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सहेली की सीख- प्रज्ञा पल्लवी की मां को देखकर क्या सोच रही थी?

पल्लवी और प्रज्ञा की कुछ दिन पहले ही मित्रता हुई थी. एक दिन स्कूल से घर लौटते समय प्रज्ञा ने पल्लवी को अपने घर चलने के लिए कहा तो पल्लवी अपनी असमर्थता जताती हुई बोली, ‘‘नहीं, आज नहीं. मैं फिर किसी दिन आऊंगी.’’

‘‘आज क्यों नहीं? तुम्हें आज ही चलना होगा,’’ प्रज्ञा जिद करती हुई आगे बोली, ‘‘हमारे गराज में आज सुबह ही क्रोकोडायल ने 3 बच्चे दिए हैं.’’ क्रोकोडायल प्रज्ञा की पालतू पामेरियन कुतिया का नाम था.

‘‘2 सुंदरसुंदर सफेद और एक काला चितकबरा है,’’ प्रज्ञा हाथों को नचाते हुए पिल्लों की सुंदरता का वर्णन करने लगी.

‘‘अच्छा, तब तो मैं उन्हें देखने कल जरूर आऊंगी.’’

‘‘जरूर आओगी न?’’

‘‘वादा रहा,’’ कहती हुई पल्लवी अपने घर की ओर जाने वाली गली में मुड़ गई. दूसरे दिन शाम को पल्लवी प्रज्ञा के घर पहुंची. पल्लवी का हाथ पकड़ कर लगभग खींचते हुए प्रज्ञा उसे अपने गराज की ओर ले गई, ‘‘देखो, हैं न सुंदरसुंदर पिल्ले? बताओ इन का क्या नाम रखें?’’ अपनी सहेली की ओर देखती हुई प्रज्ञा ने अपनी गोलगोल आंखें मटकाते हुए पूछा.

‘‘आहा, इतने सुंदर पिल्ले? नाम भी इन के इतने ही सुंदर होने चाहिए,’’ कुछ सोचती हुई पल्लवी काले चितकबरे  पिल्ले की ओर इशारा करती हुई बोली, ‘‘इस का नाम ‘ब्राउनी’ ठीक रहेगा.’’

‘‘हां, बिलकुल ठीक. इन दोनों का नाम ‘व्हाइटी’ और ‘ब्राउनी’ रख लेते हैं.’’ दोनों सहेलियां पिल्लों को प्यार करने में मग्न थीं. पल्लवी सफेद पिल्ले ‘व्हाइटी’ को गोद में उठा कर पुचकार रही थी कि व्हाइटी झट से अपनी मां की ओर कूद गया और चपरचपर अपनी मां का दूध पीने लगा. यह देख प्रज्ञा पिल्ले की पीठ सहलाती हुई कहने लगी, ‘‘भूख लगी है तुझे व्हाइटी? ठीक है, जा दूध पी ले अपनी मां का.’’ इतने में प्रज्ञा को मां ने आवाज दी पर प्रज्ञा ने सुन कर भी अनसुना कर दिया. यह देख पल्लवी बोली, ‘‘प्रज्ञा, तुम्हें तुम्हारी मां पुकार रही हैं.’’

‘‘पुकारने दो, मां की तो आदत है,’’ लापरवाही से कंधे उचकाती हुई प्रज्ञा बोली और दोबारा पिल्लों से खेलने लगी. फिर मां की आवाज सुनाई दी तो पल्लवी बोली, ‘‘प्रज्ञा, तुम्हारी मां नाराज हो जाएंगी.’’

‘‘होने दो, मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता. मां तो हर बात पर नाराज होती हैं.’’ प्रज्ञा की यह हरकत पल्लवी को बिलकुल अच्छी नहीं लगी.

‘‘अच्छा, अब मैं चलती हूं,’’ कहती हुई पल्लवी उठ खड़ी हुई.

‘‘रुको न, हम थोड़ी देर और पिल्लों से खेलेंगे.’’

‘‘नहींनहीं, मेरी मां मेरा इंतजार कर रही होंगी,’’ कहती हुई पल्लवी फाटक खोल कर बाहर निकल गई. दूसरे दिन स्कूल में प्रज्ञा का पैन पल्लवी के पास रह गया था. घर आ कर प्रज्ञा जब स्कूल का काम करने लगी तो उसे पैन की याद आई. वह तुरंत पल्लवी के घर पहुंची. उस समय पल्लवी पलंग पर बैठी धुले हुए सूखे कपड़ों की तह बना कर समेट रही थी.

‘‘आओ प्रज्ञा,’’ प्रज्ञा को देख पल्लवी ने कहा और प्रज्ञा का परिचय अपनी मां से कराया. पल्लवी की मां खुश होते हुए बोलीं, ‘‘बैठो बेटी, मैं अभी तुम्हारे लिए आइसक्रीम ले कर आती हूं.’’ प्रज्ञा को आइसक्रीम बहुत पसंद थी. वह मन ही मन खुश होती हुई सोच रही थी कि पल्लवी की मां कितनी अच्छी हैं. वह पल्लवी की मां और अपनी मां की तुलना करने लगी, ‘कभी कोई सहेली आ जाती है, तब भी मेरी मां खयाल नहीं करतीं और ऊपर से किसी न किसी काम के लिए पुकारती रहती हैं.’ प्रज्ञा को पल्लवी के यहां बहुत अच्छा लगा. उस के बाद वह अकसर पल्लवी के यहां जाने लगी. वह देखती पल्लवी कभी रसोई में रखे गीले बरतनों को पोंछ कर रख रही है तो कभी फर्श पर पोंछा लगा रही है. उस के आते ही वह झट से उस के साथ खेलने लग जाती पर पल्लवी की मां कभी पल्लवी को बीच में नहीं पुकारतीं और ऊपर से वे हमेशा कुछ न कुछ खाने को भी देतीं.

एक दिन तो उस के आश्चर्य की हद हो गई. उस दिन टीवी पर एक बढि़या फिल्म आ रही थी और पल्लवी मां के साथ आलू के चिप्स सुखाने में मग्न थी. ‘‘उफ, कितना उबाऊ काम करती हो तुम?’’ प्रज्ञा पल्लवी के कानोें के पास मुंह ले जा कर फुसफुसाती हुई बोली, ‘‘चलो, टीवी देखते हैं.’’ ‘‘नहीं, अभी बहुत चिप्स बाकी हैं, जाओ तुम देखो.’’

‘‘चलो न, छोड़ो. यह काम तो मां कर ही लेंगी.’’

‘‘मां अकेली क्याक्या करें? थक जाती हैं. फिर वे ये सब बनाती भी तो हमारे लिए ही हैं,’’ पल्लवी चिप्स सुखाती हुई बोली. विवश हो कर प्रज्ञा भी पल्लवी के साथ चिप्स सुखाने लगी. दोनों के इकट्ठे काम करने से काम जल्दी खत्म हो गया. पल्लवी की मां दोनों को अंदर बैठक में बैठाती हुई बोलीं, ‘‘क्या खाओगी बेटी?’’ ‘‘मां, बड़ी जोर से भूख लगी है,’’ पल्लवी ने कहा तो उस की मां उस के सिर पर स्नेह से हाथ फेरते व पुचकारते हुए बोलीं, ‘‘मैं अभी तुम्हारे लिए बिस्कुट व नमकीन लाती हूं.’’

प्रज्ञा को उदास देख पल्लवी ने पूछा, ‘‘बुरा मान गई?’’

‘‘नहीं,’’ गरदन हिलाते हुए प्रज्ञा बोली, ‘‘तुम्हारी मां बहुत अच्छी हैं.’’

‘‘मां तो सब की अच्छी होती हैं.’’

प्रज्ञा कुछ नहीं बोली. वह उदास सी चुपचाप बैठी रही. बिस्कुट खाते समय भी वह बहुत गंभीर रही. अपने घर लौटते समय वह मन ही मन सोच रही थी कि मेरी मां तो बहुत चिड़चिड़ी हैं. जराजरा सी बात पर डांटने लगती हैं और पल्लवी की मां उस का कितना खयाल रखती हैं. यह सोच कर प्रज्ञा बहुत दुखी हो गई. ऐसा लग रहा था जैसे अभी उस की रुलाई फूट पड़ेगी. घर पहुंचते ही प्रज्ञा से उस की मां ने कहा, ‘‘देखो प्रज्ञा, कल स्कूल से आ कर तुम ने अपनी स्कूल ड्रैस भी धोने के लिए नहीं रखी. यहां तक कि तुम्हारा बस्ता भी अभी तक डाइनिंग टेबल की कुरसी पर पड़ा है.’’ प्रज्ञा की मां प्रज्ञा से और भी बहुत कुछ कह रही थीं किंतु उसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था. वह चुपचाप बुझेबुझे कदमों से अपना बस्ता उठा कर अपने कमरे में चली गई. ‘क्या खाओगी बेटी,’ पल्लवी की मां की आवाज उस के कानों में बारबार गूंज रही थी. वह दुखी मन से वहीं पलंग पर भूखी ही लेट गई.

शाम को जब पल्लवी पिल्लों के साथ खेलने के लिए प्रज्ञा के घर पहुंची तो प्रज्ञा को उदास पाया.

‘‘क्या बात है प्रज्ञा? आज तुम सुबह से ही उदास हो?’’

प्रज्ञा कुछ नहीं बोली.

‘‘बताओ न क्या बात हुई? क्या मुझ से नाराज हो?’’

‘‘नहीं.’’

‘‘सब की मांएं अपने बच्चों को प्यार करती हैं. एक मेरी मां हैं जो बस हर समय डांटती ही रहती हैं.’’ प्रज्ञा के मुंह से यह बात सुन कर आश्चर्यचकित पल्लवी बोली, ‘‘कैसी बातें करती हो प्रज्ञा? तुम्हारी मां तो इतनी बड़ी लेखिका हैं. तुम्हें तो अपनी मां पर गर्व होना चाहिए?’’ ‘‘होंगी बड़ी लेखिका,’’ मुंह बिचकाती हुई प्रज्ञा बोली, ‘‘बातबात पर डांटना, ऐसा क्यों कर दिया, वहां क्यों रख दिया, यह नहीं किया, वह नहीं किया…’’ कहतेकहते प्रज्ञा की बड़ीबड़ी आंखों से आंसू छलछला आए.

अपने नन्हेनन्हे हाथों से प्रज्ञा के आंसू पोंछती हुई पल्लवी बोली, ‘‘एक बात कहूं प्रज्ञा, बुरा तो नहीं मानोगी?’’

‘‘नहीं,’’ गरदन हिलाती प्रज्ञा आंखें पोंछती हुई बोली, ‘‘कहो, क्या कहना है तुम्हें?’’

पल्लवी बोली, ‘‘एक बात बताओ प्रज्ञा, तुम अपनी मां का कितना ध्यान रखती हो?’’

‘‘मां कोई छोटी बच्ची हैं जो मैं उन का ध्यान रखूं?’’ खीजती हुई प्रज्ञा बोली.

‘‘मेरे कहने का मतलब है कि मां जब तुम्हें कुछ कहती हैं तो तुम अनसुना कर देती हो. मां के काम बताते ही तुम मना कर देती हो. यदि तुम छोटेमोटे कामों में मां का सहयोग कर दो तो उन का काम काफी हलका हो जाएगा. मुझे देखो, मैं मां के बिना बताए ही काम कर देती हूं. मेरे छोटेमोटे काम कर देने से मां को बहुत राहत मिलती है. जब मां अकेली सारे घर का काम देखेंगी व अस्तव्यस्त सामान देखेंगी तो उन्हें समेटतेसमेटते स्वाभाविक रूप से गुस्सा तो आ ही जाएगा.’’ प्रज्ञा को मन ही मन अपनी गलती का एहसास हो रहा था. पल्लवी के जाने के बाद प्रज्ञा ने मन ही मन कुछ निश्चय किया.

सुबह प्रज्ञा मां के बिना उठाए ही उठ गई, यहां तक कि उस ने अपनी चादर भी समेट कर अलमारी में रख दी. प्रज्ञा को उठा देख कर मां ने दूध का गिलास मेज पर रख दिया था. हमेशा दूध के लिए नानुकुर करने वाली प्रज्ञा ने चुपचाप दूध पी लिया. खाली गिलास उठा कर रसोई में रखने चली गई व सिंक में रखे सभी प्यालेगिलासों को धोपोंछ कर ठीक से यथावत रख दिया. ‘‘क्या खाओगी बेटी, आज क्या बनाऊं?’’ प्रज्ञा की मां उस से पूछ रही थीं. प्रज्ञा ने कनखियों से मां का मुसकराता हुआ चेहरा देख लिया था. यह देख उसे बड़ी खुशी हुई. हमेशा शाम को स्कूल से लौट कर प्रज्ञा बस्ता पटक कर जूतेमोजे इधरउधर फेंक, बिना स्कूल ड्रैस बदले ही बाहर खेलने के लिए भाग जाती थी. मां आवाज देती रह जातीं किंतु वह सुनती कहां थी? उस दिन प्रज्ञा ने स्कूल से आ कर अपना सामान यथावत रखा. स्कूल की पोशाक बदली और हाथमुंह धो कर कमरे में झांक कर देखा तो पता चला कि मां कुछ लिखने में तल्लीन थीं. लिखते समय मां को तंग करने वाली प्रज्ञा उस दिन चुपचाप दबेपांव, रसोई की ओर मुड़ गई. देखा, सारी रसोई बिखरी पड़ी थी. ‘दिन में शायद मां से मिलने कुछ मेहमान आए होंगे,’ सोच कर प्रज्ञा ने सारा सामान समेट कर सफाई की व पूरी रसोई सुव्यवस्थित कर दी. बैठक से भी चायनाश्ते के बरतन उस ने बिना आवाज किए समेट दिए. यह सब करने के बाद वह खुद अपने हाथों से डब्बों में से केक व बिस्कुट निकाल कर प्लेट में रख कर चुपचाप खाने लगी. वहीं से वह मां को लिखते हुए देख रही थी. आज उसे पहली बार मां बहुत सुंदर लग रही थीं. पहली बार प्रज्ञा को यह सोच कर गर्व हो रहा था कि उस की मां बड़ी लेखिका हैं.

जब मां का लेखन कार्य पूरा हुआ तो वे कमरे से बाहर निकलीं. जब उन की नजरें पूरे घर में घूमीं तो उन्होंने खुशी के मारे प्रज्ञा को अपने सीने से लगा लिया, ‘‘ओह, मेरी बेटी अब समझदार हो गई है.’’ दूर बैठी क्रोकोडायल अपने पिल्लों को दूध पिला रही थी और बच्चे उस के ऊपर उछलकूद कर रहे थे. क्रोकोडायल पिल्लों को चाट रही थी. यह देख प्रज्ञा भी मां की बांहों में झूम उठी.

हिंदू औरतें विरासत में पिछड़ी

आज रश्मि से मुलाकात हुई तो उस की बातों ने झकझोर कर रख दिया. उस के भाई की पिछले साल दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. 2 बहनों का एकलौता भाई था. एक महीने के भीतर ही भाभी ने सब जमीनजायदाद अपने नाम लिखवा ली. मकान में भी ताला लगा दिया और खुद अपने पीहर के पास ही एक घर खरीद लिया. दोनों बहनों ने बात करने की कोशिश की, लेकिन उन को बेइज्जत कर के घर से निकाल दिया.

रश्मि के मातापिता कई साल पहले ही गुजर गए थे. छोटी बहन की तब तक शादी नहीं हुई थी. पिता की तेरहवीं के दिन भाई ने कोर्ट में ले जा कर दोनों बहनों से कोरे कागजों पर हस्ताक्षर करवा लिए थे. कारण बताया था कि पिता की जोड़ी हुई रकम बैंक से तब तक मिलेगी नहीं, जब तक कि तीनों बच्चों की लिखित सहमति नहीं होगी.

रिश्तेदारों ने भी भाई का ही साथ दिया था. बहनों ने भाई का सहयोग किया, लेकिन अब स्थिति ऐसी आ गई थी कि पिता के घर के दरवाजे उन के लिए बंद हो चुके थे. सुन कर बहुत धक्का सा लगा. सहेली होने के नाते मैं रश्मि की मदद करना चाहती थी, इसलिए कुछ और महिलाओं से बात करने की ठानी.

सरकार ने महिलाओं को उन का हक देने के लिए जो कानून बनाए हैं या संशोधन किए हैं, क्या उन से महिलाओं को उन का हक मिल रहा है या स्थिति और भी बिगड़ गई है?

पड़ोस में रहने वाली काव्या की शादी को एक साल ही हुआ था. उस ने बताया कि शादी से पहले ही उस के भाई ने पिता से कह कर उस का राजीनामा ले लिया था कि विवाह के पश्चात वह पिता की संपत्ति में कोई हिस्सा नहीं मांगेगी. मेरी जिज्ञासा और बढ़ रही थी.

महल्ले में पिछले ही महीने एक अंकल की मृत्यु हुई थी. उन की पत्नी पहले ही स्वर्ग सिधार चुकी थी. 2 ही बच्चे थे उन के. बहन ने अपना हिस्सा मांगा तो भाई ने बात करना ही बंद कर दिया.

बहन भी उच्च शिक्षा प्राप्त है. उस ने भाई के ऊपर कोर्ट में केस दर्ज किया और अपनी ससुराल का घर छोड़ कर पिता के ही घर में दूसरी मंजिल पर आ कर रहना शुरू कर दिया. केस चल रहा है. दोनों भाईबहनों की मुलाकात कोर्ट परिसर में ही होती है. बातचीत तो बिलकुल बंद है.

मध्यम वर्ग में लड़कियों को पिता की संपत्ति में अधिकार मिलने की यही जमीनी हकीकत है. अधिकार मिले या नहीं मिले, लेकिन रिश्ते तो बिगड़ ही गए हैं. जहां लड़कियां चुप हैं, वहां उन की स्थिति ऐसे मेहमानों जैसी है, जिन के आने से कोई खुश नहीं होता है, सिवा उन के मां बाप के. जो अपना अधिकार मांग रही हैं, उन्हें किसी का सहयोग मिलना तो दूर उलटे सब से अलगथलग रह कर जीवन बिताने पर मजबूर कर दिया जाता है. अपनों के विरुद्ध ही अदालत में जा कर लड़ाई लड़नी पड़ती है. कई बार तो मातापिता को भी बेटों का ही साथ देते हुए देखा जाता है, क्योंकि उन्हें उसी घर में रहना है. पीहर की संपत्ति का यह हाल है, तो क्या ससुराल में वो अपना अधिकार ले पा रही हैं? चलिए, पता करते हैं.

सौम्या अपनी बहनों में सब से ज्यादा पढ़ीलिखी है. शादी हुई तो 4 भाईबहनों के परिवार में आ गई. विवाह के समय सास ने अपने पुराने गहने पहनाए. सब को लगा कि उसे बहुत अच्छी तरह रखेंगे ससुराल वाले. पर, विवाह के तुरंत बाद छोटीमोटी बातों को ले कर लड़के को सुनाना शुरू कर दिया. पति दूसरे शहर में नौकरी करता था. पति ने उसे अपने साथ ले जाना ही उचित समझा.

अब स्थिति ऐसी है कि ससुर ने रिटायरमैंट के बाद जो मकान बनाया, वह भी बड़े लड़के के नाम से है. दोनों बहनों ने अपने ससुराल वालों से सब रिश्ते खत्म कर रखे हैं. परिवार सहित पिता के घर में ही आतीजाती हैं. उन के बच्चे भी अधिकतर वहीं रहते हैं. जो जेवर सास ने चढ़ाए थे, वे भी बैंक में रखने के नाम पर ले लिए गए और फिर वापस नहीं मिले हैं.

सौम्या के पति की नौकरी से ही उन के परिवार का पूरा खर्च चलता है. वह भी ट्यूशन पढ़ा कर थोड़ीबहुत सहायता कर रही है. घर में सब का यही कहना है कि छोटा लड़का अपनी पारिवारिक (मातापिता के प्रति) जिम्मेदारियां नहीं निभा रहा है. सौम्या समझ ही नहीं पाती है कि उन की क्या गलती है? क्यों उन के साथ यह सब किया जा रहा है?

ऐसा नहीं है कि जहां एक ही बेटा हो, वहां समस्या नहीं होती है. पति के साथ काम करने वाले एक लड़के की शादी मातापिता की मरजी से ही हुई. एकलौता लड़का है. बड़ी बहन की पहले ही शादी हो चुकी थी. शादी तक सब ठीक रहा. कुछ महीनों बाद ही मांबाप की बहू को ले कर शिकायतें शुरू हो गईं. ननद सर्विस करती है. उस की ससुराल भी उसी शहर में है. ननद अपनी बेटी को रोज सुबह ननिहाल में छोड़ती और फिर शाम को खाना खा कर, पति का खाना साथ ले कर वापस जाती.

बहू पहले तो सब चुपचाप करती रही, लेकिन गर्भ ठहर जाने के कारण उस की तबीयत खराब रहने लगी. मांबाप ने एकलौते बेटे को बहू के साथ घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया. पोते को देखने भी नहीं आए हैं. 2 साल का होने वाला है.

एक ही शहर में होने के कारण कभीकभार आपस में टकरा जाते हैं, लेकिन अनजान बन आगे बढ़ जाते हैं. अब लड़का दूसरे शहर में तबादले की कोशिश में जुटा हुआ है.

इन सब बातों को देखने पर लगता है कि मध्यम वर्ग न तो कानून के अनुसार ही चल रहा है और न ही रिश्तों को बिखरने से बचा पा रहा है. लड़कियों को न तो अपने पिता की संपत्ति में हक मिल रहा है और न ही ससुराल में उन का कोई हक है. पढ़ने में बुरा लग सकता है, लेकिन पढ़ीलिखी लड़कियां भी इस कानून के मोह में आ कर ससुराल वालों के साथ तालमेल बिठाना ही नहीं चाह रही हैं. अपने पीहर से उन की केवल औपचारिक विदाई हो रही है. वैसे, मांबाप के जीवित रहने तक वे वहीं रह रही हैं. उन के पति और बच्चे भी वहीं आनाजाना रखते हैं.

विभा की दोनों ननदें शादी के एक साल बाद ही ससुराल वालों से अलग हो गईं. उन की मां ने भी उन का पूरा साथ दिया. दोनों के ही पति प्राइवेट सैक्टर में कार्यरत हैं. सास ने ससुर से संपत्ति में अपना हक पूरा ले लिया और अब पूरी तरह मायके पर ही निर्भर हैं. उन के बच्चों के जन्मदिन से ले कर कालेज में एडमिशन तक की सारी जिम्मेदारी विभा के पति को ही निभानी पड़ती है. वे दुकान चलाते हैं, जिस पर ससुर भी साथ में बैठते हैं. पूरे साल उन का अनवरत आवागमन जारी रहता है, लेकिन उन के मातापिता में से कोई भी बीमार हो जाए या कोई और समस्या हो जाए, तो उन्हें समय निकालना मुश्किल हो जाता है.

ये केवल कुछ ही उदाहरण हैं, जो अलगअलग जगहों से लिए गए हैं. इन के अलावा भी अनेकों उदाहरण हैं, जिन में गृहक्लेश और घरेलू हिंसा का एक बड़ा कारण लड़की का विवाह के बाद भी अपने पीहर में बने रहना ही है.

इन सभी उदाहरणों में एक बात समान है कि किसी को भी मायके की संपत्ति में हिस्सा नहीं मिला है. बस तनावपूर्ण जीवन उन की नियति बन गया है.

यहां पर मैं यही कहना चाहती हूं कि सरकार कोई भी कानून बनाने से पहले यदि एक सर्वे करवाए तो बेहतर स्थिति हो सकती है. इक्कीदुक्की घटनाओं के अनुसार, कानून बनाने या उस में बदलाव करने से उचित परिणाम नहीं मिल सकते हैं.

कुछ परिवारों में आपसी सहमति से झगड़े सुलझ भी जाते हैं. रिंकी के ससुर का संपत्ति के नाम पर बस एक मकान ही था. पुराना और बड़ा मकान. रिंकी की ननद दूर दूसरे शहर में रहती थी. पिता के जाने के बाद उस ने अपना हक मांगा तो रिंकी के पति ने मकान का ऊपर वाला हिस्सा उन्हें दे दिया, लेकिन वो खुश नहीं थी. पिता को गए हुए सालभर भी नहीं हुआ था और मकान को बेचना पड़ा, क्योंकि उन्हें मकान की आधी कीमत चाहिए थी, मकान नहीं. मां ने अपनी बेटी का ही साथ दिया. मकान बिक गया. अब रिंकी एक बड़ा फ्लैट किराए पर ले कर रह रही है. उस की सास 6 महीने उन के साथ रहती है और 6 महीने बेटी के साथ.।भाईबहन का रिश्ता केवल मां के कारण चल रहा है.

भौतिकतावादी युग में वैसे भी रिश्तेनाते अपना महत्व खो चुके हैं. रहीसही कसर इन कानूनों ने पूरी कर दी है. अब लड़की पढ़ीलिखी है, खुल कर अपने अधिकार के बारे में बोल सकती है, लेकिन छीन नहीं सकती है. घर को बचाने के लिए या कहें कि दोनों घरों की इज्जत बचाने की चाह में वह अदालत का दरवाज़ा नहीं खटखटा पा रही है और क्लेशयुक्त जिंदगी एम जीने को मजबूर है.

कहना जरूरी समझती हूं कि बेटी को बाप की संपत्ति में हक देने के साथ ही यह भी अनिवार्य कर देना चाहिए कि विवाह के बाद दामाद ससुराल में ही रहे. तभी कानून व्यावहारिक रूप ले पाएगा या फिर मातापिता को बच्चों की गृहस्थी बसने से पहले अपनी वसीयत बना देनी चाहिए. लड़कियों को भी इस सच को नहीं नकारना चाहिए कि उन्हें मातापिता ने लड़कों के समान परवरिश दी है और किसी भी घर में दो लड़कों में भी संपत्ति का बंटवारा समान रूप से नहीं होता है. मांबाप का किसी बच्चे से अधिक लगाव अथवा किसी एक का घर में दबदबा भी बंटवारे पर प्रभाव डालता है.

कानून बनाने वालों को भी पुनः इस विषय पर विचार करने की आवश्यकता है. कहीं ऐसा तो नहीं कि लड़कियों को लड़कों के बराबर हक देने के चलते हम वृद्धाश्रम की नींव खुद ही रख रहे हैं. वही लड़की किसी घर की बहू भी है. अपने हक के चलते यदि वह पीहर से ही नाता रखेगी तो ससुराल वालों से कैसे निभाएगी? दूसरी ओर बहू से इतनी अपेक्षाएं होते हुए भी ससुराल में उसे हक नहीं दिया जाना भी उस के मायके के प्रति लगाव को बढ़ावा देता है.

अंत में मैं युवा लड़कियों से ही इस विषय पर सोचने के लिए आग्रह करूंगी, क्योंकि कानून उन के लिए ही बनाया गया है. भाई के बराबर संपत्ति में हक मांगिए, लेकिन जिम्मेदारी भी उस के बराबर बांटिए. जब मातापिता को सहारा देना है, तब आप भाई के बराबर खड़े रहिए तो बात बनेगी. हक आप लें और भाई की आलोचना करते रहें, दूसरी ओर मांबाप वृद्धाश्रम में रहें, यह स्थिति सुखद नहीं है.

तलाश : क्या मम्मीपापा के पसंद किए लड़के से शादी करेगी कविता?

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व्यंग्य : क्विटाक्विटी खेलें आओ

छुपाछुपी के खेल का जमाना लद गया. अब जमाना आ गया है क्विटाक्विटी हुआ का. वैसे भी फिजिकल से डिजिटल के युग में आ गए हैं हम. किस के पास समय है छुपाछुपी खेलने का? इस के लिए ज्यादा जगह चाहिए. क्विटाक्विटी डिजिटल खेल है और मोबाइल फोन से आसानी से खेला जा सकता है. मोबाइल फोन तो आजकल सर्वाधिक आवश्यक भी है और सर्वाधिक महत्वपूर्ण भी. दिलोदिमाग से भी कुछ ज्यादा.

क्विटाक्विटी को समझने के लिए एक वाकिए को जानना जरूरी है. हुआ यों कि किसी ‘फाइल’ को ले कर एक व्हाट्सएप ग्रुप में झड़प हो गई. सामान्य तौर पर व्हाट्सएप ग्रुप बनता है किसी और उद्देश्य के लिए और उस का प्रयोग होने लगता है किसी और उद्देश्य के लिए. मुख्यतः चुटकुले शेयर करने और गुड मौर्निंग, गुड ईवनिंग करने के लिए ये ग्रुप बनते हैं. सैल्फी ले कर अपलोड करना भी एक बहुत बड़े सामाजिक महत्व का काम है. ‘आए थे हरिभजन को ओटन लगे कपास’ सिर्फ व्हाट्सएप ग्रुप पर नहीं हर चीज पर लागू होता है.

उदाहरण के लिए, जनता सरकार चुनती है किसी और उदेश्य के लिए और सरकार काम करती है कुछ और. इसी प्रकार सरकार कर्मचारी का चयन करती है किसी और काम के लिए और चयनित होने के बाद कर्मचारी करने लगता है कुछ और ही काम.

आज के युग में ज्ञान का सर्जन हर मस्तिष्क में इतना अधिक होने लगता है और इस का कारण है हर स्थान पर ज्ञान की उपलब्धता. हर हाथ में मोबाइल है, हर मोबाइल में व्हाट्सएप, फेसबुक और इंस्टाग्राम सदृश ज्ञानकुंड, बल्कि ज्ञानसागर उपलब्ध है. ज्ञान के अत्यधिक मात्रा में सर्जन हर ओर फैले अनेकानेक माध्यमों पर उपलब्ध ज्ञान के कारण होता है. व्हाट्सएप, यूट्यूब आदि ओपन यूनिवर्सिटी का दायित्व बखूबी निभाते हैं. ऐसे और न जाने कितनी यूनिवर्सिटी हैं, जो हर स्मार्टफोन में उपलब्ध हैं. अब जब ज्ञान की इतनी प्राप्ति हो, तो उस के निष्कासन के लिए कोई तो स्थान चाहिए. और इस ज्ञान के उत्सर्जन के लिए सोशल मीडिया से बेहतर स्थान और क्या हो सकता है भला? जहां से कुछ प्राप्ति होती है, वहां कुछ देना भी जरूरी है.

कबीरदास का जमाना बीत चुका है और ‘बुरा जो देखन…’ का सिद्धांत तो उन के जमाने में ही अप्रचलित हो चुका था. आज तो उस की क्या पूछ रहेगी, बल्कि उन के जमाने में भी उन के अलावा शायद ही कुछ लोग इस बात को मानते होंगे कि उन से बुरा कोई नहीं है. आज सभी अपने स्थान पर सही होते हैं, सभी का नजरिया उन के अपने दृष्टिकोण में सही होता है. पर एक बात पर अधिकतर लोग एकजैसे होते हैं और वह है कि वे जो सोचते हैं, वही सही है, बाकी लोगों की सोच गलत है. अधिकतर लोग, सभी नहीं, कुछ ही सही, पर अपवाद हैं इस के भी. और ये अपवाद सामान्य व्यक्ति नहीं माने जाते हैं. दब्बू माने जाते हैं. बिना रीढ़ के प्राणी माने जाते हैं.

तो क्विटाक्विटी की बात किस संदर्भ में हो रही है, जानना जरूरी है. एक ग्रुप में किसी फाइल को ले कर दो विपरीत विचार वाले कुछ व्यक्ति लड़ पड़े. आजकल वैसे भी फाइल को ले कर हर स्थान पर 2 गुट बन गए हैं. इसे कई आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है. एक उदाहरण मफलर ग्रुप और शाल ग्रुप का ले सकते हैं. मफलर ग्रुप का मत अलग होता है, तो शाल वाले का मत अलग होता है. पंजा ग्रुप और कमल ग्रुप अलग हो सकता है. हाथी ग्रुप, साइकल ग्रुप न जाने कितने ग्रुप हैं. पप्पू ग्रुप और फेंकू ग्रुप भी है. प्रांतवार अलग ग्रुप हैं, वर्गवार अलग ग्रुप हैं और कई आधार पर ग्रुपों की भरमार है.

तो हुआ यों कि एक गुट के व्यक्ति ने कुछ ऐसा पोस्ट किया, जो दूसरे गुट के व्यक्ति को नागवार लगा. तत्क्षण उस व्यक्ति को ग्रुप से बाहर कर दिया गया. अब इस अन्याय को कौन सहता भला. विपक्षी गुट के कई लोग भी एडमिन थे. सो फिर से उन्हें शामिल कर लिया गया. और जवाब में दूसरे उस व्यक्ति को ही ग्रुप से निकाल दिया गया, जिस ने गुटनिकाला के पुनीत कार्य को प्रारंभ किया था. इस निकालानिकाली में कुछ लोग तुनक कर खुद भी क्विट करने लगे. इस प्रकार इसे निकालो उसे निकालो के साथ ही क्विटाक्विटी का खेल भी प्रारंभ हो गया.

कुछ समझदार लोगों ने बीचबचाव किया कि उन का ग्रुप अलग उद्देश्य के लिए बना है और जिस उद्देश्य के लिए बना है, उस के लिए ही उस का प्रयोग होना चाहिए. शेष बातों के लिए अलग मंच हो सकता है. पर उन से भी जो अधिक समझदार थे उन पर इस बीचबचाव का कोई प्रभाव नहीं पड़ा. अब जिन के, मन में यह बात हो कि ‘भला जो देखन मैं चला, भला न मिलया कोई, जो पोस्ट ढूंढा आपना, मुझ से सच्चा न कोई’, वह इस बात के लिए कैसे सहमत हो सकता है कि उस ने जो पोस्ट किया है, वह गलत हो सकता है. इस बात पर अड़ गए कि वे सही हैं. दूसरा पक्ष भी अड़ गया कि मैं सही तू गलत, मैं खिलाड़ी तू अनाड़ी के तर्ज पर. कुछ देर दोनों ने अपनेअपने सींग अड़ाए रखे. और जब कुछ ज्यादा समझदार लोग उन्हें समझाने लगे, तो फिर उन के अंदर का फूफा जाग गया और खेल शुरू हो गया क्विटाक्विटी का.

फूफा सरीखा नाराज सदस्य तुरंत ग्रुप क्विट करता है. पहले एक ने ग्रुप को क्विट किया, फिर दूसरे ने. कुछ बिलकुल निष्क्रिय सदस्य भी इस क्विटाक्विटी के खेल को देख कर क्विट होने को ले कर सक्रिय हो गए. उन के ग्रुप में होने का आभास भी कुछ लोगों को तभी हुआ, जब उन्होंने ग्रुप छोड़ दिया. वैसे ही जैसे कुछ लोग जब पुरस्कार वापस करते हैं, तभी पता चलता है कि उन्हें कभी पुरस्कार मिला भी था. कुछ लोग उन्हें मनाने और ग्रुप में वापस बुलाने में लगे हैं. सामान्य तौर पर देखा गया है कि जो ग्रुप छोड़ने में आगे होते हैं, वे फिर से ग्रुप में जुड़ने में भी अगुआ होते हैं. देखें आगे मामला क्या होता है, कितने लोग ग्रुप में वापस आते हैं. पर अभी तो निकालानिकाली के साथ ही क्विटाक्विटी का खेल शुरू हो चुका है.

किस्सा कर्णफूल का : जौहरी ने मां से क्या कहा?

“सुलोचना, इन को तुरंत संभाल कर बैंक लौकर में रखो. लाखों के होंगे,” मां की प्रिय सहेली गोयल आंटी ने अपनी ऐक्सपर्ट राय हमारी भोली मां को दी. मां उन्हें अपने गहने दिखा रही थीं और आंटी ने डब्बे से एक कर्णफूल का जोड़ा उठा रखा था.

यह सुनते ही हम मानो कुछ पल के लिए सांस लेना ही भूल गए. यह पुराने कपड़े में लिपटे कान के टौप्स का जोड़ा न जाने कब से मां के जेवरों के डब्बे के कोने में वैसे ही छुपा पड़ा रहता था, जैसे कक्षा की पीछे की बैंच के बच्चे. क्या कह रही हैं आंटी – लाखों के…

मां की आंखें चमकने लगीं और पापा की तनख्वाह में किसी तरह महीना का खर्चा चलाचला कर थका चेहरा मुसकराने लगा. बड़े रोब से हम सब से कहने लगीं, “ये टौप्स मेरी शादी पर मेरी ताईजी ने दिए थे. बताया था न कि मेरे ताऊजी ‘राय बहादुर’ थे, अंगरेजों के जमाने में.”

हम ने मां को इन्हें पहले भी कभी पहनते नहीं देखा था और अब तो पहनने का सवाल ही नहीं उठता था. बड़े सहेजसंभाल कर इन्हें मां ने बैंक लौकर में रख दिया. साल में एकाध बार जब कोई शुभ कार्य होता, तब हम मां के गहनों का डब्बा घर लाते. तब हम तीनों बहनें एकएक गहना बड़े ही चाव से देखती थीं. थे भी कुछ खास नहीं, कुल जमा 2 सैट – एक मायके का और एक ससुराल का, कुछ चूड़ीकंगन और एकाध मंगलसूत्र. बस. लेकिन अब हर बार, यह ‘लाखों का’ कर्णफूल सब से पहले देखा जाता.

मेरी शादी तय हुई. तैयारी होने लगी. लौकर से मां ने अपना डब्बा निकाला. बहुत विरोध के बावजूद उस ने अपनी एक जोड़ी चूड़ियां और मायके से मिले हार का पेंडेंट निकाल कर रख लिया. 3 बेटियों में से पहली की शादी हो रही थी. सुनार के यहां सैट बनवाते समय उस ने साथ में इन्हें भी दे दिया, “इन से एक अच्छा सा मंगलसूत्र और चांदबालियां भी बना दीजिएगा.”

“क्यों मां? मंगलसूत्र तो अपने यहां लड़के वाले देते हैं. सैट तो बनाया है न. मत करो, प्लीज.”

लेकिन उस दिन मेरी सीधी सी मां अपनी जिद पर एकदम अड़ी रही.

“पता है, तू भी बड़ी नौकरी करती है और अपने लिए बना लेगी बाद में. पर, यह मेरी तरफ से है. मना नहीं करते बेटा. ”

“अभी मंझली और छुटकी भी तो हैं. उन के लिए भी तो बनाना है.”

“हां, तो बनाउंगी न मैं,” 3 साल बाद दूसरी बहन का नंबर लगा.

जैसा कि सभी घरों में होता है, एक सूची तैयार की गई कि क्या आभूषण लिए जाएंगे. पिताजी ने मां को एक चैक दे दिया, सभी जरूरी गहने लेने के लिए. मां मंदमंद बड़े आत्मविश्वास के साथ मुसकरा रही थीं.

अगले दिन बैंक से मां ने अपने जेवर का डब्बा मंगवाया. अंदर मुलायम गुदड़ियों में सहेज कर रखे उस के गहनों की एक बार फिर गणना हुई. फिर मां ने कोने से टटोल कर उस पोटली को निकाला, जिस में वे कीमती कर्णफूल संभाल कर बांधे गए थे. परत दर परत उस पोटली को खोला गया. उन कर्णफूलों को दमकते देख हम सब आश्वस्त हुए. डब्बा बंद कर दिया गया. पोटली बाहर ही रख ली गई.
हमारी पूरी टोली हमारे सुपरिचित सुनार के यहां प्रविष्ट हुई.

“बिटिया का ब्याह है, सैट लेना है,” मां ने चमचमाती ड्रैस पहनी सेल्सगर्ल से कहा, “बढ़िया वाले दिखाइएगा. हम हमेशा आप ही के यहां से सोना लेते हैं.”

एक के बाद एक हम सैट देखने लगे. चायकौफी भी पी डाली. कुछ समय बाद, धीरे से उठ कर मां मालिक के पास गईं और अपने पास बैग में संभाल कर रखी हुई पोटली को निकाल कर उसे खोलने लगीं.

“जयपुर का गहना है. आप तो जानते ही हैं कि वहां कितने बढ़िया जेवर बनते हैं. और यह तो उस जमाने का है. देखिए तो जरा. कितना मिलेगा इन का?” ऐसा कहते हुए मां ने उन कर्णफूलों को हिचकिचाते हुए सुनार को थमाया.

जब तक वह उन का मूल्यांकन कर रहा था, हम बढ़िया और भारी सैटों को चुन कर अलग रखते जा रहे थे.

“तू भी क्यों एक चेन का सैट नहीं बनवा लेती?” मां ने छोटी बहन से भी पूछ डाला. ऐसा सुनते ही चट से छुटकी भी हलके सैट देखने में लग गई.

मंझली ने एक बढ़िया और एक थोड़ा हलका सैट पसंद कर लिया, एक जोड़ी कंगन के साथ. छुटकी ने भी बड़े शौक से एक चेन और एक जोड़ी टौप्स पसंद कर लिए थे.

तभी शोरूम के पीछे के कमरे से सुनार बाहर आए. मां के पास आ कर बोले, “बहनजी, यह तो अमेरिकन डायमंड है, असली हीरे नहीं.”

“क्या कह रहे हैं आप? ऐसा नहीं हो सकता. मेरे ताऊजी का मेरी शादी पर तोहफा था. हो ही नहीं सकता कि यह असली हीरे न हों. वे बहुत बड़े लोग थे,” मां उस को और अपनेआप को समझाने लगीं. यह तो कभी सोचा ही नहीं था.

ऐसा सुन मां के माथे पर शिकन और पसीने की बूंदें झलकने लगीं.

मंझली समझदार थी. यह बातचीत सुनते ही चुपचाप भारी वाला सैट अलग कर दिया.

छुटकी मां के पास जा कर तीखे स्वर में सुनार से पूछने लगी, “भैया, आप के हिसाब से सोना तो असली है न, कि वह भी नकली है? मां, कहीं और भी जांच करवाते हैं. चलो,” वह मां को बाहर की ओर ले जाने का प्रयास करने लगी.

मां वैसे ही बहुत शर्मिंदगी महसूस कर रही थीं और मन ही मन गोयल आंटी को कोस रही थीं, जिन्होंने यह सब दिवास्वप्न दिखाए.

“ये घर के सुनार हैं. कैसी बात करती है? हम कहीं नहीं जाएंगे. यहीं से जो ठीक बैठेगा, वह लेंगे,” मां ने स्पष्ट कहा.

“बहनजी, बड़ी खींचतान कर 11,000 रुपए कर पाऊंगा. सोना भी 18 कैरेट का ही है. हीरे का तो कुछ मोल है नहीं, सोने का भाव लगा रहा हूं. आप देख लीजिए कि क्या करना है. घर का ही मामला है. पर कुछ कर नहीं पाऊंगा,” सुनार ने बड़ी लाचार सी भावभंगिमा प्रदर्शित करते हुए मां को कहा.

“आप ने ठीक से जांच लिया न. विश्वास ही नहीं हो रहा कि ताईजी ने नकली गहना दिया था मुझे,” मां थोड़ी उलझन में पड़ गई थीं.

“आप चाहें तो मैं बगल के सुनार के यहां भी चैक करवा लेता हूं या आप कहीं और भी दिखवा लीजिए,” सुनार ने मां को अपने हाथ हिला कर सामने की दुकान की ओर इशारा कर के सुझाव दिया.

“नहीं भई, अब आप ने ठीक से देख लिया है, तो ठीक ही कह रहे होंगे. सालों से आप के यहां आ रहे हैं. कहां दूसरी जगह जाएंगे? ठीक है. आप ले लीजिए इसे. टोटल में हिसाब लगा लीजिएगा,” मां बोलीं.

“क्या मां, बेकार में समय खराब किया. जब पता ही नहीं था तो क्यों बोला कि यह देखो, वह देखो, “छुटकी बहुत रोआंसी हो गई.

“कोई बात नहीं बिट्टू, तेरे लिए बाद में ले लेंगे,” मां ने उसे समझाया.

बेचारी मां वैसे ही झेंपे हुए थीं, उस पर बच्चों का उतरा चेहरा देख कर बहुत दुखी भी हुईं. किसी को बता भी नहीं सकती थीं कि इतने बड़े अधिकारी की पत्नी होते हुए भी उन के पास तंगी बनी रहती थी. स्वयं अपने लिए इतने सालों में कभी एक अंगूठी भी नहीं बनाई थी.

मंझली के लिए एक सैट और छुटकी के लिए टौप्स ले कर हम घर आ गए. हम तीनों एकदम भरे बैठे थे कि पापा कब घर आएं और हम उन्हें यह सब बताएं. मां ने गैस पर चाय चढ़ाई, और फटाफट गरम पकौड़ों की प्लेट भी हमारे सामने रख दी.

“अरे लड़कियो, तुम लोगों से मुझे यह उम्मीद नहीं थी. इतनी समझदार हो, पढ़ीलिखी हो, मुंह क्यों लटकाए हुए हो? देखना, तुम सब अपने जीवन में आगे इतने गहने बनवाओगी कि पहन भी न पाओगी. चलो, पकौड़े खाओ और खुश रहो. और हां, पापा थकेमांदे दफ्तर से आएंगे, आते ही उन्हें यह सब बताने कि जरूरत नहीं है. आराम से कल बता देंगे.”

खैर, हमें गहनों का ऐसा कोई शौक नहीं था. बस, गोयल आंटी पर थोड़ा गुस्सा आ रहा था कि क्यों उन्होंने मां को ऐसे सब्जबाग दिखाए. मां ने अगले दिन उन्हें भी सब बताया.

धीरेधीरे 4 बरस बीत गए. इस दौरान मंझली और छुटकी, दोनों का ब्याह हो गया. मेरी गोद में भी एक प्यारी सी गुड़िया आ गई.

मई का महीना था. घर पर मामा का फोन आया कि नानी बहुत बीमार हैं. मां तुरंत जयपुर के लिए निकल गईं. एक सप्ताह बाद नानी नहीं रहीं. खबर मिलते ही हम सब भी ननिहाल पहुंचे.
10-12 दिनों के बाद एक दिन मामी के साथ हम मिल कर नानी का सामान ठीक कर रहे थे, तब अचानक मुझे एक छोटा सा नीला मखमली डब्बा नानी के संदूक के कोने से मिला.

मां और मामी को मैं ने आवाज दे कर बुलाया. फिर धीरे से उस डब्बे को खोला. डब्बा तो खाली था, पर उस में एक छोटी सी परची रखी थी. उस मुड़ीतुड़ी, पीली पड़ गई परची को हम ने बड़े सलीके से खोला. वह जयपुर के एक प्रसिद्ध स्वर्णकार की रसीद थी और उस में स्पष्ट अक्षरों में लिखा था – ‘कर्णफूल, 12 हीरे, 0.7 कैरेट, रु. 82,750/-‘. और रसीद की तारीख थी 21.02.1967 यानी मां के विवाह के 15 दिन पहले की.

Raksha Bandhan : काश मेरी बेटी होती – भाग 4

‘‘अभी जल्दी क्या है मम्मी? आप तो बस शादी के पीछे ही पड़ जाते हो…’’ वह उठते हुए बोला.

‘‘मैं तुझे आज उठने नहीं दूंगी… 30 साल का हो गया…अभी शादी की उम्र नहीं हुई तो कब होगी?’’

‘‘ओह मम्मी…ये आप की ढूंढ़ी लड़कियां…आखिर मुझे क्या पता कि ये कैसी हैं…1-2 मुलाकातों में किसी के बारे में कुछ पता थोड़े ही न चलता है…’’

‘‘तो फिर कैसे देखेगा तू लङकी?’’

‘‘मैं जब तक लङकी को 2-4 साल देखपरख न लूं…हां नहीं बोल सकता…’’

‘‘क्या मतलब?’’ शोभा आश्चर्यचकित हो बोली.

‘‘मतलब साफ है. मैं अरैंज्ड मैरिज नहीं करूंगा.’’

‘‘तो क्या तुम ने कोई लङकी पसंद की हुई है?’’

ॠषभ बिना जवाब दिए अपने कमरे में चला गया. शोभा उस के पीछेपीछे दौड़ी, ‘‘बोल ऋषभ, तुम ने कोई लङकी पसंद की हुई है?’’

‘‘हां.’’

‘‘तो फिर बताता क्यों नहीं, इतने दिनों से हमें बेवकूफ बना रहा है?’’

‘‘बेवकूफ नहीं बना रहा हूं. पर बता इसलिए नहीं रहा था कि मेरी पसंद को आप लोग पसंद कर पाओगे या नहीं.’’

‘‘तुम्हारी पसंद अच्छी होगी तो क्यों नहीं पसंद करेंगे. पर तुम विस्तार से बताएगा उस के बारे में?’’

‘‘क्या सुनना है आप को? लङकी सुंदर है, शिक्षित है, मेरी तरह इंजीनियर है. ठीकठाक परिवार है पर…’’

‘‘पर…’’

‘‘पर, अगर आप के शब्दों में कहूं तो छोटी जाति की है. उसी जाति की जिन जातियों के आरक्षण का मुद्दा हमेशा चर्चा का विषय बना रहता है और जिन जातियों पर देश की राजनीति हमेशा गरम रहती है और पापा का ब्राह्मणवाद? तो घर के नौकरचाकरों पर तक हावी रहता है. वे तो चाहते हैं कि घर में नौकर भी हो तो बाह्मण हो. ऐसी स्थिति में और मैं कहीं दूसरी जगह शादी कर नहीं सकता. इसलिए आप मेरी शादी की बात तो भूल ही जाओ.’’

शोभा का मुंह खुला का खुला रह गया. उस की स्थिति देख कर ऋषभ परिहास सा करता हुआ बोला, ‘‘इसीलिए कहता हूं कि मुझे ही बेटा व बहू दोनों समझ लो…और मस्त रहो…’’ कह कर वह कमरे से बाहर चला गया.

शोभा जड़वत खड़ी रह गई. रक्षा और जयंति के बच्चों ने तो उन का सुखचैन ही छीना था पर उस के बेटे ने तो उन्हें जीतेजी ही मार दिया. घर से भी साधारण और जाति से भी छोटी. जिस लङकी के आने से पहले ही दिल में फांस चुभ गई हो. दिलों में दीवार खड़ी होने की पूरी संभावना पैदा हो गई, उस के घर में आने पर क्या होगा, सोचा जा सकता है. बेटा तो फिर से अपनी दिनचर्या में मस्त और व्यस्त हो गया पर उसे ज्वालामुखी के शिखर पर बैठा गया. उसे पता था कि बेटे के हाथ पीले करने हैं तो बात तो माननी ही पड़ेगी. वह पति से बात करने की कूटनीति तैयार करने लगी. बहुत मुश्किल था सुकेश के ब्राह्मणवाद से लडऩा. कई बार तो उस की खुद की भी बहस हो जाती थी इस बात पर सुकेश से..पर उसे नहीं पता था कि ऋषभ उसे इस नैतिक दुविधा में डाल देगा.

खैर, डरतेघबराते जब उस ने सुकेश को बताया तो घर कुरूक्षेत्र का मैदान बन गया. युद्ध का आगाज हो जाने के कारण वह बिना जतन के बेटे के पाले में फेंक दी गर्ई. और सुकेश अपने पाले में अकेले रह गए. नित तोप से गोले दागे जाते. दोनों पक्ष व्यंग्य बाणों से एकदूसरे को घायल करने में कोई कोताही न बरतते. कर्ई तरह के तर्कवितर्क होते पर महिला सशक्तिकरण का भूत कुछकुछ शोभा के दिमाग को वशीभूत कर चुका था, इसलिए वह डटी रही. आखिर सुकेश को अपने तीरतरकश जमीन पर रखने ही पड़े. असहाय शत्रु की तरह वे शरण में आ गए इस शर्त पर कि विवाह के बाद बेटेबहू ऊपर के पोर्शन में रहेंगे. इस बात को ऋषभ व शोभा दोनों मान गए और दोनों पक्षों की सफल वार्ता के बाद विवाह विधिविधान से संपन्न हो गया. ऋषभ ने अपने कपड़ों की अटैची उठाई और दान में मिले पलंग व बरतनों के साथ एक गैस का चूल्हा खरीदा और ऊपर के पोर्शन में अपनी गृहस्थी बसा ली. शोभा तो बहू को ले कर पहले ही कई तरह के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त थी. ऊपर से छोटी जाति की लङकी, हालांकि बहुत कुछ वह जातिवाद नहीं मानती थी पर फिर भी इस स्तर की जाति तक जाना, रूढ़ीवादिता से ग्रसित उस का मन भी बहुत खुल कर बहू को अपना नहीं पा रहा था, इसलिए उस ने भी पति सुकेश को मनाने की कोशिश नहीं की. बहूबेटे विवाह के अगले दिन 10 दिन के हनीमून ट्रिप पर निकल गए. उस ने भी विवाह के बाद के कार्य, रिश्तेदारों में मिठाई, कपड़े वगैरह का लेनदेन निबटाया. अपने निकट रिश्तेदारों का जो इस विवाह में मूड उखड़ा था उखड़ा ही रहा. वे कर भी क्या सकते थे. ‘बेटे की मर्जी थी’ कह कर उन्होंने हाथ झाड़ दिए थे.

बच्चों के वापस आने का दिन पास आ रहा था. इसी बीच सुकेश औफिस की तरफ से 1 हफ्ते की ट्रैनिंग के लिए चैन्नई चले गए. उस के अगले दिन बेटेबहू हनीमून से वापस आ गए.

सुबह शोभा की देर से नींद खुली. उठ कर वह बाथरूम में फ्रैश होने चली गई. मुंह धो कर वह तौलिया से पोंछती हुई बाहर आ रही थी कि सुबहसुबह कोयल सी कूक कानों में मधुर संगीत घोल गई.

‘‘मां, चाय लाई हूं आप के लिए…’’ मुखड़े पर मीठी मुसकान की चाशनी घोले माधवी ट्रे लिए खड़ी थी. सुबहसुबह की धूप से उज्जवल मुखड़े पर स्निग्ध चांदनी छिटकी हुई थी.
‘‘पर तुम क्यों लाई चाय? मैं खुद ही बना लेती…’’ शोभा को एकाएक समझ नहीं आया, क्या बोले.
‘‘वो, ॠषभ ने कहा कि पापा नहीं हैं… तो आप पी लेंगी…नहीं पीना चाहती हैं तो कोई बात नहीं…मैं वापस ले जाती हूं,’’ मुखड़े की चांदनी जैसे मलिन हो गई. शोभा का हृदय द्रवित हो गया.

‘‘नहींनहीं रख दो, मैं पी लूंगी…’’ खुश हो माधवी ने ट्रे साइड टेबल पर रख दी. मुखड़ा फिर से लकदम करने लगा. शोभा का दिल किया, खींच कर छाती से लगा ले. पर नहीं, उंगली पकड़ कर उस की गृहस्थी में उस का अनाधिकार प्रवेश? सुकेश कभी भी बरदाश्त नहीं करेंगे. वह 2 मिनट खड़ी रही फिर चली गई.

शोभा सुबह उठती और चाय की ट्रे ले कर माधवी खड़ी हो जाती. न जयंति की बेटी सुबह उठती है न रक्षा की बहू. माधवी भी इंजीनियर है पर यह कैसे?

अगले दिन रविवार था। लंच के समय माधवी कढ़ी का कटोरा लिए हाजिर हो गई. “मां, मैं ने कढ़ी बनाई है आज…खा कर देखिए कैसी बनी है?’’
कढ़ी खाते हुए शोभा सोच रही थी कि इतनी स्वादिष्ठ कढ़ी? इंजीनियरिंग करतेकरते यह लङकी कब गृहस्थी के काम सीख गई. रात को भी माधवी कमलककड़ी के कोफ्ते रख गई. उस की सुघढ़ता देख कर शोभा के दिल में सुनीसुनाई आजकल की बिगड़ैल बेटीबहुओं की छवी खत्म हो रही थी. लङकी माधवी जैसी भी होती है. पर उसे ज्यादा भाव नहीं देना चाह रही थी. क्योंकि सुकेश का ब्राह्मणवाद उस के समूचे प्यार व सपनों पर हावी हो रहा था.

दूसरे दिन कामवाली ने छुट्टी कर दी. यह कहकर कि उसे अपने भाई के घर जाना है, शाम तक आ जाएगी. ऊपर भी वही काम करती थी. सुबह माधवी चाय रख गई. अभी शोभा चाय पी ही रही थी कि उसे कीचन में बरतनों की खटरपटर की आवाज सुनाई दी. वह कीचन में गई तो देखा, माधवी जल्दीजल्दी रात के बरतन धो रही है.

‘‘ये क्या कर रही हो माधवी?’’

‘‘मां, आज कामवाली दीदी ने छुट्टी की है न. इसलिए बरतन धो रही हूं. ऊपर के तो मैं ने उठते ही धो लिए थे. सफाई किए बिना तो एक दिन चल जाता है…’’

शोभा आश्चर्य व ममता से माधवी को निहारने लगी, ‘‘तुझे औफिस के लिए देर नहीं हो रही?’’

‘‘नहीं, अभी तो टाइम है. बस तैयार हो जाऊंगी जल्दी से…’’ बरतन रख कर वह उस की तरफ पलटती हुई बोली.

जयंति और रक्षा को तो कितनी शिकायते हैं अपनी बेटी और बहू से. पर माधवी, कितनी अलग है. उस की खुद की बेटी होती तो क्या ऐसी ही होती या उन के जैसे होती? दिल फिर किया बहू को सीने से लगा ले, मन भर कर दुलार कर ले. पर सुकेश की बड़ीबड़ी गुस्सैल आंखें याद आ गईं. ‘नहींनहीं, शादी करा दी किसी तरह…बस दोनों खुश रह लें आपस में…अब नहीं उलझना उसे….’

हाथ पोंछ कर माधवी चली गई. एक हफ्ता गुजर गया. आज रात की ट्रेन से सुकेश आने वाले थे. सुबह चाय पी कर शोभा गेट का ताला खोलने के लिए बाहर जा रही थी कि बरामदे की सीढ़ी से पैर लङखड़ा गया. एक चीख मार कर वह वहीं बैठ गई. उस की जोर की चीख सुन कर ॠषभ और माधवी भागतेदौड़ते नीचे उतर कर उस के पास पहुंच गए. वह अपना पैर पकड़ कर कराह रही थी.

‘‘क्या हुआ मां…?’’ माधवी बोली.

‘‘अचानक से पैर लडख़ड़ा गया सीढ़ी पर…दाएं पैर में बहुत दर्द हो रहा है…’’

‘‘ओह. कहीं फ्रैक्चर न हो गया हो…’’
ॠषभ शोभा को उठा कर अंदर ले आया. माधवी उस के पैरों के पास बैठ कर, हलके हाथों से मलहम लगाती हुई बोली.

‘‘अभी डाक्टर के पास ले चलते हैं मां… चिंता मत करो…सब ठीक हो जाएगा…’’ उस ने उस के पैर में कस कर क्रैप बैंडेज बांध दी.

दोनों उसे अस्पताल ले गए. ऐक्सरे में फ्रैक्चर नहीं आया. मोच आ गई थी. डाक्टर ने कुछ दिन आराम करने के लिए कहा. सब कुछ करा कर, उसे घर छोङ कर ॠषभ औफिस चला गया. लेकिन माधवी थोड़ी देर बाद उस के पास जा कर बैठ गई.
‘‘तू औफिस नहीं गई?’’ वह आश्चर्य से बोली.

‘‘नहीं मां, ऐसी हालत में आप को छोङ कर औफिस कैसे चली जाऊंगी मैं…फिलहाल, कुछ दिन की छुट्टी ले ली है…पापा भी आ जाएंगे आज. ऐसे में खाना भी कैसे बनाएंगी आप?’’

कुछ न बोला गया शोभा से. मन भर आया और आंखें भी. सुकेश के डर पर दिल के उद्गार भारी पड़ गए. ‘मेरी बेटी होती तो ऐसी ही होती’ उस ने सोचा, ‘नहींनहीं, ऐसी ही क्यों होती, बल्कि यही है मेरी बेटी.’

उस ने माधवी का हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींचा. माधवी ने आश्चर्य से उस की आंखों में देखा. पर शोभा की आंखों में वात्सल्य का अनंत महासागर हिलौरें ले रहा था. वह हुलस कर शोभा की बांहों में समा गई. शोभा का सालों का सपना पूरा हो गया था.

माधवी ने उस के घर व उस के दिल में तो प्रवेश पा लिया था पर सुकेश के दिल में प्रवेश पाना टेढी खीर था. रात की ट्रेन से सुकेश आए. शोभा के पैर में पट्टी बंधी देख कर परेशान हो गए. पर शोभा के चेहरे पर दर्द व परेशानी का नामोनिशान न था. वह आराम से पलंग पर पीछे तकिया लगा पीठ टिकाए बैठी मुसकरा रही थी. न यह शिकायत कि 1 हफ्ता तुम्हारे बिना मन नहीं लगा वगैरहवगैरह.

‘कुछ तो गड़बड़ है’ सुकेश अपनी उधेड़बुन में कपड़े बदल कर नहाने चले गए. बाथरूम से फ्रैश हो कर लौटे, ‘‘दर्द तो नहीं हो रहा है तुम्हारे…’’
‘‘बिलकुल नहीं…’’ शोभा मुसकराते हुए बोली.

‘‘कुछ खाना तो बना नहीं होगा…बाहर से और्डर कर देता हूं.’’

तभी दरवाजे पर आहट हुई. देखा तो माधवी 2 प्लेटों में खाना लिए खड़ी थी. मुसकराती हुई आगे बढ़ी, एक प्लेट माधवी को पकड़ा दी. बिना झिझके, सुकेश से बिना डरे शोभा ने प्लेट पकड़ ली. सुकेश आश्चर्य से माधवी को देख रहे थे. माधवी ने झिझकते हुए दूसरी प्लेट साइड टेबल पर रखी और वापस चली गई. शोभा इत्मीनान से खाना खाने लगी.
‘‘तुम कब से खाने लगी हो इस के हाथ का?’’ सुकेश के स्वर में क्रोध भरा था.

‘‘तरीके से बात करो सुकेश…वह तुम्हारे बेटे की पत्नी है और इस घर की बहू. अब जो जाति हमारी वही उस की…’’ शोभा तनिक रोष में बोली.

सुकेश ठगे से शोभा को देखने लगे. ‘‘हांहां, ऐसे क्या देख रहे हो… ब्याहशादियों में जाते हो… खाना बनाने वालों का, स्नैक्स सर्व करने वाले वेटरों की जाति भी पूछी है तुम ने कभी? सङक मार्गों से लंबीलंबी यात्राएं करते हो, औफिशियल दौरों के लिए रास्ते भर रुकते, खातेपीते जाते हो. क्या वहां पर सब की जाति पूछ कर खातेपीते हो? उन सब की जाति पूछ लो. अगर वे सब ऊंची जाति के हों तो मैं अपनी ऐसी सुगढ़, सहज और प्यारी बहू के हाथों का खाना बंद कर दूंगी…वादा है तुम से… पर तब तक तुम मुझे टोकना मत…’’ कह कर शोभा खाना खाने लगी.

सुकेश थोड़ी देर किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े रह गए. शोभा के तर्कों में दम था. शोभा अधिकतर उन की बात हंसीखुशी मान जाती थी पर जब वह किसी बात पर अड़ती थी तो उसे डिगाना मुश्किल होता था. वे खड़े सोचते रहे. बात तो सच है, इतनी जगह खाना खाते हैं क्या जाति पूछ कर… माधवी तो उन की बहू है. बेटे ने, शोभा ने उसे सहज अपना लिया. उन की वंशवेल उसी से आगे बढ़ेगी और झूठे दंभ व झूठी जिद्द के कारण वे उसे अपना नहीं पा रहे हैं.

उन्होंने खाने की प्लेट उठाई और शोभा की बगल में बैठ गए. पलभर के लिए दोनों की नजरें टकराईं. सुकेश ने रोटी का टुकड़ा तोङ मुंह में डाल लिया. अंदर की मुसकराहट अंदर ही दबाए शोभा चुपचाप खाना खाती रही. दोनों ने खाना खत्म किया ही था कि माधवी फिर आ गई,‘‘मां, कुछ चाहिए तो नहीं…’’ पर पापा को खाते देख वह अचंभित सी हो गई. बिना छेड़े चुपचाप वापस पलट गई.

‘‘रुको माधवी…’’ सुकेश अपनी जगह पर खड़े हो गए, ‘‘बहुत अच्छा खाना बनाया तुम ने बेटा…इंजीनियरिंग करतेकरते कैसे सीख लिया इतना सबकुछ?’’ हतप्रभ हो माधवी खड़ी हो गई. उस से यह सब संभल नहीं पा रहा था. खुश हो कर बोली,”आप को अच्छा लगा पापा?’’

‘‘हां, बहुत अच्छा लगा. आज पहली बार तुम्हारे हाथ का खाना खाया है. इसलिए इनाम तो बनता है,’’ सुकेश ने आलमारी से कुछ रुपए निकाल कर माधवी के हाथ में रखे, ‘‘मांपापा की तरफ से अपने लिए कुछ ले लेना.’’

‘‘जी पापा…’’ वह भरी आंखों से पैरों में झुक गई. सुकेश ने झुकी हुई माधवी को उठा कर सीने से लगा लिया, ‘‘माफी चाहता हूं तुम से बेटा…कभीकभी बड़ों से भी गलतियां हो जाती हैं.’’

‘‘नहीं पापा, कुछ मत बोलिए…मुझे कोई शिकायत नहीं है…’’

जाति को ले कर बिना कोई तर्कवितर्क किए माधवी ने सुकेश के ब्राह्मणवाद के किले को फतह कर लिया था. दोनों पितापुत्री सजल नेत्रों से गले से लिपटे हुए थे. तभी ॠषभ माधवी को ढूंढ़ता हुआ नीचे उतर आया. कमरे में आया तो पितापुत्री को गले लगे देखा. प्रश्नवाचक दृष्टी मां पर डाली पर वहां भी सजल मुसकराहट में सारे उत्तर थे. गरदन हिलाता हुआ वह भी मुसकरा दिया और उलटे पैरों वापस लौट गया, शायद ऊपर से अपना बोरियाबिस्तर समेटने के लिए.

ज्योति से ज्योति जले- भाग 4: उन दोनों की पहचान कैसे हुई?

जब मुझे इस बात का पता चला तब न चाहते हुए भी मैं अपनी नाराजगी जाहिर कर बैठी, ‘‘मेरी अच्छी रश्मि, तुम कब सुधरोगी? तुम नहीं जानतीं, यश की मम्मी निहायत ही झूठी औरत है. सच बताना, इतनी तकलीफों के बावजूद क्या तुम ने शांति के चेहरे की चमक में रत्तीभर भी फर्क महसूस किया? वह बेहतरीन कपड़े पहनती है और बुरा मत मानना मेरी बहना, वह तुम से भी ज्यादा सजसंवर कर रहती है. क्या इतना काफी नहीं उस का झूठ पकड़ने के लिए?’’

वह निर्विकार नजरों से मुझे ताकती रही, फिर बोली, ‘‘दीदी, आप ही सोचिए, किसी को मुझ से झूठ बोल कर क्या हासिल होगा?’’

आखिरकार मैं ने उस की आंखें खोलने के लिए मामले की तह तक पहुंचना जरूरी समझा. किसी तरह समझाबुझा कर मैं ने शांति से उस के पति की मेडिकल फाइल हासिल की, वडोदरा के डाक्टर का फोन नंबर प्राप्त किया और एक सुबह उन से बात की.

उस के बाद मैं ने तय किया कि मैं अब रश्मि को और ज्यादा मूर्ख नहीं बनने दूंगी. जब हम मिले तब मैं ने उस से कहा, ‘‘रश्मि, मैं ने आज ही सुबह वडोदरा में डा. शाह से बात की. उन्होंने क्या कहा, सुनना चाहोगी?’’

‘‘दीदी, मैं ने आप से कहा था न कि इस मामले में हमारी कोई बहस नहीं होगी…’’

मैं ने उसे बीच में ही टोका, ‘‘नहीं रश्मि, आज तो मैं अपनी बात पूरी कर के ही रहूंगी और तब तक तुम एक शब्द भी बोलोगी नहीं, समझीं.

‘‘सुन, डा. शाह का कहना है कि शांति के पति के आपरेशन का कुल खर्च 17 हजार नहीं, सिर्फ 11,500 रुपए ही आया था. शांति ने उन से प्रार्थना की थी कि अगर वह बिल बढ़ा कर बनाएं तो अतिरिक्त पैसों से वह अपने पति की दवाइयों का खर्च निकालेगी, इसलिए… खैर, ऐसे चंद खुदगर्ज लोग ही डाक्टर के व्यवसाय को बदनाम करते हैं. उन्हें खेद है कि अनजाने में उन्होंने किसी धोखेबाज का साथ दिया.’’

रश्मि स्तब्ध थी. उस दिन उस के चेहरे पर पहली बार व्यथा के भाव देख कर मेरा मन आर्तनाद कर उठा. वह पीड़ा उस धोखेबाज औरत की देन थी.

उस घटना के बाद मैं ने उसे धमकाया, ‘‘देख रश्मि, अब बहुत हो चुका, आगे से ‘आ बैल, मुझे मार’ करेगी तो मैं दिव्येशजी को सबकुछ बता दूंगी. उन से कह दूंगी कि वह तुम्हें ऐसा पागलपन करने से रोकें, समझीं.’’

रश्मि ने तब झट से कहा, ‘‘मेरी प्रिय दीदी, कोई भी कार्य करने से पहले मैं दिव्येश से इजाजत जरूर लेती हूं, फिर उस पर अमल करती हूं…आज तक मैं ने उन से कोई भी बात नहीं छिपाई क्योंकि मैं जानती हूं कि वह मेरी हर खुशी में खुश हैं.’’

‘‘क्या?’’ मेरा मुंह मारे आश्चर्य के खुला का खुला रह गया. सचमुच रश्मि बेहद खुशनसीब है. दिव्येशजी भी ऐसे हैं तो फिर क्या कहना?

‘‘दीदी, दिव्येश बखूबी जानते हैं कि गरीबी और लाचारी इनसान के हौसलों को किस कदर तोड़ कर रख देती है. सिर्फ 17 वर्ष की आयु में ही उन्होंने बैंक की नौकरी कर पूरे परिवार की जिम्मेदारी अपने कंधों पर उठा ली थी. अपनी पढ़ाई उन्होंने नौकरी के साथ ही संपन्न की.’’

‘‘मैं उन से मिलना चाहती हूं, क्या तुम्हारे घर आ सकती हूं?’’ अब तक हम दोनों पक्की सहेलियां बन गई थीं.

दिव्येशजी से मिलने पर मैं उन के स्वभाव की भी कायल हो गई. जितनी देर मैं उन के साथ रही, सिवा रश्मि की तारीफ के उन के मुंह से कुछ नहीं निकला.

जब वह मेरे लिए जलपान की व्यवस्था करने गई तब उन्होंने बोलना शुरू किया, ‘‘वर्षाजी, रश्मि आप की बेहद तारीफ करती है. जैसा सुना था वैसा ही आप को पाया. आप से मिल कर मुझे बेहद खुशी हुई, यकीन कीजिए.

‘‘रश्मि इतने बड़े बेटों की मां है, फिर भी उस में बचपना पहले जैसा ही है. वह बहुत ही भोली और सरल है. जल्द ही दूसरों की बातों में आ जाती है. दूसरों को खुशियां बांट कर उसे खुशी मिलती है और उस की खुशी में हमसब खुश हैं,’’ दिव्येशजी यह बतातेबताते बेहद भावुक हो उठे.

तभी उन का बड़ा बेटा रुद्र भी आ गया, ‘‘नमस्ते, आंटीजी…’’ उस ने अपना बैग टेबल पर रख दिया और हमारे सामने आ कर बैठ गया.

‘‘आप…वर्षा आंटी हैं न. मिहिर की मम्मी…आप की पहली मुलाकात का किस्सा सुना कर मम्मी आज भी हंसती हैं, फिर अपनेआप पर हैरान भी होती हैं, यह सोच कर कि कैसे वह आप को इतना लंबाचौड़ा भाषण सुना बैठीं,’’ रुद्र हंसते हुए बोला.

‘‘बेटे, सच कहूं तो…तुम्हारी मम्मी की इन्हीं बातों ने मेरा मन मोह लिया. मैं आज तक किसी से भी इतनी प्रभावित नहीं हुई जितनी कि तुम्हारी मम्मी से.’’

‘‘एक राज की बात कहूं?’’ मैं मुसकराई, ‘‘तुम्हारे अंकल से भी नहीं.’’

हम सब हंस पड़े.

बच्चों की पढ़ाई में मां की भूमिका

‘‘मां का साया यदि मेरे सिर पर न होता तो मैं आज राजकीय विद्यालय की शिक्षिका न होती, बल्कि ऊन कारखाने में एक साधारण मजदूर मात्र बन कर संघर्ष का जीवन जी रही होती. मेरी मां ने हमेशा हर पल मुझे शिक्षा के लिए प्रेरित किया. उन का ध्येय रहा कि मजदूर मां की बेटी भी मजदूर बनी तो फिर उपलब्धि क्या प्राप्त की. उल्लेखनीय तो तभी हो सकेगा जब बेटी शिक्षित हो कर अपने पैरों पर खड़ी हो सके. मैं ने उन के मन के भाव को समझा और जुट गई पढ़ाईलिखाई में. आज सफल हूं तो सिर्फ मां के दृढ़ निश्चय के कारण.’’ यह कहना है 21 वर्षीया नीलकमल का. ‘‘मेरे जीवन में मां का बड़ा महत्त्व है. विगत 7 वर्षों से हर शैक्षणिक सत्र में मैं फर्स्ट रैंक पर बना हुआ हूं. प्रतिशत की बात करें तो कईकई विषयों में शतप्रतिशत अंक प्राप्त किए हैं. इस वर्ष भी ए-वन ग्रेड के साथ नंबर वन बन कर दिखाया है. यह सब मेरी मां की कड़ी मेहनत का फल है. उन्होंने मुझ पर अपना अच्छाखासा समय खर्च किया है. मुझे नियमित पढ़ाई का व्यावहारिक ज्ञान उन से ही मिला है. हर दिन 4 घंटे पढ़ना है तो पढ़ना ही है. उन की सिखाई यह आदत मुझे हजारों रुपए खर्च करने वाले छात्रछात्राओं से भी आगे बनाए हुए है. भविष्य में भी नियमित पढ़ाई का मेरा गुण मुझे सहयोग करेगा और यह संभव हुआ है मेरी प्यारी मां की बदौलत.’’ यह कहना है किशोर छात्र आगाज का.यह सिर्फ बानगी है. ऐसे अनेक आगाज और नीलकमल हैं जिन की मांओं ने दिनरात एक कर अपने बच्चों का भविष्य संवारने में अहम भूमिका निभाई है.

समझदारी मां की

समझदार मां अपने बच्चों को शुरू से ही पढ़ाई में मदद करती है. प्यारदुलार के साथ वह उन की नींव को मजबूत करती है. बीकानेर बौयज स्कूल के प्रिंसिपल फादर शीबू कहते हैं, ‘‘मैं ने देखा है कि वे विद्यार्थी ज्यादातर होनहार होते हैं जिन के पीछे उन की मां का भी पुरुषार्थ होता है. क्लास दर क्लास अपने बच्चों में निखार लाने में मां की भूमिका अतुलनीय रहती है. उन की कमियों को मां अच्छे से समझती हैं और जब बात समझ में आ जाती है तो बच्चों में सुधार भी कर देती है.’’

नजर मित्रमंडली पर

किशोर उम्र के विद्यार्थियों की मित्रमंडली पर हर मां की पैनी नजर होनी चाहिए. ‘‘यदि मेरी मां ने मुझे बातूनी और बड़बोले फ्रैंड सर्किल से नहीं बचाया होता तो मैं निश्चित रूप से पढ़ाई में पिछड़ जाती. क्योंकि उस फ्रैंड ग्रुप के बच्चे पढ़ाई में औसत से नीचे जा रहे थे. मां ने मुझे संभाला और मैं पढ़ाई करते हुए आगे बढ़ती गई. पीएचडी कर के आज अधिकारी पद पर हूं,’’ यह कहना है रूबीना का.

असंभव को संभव बनाती है मां

आईटीआई कर रहा किशोर छात्र जावेद कहता है, ‘‘मेरे परिवार में मेरी गिनती मंदबुद्धि बालक किशोर के रूप में होती है. स्वयं मेरे पिता मुझे मंदबुद्धि मानते एवं कहते हैं. यह सच है कि मेरी याददाश्त अच्छी नहीं है. परिणामस्वरूप स्कूली शिक्षा के बारे में उन्होंने सोचा तक नहीं. मगर मेरी मां ने मुझे बाकायदा स्कूल में दाखिला दिलवाया. मेरी स्थिति से डर कर टीचर्स ने पढ़ाने में आनाकानी की. तब मेरी मां ने उसी स्कूल में सिर्फ मेरी खातिर अध्यापन का जौब किया. उन के दृढ़ संकल्प की बदौलत पहले मैं ने 8वीं कक्षा उत्तीर्ण की. 10वीं में आया तो सभी ने कहा कि ओपन बोर्ड से पढ़ाई करवाई जाए. यहां भी मां ने मेरा हाथ थामे रखा और सब की बिन मांगी राय से हट कर माध्यमिक शिक्षा बोर्ड, अजमेर (राजस्थान) से 10वीं का फौर्म भरवाया. कोर्स को पढ़नेसमझने और अच्छे से याद करने में मुझ से कहीं अधिक मेहनत मां ने की. मैं मंदबुद्धि, थक जाता लेकिन उन को घरबाहर के सारे कामकाज के बाद भी मैं ने पढ़ाते समय हमेशा तरोताजा देखा. आखिरकार मैं 10वीं कक्षा उत्तीर्ण करने में सफल रहा. यह लगभग असंभव था जो संभव हुआ मां की बदौलत.’’

रात्रि जागरण

स्कूल स्तर की पढ़ाई अब सरलसहज नहीं रह गई है. लंबे बड़े स्लेबस के कारण किशोरकिशोरियां अकसर रात्रि में पढ़ने को प्राथमिकता देते हैं. ऐसे में उन के साथ रातरात भर जागने का काम मां ही ज्यादातर करती देखी जाती हैं. शिक्षाविद एवं चित्रकार डा. मोना सरदार डूडी कहते हैं, ‘‘रात मेरी पढ़ाई का पसंदीदा समय रहा है. यह इसलिए भी संभव हो सका क्योंकि मेरी खातिर मेरी मां भी नींद का परित्याग कर मुझे प्रोत्साहित करतीं. जब कभी देर रात मां आलस्य को आता देखतीं तो फौरन मुंहहाथ धोने का कह कर मार्गदर्शन कर देतीं. बिना कहे चाय भी बना कर ले आतीं. तब बात समझते देर नहीं लगी कि जब मां अपनी नींद कुरबान कर सकती हैं तो हम अपने लक्ष्य को पाने में पीछे क्यों हटें. मां का मेरे लिए रातभर जागने का सिलसिला वर्षों तक चला.’’

अनपढ़ मां भी किसी से कम नहीं

हमारा देश गांवों में बसता है. महिला शिक्षा अभी भी विशेष उल्लेखनीय नहीं है. मगर अशिक्षित मां भी बच्चों की पढ़ाई में सहयोगी हो सकती हैं. राजस्थान की प्रथम मुसलिम आरएएस महिला शमीम अख्तर अकसर कहा करती थीं कि उन की नानी मां अनपढ़ थीं मगर फिर भी उन्होंने अपनी 5 बेटियों को पढ़ाया और शिक्षक बनाया. आज उसी परिवार में अनपढ़ नानी मां की बदौलत, डाक्टर, प्रोफैसर, वैज्ञानिक, प्रशासनिक अधिकारी आदि सदस्य हैं.

छुपाएं नहीं दिखाएं बेबी बंप्स

वर्ष 2011 में मलेशियन डेयरी फ्रीसो ने जब मलेशियाई गर्भवती महिलाओं को अपने लुक्स और बढ़ते पेट के आकार को लेकर सैल्फ कोंशियसनैस से उबरने में मदद के उद्देश्य से फेसबुक पर कैंपेन चलाया था तब इस कैंपेन में देश की महिलाओं ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया था. कैंपेन के तहत गर्भवती महिलाओं को अपने बेबी बंप्स के साथ एक पिक्चर क्लिक कर के फ्रीसो के पेज पर अपलोड करनी थी.

मलेशियन सैलिब्रिटी  डीजे मम द्वारा इस कैंपेन में सब से पहले बेबी बंप वाली तस्वीर अपलोड की गई. इस के बाद तो मलेशियन महिलाओं ने हिचकिचाहट के तमाम पैमानों को दरकिनार कर अपनी बेबी बंप्स के साथ तस्वीरें अपलोड करना शुरू कर दीं. इस कैंपेन द्वारा 20000 से भी अधिक मलेशियन गर्भवती महिलाओं की गर्भावस्था के दौरान लुक्स को लेकर होने वाली झिझक को दूर करने का प्रयास किया गया था.

यदि हम भारत जैसे विकसित देश की बात करें, जहां डिजिटल क्रान्ति वर्षों पहले ही दस्तक दे चुकी है, वहाँ इस तरह का डिजिटल कैंपेन अब तक नहीं किया गया जिस में आम गर्भवती महिलाओं ने हिस्सा लिया हो. मगर भारत की कुछ सैलिब्रिटीज द्वारा अपने बेबी बंप्स की तस्वीरें ट्वीट करने या इंस्टाग्राम पर अपलोड करने के कई मामले देखे गए हैं.

समाज की दोहरी मानसिकता में फंसे बेबी बंप्स 

हाल ही में अभिनेत्री करीना कपूर खान द्वारा कराए गए प्री मैटरनिटी फोटोशूट के चर्चा में आने के बाद जरूर 1-2 गर्भवती महिलाओं ने इसे खुद पर आजमाया है मगर उन के फोटोशूट को सोशल मीडिया पर ज्यादा सराहा नहीं गया. इंदौर की वीर वाधवानी इन्हीं महिलाओं में से एक है. उन्होने करीना कपूर के फोटोशूट की देखादेखी यह शूट कराया और उन्हीं के पोज की नकल भी की. मगर जहां करीना कपूर खान को उनके फोटोशूट के लिए दर्शकों की प्रशंसा मिली वहीं वीर को आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. लोगों वीर के इस स्टेप को एक्शन सीकिंग स्टंट तक कह दिया . फिर क्या वीर की तस्वीरें एल्बम की परतों में बंद हो कर रेह गईं बस मगर यहाँ लोगों की डिप्लोमैटिक सोच पर बड़ा सवाल खड़ा होता है कि एक सैलिब्रिटी और एक आम महिला, दोनों ही एक ही अवस्था में हैं मगर व्यवहार दोनों के साथ अलगअलग क्यों?

इस बात का जवाब देते हुये कानपुर स्थित सखी केंद्र की संचालिका एवं सोशल एक्टिविस्ट नीलम चतुर्वेदी कहती हैं, ‘समाज महिलाओं के चरित्र को हमेशा खुद से ही वर्गीकृत कर देता है. यदि इस संबंध में बात की जाये तो समाज की सोच यहाँ दोहरी हो जाती है. करीना कपूर खान एक्ट्रेस है तो फोटो खिंचवाना उसके पेशे का हिस्सा है. मगर वीर जैसी आम महिलाएं ऐसा नहीं कर सकतीं क्योंकि समाज उन्हें बन्दिशों में जकड़ कर रखना चाहता है और यदि वे इस बंदिश को तोड़ती हैं तो उनका चरित्र हनन कर उन्हें कदम पीछे खींचने को मजबूर कर दिया जाता है. लोग उनकी खिल्ली उड़ाने लगते हैं जिससे घबराकर वह अपने द्वारा लिए गए फैसलों को गलत समझने लगती हैं.

मोटे दिखने की हिचकिचाहट 

भारत में यह ट्रैंड नया नहीं है. बीते 5-6 वर्षों से बॉलीवुड सेलेब्स इस तरह के फोटोशूट करा रहे हैं. हॉलीवुड में तो बरसों पहले ही यह ट्रैंड आगया था. माना जाता है की बेबी बंप्स के साथ ओपन होने का ट्रैंड हॉलीवुड एक्ट्रेस डेमी मूर ने शुरू किया था. बॉलीवुड एक्ट्रेसेस में भी प्री मैटरनिटी का क्रेज दिन पर दिन बढ़ता जा रहा है और उनकी देखादेखी आम महिलाएं भी बेबी बंप्स के साथ प्री मैटरनिटी फोटोशूट में दिलचस्पी दिखा रही हैं. बावजूद इस के सोशल मीडिया पर केवल अभिनेत्रियों के ही इस तरह के फोटोशूट देखने को मिलते हैं.

माना की पुरानी घिसिपीटी परम्पराओं और धार्मिक ढकोसलों के अनुसार गर्भवती महिला को ज्यादा किसी के सामने नहीं आने की अनुमति होती है. घर के बड़े बुजुर्ग इस अवस्था में महिलाओं को पेट ढक कर रखने की भी सलाह देते हैं. मगर मगर 21 वीं सदी की महिलाएं इन ढकोसलों को पीछे छोड़ कर काफी आगे बढ़ चुकी हैं. इसका सबसे बड़ा उदाहरण वह महिलाएं हैं, जो 9वें महीने में भी दफ्तर जाना नहीं छोड़ती. मगर बात जब बेबी बंप्स शोऑफ की आती है तो यही महिलाएं अपने कदम पीछे खींच लेती हैं.
दिल्ली मैट्रो में करोल बाग से वैशाली तक रोजाना सफर करने वाली मयंका की प्रैगनैंसी का 8वां महिना चल रहा है. मयंका का पहला बेबी है इसलिए वह बेहद एक्साइटेड हैं लेकिन बेबी बंप के साथ पब्लिक प्लेस पर उन्हें थोड़ा अटपटा लगता हैं. इसलिए मयंका हमेशा दुपट्टे से अपना पेट ढाँक कर रखती हैं. वह ऐसा क्योंक करती हैं ? पूछने पर वह बताती हैं, ‘बड़ा सा पेट थोड़ा अजीब लगता है. हाला कि जहां जाओ सब केयर करते हैं मगर निगाह तो मेरे पेट पर जाती ही है, तो थोड़ा खुद को लगता है कि कैसी दिख रही हूँ. ’

मयंका अकेली नहीं बल्कि हर गर्भवती महिला की भारत में यही कहानी है. बढ़ा हुआ पेट लेकर कैसे किसी के सामने जाएँ? ऐसे में प्री मैटरनिटी फोटोशूट कराने का हौसला कम ही महिलाएं दिखा पाती हैं.
ऐसी ही बुलंद हौसले वाली महिला हैं दिल्ली निवासी हीना. हीना ने 2013 में अपनी पहली संतान को जन्म देने से 2 दिन पूर्व ही प्री मैटरनिटी फोटोशूट कराया था. अपना अनुभव बताते हुये वह कहती हैं, ‘पहले हिचकिचाहट हुई थी थोड़ी. लग रहा था कि मोटी दिखूंगी. मगर पति और सास के सहियोग से यह मेरे लिए आसान हो सका.

घरवालों के साथ से बन सकती है बात 

भारतीय लोगों की मानसिकता गर्भवती महिला के शरीर में होने वाले प्रतिदिन के बदलाव को अलगअलग रूप में परिभाषित करती है. इनमें सबसे पहले उस के खुद के घरवाले आते हैं. बस यहीं पर गर्भवती का आत्मविश्वास डगमगा जाता है और वो खुद को दूसरों की नज़र से देखने लगती है. इस अवस्था में महिलाओं की साइकोलौजी के बारे में बात करते हुये मनोचिकित्सक प्रतिष्ठा त्रिवेदी कहती हैं, ‘गर्भावस्था में महिलाओं के शरीर में कई परिवर्तन होते हैं. उनका वजन बढ़ जाता है,शरीर का आकार बदल जाता है, चेहरे पर परिपक्वता आजाति है. इन्हें आसानी से स्वीकार करना हर महिला के बस में नहीं होता. अलगअलग लोग जब उनके लुक्स के लिए अलगअलग बात करते हैं, उन्हें सलाह देने लगते है, तो उनका थोड़ा बहुत असहज होना स्वाभाविक है. मगर गर्भवती के बेबी बंप्स दिखना तो प्राकृतिक है. इस बात को समझना मुश्किल नहीं है. ’
कई बार पति द्वारा मज़ाक में फिगर खराब होने की बात सुन कर भी गर्भवती महिला भावुक हो जाती हैं. यहाँ पति को इस बात का ध्यान रखना है कि मज़ाक का विषय सावधानी से चुने. पुष्पावति सिंघानिया रिसर्च इंस्टिट्यूट में हैड गाइनाक्लौजिस्ट राहुल मनचंदा कहते हैं, ‘बेबी बंप्स केवल 7वें, 8वें और 9वें महीने में ही मैच्योर स्टेज पर होते हैं. प्रसव के बाद साल भर के अंदर महिलाएं वापिस से अपने पुराने बॉडी शेप को पा सकती हैं. इसलिए वजन कभी कम नहीं होगा यह सोचना गलत है. वजन को लेकर महिलाओं का भावुक होना समझा जा सकता है क्योंकि हार्मोनल बदलाव से उनका मूड स्विंग होता रेहता है. असल में तो वह भी यह बात जानती हैं कि ऐसा हमेशा के लिए नहीं है. मगर महिलाओं को इस बात का बारबार एहसास करना पड़ता है ताकि वह अवसाद जैसी गंभीर स्थिति का शिकार न हो. यह काम केवल पति और महिला के घरवाले ही कर सकते हैं.
प्री मैटरनिटी फोटोशूट भी महिलाओं की लुक्स को लेकर चिंता पर काबू पाने का अच्छा विकल्प है . इस बाबत चाइल्ड फोटोग्राफर साक्षी कहती हैं, ‘कहते हैं कि मानव प्रकृति कि सबसे खूबसूरत संरचना है. तो फिर एक नई ज़िंदगी को जन्म देने वाली महिला की यह अवस्था बदसूरत कैसे हो सकती है. बल्कि इस अवस्था में हर दिन होने वाले परिवर्तनों को तस्वीर में कैद करके रख लेना चाहिए. ताकि बाद में यही तस्वीरें अपने बच्चे को दिखाई जा सकें. बच्चे भी इन तस्वीरों की मदद से खुद को भावनात्मक रूप से माँ से जोड़ पाते हैं. ’

वैसे बेबी बंप्स को फ़्लौंट न होने देने कि चिंता सिर्फ शहरी महिलाओं को होती है. गाँव की औरतों को इसकी कोई चिंता नहीं होती. इस बाबत मनोचिकित्सक प्रतिष्ठा कहती हैं, ‘शहर की हर महिला स्लिम दिखना चाहती है. यह गलत भी नहीं ओवरवेट होना बीमारियों को न्यौता देना होता है. मगर प्रैगनैंसी कोई बीमारी नहीं है. बच्चे की ग्रोथ के साथसाथ बेबी बंप्स मैच्योर होते जाते हैं . यह एक प्रक्रिया है. अच्छी बात है की आधुनिक समय में महिलाएं इस पूरी प्रक्रिया को तस्वीरों में कैद कर सकती हैं. बाद में इन्हीं तस्वीरों को देख कर पुरानी यादें ताजा की जाती हैं. ’

अंधविश्वास से रहें दूर 

इन सब के अतिरिक गर्भवती महिलाओं को कैमरे से जुड़े मिथों पर भी ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए. एक मिथ के अनुसार गर्भावस्था के दौरान किसी भी तरह की इलैक्ट्रोनिक किरणें गर्भवती के पेट पर नहीं पड़नी चाहिए जब कि इस मसले पर गाइनाक्लौजिस्ट डॉक्टर राहुल की राय अलग है. वह कहते हैं, ‘पहले ट्राइमिस्टर में, जब बच्चे के ऑर्गन्स बन रहे होते हैं तब एक्सरे कराना माना होता है मगर उसके बाद कोई परेशानी नहीं है. जहां तक बात कैमरे से तस्वीर लेने की है तो विज्ञान में ऐसे प्रमाण कहीं नहीं मिलते कि बच्चे या माँ पर इसका कोई बुरा असर पड़ता हो.’ कई लोग यह भी कहते हैं कि गर्भवती महिला के तस्वीर खिंचवाने से बच्चे की ग्रोथ पर असर पड़ता है और पेट का आकार कम हो जाता है. मगर डॉक्टर राहुल इस बात का भी खंडन करते हैं. वह कहते हैं, ‘पेट का आकार कम है तो इंट्रायुट्राइन ग्रोथ रिटारडेशन की संभावना होती है, जिसमें बच्चे की ग्रोथ ठीक नहीं होती. मगर इसकी वजह गर्भवती द्वारा अच्छी डाइट न लेना होता है. मगर पेट का साइज ज्यादा है तो यह भी अच्छी बात नहीं ऐसे में बच्चा मधुमेह का शिकार हो सकता है. इन दोनों ही स्थितियों का कैमरे से कोई लेना देना नहीं होता है.’

अतः प्री मैटरनिटी फोटोशूट को हौआ समझने या गर्भवती द्वारा अपने बेबी बंप्स के साथ सोशल मीडिया में फोटो अपलोड करने को आलोचना का विषय बनाना केवल मानसिक संक्रामण की निशानी है. जिसका इलाज किसी भी चिकित्सक के पास नहीं है.

धुंध, भाग 4

सानविका को इस तरह बेचैन हो कर करवटें बदलते देख समीर ने हलके हाथों से उस के सिर को सहलाते हुए पूछा,” तबीयत तो ठीक है ना तुम्हारी, या फिर कोई परेशानी तो नहीं है?” जवाब में सानविका ने सिर्फ इतना ही कहा, ”कुछ भी नहीं. बस, थोड़ा काम का प्रेशर है, सिर में दर्द है…,” और फिर सानविका ने झट से लाइट औफ कर सोने की चेष्टा में आंखें मूंद ली, लेकिन नींद थी कि कोसों दूर.

सानविका ने मन ही मन तय किया कि कल कालेज से निकल कर वह सीधे साधना दी के घर हो आएगी. और यदि समीर ने कुछ पूछा, तो एक्स्ट्रा लेक्चर का बहाना बना देगी. सानविका के मन को साधना के वो शब्द और उस के पीछे छिपा दर्द देर रात तक बेचैन किए रहा. अगले दिन लगभग ढाई बजे तक सानविका अपने सारे लेक्चर खत्म कर कालेज के सभी काम से फ्री हो चुकी थी.

कालेज के गेट से बाहर निकल कर उस ने टैक्सी ले ली और टैक्सी ड्राइवर को दिल्ली के पौश एरिया गुलमोहर पार्क चलने के लिए कहा. साधना दीदी का बंगला दिल्ली के उसी पाश एरिया में स्थित था. उस के कालेज से उस की दूरी लगभग 2 घंटे की थी, लेकिन दिल्ली के ट्रैफिक में उसे वहां पहुंचने में लगभग तीन घंटे का समय लग गया. लगभग 5:30 बजतेबजते वह साधना के बंगले के आगे खड़ी थी.

उस ने अपनी कलाई घड़ी देखी, तो शाम के 5:30 बज रहे थे. कुछ पल के लिए सानविका दरवाजे के बाहर खड़ी सोचती रही. उस के मन में एक अजीब तरह की हलचल सी मची हुई थी. कुछ पल वैसी ही खड़ी वह कुछ सोचती रही और फिर एकदम से उस ने अचानक डोरबेल दबा दी. कुछ 5 मिनट तक वह बाहर ही खड़ी दरवाजा खुलने का इंतजार करती रही, लेकिन अंदर से कोई जवाब ना पा कर उस ने वापस से डोरबेल बजाने के लिए हाथ उठाए ही थे कि एक अनजान चेहरे ने दरवाजा खोला, ”मैडम अंदर आ जाइए,” बड़े ही शिष्टतापूर्वक एक दुबलीपतली सी दिखने वाली महिला उसे अंदर आने का इशारा करते हुए उस से कहा, जिस की उम्र तकरीबन 25-28 साल के बीच की रही होगी.

अंदर हाल में सन्नाटा पसरा हुआ था, ”घर पर कोई नहीं है क्या?” सानविका ने प्रश्नसूचक दृष्टि से उस महिला की ओर देखते हुए पूछा.

”नहीं… हां…, है, मेरा मतलब है, मैम अपने बिस्तर पर हैं.”

”कौन है गीतिका?” अंदर से जानीपहचानी सी आवाज आई.

लेकिन, सानविका के कानों को जिस दंभ मिश्रित, रोषपूर्ण स्वर की आदत थी, जिस आवाज की गरमी से, जिस की लपट में सानविका ने अपने अस्तित्व को प्रायः झुलसते पाया था, साधना की आवाज से निकलने वाली वह चिनगारी, वह आग शायद, अब ठंडी राख बन चुकी थी और वह ठंडी राख स्वयं साधना के ही इर्दगिर्द घूमती हुई सिमट जाती थी… सानविका के कानों को उस बेहद धीमी कांपती हुई आवाज पर यकीन ही नहीं आया.

साधना का बिलकुल असहाय, बेबस, लाचार शरीर पलंग पर पड़ा हुआ था. उस के चेहरे का वह नूर, वह चमक ना जाने कहां गायब हो गई थी. वहीं रंगरूप, जिस पर उसे घमंड रहा करता था, वह सबकुछ वक्त ने उस से छीना था या फिर किसी भयंकर बीमारी ने उस के शरीर पर धावा बोला था, लेकिन एक बात तो निश्चित है कि वक्त अपने साथ सबकुछ उड़ा लेता है, रंगरूप भी..

आवाज सुनते ही बड़े आतुरताव्याकुलता के साथ जैसे ही सानविका के कदम अंदर कमरे की ओर जाने के लिए लपके, वह ठिठक कर खड़ी रह गई. उस के कदम वहीं रुक गए. नजरें सामने की दीवार पर जा टिकीं…, सामने दीवार पर अरूल जीजा की तसवीर टंगी हुई थी और उस तसवीर के साथ लटक रही माला उन के इस दुनिया को अलविदा कह जाने की सूचना खुदबखुद दे रही थी. उस ने पलट कर गीतिका की ओर देखा, सानविका के प्रश्नवाचक मुद्रा को देखते ही गीतिका ने स्वयं ही उत्तर दे दिया, ”एक वर्ष हो गया रोड एक्सीडेंट में साहब चल बसे… मैम तभी से बीमार हैं.”

”और बच्चे…, वे कहां हैं…?”

”दो वर्ष हो गए मेरे यहां काम करते हुए, मैं ने कभी भी उन लोगों को यहां आते नहीं देखा. लेकिन हां, मेरे पहले जो सिस्टर यहां काम करती थी, उस ने मुझे एक बार बताया था कि बेटा और बहू लंदन में और बेटी आस्ट्रेलिया में है…, पर कभीकभार वे लोग फोन पर इन का हालसमाचार पूछ लेते हैं,” गीतिका ने एक सांस में सारी बातें बता दीं.

सानविका का कलेजा मुंह को आ गया. उस की पलकें गीली हो गईं, “मम्मीपापा, दादी, सब को गुजरे हुए कई वर्ष बीत गए… लेदे कर एक साधना दी ही थीं, लेकिन दीदी के अहंकार ने ही उन्हें सब से अलग कर दिया. एक शहर में रहते हुए भी वे एकदूसरे के सुखदुख से भी अनजान रहीं.

सानविका के होंठों से शिकवाशिकायत…, प्रेमअनुराग… नाराजगी, सभी भावों से एकसाथ लिपटा हुआ बस एक ही शब्द निकला, “साधना दी,” और वह दौड़ती हुई कमरे में आ कर साधना के गले से लिपट कर फूटफूट कर रो पड़ी.

साधना ने सानविका के आंसू अपने हाथों से पोंछते हुए कहा, ”ये सब मेरे पापों की सजा है. बस, तू एक बार मुझे दिल से माफ कर दे, तो मैं चैन से मर सकूं. वरना, मुझे मरने के बाद भी शांति नहीं मिलेगी…” इतना कह कर साधना रो पड़ी.

”खबरदार, जो आप ने ये बातें दोबारा कहीं तो…” सानविका ने यह बात जब साधना दी को प्यार से झिड़कते हुए कहा, तो साधना ने मुसकराने की कोशिश में होंठ फैला दिए. पर, उस के मुरझाए हुए चेहरे पर दर्द और पीड़ा की एक मोटी लकीर खींचती हुई आंखों से झांकने लगी. उस की वह मीठी सी मुसकान न जाने कहां खो गई थी. वही मुसकान, जिस पर ढेरों प्यार लुटा दिए जाते और सानविका का बालमन सदैव लालायित रहता.

सानविका ने गंभीरता से साधना के चेहरे को देखा. चेहरा झुर्रियों से भरा हुआ था, बड़ीबड़ी सुंदर आंखों के नीचे कालेकाले धब्बे छाए हुए थे. पूरा शरीर जर्जर हो चुका था.

अपनी ओर सानविका को देखता देख साधना ने बड़े ही प्यार से पूछा, ”क्या देख रही है?”

”कुछ नहीं, अपनी दीदी को देख रही हूं, उस दीदी को, जिसे मैं बचपन से तलाश रही थी, अब जा कर मिली है, लेकिन इस हालत में मिलेगी, ऐसा सोचा न था.”

जिस खूबसूरत चेहरे का घमंड, जिस के दंभ की मोटी परतों ने साधना के मनमस्तिष्क को धुंधला कर रखा था. जिस की धुंध ने उसे इतने लंबे समय तक सानविका के इस निश्च्छल प्रेम से भी ओझल रखा था, वक्त के थपेड़ों ने उस के मन पर जमीं उन परतों को झाड़पोंछ कर साफ कर दिया और उस में उजाले भर दिए और उस के उजाले में उसे नजर आ रहा था, उस की प्यारी छोटी बहन सानविका, जो उस से कहीं ज्यादा खूबसूरत थी, क्योंकि उस का मन उस से कहीं अधिक सुंदर था.

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