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गुप्त सूचनाएं और लोकतंत्र

सरकार की गुप्त सूचनाएं जगजाहिर करना देशद्रोह है या नहीं, यह मामला अमेरिका में तूल पकड़ रहा है. अमेरिकी सरकार जनता पर लगातार नजर रख रही है और आम आदमियों से ले कर खास हस्तियों तक के ईमेल पढ़े जा रहे हैं, टैलीफोन वार्त्तालाप सुने जा रहे हैं और मैसेज कहां से आए व कहां गए, का रिकौर्ड रखा जा रहा है. इन गुप्त बातों को जानने के लिए कभी दूसरे देश के गुप्तचर भारी रकम देने को तैयार रहते थे पर आज उत्साही युवा बिना मूल्य के अपनी सरकार के गुप्त भेद जगजाहिर कर रहे हैं.

29 साल के एडवर्ड जोसेफ स्नोडेन ने आतंकियों को पकड़ने के नाम पर रिकौर्ड की गई बातों को अमेरिकी प्रैस को खुल्लमखुल्ला, बिना कुछ चाहे, बता दिया. अमेरिकी सरकार अब उन्हें पकड़ना चाहती है और वे एक देश से दूसरे देश भाग रहे हैं कि उन्हें कहीं शरण मिल जाए.

2 वर्ष पहले जूलियन असांजे ने विकीलीक्स के मारफत कुछ ऐसा ही कदम उठाया था जब गुप्त जानकारियां  इंटरनैट पर डाल कर हरेक तक पहुंचा दी थीं और दुनियाभर के नेताओं व सरकारों को सकते में डाल दिया?था. आस्ट्रेलियाई असांजे को स्वीडन में एक रेप में फंसा कर गिरफ्तार करने की कोशिश की जा रही है पर फिलहाल वे इक्वाडोर के लंदन स्थित दूतावास में छिपे हैं.

लोकतंत्र का तकाजा है कि सरकार कुछ भी छिपा कर न करे. शत्रुओं की बातें जानने के लिए की जा रही जासूसी भी इतनी गुप्त न हो कि उन का दुरुपयोग किया जाने लगे. तानाशाह देश पहले बोलने, सोचने व कुछ करने की स्वतंत्रता पर रोक लगाते हैं, फिर जल्दी ही तानाशाह अपना राज बनाए रखने के लिए विरोधियों की गतिविधियों पर नजर रखना शुरू कर देता है. अगर लोकतंत्र में भी यही हुआ तो फिर कैसा लोकतंत्र.

अमेरिकी सरकार का कहना है कि वह नागरिकों की बातें इसलिए सुन रही है ताकि आतंकवादियों की जानकारी पहले मिल जाए. पर इस बात की कौन गारंटी लेगा कि पूर्व राष्ट्रपति निक्सन की तरह कोई राष्ट्रपति अपने विरोधी दल की बात सुनना न शुरू कर दे जो वाटरगेट के नाम से कुख्यात हुआ.

स्नोडेन को सिरफिरा, फितूरी कहा जा सकता है पर ऐसे ही लोग असल में लोकतंत्र के रक्षक हैं और निरंकुश सरकार पर रोक लगा सकते हैं. स्नोडेन अमेरिका से भाग निकले वरना उन का वहां भारतीय शैली में एनकाउंटर करने में देर न लगती.

 

प्रकृति का प्रकोप

केदारनाथ-गौरीकुंड तीर्थ मार्ग पर बादल फटने और?भीषण वर्षा के कारण जो तबाही हुई और जिस तरह हजारों की मृत्यु हुई और हजारों कई दिनों तक ठंड में भूखेप्यासे फंसे रहे, दिल दहलाने वाला है. प्रकृति का विकराल रूप कोई नई बात नहीं है पर इस तरह मानव को कम ही झेलना पड़ता है. सुनामियों और भूकंपों की तरह इस बार साधारण लोगों ने जो देखा और सहा, वह भुक्तभोगी ही जानते हैं.

पहाड़ों पर बादलों के फटने, अतिवृष्टि, भूस्खलन आम बातें हैं पर पहले वे सुर्खियां नहीं बन पाती थीं क्योंकि मरने या फंसने वाले कम होते थे. इस बार तीर्थ के नाम पर इस क्षेत्र में हजारों लोग धर्म  पुण्य कमाने और सैर करने के लिए पहुंचे हुए थे. चूंकि मामला धर्म से जुड़ा है, हर अफसर, नेता, पंडापुजारी, व्यवसायी बहती गंगा में हाथ धोने को पहले से तैयार था.

घटना ने विभीषिका का रूप इसलिए लिया कि देशभर से लोगों को धर्म के नाम पर चार धाम की यात्रा के लिए धकेला जाता है. साक्षात शिव के दर्शन कराने के नाम पर हिमालय की पहाडि़यों को पाखंड के धंधे का शिकार बना लिया गया. धर्म के नाम पर गंगा और उस की सहयोगी नदियों के किनारे धर्मशालाएं, होटल, गैस्ट हाउस बना डाले गए. पेड़ काट कर सड़कें बन गईं. जहां पहले इक्केदुक्के लोग चलते थे वहां सैकड़ों बसें चलने लगीं.

प्रकृति का प्रकोप इस कारण आया या नहीं, पर जनधन की हानि पक्की बात है  कि इस कारण हुई और अगर सेना के हैलिकौप्टरों की सुविधा न होती तो हजार दुआएं करने के बावजूद मरने वालों की संख्या लाख तक पहुंच जाती. यह किसी ईश्वर का कमाल नहीं, विज्ञान व तकनीक का कमाल है कि टूटी सड़कों के बावजूद फंसे लोगों को निकाल लिया गया.

होना तो यह चाहिए था न कि ये लोग जहां फंसे थे वहीं यज्ञहवन, दानपुण्य शुरू कर देते और ईश्वर से कहते कि उन्हें सुरक्षा दे. पर वे गिड़गिड़ाए सेना के हैलिकौप्टरों के लिए, बरसे मंत्रियों पर. जब पंडों के कहने पर पुण्य कमाने के लिए घर से निकले थे तो सरकार को दोष देने का क्या औचित्य था. जब पंडों का सीधा भगवानों से संबंध था तो क्यों नहीं उन्होंने भक्तों की रक्षा की और क्यों सेना व सरकार को आना पड़ा?

प्रकृति अपना प्रकोप दिखाती रहेगी. और कर्मठता इसी में है कि अपनी सूझबूझ, तकनीक, सहयोग से उस से निबटा जाए. अंधविश्वासों और धर्म के दुकानदारों के बस का न आज मानव रक्षा करना रहा है, न पहले कभी. बातें बनाने से जीवन सुरक्षित नहीं रहता.

 

आप के पत्र

सरित प्रवाह, जून (प्रथम) 2013

संपादकीय टिप्पणी ‘दंभियों के हाथ शासन’ ओजपूर्ण व ज्ञानवर्द्धक है. आप का यह कथन सत्य से परिपूर्ण है कि कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी की हार का अनुमान पार्टी को पहले से ही था. इस विषय में पार्टी के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कई साल पहले साफ कह दिया था कि माइनिंग ठेकेदारों को अरबों बनवाने के आरोपों से घिरे उस के मुख्यमंत्री बी एस येदियुरप्पा को पद छोड़ना ही होगा, चाहे कर्नाटक भाजपा के हाथ से निकल जाए.

कर्नाटक में जीत कर कांग्रेस में भी कोई खास खुशी नहीं है, मात्र संतोष भर है कि एक और बार पिटने से बचे. कांग्रेस के नेता खुद वैसे ही आरोपों से घिरे हैं. अदालतों में रोज फटकार पड़ रही है और लोकसभा व राज्यसभा में जवाब देने को उन के पास शब्द नहीं रहते. आम जनता बेईमानी के कांडों से त्रस्त है और उस की हालत उस मेमने की तरह है जो शेर के पंजों में फंस गया है. यह बिलकुल नहीं कहा जा सकता है कि 2014 में जनता खुशीखुशी कांग्रेस का साथ देगी.

आप ने सत्य कहा है कि यह अफसोस की बात है कि चुनावी प्रणाली अच्छे, शरीफ नेताओं को उतारने का काम बिलकुल नहीं कर पा रही, जनता के पास पर्याय नहीं होता या जनता जानबूझ कर बेईमानों का साथ देती है, चुनाव सही नेता नहीं, बेईमान व भ्रष्ट नेता पैदा कर रहे हैं. देश का शासन क्रूर, दंभी जनप्रतिनिधियों के हाथों में बंध गया है. यह देशहित में नहीं है.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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भ्रष्ट नेता

जून (प्रथम) अंक में  ‘रेल घूस कांड: बिकाऊ कुरसी के बिचौलिए रिश्तेदार’ पढ़ा. दरअसल, राजनीति में आ कर सत्ता की मलाई चाटने वालों में ‘दूध का धुला’ आज के युग में शायद कोई हो. दिवंगत लाल बहादुर शास्त्री का युग तो उन्हीं के अवसान के साथ ही समाप्त हो गया प्रतीत होता है. बेशर्मी का आलम आज यह है कि ऐसे शर्मनाक कांडों को अंजाम देने वाले तत्त्व स्वयं को सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र की औलाद से कम नहीं मानते. कारण, ‘हमाम में सभी नंगों समान चोरचोर मौसेरे भाई’ जो बन जाते हैं. रेल कांड के कारण सत्ता से बाहर हुए मंत्रीजी की पूरी की पूरी ऐसी ही जन्मपत्री दिल्ली की एक अन्य प्रतिष्ठित पत्रिका ने भी प्रकाशित की थी, जो आप के द्वारा प्रस्तुत आंकड़ों को ही प्रमाणित करती नजर आ रही थी.

यह भी एक शाश्वत सत्य है कि जैसे ही किसी कांड से परदा उठता है, तो कांड में संलिप्त पाए जाने वाले तत्त्वों से कोई भी माई का लाल रिश्ता होने को नहीं स्वीकारता. हां, पकड़े जाने पर या आरोप सिद्ध हो जाने पर, दुनिया की मानो सारी बीमारियां अवश्य ही उन्हें आ कर घेर लेती हैं, ताकि टैस्ट के नाम पर फाइव स्टार अस्पतालों में उन्हें इलाज के लिए शिफ्ट कर दिया जाए. क्योंकि तब तेल की या जेल की रोटी उन के गले में हड्डी जो बन जाती है.

 टी सी डी गाडेगावलिया (नई दिल्ली)

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‘रेल घूस कांड : बिकाऊ कुरसी के बिचौलिए रिश्तेदार’ लेख पढ़ कर ज्यादा दुख नहीं हुआ. कारण, अपने देश में एकआध को छोड़ कर शायद ही कोई नेता ऐसा होगा जिस के पास देखते ही देखते करोड़ों की संपत्ति एकत्र नहीं हो गई हो. कैसे? यही लेख में बताया गया है. दूसरे शब्दों में कहें तो लेख में जनता की आंखें खोलने के साथ उन्हें सावधान भी किया गया है कि अब समय आ गया है कि वह जाति, धर्म और आरक्षण की नीति से ऊपर उठ कर सही व्यक्ति (ईमानदार) को चुने ताकि देश को रेल घूस कांड जैसे कांडों का सामना भविष्य में न करना पड़े. इस से देश तो आर्थिक रूप से खोखला होता ही है, जनता का मनोबल भी गिरता है. दूसरी ओर इस प्रकार के नौकरशाह त्यागपत्र देने से इनकार भी करते हैं.

 कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)

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एक मानव तो दूसरा दानव

जून (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘ढहा भाजपा का किला’ पढ़ा. सर्वविदित है कि भारत भिन्नभिन्न जातियों, धर्मों व समुदायों का देश है जिस की आत्मा धर्मनिरपेक्षता व नीति वसुधैव कुटुंबकम् है. उस देश में राजनीतिक लाभ के लिए धार्मिक भावनाएं भड़काना अत्यंत घृणित कार्य है, जिस की जितनी भी निंदा की जाए कम है.

वर्ष 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव के मद्देनजर प्रधानमंत्री पद को ले कर कांगे्रस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की दावेदारी के चर्चे व तुलना की जहां तक बात है तो एक त्यागीबलिदानी नेहरूगांधी परिवार का उत्तराधिकारी है तो दूसरा सांप्रदायिक हिंसा का जिम्मेदार.

दोनों की सोच का पता इस से भी चलता है कि सीआईआई के सम्मेलन के दौरान मीडिया द्वारा चीन की चर्चा किए जाने पर राहुल गांधी ने कहा कि हमें अपनी ताकत बढ़ानी होगी. भारत मधुमक्खी का छत्ता है. भारत को मधुमक्खी का छत्ता कहे जाने पर नरेंद्र मोदी ने राहुल गांधी की कड़ी आलोचना की जबकि राहुल गांधी का आशय था कि जिस प्रकार मधुमक्खी का छत्ता छेड़ने पर छेड़ने वालों के ऊपर मधुमक्खियां टूट पड़ती हैं उसी प्रकार भिन्नभिन्न जाति, धर्म व समुदाय वाले भारत की जनता  को छेड़ने वालों पर टूट पड़ेंगे.

पार्टी उपाध्यक्ष बनने के बाद लोकसभा का क्वार्टर फाइनल मुकाबला माने जाने वाले कर्नाटक विधानसभा चुनाव परिणाम ने राहुल गांधी के कद को ऊंचा कर दिया है. पार्टी को मिली बड़ी जीत की खासीयत रही कि स्टार प्रचारक के रूप में राहुल गांधी ने जिन उम्मीदवारों के लिए वोट मांगा, अधिकांश चुनाव जीत गए. वहीं, भाजपा को मिली करारी शिकस्त ने नरेंद्र मोदी को खलनायक बना दिया. स्टार प्रचारक के रूप में नरेंद्र मोदी ने जिन उम्मीदवारों के लिए वोट मांगा, अधिकांश चुनाव हार गए. इस से यह भी साबित हो गया कि नरेंद्र मोदी का असर गुजरात के बाहर नहीं है.

 कृष्ण कांत तिवारी, भोजपुर (बिहार)

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परिवर्तन की जरूरत

आम चुनाव और देश की दशादिशा का चोलीदामन का साथ है. लेकिन विकास और गति की बात छोड़ नरेंद्र मोदी, भाजपा और हिंदुत्व का बवंडर खड़ा किया जा रहा है. हमें यह बारबार बताया जा रहा है कि कट्टर हिंदुत्व देश के लिए बड़ा खतरा है. हिंदूवादी होना या हिंदुओं की बात करने का मतलब नरेंद्र मोदी और भाजपा है.

ऐसे में तो फिर कांगे्रस को संविधान में परिवर्तन कर के किसी मुसलिम को प्रधानमंत्री बनने का रास्ता साफ कर देना चाहिए, तभी वह सच्ची मुसलिम हितैषी मानी जाएगी.

 सत्यम सिंह चौहान, जोलारपेट्टै (तमिल.)

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क्या होगा इस समाज का

आतंकवाद से भी बढ़ कर रेप के आतंक से शर्मसार होती इंसानियत के चलते देश कलंकित महसूस कर रहा है. अरे, बच्चियों के साथ कू्ररतापूर्वक दुष्कर्म करने के बाद उन की हत्या कर देना, राह चलती महिलाओं को दबोच कर उन के साथ गैंगरेप करना और उन्हें नोचनोच कर जख्मी करना या फिर उन्हें जान से ही मार देना, ये सब क्या हो रहा है. 

मई (द्वितीय) अंक में प्रकाशित ‘फेसबुक बन गई सैक्स बुक’ लेख में इंटरनैट और फेसबुक में अश्लील सामग्री परोसना इस की वजह बताई गई है. इंसान का आत्मनियंत्रण शायद कहीं खो सा रहा है. यही वजह है कि समाज में अपराध पनप रहे हैं. क्या इंसान इस दुश्चक्र को दफन कर पाएगा? जवाब है, शायद नहीं. तब फिर समाज का क्या होगा?

 राधाकृष्ण सहारिया, जबलपुर (म.प्र.)

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रोचक कहानी

अप्रैल (द्वितीय) अंकों में प्रकाशित कहानी ‘काश ऐसा हो पाता’ को एक नजरिए से एक सर्वोत्कृष्ट कहानी मानना चाहिए, ऐसा मेरा मानना है. सब से  मार्के की बात यह है कि कहानी की पृष्ठभूमि में चीन-भारत का एक सीमावर्ती क्षेत्र नाथूला है जहां हमारे सैनिक सीमा की सुरक्षा में तैनात हैं. वे हर प्रकार का मौसमी प्रहार सहते हैं और दुश्मनों के आक्रमण का सामना करते हैं. कहानी के पात्र सुधाकर और सुमन के परिवार की पुरानी दुश्मनी की दरार मिटाने में दोनों के बीच दिलोजान का प्यार सेतु का काम करता है.

इसी तरह भारत और चीन के बीच उपजी शत्रुता की दीवार को तोड़ने की खातिर देश के कई ज्ञानीगुणी नेता और देश के चिंतक निरंतर आगे बढ़ रहे हैं. कहानी में कथाकार ने उस सिल्क रूट की चर्चा की है जिस से हो कर भारत और चीन के बीच व्यापार चलता था और ह्वेनसांग व फाहियान जैसे विद्वान भारत आए थे और हमारी सामाजिक, सांस्कृतिक, प्रशासनिक, आर्थिक, नैतिक व्यवस्था और परंपराओं के ज्ञान को चीन ले गए थे.

एक ओर वही देश आज हरेक क्षेत्र में संपन्न हो कर अकसर दुश्मन का चरित्र दिखाता है दूसरी ओर हमारे देश के बाजारों और?घरों में वहां की बनी चीजें काम में लाई जाती हैं, जिस के कारण हमारे देश का अर्थतंत्र थोड़ा तो अवश्य कमजोर हो रहा है.

हिमालय की गोद में बसे सिक्किम राज्य के पहाड़ी इलाकों का अलौकिक प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन कर के लेखक ने कहानी में सौंदर्य की जान डाल दी है और देश की प्राकृतिक संपदा का अपूर्व परिचय दिया है, जिस की जितनी भी प्रशंसा की जाए, कम होगी. कहानीकार ने दो परिवारों के बीच की शत्रुता को समूल मिटाने के उद्देश्य से सुधाकर और सुमन के प्यार को हथियार बनाया और दोनों के पिताओं को मिलाया, वाकई यह बहुत ही सुखद है.

 बिर्ख खडका डुवर्सेली, दार्जिलिंग (प.बं.)

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आडंबर से बचना चाहिए

मई (प्रथम) अंक में प्रकाशित लेख ‘तथाकथित ब्रह्मज्ञानी रजनीश का भ्रमजाल’ और ‘सच से मुकरता जैन धर्म’ सटीक हैं. धार्मिक आडंबरों से ऊपर उठ कर रचनात्मक कार्य होने चाहिए ताकि असहायों का भला हो सके. पढ़ेलिखे लोगों को भी आडंबर से बचना चाहिए. सभी को धर्म व विज्ञान को जोड़ कर देखना चाहिए. कृपया आप भी धर्म और विज्ञान को मिला कर कोई लेख प्रकाशित करें. यह एक नई विचारधारा होगी. मैं अपनी भावना इन शब्दों में व्यक्त कर रही हूं :

धर्मगुरु और साधुसंत

सभी भक्तगण सोचें

विज्ञान के बिना सबकुछ असंभव

चल नहीं सकते एक भी कदम

इसलिए थोड़ा पढ़ कर देखें विज्ञान

क्या होते हैं न्यूट्रौन और प्रोटौन

क्या कह गए न्यूटन और डार्विन

क्याक्या कर गए आइंस्टीन

एकांत में सुनें अपने दिल की बात

क्यों और कैसे होता है हृदयाघात

अगर न होता दिल का औपरेशन

तो रुक जाता कइयों का प्रमोशन

हर क्षण होती रहती है रासायनिक क्रिया

हमारे कर्मों की भी होती क्रियाप्रतिक्रिया

कर्म में छिपा हुआ है विज्ञान

विज्ञान का सही उपयोग है कर्म

दोनों मिल जाएं तो हो जाए

वसुधैव कुटुंबकम्

न होते हिग्जबोसान (गौड पार्टिकल)

तो न तुम होते, न हम.

  सरिता जैन, देवास (म.प्र.)

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भावनाएं

जून (प्रथम) अंक में  लेख ‘दशरथ का धर्म राज’ लेख पढ़ कर लगा कि जिस प्रकार से देश में आतंकवादी व नक्सलवादियों द्वारा भय का वातावरण बनाया जा रहा है उसी तरह कुछ असामाजिक तत्त्व लेखक के रूप में सरिता पत्रिका में प्रवेश कर करोड़ों हिंदुओं की भावनाओं से खिलवाड़ कर भय पैदा कर रहे हैं. लेखक ने इस लेख में देश के महान राजा दशरथ की तुलना सुरेश कलमाड़ी, ए राजा, गोपाल कांडा, नारायण दत्त तिवारी, बंगारू लक्ष्मण से कर अपने दिमाग का दिवालियापन ही दर्शाया है. ‘सरबजीत शहीद या भटका नशेबाज’ लेख में सरबजीत सिंह की निंदा की गई है. सरदार गुरुदीप सिंह के कथन को ही सही मान कर सरबजीत को भटका हुआ नशेबाज मानना न्यायसंगत नहीं है.

 जगदीश प्रसाद पालड़ी ‘शर्मा’, जयपुर (राज.) 

बिकनी से तौबा

सैक्सी पूजा गुप्ता ने ‘बिकनी’ को ‘न’ कह दिया है. उन्होंने कहा कि फिल्म ‘शौर्टकट रोमियो’ के बाद वे किसी भी फिल्म में बिकनी नहीं पहनेंगी. इस से पहले ‘फालतू’, ‘गो गोआ गौन’ में भी उन्होंने बिकनी पहनी थी. वे कहती हैं कि अब वे न तो बिकनी वाली किसी स्क्रिप्ट को देखेंगी और न ही उस फिल्म में काम करेंगी. इतना ही नहीं, वे अब गोआ और मौरिशस में शूट भी नहीं करेंगी. देखना यह है कि पूजा गुप्ता अपने फैसले पर कब तक टिकी रहती हैं क्योंकि फिल्मों में काम पाने के लिए निर्देशक के निर्देश को तो मानना ही पड़ता है.

बिपाशा के प्रशंसक

निर्मातानिर्देशक विक्रम भट्ट ने थ्रीडी और ईएफऐक्स से युक्त फिल्म ‘क्रिएचर’ बनाई है, जिस में उन्होंने अपनी पसंदीदा हीरोइन बिपाशा बसु को शामिल किया है और अब वे बिपाशा की तारीफ करते नहीं थक रहे हैं. वे कहते हैं, ‘‘बिपाशा बसु एक बहादुर लड़की है. वह आज जिस मुकाम पर है वहां तक अपनी अभिनय क्षमता की बदौलत पहुंची है. वह कभी किसी पुरुष कलाकार पर निर्भर नहीं रही.’’  बिपाशाजी, आप पर अभिनेता ही नहीं, निर्मातानिर्देशक भी फिदा हैं लेकिन बात तो तब बनेगी जब आप इसी तरह लगातार अपने फैंस को खुश करती रहेंगी.

सोनाक्षी की साड़ियां

इन दिनों सोनाक्षी सिन्हा की चर्चा विक्रम मोटावणे की फिल्म ‘लुटेरा’ के एक गीत ‘संवार लूं’ को ले कर हो रही है. इस गीत में दर्शक सोनाक्षी सिन्हा को 9 अलगअलग हैंडलूम की साडि़यां पहने हुए देख सकेंगे. मजेदार बात यह है कि इन साडि़यों को खुद सोनाक्षी सिन्हा ने पसंद कर के खरीदवाया. सोनाक्षीजी, आप खूब साडि़यां पहनिए आप की मरजी, दर्शक आप को साड़ी में कितना पसंद करते हैं, यह वे ही बताएंगे जब लुटेरा रिलीज होगी.

सर्जरी के मारे शाहरुख

हाल ही में मुंबई के लीलावती अस्पताल में कंधे की सर्जरी करवाने के बाद शाहरुख खान अब तक 11 बार अपने शरीर के विभिन्न अंगों की सर्जरी करवा चुके हैं. ये सर्जरी उन्हें कभी न कभी और कहीं न कहीं सैट पर ऐक्शन शौट देने के दौरान लगी चोटों के कारण करवानी पड़ी हैं. शाहरुख अब तक घुटने, कंधे, रीढ़ की हड्डी आदि कई नाजुक जगहों पर कईकई बार सर्जरी करवा चुके हैं. ऐसे में अगर कभी शाहरुख यह कह दें कि उन को अब आराम की जरूरत है तो हैरानी न होगी. लेकिन हम तो यही कहेंगे कि आप चाहे जितनी सर्जरी करवाएं मगर परदे पर बने रहें.

खुशमिजाज आलिया

महेश भट्ट की बेटी व अभिनेत्री आलिया भट्ट जब से इम्तियाज अली की फिल्म ‘हाईवे’ की शूटिंग कश्मीर के अरू वैली क्षेत्र में कर के वापस लौटी हैं तब से वे इस फिल्म को अपने कैरियर की खास फिल्म बताती नहीं थक रही हैं. वे कहती हैं कि उन्होंने कश्मीर में शूटिंग करते हुए स्वप्नलोक में पहुंचने का आनंद पा लिया. आलियाजी, आप खुश हो लें लेकिन महज कश्मीर की वादियां किसी फिल्म को हिट नहीं करातीं.

…देखती हूं मैं

अपनी आंखों से सोचती हूं मैं

और पोरों से देखती हूं मैं

जो भी हालत है मेरे अंदर की

सब से बेहतर जानती हूं मैं

 

इक अजब टूटफूट जारी है

अंदर ही अंदर मर रही हूं मैं

रातभर जागने में सोती हूं मैं

और सोते में जागती हूं मैं

 

इतनी वहशत है अपने होने से

अपनेआप से भागती हूं मैं

मेरा हो कर भी जो नहीं मेरा

दिलोजान उस पे वारती हूं मैं

 

कोई बस भी मेरा नहीं चलता

लाख इस दिल को टोकती हूं मैं

गरचे नाबीना (अंधा) ही सही ऐ गुल

दिल को आंखों से देखती हूं मैं.

-गुलनाज

बच्चों की परवरिश में न बरतें लापरवाही

बढ़ती महंगाई के चलते शहरी तो दूर देहाती इलाकों के लोग भी कमानेखाने में इतने मसरूफ हो चले हैं कि हर कोई कम से कम बच्चे पैदा कर रहा है. लोगों में परिवार नियोजन के प्रति जागरूकता भी आ रही है कि इस से नुकसान तो कोई नहीं पर फायदे कई हैं.

यह बदलाव का वह दौर है जिस में गांवदेहात से बड़ी तादाद में बेहतर जिंदगी और सहूलियतों के लिए लोग शहर की तरफ भाग रहे हैं. इस भागमभाग से किसे क्या हासिल होता है, यह दीगर बात है. पर एक अच्छी बात इस में यह है कि छोटे और गरीब तबके के लोग भी बच्चों की अहमियत सम?ाते हुए उन्हें बेहतर तालीम दिलाने के लिए जीजान से कोशिश करते हैं और परवरिश पर भी खूब ध्यान देते हैं.

परेशानी उन लोगों को उठानी पड़ रही है जिन की महीने की आमदनी मात्र 5-6 हजार रुपए के आसपास है. यह तबका शहरी आबादी का तकरीबन 40 फीसदी है. गृहस्थी चलाने और बच्चे पालने के लिए मियांबीवी दोनों को हाड़तोड़ मेहनत करनी पड़ती है तब कहीं जा कर उन का गुजारा हो पाता है. जैसेजैसे इन के बच्चे बड़े होते हैं वैसेवैसे खर्चे भी बढ़ने लगते हैं.

इन गरीब बच्चों की बदहाली कभी किसी सुबूत की मुहताज नहीं रही. इन में और अमीर बच्चों में एकलौती समानता यह है कि दोनों के मांबाप दिन में घर पर नहीं रहते. काम या नौकरी पर चले जाते हैं. अमीर तो बच्चों की देखभाल के लिए नौकर रख लेते हैं पर गरीब नहीं रख पाते. लिहाजा, उन के बच्चे प्रकृति के भरोसे पलते हैं और यह भरोसा अकसर महंगा साबित होता है जिस में बच्चों का कोई कुसूर नहीं होता.

बच्चों, खासतौर से बच्चियों की हिफाजत को ले कर देशभर में बवाल मचा हुआ है. उन के साथ अपराध बढ़ रहे हैं जिस को ले कर देशभर में जगहजगह विरोध दर्ज हो रहा है, धरनेप्रदर्शन हो रहे हैं और समाज के जागरूक लोग चिंतित भी हैं.

एक हादसा, कई सबक

किसी का ध्यान इस तरफ नहीं जा रहा है कि मांबाप भी बच्चों की तरफ से इतने लापरवा हो चले हैं कि कई दफा बच्चों की जान पर बन आती है और देखनेसुनने व भुगतने वाले तक इसे एक हादसा समझ कर अहम गलती ढंक लेते हैं.

एक दुखद हादसा भोपाल के कोटरा सुल्तानाबाद इलाके की गंगानगर बस्ती की 3 बच्चियों की 25 अप्रैल को हुई मौतों का है. 7 वर्षीय शालिनी उर्फ शालू, पिता टिंकू जगत, 7 वर्षीय सुभाषिनी, पिता संन्यासी धुर्वे और 9 वर्षीय कमला, पिता किशोर नेताम अपने घर वालों के साथ नेहरूनगर इलाके गई थीं जहां एक सरकारी योजना के तहत बन रहे मकान इन्हें मिलने थे. इन के साथ इन की 2 और सहेलियां, रेशमा और निर्जला भी थीं. साथ आए लोग तो मिलने वाले घर को देख आने वाले कल के सुनहरे ख्वाबों में डूब गए कि उन्हें जल्द पक्का मकान मिल जाएगा जिस में सारी सुविधाएं होंगी पर पांचों बच्चियां खेलतेबतियाते नजदीक ही कलियासोत बांध पहुंच गईं. गंगानगर बस्ती के बाशिंदों की मानें तो ये पांचों पक्की सहेलियां थीं और एकसाथ खेलती व उठतीबैठती थीं.

बांध के पास पहुंचते ही इन पांचों की इच्छा पानी में खेलने की हुई और एकाएक ही शालिनी का पैर फिसल गया. वह डूबने लगी. चिल्लाने पर कमला उसे बचाने दौड़ी, उस ने शालिनी के बाल पकड़ उसे खींचने की कोशिश की पर खुद भी पानी में डूब गई. दोनों को डूबता देख घबराई सुहासिनी भी उन्हें बचाने पहुंची और डगमगा गई. नतीजतन, देखते ही देखते तीनों पानी में डूब कर मर गईं.

रेशमा और निर्जला ने बजाय डूबती सहेलियों को बचाने के ओर दौड़़ लगाई और लोगों को हादसे के बारे में बताया. लोग आए लेकिन जब तक तीनों बच्चियां डूब चुकी थीं. खबर आग की तरह भोपाल में फैली और गंगानगर बस्ती तो देखते ही देखते मातम में डूब गई. आलम यह था कि 3 नन्ही बच्चियों की अकाल मौत पर हर कोई रो रहा था. कमला की मां लीला सदमे में आ कर बारबार चिल्ला रही थी कि मेरे कलेजे के टुकड़े को वापस ला दो, मैं उस के बगैर जी नहीं पाऊंगी. रोतेरोते वह बेहोश हो कर गिर पड़ी. यही हाल बाकी दोनों बच्चियों की मां का भी था.

पुलिस वालों ने जैसेतैसे तीनों की लाशें बरामद कीं और उन का अंतिम संस्कार कर दिया गया. तीनों बच्चियों के मांबाप इतने गरीब थे कि उन के पास बेटियों के कफन के लिए पैसे नहीं थे. चंदा इकट्ठा कर उन का अंतिम संस्कार किया गया.

पुलिस वाले उस वक्त दिक्कत में पड़ गए जब तीनों के घर वाले पोस्टमार्टम न होने देने पर अड़ गए. बहुत सम?ानेबु?ाने और राहत मिलने का वादा किया गया तब कहीं जा कर लाशों का पोस्टमार्टम हो पाया.

हादसा बेशक दुखद है लेकिन इस में मांबाप की लापरवाही साफ दिख रही है. इन्हें मालूम था कि नेहरूनगर के पास ही गहरा कलियासोत बांध है जिस में आएदिन लोग डूब कर मर जाते हैं फिर भी उन्होंने बच्चियों पर ध्यान नहीं दिया.

बच्चों की परवरिश से ताल्लुक रखता लापरवाही का यह पहला मौका नहीं था. भोपाल समेत देशभर में आएदिन ऐसे हादसे होते रहते हैं. कहीं बच्चा करंट लगने से मर जाता है तो कहीं खेलतेखेलते गड्ढे में गिर कर मर जाता है. मौत के बाद दुखी मांबाप अपना गम भुला कर फिर कमानेखाने में लग जाते हैं पर कोई ऐसे हादसों से यह सबक नहीं सीखता कि बच्चों की हिफाजत उन का फर्ज है. किसी भी तरह की लापरवाही जानलेवा साबित हो सकती है.

ऐसे हादसों की बढ़ती तादाद देख जरूरी यह लगने लगा है कि मांबाप को भी इस बात का एहसास कराया जाए कि हादसों में बच्चों की मौत पर उन्हें बख्शा नहीं जाएगा.

बात कहने, सुनने, सम?ाने में कड़वी जरूर है पर है मांबाप के भले की जो बड़े अरमानों से औलादों को पालते हैं, उन के भविष्य के सपने देखते हैं और उन्हीं के लिए मेहनत से पैसा कमाते हैं. पर जब बच्चे ही नहीं रहेंगे तो इस से फायदा क्या?

बात अमीरी और गरीबी की नहीं बल्कि बच्चों की जिंदगी की है जिस की भरपाई पैसे या सरकारी इमदाद से पूरी नहीं हो सकती. बात बच्चों के जीने के हक की भी है जिस की जिम्मेदारी आखिरकार बनती तो मांबाप की ही है. लापरवाही या अनदेखी अगर यह हक छीनती है तो उस से कब तक मुंह मोड़े रखा जाएगा. पैसा एक बड़ी कमी है पर एहतियात बरतने में तो कुछ खर्च नहीं होता.

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