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परेशान पति : पति पत्नी का रिश्ता कैसे सही हो?

दहेज की कोई भी खबर पढ़ कर लोगों, खासतौर से औरतों, को तमाम मर्द मारपीट करने वाले नजर आने लगते हैं. आम राय यह बनती है कि मर्द समुदाय पैसों के लिए पत्नियों को परेशान करता है. दहेज कानून की बनावट चाहे ऐसी हो कि अगर एक बार कोई पत्नी पति की क्रूरता की शिकायत कर दे तो पति वाकई कुसूरवार है या नहीं, यह देखनेसमझने के पहले ही उसे गिरफ्तार कर लिया जाता है पर इस से औरतों को कुछ नहीं मिलता क्योंकि वे न ससुराल की रहती हैं, न मायके की, न कुंआरों, न शादीशुदा मर्द के साथ रहने वाली.

भोपाल के नजदीक सीहोर जिले के परिवार परामर्श केंद्र के अफसर और सदस्य इस बात को ले कर हैरानपरेशान हैं कि पिछले 5 सालों से औरतों के मुकाबले मर्द ज्यादा तादाद में अपना रोना रोते आ रहे हैं. औरतों की लड़ाई के खिलाफ इतनी सख्ती बरतने के लिए कोई कानून ऐसा नहीं है जो उन्हें सबक सिखा सके.

परिवार परामर्श केंद्रों का अहम मकसद घरेलू झगड़ों को निबटाना है. पति दोषी होता है या उस के खिलाफ शिकायत आती है तो तुरंत उसे दहेज और प्रताड़ना कानूनों का हौवा दिखा कर समझाइश दी जाती है कि समझौता कर लो, वरना पहले हवालात, फिर जेल जाना तय है.

आरोप कितना सच्चा है कितना झूठा, इस की जांच की जहमत आमतौर पर नहीं उठाई जाती. आम मर्द अपने को जेल से बचाने के लिए राजीनामा कर लेता है पर घोड़े को पानी तक ले जाया जा सकता है, उसे पानी पिलाया नहीं जा सकता. घर में रह कर वह बीवी की धौंस सहता है, पर प्यार नहीं करता.

आज हालात पत्नियों की क्रूरता की दास्तां बयान करते नजर आते हैं. साल की शुरुआत में उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ के आशियाना थाना क्षेत्र में एक शख्स अपनी पत्नी की शिकायत ले कर पहुंचा. पति का आरोप है कि उस की पत्नी महंगेमहंगे गिफ्ट की मांग करती है. डिमांड पूरी न होने पर उसे मानसिक टौर्चर करती है.

पीड़ित व्यक्ति का नाम जितेंद्र है. उस ने बताया कि पीड़ित ने बताया कि उस की और सोनम की मुलाकात फेसबुक पर हुई थी. उस के बाद वर्ष 2021 में दोनों ने शादी कर ली. फिर आशियाना स्थित रजनीखंड इलाके में दोनों जितेंद्र के घर में रहने लगे. लेकिन कुछ ही समय में सोनम ने उस से कहा कि वह ससुराल वालों के साथ नहीं रह सकती. पत्नी की जिद को देखते हुए उस ने दूसरी जगह ले ली. फिर दोनों वहीं रहने लगे.

जितेंद्र ने बताया, ”मेरी पत्नी सोनम कभी लग्जरी कार खरीदने को कहती है तो कभी पैसे मांगती रहती है. हद तो तब हो गई जब उस ने मेरी मां का घर अपने नाम करने को कह दिया. जब मैं ने उस की यह डिमांड पूरी नहीं की तो वह मुझे मानसिक रूप से टौर्चर करने लगी. उस ने मुझे तलाक देने की धमकी दी है. इस से मुझे डिप्रैशन हो गया है.””

पिछले साल सितंबर महीने में गाजियाबाद में सुसाइड का एक परेशान कर देने वाला मामला सामने आया. वहां पर एक व्‍यक्ति ने अपनी पत्नी की हरकतों से परेशान हो फांसी लगा कर जान दे दी. घटना की जानकारी मिलने के बाद पहुंची पुलिस को जांच के दौरान मृतक के पास से सुसाइड नोट मिला जिस में उस ने पत्नी पर कई गंभीर आरोप लगाते हुए सुसाइड का कारण बताया.

पुलिस ने मृतक के पास से जो सुसाइड नोट बरामद किया, उस में लिखा था, ‘तुम मुझे बगैर बताए अकेले छोड़ कर चली गईं और अब बारबार बुलाने के बाद भी वापस नहीं आ रही हो. तुम न तो मेरी बात मानती हो और न ही मेरा साथ दे रही हो, इसलिए मैं अपनी जिंदगी खत्म कर रहा हूं और इस की जिम्मेदार सिर्फ तुम हो.’ इस सुसाइड नोट में मृतक ने अपनी पत्‍नी के साथ उस की बहनों पर भी कई गंभीर आरोप लगाए हैं. जाहिर है, बहुत बार मायके वालों के बहकावे या उकसावे में पत्नियां पति को मानसिक रूप से प्रताड़ित करती हैं.

अकसर ज्यादातर मामलों में मर्दों की शिकायत यही रहती है कि उन की बीवियां उन्हें परेशान करती हैं, मातापिता से अलग रहने को कहती हैं, डांटतीडपटती हैं और उन की मांग पूरी न करने पर मायके चली जाती हैं. गौरतलब है कि परिवार परामर्श केंद्र पुलिस महकमे द्वारा चलाए जाते हैं.

जाहिर है, परेशान पति जागरूक हो रहे हैं और पत्नियों की बेजा हरकतें बरदाश्त नहीं कर पा रहे हैं, इसलिए इज्जत, खयाल और मर्दानगी का रुतबा छोड़ पत्नियों की शिकायत कर रहे हैं.

पतिपत्नी में विवाद आम बात है मगर पत्नी जब शिकायत करती है तो उसे जरूरत से ज्यादा हमदर्दी औरत होने की वजह से मिलती है. पति ज्यादा शिकायत दर्ज करा रहे हैं, तो इस पर एक वकील का कहना है, ‘‘मुमकिन है पत्नियों पर अत्याचार करने के लिए वे पहले से ही बचाव का रास्ता इख्तियार कर रहे हों. मगर इतने मामले देख ऐसा लगता नहीं कि सभी ऐसा करते होंगे.’’

इन परेशान शौहरों की खास मदद परिवार परामर्श केंद्र नहीं कर पा रहा. वजह, पत्नियों को बुलाने के लिए सख्त कानून नहीं है. वे आ भी जाएं तो बजाय अपनी गलती मानने के, पति की ही शिकायत करने लगती हैं. इस से मामला बजाय सुलझने के, और उलझता है.

लेकिन अच्छी बात यह है कि पति अपनी बात कहने में हिचक नहीं रहे. एक समाजसेविका मानती हैं कि पत्नियां भी पति को परेशान करती हैं. मगर इज्जत बचाने के लिए पति खामोश रह जाते हैं.

एक पीड़ित पति दयाराम (बदला नाम) का कहना है पत्नी जबतब बेवजह कलह करने लगती है. उसे समझाता हूं तो मायके चली जाती है. रोजरोज की हायतौबा से जिंदगी नर्क बनती जा रही है. दयाराम तलाक नहीं चाहता बल्कि घर की सुखशांति बनाए रखने में पत्नी का सहयोग चाहता है. उस के पास इतने पैसे भी नहीं कि वह कोई नौकरानी रख सके या बाहर का खाना खा सके.

इस हालत के लिए उन टीवी समाचारों को दोष दिया जाता है जिन में थप्पड़ मारते दिखाया जाता है. जिन्हें आप पसंद नहीं करते. आजकल समाज में धर्म और जाति के नाम हर कोई लट्ठ ले कर खड़ा होने लगा है.

सच कुछ भी हो मगर इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि पति का सुखचैन बीवी जरा सी कलह से छीन सकती है. कलह और तानों से परेशान पति या तो शराब पीने लगता है या दूसरी औरतों के चक्कर में फंस जाता है. असल में अब बुलडोजर संस्कृति चलने लगी है कि जरा सी बात पर पूरा घर ढहा दो. जो सरकार कर रही है, वही बीवियां अपने मर्दों के साथ कर रही हैं.

बुलडोजरवाद: लोकतंत्र को रौंदती विचारधारा

आप ने कई बार खबरों में एक तथाकथित नई न्यायिक परिभाषा, जिस को ‘बुलडोजर न्याय’ के रूप में परिभाषित करने का भरसक प्रयास किया जा रहा है, के बारे में सुना होगा. ‘राष्ट्रवाद’, ‘साम्यवाद’ और ‘समाजवाद’ पढ़ और सुन लेने के बाद राजनीतिक और न्यायिक परिक्षेत्र में लगातार खलबली मचाए रखने वाला एक नया ‘वाद’ सामने आया है- ‘बुलडोजरवाद’.

‘न्यूजलांड्री’ के अनुसार मध्य प्रदेश में पिछले डेढ़ साल के दौरान इस बुलडोजर अभियान के तहत अब तक ध्वस्त की गईं 331 संपत्तियों में से अधिकांश ‘संगठित अपराधियों’ की नहीं, बल्कि सामान्य लोगों की हैं जिन में से अधिकांश गरीब और मुसलिम हैं.

एक परिवार, एक इंसान के लिए घर एक आशियाने से ज्यादा होता है जो कि भारतीय सामाजिक परिवेश में एक महत्त्वपूर्ण वस्तु माना जाता है. भारतीय संविधान में मौजूद अनुच्छेद 300 (अ), जोकि संपत्ति का अधिकार प्रदान करता है, सीधेतौर पर इस प्रशासनिक कुव्यवस्था द्वारा धूमिल किया जा रहा है.

हाल ही में कानपुर देहात के मैथा तहसील क्षेत्र के मड़ौली पंचायत के चालहा गांव में ग्राम समाज की जमीन से कब्जा हटाने के लिए एक सरकारी टीम पुलिस एवं राजस्व कमचारियों के साथ पहुंची. आरोप है कि टीम ने जेसीबी से घर और मंदिर तोड़ने के साथ ही छप्पर गिरा दिया. इस से छप्पर में आग लग गई और वहां मौजूद प्रमिला (44) व उन की बेटी नेहा (21) की आग की चपेट में आने से जल कर मौके पर ही मौत हो गई. जबकि कृष्ण गोपाल गंभीर रूप से झुलस गए. प्रशासन का कहना है कि यह आत्महत्या है पर ग्रामीणों के अनुसार यह प्रशासन की गलती है.

मध्य प्रदेश के पंचायत मंत्री महेंद्र सिंह सिसोदिया ने हाल ही में संपन्न हुए पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के निजी क्षेत्र राघोगढ़ के नगर पालिका चुनाव के प्रचार के दौरान इस ‘बुलडोजरवाद’ की सोच को जाहिर किया. चुनावी सभा में उन्होंने कुछ कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को धमकाते हुए कहा कि, “चुपचाप खिसक जाओ कांग्रेसियो, मामा का बुलडोजर तैयार खड़ा है.”

इस बयान से साफ पता चलता है कि बुलडोजर का उपयोग न केवल दोषियों के खिलाफ बिना ‘उचित न्याय प्रक्रिया’ के न्याय देने में किया जा रहा है बल्कि राजनीतिक द्वेष एवं निजी मंसूबों को अंजाम देने के लिए भी इसे उपयोग में लाया जा रहा है. इस से न केवल अनुच्छेद 19 (1) अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरनाक प्रभाव पड़ेगा बल्कि लोकतांत्रिक मूल्यों व अधिकारों को भी नुक्सान पहुंचगा.

बुलडोजर अन्याय प्राकृतिक न्याय (नैचुरल जस्टिस) के सिद्धांत के खिलाफ है. इस सिद्धांत को विस्तृत कर मोहिंदर सिंह गिल बनाम मुख्य चुनाव आयुक्त के मामले में अदालत ने कहा कि निष्पक्षता की अवधारणा हर कार्रवाई में होनी चाहिए चाहे वह न्यायिक, अर्धन्यायिक, प्रशासनिक और अर्धप्रशासनिक कार्य हो. सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उचित और न्यायसंगत निर्णय पर पहुंचना न्यायिक और प्रशासनिक निकायों का उद्देश्य है. प्राकृतिक न्याय का मुख्य उद्देश्य न्याय के गर्भपात को रोकना है. लेकिन न तो कोई सुनवाई है न कोई शिकायत निवारणतंत्र. हजारों सालों से अनुसरण में रहे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत को पूर्णरूप से निरंकुश बुलडोजर न्याय की कुव्यवस्था तारतार करती नजर आ रही है.

एक ऐतिहासिक केस बचन सिंह बनाम पंजाब राज्य  में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुच्छेद 14 को ध्यान में रखते हुए कहा गया कि ‘कानून का शासन’ और ‘कानून के समक्ष समानता’ लोकतांत्रिक देशों के सब से महत्त्वपूर्ण प्रावधानों में से एक है. राज्य में प्रत्येक कार्यवाही मनमानी से मुक्त होनी चाहिए वरना अदालत उस अधिनियम को असंवैधानिक करार दे कर रद्द कर देगी.

ठीक कुछ ऐसा ही वर्ष 1978 में मेनका गांधी बनाम भारत संघ के अब तक के सुप्रसिद्ध मामले में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद 21 के  दायरे की व्याख्या करते हुए कहा था. बुलडोजर अन्याय संविधान के अनुच्छेद 14, 15, 19, 21 और 300 (अ) को रौंदता हुआ वह वाहन है जो सरकार को ‘सत्तावादी’ और जनतंत्र को ‘अन्याय तंत्र’ में तबदील करते जा रहा है.

दूसरा घटनाक्रम भी मध्य  प्रदेश के ही उज्जैन शहर का है जहां जिला प्रशासन ने चायना डोर (जिस का उत्पादक भारत है) के बेचने और उपयोग करने को ले कर धारा 144 के तहत रोक लगा दी थी. रोक के बावजूद 2 आरोपी कारोबारी- हितेश भोजवानी (40) एवं मुहम्मद इक़बाल (35) चायना डोर का व्यापार कर रहे थे. दोनों आरोपियों के घर पर एक दिन पहले नोटिस आता है और दूसरे दिन बुलडोजर चला दिया गया और उन के अवैध हिस्से को गिरा दिया गया.

यहां सवाल खड़े होते हैं कि क्या हर छोटीबड़ी आपराधिक घटना पर बुलडोजर का इस्तेमाल करना सही है? क्या आरोप सिद्ध होने से पहले इस प्रकार का न्याय चाहे किसी भी संस्था के द्वारा किया गया हो या करवाया गया हो, वैध है? क्या आरोपी का घर तोड़ कर उस के परिवार या उस पर आश्रित परिवार के अन्य सदस्यों के साथ यह न्यायिक ज्यादती नहीं है? बिना कानूनी प्रक्रिया का उचित पालन किए बिना उचित एवं वैध अनुमति के घर गिराना न्यायसंगत है?

 

न्यायपालिका और बुलडोजरवाद में फर्क     

  • न्यायपालिका का कार्य आरोपी का अपराध सिद्ध होने पर दंड देना है जबकि बुलडोजरवाद आरोपी को प्रत्यक्ष रूप से अपराधी मान कर दंडित करता है.
  • न्यायपालिका के न्यायसंगत प्रक्रिया एवं न्यायिक सिद्धांतों का अनुसरण कर कई मापदंडों पर नापतौल कर न्याय करता है जबकि बुलडोजर न्याय आमतौर पर लोकप्रिय जनमत पर आधारित रहता है.
  • न्यायपालिका पुनर्स्थापनात्मक / सुधारात्मक न्याय व्यवस्था के मूल्यों के अनुसार न्याय करने की कोशिश करती है जबकि बुलडोजरवाद प्रतिशोधात्मक न्याय करता है जोकि एक ऐसी न्याय व्यवस्था है जिस का आधार ‘आंख के बदले आंख’ और ‘हाथ के बदले हाथ’ है, अर्थात, जो प्रतिशोध के सिद्धांत पर आधारित है.

 

न्याय संहिता में कहीं भी कानून तोड़ने पर किसी अपराधी के घर या निर्माण को तोड़ने का प्रावधान नहीं है. बुलडोजरवाद में अपराधी की निजी या वह संपत्ति तोड़ी जाती है जिस से वह जुड़ा हुआ हो. उत्तर प्रदेश के दंगे के आरोपी जावेद मोहम्मद की बीवी के नाम घर होने के बावजूद उसे धराशायी कर दिया गया. न्यायालय मात्र मूकदर्शक रह गए. एक आरोपी जिस के आरोप सिद्ध भी नहीं हुए उस के परिवार से उस का आशियाना छीन लिया गया. उस महिला के परिप्रेक्ष्य से देखें तो शायद संविधान महज एक धूल खाती किताब और न्यायपालिका महज एक खोखला ढांचा नजर आए.

न्यायपालिका ने भी इस संदर्भ में कई कोशिशें कीं. 20 नवंबर, 2022 को गोहाटी उच्च न्यायालय ने खुद संज्ञान लेते हुए असम राज्य एवं अन्य याचिका  पर सुनवाई करते हुए पुलिस अधीक्षक को आगजनी के 5 आरोपियों के घरों पर बुलडोजर चलवाने के कारण फटकार लगाई. कोर्ट की शिनाख्त से पता चला कि तलाश के आदेश पर घर पर बुलडोजर चला दिया गया जो की पूर्णतया गैरन्यायिक है.

दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी इसी संदर्भ में कहा है कि किसी व्यक्ति को बिना नोटिस के सुबह या देर शाम उन के दरवाजे पर बुलडोजर से बेदखल नहीं किया जा सकता. वे पूरी तरह से आश्रयहीन हैं, उन्हें वैकल्पिक स्थान प्रदान किया जाना चाहिए.

बौम्बे उच्च न्यायालय ने हाल ही में पश्चिम रेलवे को आदेशित करते हुए कहा है कि ‘अतिक्रमण एक गंभीर मुद्दा है, बुलडोजर इस का समाधान नहीं.’

बुलडोजरवाद का उदगम तथाकथित ‘शीघ्र न्याय’ से होते हुए महज कुछ वर्षों में राजनीतिक हथकंडे और न्यायिक प्रक्रिया को लांघ कर त्वरित न्याय करने के रूप में बदल गया है. बुलडोजर न्याय धीरेधीरे एक विचारधारा का रूप लेता जा रहा है जो ठोस न्यायिक उपायों के भाव में एक ऐसा विकल्प बन गया है जो प्राकृतिक न्याय के मूल्यों के विपरीत है.

इस नए न्यायिक अभियान ने ‘अतिक्रमण रोधी अभियान और सामूहिक न्याय’ का चोला ओढ़ कर ‘सामूहिक अन्याय’ का रूप ले लिया है. वर्तमान परिप्रेक्ष्य में बिना पूर्ण जांचपड़ताल, बिना आरोपसिद्ध हुए, न्यायपालिका और लोकतांत्रिक मूल्यों को रौंदते हुए ‘बुलडोजरवाद’ ने अपना स्थान मूल राजनीति में बना लिया है.

न्याय व्यवस्था में त्रुटि एवं दोष सिद्ध होने में लंबा विलंब होने के कारण त्वरित न्याय के लिए उत्सुक देश की जनता ने इस बुलडोजरवाद को सहीगलत के परे कुछ हद तक एक न्यायिक स्वीकृति दे दी है. ऐसा न होता तो उत्तर प्रदेश से ‘बुलडोजर न्याय’ की हवा गुजरात, दिल्ली, मध्य प्रदेश तक न आती और न ही मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री इस ‘अनुचित न्यायिक विकल्प’ को अपने उपनाम ‘मामा’ के साथ जोड़ते और ‘बुलडोजर मामा’ कहने/कहलवाने में गर्व महसूस करते.

लेखकनंदेश यादव

निष्पक्ष निर्वाचन देश मौन क्यों

देश में आवश्यकता है चुनाव आयोग को निष्पक्ष बनाए रखने की. आज देश में लोकतंत्र के, मानो, उलटी गंगा बहा रही है. चाहे न्यायापालिका हो या सूचना आयोग अथवा निर्वाचन आयोग, हरेक संवैधानिक संस्था को कमजोर करने का सत्ताधारियों का प्रयास स्पष्ट दिखाई दे रहा है जिस का सीधा मतलब है लोकतंत्र को कमजोर करना.

चुनाव आयोग द्वारा देश की अवाम और राजनीतिक दलों के भरोसे को जिस तरह सेंध लगाई जाती दिखाई दे रही है वह रेखांकित करनी जरूरी है. यह इसलिए जरूरी है क्योंकि सवाल लोकतंत्र का है. आज देश में भीतर ही भीतर यह सवाल उठ रहा है कि भारत का निर्वाचन आयोग अपनेआप में कितना निष्पक्ष है.

क्योंकि सवाल है- साख का. जब किसी संस्था पर सवाल खड़े होने लगते हैं तो आने वाले समय में स्थितियां कुछ इस तरह बिगड़ जाती हैं कि फिर संभाले नहीं संभलतीं. जैसा कि, हम ने बीते समय में श्रीलंका में देखा और आज पाकिस्तान में देख रहे हैं. ये विस्फोटक स्थितियां एक दिन में प्रकट नहीं होतीं बल्कि भीतर ही भीतर आग के सुलगने लगने का परिणाम होती हैं. ‌‌

सबकुछ इस परिप्रेक्ष्य में हमें और ज्यादा समझना चाहिए कि राजनीतिक दल और उन्हें संचालित करने वाले लोग हमारे बीच के हैं, उन की मंशा यह रहती है कि सत्ता के लिए रास्ता निकालने वाले इस संवैधानिक तंत्र पर हमारा वर्चस्व बना रहे. इस नाते इस संस्था को कई दफा कमजोर कर दिया गया. अब एक बार फिर देश में एक निष्पक्ष चुनाव आयोग के अवतरित होने की संभावना उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद बन गई है जिस का स्वागत किया जाना चाहिए. मगर आश्चर्यजनक तरीके से दिखाया जा रहा है कि देश के अनेक राजनीतिक दल देश के सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले के बाद मौन हो गए हैं.

आयोग की ‘अग्नि परीक्षा’
मुख्य निर्वाचन आयुक्त राजीव कुमार ने कहा है, ‘हमेशा निर्वाचन आयोग चुनाव अग्नि परीक्षा देता है.’ एक सवाल के जवाब में मुख्य निर्वाचन आयुक्त राजीव कुमार ने अत्यंत महत्त्वपूर्ण बात कही है, उन्होंने कहा, ‘“3 राज्यों के चुनावों के बाद निर्वाचन आयोग ने 400 चुनाव कराने का कीर्तिमान बनाया है. निर्वाचन आयोग ने 2023 में त्रिपुरा, मेघालय और नागालैंड में चुनाव कराए हैं.”

इसी संदर्भ में राजीव कुमार ने अपनी बात को विस्तार से और महत्त्वपूर्ण शब्दों में कहा. दरअसल, निर्वाचन आयोग अब तलक देश में 17 बार संसद का चुनाव और 16 बार राष्ट्रपति व उपराष्ट्रपति का चुनाव करा चुका है. राजीव कुमार ने कहा कि चुनावदरचुनाव परिणाम स्वीकार किए जाते हैं और सत्ता का परिवर्तन हर बार मतपत्र द्वारा सुचारु रूप से किया जाता रहा है.

दूसरी तरफ राजीव कुमार के मुताबिक हाल ही में कई विकसित देशों में जो कुछ हो रहा है, यह उस की तुलना में काफी अधिक है. पिछले 70 वर्षों में भारत ने अपने सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, भौगोलिक, आर्थिक, भाषाई मुद्दों को शांतिपूर्वक और संवाद के माध्यम से मुख्य रूप से स्थापित लोकतंत्र के कारण स्थिर किया है. जो केवल इसलिए संभव है क्योंकि लोग चुनाव परिणामों पर भरोसा करते हैं. फिर भी चुनाव आयोग प्रत्येक चुनाव के बाद हर बार ‘अग्नि परीक्षा’ देता है.

देश के आज के चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली को देखते हुए मुख्य चुनाव आयुक्त राजीव कुमार का यह सब कहना बहुत महत्त्वपूर्ण है और इस की विवेचना की जानी चाहिए. उन्होंने एक बड़े परिप्रेक्ष्य में कहा, ‘“मतदान चाहे बैलेट से हुए हों या ईवीएम से, जनता और राजनीतिक दलों ने निर्णय स्वीकार किए हैं और शांतिपूर्वक सत्ता हस्तांतरण हुए हैं. आयोग के लिए जनता की ओर से मिला इतना बड़ा प्रमाणपत्र बहुत है जो दिखाता है कि हरेक नागरिक आयोग और उस की कार्यप्रणाली पर कितना अटूट भरोसा रखता है.”’

उन्होंने अंतिम में कहा, ‘दुनिया में ऐसी मिसाल कम ही मिलती है. यह सब इसलिए संभव हुआ क्योंकि यहां लोकतंत्र की जड़ें काफी गहरी और विस्तृत हैं.’

कुल मिला कर उन्होंने जो कहा है वह देश की आजादी से ले कर अभी तक के निर्वाचन पर अपनी बात को रखा है. सवाल सिर्फ यह है कि आप अपने कार्यकाल के साथ बीते 6 दशकों के निर्वाचन की कार्यप्रणाली पर टिप्पणी कर रहे हैं और एक तरह से सभी चुनाव को आप ने एक समानांतर रेखा में प्रस्तुत कर दिया.

देश यह भी जानना व समझना चाहता है कि आप आखिर ऐसा क्यों कह रहे हैं. निर्वाचन आयुक्त राजीव कुमार उच्चतम न्यायालय की नई व्यवस्था के बाद और पहले की परिस्थितियों पर खामोश क्यों हैं? उन्हें इन बातों पर भी टिप्पणी करनी चाहिए की हाल ही में उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद क्या परिस्थितियां बनेंगी और उस से पहले देश में क्या हुआ था.

भिंडी की खेती लाभकारी बनाएं

सब्जियों का हमारे जीवन में खास स्थान है. भिंडी भारत में उगाई जाने वाली खास
फसल है. इस में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, खनिज लवण जैसे कैल्शियम, फास्फोरस के अलावा विटामिन ए, बी, सी, थाईमीन एवं रिबोप्लेविन भी पाया जाता है.

इस में विटाविन ए व सी काफी मात्रा में पाया जाता है.
भिंडी की फसल में आयोडीन की मात्रा अधिक होती है. इस का फल कब्ज रोगी के लिए खास फायदेमंद होता है. इसे खासतौर से सब्जी के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. यह कई रोगों में बहुत ही गुणकारी है. इस के अन्य भागों जैसे तना इत्यादि को भी इस्तेमाल किया जाता है.

सब्जियों में भिंडी का खास स्थान है, जिसे लोग लेडी फिंगर या ओकरा के नाम से भी जानते हैं. भारत का भिंडी उत्पादन में चीन के बाद दूसरा नंबर है. भारत में लगभग 3.25 लाख हेक्टेयर रकबे पर भिंडी की खेती की जाती है और 33.80 लाख टन प्रति हेक्टेयर उपज मिलती है.

भिंडी की उत्पादकता 100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर है. अन्य फसलों की तरह भिंडी में भी अनेक कीटों और बीमारियों का प्रकोप होता है, जो इस के उत्पादन और गुणवत्ता पर खराब असर डालते हैं. भिंडी की फसल को कीटों और रोगों से लगभग 40-50 फीसदी नुकसान उठाना पड़ता है. इस तरह यदि किसान नवीनतम विधि से भिंडी की खेती करेंगे, तो लाभ जरूर मिलेगा.

मिट्टी व खेत की तैयारी
भिंडी को पानी न जमा होने वाली हर तरह की भूमियों में उगाया जा सकता है. आमतौर से भूमि की पीएच मान 7.0 से 7.8 होना मुनासिब रहता है. खेत तैयार करने के लिए 2-3 बार जुताई मिट्टी पलटने वाले हल से करें. इस के बाद पाटा लगा कर खेत को एकसार कर लेना चाहिए. भिंडी की जड़ गहरी होने के कारण भूमि की 25-30 सैंटीमीटर गहरी जुताई करना फायदेमंद होता है.

आबोहवा : भिंडी के बेहतरीन उत्पादन के लिए लंबे, गरम एवं नमी की जरूरत होती है. इसे गरम नमी वाले रकबों में अच्छी तरह से उगाया जा सकता है. आमतौर से अच्छी बढ़वार के लिए 24-28 डिगरी सैल्सियस के बीच तापमान उत्तम होता है.भिंडी के लिए लंबे समय का गरम व नम वातावरण बढि़या माना जाता है. आमतौर से बीज जमने के लिए 27-30 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान मुनासिब होता है और 17 डिगरी सैंटीग्रेड तापमान से कम पर बीज नहीं जमते हैं. यह रबी व खरीफ दोनों मौसमों में उगाई जाती है.
हाईब्रिड उन्नत किस्में : वर्षा विजय, उपहार एवं तुलसी, भिंडी नं.-10, डीवीआर-1, डीवीआर-2, डीवीआर-3 अथवा संकर
नं.-152. बीज की मात्रा व बोआई का तरीका
भ्ंिडी की सिंचित दशा में 12 से 15 किलोग्राम और बिना सिंचाई की दशा में 8-10 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर बीज की जरूरत होती है. संकर किस्मों के लिए 5 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से बीज काफी होता है. भिंडी के बीज सीधे खेत में ही बोए जाते हैं.

बारिश के मौसम में भिंडी के लिए कतार से कतार की दूरी 40-45 सैंटीमीटर एवं पौधे से पौधे की दूरी 25-30 सैंटीमीटर का फासला रखना बेहतर होता है. गरमी के मौसम में भिंडी की बोआई कतारों में करनी चाहिए. कतार से कतार की दूरी 25-30 सैंटीमीटर एवं कतारों में पौधे की दूरी 15-20 सैंटीमीटर का फासला रखना चाहिए. बीज की 2-3 सैंटीमीटर गहरी बोआई करनी चाहिए.

बोआई के पहले भिंडी के बीजों को
3 ग्राम थीरम, मेंकोजेब या कार्बंडाजिम प्रति किलोग्राम बीज की दर से उपचारित करें.
बोआई का समय
गरमी के मौसम में भिंडी की बोआई फरवरीमार्च महीने में और बारिश के मौसम में भिंडी की बोआई जूनजुलाई महीने में की जाती है. यदि भिंडी की फसल लगातार लेनी है, तो
3 सप्ताह के फासले पर फरवरी से जुलाई के बीच अलगअलग खेतों में भिंडी की बोआई की जा सकती है. इस से बढि़या उत्पादन मिलेगा.

खाद एवं उर्वरक
खेत की तैयारी के समय 200-250 क्विंटल अच्छी सड़ी हुई गोबर की खाद या कंपोस्ट खेत में मिला देनी चाहिए. नाइट्रोजन 50 किलोग्राम (108 किलोग्राम यूरिया), फास्फोरस 50 किलोग्राम (312 किलोग्राम सिंगल सुपर फास्फेट) एवं 50 किलोग्राम पोटाश (83 किलोग्राम म्यूरेट औफ पोटाश) आखिरी जुताई के समय खेत में मिला देनी चाहिए. 50 किलोग्राम नाइट्रोजन (108 किलोग्राम यूरिया) बोआई के चार हफ्ते बाद खड़ी फसल में डालें. यदि फसल की बढ़वार ठीक न हो, तो 1 फीसदी यूरिया (10 ग्राम/
1 लिटर पानी में) के 2-3 छिड़काव पैदावार बढ़ाने में मददगार साबित होते हैं.

फूल आने की दशा में नाइट्रोजन की
50 किलोग्राम (108 किलोग्राम यूरिया) मात्रा कतारों में देनी चाहिए. पोषक तत्त्वों की मुनासिब मात्रा मिट्टी के नमूने की जांच रिपोर्ट पर निर्भर करती है.

निराई व गुड़ाई
भिंडी की समयसमय पर निराईगुड़ाई कर के खेत को खरपतवार से रहित रखना चाहिए. बोने के 15-20 दिन बाद पहली निराईगुड़ाई करना बहुत फायदेमंद होता है. खरपतवार नियंत्रण के लिए रासायनिक खरपतवारनाशकों का भी इस्तेमाल किया जा सकता है.

खरपतवारनाशी फ्लूक्लोरोलिन की
1 किलोग्राम या बेसालिन 1 किलोग्राम सक्रिय तत्त्व मात्रा को प्रति हेक्टेयर की दर से मुनासिब नमी वाले खेत में बीज बोने के पहले मिलाने से प्रभावी खरपतवार नियंत्रण किया जा सकता है. बोआई के 2 दिन बाद तक खेत में एलाक्लोर की 2.5 किलोग्राम या पेंडीमेथलीन 1.5 किलोग्राम अवयव की सक्रिय मात्रा प्रति हेक्टेयर इस्तेमाल करनी चाहिए.

सिंचाई
पहली सिंचाई जमने के बाद व पहली पत्ती निकलने के समय करनी
चाहिए, वरना बीज के सड़ने का खतरा बना रहता है. भिंडी में डोलों के बीच डोल के आधे भाग से ज्यादा ऊंचाई पर पानी नहीं देना चाहिए. फल बनने के समय की दशा में नमी बने रहना जरूरी है, अन्यथा फलों में पकने से पहले ही रेशा बन जाता है, जिस से गुणवत्ता गिरती है.
बारिश के मौसम में ज्यादा पानी भरने पर पानी निकालने का इंतजाम करना चाहिए. गरमी के दिनों में 4-5 दिन के फासले पर हलकी सिंचाई करनी चाहिए.

कटाई व उपज
भिंडी की फली तुड़ाई के लिए सीआईएई, भोपाल द्वारा विकसित ओकरा पोड पिकर यंत्र का इस्तेमाल करें. किस्म की गुणवत्ता के अनुसार 45-60 दिनों में फलों की तुड़ाई शुरू की जाती है एवं 4-5 दिनों के फासले पर रोज तुड़ाई की जानी चाहिए.

गरमी की भिंडी फसल में उत्पादन 60-70 क्विंटल व बारिश की फसल में 80-100 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक होता है. भिंडी की तुड़ाई हर तीसरे या चौथे दिन जरूर करनी चाहिए. तोड़ने में थोड़ा भी अधिक समय हो जाने पर फल कड़ा हो जाता है्र

लेखक- डा. ऋषिपाल, अजय यादव,
डा. जयप्रकाश कन्नोजिया
मेरठ इंस्टीट्यूट औफ प्रौद्योगिक, मेरठ

YRKKH: अभिमन्यु से शादी के लिए इंकार करेगी आरोही तो अभिनव होगा अक्षरा से नाराज

सीरियल ये रिश्ता क्या कहलाता है में आए दिन नए-नए ट्विस्ट देखने को मिल रहे हैं, इस सीरियल में अब अभिमन्यु अक्षरा को पाना चाहता है लेकिन अक्षरा आगे का जीवन अभिनव के साथ बीताना चाहती है.

सीरियल में दिखाया जा रहा है कि अक्षरा अभिमन्यु के साथ कसौली लौट जाती है लेकिन अब ट्विस्ट ये आ रहा है कि आरोही अभिमन्यु से शादी के लिए इंकार कर देती है जिस वजह से पूरे परिवार में दुख का माहोल हो जाता है.

कसौली पहुंचकर अक्षरा अपने घर की साफ सफाई कर रही होती है लेकिन अभिनव को कुछ ठीक नहीं लगता है, वह जैसे ही घर से बाहर पिज्जा लेने पहुंचता है . वहीं अभिमन्यु शेफाली से अपना दर्द बयां कर रहा होता है कि आज उसे समझ आ गया है कि वह कितना ज्यादा गलत था.उसने अक्षरा के ऊपर नील के मौत का गलत इल्जाम लगाया था.

इतना ही नहीं वह अक्षरा के साथ आगे जीवन बीताने के लिए गिर गिरा रहा था लेकिन उसे कोई फर्क हीं पड़ा है इस बात का. नील की इस बात को सुनकर शैफाली हैरान रह गई. आगे कहानी में दिखाया जाएगा कि अक्षरा अभिनव को ढूंढने के लिए बाहर निकलती है , उसे अभिनव चाय पीता हुआ दिखाता है जब वह अभिनव को घर जाने की बात कहती है तो वह कहता है कि इतना सबकुछ क्यों कर रही है, हमारे बीच पहले जैसा कुछ नहीं रहा.

सोनू सूद का बयान- 2 बार एमपी और एक बार डिप्टी सीएम बनने के ऑफर को ठुकराया

बॉलीवुड एक्टर सोनू सूद अपने नेक दिल के लिए जाने जाते हैं, बता दें कि सोनू सूद अपनी लाइफ को लेकर हमेशा चर्चा में बने रहते हैं. एक्टर ने कोविड महामारी के दौरान जरुरतमंदों की खूब मदद की थी,सोनू सूद की दरियादिली को देखकर कुछ लोग कयास लगा रहे थें कि वह बहुत जल्द राजनीति ज्वॉइन करने वाले हैं.

हाल ही में सोनू सूद ने पॉलटिक्स में एंट्री को लेकर अपनी राय रखी है,सोनू ने कहा है कि मुझे 2 बार राज्यसभा सांसद बनने का ऑफर मिला है लेकिन मैंने ठुकरा दिया है,मुझे राजनीति से बड़े बड़े पद ऑफर हुए हैं जैसे कि डिप्टी सीएम बनने का भी पद ऑफर हुआ था लेकिन मैंने ठुकरा दिया.

 

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आगे सोनू ने कहा कि मैं खुद अपने रूल्स बनाना चाहता हूं किसी के बनाएं हुए रूल्स पर नहीं चल सकता हूं, अगर सोनू सूद की वर्कफ्रंट की बात करें तो सोनू सूद लास्ट टाइम फिल्म पृथ्वीराज चौहान में नजर आएं थें. यह फिल्म  3 जून 2022 को रिलीज हुई थी. हालांकि यह फिल्म बुरी तरह से फ्लॉप रही थी सिनेमा घर में.

अब जल्द ही वह फिल्म फतेह में नजर आने वाले हैं,लेकिन अगर रिपोर्ट कि मानें तो यह फिल्म जुलाई या अगस्त में रिलीज होगी. इस फिल्म में सोनू के साथ जैक्लिन नजर आने वाली है..

लेजर वैजाइनल टाइटनिंग का बढ़ रहा क्रेज

महिलाओं में सुंदर और स्मार्ट दिखने के साथ ही साथ अपनी सैक्सलाइफ को भी अच्छा बनाने का प्रयास बढ़ता जा रहा है. इस में वैक्सिंग के साथ ही हेयर लेजर रिमूवल की चाहत भी बढ़ने लगी है. जहां वे अपने ब्रेस्ट के शेप को अच्छा बनाए रखना चाहती हैं वहीं अब वे वैजाइनल टाइटनिंग के लिए भी डाक्टर के पास जाने लगी हैं.

इस का कारण यह है कि अब सैक्सलाइफ बढ़ती जा रही है. 50 से 60 साल की उम्र में भी महिलाएं खुद को कम कर के नहीं आंकती हैं. पहले यह काम बड़े शहरों तक सीमित था, अब छोटे शहरों की महिलाएं भी इस दिशा में सोच रही हैं. सोशल मीडिया के आने के बाद अब बड़े डाक्टर भी सलाह देने के लिए उपलब्ध हैं.

लखनऊ की डाक्टर लिंकी अग्रवाल कहती हैं कि अब महिलाएं खुल कर इस बारे में अपनी राय देने/लेने लगी हैं. उन को जब इस बात का भरोसा हो जाता है कि वे अच्छे डाक्टर के पास हैं तो इस को कराने का फैसला लेने में देरी नहीं लगातीं. वे यह जरूर चाहती हैं कि उन की गोपनीयता बनी रहे जिस से उन के पति को भी यह न पता चले कि उन के साथ क्या हुआ है. कई बार शादी करने जा रही लड़कियां भी अपना कौमार्य वापस पाने के लिए इस का सहारा लेती हैं.

लेजर वैजाइनल टाइटनिंग एक नौन-सर्जिकल प्रक्रिया है जो योनि के ढीलेपन को दूर कर उस की प्राकृतिक कसावट को वापस लाती है. योनि में ढीलापन कई कारणों से आता है, जिन में सैक्सुअल ऐक्टिविटी करना, शिशु को जन्म देना, मेनोपौज से पीड़ित होना, ढेर सारे पार्टनर्स के साथ सैक्स करना आदि शामिल हैं.

योनि का ढीलापन महिलाओं के जीवन को कई तरह से प्रभावित करता है. योनि में ढीलापन होने के कारण महिलाएं अपना आत्मविश्वास खो देती हैं क्योंकि सैक्स के दौरान पुरुष अधिक रुचि या रोमांस नहीं दिखाते हैं.

डाक्टर लिंकी अग्रवाल कहती हैं, “अब घबराने की जरूरत नहीं है क्योंकि लेजर वैजाइनल टाइटनिंग सर्जरी की मदद से योनि की नैचुरल इलास्टिसिटी को बहुत ही आसानी से फिर से वापस लाया जा सकता है. वैजाइनल टाइटनिंग की सर्जिकल प्रक्रिया 4-5 सैशंस में पूरी होती है. एक सैशन को पूरा होने में लगभग 20 मिनट का समय लगता है और एक से दूसरे सैशन के बीच लगभग 25 दिनों का अंतराल होता है. इस मौडर्न और एडवांस सर्जिकल प्रक्रिया के दौरान मरीज को कट या टांके नहीं आते हैं और ब्लीडिंग तथा दर्द भी नहीं होता है.

“मरीज को हौस्पिटलाइजेशन और बेड रेस्ट की आवश्यकता भी नहीं पड़ती है. लेजर वैजाइनल टाइटनिंग सर्जरी के ढेरों फायदे हैं. इस सर्जरी की मदद से योनि के ढीलेपन को दूर कर योनि को टाइट और जवान बनाने के साथसाथ यूरिनरी लीकेज, योनि में सूखापन, योनि में खुजली या योनि की असंवेदनशीलता जैसी समस्याओं को भी बहुत ही आसानी से दूर किया जा सकता है.”

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नेता प्रतिपक्ष की जिम्मेदारी निभाने में असफल अखिलेश

लोकतंत्र में विपक्षी दल को प्रतिपक्ष कहा जाता है. यह प्रतिपक्ष भी सरकार का हिस्सा होता है. संविधान ने सत्ता पक्ष के साथ विपक्ष को भी बराबर का महत्त्व दिया है. विधानसभा की बात हो या लोकसभा की, विपक्ष के नेता सदन को उतना ही महत्त्व दिया जाता है जितना सत्ता पक्ष के नेता सदन का.
प्रतिपक्ष के नेता को भी सरकारी सुविधाएं प्राप्त होती हैं. इसका अर्थ यह होता है कि प्रतिपक्ष के नेता की भी भूमिका तय होती है. वह बजट सत्र में आने वाले बिलों पर चर्चा कर सकता है. शून्य काल यानी ‘जीरो आवर’ में वह प्रदेश की समस्याओं को उठा सकता है. सदन में नेता प्रतिपक्ष को भी अहम स्थान हासिल होता है.

ऐसे में विपक्ष की भूमिका सत्ता पक्ष जितनी ही अहम हो जाती है. विपक्ष का मतलब केवल सदन में होहल्ला करना या सदन का बायकौट करना ही नहीं होता. उसे अपने तर्कों से सत्ता पक्ष को सदन में घेरना चाहिए और धरनाप्रदर्शन से सड़क पर सत्ता को घेरना चाहिए. गैरकांग्रेसवाद का नारा देने वाले जय प्रकाश नारायण की बात हो या समाजवादी नेता डाक्टर राममनोहर लोहिया की, इंदिरा गांधी को इस कदर परेशान कर दिया था कि वे इमरजैंसी लगाने जैसे फैसले लेने के लिए मजबूर हो गईं.

राजनरायण से सीखें आज के विपक्षी नेता
1971 में कांग्रेस की नेता इंदिरा गांधी सबसे ताकतवर नेता बन कर उभरी थीं. बंगलादेश विजय के रथ पर सवार इंदिरा गांधी को ‘लेडी आयरन’ कहा जाता था. राजनरायण ने अपने संघर्ष के दम पर इंदिरा गांधी को घुटनों पर ला दिया था. जबकि विपक्ष का दमन करने के लिए इंदिरा गांधी ने 19 महीने विपक्षी नेताओं को जेल में भेर दिया था. विपक्ष को दबाने के लिए कोई ऐसा काम नहीं बचा था जो न किया हो. अदालत को भी प्रभावित करने का पूरा प्रयास किया गया. देश में इमरजैंसी लगाने के लिए पद का मनमाना प्रयोग किया गया. इसके बाद भी विपक्ष ने सत्तापलट कर ही दिया.

आज विपक्ष में उस ताकत और एकजुटता का अभाव है. 2014 से 2023 तक 9 साल होने को आ रहे हैं और विपक्ष एकजुट नहीं हो पा रहा है. 9 सालों में विपक्ष ने नरेंद्र मोदी पर तमाम तरह के आरोप लगाए गएलेकिन उस लड़ाई को वह उस तरह से अंजाम तक नहीं पहुंचा पाया जैसे राजनारायण ने इंदिरा गांधी के खिलाफ लड़ी थी. आज के नेताओं के मुकाबले राजनरायण के पास संसाधनों का अभाव था लेकिन वे अपनी हिम्मत से आगे बढ़ते रहे. नतीजा यह कि इंदिरा गांधी को अदालत के सामने पेश होना पड़ा.

विपक्ष के सामने ढेर हुईं ताकतवर इंदिरा गांधी
यह बात शुरू होती है साल 1971 से. उस साल रायबरेली के लोकसभा चुनाव में इंदिरा गांधी ने जीत हासिल की. उनकी जीत को उनके प्रतिद्वंद्वी राजनरायण ने कोर्ट में चुनौती दी. भारतीय राजनीति के इतिहास में इस मुकदमे को इंदिरा गांधी बनाम राजनारायण के नाम से जाना जाता है.
1975 में इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले ने इंदिरा गांधी का चुनाव रद्द कर दिया. 12 जून, 1975 की सुबह 10 बजे से पहले ही इलाहाबाद हाईकोर्ट का कोर्टरूम नंबर 24 खचाखच भर चुका था. जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा पर पूरे देश की नजरें थींक्योंकि वे राजनारायण बनाम इंदिरा गांधी के मामले में फैसला सुनाने जा रहे थे.

मामला 1971 के रायबरेली चुनावों से जुड़ा था. यह वही लोकसभा चुनाव थाजिसमें इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी को जबरदस्त कामयाबी दिलाई थी. इंदिरा खुद रायबरेली से चुनाव जीती थीं. उन्होंने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार राजनारायण को भारी अंतर से हराया था.लेकिन राजनारायण अपनी जीत को लेकर इतने आश्वस्त थे कि नतीजे घोषित होने से पहले ही उनके समर्थकों ने विजय जुलूस निकाल दिया था. जब परिणाम घोषित हुआ तो राजनारायण के होश उड़ गए. नतीजों के बाद राजनारायण शांत नहीं बैठे, उन्होंने अदालत का दरवाजा खटखटाया.

राजनारायण ने कोर्ट में अपील दाखिल की थी कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए सरकारी मशीनरी और संसाधनों का दुरुपयोग किया है, इसलिए उनका चुनाव निरस्त कर दिया जाए. जब इस मामले में फैसला सुनाने के लिए जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ठीक 10 बजे अपने चैंबर से कोर्टरूम में आए. सभी लोग उठकर खड़े हुए. शुरुआत में ही उन्होंने साफ कर दिया कि राजनारायण की याचिका में उठाए गए कुछ मुद्दों को उन्होंने सही पाया है. राजनारायण की याचिका में जो 7 मुद्दे इंदिरा गांधी के खिलाफ गिनाए गए थे, उनमें से 5 में तो जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी को राहत दे दी थी, लेकिन 2 मुद्दों पर उन्होंने इंदिरा गांधी को दोषी पाया था.

फैसले के अनुसार, जन प्रतिनिधित्व कानून के तहत अगले 6 सालों तक इंदिरा गांधी को लोकसभा या विधानसभा का चुनाव लड़ने के अयोग्य ठहरा दिया गया. मार्च 1975 का महीना. कोर्ट में दोनों तरफ से दलीलें पेश होने लगीं. दोनों पक्षों को सुनने के बाद जस्टिस सिन्हा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनका बयान दर्ज कराने के लिए अदालत में पेश होने का आदेश दिया. तारीख तय की गई 18 मार्च, 1975. भारत के इतिहास में यह पहला मौका था.

अदालत में इंदिरा गांधी को करीब 5 घंटे तक सवालों के जवाब देने पड़े. इंदिरा गांधी और उनके समर्थकों को अंदाजा लगने लगा था कि इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला उनके खिलाफ जा सकता है. ऐसे में जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा को प्रभावित करने की कोशिशें शुरू हुईं. इलाहाबाद हाईकोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस डीएस माथुर, इंदिरा गांधी के निजी डाक्टर केपी माथुर के करीबी रिश्तेदार थे. इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में इंदिरा गांधी की पैरवी के लिए मशहूर वकील पालखीवाला को लाया गया.

जस्टिस सिन्हा ने अपने आदेश में लिखा कि इंदिरा गांधी ने अपने चुनाव में भारत सरकार के अधिकारियों और सरकारी मशीनरी का इस्तेमाल किया. जन प्रतिनिधित्व कानून में इनका इस्तेमाल भी चुनाव कार्यों के लिए करना गैरकानूनी था. इन्हीं 2 मुद्दों को आधार बनाकर जस्टिस सिन्हा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का रायबरेली से लोकसभा के लिए हुआ चुनाव निरस्त कर दिया. साथ ही, जस्टिस सिन्हा ने अपने फैसले पर 20 दिन का स्थगन आदेश दे दिया. न सिर्फ यह भारत में, बल्कि दुनिया के इतिहास में भी पहला मौका था, जब किसी हाईकोर्ट के जज ने किसी प्रधानमंत्री के खिलाफ इस तरह का कोई फैसला सुनाया हो. इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद इंदिरा गांधी की तरफ से पैरवी करने के लिए मशहूर वकील एन पालखीवाला को बुलाया गया.

आखिरकार इंदिरा गांधी की तरफ से अपील सुप्रीम कोर्ट में दाखिल हुई. 22 जून, 1975 को वैकेशन जज जस्टिस वीआर कृष्ण अय्यर के सामने यह अपील आई. इंदिरा गांधी की तरफ से पालखीवाला ने बात रखी. राजनारायण की तरफ से शांति भूषण अदालत में आए.24 जून, 1975 को जस्टिस अय्यर ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर स्थगन आदेश तो दे दिया, लेकिन यह पूर्ण स्थगन आदेश न होकर आंशिक स्थगन आदेश था. जस्टिस अय्यर ने फैसला दिया था कि इंदिरा गांधी संसद की कार्यवाही में भाग तो ले सकती हैं लेकिन वोट नहीं कर सकतीं. यानी, सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के मुताबिक, इंदिरा गांधी की लोकसभा सदस्यता चालू रह सकती थी.

जस्टिस अय्यर के इस फैसले के बाद विपक्ष ने इंदिरा गांधी पर अपने हमले तेज कर दिए.25 जून को जयप्रकाश नारायण ने रामलीला मैदान में रैली की. देशभर में इंदिरागांधी के खिलाफ महौल बन गया. इससे घबरा कर 25 जून, 1975 को इंदिरा गांधी ने देश में इमरजैंसी की घोषणा कर दी गई. विरोधी नेताओं को जेल में डाल दिया गया.23 मार्च, 1977 तक देश में इमरजैंसी लागू रही. 1977 में आमचुनाव हुए जिसमें कांग्रेस बुरी तरह हार गई. कांग्रेस को 153 सीटें ही मिल सकीं. 23 मार्च, 1977 को 81 साल की अवस्था में मोरारजी देसाई देश के प्रधानमंत्री बने. देश की आजादी के 30 साल बाद देश में पहली बार गैरकांग्रेसी सरकार बनी.

सड़क पर उतरा एकजुट विपक्ष
इंदिरा गांधी के खिलाफ विपक्षी जीत के 2 प्रमुख आधार थे. पहला, इंदिरा गांधी के खिलाफ कानूनी लड़ाई, दूसरा,सड़क पर इंदिरा गांधी के खिलाफ पूरे देश को एकजुट करना. वर्तमान में केंद्र में नरेंद्र मोदी ही नहीं, उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के खिलाफ भी विपक्ष मजबूत लड़ाई नहीं लड़ सका. उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को सामने रखते हैं. 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने एक आरोप लगाया कि यूपी सरकार ने चुनाव में सरकारी मशीनरी का दुरुपयोग किया. हर विधानसभा क्षेत्र से 20 हजार ओबीसी और 20 हजार मुसलमानों के नाम वोटर लिस्ट से काट दिए जिससे सपा चुनाव हार गई.

यह चुनाव का ऐसा बिंदु था जिसको लेकर अगर समाजवादी पार्टी कोर्ट तक जाती और पुख्ता सुबूत रखती तो कोर्ट के फैसले से योगी सरकार को कुरसीछोड़नीपड़ सकती थी. सपा ने कोर्ट और सड़कदोनों ही जगहों पर लडाई नहीं लड़ी. वह केवल बयानबाजी और ट्वीट करती रही.2017 से लेकर 2023 तक उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव मजबूती से सड़क पर उतर कर संघर्ष करते नहीं दिखे. विधानसभा में वे जो सवाल करते हैं उन से सत्ता पक्ष परेशानी में नहीं पड़ता. सदन से लेकर सड़क और अदालत तक जिस तरह से राजनारायण ने लड़ाईलड़ी, उस तरह से आज के विपक्षी नेता सत्ताधारी मोदी और योगी के खिलाफ लड़ नहीं पा रहे हैं.

इसके साथ ही, विपक्ष में एकजुटता नहीं है जैसे इंदिरा गांधी को हराने के लिएविपक्ष उस समय एकजुट हुआ था. राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा एक ऐसी पहल थी जिसको जयप्रकाश नारायण की पदयात्रा जैसा प्रभावशाली बनाया जा सकता था पर एकजुटता के अभाव में ऐसा नहीं हो सका. मोदी पर सत्ता और सरकारी मशीनरी के दुरुपयोग का आरोप हर नेता बयानों में लगाता है. कोई भी नेता इस मुददे पर अदालत नहीं जाना चाहता. अगर राजनरायण भी केवल बयान देते रहते, अदालत और सड़क पर लड़ाई न लड़ते तो क्या वे उस समय की सबसे ताकतवर नेता हो हरा पाते. नरेंद्र मोदी कितने भी ताकतवर हो जाएं पर इंदिरा गांधी के मुकाबले कम ही हैं. आज विपक्ष नकारा और बिखरा हुआ है. उसे लगता है कि केवल जाति और धर्म पर बयान देकर चुनावी मैदान मार लेंगे.

बड़ीलड़ाई से डर रहे अखिलेश यादव
देश का सबसे बड़ा प्रदेश उत्तर प्रदेश है. 2014 से लेकर 2022 तक हर छोटेबड़े चुनाव में विपक्ष तमाम समीकरण बनाने के बाद भी असफल रहा है. 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा 10, कांग्रेस 21, सपा 23 और बीएसपी को 20 सीटें मिली थीं. उस समय उत्तर प्रदेश में मायावती की सरकार थी.
2014 में यह गणित बदल गया. 72 सीटें भाजपा और सहयोगी दलों के खाते में गईं, विपक्ष को केवल 8 सीटें मिल सकीं. इस समय समाजवादी पार्टी की प्रदेश में सरकार थी और अखिलेश यादव मुख्यमंत्री थे. समाजवादी पार्टी केवल अपने परिवार के 5 लोगों को ही चुनाव जिता पाई थी. अगर अखिलेश यादव 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस गठंबधन के साथ चुनाव लड़ते तो भाजपा को यह सफलता न मिलती.

2014 की हार के बाद 2017 में अखिलेश यादव ने कांग्रेस के साथ गठबंधन किया लेकिन 2017 के विधानसभा चुनाव में वे हार गए. 2019 के लोकसभा चुनाव में सपा ने बसपा के साथ गठबंधन किया पर उस में भी सफलता न मिली. 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा ने कांग्रेस या बसपा को छोड़ कर छोटेछोटे दलों के साथ गठबंधन बनाया क्योंकि उस को यह पक्का यकीन था कि वह चुनाव जीत ही जाएगी. अखिलेश कांग्रेस या बसपा को सत्ता में हिस्सेदारी नहीं देना चाहते थे, सो, 2022 का चुनाव भी वे हार गए.

एकजुटता का यही अभाव परेशानी का सबब है. इसके अभाव में अखिलेशसड़क पर संघर्ष नहीं करते. उपचुनाव में वे अपनी पार्टी का प्रचार करने नहीं जाते. तमाम आलोचनाओं के बाद मैनपुरी उपचुनाव में वे प्रचार करने गए जहां उनकी पत्नी डिंपल यादव चुनाव लड़ रही थीं. अखिलेश यादव के पास पैसा, जनता, अफसर और वकील सबकुछ है. इसके बाद भी किसी भी मुददे को लेकर उनहोंने राजनारायण की तरह से लड़ाई नहीं लड़ी. इसके विपरीत, कांग्रेस के पास उत्तर प्रदेश में 1988 के बाद से सत्ता नहीं है. उस का संगठन भी मजबूत नहीं है. किसी तरह का बड़ा समर्थन भी साथ नहीं है. इसके बाद भी कांग्रेस नेता राहुल गांधी सड़क से लेकर लोकसभा तक अपनी बात मजबूती से रख रहे हैं.

अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश में नेताविपक्ष होने के बाद भी पूरी मजबूती से लड़ाई नहीं लड़ पा रहे. सीएए और एनआरसी के खिलाफ आंदोलन के समय कांग्रेस ने अच्छी लड़ाईलड़ी थी. इसके बाद योगी के बुलडोजर को लेकर भी सपा सड़कों पर नहीं उतर पाई. विपक्ष के नेता के रूप में अखिलेश यादव एक बड़ीलड़ाई लड़ने में चूक गए. इसका असर यह रहा कि 2012 के मुकाबले 2022 में वे 32 फीसदी मत पाने के बाद भी 111 सीटें ही जीत सके. 2014 के बाद वे लगातार चुनाव हार रहे हैं. इसके बाद भी उनके अंदर का अहं खत्म नहीं हो रहा.

यही वजह है कि भाजपा और योगी सरकार की तमाम तानाशाही के बाद भी वे जनसमर्थन जुटाने में सफल नहीं हो पा रहे हैं. नेताप्रतिपक्ष के रूप में बात केवल ‘तू तड़ाक’ तक ही रह पाती है. जो सुर्खियां तो बटोरती है पर जमीनी असर नहीं डाल पाती. जिसकारण नेताप्रतिपक्ष की जिम्मेदारी भी वे सही तरह से नहीं निभा पा रहे हैं.

शिक्षा विशेष: महंगी शिक्षा टूटते सपने

प्राइवेट कोचिंग देने वाली कंपनियां अपना बड़ा आकार ले रही हैं. कुछ तो इतनी बड़ी हो गई हैं कि उन्होंने दूसरे सैक्टर की कई कंपनियों को भी पीछे छोड़ दिया. कोचिंग सैंटर्स का व्यापार इस कदर फैल चुका है कि शिक्षा महंगी होती जा रही है और पेरैंट्स व छात्रों के सपने टूटते जा रहे हैं. कैसे, पेश है रिपोर्ट. पांच साल के अतुल्य की मां का सपना है कि वह अपने बेटे को डाक्टर बनाएगी, इसलिए स्कूल के अलावा उसे अभी से ट्यूशन लगा रखी है जहां उसे किताबों से भरे भारीभरकम बैग के साथ 2 घंटे ट्यूशन में बैठ कर पढ़ना पड़ता है, जबकि पहले से वह स्कूल में 5 घंटे पढ़ कर आ चुका होता है.

यह रोज की बात है, कोई एकदो दिन की नहीं. लेकिन स्कूल व ट्यूशन की पढ़ाई के बाद भी अतुल्य को मुश्किल से 30 तक ही गिनती आती है और इंग्लिश के अक्षरों को पढ़ते समय ‘क्यू’ पर अटक जाता है. यह स्कूल और ट्यूशन की भीषण पढ़ाई तब तक उस के साथ चलेगी जब तक कि वह 12वीं पास करने के बाद प्रीमैडिकल नैशनल एलिजिबिलिटी कम एंटरैंस टैस्ट नहीं दे देता. केवल अतुल्य ही अकेला ऐसा बच्चा नहीं है जो कम उम्र में ही स्कूल/ट्यूशन के बो?ा तले दबा जा रहा है, बल्कि आज मातापिता अपने 3-4 साल की बहुत छोटी उम्र के बच्चों को भी ट्यूशन पढ़ने को भेजते हैं.

बचपन से ही बच्चों के दिमाग में ट्यूशन वाला फार्मूला बैठा दिया जाता है कि अगर वह ट्यूशन नहीं जाएगा तो दूसरे बच्चों से पीछे रह जाएगा, फेल हो जाएगा. किसी अच्छे कालेज में उस का एडमिशन नहीं हो पाएगा और फिर वह बड़ा आदमी कैसे बनेगा? एक प्राइवेट कंपनी में मार्केटिंग का काम करने वाले शिवशंकर यादव कहते हैं कि वे अपने बेटे आयुष को कक्षा 3 से ही ट्यूशन क्लास भेज रहे हैं जिस से उस की पढ़ाई की नींव मजबूत रहे. आयुष इस कड़ाके की ठंड में भी अपनी ट्यूशन क्लास के लिए निकल जाता है और फिर उधर से ही स्कूल चला जाता है. आयुष के पापा का कहना है कि उन्होंने अपने बेटे का एडमिशन सीबीएसई बोर्ड के स्कूल में कराया है और 4 हजार रुपए प्रतिमाह स्कूल की फीस जमा करते हैं. 2 हजार रुपए कोचिंग के लिए अलग से देते हैं.

उन का सोचना है कि बेटा भविष्य में कुछ बेहतर कर पाए तो जीवन सुधर जाएगा. उन का कहना है कि स्कूल में इतने सारे बच्चे होते हैं कि टीचर सभी बच्चों पर ठीक से ध्यान नहीं दे पाते. इसलिए कोचिंग बहुत जरूरी है, वरना बच्चा औरों से पीछे रह जाएगा. शिवशंकर का साढ़े 3 साल का और एक बेटा है और वे इस बात से चिंतित हैं कि अगले साल से उसे भी ट्यूशन में भेजना पड़ेगा और जिस का सीधा असर उन की आर्थिक स्थिति पर पड़ेगा. आज मातापिता के दिमाग में यह बात स्क्रू की तरह फिट बैठ गई है कि अगर वे अपने बच्चों को किसी अच्छे कोचिंग या ट्यूशन में पढ़ने नहीं भेजेंगे तो उन का बच्चा दूसरे बच्चों से पीछे रह जाएगा. एक समय था जब किसी छात्र का स्कूल के अलावा ट्यूशन लगाना समाज में शर्म का विषय हुआ करता था क्योंकि ट्यूशन यानी आप का बच्चा पढ़ने में कमजोर है,

इसलिए ट्यूशन लगवानी पड़ी. लेकिन आजकल ट्यूशन, कोचिंग क्लासेस जाना ‘स्टेटस सिंबल’ बन गया है. इस में भी ब्रैंडेड कोचिंग इंस्टिट्यूट होना और भी ऊंचे रुतबे की बात है. हैरानी की बात यह है कि ब्रैंडेड कोचिंग में वही बच्चे पढ़ने जाते हैं जो पहले से ही नामचीन स्कूलों में पढ़ रहे हैं. बच्चों को ट्यूशन/कोचिंग पढ़ने भेजना कुछ मातापिता की मजबूरी हो सकती है क्योंकि उन्हें अपने बच्चों का होमवर्क कराने का समय नहीं मिलता होगा. लेकिन आज तो हरेक मातापिता अपने बच्चों को अच्छे से अच्छे कोचिंग में भेजने की होड़ में लगे हैं. सिर्फ महानगरों में ही नहीं, गांवकसबे में भी भारी तादाद में कोचिंग सैंटर खुलते जा रहे हैं. ट्यूशन के बिना बच्चे खुद को असहाय और असुरक्षित महसूस करते हैं. उन्हें लगता है ट्यूशन की बैसाखी के बिना वे पास ही नहीं हो पाएंगे परीक्षा में.

इसी का फायदा कोचिंग सैंटर वाले उठाते हैं. कई टीचर्स तो इस शर्त पर ट्यूशन देते हैं कि बच्चे अगले शैक्षणिक सत्र में भी उन से ही ट्यूशन पढ़ेंगे. कोचिंग सैंटरों के नाम से बनी दुकानें एक तरह से छात्रों में भी असमानता के बीज ही बो रही हैं. अलग बस्ता, अलग ड्रैस, अलग टीशर्ट, अलग वैन आदि सब कोचिंग संस्थानों के नाम से छपी हुई होती हैं. कहना गलत नहीं होगा कि आज शिक्षा पूरी तरह से व्यवसाय बन चुकी है. शिक्षा का कारोबार एसोसिएटेड चैंबर्स औफ कौमर्स एंड इंडस्ट्री औफ इंडिया (एसोचैम) के एक सर्वे के अनुसार, मैट्रो शहरों में प्राइमरी स्कूल के 87 फीसदी और हाईस्कूल के 95 फीसदी बच्चे निजी ट्यूशन लेते हैं. एसोचैम के अनुसार, भारत में निजी कोचिंग इंडस्ट्री हर साल 35 फीसदी की दर से बढ़ रही है. मध्यवर्गीय अपनी आय का एकतिहाई कोचिंग पर खर्च करता है ताकि उन के बच्चे प्रोफैशनल कोर्स में दाखिले के लिए प्रतियोगी परीक्षाएं निकाल सकें.

राजस्थान का कोटा शहर निजी कोचिंग का सब से बड़ा केंद्र है. प्राइवेट कोचिंग सैंटर या ट्यूशन की प्रवृत्ति एक या दो शहरों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पूरे देश में बहुत तेजी से फैल रही है. दिल्ली, इलाहाबाद, पटना, चंडीगढ़, हैदराबाद, बेंगलुरु, तिरुअनंतपुरम, मुंबई आदि कई छोटेबड़े शहरों में आज कोचिंग सैंटरों की भरमार है. इसी साल 18 जनवरी को आई ‘एनजीओ प्रथम’ की शिक्षा की वार्षिक स्थिति रिपोर्ट (एएसईआर) के अनुसार, ग्रामीण क्षेत्रों में वर्ष 2022 में 1 से 8वीं तक की कक्षाओं में पढ़ने वाले सरकारी स्कूलों के लगभग 31 फीसदी, जबकि प्राइवेट स्कूलों के लगभग 30 फीसदी छात्र पैसे दे कर प्राइवेट कोचिंग या ट्यूशन जाते हैं.

दोनों को मिला कर देखें तो 30.5 फीसदी छात्र प्राइवेट कोचिंग या ट्यूशन जाते हैं. 2018 में यह आंकड़ा 26.4 फीसदी ही था. 2010 से 2022 के बीच पैसे दे कर प्राइवेट कोचिंग में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है. 2010 में सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के 22.5 फीसदी छात्र स्कूल के बाहर पैसे दे कर पढ़ाई कर रहे थे. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि उत्तर प्रदेश, बिहार और ?ारखंड में निजी ट्यूशन लेने वाले बच्चों के अनुपात में 2018 की अपेक्षा 8 फीसद पौइंट या उस से अधिक की वृद्धि हुई है. पुणे की कंसल्टैंसी फर्म इनफिनियम ग्लोबल रिसर्च ने वर्ष 2022 में एक रिसर्च जारी की.

उन्होंने इंडिया स्पैंड को मेल पर बताया कि भारत के कोचिंग उद्योग का बाजार वर्ष 2021 में 58,088 करोड़ रुपए तक पहुंच चुका है और इस इंडस्ट्री का पूरा कारोबार 2028 तक 1,33,955 करोड़ रुपए तक पहुंचने का अनुमान है. इस दौरान इस का कंपाउंडेड एनुअल ग्रोथ रेट (सीएजीआर) 13.03 फीसदी तक रह सकता है. इनफिनियम ने आगे बताया कि उस ने बड़े कोचिंग संचालकों से बात कर के और उन की सालाना रिपोर्ट, ट्रेड जर्नल, रिसर्च एजेंसी और सरकारी रिपोर्ट्स के आधार पर यह रिसर्च रिपोर्ट तैयार की है. वैसे तो केंद्र सरकार दावा करती है कि देशभर में छात्र शिक्षकों का अनुपात मानकों से बेहतर है.

सरकार के अनुसार 2020-21 में छात्र शिक्षक अनुपात प्रति शिक्षक 26 छात्र रहा पर उसी साल 6 दिसंबर 2021 लोकसभा में शिक्षा मंत्रालय टीडीपी के सांसद जयदेव गल्ला ने देशभर में शिक्षकों का ब्यौरा मांगा, जिस पर सरकार ने 10 लाख शिक्षकों की कमी बताई. सरकार की मानें तो सब से ज्यादा कमी उत्तर प्रदेश में है जहां 2 लाख शिक्षकों की कमी है. कहीं न कहीं स्कूलों में खराब पढ़ाई का फायदा कोचिंग संस्थान उठा रहे हैं. आज अगर कुल कोचिंग मार्केट 58,000 करोड़ रुपए का है, जैसा कि ऊपर बताया गया है तो कुछ वर्षों में इस का आकार और बड़ा होगा. बिहार की राजधानी पटना के बोरिंग रोड चौराहे के पास 8×10 फुट के कमरे में रहने वाले 17 वर्षीय कुंदन कुमार ने अभी 10वीं ही पास की है और वह आईआईटी क्लीयर करने का सपना ले कर पूर्णिया जिले से पटना आ गया. उस का कहना है कि उस के गांव में बहुत से लोग सरकारी नौकरी में हैं,

इसलिए उन लोगों की तरह उस ने अभी से सरकारी नौकरी की तैयारी शुरू कर दी है और बिहार बोर्ड के सहारे तो कुछ हो ही नहीं सकता, इसलिए अभी से पटना आ गया. सिर्फ कुंदन कुमार ही क्यों, बल्कि विभिन्न जिलों से पटना में बड़ी संख्या में छात्र पढ़ाई करने आते हैं. सामान्य पढ़ाई के साथ ही बड़ी संख्या में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले छात्र पटना में रह कर अध्ययन करते हैं. एक अनुमान के मुताबिक, पटना में लगभग 4,000 से अधिक कोचिंग सैंटर हैं लेकिन उन में से महज 400 ही सरकारी बहीखाते में रजिस्टर्ड हैं. पहलीदूसरी क्लास से ही बच्चों को ट्यूशन की लत लगा दी जाती है और यहीं से कोचिंग संस्थानों का व्यापार का विस्तार शुरू हो जाता है.

8वीं के बाद बच्चे अलगअलग विषयों के ट्यूशन लेने लगते हैं और हर विषय की अलग फीस देनी पड़ती है. इस तरह आप कमाई का कुल 12 प्रतिशत हिस्सा बच्चों की शिक्षा पर खर्च कर देते हैं लेकिन इस के बाद भी कोई गारंटी नहीं है कि आप का बच्चा परीक्षा में अच्छे नंबरों से पास होगा ही. हां, इस की गारंटी जरूर है कि कोचिंग संस्थानों को दिन दूना रात चौगुना मुनाफा जरूर होगा. सरकार ने कई इंग्लिश मीडियम स्कूल खोल दिए हैं लेकिन इस बात की गारंटी लेने वाला कोई भी नहीं है कि इंग्लिश मीडियम स्कूल में अच्छे स्तर की शिक्षा दी भी जाती है या नहीं. अकसर मातापिता अपने बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूल में डालते हैं ताकि वे अच्छी इंग्लिश बोल सकें और उन का कैरियर इस लैंग्वेज की वजह से ठप न हो जाए. लेकिन इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़ने के बावजूद 50 फीसदी बच्चे इंग्लिश में कमजोर रह जाते हैं. ऐसे बच्चे न तो ठीक से हिंदी में पारंगत हो पाते हैं, न ही इंग्लिश में. कैसे समझें कि बच्चा टैंशन में है कोटा से कोचिंग कर के वापस आए करीब 200 बच्चों का इलाज कर चुके डा. संजय चुग का कहना है कि उन में भारी स्ट्रैस की समस्या देखने को मिली.

जब भी बच्चों में इन लक्षणों को देखें, मातापिता सतर्क हो जाएं- द्य नींद और भूख कम लगना. द्य बच्चे का गुमसुम रहना. द्य स्वभाव में भारी बदलाव, जैसे खोया हुआ रहना, चिड़चिड़ा हो जाना आदि. ऐसे किसी लक्षण को देखते ही सम?ा जाना चाहिए कि बच्चे को मदद की जरूरत है. यह तथ्य है कि कोचिंग का हब बन चुके कोटा में हर वर्ष देशभर से लाखों बच्चे इंजीनियरिंग और मैडिकल परीक्षाओं की तैयारी के लिए आते हैं. सभी का सपना आईआईटी और मैडिकल संस्थानों में एडमिशन पाना होता है. इस के लिए उन के मातापिता कोचिंग संस्थानों को भारी रकम चुकाते हैं और संस्थानों द्वारा छात्रों को सौ फीसदी सफलता की गारंटी भी दी जाती है. लेकिन सचाई यह है कि ये संस्थान छात्रों को गुणवत्तापरक शिक्षा देने के बजाय उन के सपनों से खेलते हैं. वहां छात्रों का शैड्यूल इतना बो?िल होता है कि वे ठीक से सो भी नहीं पाते हैं. हर छात्र को तकरीबन हर दिन 6 घंटे कोचिंग क्लास में बिताने पड़ते हैं. इस के अलावा, 10 घंटे स्वयं अध्ययन करना पड़ता है. ऐसे में वे अवसादग्रस्त न हों तो क्या करें.

मातापिता भी कम दोषी नहीं कोचिंग संस्थानों पर एक नजर डालें तो आज ये शिक्षा का कम, कारोबार के केंद्र ज्यादा नजर आते हैं. आज की तारीख में कोटा में पसरे संस्थानों का कारोबार डेढ़ हजार करोड़ रुपए से अधिक का है. कोटा में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से तकरीबन डेढ़ करोड़ से अधिक छात्र जुड़े हुए हैं और एक छात्र की सालाना औसत कोचिंग फीस करीब एक से 2 लाख रुपए होती है. बाकी अन्य खर्चे अलग से जोड़ लीजिए तो एक छात्र को तकरीबन ढाई लाख रुपए खर्च करने पड़ते हैं. वहां छात्रों का सिर्फ मानसिक और आर्थिक शोषण ही नहीं होता, बल्कि उन की सेहत के साथ भी खिलवाड़ होता है.

छात्रावास में उन्हें अपौष्टिक खाना परोसा जाता है, जबकि इस के लिए वे मनमाना पैसा वसूलते हैं, फिर भी उन्हें मनमुताबिक खाना नहीं मिल पाता है. जिले के खाद्य सुरक्षा सेल द्वारा जब भी मान्यताप्राप्त भोजनालय और फूड सैंटर पर खाने की क्वालिटी को परखा जाता है तो उस में कमियां पाई जाती हैं. वहां छात्रों के अनुपात में संसाधनों की भी भारी कमी है. कक्षाओं में इतनी भीड़ होती है कि पढ़ने के लिए छात्रों को जगह नहीं मिल पाती है. सब से खतरनाक बात यह है कि कोचिंग केंद्रों में छात्रों को विषयों को ठीक से पढ़ाने के बजाय शौर्टकट सफलता हासिल करने के मंत्र दिए जाते हैं.

कहना गलत नहीं होगा कि छात्रों को रट्टू तोता बनाया जा रहा है. आज उसी का परिणाम है कि मुट्ठीभर छात्रों के हाथ सफलता हाथ लगती है. असफलता से घबराए छात्र मौत को गले लगा लेते हैं. लेकिन इस के लिए सिर्फ कोचिंग संस्थानों को ही गलत नहीं ठहरा सकते, बल्कि बच्चे के मातापिता भी कम जिम्मेदार नहीं हैं इस बात के लिए. वे अपने बच्चों की मानसिक क्षमता को जांचेपरखे बिना उन्हें इंजीनियर/डाक्टर बनाने पर तुले रहते हैं. बच्चों पर प्रैशर डालते हैं कि वे उन का सपना पूरा करें.

कोटा के मनोचिकित्सक डा. एमेल अग्रवाल के अनुसार, इन कोचिंग संस्थानों में पढ़ने वाले बच्चे अन्य बच्चों के मुकाबले 25 फीसदी ज्यादा अवसाद के शिकार होते हैं. इस के कई कारण हैं- डर, मातापिता से दूर रहने की वजह से तनाव, अवसाद, परेशानियां, पढ़ाई का शैड्यूल इतना बिजी कि घर न जा पाना और कुछ हद तक पारिवारिक पृष्ठभूमि भी. कोटा के कैरियर पौइंट के निदेशक ओम माहेश्वरी के मुताबिक, आर्थिक मंदी का कोटा पर कोई असर नहीं हुआ क्योंकि यहां मकान किराए पर चढ़ रहे हैं, निर्माण चल रहा है, दुकानों पर भीड़ है, धोबी, नाई, बावर्ची, रिकशा, औटो सभी के पास काम है. उन के मुताबिक, शहर की खुशहाली की वजह कोचिंग के लिए बाहर से आने वाले लाखों छात्र हैं.

कोचिंग के पैसे से रियल एस्टेट और छात्रावास निर्माण का कारोबार चरम पर पहुंच चुका है क्योंकि जब इतने बड़े पैमाने पर वहां छात्र कोचिंग कर रहे हैं तो उन के रहने के लिए आवास तो चाहिए न. बात सिर्फ कोटा की नहीं है, भारतीय कोचिंग इंडस्ट्री इतने मुनाफे की इंडस्ट्री बनती जा रही है कि अब तो इस में विदेशी निवेश तक होने लगा है. शिक्षा में सौदा शिक्षा क्षेत्र की सब से बड़ी औनलाइन कंपनी बायजूस और आकाश एजुकेशन इंस्टिट्यूट के बीच एक बहुत बड़ी डील हुई, जिस के तहत बायजूस ने आकाश इंस्टिट्यूट को एक अरब डौलर यानी साढ़े 7 हजार करोड़ रुपए में खरीद लिया. यह कीमत ईकौमर्स की ‘नायका’ और ‘लेंस्कार्ट’ जैसी कंपनियों की कुल नैटवर्थ से भी ज्यादा है. जिस देश में 15 लाख सरकारी स्कूल हैं, एक हजार यूनिवर्सिटी हैं और 33 हजार से ज्यादा प्ले स्कूल हैं, वहां प्राइवेट कोचिंग देने वाली कंपनी इतनी बड़ी हो गई कि उस ने दूसरी कंपनियों को भी पीछे छोड़ दिया.

कतर एयरवेज, किआ और बायजूस, इन तीनों कंपनियों के बीच क्या आम है? क्योंकि ये तीनों कंपनियां फीफा 2022 विश्व कप की प्रायोजक थीं. बायजूस पहली कंपनी है जो इतने बड़े खेल का आयोजन का आधिकारिक प्रायोजक थी. बायजूस एप्पल और फेसबुक जैसी सार्वजनिक कंपनी बनने वाली थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं. बायजूस कंपनी फेल क्यों होने लगी? देश की आईटी कंपनी में से एक बायजूस में लगातार लोगों की नौकरियां जा रही हैं. आज देश में महंगाई चरम पर है और ऐसे समय में जौब चले जाना चिंता का विषय है. कंपनी ने अब तक सैकड़ों लोगों को बाहर का रास्ता दिखा दिया तो बाकी कई सौ लोगों को जल्द ही अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है. आखिर इस की वजह क्या है? वजह जो भी हो पर फिलहाल बायजूस चर्चा का विषय बनी हुई है. कभी फंडिंग में दिक्कत होने की खबरें सामने आ रही हैं तो कभी बड़ी संख्या में कर्मचारियों से रिजाइन मांगने की.

हाल ही में खबर आई कि कंपनी ने केरल में स्थित एक कार्यालय को बंद कर दिया और कर्मचारियों से रिजाइन करने के लिए कहा. रिपोर्ट्स के अनुसार, बड़ी संख्या में कर्मचारियों को निकालने के पीछे बड़ी वजह कंपनी में होने वाला घाटा है. एक रिपोर्ट के अनुसार कंपनी को साल 2021 में 4,588 करोड़ रुपए का नुकसान ?ोलना पड़ा. पेरैंट्स को मिल रही धमकी एडटेक कंपनी बायजूस पर बड़ा आरोप लगा है कि वह बच्चों और उन के पेरैंट्स के फोन नंबर खरीद रही है और उन्हें धमकी दे रही है कि अगर उन्होंने कोर्स नहीं खरीदा तो उन का भविष्य बरबाद हो जाएगा.

बायजूस कोर्स को बेचने के लिए सेल्स एक्जीक्यूटिव्स पर भी काफी दबाव बनाया जाता है. दबाव इतना ज्यादा होता था कि कई बार सेल्स एक्जीक्यूटिव्स अपने प्रबंधकों को यह दिखाने के लिए अपनी बिक्री के आंकड़े नकली कर के दिखाते हैं कि उन्होंने अपना लक्ष्य हासिल कर लिया है. कई बार अपनी नौकरी बचाने के लिए सभी टीमों को अपनीअपनी जेब से भुगतान करना पड़ता था ताकि उन की नौकरी बची रहे. इन फर्जी बिक्री का उल्लेख बायजूस के वित्तीय विवरणों में भी किया गया था. यही वजह है कि बायजूस के रैवेन्यू में एक साल में 60 फीसदी की गिरावट आई.

भारत में जिस तरह से कोचिंग संस्थान बढ़ रहे हैं और उन में लाखों की संख्या में छात्र रजिस्टर हो रहे हैं यह दिखाता है कि भारत में पेरैंट्स बच्चों के कैरियर को ले कर ज्यादा सजग हो गए हैं. अब इस के दूसरे हिस्से को देखा जाए तो पता चलेगा कि वे ऐसे भंवर में फंस गए हैं. जहां अगर वे अपने बच्चों को महंगी और बाकियों से अच्छी शिक्षा नहीं देंगे तो रेस में पिछड़ जाएंगे. यह समझते हुए भी कि महंगी पढ़ाई पढ़ाने के बाद भी बच्चों का कैरियर शर्तिया नहीं कि बन ही जाए, क्योंकि आंकड़े बताते हैं कि 2016-17 में सरकारी और निजी इंजीनियरिंग कालेजों से डिग्री ले कर निकलने वाले छात्रों में सिर्फ 46 प्रतिशत ही नौकरी पा सके. इन में से कई छात्रों के पेरैंट्स थे जिन्होंने बच्चों की पढ़ाई के लिए बैंकों से भारी कर्जा लिया.

2017 के एक आंकड़े के मुताबिक देशभर में एजुकेशन लोन की 6,356 करोड़ रुपए की रकम 3,45,340 बट्टा खातों में यानी एनपीए में जा चुकी हैं. इस रेस में जीतने के लिए भले उन्हें अपने बच्चों को प्राइमरी लैवल से ही क्यों न तैयार करना पड़े, भारी लोन व कर्जा न उठाने पड़े, वे हर नामुमकिन कोशिश से गुजर जाने को तैयार हैं क्योंकि यही हकीकत है कि आजकल मांबाप अपने बच्चों से ज्यादा प्रतिस्पर्धी हो चुके हैं. वे महंगी शिक्षा झेलने को तैयार हो चुके हैं.

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