जो लोग कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया और पूर्व मुख्यमंत्रियों येदियुरप्पा और बसवराज बोम्मई के नामों का उच्चारण भी सही से नहीं कर पाते, 13 मई को टीवी पर आंखें और कान लगाए बैठे थे. उस दिन कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे घोषित हो रहे थे. हिंदीभाषी राज्यों के लोग भी बड़ी उत्सुकता से जानना चाह रहे थे कि कर्नाटक में भाजपा का धर्म और हिंदुत्व का कार्ड चला या नहीं.

शाम तक पूरे नतीजे आ गए कि पिछले चुनाव में 104 सीटें जीतने वाली भाजपा महज 66 पर सिमट कर रह गई है और कर्नाटक के लोगों ने उत्साहपूर्वक 224 में से 135 सीटें कांग्रेस को दे दी हैं. 2018 के मुकाबले कांग्रेस को जबरदस्त फायदा हुआ.

नतीजों के विश्लेष्ण से साफ हुआ कि किसी भी जाति या धर्म के लोगों ने भाजपा पर भरोसा नहीं किया, उलट इस के, कांग्रेस पर लिंगायतों, वोक्कालिंगाओ और कुरुबा सहित दलित आदिवासियों ने भी बराबर से भरोसा जताया.

जिन लिंगायतों के दम पर भाजपा परचम लहराने का ख्वाब देख रही थी उसी समुदाय के दबदबे वाले मुंबई कर्नाटक इलाके की 50 में से 33 सीटें कांग्रेस ने जीतीं. 2018 के चुनाव में भाजपा को लिंगायत बेल्ट से 31 सीटें मिलीथीं.सालों बाद कांग्रेस अपने उस सुनहरे दौर में पहुंच रही है जब सभी तबकों के वोट उसे मिलते थे.

भाजपा का आईटी सैल सोशल मीडिया पर इस आशय की पोस्टें वायरल करने लगा कि उन लोगों यानी मुसलमानों ने तो एकजुट हो कर मतदान कांग्रेस के पक्ष में किया लेकिन हिंदू चूक गए जिन्हें खमियाजा भुगतने को तैयार रहना चाहिए. तरहतरह से मुसलमानों का डर दिखाया गया था.

ऐसे उतरा रंग

भाजपा को चिंता अब 6 महीने बाद होने जा रहे मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों की सताने लगी है. इन तीनों ही राज्यों में 2018 में कांग्रेस ने उसे अप्रत्याशित पटखनी दे कर सत्ता छीनी थी.

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