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मोटापा सेहत की निशानी नहीं

भारतीयों में पिछले 12-15 वर्षों के दौरान मोटापा बड़ी तेजी से बढ़ा है. मोटापे की 2 श्रेणियां मानी जाती हैं. पहली है ओवरवेट यानी जरूरत से ज्यादा वजन. इस से दिल और सांस से जुड़ी कई बीमारियां हो जाती हैं. दूसरी श्रेणी है ओबेसिटी, जो ढेर सारी बीमारियों का आधार होने के अलावा खुद में एक बीमारी है. इसे डाक्टर की मदद के बिना ठीक नहीं किया जा सकता है.

मैडिकल जर्नल ‘लांसेट’ में प्रकाशित सर्वे के अनुसार, भारत में करीब 20 प्रतिशत लोग मोटापे से जुड़ी किसी न किसी बीमारी से ग्रस्त हैं. खाने की खराब गुणवत्ता और शारीरिक श्रम का अभाव मोटापे की 2 बड़ी वजहें मानी जाती हैं. कार से सफर करना, एयरकंडीशंड में रहना, होटलों में खानापीना व लेटनाइट पार्टियों के मजे लेना आदि आज खातेपीते लोगों की जीवनशैली बन चुकी है.

ऐसी आदतों और जीवनशैली को ले कर हमें समय रहते चेत जाना जरूरी है क्योंकि कड़ी मेहनत की कमाई अगर हमें मोटापे से जुड़ी बीमारियों पर लुटानी पड़े तो यह अफसोसजनक है.

एक अन्य अध्ययन के अनुसार, वर्ष 2030 तक मोटापा नौन कम्यूनिकेबल डिजीज का एक बड़ा कारण बन जाएगा और दुनिया में 70 प्रतिशत मौतें मोटापे से जुड़ी बीमारियों की वजह से होंगी. इस सर्वे के अनुसार, वर्ष 2030 तक मोटापे से जुड़ी बीमारियों से मरने वाले लोगों में भारत जैसे विकासशील देश के लोगों की संख्या काफी अधिक होगी. मोटापा महामारी बन जाए, इस से पहले इस की रोक पर हमें गंभीर प्रयास शुरू कर देने चाहिए.

यह सवाल, कि हम ओवरवेट या मोटे हैं या नहीं, इस को डा. पारुल आर सेठ की रिपोर्ट से बेहतर ढंग से जाना जा सकता है.

कैसे जानें अपना बीएमआई : अपनी लंबाई और वजन के जरिए बौडी मास इंडैक्स यानी बीएमआई को कैलकुलेट किया जा सकता है. बीएमआई को जानने के लिए अपनी लंबाई को (मीटर में) इसी नंबर से गुणा कर दें. फिर जो नंबर मिले उसे अपने वजन (किलोग्राम) से भाग कर दें. इस से जो नंबर आएगा वह आप की बौडी का बीएमआई होगा.

क्या हो बीएमआई : अगर आप का बीएमआई 18.50 से कम है तो आप अंडरवेट हैं. बीएमआई 30 से ज्यादा होने का मतलब है कि आप मोटे हैं और आप को अपने बढ़ते वजन पर नियंत्रण करने की जरूरत है.

कमर कितनी हो: शरीर के मध्य भाग पर जमे फैट का अंदाजा कमर के मापने से हो जाएगा. इस के लिए टेप को अपने लोअर रिब्स और हिप्स के बीच के हिस्से में रखते हुए गहरी सांस छोड़ते हुए घेरा नापें.

पुरुषों में यह नाप 94 सैंटीमीटर और महिलाओं में 88 सैंटीमीटर से ज्यादा होने का मतलब है कि आप कार्डियोवैस्कुलर, स्ट्रोक या डायबिटीज जैसी बीमारियों के खतरे पर खड़े हैं. पुरुषों में यह नाप 102 सैंटीमीटर और महिलाओं में 88 सैंटीमीटर से ऊपर जाने की स्थिति में मोटापे से जुड़ी बहुत सी बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है.

वेस्ट-हिप रेशियो : वेस्ट यानी कमर, हिप्स यानी कूल्हे पर जमे फैट का अंदाजा लगाने के लिए उन का रेशियो निकाला जाता है. नाभि के पास से कमर की नाप लें और फिर कूल्हे के निचले हिस्से को नापें. कमर की नाप को कूल्हे की नाप से भाग कर दें. पुरुषों में यह रेशियो एक से ज्यादा और महिलाओं में 0.8 से ज्यादा आने का मतलब है कि आप हैल्थ प्रौब्लम के रिस्क जोन में हैं. ऐसे में आप को अपनी सेहत को ले कर सावधान हो जाने की सख्त जरूरत है.

वेट ज्यादा है तो : बीएमआई और वेस्ट की नाप ज्यादा होने का साफसाफ मतलब है कि आप ओवरवेट हैं और अपने वजन को नियंत्रण में रखने के लिए अब आप को हैल्दी लाइफस्टाइल अपनाने की सख्त जरूरत है. इस समय अगर आप अब भी रोजाना ऐक्सरसाइज व नियंत्रित खानपान पर ध्यान नहीं देंगे तो आप का शरीर और भी फैल जाएगा.

बढ़ते वजन पर नियंत्रण : सब से पहले हमें इस मूल धारणा को दिमाग से निकालना होगा कि बढ़ता वजन ‘सेहत बन रही है’ की निशानी है. दरअसल, बढ़ता वजन सेहत की नहीं, मोटापे की निशानी है. वजन पर नियंत्रण करें.

मोटापे से बचने के उपाय

–       प्रतिदिन ऐक्सरसाइज अवश्य करें. जिस में एरोबिक व कार्डियो ऐक्सरसाइज भी हो सकती हैं.

–       भोजन एकसाथ ज्यादा न करें. इकट्ठा बहुत सारा भोजन मोटापा लाता है. दिनभर में 6-7 बार थोड़ाथोड़ा कर भोजन लें.

–       हमेशा सुबह जल्दी सो कर उठें. सो कर उठने के बाद एकदम से काम में न लग जाएं. कम से कम 5 मिनट तक सीधा हो कर हलकेहलके कदम से कमरे के भीतर ही चलफिर कर शरीर का रक्तसंचार ठीक कर लें. फिर काम में लगें.

–       खाने में फल, जूस, दालें और कच्ची हरी सब्जियों का सेवन अधिक करें.

–       अपना आकारप्रकार देख कर और यदि ज्यादा असुविधा न हो तो किसी डाक्टर से परामर्श ले कर वजन व रक्त की मात्रा के आधार पर भोजन का निर्धारण करें.

–       तेलयुक्त चीजों का सेवन कम से कम करें.

–       डिनर जल्दी लिया करें.

–       लंच व डिनर हलका लें किंतु ब्रेकफास्ट भारी लिया करें.

दो चेहरे वाले लोग : रश्मि जीजा की किस हरकत से हैरान थी

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बड़े भैया : समीर ने अपने ही पिता को क्यों दी चेतावनी?

रविवार की सुबह मेरे पास बड़े भैया का फोन आ गया, ‘‘शेखर, आज सीमा के हाथ के बने मूली के परांठे खाने का दिल कर रहा है. सीमा से कहना कि मसाले में मिर्च ज्यादा तेज न रखे.’’

उन के आने की खबर सुनने के बाद ही मेरे घर में बेचैनी और तनाव के बादल घिर आए. मेरे परिवार के तीनों सदस्य मुझे घेरने वाले अंदाज में मेरे इर्दगिर्द आ बैठे थे.

किसी के बोलने से पहले ही मेरे बेटे समीर ने साफ शब्दों में मुझे चेतावनी दे दी, ‘‘पापा, आज आप ताऊजी को रूपाली के बारे में जरूर बता दो. इस मामले को और लटकाना ठीक नहीं है.’’

‘‘तुम सब अपने ताऊजी की आदत को जानते नहीं हो क्या?’’ मैं एकदम चिढ़ उठा, ‘‘वे जातिपांति और धर्मकर्म में विश्वास रखने वाले इनसान हैं. मांसमछली खाने वाली बंगाली लड़की से तेरे विवाह की बात सुन कर वे बहुत नाराज होंगे. शादी होने के 2 महीने पहले उन्हें खबर दे कर घर में फालतू का क्लेश कराने की कोई तुक बनती है क्या?’’

‘‘पापा, आप ताऊजी से इतना क्यों घबराते हैं?’’ मेरी बेटी अंकिता मुझ से नाराज हो उठी.

मेरी पत्नी सीमा भी अपने बच्चों का साथ देते हुए बोली, ‘‘हमें अपने बेटे की खुशी देखनी है या भाई साहब की? मैं तो कहती हूं कि जो क्लेश होना है, अभी हो जाए. बाद में खुशी के मौके पर घर में कोई हंगामा हो, यह हमें बिलकुल सहन नहीं होगा.’’

मैं परेशानी भरे अंदाज में हाथ मलते हुए भावुक हो कर बोला, ‘‘इस वक्त मेरी मनोदशा को तुम में से कोई भी नहीं समझ रहा है. बड़े भैया के बहुत एहसान हैं मुझ पर. उन्होंने अपनी व अपने बच्चों की सुखसुविधाओं में कटौती कर के मुझे पढ़ाया था. उन के लिए अपनी सीमित पगार में मेरी इंजीनियरिंग की पढ़ाई की फीस भरना आसान काम नहीं था. उन के फैसले के खिलाफ मैं न कभी गया हूं और न जाना चाहता हूं.’’

‘‘पापा, आप मुझे यह बताओ कि अगर आप पढ़ने में होशियार न होते तो क्या इंजीनियरबन पाते?’’ अंकिता मुझ से भिड़ने को तैयार हो गई थी.

‘‘मैं इतना भी होशियार नहीं था कि मुझे राज्य सरकार वजीफा दे कर पढ़वा देती. बड़े भैया ने आर्थिक कठिनाइयां झेल कर मेरी फीस दी उन के इस एहसान का बदला…’’

‘‘आप कब तक उन के उस एक एहसान के तले दबे रहेंगे?’’ सीमा ने मुझे ऊंची आवाज में टोक दिया, ‘‘आप ने पिछले 28 साल में क्या उन की कम आर्थिक सहायता की है? अभी 6 महीने पहले उन की बहू की डिलीवरी में क्या आप ने 20 हजार रुपए नहीं दिए थे?’’

‘‘मैं ने जो भी किया अपना फर्ज समझ कर किया है. मुझे अपने ढंग से इस समस्या को सुलझाने दो. कोई भी मुझ पर दबाव बनाने की कोशिश न करे,’’ सख्त लहजे में मैं उन्हें ऐसी चेतावनी दे कर अपने शयनकक्ष में चला आया था.

उम्र में मुझ से 12 साल बड़े भैया के सामने मैं कभी ऊंची आवाज में नहीं बोल सकता. वे मुझ से हमेशा आदेशात्मक लहजे में बात करते हैं लेकिन मैं ने भी कभी उन के यों रोब मारने का बुरा नहीं माना.

अब मेरे बच्चे बड़े हो गए हैं तो सीमा का नजरिया भी बदल गया है. ये तीनों हमारे आपसी संबंधों के समीकरण को समझने में असमर्थ हैं. बड़े भैया को मैं जो इज्जत देता हूं, उसे मेरे बच्चे मेरी कायरता और दब्बूपन समझते हैं.

12 बजे के करीब बड़े भैया मेरे घर आ गए थे. दीवान पर आराम से लेट जाने के बाद उन्होंने मुझे हुक्म सुनाया, ‘‘शेखर, आज शाम हमें पिताजी के दोस्त ओमप्रकाशजी के यहां चलना है.’’

‘‘किस लिए जाना है उन के यहां?’’ पहले से तनावग्रस्त मेरा मन फौरन अजीब सी चिढ़ का शिकार हो गया था.

‘‘उन का हालचाल पूछने चलेंगे. दिल की तकलीफ के कारण वे हफ्ते भर अस्पताल में रह कर आए हैं.’’

‘‘पर बड़े भैया, हम उन का हालचाल पूछने क्यों जाएं? मैं ने उन्हें दसियों साल से देखा ही नहीं है. मुझे तो उन की शक्ल भी ढंग से याद नहीं है.’’

‘‘यह कैसी नासमझी की बात कर रहा है तू? पिताजी के दोस्त का हालचाल पूछने जाना हमारा कर्तव्य है,’’ उन्होेंने मुझे डपट दिया.

अपने मन की परेशानी के चलते मैं जिंदगी में पहली बार जानबूझ कर भैया की इच्छा के खिलाफ बोला, ‘‘भैया, मेरे पास न समय है न मैं उन से मिलने जाने की जरूरत समझता हूं. आप कार ले कर उन से मिलने अकेले चले जाना.’’

मेरा ऐसा रूखा सा जवाब सुन कर वे हक्केबक्के से रह गए. उन्हें सपने में भी उम्मीद नहीं थी कि उन के सामने हमेशा ‘हां, हां’ करने वाला उन का छोटा भाई कभी इस सुर में बात करेगा.

‘‘मैं रिकशा कर के चला जाऊंगा,’’ उन की सुस्त हो गई आवाज मुझे अंदर तक हिला गई.

मैं ने भी उन के दिल पर लगे जख्म पर मरहम लगाने की कोई कोशिश नहीं की. मैं उन्हें अब किसी तरह के भुलावे में नहीं रखना चाहता था. आगे चल कर मेरे बच्चों से उन्हें ज्यादा मानसम्मान नहीं मिलने वाला था. मैं चाहता था कि भैया बच्चों के हाथों भविष्य में मिलने वाले सदमे झेलने के लिए अभी से तैयार हो जाएं.

तभी सीमा चाय ले कर आई तो वे मुसकराते हुए बोले, ‘‘सीमा, तुम्हारे हाथ के बने मूली के परांठे खाए कई दिन हो गए थे. अब तुम्हारी भाभी से रसोई में ज्यादा काम नहीं होता. बहू के हाथ के बने परांठों में वह करारापन नहीं होता जो तुम्हारे हाथ के बने परांठों में होता है.’’

‘‘भाई साहब, आज तो मैं ने सुबह से ही सरसों का साग बनाने की तैयारी कर ली थी. परांठा खाने आप किसी और दिन आ जाइएगा,’’ सीमा ने बिना उन से नजरें मिलाए दबे स्वर में जवाब दिया तो भैया चौंक पड़े.

कुछ पलों की खामोशी के बाद भैया बनावटी हंसी हंसते हुए बोले, ‘‘चलो, आज साग ही खा लेते हैं. मतलब तो पेट भरने से है.’’

मैं ने नोट किया कि पल भर में उन की आंखें बुझीबुझी सी हो गई थीं. वे सीधे लेट कर छत को ताकते हुए भजन गाने लगे. यह सभी जानते हैं कि अपने मन की चिंता व दुखदर्द छिपाने के लिए बड़े भैया भजन गाने का सहारा लेते थे.

मुझ से और सहन नहीं हुआ तो मैं बैठक से उठ कर अपने कमरे में आ गया. अचानक ही मेरी आंखों में आंसू भर आए थे.

‘‘पापा, आप रूपाली के बारे में ताऊजी से कब बात करोगे?’’ मेरे पीछेपीछे समीर ने कमरे में आ कर तीखी आवाज में मुझ से यह सवाल पूछा तो मेरे सब्र का घड़ा फूट गया.

‘‘बंगाली लड़की से शादी करने का फैसला तुम ने किया है न? तो अपने ताऊजी से बात भी तुम ही करो. मैं किसी से कुछ कहनेसुनने नहीं जा रहा हूं,’’ मैं उस पर अचानक गुर्राया तो समीर सहम कर दो कदम पीछे हट गया था.

मैं ने फौरन उसे ‘सौरी’ कहा. उस ने मेरी आंखों में छलक रहे आंसू देखे तो परेशान हो कर बोला, ‘‘पापा, आप इतनी ज्यादा टैंशन मत लो, प्लीज. आप उन से अभी कुछ नहीं कहना चाहते हो तो इट इज ओके. अगर आप का ब्लडप्रैशर हाई हो गया तो सब के लिए परेशानी खड़ी हो जाएगी.’’

मैं ने आंखें मलते हुए उस से सुस्त आवाज में कहा, ‘‘मैं मौका देख कर आज ही भाई साहब से बात करूंगा. तुम कुछ देर के लिए उन के पास जा कर बैठो. मैं मुंह धो कर आता हूं.’’

भाई साहब से बंगाली लड़की को घर की बहू बना लाने की बात खुल कर कहने का फैसला कर के जब मैं फै्रश हो कर बैठक में पहुंचा तो वे वहां मौजूद नहीं थे.

मेरा दिल धक से रह गया. अपने घर वालों पर मुझे एकाएक बहुत गुस्सा आया और मैं ने ऊंची आवाज में पूछा, ‘‘भाई साहब को बिना खाना खाए क्यों जाने दिया तुम लोगों ने?’’

अंकिता फौरन भागती हुई बैठक में आई और नाराज लहजे में बोली, ‘‘बिना बात के इतनी जोर से मत चिल्लाओ पापा. भैया ताऊजी को साथ ले कर बाजार तक गए हैं.’’

‘‘क्यों?’’

‘‘रसमलाई लाने के लिए.’’

‘‘ओह, मुझे लगा कि वे नाराज हो कर बिना खाना खाए ही चले गए हैं,’’ मैं आंतरिक तनाव कम करने के लिए अपनी कनपटियां मसलने लगा तो अंकिता अजीब नजरों से मुझे घूरती हुई वापस अपने कमरे की तरफ चली गई.

भाई साहब को रसमलाई बहुत पसंद है. मूली के परांठे न मिलने की पीड़ा रसमलाई खा कर कुछ तो कम होगी, ऐसा सोचते हुए मेरे होंठों पर छोटी सी मुसकान उभर आई थी.

सोफे पर बैठेबैठे मेरी कुछ देर को आंख लग गई थी. जब वे दोनों घंटे भर बाद बाजार से लौटे तो बड़े भैया ने मुझे हिला कर जगाया था.

आंखें खोलते ही मैं ने नोट किया कि बड़े भैया के तेवर चढ़े हुए थे और उन के पीछे खड़ा समीर मुंह पर उंगली रख मुझ से चुप रहने की प्रार्थना कर रहा था.

‘अब होगा घर में क्लेश,’ ऐसा सोचते ही मेरा दिल चिंता के मारे जोर से धड़कने लगा था.

‘‘छोटे, तू कौन से जमाने में जी रहा है?’’ उन्होंने बड़े सख्त लहजे में मुझ से सवाल पूछा.

‘‘मैं कुछ समझा नहीं, बड़े भैया,’’ मैं चौंक कर सीधा बैठ गया.

‘‘छोटी सी बात को ले कर घर में तकरार मचाने का क्या औचित्य है?’’

‘‘यह आप क्या कह रहे हैं? मैं ने क्या क्लेश मचाया है?’’

‘‘अब ज्यादा बन मत. तुझे क्या ऐसा लग रहा था कि बात मेरे कानों तक कभी पहुंचेगी ही नहीं?’’

‘‘कौन सी बात?’’

‘‘मेरे भाई, अगर समीर बंगाली लड़की से ब्याह कर भी लेगा, तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा? और शादी के खिलाफ अपना फैसला सुनाने से पहले तू ने मुझ से इस बात पर चर्चा क्यों नहीं की? आज मुझे तू यह बता ही दे कि घर में बड़ा मैं हूं या तू है?’’

‘‘बड़े तो आप ही हो, लेकिन…’’

‘‘जब बड़ा मानता है, तो ‘लेकिन’ का दुमछल्ला क्यों लगा रहा है? अब मुझे बता कि हम अपने बच्चों की खुशियों को ध्यान में रख कर इस शादी के बारे में फैसला लें या जात के चक्कर में फंस कर अपने समीर की खुशियों का गला घोंटें?’’

उन के सवाल को सुन कर मेरा मुंह हैरानी से खुला का खुला रह गया. साथ ही एक झटके में सारी बात मेरी समझ में आ गई थी.

मैं ने अंदाजा लगाया कि समीर ने उन्हें बताया था कि इस अंतर्जातीय विवाह के मैं खिलाफ हूं. मुझे खलनायक बना कर उस ने बड़े भैया को हीरो बनने का मौका दे दिया था.

अब होने वाले नाटक में जान डालने के लिए मैं भी फौरन तैयार हो गया. ‘‘भैया, उस लड़की को ढंग से हिंदी बोलनी नहीं आती,’’ मैं ने अपने माथे पर बल डाल कर इसशादी के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया.

‘‘अरे, तो इन दिस हाउस किस का हैंड इज कमजोर इन इंगलिश?’’ बड़े भैया की इस हिंगलिश को सुन कर मेरे लिए हंसी रोकना कितना मुश्किल हो रहा होगा, इस का अंदाजा कोई भी लगा सकता है.

‘‘वह मछली खाती है और हम ब्राह्मण हैं.’’

‘‘तो छोड़ देगी वह मछली खाना.’’

‘‘बड़े भैया, आप समझ नहीं रहे हो. वह आजकल के जमाने की तेजतर्रार लड़की है. इसलिए हमारे घर के सीधेसादे माहौल में वह फिट नहीं हो पाएगी.’’

‘‘यार, तू कैसी बच्चों जैसी बातें कर रहा है? उसे अपने घर के रंग में ढालना तो हम लोगों के हाथ में है. वह साग खिलाए तो साग खा लेंगे…जब परांठे खिलाए, तो परांठे खा लेंगे. अगर रोज खाना बाजार से आने लगे तो तू भी खाना सीख लेना, मेरे भाई,’’ मुझे लगा कि यों मजाक कर के शायद बड़े भैया अपने को ही समझा रहे थे.

‘‘आप सारी बात मजाक में मत लो, भैया.’’

‘‘मैं मजाक नहीं कर रहा हूं,’’ वह एकदम से संजीदा हो गए, ‘‘देख, अब हम जैसे रिटायर या रिटायरमैंट की तरफ बढ़ते लोग बच्चों के साथ नहीं चलेंगे… उन के साथ मिलजुल कर नहीं रहेंगे, तो घर में हमारा गुजारा होना मुश्किल हो जाएगा. अपने मानसम्मान व जातिपांति की दुहाई दे कर क्लेश करना और अपने बच्चों की खुशियों को दांव पर लगाना समझदारी की बात नहीं है. मेरा आदेश है कि इस शादी को ले कर तू घर में बिलकुल क्लेश नहीं करेगा.’’

‘‘जी, बड़े भैया,’’ अपनी आंखों में उभरी खुशी की चमक को उन से छिपाने के लिए मैं ने अपना सिर आज्ञा मानने वाले अंदाज में झुका लिया था.

‘‘देखा, तुम सब ने. कितना आज्ञाकारी है मेरा छोटा भाई. मेरे समझाने पर भी यह अपना फैसला नहीं बदलेगा, ऐसा सोच कर तुम सब खामखां ही परेशान हो रहे थे,’’ उन्होंने आगे बढ़ कर मुझे प्यार से गले लगा लिया.

मैं भावविभोर हो उन की छाती से लग कर रो पड़ा. उन्होंने सब के सामने मुझ पर अपना रौब जमाने का यह मौका भी नहीं चूका और मुझे अगला आदेश दिया, ‘‘जब बात खुशी की हो रही है, तो यह लटका हुआ चेहरा नहीं चलेगा. चल, फटाफट सब को मुसकरा कर दिखा.’’

मैं फौरन दिल खोल कर मुसकराया था. आज मैं उन की समझदारी का कायल हो गया और मेरी नजरों में उन की इज्जत बहुत ज्यादा बढ़ गई थी.

छोटू की तलाश : क्या पूरी हो पाई छोटू की तलाश?

सुबह का समय था. घड़ी में तकरीबन साढे़ 9 बजने जा रहे थे. रसोईघर में खटरपटर की आवाजें आ रही थीं. कुकर अपनी धुन में सीटी बजा रहा था. गैस चूल्हे के ऊपर लगी चिमनी चूल्हे पर टिके पतीलेकुकर वगैरह का धुआं समेटने में लगी थी. अफरातफरी का माहौल था.

शालिनी अपने घरेलू नौकर छोटू के साथ नाश्ता बनाने में लगी थीं. छोटू वैसे तो छोटा था, उम्र यही कोई 13-14 साल, लेकिन काम निबटाने में बड़ा उस्ताद था. न जाने कितने ब्यूरो, कितनी एजेंसियां और इस तरह का काम करने वाले लोगों के चक्कर काटने के बाद शालिनी ने छोटू को तलाशा था.

2 साल से छोटू टिका हुआ, ठीकठाक चल रहा था, वरना हर 6 महीने बाद नया छोटू तलाशना पड़ता था. न जाने कितने छोटू भागे होंगे.

शालिनी को यह बात कभी समझ नहीं आती थी कि आखिर 6 महीने बाद ही ये छोटू घर से विदा क्यों हो जाते हैं?

शालिनी पूरी तरह से भारतीय नारी थी. उन्हें एक छोटू में बहुत सारे गुण चाहिए होते थे. मसलन, उम्र कम हो, खानापीना भी कम करे, जो कहे वह आधी रात को भी कर दे, वे मोबाइल फोन पर दोस्तों के साथ ऐसीवैसी बातें करें, तो उन की बातों पर कान न धरे, रात का बचाखुचा खाना सुबह और सुबह का शाम को खा ले.

कुछ खास बातें छोटू में वे जरूर देखतीं कि पति के साथ बैडरूम में रोमांटिक मूड में हों, तो डिस्टर्ब न करे. एक बात और कि हर महीने 15-20 किट्टी पार्टियों में जब वे जाएं और शाम को लौटें, तो डिनर की सारी तैयारी कर के रखे.

शालिनी के लिए एक अच्छी बात यह थी कि यह वाला छोटू बड़ा ही सुंदर था. गोराचिट्टा, अच्छे नैननक्श वाला. यह बात वे कभी जबान पर भले ही न ला पाई हों, लेकिन वे जानती थीं कि छोटू उन के खुद के बेटे अनमोल से भी ज्यादा सुंदर था. अनमोल भी इसी की उम्र का था, 14 साल का.

घर में एकलौता अनमोल, शालिनी और उन के पति, कुल जमा 3 सदस्य थे. ऐसे में अनमोल की शिकायतें रहती थीं कि उस का एक भाई या बहन क्यों नहीं है? वह किस के साथ खेले?

नया छोटू आने के बाद शालिनी की एक समस्या यह भी दूर हो गई कि अनमोल खुश रहने लग गया था. शालिनी ने छोटू को यह छूट दे दी कि वह जब काम से फ्री हो जाए, तो अनमोल से खेल लिया करे.

छोटू पर इतना विश्वास तो किया ही जा सकता था कि वह अनमोल को कुछ गलत नहीं सिखाएगा.

छोटू ने अपने अच्छे बरताव और कामकाज से शालिनी का दिल जीत लिया था, लेकिन वे यह कभी बरदाश्त नहीं कर पाती थीं कि छोटू कामकाज में थोड़ी सी भी लापरवाही बरते. वह बच्चा ही था, लेकिन यह बात अच्छी तरह समझता था कि भाभी यानी शालिनी अनमोल की आंखों में एक आंसू भी नहीं सहन कर पाती थीं.

अनमोल की इच्छानुसार सुबह नाश्ते में क्याक्या बनेगा, यह बात शालिनी रात को ही छोटू को बता देती थीं, ताकि कोई चूक न हो. छोटू सुबह उसी की तैयारी कर देता था.

छोटू की ड्यूटी थी कि भयंकर सर्दी हो या गरमी, वह सब से पहले उठेगा, तैयार होगा और रसोईघर में नाश्ते की तैयारी करेगा.

शालिनी भाभी जब तक नहाधो कर आएंगी, तब तक छोटू नाश्ते की तैयारी कर के रखेगा. छोटू के लिए यह दिनचर्या सी बन गई थी.

आज छोटू को सुबह उठने में देरी हो गई. वजह यह थी कि रात को शालिनी भाभी की 2 किट्टी फ्रैंड्स की फैमिली का घर में ही डिनर रखा गया था. गपशप, अंताक्षरी वगैरह के चलते डिनर और उन के रवाना होने तक रात के साढे़ 12 बज चुके थे. सभी खाना खा चुके थे. बस, एक छोटू ही रह गया था, जो अभी तक भूखा था.

शालिनी ने अपने बैडरूम में जाते हुए छोटू को आवाज दे कर कहा था, ‘छोटू, किचन में खाना रखा है, खा लेना और जल्दी सो जाना. सुबह नाश्ता भी तैयार करना है. अनमोल को स्कूल जाना है.’

‘जी भाभी,’ छोटू ने सहमति में सिर हिलाया. वह रसोईघर में गया. ठिठुरा देने वाली ठंड में बचीखुची सब्जियां, ठंडी पड़ चुकी चपातियां थीं. उस ने एक चपाती को छुआ, तो ऐसा लगा जैसे बर्फ जमी है. अनमने मन से सब्जियों को पतीले में देखा. 3 सब्जियों में सिर्फ दाल बची हुई थी. यह सब देख कर उस की बचीखुची भूख भी शांत हो गई थी. जब भूख होती है, तो खाने को मिलता नहीं. जब खाने को मिलता है, तब तक भूख रहती नहीं. यह भी कोई जिंदगी है.

छोटू ने मन ही मन मालकिन के बेटे और खुद में तुलना की, ‘क्या फर्क है उस में और मुझ में. एक ही उम्र, एकजैसे इनसान. उस के बोलने से पहले ही न जाने कितनी तरह का खाना मिलता है और इधर एक मैं. एक ही मांबाप के

5 बच्चे. सब काम करते हैं, लेकिन फिर भी खाना समय पर नहीं मिलता. जब जिस चीज की जरूरत हो तब न मिले तो कितना दर्द होता है,’ यह बात छोटू से ज्यादा अच्छी तरह कौन जानता होगा.

छोटू ने बड़ी मुश्किल से दाल के साथ एक चपाती खाई औैर अपने कमरे में सोने चला गया. लेकिन उसे नींद नहीं आ रही थी. आज उस का दुख और दर्र्द जाग उठा. आंसू बह निकले. रोतेरोते सुबकने लगा वह और सुबकते हुए न जाने कब नींद आ गई, उसे पता ही नहीं चला.

थकान, भूख और उदास मन से जब वह उठा, तो साढे़ 8 बज चुके थे. वह उठते ही बाथरूम की तरफ भागा. गरम पानी करने का समय नहीं था, तो ठंडा पानी ही उडे़ला. नहाना इसलिए जरूरी था कि भाभी को बिना नहाए किचन में आना पसंद नहीं था.

छोटू ने किचन में प्रवेश किया, तो देखा कि भाभी कमरे से निकल कर किचन की ओर आ रही थीं. शालिनी ने जैसे ही छोटू को पौने 9 बजे रसोईघर

में घुसते देखा, तो उन की त्योरियां चढ़ गईं, ‘‘छोटू, इस समय रसोई में घुसा है? यह कोई टाइम है उठने का? रात को बोला था कि जल्दी उठ कर किचन में तैयारी कर लेना. जरा सी भी अक्ल है तुझ में,’’ शालिनी नाराजगी का भाव लिए बोलीं.

‘‘सौरी भाभी, रात को नींद नहीं आई. सोया तो लेट हो गया,’’ छोटू बोला.

‘‘तुम नौकर लोगों को तो बस छूट मिलनी चाहिए. एक मिनट में सिर पर चढ़ जाते हो. महीने के 5 हजार रुपए, खानापीना, कपड़े सब चाहिए तुम

लोगों को. लेकिन काम के नाम पर तुम लोग ढीले पड़ जाते हो…’’ गुस्से में शालिनी बोलीं.

‘‘आगे से ऐसा नहीं होगा भाभी,’’ छोटू बोला.

‘‘अच्छाअच्छा, अब ज्यादा बातें मत बना. जल्दीजल्दी काम कर,’’ शालिनी ने कहा.

छोटू और शालिनी दोनों तेजी से रसोईघर में काम निबटा रहे थे, तभी बैडरूम से अनमोल की तेज आवाज आई, ‘‘मम्मी, आप कहां हो? मेरा

नाश्ता तैयार हो गया क्या? मुझे स्कूल जाना है.’’

‘‘लो, वह उठ गया अनमोल. अब तूफान खड़ा कर देगा…’’ शालिनी किचन में काम करतेकरते बुदबुदाईं.

‘‘आई बेटा, तू फ्रैश हो ले. नाश्ता बन कर तैयार हो रहा है. अभी लाती हूं,’’ शालिनी ने किचन से ही अनमोल को कहा.

‘‘मम्मी, मैं फ्रैश हो लिया हूं. आप नाश्ता लाओ जल्दी से. जोरों की भूख लगी है. स्कूल को देर हो जाएगी,’’ अनमोल ने कहा.

‘‘अच्छी आफत है. छोटू, तू यह

दूध का गिलास अनमोल को दे आ.

ठंडा किया हुआ है. मैं नाश्ता ले कर आती हूं.’’

‘‘जी भाभी, अभी दे कर आता हूं,’’ छोटू बोला.

‘‘मम्मी…’’ अंदर से अनमोल के चीखने की आवाज आई, तो शालिनी भागीं. वे चिल्लाते हुए बोलीं, ‘‘क्या हुआ बेटा… क्या गड़बड़ हो गई…’’

‘‘मम्मी, दूध गिर गया,’’ अनमोल चिल्ला कर बोला.

‘‘ओह, कैसे हुआ यह सब?’’ शालिनी ने गुस्से में छोटू से पूछा.

‘‘भाभी…’’

छोटू कुछ बोल पाता, उस से पहले ही शालिनी का थप्पड़ छोटू के गाल पर पड़ा, ‘‘तू ने जरूर कुछ गड़बड़ की होगी.’’

‘‘नहीं भाभी, मैं ने कुछ नहीं किया… वह अनमोल भैया…’’

‘‘चुप कर बदतमीज, झूठ बोलता है,’’ शालिनी का गुस्सा फट पड़ा.

‘‘मम्मी, छोटू का कुसूर नहीं था. मुझ से ही गिलास छूट गया था,’’ अनमोल बोला.

‘‘चलो, कोई बात नहीं. तू ठीक तो है न. जलन तो नहीं हो रही न? ध्यान से काम किया कर बेटा.’’

छोटू सुबक पड़ा. बिना वजह उसे चांटा पड़ गया. उस के गोरे गालों पर शालिनी की उंगलियों के निशान छप चुके थे. जलन तो उस के गालों पर हो रही थी, लेकिन कोई पूछने वाला नहीं था.

‘‘अब रो क्यों रहा है? चल रसोईघर में. बहुत से काम करने हैं,’’ शालिनी छोटू के रोने और थप्पड़ को नजरअंदाज करते हुए लापरवाही से बोलीं.

छोटू रसोईघर में गया. कुछ देर रोता रहा. उस ने तय कर लिया कि अब इस घर में और काम नहीं करेगा. किसी अच्छे घर की तलाश करेगा.

दोपहर को खेलते समय छोटू चुपचाप घर से निकल गया. महीने की 15 तारीख हो चुकी थी. उस को पता था कि 15 दिन की तनख्वाह उसे नहीं मिलेगी. वह सीधा ब्यूरो के पास गया, इस से अच्छे घर की तलाश में.

उधर शाम होेने तक छोटू घर नहीं आया, तो शालिनी को एहसास हो गया कि छोटू भाग चुका है. उन्होंने ब्यूरो में फोन किया, ‘‘भैया, आप का भेजा हुआ छोटू तो भाग गया. इतना अच्छे से अपने बेटे की तरह रखती थी, फिर भी न जाने क्यों चला गया.’’

छोटू को नए घर और शालिनी को नए छोटू की तलाश आज भी है. दोनों की यह तलाश न जाने कब तक पूरी होगी.

बिना शादी किए मां बनना चाहती थी Divyanka Tripathi, ब्रेकअप के बाद लिया था फैसला

Divyanka Tripathi Personal Life Secrets : टीवी की मोस्ट पॉपुलर और खूबसूरत एक्ट्रेस ‘दिव्यांका त्रिपाठी’ बेशक काफी लंबे समय से छोटे परदे से दूर हैं लेकिन उनके फैंस की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है. स्क्रीन पर आखिरी बार उन्हें सीरियल ‘ये है मोहब्बतें’ में देखा गया था. शो में अपनी एक्टिंग से उन्होंने हर किसी को अपना दीवाना बना दिया था. इसके अलावा वह ‘खतरों के खिलाड़ी’ में भी नजर आई थी.

बीते दिनों एक्ट्रेस (Divyanka Tripathi) ने मीडिया को एक इंटरव्यू दिया, जिसमें उन्होंने अपनी पर्सनल लाइफ पर खुलकर बात की है. उन्होंने अपने ब्रेकअप से लेकर बच्चा गोद लेने की बात के बारे में बताया.

शरद से सच्चा प्यार करती थी दिव्यंका

दरअसल टीवी एक्टर विवेक दहिया से शादी करने से पहले दिव्यंका, अभिनेता शरद मल्होत्रा (Sharad Malhotra) को डेट कर रही थी. लेकिन दोनों का रिश्ता शादी तक पहुंचने से पहले ही टूट गया था. हालांकि दिव्यंका अपने रिश्ते को लेकर काफी ज्यादा सीरियस थी. इसी वजह से कई बार उन्होंने अपने ब्रेकअप को लेकर मीडिया से खुलकर बात की है. वहीं अब एक बार फिर दिव्यंका ने बताया कि ब्रेकअप के बाद उन्होंने बच्चा गोद लेने की प्लानिंग की थी.

दिव्यंका (Divyanka Tripathi) ने अपना दर्द बयां करते हुए कहा, ‘ब्रेकअप के बाद मुझसे मेरी मां ने पूछा था कि तुम बाहर प्यार को क्यों तलाश कर रही हो? प्यार को ढूंढने की जगह तुम खुद से प्यार करो. मुझे याद है कि उस समय मैं व्हीलचेयर पर थी. मैं, मेरी मां के साथ एक ज्वेलरी स्टोर पर गई और मैंने खुद के लिए ही एक एंगेजमेंट रिंग ली, जिसके बाद मैंने खुद से सगाई कर ली.’

विवेक ने कैसे बदली दिव्यंका की जिंदगी?

वहीं बच्चे को गोद लेने वाली बात पर दिव्यंका ने कहा, ‘मैंने सोशल मीडिया पर भी कई बार इस बारे में बात की है. अगर उस समय मेरी जिंदगी में विवेक नहीं आते तो मैं एक बच्चे को गोद लेने के बारे में सोच रही थी. मुझे प्यार और एक साथी की जरूरत थी. हालांकि यह जरुरी नहीं है कि वह एक पार्टनर की तरह ही हो. लेकिन मेरी जिंदगी में विवेक के आने के बाद कई सारी चीजें बदल गई.’

इसके अलावा एक्ट्रेस (Divyanka Tripathi) ने यह भी बताया कि ब्रेकअप के दर्द से उभरने के लिए उन्होंने खुद को बिजी रखने के लिए बहुत सारा काम ले लिया था. और उस समय उनका साथ उनकी मां ने ही दिया था.

2016 में विवेक-दिव्यंका ने की थी शादी

आपको बता दे कि सीरियल “ये हैं मोहब्बते” (yeh hai mohabbatein) के सेट पर ही दिव्यांका त्रिपाठी की मुलाकात विवेक दहिया (vivek dahiya) से हुई थी. इसके बाद दोनों की लव स्टोरी शुरू हो गई. पहले दोनों ने एक दूसरे को कई सालों तक डेट किया और फिर साल 2016 में शादी कर ली.

छत : शकील ने क्यों ली थी किराए पर खोली?

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छींकना भी हुआ मुहाल

सर्दी का मौसम और जुकाम का प्रकोप कोई अस्वाभाविक बात तो नहीं है लेकिन इस साल के सर्द मौसम में छींकना भी कठिन हो रहा है. वाह रे, स्वाइन फ्लू. तेरे भय ने तो सब लोगों की नींद ही उड़ा दी है. लोगों का बस, यही प्रयास है कि चाहे जो कुछ हो जाए लेकिन जुकाम न हो. सर्दी से बचने के लिए हर कोई इस कदर एहतियात बरत रहा है कि कहीं उसे भूल से भी जुकाम न हो जाए.

हमारे एक मित्र लाख कोशिशों के बाद भी जुकाम के शिकार बन गए. जुकाम हुआ तो छींक आनी भी स्वाभाविक थी, लेकिन छींक आते ही जैसे विस्फोट हो गया. उस दिन बस से अपने आफिस जा रहे थे कि न जाने कैसे भीड़ भरी बस में अचानक छींक आ गई.

उन का छींकना था कि सिटी बस में जैसे हड़कंप सा मच गया. उस समय का दृश्य तो वाकई बहुत डराने वाला लगा. बस के यात्रीगण हमारे मित्र को ऐसी शिकायत भरी नजरों से देख रहे थे जैसे उन्होंने कोई बेहद संगीन अपराध कर दिया हो. लोगों का छींक के प्रति डर ने बस में ऐसी अफरातफरी मचाई कि ड्राइवर ने इमरजेंसी ब्रेक लगा कर बस को रोका और एक स्वर में बस के यात्री हमें बस से तुरंत बाहर निकालने पर उतारू हो गए. सभी यात्रियों के विरोध के आगे हमारे मित्र को झुकना पड़ा और बस से उतर कर वे पैदल ही आफिस कूच कर गए. उन की हालत ऐसी थी जैसे समाज बहिष्कृत किसी अभागे की हो सकती है.

केवल छींकने मात्र से लोग यह मान बैठे थे कि ‘स्वाइन फ्लू’ का संक्रमण फैलाने का ठेका उन्होंने ही ले लिया हो. दूर भागते लोगों की अफरातफरी ऐसा दृश्य उपस्थित कर रही थी जैसे 26/11 के मुंबई के ताज होटल पर आतंकी घटना के समय रहा होगा. छींकने वाले शख्स को छींक आने की आशंका मात्र से लोग भाग खड़े होते हैं, भय के माहौल में उन की दौड़भाग दूरी बनाने के लिए स्वाभाविक है.

आस्ट्रिया के चांसलर मेटरनिक के बारे में 19वीं सदी में एक कहावत बड़ी प्रचलित थी कि जब मेटरनिक को जुकाम होता था तब पूरा यूरोप छींकता था. जुकाम आस्ट्रिया के चांसलर को और छींकना पूरे यूरोप का. है न वाकई विलक्षण उदाहरण, लेकिन यहां इस वाक्य का लाक्षणिक अर्थ इतना भर है कि मेटरनिक इतना महत्त्वपूर्ण व्यक्ति बन गया था कि वह जो कुछ भी करता था उस का सीधा असर संपूर्ण यूरोप की जनता पर पड़ता था.

आजकल जुकाम का खौफ छाया हुआ है. ‘स्वाइन फ्लू’ का डर हर तरफ दिख रहा है. डाक्टरों की चांदी हो रही है तो तथाकथित ‘झोलाछाप’ डाक्टर भी चांदी काटने में पीछे नहीं. अस्पताल, नर्सिंग होम में मरीजों का सैलाब उमड़ रहा है तो मेडिकल शौप भी ग्राहकों की आवाजाही से रौशन हो रही हैं. जुकाम न हो जाए, बस इसी चिंता में लोग एडवांस में ही उपचार कराते फिर रहे हैं. धड़ाधड़ दवाइयां खरीदीबेची जा रही हैं. बिना सोचेसमझे लोग दवाइयां ऐसे खा रहे हैं जैसे मिठाइयों की मुफ्त की लूट मची हो.

साधारण जुकाम से पीडि़त हमारे मित्र उस दिन जैसे ही आफिस तशरीफ लाए कि उन की हालत देखते ही आफिस में हड़कंप मच गया. आननफानन में स्टाफ सेक्रेटरी ने एक इमरजेंसी मीटिंग काल कर डाली. बौस पर दबाव डाल कर हमारे मित्र महोदय को फौरन आफिस से घर भेज दिया गया ताकि वे अच्छे से इलाज करा सकें. बौस जो छुट्टियां स्वीकृत करने में हमेशा आनाकानी करते हैं, उस दिन उन्होंने फौरन एक सप्ताह की छुट्टी स्वीकृत कर उन्हें यथाशीघ्र घर भिजवाने के लिए टैक्सी मंगवा दी. स्टाफ ने स्वयं ही टैक्सी का किराया भी एडवांस में चुकता कर दिया.

उस दिन इमरजेंसी मीटिंग में कुछ नए नियम भी निर्धारित हुए. अब आफिस में हाथ हिला कर अभिवादन करने पर तुरंत प्रभाव से प्रतिबंध लगा दिया गया. जुकाम की क्षीण सी संभावना मात्र से ही आफिस आने पर रोक लगा दी गई. आफिस खर्चे से मास्क खरीदे गए और उन्हें धारण करना अनिवार्य बना दिया गया.

अगर देखा जाए तो आजकल ‘मास्क’ पहनना मजबूरी के साथसाथ फैशन भी बन गया है. अच्छे स्टैंडर्ड क्वालिटी के ‘मास्क’ धारण करने वाले लोग अब अपने को ‘हाईजेंट्री क्लास’ के ‘एक्टिव’ समझने लगे हैं. ‘मास्क’ नहीं खरीद पाने वाले बेचारे समाज के निम्न, गरीब, साधनविहीन की श्रेणी में आ गए हैं. उन्हें अब अपनी किस्मत पर शिकायत होने लगी है. वाकई उस ने दुनिया में 2 वर्ग के लोग पैदा किए हैं. कार्ल मार्क्स की ‘हैव्ज’ और ‘हैव्ज नाट’ की विचारधारा उन्हें चरितार्थ होती नजर आ रही है. मास्क लगाने वाले संपन्न वर्ग के पास सबकुछ है तो दूसरे वर्ग के पास कुछ नहीं.

मित्र महोदय अपने घर पहुंचे तो घर का माहौल भी बदल गया. उन्हें इस नई भूमिका में देख कर उन के परिजन भी मारे डर के उन से दूर भागने लगे थे. उन का गुनाह सिर्फ इतना सा था कि घर में पैर रखते ही उन्हें दोचार छींकें आ गई थीं. इतनी सी बात कालोनी और फिर मीडिया के द्वारा शहर भर में हौट न्यूज बन कर आग की तरह फैल गई. काम वाली बाई और आसपास के तमाम लोगों ने उन से अभेद्य दूरी बना ली. जैसे साक्षात में वे ‘स्वाइन फ्लू’ के लाइवड्रिस्ट्रीब्यूटर बन गए हों. जुकाम पीडि़त व्यक्तियों को 2 मोर्चों को एकसाथ फेस करना पड़ता है. एक तो अपने घर के परिजनों से तो दूसरे बाहरी लोगों से, जिन्हें समझाना बेहद मुश्किल होता है.

सर्दी की ऋतु में ब्याहशादी का सीजन भी जोर पकड़ने लगा है. धड़ल्ले से शादीब्याह निबटाए जा रहे हैं तो बेचारे दूल्हेदुलहनों को दूसरी ही चिंता सता रही है. उन के हनीमून भी मास्क पहन कर ही संपन्न हो रहे हैं. डाक्टरी सलाह दी जा रही है कि भीड़भाड़ वाले इलाकों से दूर रहें. अब भला ब्याहशादी से कैसे दूर रहा जा सकता है. कुछ अति समझदार दूल्हे व दुलहन मास्क पहन कर ही ब्याह रचा रहे हैं. दांपत्य जीवन भी खतरे में पड़ता जा रहा है. रोमांस, सुख की जगह डर पैदा करने लगा है.

स्कूलकालेज में छुट्टियां हो जाने से विद्यार्थी वर्ग आनंदित है. जहां छुट्टियां नहीं हैं वहां छोटेछोटे बच्चे भी स्कूल का टाइम होते ही छींकना शुरू कर देते हैं. पेरेंट्स बेचारे उन्हें स्कूल न भेज कर सीधे डाक्टरों के क्लीनिकों पर ले दौड़ते हैं. स्कूल से भागने का मन हो तो चालाक विद्यार्थी इस अचूक नुस्खे का प्रयोग कर के टीचरों से घर जाने की ससम्मान अनुमति पा लेते हैं.

बहुत गहरी है गरीबी, गुलामी और धर्म की साजिश

अमीरीगरीबी हमारे पौराणिक सिद्धांतों के अनुसार पिछले जन्मों का परिणाम है पर असलियत यह है कि बहुत कम मारवाड़ी या गुजराती बिलकुल फटेहाल मिलेंगे और बहुत कम ब्राह्मण अरबोंखरबों से खेल रहे होंगे. अमेरिका के लेखक रौबर्ट कियोस्की की किताब ‘रिच डैड पूअर डैड’ की टैग लाइन ही है, ‘ऐसा क्या है जो अमीर बाप अपने बच्चों को पैसे के बारे में सिखाते हैं और गरीब बाप नहीं.’

उदाहरण के लिए एक गरीब का बेटा अपने घर में एअर कंडीशनर के लिए मांग करता है. गरीब बाप तुरंत उत्तर देगा, “मेरे पास इतना पैसा नहीं है, यह हमारी हैसियत नहीं है.’’

अमीर बाप का बेटा एक एअरकंडीशंड बड़ी कार की मांग करता है पर अमीर बाप के पास बेटे को एअरकंडीशंड कार के पैसे नहीं हैं पर वह कहेगा, “सोचो, हम कैसे एअरकंडीशंड बड़ी कार खरीद सकते हैं.”

पहले मामले में बेटे का दिमाग काम करना बंद कर देगा. एअरकंडीशनर तो खरीदा ही नहीं जा सकता. दूसरे का बेटा उपाय ढूंढ़ना शुरू करेगा कि कैसे वह भी पैसा लगाए ताकि एअरकंडीशंड बड़ी कार खरीद सके.

पहले की इच्छा कभी पूरी नहीं होगी पर दूसरा कहीं पैसा बचाएगा, कहीं काम कर के अतिरिक्त पैसे जोड़ेगा, स्कौलरशिप पर पढ़ने की कोशिश करेगा.

अमीर बापों का कहना कि टैक्स असल में समाज का अमीरों पर सजा है कि उन्होंने इतना क्यों कमाया, इसलिए वे इतना कमाते हैं कि टैक्स देने के बाद भी शान से रह सकें.

गरीब बाप का कहना होता है कि अमीर उन से पैसे छीन लेते हैं और सरकार उन से कुछ हिस्सा टैक्स में ले कर गरीबों में फिर सुविधाओं के रूप में बांट देती है. गरीब बाप अब सरकार (भारत में मंदिर पर) निर्भर हो जाता है और जितना काम करता है, उसे काफी समझता है और अपने बेटे को हमेशा गरीबी में पालता है.

अमीर बाप अकसर कहते हैं कि तुम अच्छा पढ़ो ताकि इतनी अक्ल हो कि बिजनैस शुरू कर सको. गरीब बाप कहता है कि अच्छा पढ़ो ताकि किसी कंपनी में लगीबंधी नौकरी मिल सके.

पहले को अगर किसी वजह से बाहर नौकरी करनी होती है तो वह उसे ट्रेनिंग समझता है, दूसरा नौकरी मिल जाने को अंतिम पढ़ाई मानता है. पहला ट्रेनिंग खत्म कर के सालदरसाल मेहनत कर के अपना व्यवसाय खड़ा करता है, दूसरा लगेबंधे वेतन में छोटे मकान में रह कर सरकार और समाज को कोसता रहता है.

मुसीबत आने पर गरीब बाप साहूकारों, मंदिरों, सरकारों, मुफ्त खाने या इलाज के रास्ते ढूंढ़ता है, अमीर बाप किसी भी तरह की आर्थिक समस्या आने पर समस्या से उबरने के लिए हाथपैर मारता है. वह लाइफगार्ड का इंतजार नहीं करता, मुसीबत उसे मजबूत बनाती है.

अमीर बाप अकसर चुस्त रहते हैं, अपनी सेहत का खयाल रखते हैं. अच्छे व मंहगे रेस्तराओं में खाते हैं पर हिसाब से. गरीब बाप लंगरों की खोज में रहता है और टीवी पर बकवास का मजा लेता है. अमीर बाप टीवी पर वे फिल्में देखता है जिन में संघर्ष दिखाया गया हो, गरीब बाप ऐसी फिल्में देखता है जिन में चमत्कार दिखाए जाते हैं.

सलीम जावेद की फिल्म ‘शोले’ में जय और वीरू दोनों सिर्फ 2 होते हुए भी गब्बर सिंह के गैंग का मुकाबला करने को तैयार हो जाते हैं क्योंकि उन्हें अपनेआप पर भरोसा है. फिल्म उन दोनों की हिम्मत की कहानी है जिस में कोई चमत्कार नहीं होता, कहीं से देवीदेवता प्रकट हो कर गब्बर सिंह को नहीं मारते. सैंकड़ों फिल्में बनी हैं, कुछ सफल भी हुई हैं, जिन में नायक या नायिका पर किसी देवीदेवता या पुलिस की कृपा हो जाती है. फिल्म ‘शोले’ न जाने क्यों इस से बचा है. यह फिल्म की सफलता का कारण है या नहीं पर कम से कम फिल्म का संदेश तो है.

समाज असलियत में जानबूझ कर गरीबों का सांत्वना देने की साजिश में उन्हें आलसी और निकम्मा बनाता है ताकि वे पीढ़ी दर पीढ़ी उसी भरोसे में रहें कि हम गरीब हैं तो यह हमारा दोष नहीं है. गरीबों के दोस्त, रिश्तेदार एक ही भाषा बोलते हैं. उन्हें सब से बड़े और प्रभावशाली सलाहकार, धर्म के दुकानदार हमेशा यही कहते रहते हैं कि ऊपर वाले पर भरोसा करो, दिन अवश्य फिरेंगे, यही ज्ञान गरीब बाप अपने बेटे को देता है.

अमीर बाप को यह सलाह पसंद नहीं आती. वह धर्म के पाखंड को ऊपरी तौर पर मानता है, चर्च, मसजिद, मंदिर जाता है. पर उस की निगाहें इस ओर लगी रहती हैं कि कैसे पैसे कमाया जाए नकि कैसे पैसे को अपनेआप पाया जाए. शायद वह इसलिए भी धर्म की दुकान की पूरी आर्थिक सहायता करता है क्योंकि वह गरीब खुद भी उस का कर्मचारी भी है, ग्राहक भी जिस से अमीर को फायदा होता है. वह अपनी संतानों में धर्म में अंधविश्वास करना नहीं सिखाता. उसे सदियों से बताया गया है कि अमीर बने रहना है तो ज्यादा जनता का गरीब बने रहना जरूरी है. वह अपने बेटों को स्विट्जरलैंड स्कीइंग के लिए भेजता है जिस में टांग टूटने का डर भी रहता है, सिर्फ तिरुपति नहीं, जहां वह सामाजिक रस्म निभाने जाता है और यही बेटे को कराता है.

गरीबी और अमीरी अगर पीढ़ी दर पीढ़ी दर चल रही है तो पिताओं के कारण, जो गलत व सही उदाहरण पेश करते हैं. एक अपने बेटे को बचपन से पैसा का सदुपयोग सिखाता है, दूसरा, पैसों के अभाव में जीना सीखता है. एक पैसा कमाने की प्रेरणा देता है, दूसरा कम में संतोष करना सीखाता है.

हमारे यहां जाति व्यवस्था है पर लाखों गरीब ब्राह्मण मिल जाएंगे. लाखों गरीब श्रत्रिय मिल जाएंगे. लाखों गरीब वैश्य मिल जाएंगे पर हर गरीब वैश्य पिता की शिक्षा के कारण कुछ नया कर के पैसा कमाना चाहता है. गरीब ऊंची जातियों के लोगों की सोच में जन्म से पाई गरीबों की भाषा घुस जाती है और वे पीढ़ी दर पीढ़ी वहीं के वहीं रहते हैं.

एलोन मस्क आज अमीर हैं तो इसलिए कि उस ने उस काम को किया जो दूसरे सिर्फ सोच रहे थे. मार्क जुकरबर्ग कुछ लिखे बिना लेखकों का मालिक बन बैठा. यह उन की उस शक्ति का परिणाम है जो उन के पिताओं ने दी. दोष भाग्य, देश के कानून, समाज की व्यवस्था में भी है पर मुख्य बात पिता की सही शिक्षा है जो अमीरों के बच्चों को पहले से ही रेस में आगे कर देती. यह उन के पिता की संपत्ति का कमाल नहीं है, यह उन के पिता की शिक्षा है जो चाहे उस ने शब्दों में दी या उदाहरणों में, पर कमाल करती है.

भाजपा की प्रायोरिटी महज चुनाव

केंद्र में बैठी भाजपा सरकार ने 2 सितंबर को ‘वन नेशन, वन इलैक्शन’ के लिए 8 सदस्यीय कमेटी का गठन किया. इस कमेटी के अध्यक्ष पूर्व दलित राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को बनाया गया, अन्य सभी 7 सदस्यों के चयन से साबित हुआ कि यह भाजपा सरकार का विमर्श नहीं देश पर नोटबंदी, जीएसटी जैसा जजमैंट है.

इस का मतलब यह कि अगर यह लागू होता है तो देश में जनता एक बार वोट डालेगी, फिर उन्हें 5 सालों तक खामोश कर दिया जाएगा.

मूल सवाल यह है कि सरकार की प्रायोरिटी क्या है? वह आखिर ‘वन नेशन वन इलैक्शन’ को इतना अहमियत क्यों दे रही है, जबकि आज न जाने कितनी ही समस्याएं लोगों के सामने खड़ी हैं? सवाल यह कि क्या ‘वन नेशन वन इलैक्शन’ से पहले वन एजुकेशन नहीं हो जाना चाहिए था?

देश में दोहरी शिक्षा नीति है, जिस के पास पैसा है वह इस के दम पर महंगी व अच्छी शिक्षा ले सकता है, वहीं गरीबों के बच्चे 20वीं सदी के टीनटप्पर वाले स्कूलों में पढ़ाई करते रहें, उन्हें उन के भाग्य पर छोड़ दिया गया है. यह ढांचा ही गरीबों को गरीब बनाए रखने का सब से बड़ा जरीया बना हुआ है.

हिंदी पट्टी के काऊ स्टेट को छोड़ भी दिया जाए तो शिक्षा की कथित “क्रांति” करने वाली राजधानी दिल्ली, जिस की आप सरकार पासिंग परसैंटेज को ही सरकारी स्कूलों की बेहतरी मान अपनी पीठ थपथपाती है, क्या प्रेम नगर में पूड़ी वाले और पटेल नगर के खत्ते वाले के नाम से मशहूर राजकीय स्कूलों को बाराखंबा के मौडर्न स्कूल व पूसा रोड के सैंट माइकल स्कूल के बराबर मान सकती है?

दिल्ली की शिक्षा “क्रांति” एक नजर साइड रख दें, तो उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश के सरकारी स्कूल के बच्चे डीपीएस, सैंट जौन, स्कौटिश, सैंट जेवियर, शिव नाडर, स्टेप बाय स्टेप, लोयला, दून स्कूल, सैंट कोलंबस जैसे स्कूल में पढ़े बच्चों के सामने भला टिक पाएंगे?

जाहिर है, सरकारी स्कूलों में पढ़ कर बच्चे आगे जा कर आधुनिक मजदूर ही बनते हैं, जिन का काम नए आधुनिक मशीनों में लिखी इंस्ट्रक्शन समझ पाने तक ही सीमित रहता है.

बात हैल्थ की, सरकार के लिए क्या जरूरी है? क्या इस से पहले ‘वन ट्रीटमेंट’ जैसी चीजें नहीं मिलनी चाहिए? कोरोना ने देश की बैंड बजा कर रख दी, सरकार ने कितना ही दुनिया के सामने अपनी इज्जत छुपाने की कोशिश की हो, लेकिन श्मशान घाटों में जलती चिताओं और गंगा में बहती लाशों ने तो हकीकत जगजाहिर कर ही दी.

कोरोना ने लोगों को तड़पाया, सरकारी अस्पतालों की भारी कमी को देश ने देखा. जिन के पास पैसा था उन्होंने ट्रीटमेंट लिया, उन्हें बचने का अवसर मिला. लेकिन जिन के पास पैसा नहीं था वो तो अनाम मौत दर्ज हो गए. हर गली में एक आदमी निबट लिया और खाते में भी नहीं चढ़ा. क्या सरकार की प्रायोरिटी ज्यादा अस्पताल नहीं होने चाहिए, सभी को बेहतर स्वास्थ्य सुविधा नहीं होनी चाहिए, जहां लोग सड़ते हुए मर न जाएं, बल्कि इलाज के बाद ठीक हो कर घर आएं?

देश की 80 करोड़ आबादी अभी भी सरकारी राशन पर गुजरबसर कर रही है. उन की आय इतनी नहीं कि वे इस महंगाई में घर का गुजारा चला सकें. प्रति व्यक्ति आय लगातार सिकुड़ रही है. क्या सरकार की चिंता “वन नेशन वन इलैक्शन” से पहले क्या इस बात पर नहीं जागी कि गरीबों के लिए सम्माजनक इनकम वाले जीवन को साकार किया जाना चाहिए, जहां वे अपने बच्चों के लिए एक बेहतर भविष्य की कामना कर सकें?

बात ‘वन’ की हो ही रही है, तो ‘वननैस’ क्या देश के लोगों का नहीं होना चाहिए? सरकार चुनाव एक ही बार में करवा लेना चाहती है, लेकिन देश के लोगों को एक नहीं कर पा रही, बल्कि सत्ता में बैठे नुमाइंदे खुद इस खाई को बढ़ाने के काम में लगे हुए हैं. दलितों को मंदिरों में जाने से पीटा जाता है, उस मंदिर में जहां का पुजारी सवर्ण होता है. दलितों के छूने भर से सवर्णों में झुरझुरी दौड़ पड़ती है.

जाहिर है, सरकार के इस नए एजेंडे में कारपोरेट का तड़का भी मिला हुआ है. ‘अदानीमोदी का रिश्ता क्या है?’ यह कल तक विपक्ष के नेता राहुल गांधी पूछ रहे थे, उन के इस सवाल को आम लोग सही मानने लगे हैं. ‘एक देश एक चुनाव’ के एजेंडे से यह साफ हो जाता है कि अदानी जैसे व्यापारी अब बारबार चुनावी पार्टियों में पैसा झोंकने को तैयार नहीं. वे एक ही बार में निबटा लेना चाहते हैं.

वहीं देश के संघीय ढांचे को चुनौती देता यह भाजपाई एजेंडा कैसे सफल होगा, देश की पार्टियां तैयार होंगी कि नहीं, राज्यों की आधी सरकारें मानेंगी कि नहीं, इस से लोकतंत्र को कितना नुकसान पहुंचेगा, यह सवाल अभी पकने लगेंगे, लेकिन भाजपा जरूर फिलहाल इस मुद्दे से महंगाई, बेरोजगारी, अर्थव्यवस्था, गरीबी जैसे मुद्दों से ध्यान भटकाना चाहती है.

पूर्वोत्तर की सैर

पूर्वोत्तर भारत की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी रही कि यह लंबे समय तक शेष भारत से अलगथलग जैसा रहा. ऐसी बात भी नहीं कि पूर्वोत्तर से हम बिलकुल अपरिचित भी रहे हों. तेल का पहला कुआं यहां मिलने से यह चर्चा में तो था ही, चाय के विशाल बागान और वन संपदाओं के लिए भी यह क्षेत्र जाना जाता था. हमारे कुछ व्यापारिक भाई और बंगाली भद्रजन भी इधर आतेजाते ही रहे थे. फिर भी पहली बार इधर हमारी भरपूर नजर तब पड़ी, जब विभाजन के वक्त यह भारत में शामिल होने के लिए आंदोलित हुआ. दूसरी बार तब, जब चीन ने वर्ष 1962 में इधर आक्रमण किया. हम गुवाहाटी, तेजपुर, डिब्रुगढ़ आदि नामों से परिचित हुए.

मगर इधर हुए तेजी से विकास कार्यों ने पूर्वोत्तर की तसवीर बदली है. उग्रवाद, अलगाववाद, आतंकवाद लगभग समाप्तप्राय हुआ, तो यहां बहुतकुछ बदलाव आए. शेष भारत ने पूर्वोत्तर को समझना और सहयोग करना आरंभ किया तो यहां की तसवीर बदली. अब यहां के स्थानीय युवा शिक्षा और रोजगार के लिए दक्षिण के बेंगलुरु, हैदराबाद, चेन्नई से ले कर उत्तर के दिल्ली, जयपुर, चंडीगढ़ आदि में भरपूर मिलेंगे. अन्य राज्यों के शहरों में भी उन की अच्छी संख्या देखी जा सकती है.

पूर्वोत्तर में पर्यटन के शौकीनों को यह जान लेना चाहिए कि यहां भव्य विशालकाय किले और महल नहीं मिलेंगे. महंगे, भारी स्वर्णाभूषणों और हीरेजवाहरात से सुसज्जित देवीदेवताओं के ऊंचऊंचे मंदिर और मठ नहीं मिलेंगे. कारण यह कि यह क्षेत्र भूकंप केंद्रित रहा है. इसलिए यहां के लोग हलके, ढलवां छत वाले मकान आदि ही बनाते रहे हैं. यहां तो बस नैसर्गिक, प्राकृतिक दृश्य और अछूती विशिष्ट श्रेणी की रोमांचक चीजें मिलेंगी. यहां के जीवन में विविधता और सरलता है और यही चीजें हमें आकर्षित भी करती हैं.

पूर्वोत्तर में जाने के लिए पहला पड़ाव तो सिलिगुड़ी ही है. इसे भारत का चिकेननेक भी कहा जाता है. भारत के नक्शे में इसे देखें. बिलकुल पतली सी पगडंडी समान है यह, जो पूर्वोत्तर को भारत से जोड़े हुए है और जिस का सामरिक महत्त्व है. वैसे, सिलिगुड़ी और जलपाईगुड़ी हैं तो पश्चिम बंगाल में, मगर पूर्वोत्तर के प्रदेश सिक्किम में जाने के लिए यहां आना ही पड़ेगा. आप यहां कश्मीर से कन्याकुमारी तक, कहीं से भी सीधे सिलिगुड़ी या जलपाईगुड़ी स्टेशन पहुंच सकते हैं, क्योंकि अब यहां से सीधी ट्रेनसेवा है.

कोलकाता से तो बस से भी पहुंचा जा सकता है. वैसे, सिलिगुड़ी में बागडोगरा हवाईअड्डा है, जहां दिल्ली या कोलकाता से सीधी विमानसेवा है, उस से भी पहुंचा जा सकता है.

सिक्किम

ऊंचे पर्वतों और खाइयों से घिरे इस राज्य में हरियाली ही हरियाली दिखती है. बात भी सही है. आखिर शिखर पर जब बर्फ से ढके पहाड़ हों, तो नीचे हरियाली रहनी ही है. यहां के प्राकृतिक दृश्य, विविध रंगों से परिपूर्ण जीवनशैली और हरीतिमा दर्शनीय तो हैं ही, दूध के समान बहती पहाड़ी नदियों को देखना भी सुखद है.

आमतौर पर यहां का जीवन शांत और सरल है. मुख्यतया सिक्किम के स्थानीय बौद्धों और उन के भव्य विहारों व मठों को देखा जा सकता है. इन के सामने सफेद या रंगीन पताकाओं की श्रृंखलाएं जैसे पर्यटकों से मौन वार्त्तालाप करती हों. यहां का नैसर्गिक सौंदर्य और रोमांचक वन्यजीव रोमांचित करने के लिए काफी हैं.

सिक्किम में अनेक स्थल हैं, जिन का पर्यटन की दृष्टि से विशेष महत्त्व है और पर्यटकों को अपनी तरफ आकर्षित करने में सक्षम हैं. यहां गंगटोक, ताशी व्यू पौइंट, रूमटेक, आर्किडेरियम, सरमसा गार्डन, लच्छुंग, यूमठंग, यूकसम, गोइछाला, रवोंगला, नाथूला सीमा आदि हैं, जिन्हें देख कर मन मुग्ध हो जाता है.

सिलिगुड़ी या जलपाईगुड़ी से सिक्किम जाने के लिए बससेवा तो है ही, इस के अलावा टैक्सियां भी हैं, जिन्हें स्वतंत्र रूप से या शेयर में भी बुक किया जा सकता है.

गंगटोक सिक्किम की राजधानी है. यह प्राकृतिक दृश्यों से परिपूर्ण है. दूरदूर तक जहां तक नजर जाती है, सीढ़ीनुमा खेत दिखाई देंगे, जो पूर्वोत्तर भारत की खासीयत हैं. ढलवा छत वाले झोंपड़ीनुमा मकान दिखेंगे. हांलाकि, अब समृद्धि के साथ बहुमंजिले भव्य मकान भी दिखने लगे हैं. हर पहाड़ के आगेपीछे दूधसमान जलधारा के झरने दिखेंगे. यदि बारिश हो जाए, तो इन की रफ्तार और तेजी देखते बनती है. गंगटोक से हिमालय की बर्फ से लदी कंचनजंघा पर्वत चोटी की शोभा देखते बनती है.

जनजातीय समुदायों में पहाड़ों के साथ झीलों को भी समान महत्त्व दिया जाता है और ऐसे में तिसांगु झील देखने जाना ज्यादा रोचक है. यहां नौकाविहार का आनंद लिया जा सकता है.

गंगटोक के पास ही डियर पार्क है, जिसे देख सकते हैं. आर्किड की लगभग 500 प्रजातियां सिक्किम में पाई जाती हैं. सो, इस के लिए आर्किडेरियम है, जहां आर्किड की किस्में और अन्य दुर्लभ प्रजाति के पौधे भी देखने को मिलते हैं.

पर्वतारोहण और ट्रेकिंग के लिए सिक्किम का विशेष स्थान है. इस के शौकीन पर्यटक इस के लिए सिक्किम का ही रुख करते हैं. सिक्किम का मुखौटा नृत्य बहुत प्रसिद्ध है. किंतु यह खास अवसरों पर ही देखने को मिल सकता है.

प्राचीन काल में चीन जाने का एक सिल्क रूट यानी रेशम मार्ग सिक्किम के नाथूला सीमा से ही होबीकर जाता था, तब सिक्किम के बगल में तिब्बत था. अब तिब्बत के चीन में विलय हो जाने के कारण नाथूला भारतचीन सीमा का प्रवेशद्वार है. यहां जाने का रास्ता काफी रोमांचक और जोखिम भरा है. अगर बर्फबारी नहीं हुई तो गनीमत. बर्फबारी के बीच रास्ता काफी फिसलनभरा हो जाता है. मजबूत जिप्सी गाड़ियां पर्यटकों की टीम को ले कर वहां नाथूला सीमा तक जाती हैं.

अंदाजा कीजिए कि एक तरफ ऊंचेऊंचे पहाड़ हैं, दूसरी तरफ गहरी खाई है. रास्ता जो है, वह बर्फ से भरा है. ऐसे में ड्राइवर गाड़ियों के अगले पहियों में लोहे की जंजीरें पहनाते हैं. इस से दबाव पड़ने पर बर्फ टूटतीपिघलती है, जिस से पहिए नहीं फिसलते. फिर मंथर गति से गाड़ी चलाते हुए वे आगे बढ़ते हैं.

रास्तेभर बर्फ से ढके पहाड़ दिखेंगे और नाथूला सीमा पर आमनेसामने कांटों की बाड़ के पीछे भारतीय और चीनी सैनिकों की टुकड़ियों को देखना और भी रोमांचक लगता है.

एक तरफ भारतीय ध्वज, तो दूसरी तरफ चीनी ध्वज लहराते दिखते हैं. चारों तरफ भयानक सन्नाटा और खामोशी. ऐसे में आप या अलौकिक आनंद की कल्पना करें या जनविहीन इलाकों में भयभीत हों. मगर यह यथार्थ है कि पहाड़ों का यही बर्फ धीरेधीरे गलगल कर नदियों को भरापूरा बनाता है. वही नदियां, जो हमारी जीवनदायिनी हैं. हमारे कृषि कार्यों के लिए जरूरी जल यही नदियां उपलब्ध कराती हैं. ट्रांसपोर्ट का कार्य तो ये आदिकाल से करती ही रही हैं.

पूर्वोत्तर में हस्तनिर्मित परंपरागत शिल्प का विशेष योगदान है. यहां सिक्किम में इसे विशेषकर देखा जा सकता है.बांस और बेंत के बुने हुए विभिन्न डिजाइनों के बहुरंगी थैले, पर्स और शोपीस, चमड़े के सामान, लकड़ी की कलाकृतियां, परंपरागत पोषाकें, स्कार्फ और टोपियां, स्थानीय आभूषण आदि पर्यटकों को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं. वैसे, गंगटोक के लाल बाजार, सुपर बाजार, न्यू मार्केट में इन के साथ चीनी सजावटी सामान से भी भरे पड़े मिलेंगे.

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