजोर ही होती है. वहीं जिम्मेदारियों का सही बंटवारा परिवार की आर्थिक जरूरतों में रुकावट भी पैदा नहीं होने देता और महिलाओं को इस सिंड्रोम का शिकार होने से भी बचा लेता है. मगर अब दूसरा सवाल यह उठता है कि जिम्मेदारियों का बंटवारा हो कैसे?

सास के साथ सही साझेदारी

मनोचिकित्सक मीनाक्षी कहती हैं, ‘‘आर्थिक मददगार तो महिलाएं भी बन सकती हैं. वर्तमान समय में ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है, जहां महिलाओं ने पुरुषों के वर्चस्व को न तोड़ा हो.  मगर घरेलू काम में पतियों से सहायता लेना आज भी महिलाओं के लिए एक चुनौती बना हुआ है.  खासतौर पर उन घरों में जहां रिश्तेदारों का दखल ज्यादा होता है.’’

रिश्तेदारों की इस सूची में सब से पहले लड़के की मां का नाम आता है. घर के कामकाज में बेटे और बहू की हिस्सेदारी का वर्गीकरण भी यही मुहतरमा करती हैं, जिस में बच्चे के कामकाज से बेटे का कोई लेनादेना नहीं होता. बहू नौकरीपेशा है तब भी बच्चे की देखभाल की जिम्मेदारी उसी की है. भले ही बहू की घर पर गैरमौजूदगी में सास बच्चे की देखरेख कर भी लें, मगर इस बात को सुनहरे शब्दों में बहू पर जताने से भी वे पीछे नहीं हटतीं.

मीनाक्षी का मानना है कि इन स्थितियों में महिलाओं को थोड़ी सूझबूझ दिखानी चाहिए. सब का अपनाअपना स्वभाव होता है, मगर सास के साथ बहू की सही साझेदारी ऐसे मौकों पर बहुत काम आ सकती है. यह बात तो पक्की है कि रूढिवादी सोच वाली सास बेटे को भले ही घर के काम न करने दें, मगर बहू से सही तालमेल बैठा कर घर की कुछ जिम्मेदारियां वे खुद संभाल लेती हैं. यहां जरूरत है कि महिलाएं सास पर थोड़ा विश्वास करें. उन की दिल को चुभने वाली बातों को अनसुना कर दें. रिश्तों में थोड़ा तालमेल बैठा कर चलें ताकि घर और कार्यस्थल दोनों ही स्थानों पर अच्छी परफौर्मैंस दे सकें.

पार्टनर से बात करें

सास के साथ ही अपने पति को भी अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के बारे में बताएं. दरअसल, भारतीय समाज की इस रूढिवादी मानसिकता के चलते ही कई औरतें स्वीकार कर लेती हैं कि सहूलत से यदि बच्चे की देखभाल और नौकरी के बीच संतुलन बैठाया जा सकता है, तो ठीक है नहीं तो मानसिक तौर पर वे खुद को नौकरी छोड़ने और बच्चे को अच्छी परवरिश देने के लिए तैयार कर लेती हैं.

इस बाबत डाक्टर कौस्तुबि कहती हैं,  ‘‘आजकल महिलाएं शादी से पूर्व अपने कैरियर को अधिक महत्त्व देती हैं. फिर अब शादी भी देर से ही होती है. ऐसे में महिलाओं की रीप्रोडक्टिव लाइफ छोटी हो जाती है. उन्हें यह फैसला जल्दी लेना पड़ता है कि वे मां कब बनना चाहती हैं.  अब यदि यह कहा जाए कि कैरियर के लिए मां बनने की ख्वाहिश ही छोड़ दें, तो शायद यह सही नहीं होगा. लेकिन मां बनने के लिए नौकरी छोड़ दें, यह भी कोई हल नहीं है. इसलिए महिलाओं को अपने पार्टनर से पहले ही अपनी महत्त्वाकांक्षाओं का जिक्र कर लेना चाहिए और उस के हिसाब से भविष्य की प्लानिंग करनी चाहिए.’’

आज का दौर पढ़ेलिखों का है. पतिपत्नी इस बात को बखूबी समझते हैं कि महंगाई के इस जमाने में दोनों की कमाई से ही परिवार रूपी गाड़ी खींची जा सकती है. इसलिए आपस में समझौता कर लेना ही सही निर्णय है. इस समझौते में बहुत सारी बातों का जिक्र किया जा सकता है, जो महिलाओं को दोहरी जिम्मेदारी के बोझ और बेरोजगारी दोनों से बचा सकता है.

मनोचिकित्सक कौस्तुबि ऐसे ही कुछ समझौतों के बारे में बताती हैं:

– आज के वर्क कल्चर में शिफ्ट में काम करना चलन में है और यह गलत भी नहीं है.  नौकरीपेशा दंपती अपनी सहूलत के हिसाब से शिफ्ट का चुनाव कर सकते हैं और बारीबारी से अपनी जिम्मेदारियों को निभा सकते हैं.

– यदि कंपनी में वर्क फ्रौम होम की सुविधा है, तो कभीकभी पतिपत्नी इस सुविधा का फायदा भी उठा सकते हैं. इस से घर और कार्यालय दोनों का ही काम बाधित नहीं होता.

– कुछ कार्यक्षेत्रों में फ्रीलांसिंग काम भी किया जा सकता है और इस में भी अच्छी आमदनी की गुंजाइश होती है. पति या पत्नी में से कोई एक अपनी फुलटाइम नौकरी छोड़ कर फ्रीलांसिंग में भी हाथ आजमा सकता है.

दांपत्य जीवन में थोड़ी सूझबूझ से फैसले लिए जाएं, तो आपसी मनमुटाव डबल बर्डन सिंड्रोम से बचा जा सकता है.

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