story in hindi
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सावित्री जैसे ही अस्पताल पहुंची कमरे में चल रहा डा. सुदर्शन और पति दीनानाथ का वार्त्तालाप सुन कर उन के कदम ठिठक गए, ‘‘देखो दीनानाथ,’’ सुदर्शन कह रहे थे, ‘‘तुम मेरी बात से सहमत हो या नहीं, यह मैं नहीं जानता, पर मेरे विचार से तुम्हें भाभी को सबकुछ सचसच बता देना चाहिए. आखिर, कब तक छिपाओगे उन से?’’
‘‘कोई बताने लायक बात हो तो बताऊं भी उस बेचारी को. एक दिन तो पता चलना ही है, तब तक तो उसे निश्ंिचतता से जी लेने दो,’’ तभी दीनानाथ का स्वर सावित्री के कानों से टकराया और वह शीघ्र ही सकते में आ गईं. मानो एकाएक किसी ने उन के कानों में गरम सीसा उड़ेल दिया हो. उन्होंने तेजी से उस कक्ष का द्वार
खोला और तूफान की गति से कमरे में प्रवेश किया.
‘‘क्या हुआ है आप को?’’ सावित्री ने हांफते हुए पूछा.
उन्हें अचानक अपने सामने पा कर एक क्षण को तो दीनानाथ का मुंह आश्चर्य से खुला का खुला रह गया था पर क्षणांश में ही उन्होंने खुद को संभाल लिया था.
‘‘अरे, सावित्री, क्या हुआ? बहुत बदहवास सी लग रही हो? क्या घर से भागी चली आ रही हो? दीनानाथ ने मुसकरा कर तनाव को कम करने की कोशिश की मगर सावित्री की भावभंगिमा में कोई अंतर नहीं आया.
‘‘यह मेरे प्रश्न का उत्तर तो नहीं हुआ. आखिर हुआ क्या है आप को?’’ सावित्री ने अपना प्रश्न दोहराया.
‘‘वही तो… वही तो मैं डाक्टर से पूछ रहा हूं कि आखिर मुझे हुआ क्या है भाई जो मुझे यहां रोक रखा है? तुम नहीं जानतीं आजकल के इन डाक्टरों को, आप को जुकाम हुआ नहीं कि अतिथि सत्कार के मूड में आ जाते हैं. वैसे तुम्हें किस ने बताया कि मैं इस अस्पताल में हूं?’’ दीनानाथ धाराप्रवाह बोले जा रहे थे.
‘‘आप के औफिस फोन किया था. आप की सेक्रेटरी निरुपमा ने बताया कि आप औफिस में ही बेहोश हो गए थे. उसी ने यहां का पता भी दिया.’’
‘‘औफिस फोन किया था? क्यों? कोई खास बात थी क्या?’’ दीनानाथ ने प्रश्न किया.
‘‘खास बात ही तो थी. ऋचा का फोन आया था, मैडिकल कालेजों की सामूहिक प्रतियोगिता का परिणाम आ गया है. उस में ऋचा को अच्छा स्थान हासिल हुआ है. मैं ने उन सब को खाने पर बुला लिया. सोचा सब मिलजुल कर खुशी मनाएंगे पर कुछ विशेष खरीदारी करते हुए घर लौटने के लिए आप को औफिस फोन किया तो यह मनहूस समाचार मिला,’’ सावित्री की आंखें सजल हो उठीं.
‘‘देखा डाक्टर, तुम ने तो हमारी सावित्री को रुला ही दिया. अब तो मैं किसी की एक नहीं सुनूंगा. अब तो तुम्हें मुझे घर जाने की अनुमति देनी ही होगी,’’ दीनानाथ का चेहरा चमक उठा.
‘‘यह तो सचमुच अच्छी खबर सुनाई है भाभी ने. मैं तो खुद आप की इस खुशी में शामिल होना चाहता हूं पर क्या करूं, हमें तो कोई पूछता ही नहीं है,’’ डाक्टर सुदर्शन मुसकराए.
‘‘अरे, तो अब बुलाए लेते हैं. तुम हमारे साथ ही चलोगे. घर की ही बात है, इस में इतनी औपचारिकता दिखाने की क्या जरूरत है,’’ दीनानाथ ने चटपट निमंत्रण दे डाला था.
‘‘लेकिन आप की तबीयत? सुदर्शन भैया, इन्हें हुआ क्या है?’’ सावित्री घूमफिर कर पुन: उसी विषय पर आ गईं.
‘‘अरे, कुछ नहीं, यों ही जरा सी कमजोरी है. सभी तरह की जांच करवाने के लिए अस्पताल में भरती हो गया हूं, क्यों डाक्टर?’’ डाक्टर के मुंह खोलने से पहले ही दीनानाथ ने हलके अंदाज में कह दिया.
‘‘पर कमजोरी से बेहाश होते तो किसी को नहीं देखा,’’ सावित्री अब भी आश्वस्त नहीं हो पा रही थीं.
‘‘लो, इन की सुनो,’’ दीनानाथ ने नाटकीय अंदाज में डाक्टर सुदर्शन की ओर इशारा करते हुए कहा, ‘‘अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति अपने कार्यकाल के दौरान जापान की यात्रा पर गए थे. वह तो ठीक उस समय अपने होश खो बैठे थे जब उन के स्वागत में भोज का आयोजन किया गया था. फिर मैं तो बेहद साधारण सा प्राणी हूं. मेरे बेहाश होने पर तुम्हें आपत्ति क्यों? क्यों डाक्टर…’’ कहते हुए दीनानाथ ने ठहाका लगाया.
‘‘हां, ठीक ही तो है. बेहोश होना और फिर होश में आना तो हमारा राष्ट्रीय खेल होना चाहिए,’’ डाक्टर सुदर्शन ने उन की हां में हां मिलाई.
‘‘आप नहीं जानते डाक्टर भैया कि आप ने मेरे सीने से कितना बड़ा बोझ उतार दिया. मुझे तो इतनी चिंता हो गई थी कि किसी काम में मन ही नहीं लग रहा था, इसीलिए सबकुछ छोड़ कर यहां दौड़ी चली आई. अब तो मैं साथ ले जाऊं न आप के मरीज को,’’ सावित्री ने लंबी सांस ली.
‘‘नहीं, अभी नहीं. बड़ी कठिनाई से तो पकड़ में आए हैं आप के पति. हम तो सभी तरह की जांच करवा कर स्वयं को संतुष्ट व आश्वस्त करना चाहते हैं.’’
‘‘ठीक ही तो है, हम दोनों साथ ही पहुंच जाएंगे. तुम चलो, अतिथियों के स्वागतसत्कार का विशेष प्रबंध भी करना है.’’
‘‘अच्छा, तो मैं चलती हूं, अपना खयाल रखिएगा. सच कहती हूं डाक्टर भैया, अपने स्वास्थ्य की तो इन्हें जरा सी भी चिंता नहीं है. आप दोनों समय से पहुंच जाइएगा. ऐसा न हो कि मेहमान आ जाएं और हम आप की राह देखते रहें,’’ सावित्री चलने का उपक्रम करती हुई बोलीं.
‘‘अब?’’ सावित्री के जाते ही डा. सुदर्शन के मुंह से निकला. कुछ क्षण तक खामोशी रही जिसे दीनानाथ ने ही तोड़ा, ‘‘तुम ने तो उन आकर्षक आंखों के सपनों की उमंग देखी थी, सुदर्शन. तुम्हीं कहो, कैसे उस सपनों के घरौंदे को तहसनहस कर दूं?’’
दीनानाथ का उत्तर सुन कर डा. सुदर्शन चुप रह गए. फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘देरसवेर तो तुम्हें बताना ही पड़ेगा. जरा सोचो, इस भयंकर बीमारी की बात उन्हें किसी और से पता चली तब क्या होगा? वैसे भी उन्हें बता देना ही उचित होगा. कम से कम वह स्वयं को संभाल तो लेंगी. यह मत भूलो कि उन के सामने जीवन की सब से बड़ी परीक्षा की घड़ी
आई है.’’
‘‘शायद तुम ठीक कहते हो. वैसे भी तुम ने तो मुझे लगभग 2 साल का समय दिया था और अब तो 3 साल पूरे होने जा रहे हैं. अब तो केवल चंद सांसें ही बाकी हैं. अत: सावित्री को सबकुछ बता कर मुझे अंतिम विदा की तैयारी शुरू कर लेनी चाहिए,’’ दीनानाथ का स्वर भर्रा गया था. न चाहते हुए भी आंखें भर आई थीं.
डा. सुदर्शन और दीनानाथ जब घर पहुंचे तो वहां उत्सव जैसा वातावरण था. ऋचा तो पिता को देखते ही उन के गले लग गई थी.
‘‘मुझे तुम पर गर्व है मेरी बच्ची,’’ दीनानाथ की आंखों में खुशी के आंसू थे.
‘‘आप को अपनी बेटी पर गर्व है तो हमें अपनी पुत्रवधू पर,’’ ऋचा के ससुर ने कहा.
दोनों परिवारों का उल्लास देखते ही बनता था. हंसतेगाते, नाचते कब आधी रात बीत गई किसी को पता ही नहीं चला.
दीनानाथ बेहद कमजोरी अनुभव कर रहे थे. अत: चुपचाप एक कोने में कुरसी पर बैठे अपने जीवन के उन अमूल्य क्षणों का आनंद ले रहे थे.
डा. सुदर्शन काफी देर पहले ही विदा ले कर जा चुके थे.
दीनानाथ अपने ही विचारों में खोए थे.
‘‘क्या बात है, पापा, बहुत थके हुए लग रहे हैं?’’ तभी अपने बेटे ऋषिराज का स्वर सुन कर वह चौंक पड़े.
‘‘ठीक हूं, बेटे, आजकल तो तुम्हारी सूरत देखने को तरस जाता हूं मैं. बहुत नाराज हो क्या मुझ से?’’ दीनानाथ ने बहुत थके हुए स्वर में कहा.
‘‘नहीं पापा, ऐसा कुछ नहीं है. नई नौकरी है, बहुत व्यस्त रहता हूं
इसलिए शायद आप को ऐसा आभास हुआ होगा.’’
‘‘मैं सब समझता हूं बेटे. हम तो चेहरा देख कर मन की बात भांप लेते हैं पर मेरी दुविधा तुम नहीं समझ सकोगे और न ही मैं तुम्हें समझा सकूंगा. बचपन से ही तुम्हारी उच्च शिक्षा के लिए तुम्हें विदेश भेजने की इच्छा थी पर कुछ नहीं हो सका. सारे सपने टूट गए…’’ दीनानाथ अपनी ही रौ में बहे जा रहे थे.
‘‘पापा, मैं सब समझता हूं. क्या मैं नहीं जानता कि ऋचा के विवाह में आप को कितना खर्च करना पड़ा था? रही विदेश जा कर पढ़ाई करने की बात, तो मैं अपनी इच्छा बाद में भी पूरी कर सकता हूं,’’ ऋचा ने पिता को आश्वस्त करना चाहा.
पितापुत्र के वार्त्तालाप के बीच ही ऋचा, उस के पति तथा अन्य परिवारजनों ने विदा ली. सावित्री और ऋचा उन्हें दरवाजे तक छोड़ने गए.
दीनानाथ को लगा कि अतिथियों को छोड़ने उन्हें भी दरवाजे तक जाना चाहिए. लिहाजा, वह धीरेधीरे उठे मगर स्वयं को संभाल न सके और वहीं पर गिर गए.
उधर ऋचा और उस का परिवार जा चुका था. उन्हें छोड़ कर अंदर आते हुए सावित्री और ऋषि ने दीनानाथ के कराहने का स्वर सुना तो लपक कर अंदर पहुंचे.
‘‘क्या हुआ, पापा?’’ ऋषि और सावित्री उन्हें झिंझोड़ रहे थे पर दीनानाथ को तो होश ही नहीं था.
‘‘ऋषि, जल्दी डाक्टर सुदर्शन के यहां फोन करो,’’ सावित्री रोंआसे स्वर में बोलीं.
ऋषि ने डाक्टर को पूरी स्थिति की जानकारी दी तो उन्होंने तुरंत उसे दीनानाथ के साथ अस्ताल पहुंचने को कहा.
बदहवास मांबेटे दीनानाथ को ले कर अस्पताल पहुंचे.
‘‘क्या हुआ डाक्टर भैया? आप ने तो कहा था इन्हें घर ले जा सकते हैं. कोई विशेष बात नहीं है,’’ सावित्री ने कातर स्वर में पूछा.
‘‘मैं तो शुरू से यही चाहता था कि इन के बारे में आप लोगों को सच बता दूं पर इन्होंने नहीं चाहा था कि उन के परिवार को मैं ऐसा दुख पहुंचाऊं, इसीलिए मैं अब तक चुप रहा पर अब…’’
‘‘पर अब क्या?’’ ऋषि ने प्रश्न किया.
‘‘तुम्हारे पिता कुछ ही दिनों के मेहमान हैं,’’ डा. सुदर्शन का स्वर बेहद सपाट और गंभीर था.
‘‘क्या कह रहे हो, भैया? शुभशुभ बोलो.’’
‘‘हां, भाभी, कब तक वास्तविकता से मुंह छिपाओगी? पर एक बात बता दूं, बहुत साहसी है मेरा मित्र. सारी घुटन, दुख और अकेलेपन से वह अकेले ही जूझता रहा पर अपने परिवार का भविष्य सुरक्षित करने में जीजान से जुटा रहा.’’
‘‘उन्हें हुआ क्या है, डाक्टर अंकल?’’ बैंच पर अपना मुंह छिपाए बैठी सुबकती हुई मां को संभालते हुए ऋषि ने पूछा.
‘‘रक्त कैंसर.’’
‘‘क्या…’’
‘‘हां, और यह बात तुम्हारे पिता लगभग 3 साल से जानते थे. अब तो यह उन का अंतिम पड़ाव है.’’
यह सुन कर तो सावित्री हक्कीबक्की रह गईं. पिछले डेढ़ साल के दौरान दीनानाथ ने सचमुच कुछ ऐसे कार्य किए थे जो शायद साधारण परिस्थितियों में वे नहीं करते. कैसे वह इन संकेतों को नहीं समझ पाई थीं. पिछले कुछ दिनों की घटनाएं उन की आंखों के आगे चलचित्र की तरह तैर रही थीं.
‘बैठो न थोड़ी देर, कहां भागी जा रही हो,’ एक दिन अपनी पत्नी को काम में व्यस्त रसोई की ओर जाते देख दीनानाथ बोले.
‘क्या करूं, गैस पर सब्जी रखी है, जल जाएगी. फिर ऋषि आता होगा, उस के लिए नाश्ता भी तो बनाना है,’ सावित्री हैरानपरेशान स्वर में बोली.
‘कभीकभार थोड़ा समय हमारे लिए भी निकाल लिया करो,’ दीनानाथ ने कुछ ऐसे अंदाज में कहा कि सावित्री उन्हें अपलक ताकती रह गई थीं. जबान से एक बोल भी नहीं फूटा था.
‘बात क्या है? मेरे लिए तो कभी समय ही नहीं रहा आप के पास, फिर आज इस तरह पास बैठने का आग्रह?’ कुछ क्षणों की चुप्पी के बाद उन की जबान से कुछ शब्द फूटे थे.
‘अरे, कुछ नहीं, तुम तो यों ही बाल की खाल निकालने लगती हो. जोओ, गैस बंद कर आओ. कुछ जरूरी बात करनी है,’ दीनानाथ मुसकराए थे.
‘ठीक है, अभी 2 मिनट में आई,’ कहती हुई सावित्री फुरती से गईं और गैस बंद कर के उन के पास आ बैठीं.
‘इस शुक्रवार को कुछ मेहमान आने वाले हैं. मैं चाहता हूं उन के स्वागतसत्कार में कोई कमी न रह जाए,’ सावित्री के बैठते ही दीनानाथ बोले.
‘ऐसे कौन से मेहमान हैं, जिन के बारे में मुझे पता नहीं है?’ सावित्री के स्वर में आश्चर्य झलक रहा था.
‘अपनी ऋचा को देखने कुछ लोग आ रहे हैं. घरवर दोनों ही बहुत अच्छे हैं.’
‘क्या कह रहे हैं आप? ऋचा को देखने? आप तो अच्छी तरह जानते हैं कि ऋचा कभी तैयार नहीं होगी. आप को तो पता है कि वह डाक्टर बनना चाहती है. वह बचपन से यही सपना देखती आई है. अब एकाएक मैं कैसे कह दूं कि पढ़ाईलिखाई को तिलांजलि दे कर घरगृहस्थी में मन रमाओ…’’ सावित्री का स्वर न चाहते हुए भी रूखा हो आया था.
‘मुझे तो लगता है ऋचा से ज्यादा तुम इस विवाह के विरुद्ध हो. ऋचा विरोध भी करे तो तुम्हें उसे समझाना होगा. ऐसा अच्छा घरवर क्या भला रोज मिलता है? पढ़ाई ही करनी है न उसे तो विवाह के बाद कर लेगी. पितापुत्र दोनों ही डाक्टर हैं और उन्होंने मुझे आश्वासन दिया है कि यदि ऋचा पढ़ना चाहेगी तो वह उसे रोकेगे नहीं,’ दीनानाथ ने सावित्री को समझाना चाहा.
‘उन के कहने से क्या होता है. हमें भी तो अपनी बेटी का भलाबुरा सोच कर ही आगे कदम उठाना चाहिए. विवाह से पहले तो सब ऐसा ही कहते हैं पर बाद में सब के तेवर बदल जाते हैं. फिर विवाह के बाद उस के कंधों पर गृहस्थी का भार आ जाएगा, ऐसे में वह बेचारी क्या पढ़ाई कर पाएगी?’ सावित्री के स्वर में नाराजगी साफ झलक रही थी.
‘ऋचा नाराज होगी, यह तो मैं जानता था पर तुम से इतने विरोध की आशा नहीं थी. क्या मुझ पर विश्वास नहीं रहा तुम्हें?’ दीनानाथ धीरे से मगर दृढ़ स्वर में बोले थे.
‘मैं ने ऐसा कब कहा, और आप पर विश्वास न होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता,’ सावित्री का गला भर आया था.
‘तो मेरी बात मान लो और ऋचा को इस विवाह के लिए मनाने का काम भी तुम्हारा है.’
‘कोशिश करूंगी, मैं कोई आश्वासन नहीं दे सकती. मैं अपनी बेटी की आंखों में आंसू नहीं देख सकती,’ नाराज सावित्री उठीं और रसोई की ओर चली गईं. दीनानाथ एक फीकी सी मुसकान फेंक शून्य में ताकते बैठे रह गए थे.
रात को डाइनिंग टेबल पर ऋचा को न देख कर दीनानाथ ने पूछा, ‘ऋचा कहां है?’
‘बैठी रो रही है बेचारी अपनी नियति पर. वैसे भी उस के बिना ही खाने की आदत डाल लो तो अच्छा रहेगा,’ सावित्री बोलीं.
‘यह क्या तमाशा है? ऋषि, जाओ ऋचा को बुला कर लाओ,’ दीनानाथ ने अपने पुत्र को आदेश दिया. फिर वह सावित्री से मुखातिब हुए, ‘देखो, मैं ने तुम्हें पहले ही समझा दिया था कि मैं ने ऋचा के विवाह का निर्णय ले लिया है और मैं चाहता हूं कि तुम इस में मेरा साथ दो जिस से कि सबकुछ शांति से निबट जाएं.’
तभी ऋषि के साथ ऋचा आ गई तो वह बोले, ‘बैठो और खाना खाओ. देखो बेटी, घर के वातावरण को तनावमुक्त रखने की जिम्मेदारी हम सब के कंधों पर है और मैं नहीं चाहता कि तुम कुछ भी ऐसा करो जिस से मेरी परेशानी बढ़ जाए,’ उन्होंने इतनी दृढ़ता से कहा था कि सब चुप रह गए थे.
फिर तो उन्होंने किसी के विरोध की चिंता किए बिना ऋचा का विवाह कर दिया था.
उस के बाद उन्होंने जिद ठान ली थी कि गांव की जमीनजायदाद बेच कर शहर में मकान बनवाना है. उन की एक ही रट थी कि कौन देखभाल करेगा गांव की जायदाद की. सावित्री ने भरसक विरोध किया था फिर भी दीनानाथ नहीं माने थे.
मगर आज उन्हें अपने पर पछतावा हो रहा था. दीनानाथ ने समय पर प्रबंध न किया होता तो परिवार के पास सिर छिपाने के लिए छत भी न होती और फिर ऋषि का विदेश में उच्चशिक्षा का विरोध करते हुए उन्होंने सारे परिवार की नाराजगी झेली थी. ऋषि ने तो उन से बोलना तक बंद कर दिया था. सावित्री ने भी तो पति को पत्थर दिल बता कर मुंह मोड़ लिया था.
‘‘ऋषि,’’ वह बेटे को गले लगा कर बिलख रही थीं, ‘‘आज मुझे समझ आ रहा है कि वह तेरे विदेश जाने के इतने विरुद्ध क्यों थे.’’
‘‘कुछ मत कहो, मां. मैं तो स्वयं पर ही शर्मिंदा हूं. समझ नहीं आ रहा इस पितृऋण को मैं कैसे उतारूंगा,’’ ऋषि का चेहरा आंसुओं से भीग गया.
‘‘दीनानाथजी को होश आ गया है. आप लोगों को बुला रहे हैं,’’ तभी डा. सुदर्शन ने आ कर बताया.
‘‘अरे, तुम लोग रो रहे हो? देखो मैं ने भरपूर जीवन जिया है फिर मैं तो खुशहाल हूं कि मुझे इतना समय तो मिला जो मैं तुम लोगों के लिए जरूरी प्रबंध कर सका. ऋचा के लिए मैं अब बहुत खुश हूं. डाक्टर बनने का उस का सपना अब केवल सपना ही नहीं रहेगा. हां ऋषि, तुम्हारा मैं अपराधी जरूर हूं. मगर देखो बेटे, तुम्हारी इच्छा पूरी करने के लिए सारे परिवार का भविष्य दांव पर लगाना पड़ता और वह खतरा मैं उठाना नहीं चाहता था.
‘‘सच कहूं तो मैं थोड़ा स्वार्थी हो गया था. मैं नहीं चाहता था कि मेरे बाद तुम्हारी मां निपट अकेली रह जाए,’’ दीनानाथ का स्वर इतना धीमा था मानो कहीं दूर से आ रहा हो.
‘‘पापा, मुझे और शर्मिंदा मत कीजिए. आशीर्वाद दीजिए कि मैं भी आप की तरह साहसी बन सकूं,’’ ऋषि उन का हाथ अपने हाथों में थामते हुए बोला.
‘‘बेटा, तुम्हारी मां के लिए मैं कुछ विशेष नहीं कर सका, उस का भार मैं तुम्हारे कंधों पर छोड़ रहा हूं. और सावित्री, वादा करो, तुम रोओगी नहीं. याद रखना, मुझे आंसुओं से नफरत है,’’ कहते हुए दीनानाथ ने पुन: शांत हो कर आंखें मूंद लीं.
सावित्री और ऋषि अपने आंसुओं को रोकने का प्रयत्न कर रहे थे.
आज अधिकतर लोगों के लिए बढ़ते वजन को कम करना एक चुनौती है. खराब दिनचर्या और अनहैल्दी डाइट के कारण लोगों में मोटापा की शिकायतें अधिक हो गई हैं. ऐसे में लोगों के मन में हमेशा ये सवाल रहता है कि मोटापे को कम करने के लिए क्या ठीक होगा? डाइटिंग या एक्सरसाइज? इस खबर में हम आपको इसी सवाल का जवाब देंगे.
कई स्टडीज में ये बात उभर कर आई कि वजन पर होने वाले असर में डाइट का योगदान बेहद अहम होता है. जो भी हम खाते हैं उससे हमारे शरीर को कैलोरीज मिलती हैं. अगर हम जरूरत से अधिक कैलोरीज का सेवन करते हैं तो हमारा वजन बढ़ता है. इस लिए जरूरी है कि हम अपनी डाइट पर खासा ध्यान दें और जरूरत के हिसाब ही खाना खाएं.
जानकारों की माने तो हमारे शरीर में एनर्जी तीन तरह से खर्च होती हैं. बेसल मेटाबौलिक रेट, फूड का ब्रेक होना और फिजिकल एक्टिविटी.
शरीर की जरूरतों के अनुरूप जितनी उर्जा शरीर को चाहिए उसे हम बेसल मेटाबौलिक रेट कहते हैं. आपको बता दें कि शरीर द्वारा उत्पन्न होने वाली 60 से 80 फीसदी एनर्जी शरीर के बेसल मेटाबौलिक रेट द्वारा इस्तेमाल होती हैं.
इसके अलावा 10 फीसदी कैलोरी का इस्तेमाल खाने को डाइजेस्ट करने के लिए होता है. इसका मतलब ये है कि फिजिकल एक्टिविटी में हमारी कैलोरीज का 10 से 30 फीसदी हिस्सा ही बर्न होता है. इसमें वौकिंग, रनिंग और एक्सरसाइज शामिल हैं.
सेहतमंद रहने के लिए जरूरी है कि आप रोजाना एक्सरसाइज भी करें. वजन कम करने के लिए एक्सरसाइज के साथ साथ साथ डाइट पर भी अच्छा खासा ध्यान देना बेहद जरूरी है. अच्छी सेहत के लिए दोनों ही अहम हैं.
सवाल
मैं 25 साल का हूं और 21 साल की लड़की से 9 सालों से प्यार करता हूं. वह लड़की मेरी फुफेरी बहन की बेटी है. अब उस की शादी की बात चल रही है. समाज के डर से हम लोग किसी से कुछ बता भी नहीं सकते. हमें क्या करना चाहिए?
जवाब
रिश्ते में वह लड़की आप की भांजी हुई. लिहाजा, आप को भी मामा का ही रिश्ता निभाना चाहिए. बात चूंकि गलत है, इसीलिए आप को समाज का डर लगता है. अब आप भांजी की शादी होने दें और अपनी गलत भावनाओं को कुचल दें. वक्त आने पर आप को बाहर की सही लड़की जरूर मिलेगी.
‘‘जब 6 बजे के करीब मोहित ड्राइंगरूम में पहुंचा तो उस ने अपने परिवार वालों का मूड एक बार फिर से खराब पाया.
अपने सहयोगियों के दबाव में आ कर रंजना ने अपने पति मोहित को फोन किया, ‘‘ये सब लोग कल पार्टी देने की मांग कर रहे हैं. मैं इन्हें क्या जवाब दूं?’’
‘‘मम्मीपापा की इजाजत के बगैर किसी को घर बुलाना ठीक नहीं रहेगा,’’ मोहित की आवाज में परेशानी के भाव साफ झलक रहे थे.
‘‘फिर इन की पार्टी कब होगी?’’
‘‘इस बारे में रात को बैठ कर फैसला करते हैं.’’
‘‘ओ.के.’’
रंजना ने फोन काट कर मोहित का फैसला बताया तो सब उस के पीछे पड़ गए, ‘‘अरे, हम मुफ्त में पार्टी नहीं खाएंगे. बाकायदा गिफ्ट ले कर आएंगे, यार.’’
‘‘अपनी सास से इतना डर कर तू कभी खुश नहीं रह पाएगी,’’ उन लोगों ने जब इस तरह का मजाक करते हुए रंजना की खिंचाई शुरू की तो उसे अजीब सा जोश आ गया. बोली, ‘‘मेरा सिर खाना बंद करो. मेरी बात ध्यान से सुनो. कल रविवार रात 8 बजे सागर रत्ना में तुम सब डिनर के लिए आमंत्रित हो. कोई भी गिफ्ट घर भूल कर न आए.’’ रंजना की इस घोषणा का सब ने तालियां बजा कर स्वागत किया था.
कुछ देर बाद अकेले में संगीता मैडम ने उस से पूछा, ‘‘दावत देने का वादा कर के तुम ने अपनेआप को मुसीबत में तो नहीं फंसा लिया है?’’
‘‘अब जो होगा देखा जाएगा, दीदी,’’ रंजना ने मुसकराते हुए जवाब दिया.
‘‘अगर घर में टैंशन ज्यादा बढ़ती लगे तो मुझे फोन कर देना. मैं सब को पार्टी कैंसल हो जाने की खबर दे दूंगी. कल के दिन बस तुम रोनाधोना बिलकुल मत करना, प्लीज.’’
‘‘जितने आंसू बहाने थे, मैं ने पिछले साल पहली वर्षगांठ पर बहा लिए थे दीदी. आप को तो सब मालूम ही है.’’
‘‘उसी दिन की यादें तो मुझे परेशान कर रही हैं, माई डियर.’’
‘‘आप मेरी चिंता न करें, क्योंकि मैं साल भर में बहुत बदल गई हूं.’’
‘‘सचमुच तुम बहुत बदल गई हो, रंजना? सास की नाराजगी, ससुर की डांट या ननद की दिल को छलनी करने वाली बातों की कल्पना कर के तुम आज कतई परेशान नजर नहीं आ रही हो.’’
‘‘टैंशन, चिंता और डर जैसे रोग अब मैं नहीं पालती हूं, दीदी. कल रात दावत जरूर होगी. आप जीजाजी और बच्चों के साथ वक्त से पहुंच जाना,’’ कह रंजना उन का कंधा प्यार से दबा कर अपनी सीट पर चली गई. रंजना ने बिना इजाजत अपने सहयोगियों को पार्टी देने का फैसला किया है, इस खबर को सुन कर उस की सास गुस्से से फट पड़ीं, ‘‘हम से पूछे बिना ऐसा फैसला करने का तुम्हें कोई हक नहीं है, बहू. अगर यहां के कायदेकानून से नहीं चलना है, तो अपना अलग रहने का बंदोबस्त कर लो.’’
‘‘मम्मी, वे सब बुरी तरह पीछे पड़े थे. आप को बहुत बुरा लग रहा है, तो मैं फोन कर के सब को पार्टी कैंसल करने की खबर कर दूंगी,’’ शांत भाव से जवाब दे कर रंजना उन के सामने से हट कर रसोई में काम करने चली गई. उस की सास ने उसे भलाबुरा कहना जारी रखा तो उन की बेटी महक ने उन्हें डांट दिया, ‘‘मम्मी, जब भाभी अपनी मनमरजी करने पर तुली हुई हैं, तो तुम बेकार में शोर मचा कर अपना और हम सब का दिमाग क्यों खराब कर रही हो? तुम यहां उन्हें डांट रही हो और उधर वे रसोई में गाना गुनगुना रही हैं. अपनी बेइज्जती कराने में तुम्हें क्या मजा आ रहा है?’’ अपनी बेटी की ऐसी गुस्सा बढ़ाने वाली बात सुन कर रंजना की सास का पारा और ज्यादा चढ़ गया और वे देर तक उस के खिलाफ बड़बड़ाती रहीं.
रंजना ने एक भी शब्द मुंह से नहीं निकाला. अपना काम समाप्त कर उस ने खाना मेज पर लगा दिया. ‘‘खाना तैयार है,’’ उस की ऊंची आवाज सुन कर सब डाइनिंगटेबल पर आ तो गए, पर उन के चेहरों पर नाराजगी के भाव साफ नजर आ रहे थे. रंजना ने उस दिन एक फुलका ज्यादा खाया. उस के ससुरजी ने टैंशन खत्म करने के इरादे से हलकाफुलका वार्त्तालाप शुरू करने की कोशिश की तो उन की पत्नी ने उन्हें घूर कर चुप करा दिया. रंजना की खामोशी ने
झगड़े को बढ़ने नहीं दिया. उस की सास को अगर जरा सा मौका मिल जाता तो वे यकीनन भारी क्लेश जरूर करतीं. महक की कड़वी बातों का जवाब उस ने हर बार मुसकराते हुए मीठी आवाज में दिया.
शयनकक्ष में मोहित ने भी अपनी नाराजगी जाहिर की, ‘‘किसी और की न सही पर तुम्हें कोई भी फैसला करने से पहले मेरी इजाजत तो लेनी ही चाहिए थी. मैं कल तुम्हारे साथ पार्टी में शामिल नहीं होऊंगा.’’
‘‘तुम्हारी जैसी मरजी,’’ रंजना ने शरारती मुसकान होंठों पर सजा कर जवाब दिया और फिर एक चुंबन उस के गाल पर अंकित कर बाथरूम में घुस गई. रात ठीक 12 बजे रंजना के मोबाइल के अलार्म से दोनों की नींद टूट गई.
‘‘यह अलार्म क्यों बज रहा है?’’ मोहित ने नाराजगी भरे स्वर में पूछा.
‘‘हैपी मैरिज ऐनिवर्सरी, स्वीट हार्ट,’’ उस के कान के पर होंठों ले जा कर रंजना ने रोमांटिक स्वर में अपने जीवनसाथी को शुभकामनाएं दीं. रंजना के बदन से उठ रही सुगंध और महकती सांसों की गरमाहट ने चंद मिनटों में जादू सा असर किया और फिर अपनी नाराजगी भुला कर मोहित ने उसे अपनी बांहों के मजबूत बंधन में कैद कर लिया. रंजना ने उसे ऐसे मस्त अंदाज में जी भर कर प्यार किया कि पूरी तरह से तृप्त नजर आ रहे मोहित को कहना ही पड़ा, ‘‘आज के लिए एक बेहतरीन तोहफा देने के लिए शुक्रिया, जानेमन.’’
‘‘आज चलोगे न मेरे साथ?’’ रंजना ने प्यार भरे स्वर में पूछा.
‘‘पार्टी में? मोहित ने सारा लाड़प्यार भुला कर माथे में बल डाल लिए.’’
‘‘मैं पार्क में जाने की बात कर रही हूं, जी.’’
‘‘वहां तो मैं जरूर चलूंगा.’’
‘‘आप कितने अच्छे हो,’’ रंजना ने उस से चिपक कर बड़े संतोष भरे अंदाज में आंखें मूंद लीं. रंजना सुबह 6 बजे उठ कर बड़े मन से तैयार हुई. आंखें खुलते ही मोहित ने उसे सजधज कर तैयार देखा तो उस का चेहरा खुशी से खिल उठा.
‘‘यू आर वैरी ब्यूटीफुल,’’ अपने जीवनसाथी के मुंह से ऐसी तारीफ सुन कर रंजना का मन खुशी से नाच उठा. खुद को मस्ती के मूड में आ रहे मोहित की पकड़ से बचाते हुए रंजना हंसती हुई कमरे से बाहर निकल गई. उस ने पहले किचन में जा कर सब के लिए चाय बनाई, फिर अपने सासससुर के कमरे में गई और दोनों के पैर छू कर आशीर्वाद लिया. चाय का कप हाथ में पकड़ते हुए उस की सास ने चिढ़े से लहजे में पूछा, ‘‘क्या सुबहसुबह मायके जा रही हो, बहू?’’
‘‘हम तो पार्क जा रहे हैं मम्मी,’’ रंजना ने बड़ी मीठी आवाज में जवाब दिया. सास के बोलने से पहले ही उस के ससुरजी बोल पड़े, ‘‘बिलकुल जाओ, बहू. सुबहसुबह घूमना अच्छा रहता है.’’
‘‘हम जाएं, मम्मी?’’
‘‘किसी काम को करने से पहले तुम ने मेरी इजाजत कब से लेनी शुरू कर दी, बहू?’’ सास नाराजगी जाहिर करने का यह मौका भी नहीं चूकीं.
‘‘आप नाराज न हुआ करो मुझ से, मम्मी. हम जल्दी लौट आएंगे,’’ किसी किशोरी की तरह रंजना अपनी सास के गले लगी और फिर प्रसन्न अंदाज में मुसकराती हुई अपने कमरे की तरफ चली गई. वह मोहित के साथ पार्क गई जहां दोनों के बहुत से साथी सुबह का मजा ले रहे थे. फिर उस की फरमाइश पर मोहित ने उसे गोकुल हलवाई के यहां आलूकचौड़ी का नाश्ता कराया. दोनों की वापसी करीब 2 घंटे बाद हुई. सब के लिए वे आलूकचौड़ी का नाश्ता पैक करा लाए थे. लेकिन यह बात उस की सास और ननद की नाराजगी खत्म कराने में असफल रही थी.
दोनों रंजना से सीधे मुंह बात नहीं कर रही थीं. ससुरजी की आंखों में भी कोई चिंता के भाव साफ पढ़ सकता था. उन्हें अपनी पत्नी और बेटी का व्यवहार जरा भी पसंद नहीं आ रहा था, पर चुप रहना उन की मजबूरी थी. वे अगर रंजना के पक्ष में 1 शब्द भी बोलते, तो मांबेटी दोनों हाथ धो कर उन के पीछे पड़ जातीं. सजीधजी रंजना अपनी मस्ती में दोपहर का भोजन तैयार करने के लिए रसोई में चली आई. महक ने उसे कपड़े बदल आने की सलाह दी तो उस ने इतराते हुए जवाब दिया, ‘‘दीदी, आज तुम्हारे भैया ने मेरी सुंदरता की इतनी ज्यादा तारीफ की है कि अब तो मैं ये कपड़े रात को ही बदलूंगी.’’
‘‘कीमती साड़ी पर दागधब्बे लग जाने की चिंता नहीं है क्या तुम्हें?’’
‘‘ऐसी छोटीमोटी बातों की फिक्र करना अब छोड़ दिया है मैं ने, दीदी.’’
‘‘मेरी समझ से कोई बुद्धिहीन इनसान ही अपना नुकसान होने की चिंता नहीं करता है,’’ महक ने चिढ़ कर व्यंग्य किया.
‘‘मैं बुद्धिहीन तो नहीं पर तुम्हारे भैया के प्रेम में पागल जरूर हूं,’’ हंसती हुई रंजना ने अचानक महक को गले से लगा लिया तो वह भी मुसकराने को मजबूर हो गई. रंजना ने कड़ाही पनीर की सब्जी बाजार से मंगवाई और बाकी सारा खाना घर पर तैयार किया.
‘‘आजकल की लड़कियों को फुजूलखर्ची की बहुत आदत होती है. जो लोग खराब वक्त के लिए पैसा जोड़ कर नहीं रखते हैं, उन्हें एक दिन पछताना पड़ता है, बहू,’’ अपनी सास की ऐसी सलाहों का जवाब रंजना मुसकराते हुए उन की हां में हां मिला कर देती रही. उस दिन उपहार में रंजना को साड़ी और मोहित को कमीज मिली. बदले में उन्होंने महक को उस का मनपसंद सैंट, सास को साड़ी और ससुरजी को स्वैटर भेंट किया. उपहारों की अदलाबदली से घर का माहौल काफी खुशनुमा हो गया था. यह सब को पता था कि सागर रत्ना में औफिस वालों की पार्टी का समय रात 8 बजे का है. जब 6 बजे के करीब मोहित ड्राइंगरूम में पहुंचा तो उस ने अपने परिवार वालों का मूड एक बार फिर से खराब पाया.
‘‘तुम्हें पार्टी में जाना है तो हमारी इजाजत के बगैर जाओ,’’ उस की मां ने उस पर नजर पड़ते ही कठोर लहजे में अपना फैसला सुना दिया.
‘‘आज के दिन क्या हम सब का इकट्ठे घूमने जाना अच्छा नहीं रहता, भैया?’’ महक ने चुभते लहजे में पूछा.
‘‘रंजना ने पार्टी में जाने से इनकार कर दिया है,’’ मोहित के इस जवाब को सुन वे तीनों ही चौंक पड़े.
‘‘क्यों नहीं जाना चाहती है बहू पार्टी में?’’ उस के पिता ने चिंतित स्वर में पूछा.
‘‘उस की जिद है कि अगर आप तीनों साथ नहीं चलोगे तो वह भी नहीं जाएगी.’’
‘‘आजकल ड्रामा करना बड़ी अच्छी तरह से आ गया है उसे,’’ मम्मी ने बुरा सा मुंह बना कर टिप्पणी की. मोहित आंखें मूंद कर चुप बैठ गया. वे तीनों बहस में उलझ गए.
‘‘हमें बहू की बेइज्जती कराने का कोई अधिकार नहीं है. तुम दोनों साथ चलने के लिए फटाफट तैयार हो जाओ वरना मैं इस घर में खाना खाना छोड़ दूंगा,’’ ससुरजी की इस धमकी के बाद ही मांबेटी तैयार होने के लिए उठीं. सभी लोग सही वक्त पर सागर रत्ना पहुंच गए. रंजना के सहयोगियों का स्वागत सभी ने मिलजुल कर किया. पूरे परिवार को यों साथसाथ हंसतेमुसकराते देख कर मेहमान मन ही मन हैरान हो उठे थे.
‘‘कैसे राजी कर लिया तुम ने इन सभी को पार्टी में शामिल होने के लिए?’’ संगीता मैडम ने एकांत में रंजना से अपनी उत्सुकता शांत करने को आखिर पूछ ही लिया. रंजना की आंखों में शरारती मुसकान की चमक उभरी और फिर उस ने धीमे स्वर में जवाब दिया, ‘‘दीदी, मैं आज आप को पिछले 1 साल में अपने अंदर आए बदलाव के बारे में बताती हूं. शादी की पहली सालगिरह के दिन मैं अपनी ससुराल वालों के रूखे व कठोर व्यवहार के कारण बहुत रोई थी, यह बात तो आप भी अच्छी तरह जानती हैं.’’
‘‘उस रात को पलंग पर लेटने के बाद एक बड़ी खास बात मेरी पकड़ में आई थी. मुझे आंसू बहाते देख कर उस दिन कोई मुसकरा तो नहीं रहा था, पर मुझे दुखी और परेशान देख कर मेरी सास और ननद की आंखों में अजीब सी संतुष्टि के भाव कोई भी पढ़ सकता था. ‘‘तब मेरी समझ में यह बात पहली बार आई कि किसी को रुला कर व घर में खास खुशी के मौकों पर क्लेश कर के भी कुछ लोग मन ही मन अच्छा महसूस करते हैं. इस समझ ने मुझे जबरदस्त झटका लगाया और मैं ने उसी रात फैसला कर लिया कि मैं ऐसे लोगों के हाथ की कठपुतली बन अपनी खुशियों व मन की शांति को भविष्य में कभी नष्ट नहीं होने दूंगी. ‘‘खुद से जुड़े लोगों को अब मैं ने 2 श्रेणियों में बांट रखा है. कुछ मुझे प्रसन्न और सुखी देख कर खुश होते हैं, तो कुछ नहीं. दूसरी श्रेणी के लोग मेरा कितना भी अहित करने की कोशिश करें, मैं अब उन से बिलकुल नहीं उलझती हूं.
‘‘औफिस में रितु मुझे जलाने की कितनी भी कोशिश करे, मैं बुरा नहीं मानती. ऐसे ही सुरेंद्र सर की डांट खत्म होते ही मुसकराने लगती हूं.’’
‘‘घर में मेरी सास और ननद अब मुझे गुस्सा दिलाने या रुलाने में सफल नहीं हो पातीं. मोहित से रूठ कर कईकई दिनों तक न बोलना अब अतीत की बात हो गई है. ‘‘जहां मैं पहले आंसू बहाती थी, वहीं अब मुसकराते रहने की कला में पारंगत हो गई हूं. अपनी खुशियों और मन की सुखशांति को अब मैं ने किसी के हाथों गिरवी नहीं रखा हुआ है. ‘‘जो मेरा अहित चाहते हैं, वे मुझे देख कर किलसते हैं और मेरे कुछ किए बिना ही हिसाब बराबर हो जाता है. जो मेरे शुभचिंतक हैं, मेरी खुशी उन की खुशियां बढ़ाने में सहायक होती हैं और यह सब के लिए अच्छा ही है.
‘‘अपने दोनों हाथों में लड्डू लिए मैं खुशी और मस्ती के साथ जी रही हूं, दीदी. मैं ने एक बात और भी नोट की है. मैं खुश रहती हूं तो मुझे नापसंद करने वालों के खुश होने की संभावना भी ज्यादा हो जाती है. मेरी सास और ननद की यहां उपस्थिति इसी कारण है और उन दोनों की मौजूदगी मेरी खुशी को निश्चित रूप से बढ़ा रही है.’’ संगीता मैडम ने प्यार से उस का माथा चूमा और फिर भावुक स्वर में बोलीं, ‘‘तुम सचमुच बहुत समझदार हो गई हो, रंजना. मेरी तो यही कामना है कि तुम जैसी बहू मुझे भी मिले.’’ ‘‘आज के दिन इस से बढिया कौंप्लीमैंट मुझे शायद ही मिले, दीदी. थैंक्यू वैरी मच,’’ भावविभोर हो रंजना उन के गले लग गई. उस की आंखों से छलकने वाले आंसू खुशी के थे.
कहने को तो मैं बाजार से घर आ गई थी पर लग रहा है मेरी खाली देह ही वापस लौटी है, मन तो जैसे वहीं बाजार से मेरी बचपन की सखी सुकन्या के साथ चला गया था. शायद उस का संबल बनने के लिए. आज पूरे 3 वर्ष बाद मिली सुकन्या, होंठों पर वही सदाबहार मुसकान लिए. यही तो उस की विशेषता है, अपनी हर परेशानी, हर तकलीफ को अपनी मुसकराहट में वह इतनी आसानी, इतनी सफाई से छिपा लेती है कि सामने वाले को धोखा हो जाता है कि इस लड़की को किसी तरह का कोई गम है.
‘‘अरे भाई, आज जादू की सब्जी बना रही हो,’’ विवेक, मेरे पति, के टोकते ही मैं यथार्थ के धरातल पर आ गई. अब मुझे ध्यान आया कि मैं खाली कुकर में कलछी चला रही हूं. वे शायद पानी पीने के लिए रसोई में आए थे.
‘‘क्या बात है विनि, परेशान हो?’’ इन्होंने पूछा, ‘‘आओ, बैठ कर बातें करते हैं.’’
‘‘पर खाना,’’ मेरे यह कहते ही ये बोले, ‘‘तुम्हें भी पता है, मन में इतनी हलचल ले कर तुम ठीक से खाना बना नहीं पाओगी और मैं शक्कर वाली सब्जी खा नहीं पाऊंगा.’’
मैं अपलक विवेक का चेहरा देखती रही जो मुझे, मुझ से भी ज्यादा समझते हैं.
आज एक बार फिर प्रकृति को कोटिकोटि धन्यवाद देने को मन कर रहा है कि उस ने मुझे इतना समझने वाला पति दिया है.
‘‘फिर से खो गईं,’’ विवेक ने मेरे चेहरे के सामने चुटकी बजाते हुए कहा, ‘‘आने दो सासूमां को, उन से पूछूंगा कि कहीं आप अपनी यह बेटी कुंभ के मेले से तो नहीं लाई थीं. बारबार खो जाती है,’’ फिर इन्होंने मुझे सोफे पर बैठाते हुए कहा, ‘‘अब बताओ, क्या बात है?’’
‘‘आप को सुकन्या याद है?’’
‘‘कौन, वह शरारती लड़की जिस ने हमारे विवाह में मेरे दोस्तों को सब से ज्यादा छकाया था? क्या हुआ उसे?’’ इन्होंने पूछा.
‘‘आज बाजार में मिली थी. पता है, कालेज में हम 3 सखियों की आपस में बहुत घनिष्ठता थी. मैं, पारुल और सुकन्या. हम तीनों के विचार, व्यवहार तथा पारिवारिक स्थितियां एकदूसरे से एकदम अलग थीं. हम तीनों ने एक ही कालेज में ऐडमिशन लिया था. पारुल के पिताजी शहर के जानेमाने लोहे के व्यापारी थे. घर में धनदौलत की नदी बहती थी. पापा भी सरकारी महकमे में थे. हम पर दौलत की बरसात तो नहीं थी, पर कोई कमी भी नहीं थी. इस के विपरीत पितृविहीन सुकन्या के घर का खर्च मुश्किल से तब पूरा होता था जब वह और उस की मां सारा दिन सिलाई करती थीं. इन सब के बावजूद मैं ने कभी भी उस के माथे पर परेशानी की एक शिकन नहीं देखी थी.
‘‘शायद हमारी आर्थिक स्थिति जैसा ही हमारा स्वभाव था. नाजों में पली पारुल जरा सी तकलीफ में घबरा जाती थी तो दूसरी तरफ सुकन्या बड़ी से बड़ी परेशानी भी बिना उफ किए झेल जाती थी और बची मैं, जिस के लिए सुकन्या कहती थी, ‘अच्छा है कि तू मेरे और पारुल के बीच में रहती है वरना, यह पारुल तो मुझे भी अपनी तरह कमजोर बना देगी, कांच की गुडि़या.’ पारुल भी कहां चुप रहती, पलट कर जवाब मिलता, ‘हां, रहने दे मुझे कांच की गुडि़या की तरह नाजुक. मुझे नहीं बनना तेरी तरह पत्थर, सीने में दिल ही नहीं है.’ और बदले में सुकन्या यह शेर सुना कर लाजवाब कर देती थी :
‘आईने को तो बस टूट जाना है, आईना बनने से बेहतर है पत्थर बनो, तराशे जाओगे तो महान कहलाओगे.’
‘‘पर वक्त की मार देखो, मेरी दोनों सहेलियां टूट कर बिखर गईं जो पत्थर थी वह भी और जो कांच थी वह भी.’’
मेरी आंखों में रुके हुए आंसुओं का बांध टूट गया था. मैं बहुत देर तक विवेक की बांहों में सिसकती रही.
‘‘मुझे बताओ, क्या हुआ इस के बाद, तुम्हारा मन हलका हो जाएगा,’’ काफी देर की खामोशी के बाद विवेक बोले तो मैं ने सब कह दिया, ‘‘हमारा कालेज में पहला वर्ष ही था कि पारुल की सगाई हो गई शहर के ही व्यापारी के बेटे विजय से. वे दोनों रोज एकदूसरे से फोन पर घंटों बातें करते थे. वह अपनी सारी बातें हम से शेयर करती. पारुल की बातें खत्म नहीं होतीं और सुकन्या अकसर उसे चिढ़ाने के लिए कहती, ‘ओफ हो, जिस लड़की की सगाई हो गई हो उस के तो पास तो फटकना भी नहीं चाहिए.’ यह सुन कर पारुल रूठ जाती और मुझे बीचबचाव करना पड़ता था.
‘‘मुझे आज भी याद है जब पारुल के विवाह से ठीक 1 महीने पहले विजय ने शादी से मना कर दिया. परिणाम यह हुआ कि पारुल, जिस ने कभी छोटा सा दुख भी नहीं झेला था, ने उसी रात एक चिट्ठी में यह लिख कर ‘मैं विजय के बिना नहीं जी सकती हूं’ आत्महत्या कर ली.
‘‘उसी दिन सुकन्या ने मुझ से कहा था, ‘विनि, मैं शादी से पहले किसी को अपने इतने करीब नहीं आने दूंगी कि उस के दूर जाते ही मेरी जिंदगी ही मुझ से रूठ जाए.’ और अभी 2 महीने पहले ही तो उस ने मुझे फोन पर बताया था, ‘मेरी सगाई हो गई है, विनि.’ खुशी उस की आवाज से छलक रही थी. तो मैं ने भी पूछा, ‘क्या नाम है? बातेंवातें कीं?’
‘‘‘धीर नाम है उन का और हां, खूब बातें करते हैं.’
‘‘‘अच्छा जी, खूब बातें करते हैं तो आखिर पत्थर को भी बोलना आ ही गया. अब तो धीर जी से मिलना ही पड़ेगा.’ मैं ने चुटकी ली थी.
‘‘‘हां विनि, मुझे पता ही नहीं चला कब धीर ने मेरे पत्थर दिल को पिघला कर मोम बना दिया और उसे धड़कना सिखा दिया. 3 महीने बाद शादी है, तू जरूर आना.’
‘‘‘हांहां, जरूर आऊंगी,’ मैं ने कह दिया.
‘‘आज बाजार में मिली, होंठों पर वही सदाबहार मुसकान. मैं ने पूछा, ‘कहां जा रही है धूप में? शादी को 1 महीने से कम समय रह गया है. इतनी धूप में घूमेगी तो काली हो जाएगी.’
‘‘‘अरे, तुझे तो पता ही है पार्लर खोला है. उसी का सामान लेने जा रही हूं.’ वह जैसे मुझ से पीछा छुड़ाना चाह रही हो.
‘‘‘अरे पार्लरवार्लर छोड़, पिया के घर जाने की तैयारी कर,’ मैं ने उस का हाथ थामते हुए कहा.
‘‘तभी मेरी नजर उस की आंखों पर गई. शायद वह एक सैकंड का सौवां भाग जितना ही समय था जब उस की आंखों में दर्द की लहर गुजरी जिसे उस ने बहुत सफाई से छिपा लिया था क्योंकि अगले क्षण उस की सदाबहार मुसकराहट वापस उस के होंठों पर थी. वह मुझ से नजर नहीं मिला पा रही थी.
‘‘वह झटके से वापस जाने के लिए मुड़ी पर मैं ने उस का हाथ पकड़ लिया. ‘नहीं एक्सरे, आज नहीं,’ कह कर वह अपना हाथ छुड़ाने लगी.
‘‘‘नहीं, आज ही,’ मैं ने जिद की.
‘‘हमेशा ही ऐसा होता था. उसे जब भी मुझ से अपनी कोई परेशानी छिपानी होती थी, मुझ से नजर मिलाने से कतराती थी, कहती थी, ‘मैं अपने हंसते चेहरे की आड़ में अपना दर्द सारी दुनिया से छिपा लेती हूं पर एक्सरे, तू फिर भी सब समझ जाती है.’ और तब वह मुझे विनी न कह कर एक्सरे बुलाती. आज भी ऐसा हुआ था.
‘‘‘कल धीर के घर वाले आए थे. उन्होंने अचानक ही अपनी डिमांड बढ़ा दी. अम्मा ने मजबूरी बताते हुए हाथ जोड़े तो उन्होंने रिश्ता तोड़ दिया,’ उस ने अपना चेहरा घुमाते हुए कहा.
‘‘‘कल तेरा रिश्ता टूटा और आज तू पार्लर जा रही है,’ मुझे अपनी ही आवाज गले में फंसती हुई लग रही थी.
‘‘‘तू तो जानती है, हम दोनों बहनों ने कितनी मुश्किल से पैसे जोड़ कर यह पार्लर खोला है और अब अगर शादीविवाह के मौकों पर पार्लर बंद रखेंगे तो काम कैसे चलेगा.’
‘‘विवेक, समय की मार देखो, मेरी दोनों सहेलियों के साथ एकजैसे ही हादसे हुए. पारुल कांच की तरह टूट कर बिखर गई. उस का टूटना सब ने देखा और बिखरना भी. और दूसरी तरफ सुकन्या, वह न तो टूट सकी और न ही बिखर सकी, क्योंकि अगरवह कांच की तरह टूट कर बिखरती तो उन टूटी हुई किरचों से उस के अपने ही लहूलुहान हो जाते. घायल हो जाती उस की मांबहनें. तभी तो उस ने अपने टूटे हुए ख्वाबों को अपने दिल में ही दफन कर दिया. उस को तो दुखी हो कर शोक मनाने का अधिकार भी नहीं था. उस के ऊपर सारे घर की जिम्मेदारी जो थी.’’
विवेक ने मेरे मुख से दुखभरी कथा को सुन मुझ से अपनी सहेलियों के दर्द में शामिल होने को कहा. हालांकि अपने दिल की बात सुना कर मैं हलकी हो गई
Nawazuddin Siddiqui struggle story : बॉलीवुड में अपनी एक्टिंग से लाखों दिलों का दिल जीतने वाले अभिनेता ”नवाजुद्दीन सिद्दीकी” (Nawazuddin Siddiqui) को आज किसी पहचान की जरूर नहीं है. उन्होंने अपनी कड़ी मेहनत व फिल्म इंडस्ट्री में बिना किसी गॉडफादर के अपनी जगह बनाई है.
नवाज के लिए एक छोटे से गांव से आकर मुंबई जैसे शहर में अपनी जगह बनाना आसान नहीं रहा है. लेकिन उनकी मेहनत की वजह से आज कामयाबी उनके कदम चूम रही हैं. हालांकि इस कामयाबी के पीछे उनका कई सालों का संघर्ष भी है, जिसके बारे में बहुत कम लोग ही जानते हैं. तो आइए जानते हैं अभिनेता ”नवाजुद्दीन सिद्दीकी” ने इस मुकाम तक पहुंचे के लिए किन-किन मुश्किल घड़ियों का सामना किया है.
साफ-सफाई से लेकर चाय सर्व तक करने का किया है काम
”नवाजुद्दीन सिद्दीकी” का जन्म उत्तर प्रदेश के एक छोटे-से कस्बे बुढ़ाना में हुआ है. बचपन में उनका एक्टर बनने की कोई इच्छा नहीं थी. वो पढ़-लिखकर एक अच्छी नौकरी करना चाहते थे. साइंस में ग्रेजुएशन करने के बाद कई दिनों तक उन्होंने (Nawazuddin Siddiqui struggle story) फैक्ट्रियी में काम भी किया है. इसी दौरान एक दिन उन्हें किसी ने थिएटर के बारे में बताया और तभी उन्होंने थिएटर ज्वाइन भी कर लिया.
जहां उन्होंने शुरुआती दिनों में साफ-सफाई से लेकर लोगों को चाय सर्व करने तक का काम किया है. फिर एक दिन उन्हें बहुत छोटा सा रोल करने का मौका मिला, जिसमें उन्हें सिर्फ एक लाइन बोलनी थी. ऐसे ये कारवां चलता गया. हालांकि उनकी मां के अलावा उनके घर में किसी को भी यकीन नहीं था कि वो कभी एक्टर भी बन सकते हैं.
मुंबई में किया है कई मुश्किलों का सामना
लंबे समय तक वडोदरा में काम करने के बाद फिर ‘नवाज’ (Nawazuddin Siddiqui struggle story) एनएसडी चले गए. जहां उन्होंने खुद को समझाया कि, गुड-लुकिंग न होने के बादजूद भी वह एक्टर बनकर रहेंगे. इसके बाद वह मुंबई चले गए. जहां उनके लिए रहना और सर्वाइव करना बहुत मुश्किल था.
एक बार एक इंटरव्यू में नवाज ने बताया था कि, ”कास्टिंग डायरेक्टर उन्हें ये बोलकर रिजेक्ट कर देते थे कि वो एक्टर-मटीरियल नहीं हूैं.” इसी के साथ वो बताते है कि, ”कई बार तो उनके पास गोरेगांव से बांद्रा जाने तक भी पैसा नहीं हुआ करते थे, जिसे देख उनका हौसला टूटने लगा. उनके पास 10-12 दिनों से एक भी रुपए नहीं थे. कोई काम नहीं था. फिर मन किया कि वह मुंबई से चले जाए लेकिन फिर रुक गए क्योंकि एक्टिंग के अलावा उन्हें कुछ आता भी नहीं था.”
काम करने के बाद भी नहीं मिलते थे पैसे
इसके बाद उन्हें (Nawazuddin Siddiqui) कुछ फिल्मों में काम करने का मौका मिला, लेकिन ज्यादातर मूवी में उन्हें बहुत छोटे सीन मिला करते थे और कई बार तो उन्हें फिल्मों में काम करने के लिए पैसे भी नहीं दिए गए थे. इसके बाद उन्होंने तय किया कि अब से वो सिर्फ उन फिल्मों में काम करेंगे, जिनमें उन्हें दो सीन का रोल मिलेगा. लेकिन उन्हें रोल तब नहीं मिले.
फिर कुछ समय बाद पीपली लाइव और पतंग जैसी फिल्मों में उन्हें काम करने का मौका मिला, जिससे लोग उन्हें पहचानने लगे. इसके बाद धीरे-धीरे उन्हें कई बड़ी फिल्मों में काम करने का भी चांस मिला और वो आज बॉलीवुड के कई बड़े-बड़े अभिनेता व अभिनेत्रियों के साथ काम कर रहे हैं. हाल ही में उनकी फिल्म ‘हड्डी’ रिलीज हुई है, जिसमें उनके लुक और एक्टिंग को लोगों का खूब प्यार मिल रहा है.
मायावती और उन का दलित वोटबैंक राजनीति के लिए अबूझ पहेली जैसा है. 2014 लोकसभा चुनाव के बाद से दलित वोट भारतीय जनता पार्टी के पाले की तरफ आ गया था. समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के बाद कहा कि ‘मायावती सपा को हराने के लिए उम्मीदवार खड़ा करती हैं.’
हाल के घोसी उपचुनाव में दलित वोट समाजवादी पार्टी की तरफ झुका तो भाजपा हार गई. मायावती की बहुजन समाज पार्टी ने चुनाव नहीं लड़ा था. यह राजनीति में मायावती का प्रभाव ही है कि उन की पार्टी चुनाव लड़े या न लड़े लेकिन जीत और हार को प्रभावित जरूर करती है.
जब सारा देश नए संसद भवन के उद्घाटन के समय जनजाति समूह से आने वाली राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की अनुपस्थिति पर अचंभित था और नरेंद्र मोदी पर आरोप लगारहे थे कि राष्ट्रपति से संसद भवन का उद्घाटन न करा कर दलितों, अछूतों और वनवासियों को अपमानित किया गया, तब एक बड़ी दलित नेता नरेंद्र मोदी के साथ पूरे जोरशोर से खड़ी थी, वह थी मायावती दलितों की मसीहा कही जाने वाली जिसे दलितों के सम्मान की फिक्र नहीं रह गई है.
बहनजी के नाम से मशहूर जानी जाने वाली वारिस बहुजन समाज पार्टी के नेता कांशीराम के नारे ‘तिलक तराजू और तलवार, इन को मारो जूते चार’ से गंगायमुना में बहा चुकी हैं. दलित समुदाय की अकेली दमदार नेता रही बहुजन समाज पार्टी की अध्यक्षा मायावती आज इतनी क्यों भयभीत हैं? यह एक पहेली है जो उन के जीवन के बारे में जानने पर भी नहीं सुल झती.
मायावती ने क्यों ‘बहुजन’ जो असल में दलितों आदिवासियों व सभी पिछड़ों यानी शूद्रों के लिए कांशीराम का शब्द था, अब सर्वजन के नाम पर सिर्फ ब्राह्मणजन का रूप ले चुका है, अपनाया.
बड़ी बात यह है कि समर्पण के बावजूद उन्हें आज भी कांशीराम की वारिस होने के नाते काफी वोट दलितों के मिल रहे हैं और अब इन वोटों का लाभ भारतीय जनता पार्टी को हो रहा है क्योंकि गैर भाजपाई वोट बंट जाते हैं.
मायावती किसी राजनीतिक परिवार से नहीं हैं. वह पलीबड़ी दिल्ली में ही हैं. मायावती अधिकतर दिल्ली में रहती हैं. अपने भाई के परिवार के साथ उन की निकटता है. कोरोना के बाद बहुत लोगों से सीधे नहीं मिलती हैं. वे नियमित अपनी डायरी लिखती हैं. उन के जन्मदिन पर इन का संकलन प्रकाशित होता है. पार्टी का काम आकाश आंनद के पास अधिक है.
लोग मानते हैं कि मायावती की राजनीतिक कहानी तब से शुरू होती है जब 1989 में उन्होंने लोकसभा का अपना पहला चुनाव जीता था. सचाई यह है कि मायावती की कहानी 1977 से शुरू होती है जब मायावती 21 साल की थीं. मायावती का जन्म 15 जनवरी, 1956 में दिल्ली के श्रीमती सुचेता कृपलानी अस्पताल में हुआ था. वे एक साधारण परिवार की बेटी थीं. उन के पिता प्रभुदास टैलीफोन विभाग में सरकारी नौकरी करते थे. मां रामरती गृहिणी थीं.
मायावती के 6 भाई और 2 बहनें थीं. मायावती ने 1975 में दिल्ली विश्वविद्यालय के कालिंदी कालेज से बीए किया था. दिल्ली विश्वविद्यालय से ही उन्होंने एलएलबी की पढ़ाई पूरी की. वे आईएएस अफसर बनना चाहती थीं. प्रशासनिक सेवा में शामिल होने के लिए प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी भी की थी.
मायावती शुरू से बाबासाहब
डा. भीमराव अंबेडकर के विचारों से प्रभावित थीं. बैकवर्ड एंड माइनौरिटी कम्युनिटीज एम्प्लौइज फैडरेशन यानी बामसेफ और दलित शोषित संघर्ष समिति के लिए काम करने वाले कांशीराम का मायावती के घर आनाजाना था क्योंकि मायावती के पिता प्रभुदास बामसेफ के दलित आंदोलन से जुड़े थे. कांशीराम उन से मिलने आते थे. वैसे तो उस समय तक कांशीराम भी सरकारी नौकरी करते थे.
बामसेफ के जरिए कांशीराम ने ऐसे सरकारी कर्मचारियों को संगठित किया था जो संगठन चलाने के लिए आर्थिक मदद करते थे. उस में हर श्रेणी के सरकारी नौकर शामिल थे पर बड़ी संख्या तीसरे और चौथे श्रेणी के कर्मचारियों की थी.
बामसेफ राजनीति से दूर रहते हुए अपने समाज के लिए काम करता था. कांशीराम का मानना था कि बिना सत्ता के समाज में बदलाव नहीं हो सकता. ऐसे में वे राजनीतिक संगठन बनाना चाहते थे. इस के लिए दलित शोषित संघर्ष समिति नाम से एक दल का गठन किया. यह केवल दलित वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करता था. लिहाजा, 1984 में कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी का गठन किया.
घरपरिवार को छोड़ समाज को अपनाया
1977 में जब कांशीराम मायावती के घर उन के पिता से मिलने आए तो दोनों की पहली मुलाकात हुई. मायावती से बातचीत के दौरान कांशीराम को उन के अंदर की प्रतिभा को सम झने का मौका मिला. इस के बाद कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी की स्थापना की तो मायावती को भी उस में शामिल किया.
मायावती के पिता नहीं चाहते थे कि मायावती राजनीति में आए. इस कारण मायावती को भी शुरू में दिक्कत हुई. घर के अंदर ही उन को विरोध झेलना पड़ा. मायावती के पिता चाहते थे कि मायावती शिक्षिका की नौकरी करे. अपना घर बसाए.
मायावती के एक तरफ उस के पिता थे जो उन को राजनीति से दूर रख कर घरपरिवार बसाने की बात कर रहे थे, दूसरी तरफ कांशीराम थे जिन्होंने मायावती से कहा कि ‘तुम आईएएस बनने का सपना देखना छोड़ कर समाज के लिए काम करो. मैं तुम्हें उस स्थान पर ले जाना चाहता हूं जहां आईएएस तुम को सलाम करेंगे.’
कांशीराम के सम झाने पर मायावती ने अपना फैसला बदल लिया. इस के बाद मायावती ने कांशीराम की पार्टी जौइन की और बसपा की कोर टीम में शामिल हो गईं. पिता ने मायावती से रिश्ता तोड़ लिया. उन के किसी से प्रेम की चर्चा भी कभी नहीं उठी.
मायावती में सत्ता की आकांक्षा थी और कांशीराम उन को आगे बढ़ाना भी चाहते थे. 1989 में मायावती को चुनाव लड़ने का मौका मिला और वे सांसद बन गईं. मायावती पार्टी में काफी जूनियर थीं. इस के बाद भी कांशीराम उन की बात को ज्यादा महत्त्व देते थे. ऐसे में कांशीराम की कार्यशैली को ले कर तमाम तरह के सवाल उठने लगे कि वे मायावती को इतना बढ़ावा क्यों दे रहे हैं.
कांशीराम लोगों को सम झाते कहते थे कि, ‘मायावती मेरा जनून है. इस से किसी को दिक्कत नहीं होनी चाहिए. इस के कई कारणों में से एक कारण यह भी है कि मेरे तमाम शिष्यों में से वह मु झे सब से अधिक प्रिय है.’
कांशीराम ने बसपा में पूरा अनुशासन बना कर रखा था. इस के लिए वे डाक्टर अंबेडकर का उदाहरण देते थे. बसपा का राजनीतिक जनाधार बढ़ाने के लिए कांशीराम ने अलगअलग दलों से गठबंधन करने शुरू किए. वे ब्राह्मणवाद के खिलाफ थे. वे कहते थे, ‘ब्राह्मण नीबू के रस की तरह होता है. जिस तरह से नीबू का रस दूध को फाड़ देता है, उसी तरह ब्राह्मण समाज को अलगअलग कर के अपना लाभ करता है.’
जब भाजपा ने राममंदिर आंदोलन के जरिए समाज को बांटने की शुरुआत की और अयोध्या में राममंदिर का विवादित ढांचा गिरा दिया तब कांशीराम ने भाजपा के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए 1993 में मुलायम सिंह यादव के साथ चुनावी गठबंधन किया. सपाबसपा का नारा था. ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम.’
चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन की जीत हुई. सपा नेता मुलायम सिंह गठबंधन के मुख्यमंत्री बने. तब ब्राह्मणवादियों ने मायावती को अपना अस्त्र बनाया और उन को सत्ता का सपना दिखाया. कांशीराम मायावती के दबाव में अपनी ही कही बात भूल गए कि ‘ब्राह्मण नीबू के रस की तरह होता है.’
1996 में हरिद्वार में कांशीराम ने एक रैली की थी जिस में मायावती ने ललकार कर कहा था, ‘हम सब जानते हैं कि ये ऊंची जाति के मनुवादी नहीं चाहते कि दलित अच्छा खाएं, अच्छा पहनें और अच्छा काम करें.’ भारी जमा भीड़ को ललकारते हुए उन्होंने पूछा था, ‘क्या अब तुम नहीं चाहते कि आबादी के ये 85 प्रतिशत लोग जिन का दमन और शोषण हो रहा है वे एक अलग पार्टी बनाएं.’ उन्होंने पार्टी भी बना ली, पूरे देश में उम्मीदवार भी खड़े करने शुरू कर दिए पर अब उन्हीं बातों से किनारा कर लिया है जिन को ले कर पार्टी बनाई थी.
मायावती ने ऐसा क्यों किया, यह विशेषज्ञों के लिए पहेली बना रहेगा क्योंकि इस से न बसपा को लाभ हुआ न मायावती को.
मायावती को सत्ता तक पहुंचने की जल्दी थी. भाजपा ने इस बात को सम झ लिया था. उस समय कांशीराम बीमार थे और उन का इलाज चंडीगढ़ के अस्पताल में चल रहा था. वहीं पर मायावती और भाजपा के नेताओं की मुलाकात हुई. उन के बीच यह तय हुआ कि लखनऊ पहुंच कर मायावती पार्टी विधायकों की मीटिंग करेंगी और मुलायम सरकार से अपना समर्थन वापस लेंगी. इस के बाद भाजपा बसपा को सरकार बनाने का समर्थन दे कर मायावती को मुख्यमंत्री बनने में मदद करेगी.
गैस्ट हाउस कांड ने दलित-पिछड़ों को बांटा
योजना के अनुसार मायावती लखनऊ आईं. 2 जून, 1995 को लखनऊ के मीराबाई मार्ग स्थित सरकारी गैस्ट हाउस के मीटिंग हौल में बसपा की मीटिंग शुरू हुई. मायावती कमरा नंबर 1 में अपने प्रमुख सहयोगियों के साथ थीं. ‘मायावती की अगुआई में बसपा मुलायम सरकार गिराने की साजिश कर रही हैं.’ इस बात की जानकारी उस समय के मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव को हुई.
दोपहर करीब 2 बजे का समय था. दोपहर का भोजन करने के बाद बसपा के नेताओं की मीटिंग शुरू हुई. सपा के 100 से अधिक विधायक और तमाम नेता गैस्ट हाउस आ गए. उन लोगों में अतीक अहमद जैसे माफिया भी थे. उन लोगों ने बसपा के विधायकों को बंधक बना लिया. वे उन से जबरन सादे कागज पर मुलायम सिंह यादव को समर्थन देने के प्रस्ताव पर हस्ताक्षर कराने लगे.
सपा के कुछ नेताओं ने मायावती के कमरे का दरवाजा तोड़ना शुरू कर दिया. बचाव में कमरे के अंदर से दरवाजा बंद कर के सोफासैट और पलंग व कुरसी को दरवाजे के आगे लगा दिया गया जिस से दरवाजा टूटे नहीं. उस समय मोबाइल का दौर नहीं था. पुलिस गैस्ट हाउस में आ चुकी थी लेकिन वह सरकार के दबाव में कुछ कर नहीं रही थी.
नतीजतन, कुछ सपा नेता कमरे का दरवाजा तोड़ कर मायावती तक पहुंच उन से बदसलूकी करने लगे. गैस्ट हाउस में भगदड़ मच गई. यह बात जैसे ही भाजपा के नेताओं को पता चली, वे मायावती की मदद के लिए आ गए. उत्तर प्रदेश की राजनीति का सब से काला पन्ना गैस्ट हाउस कांड के नाम से जाना जाता है.
इस के बाद मायावती काफी डर गईं. समाजवादी पार्टी से वे नफरत करने लगीं. इस घटना के बाद से ही मायावती ने साड़ी पहनना बंद कर दिया. इस के बाद वे सलवारसूट पहनने लगीं. 1996 में जब वे दोबारा मुख्यमंत्री बनीं, उस के बाद उन का हेयरस्टाइल बदल गया. लंबी चोटी की जगह बौबकट बाल हो गए. पैरों में मोजे पहनने के बाद सैंडल और इस के साथ ही साथ हैंडबैग उन की लाइफस्टाइल का हिस्सा बन गया.
मुख्यमंत्री बन गईं मायावती
सपा-बसपा गठबंधन टूटने के बाद भाजपा की मदद से 1995 में पहली बार मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बन गईं. कांशीराम ने जो बात मायावती से कही थी वह पूरी हो गई. मायावती को तमाम आईएएस अफसर सलाम करने लगे. अब दलित और पिछड़ा वर्ग एकदूसरे का जानी दुश्मन बन चुका था.
दलितपिछड़ा गठजोड़ टूटने से हिंदुत्व की राजनीति को विस्तार देने का काम सहज हो गया. इस के बाद भी भाजपा मायावती का साथ देती रही.
इस के बाद 1997 और 2002 में मायावती भाजपा के सहयोग से उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री चुनी गईं. भाजपा के सहयोग के बाद भी दलित वोट बसपा के साथ थे. ब्राह्मणवादियों का काम अभी पूरा नहीं हुआ था. कांशीराम बीमार चल रहे थे. मायावती को उन्होंने अपना उत्तराधिकारी बना कर बसपा की पूरी कमान उन को सौंप दी.
कांशीराम के बाद मायावती को ब्राह्मणवादी लोग यह सम झाने लगे कि दलित अकेले सरकार नहीं बना सकते. ऐसे में बसपा ब्राह्मणों को साथ ले कर चुनाव लड़े. अब तक कांशीराम की मृत्यु हो चुकी थी. मायावती पार्टी की सुप्रीमो थीं. उन्होंने दलित-ब्राह्मण गठजोड़ का सोशल इंजीनियरिंग फार्मूला तैयार किया.
साल 2007 में बसपा ने ‘बहुजन से सर्वजन’ की बात शुरू की. असल में इस के जरिए ब्राह्मणवादी व्यवस्था और सोच ने बसपा पर कब्जा कर लिया. अब मायावती की दलित राजनीति हाशिए पर जा चुकी थी. दलित आंदोलन से शुरू हुआ सफर सत्ता की कुरसी के लिए बन कर रह गया.
सत्ता का यह लालच मायावती पर भारी पड़ा. 2007 में बसपा के दलित, ओबीसी, मुसलिम और ब्राह्मण वोटबैंक ने उत्तर प्रदेश में पहली बार बहुमत के साथ मायावती को सत्ता दिला दी. सत्ता मिलते ही दलित आंदोलन खत्म हो गया. ब्राह्मणवादी व्यवस्था ने मायावती को हमेशा के लिए अपने अधीन कर लिया.
दलित की बेटी से दौलत की बेटी बन गईं मायावती
मुख्यमंत्री बनने के बाद मायावती में बदलाव आ गया. वे दलित समाज के लिए सोचने की जगह पर खुद के लिए सोचने लगीं. उन का पूरा प्रयास सत्ता में बने रहने का होने लगा. इस प्रयास में कांशीराम के साथ रहे दूसरे नेताओं को मायावती ने बसपा से दूर करने का काम शुरू किया.
अब उन के सहयोगी सतीश मिश्रा हो गए. 2002 में मायावती सरकार में सतीश मिश्रा को महाधिवक्ता बनाया गया. इस के बाद से वे मायावती के प्रमुख सलाहकार हो गए. सतीश मिश्रा ने बसपा पर ब्राह्मणों और अपने परिवार का राज स्थापित करने का काम शुरू किया.
मायावती और बसपा की ताकत रहा दलित अलगअलग जातियों में बिखर गया. उसे यह सम झ आ गया कि अब बसपा में दलित का हित सुरक्षित नहीं है. इसी दौर में मायावती को दलित की बेटी की जगह पर दौलत की बेटी का नाम दिया गया. मायावती को राजसी विलासिता के शौक डलवाए गए. मायावती को यह सम झाया गया कि वे दलितों से मिलेंगी तो उन को खतरा है. सत्ता में आ कर जो भ्रष्टाचार मायावती ने किया था उस का फंदा उन के गले में डाल कर मजबूर कर दिया गया.
मायावती के पास अकेले दिल्ली लुटियन में करोड़ों रुपए की संपत्ति है. साथ ही, दिल्ली में उन का आधिकारिक निवास व कार्यालय भी है. मायावती की गणना देश के आर्थिक रूप से समृद्ध नेताओं में होती है. मायावती द्वारा 2012 के राज्यसभा चुनावों के समय नामांकनपत्र दाखिल करने के समय की गई घोषणा के अनुसार, उन की लखनऊ व दिल्ली में दोनों जगह आवासीय व वाणिज्यिक संपत्तियां हैं. बैंक में नकदी व आभूषण हैं. यह सब 111 करोड़ रुपए से ज्यादा की हैं.
मायावती ने 2017 में राज्यसभा से इस्तीफा दे दिया था. साल 2010 में बसपा सुप्रीमो मायावती जब उत्तर प्रदेश विधानपरिषद के लिए निर्वाचित हुई थीं तो उन की कुल संपत्तियों की कीमत करीब 88 करोड़ रुपए व 2007 में 52.27 करोड़ रुपए आंकी गई थी. मायावती की ज्यादातर संपत्ति रियल एस्टेट में है और उन की दिल्ली व लखनऊ में पौश इलाके में आवासीय इमारतें हैं.
दिल्ली में बंगला रकाबगंज गुरुद्वारा के नजदीक बंगला नंबर 12, 14 व 16 को मिला कर सुपर बंगला बनाया गया है और इस का इस्तेमाल निवास और कार्यालय के रूप में होता है. मायावती यहां अपनी प्रैस कांफ्रैंस व पार्टी की दूसरी महत्त्वपूर्ण बैठकें करती हैं. इसे मिला कर बनाए गए सुपर बंगले में से एक इकाई को बहुजन प्रेरणा ट्रस्ट के नाम से आवंटित किया गया है.
इस के अलावा मायावती की दिल्ली की अचल संपत्तियों में दिल्ली के कनाट प्लेस (बी-34 भूतल व बी-34 प्रथम तल, इन का क्षेत्र क्रमश: 3628.02 व 4535.02 वर्गफुट है) में 2 वाणिज्यिक इमारतें शामिल हैं. इन वाणिज्यिक संपत्तियों का 2012 में अनुमानित बाजार मूल्य क्रमश: 9.39 करोड़ व 9.45 करोड़ रुपए था.
इस की जानकारी 2012 के राज्यसभा चुनावों के दौरान दाखिल किए गए नामांकनपत्र में है. साल 2009 में मायावती ने नई दिल्ली के डिप्लोमैटिक एनक्लेव के 23, 24 सरदार पटेल मार्ग पर एक संपत्ति एक उर्दू प्रकाशक से खरीदी. इस का कुल क्षेत्रफल 43,000 वर्गफुट है. 2012 में इस की कीमत 61 करोड़ रुपए आंकी गई थी.
लखनऊ में मायावती के पास 9 माल एवेन्यू पर एक आवासीय इमारत है जिस का क्षेत्रफल 71,282.96 वर्गफुट है, जिस का निर्माण क्षेत्र 53,767.29 वर्गफुट है. इसे 3 नवंबर, 2010 में खरीदा गया और इस की अनुमानित कीमत 2012 में 16 करोड़ रुपए थी.
मूर्तियों के खर्च पर उठे सवाल
मायावती ने अपने शासनकाल में पार्क और मूर्तियों पर बहुत खर्च किया. मूर्तियों पर करीब 59 करोड़ रुपए का खर्च आया था जिस में उन की खुद की प्रतिमाओं पर 3 करोड़ 49 लाख रुपए कांशीराम की प्रतिमा पर 3 करोड़ 77 लाख रुपए और चुनावचिह्न हाथी की मूर्ति पर 52 करोड़ रुपए खर्च किए गए थे.
ब्राह्मणों के निकट आने पर भी मायावती मूर्तिपूजा और धार्मिक आडंबर के हमेशा खिलाफ रहीं. सत्ता हासिल करने के लिए ब्राह्मणदलित गठजोड़ करने के बाद भी वे अखिलेश यादव और राहुल गांधी की तरह मंदिरों में पूजापाठ करती कभी नहीं दिखीं.
पार्कों में मायावती ने दलित महापुरुषों की मूर्तियां इसलिए लगवाई थीं कि जिस से उन के इतिहास और योगदान को आने वाली पीढि़यां सम झ सकें. इन पार्कों में लगी मायावती और कांशीराम की मूर्तियों पर सवाल उठे तो मायावती ने कहा था कि यह अंधविश्वास है कि जिंदा आदमी की मूर्तियां नहीं लगतीं. इस को तोड़ने के लिए मूर्तियां लगवाई हैं. पार्कों में लगी ये मूर्तियां मंदिरों में लगी मूर्तियों जैसी नहीं हैं. यहां इन की पूजा नहीं होती. इस कारण से मायावती ने इन मूर्तियों को धर्म से नहीं जोड़ा.
मुद्दों से भटकीं मायावती
सत्ता और दौलत को साधने के चक्कर में मायावती अपने मुद्दे से भटक गईं. 1993 में ‘मिले मुलायम कांशीराम, हवा में उड़ गए जय श्रीराम’ का नारा देने वाली बसपा प्रमुख मायावती ने 2023 में इस नारे को अपनी पार्टी का नारा नहीं मानते हुए इस से पीछा छुड़ाती दिखीं. मायावती ने इस को लगाने का काम समाजवादी पार्टी के माथे पर मढ़ दिया. इस से साफ सम झा जा सकता है कि तब और अब की मायावती में कितना बदलाव आ चुका है.
ब्राह्मणवादी व्यवस्था का विरोध करने वाली बसपा अब अपना जनाधार खो चुकी हैं. अपनी विचारधारा से भटकने के कारण ही राजनीति में बसपा सब से खराब दौर में पहुंच चुकी है.
बसपा के जनाधार खत्म होने और मायावती के एजेंडे में आए बदलाव का सब से बड़ा प्रभाव दलित आंदोलन पर पड़ा. आज के दौर में उस पर बात करने वाले लोग नहीं मिलते. नई पीढ़ी को यह पता ही नहीं कि दलित आंदोलन क्या था? इस की क्यों जरूरत है?
‘दलित’ शब्द इंग्लिश के ‘डिप्रैस्ड क्लास’ का हिंदी अनुवाद है. दलित शब्द का अर्थ पीडि़त, शोषित, दबाया हुआ या जिन का हक छीना गया हो होता है. जिन को दलित सम झा जाता है उन में से अनेक वर्गों को पहले ‘अछूत’ या ‘अस्पृश्य’ माना जाता था. यह वर्ग छुआछूत का शिकार था.
दलितों को हिंदू समाज की व्यवस्था में सब से निचले पायदान पर होने के कारण न्याय, शिक्षा, समानता तथा स्वतंत्रता जैसे तमाम मौलिक अधिकारों से भी वंचित रखा गया. उन्हें अपने ही धर्म में अछूत या अस्पृश्य माना गया. उन का शोषण किया गया. बिहारी लाल हरित ने दलितों की पीड़ा को कविता के माध्यम से लोगों के सामने रखा ‘‘एक रुपए में जमींदार के, सोलह आदमी भरती. रोजाना भूखे मरते, मु झे कहे बिना ना सरती, दादा का कर्जा पोते से, नहीं उतरने पाया, तीन रुपए में जमींदार के, सत्तर साल कमाया.’’
प्रेमचंद की एक कहानी है. ‘ठाकुर का कुआं’ जिस का विषय छुआछूत पर केंद्रित है. कहानी की मुख्यपात्र गंगी अपने बीमार पति के लिए कुएं का साफ पानी नहीं ला पाती है क्योंकि उच्च जाति के लोग दलितों को अपने कुएं से पानी नहीं लाने देते हैं.
जो काम पहले गांवों में ठाकुर करते थे अब दबंग शूद्रों की ऊंची जातियां करने लगी हैं. एक तरह से ये जातियां ब्लफ की तरह ब्राह्मणवाद को समर्थन दे रही हैं पर दिलों के घोर खिलाफ है.
भेदभाव का शिकार थे दलित
डाक्टर अंबेडकर की अगुआई में दलित आंदोलन से तो दलितों को कई फायदे हुए. उन में आरक्षण और कानूनी संरक्षण जैसी सुविधाएं शामिल हैं. इस से शासन व्यवस्था के हर दर्जे में कुछ सीटें दलितों के लिए आरक्षित हो पाईं. इसी तरह सरकारी मदद से चलने वाले शैक्षिक संस्थानों और सरकारी नौकरियों में भी दलितों के लिए आरक्षण होता है. ऐसा कोई फायदा मायावती बहुजन समाज पार्टी के माध्यम से नहीं दिलवा पाईं.
चुनाव दर चुनाव खत्म होता प्रभाव
कांशीराम की तरह ही मायावती भी बसपा को सेना जैसे अनुशासन से चलाने लगी थीं. मायावती का अनुशासन कब तानाशाही में बदल गया, यह पता ही नहीं चला. मायावती ने पार्टी नेताओं से सलाह करना बंद कर दिया. कांशीराम के जमाने के नेताओं की पूरी पीढ़ी को पार्टी से बाहर कर दिया.
मायावती ने खुद लोकसभा और विधानसभा का चुनाव लड़ना बंद कर दिया. जब उत्तर प्रदेश में उन की पार्टी सरकार बनाने की हालत में आती तो वे विधानपरिषद सदस्य के रूप में मुख्यमंत्री बनती थीं. सरकार जाने के बाद वे राज्यसभा सदस्य के रूप में दिल्ली चली जाती थीं. 2004 के बाद से मायावती ने लोकसभा या विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ा.
इस के बाद चुनावदरचुनाव बसपा का ग्राफ गिरता ही गया. 2014 के लोकसभा चुनाव में 80 में से केवल 2 सीटें बसपा के पाले में गईं. पार्टी को केवल 19.60 फीसदी वोट ही मिले. 2017 के विधानसभा चुनाव में बसपा को 22-24 फीसदी वोट तो मिले पर वह 19 सीटों पर सिमट गई.
2019 के चुनाव में बसपा और समाजवादी पार्टी का गठबंधन हुआ. इस के बाद भी बसपा को केवल 10 सीटें ही मिल सकीं. 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा का वोट शेयर सपा से गठबंधन के बाद भी 19.3 फीसदी ही रहा. सपा के लेटरों ने बसपाई उम्मीदवारों को वोट नहीं दिया. विधानसभा चुनाव 2022 में भी बसपा के लिए मुश्किलोंभरा रहा है. उत्तर प्रदेश में 4 बार सरकार बनाने वाली बसपा केवल 12.88 फीसदी वोट ही हासिल कर पाई.
मायावती अपने पुराने ‘दलित ब्राह्मण’ के सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले को त्याग चुकी हैं. दिक्कत की बात यह है कि ओबीसी राजनीति के इस बढ़ते दौर में वे अपना मुकाम पाते नहीं देख पा रही हैं. उत्तर प्रदेश में ओबीसी जातियों का 50 फीसदी से ज्यादा वोटबैंक है. प्रदेश में 79 ओबीसी जातियां हैं, इन में भी गैरयादव जातियों की बात करें तो करीब 40 फीसदी का वोट प्रतिशत बैठता है.
कभी बसपा के साथ रही ये जातियां अब भाजपा और सपा के साथ हैं. इस में सेंधमारी करना बसपा के लिए टेढ़ी खीर है. तमाम ओबीसी नेता बसपा से बाहर जा चुके हैं. नए नेता ऐसे नहीं हैं जिन का बड़ा जनाधार हो.
मायावती अब ब्राह्मणवाद से बाहर निकलने को बेचैन हैं. सतीश चंद्र मिश्रा का पार्टी में प्रभाव खत्म होता दिख रहा है. वे लंबे समय से मायावती के साथ किसी भी सार्वजनिक मंच पर दिखाई नहीं दिए हैं. निकाय चुनाव में भी वे कहीं नहीं दिखे हैं. मायावती ने अपने भाई आनंद कुमार और भतीजे आकाश आनंद को पार्टी में बड़े पद दे कर उन के महत्त्व को बढ़ा दिया है.
पार्टी के पुराने कार्यकर्ता अशोक सिद्धार्थ की बेटी डाक्टर प्रज्ञा सिद्धार्थ के साथ अपने भतीजे आकाश आनंद की शादी करा दी है. मायावती ने इस शादी में बढ़चढ़ कर हिस्सेदारी की. शादी में आने वालों में बसपा के तमाम नेता और कार्यकर्ता थे.
पार्टी के विभिन्न पदों पर मायावती पूरे अलोकतांत्रिक तरह से लोगों को नियुक्त कर रही हैं.
बहुजन समाज पार्टी लोकसभा चुनाव 2024 में अब दलित ओबीसी, मुसलिम समीकरण को साधने की कोशिश में है. इस की रिहर्सल के लिए बसपा ने उत्तर प्रदेश निकाय चुनाव में हिस्सा लिया. राजनीतिक लोग यह मानते हैं कि मायावती का यह कदम खुद को सत्ता में वापस लाने से ज्यादा समाजवादी पार्टी को सत्ता में आने से रोकने का है. मायावती ने निकाय चुनावों में सब से अधिक मुसलमानों को टिकट दिए थे.
मायावती के इस कदम से न केवल समाजवादी पार्टी को नुकसान हो रहा है बल्कि कांग्रेस को भी नुकसान हो रहा है. इस का लाभ भारतीय जनता पार्टी को मिल रहा है. ऐसे में यह साफ हो जाता है कि ब्राह्मणवादी योजना में मायावती घिर चुकी हैं. अब वे वही कर रही हैं जिस के खिलाफ कभी दलित आंदोलन शुरू हुआ था.
साकार नहीं हुई अंबेडकर की कल्पना
डाक्टर अंबेडकर ने कल्पना की थी कि आरक्षण की मदद से आगे बढ़ने वाले दलित अपनी बिरादरी के दूसरे लोगों को भी समाज के दबेकुचले वर्ग से बाहर लाने में मदद करेंगे मगर यह नहीं हो सका. आगे बढ़ने वाला दलितों का यह तबका दलितों में भी सामाजिक तौर पर खुद को ऊंचे दर्जे का सम झने लगा है. इस वजह से दलितों का सारा लाभ दलित आबादी के भी केवल 10 फीसदी लोगों तक ही पहुंच पाया. यही वजह ऐसी थी जिस ने दलित आंदोलन के बीच दरार डालने का काम किया जिस का लाभ व्यवस्था ने उठाया और दलितों को संगठित नहीं होने दिया.
मायावती और मायावती का दलित आंदोलन अब केवल सोशल मीडिया पर ट्विटर पर संदेश तक सीमित रह गया है. डाक्टर अंबेडकर और कांशीराम की सोच कहीं गहरे दब गई है.
बजाय देश की समस्याएं सुलझाने और बेरोजगारी, महंगाई, गंदगी, बढ़ते प्रदूषण, सामाजिक भेदभाव, जातीय व धार्मिक संघर्षों से निबटने के भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को या तो मंदिर बनवाने की लगी रहती है या नाम बदलने की. सड़कों, शहरों, कानूनों, कार्यक्रमों के नाम संस्कृतनुमा कर भी संतुष्ट न हो कर नरेंद्र मोदी की सरकार को अब देश का समय व शक्ति देश का नाम बदलने में लगाने की सम झ आई है.
पंडितों के कहने पर कितने ही लोग घरों, कंपनियों, फर्मों के तो छोडि़ए, अपने नामों में इंग्लिश के अतिरिक्त अक्षर जोड़ते रहते हैं और खुश होते हैं कि अब ऊपरवाले की कृपा रहेगी और सबकुछ सुधर जाएगा. शायद इसीलिए देश का नाम इंडिया व भारत की जगह केवल भारत रखने की मशक्कत करनी शुरू कर दी गई है.
भारत के नाम के ऐसे गुणगान गाए जा रहे हैं मानो ऐसा करने पर अखंड भारत का सपना अपनेआप पूरा होने लगेगा. भारतवर्ष भूखंड का उच्चारण संस्कृत के बहुत ग्रंथों में है और इसीलिए संस्कृत, जो अब तक केवल शिक्षित ब्राह्मणों की भाषा थी, को नामों के जरिए जनता पर थोपने की कोशिश हो रही है और वह भी उस समय जब देश दूसरी अनेकानेक समस्याओं से जू झ रहा है.
संविधान सभा में इस पर काफी बहस हुई थी और उस समय के कट्टरपंथियों, जो कांग्रेस में ही थे और जिन में ये अधिकांश हिंदू विवाह व विरासत कानून के सख्त खिलाफ थे, ने भारत नाम रखने की खूब वकालत की थी. संविधान में तभी ‘इंडिया दैट इज भारत’ का इस्तेमाल होता रहा है और इंग्लिश में इंडिया. इस से किसी को कोई तकलीफ न होती.
कितने ही देश, देशों के शहर, शहरों के स्थान दोदो नामों से जाने जाते हैं और जब तक उकसाया न जाए, कोई फर्क नहीं पड़ता.
भारत में नाम का महत्त्व है, यह पुरानी बात है. संस्कृतनिष्ठ नाम केवल उच्च जाति के लोग रख सकते थे. जिन्हें आज दलित या एससी कहा जाता है उन्हें कोई गंदा सा बेमतलब का नाम दे कर उपहास का केंद्र बनाया जाता रहा है. बहुत से वैश्यों के नाम भी गैंडाराम जैसे रखे गए हैं. औरतों के नाम हमेशा उन्हें हीन बताने के लिए रखे जाते रहे हैं.
अब देश में वह महाभारत शुरू कर डाली गई है जिस का अंत क्या हुआ, यह सब जानते हैं. महाभारत ग्रंथ हालांकि कथाओं का संग्रह है पर मुख्य तो उस में कुरुक्षेत्र का युद्ध है जो विधर्मियों, विदेशियों, विजातियों की वजह से नहीं, एक ही परिवार में एक युद्ध की कथा है. इस कहानी को अब संसद में अखबारों, भाषणों में दोहराने की क्या आवश्यकता है?
भारत नाम इंडिया का इसी तरह पर्याय है. इस मामले को तूल देना बेवकूफी व समय की बरबादी है. यह, दरअसल, मुख्य समस्याओं से अपना ध्यान हटाना है और त्रस्त्र जनता का भी.
राज्यपालों का गलत इस्तेमाल केंद्र सरकार या यों कहिए नरेंद्र मोदी के कहने पर भाजपाई राज्यपालों ने देशभर में विपक्षी दलों की सरकारों को तंग करने की मुहिम चला रखी थी. मई में मुख्य न्यायाधीश डी वाई चंद्रचूड़ व 4 अन्य जजों की सर्वसहमति से हुए 2 निर्णयों ने राज्यपालों को फटकारा है और उन की खुले शब्दों में भर्त्सना की है.
असल में तो यह लताड़ नरेंद्र मोदी को है क्योंकि उन के द्वारा तैनात किए गए दिल्ली के अनिल बैजल से ले कर विनय कुमार सक्सेना तक सभी उपराज्यपाल अरविंद केजरीवाल की सरकार को तंग करने में लगे रहे हैं.
दरअसल, भारतीय जनता पार्टी को 3 बार विधानसभा चुनावों में और अब नगरनिगम चुनाव में आम आदमी पार्टी ने बुरी तरह हराया है जबकि हर बार भाजपा ने नरेंद्र मोदी के नाम पर ही चुनाव लड़ा था. मोदी भाजपा को जिता नहीं सके तो उपराज्यपाल को विघ्न डालने के लिए लगा दिया जैसे विष्णु वामन अवतार बन कर राजा बलि के यहां पहुंचे थे. राज्यपाल वामन अवतार की तरह बेमतलब की मांगें कर रहे थे.
दूसरे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने महाराष्ट्र में सत्ता पलट में तब के राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी की जम कर खिंचाई की है. आशा तो थी कि सुप्रीम कोर्ट शिंदे सरकार को हटा देगी लेकिन चुनावों से एक साल पहले बेकार में उथलपुथल करने की जगह फैसला ऐसा दिया है कि शिंदे सरकार अब सूली पर अटकी रहेगी. सुप्रीम कोर्ट ने पार्टी की कमान शिंदे से छीन कर उद्धव ठाकरे को पकड़ा दी है जो चुनाव आयोग ने एकनाथ शिंदे को दे दी थी.
राज्यपालों का गलत इस्तेमाल करना संविधान की हत्या करना है पर भारतीय जनता पार्टी तो शायद विश्वास करती है कि जैसे दुर्वासा ऋषि जब चाहें जो मांग कर सकते थे, वैसे ही भाजपा भी संविधान को तोड़मरोड़ सकती है. इंदिरा गांधी ने भी यह खूब किया था.
कांग्रेस आमतौर पर राज्यपालों की अति पर चुप रहती है क्योंकि 40-50 साल जब पूरा राज कांग्रेसी प्रधानमंत्री के हाथों में था, राज्यपालों को विपक्षी सरकारों को हड़काने का काम दिया जाता रहा है. अब डिग्री का फर्क है और अब राज्यपाल गैरभाजपा सरकारों में बंदूकधारी शिकारी की तरह शेर के शिकार में लगे रहते हैं. किसी भी भाजपा राज्य सरकार का राज्यपाल से कोई मतभेद नहीं है.
सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपालों के अधिकारों को दायरे में तो बांधा है पर आने वाली विपक्षी सरकारें हर मामले में सुप्रीम कोर्ट ही जाएं, यह रास्ता खुला रखा है. उस ने दिल्ली और महाराष्ट्र के राज्यपालों पर संविधानविरोधी काम करने पर कोई दंड नहीं दिया है. यह भी हो जाता तो फालतू के राज्य सरकार और राज्यपाल के विवाद कम हो जाते.
जबजब धर्म का राजनीति के साथ घालमेल हुआ है, तबतब हिंसा, कत्ल, दंगे, आगजनी की घटनाएं घटी हैं. धर्म की बुनियाद ही, आस्था के नाम पर, एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से अलग करना है. यही कारण है कि आज देश ऐसी विकट स्थिति पर आ कर खड़ा है जहां लोग एकदूसरे को इंसान कम हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई अधिक सम झने लगे हैं, जिस कारण देश में अलगअलग जगह हिंसा भड़क रही है.
मणिपुर का मामला ठीक से शांत भी नहीं हुआ था कि हरियाणा जलने की कगार पर है. नौबत यह है कि नूंह से भड़की इस हिंसा ने हरियाणा के मेवात, गुरुग्राम, फरीदाबाद व रेवाड़ी जिले में भी दंगे भड़कने के पूरे आसार बना दिए हैं.
इस की मुख्य वजह में जाएं तो सामने वे लोग दिख जाएंगे जो किसी खास राजनीतिक और धार्मिक संगठनों से जुड़े हुए हैं, जो धर्मों के अनुसार एकदूसरे को मारनेकाटने में यकीन रखते हैं. फिलहाल यह नहीं कहा जा सकता कि इस की लपटें कहां तक पहुंचेंगी पर यकीनन धर्म को कट्टरता से मानने वालों के उन्माद से आज देश के आम नागरिक हिंसा की चपेट में बुरी तरह फंस चुके हैं.
मार्क्स ने धर्म को अफीम का दर्जा देते वक्त सोचा नहीं होगा कि वे यूफेमिज्म (लाक्षविक्रता) का सहारा ले रहे हैं. मार्क्स की अफीम आज कोकीन, हशीश और हेरोइन से भी ज्यादा प्रसंस्कृत हो चुकी है. लिहाजा, अगर उन्होंने धर्म को नशे के बजाय सीधेसीधे नफरत फैलाने वाला कहा होता तो शायद गलत नहीं था. पूरी दुनिया में धर्मकेंद्रित आतंकवाद के उभरने से यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि धर्म दिलों को जोड़ नहीं, बल्कि तोड़ रहा है.
जमीनी सचाई भी यही है कि विभिन्न धर्मों की जड़ता और कट्टरता की वजह से विश्व 21वीं सदी में पहुंच कर भी पाषाणयुग के मुहाने पर खड़ा दिखाई देता है. महाकवि इकबाल के फलसफे ‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’ से कोसों दूर धर्म आज वास्तविक धरातल पर मजहबी विद्वेष और अराजकता की आधारभूमि बना हुआ है.
पिछले 4 दशकों में अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रम पूरी तरह धार्मिक उन्माद और अलगाव की धुरी पर केंद्रित रहा है. विज्ञान और तकनीक के चमत्कारों को मजहबी विध्वंस की आंधी पूरी तरह लील गई. विश्व ने इसलामी आतंकवाद के खिलाफ मोरचा साधा तो भारत में हिंदूमुसलिम विद्वेष की खाई और गहरी हुई. जिन अर्थों में हम भारत को धर्मनिरपेक्ष और सद्भावपूर्ण राज्य का पर्याय मानते हैं, वे निरर्थक सिद्ध हो रहे हैं.
प्रश्न उठता है कि सदियों से जिस धार्मिक महानता के गीत गाए जाते रहे थे वे कितने अर्थपूर्ण थे. आखिर धर्म तो आज भी समन्वय के बजाय वैमनस्य का पर्याय बना हुआ है.
एंगल्स ने धर्म की व्याख्या करते हुए कहा था कि यह आदमी के दिमाग की ऐसी फुजूल उपज है जो प्राकृतिक क्रियाकलापों को दैवीय शक्ति का दरजा दे कर भ्रम पैदा करती है. नए परिप्रेक्ष्य में धर्म सिर्फ भ्रम ही नहीं, विनाश की स्थितियां भी पैदा कर रहा है.
भारत का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ. भारतीय संविधान में सांप्रदायिक सद्भाव को सुनिश्चित करने के लिए हरसंभव प्रयत्न किए गए. भारत एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य बना. इस के बावजूद आजादी के बाद सांप्रदायिकता कम होने के बजाय बढ़ी है. अयोध्या, गुजरात, कश्मीर की घटनाएं इस का प्रमाण हैं. जाहिर तौर पर इसे राजकीय लिहाज से नीतिगत नाकामी का पर्याय ही कहा जाएगा.
दरअसल भारत में सभी सरकारों ने राज्य और धर्म को अलग रखने के बजाय इन के घालमेल का ही प्रयास किया. इसी वजह से कभी अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की आवाजें उठीं तो कभी बहुसंख्यक आक्रामकता को कोसा गया. प्रजातंत्र में धर्म का अन्यथा महत्त्व विध्वंसकारी सिद्ध हो सकता है. भारत जैसी गतिवादी संरचना में यह खतरा और भी विकट रूप से सामने आया. यह इस देश में ही संभव है कि कथित रूप से नास्तिक सम झी जाने वाली वामपंथी पार्टियां भी जाति और धर्म के समीकरणों के आधार पर चुनावी गणित बैठाती हैं. भाजपा और कांग्रेस ने अपनेअपने स्तर पर धार्मिक उन्माद को हवा दी है.
इस से अधिक हास्यास्पद बात क्या होगी कि आज राष्ट्रीय मुद्दे के नाम पर उग्र हिंदुत्व और नरम हिंदुत्व की व्याख्या बहस का विषय बनी हुई है. इस में शक नहीं कि भाजपा जैसी धार्मिक मुद्दों वाली पार्टी ने आज समूचे मुल्क को विचारधारा के स्तर पर धर्मकेंद्रित बहस के इर्दगिर्द खड़ा कर राज्य हासिल करने में सफलता पाई है.
उस का पानी पी कर विरोध करने वाले दरअसल उस की जमीन ही सींच रहे हैं. विपक्षी दल सांप्रदायिकता के पोषण में उतने ही सहायक सिद्ध हुए जितनी कि भाजपा. यदि शाहबानो प्रकरण, बंगलादेशी घुसपैठ, बाबरी मसजिद विध्वंस, गोधरा जैसी घटनाएं न घटतीं तो भाजपा को अपनी विचारधारा फैलाने में कभी सफलता नहीं मिल सकती थी.
बहुसंख्यक सांप्रदायिकता का खात्मा अल्पसंख्यकवाद के जरिए संभव नहीं है. मूल तथ्य यह कि हम ने धर्मनिरपेक्षता के नाम पर धर्मप्रधान राज्यप्रणाली को ही गले लगाया है. शायद इसीलिए राहुल गांधी को इसलामी सैंटर में भाषण दे कर मुसलिमप्रियता सिद्ध करनी पड़ती है तो जगहजगह मंदिरों में मत्था टेक कर हिंदुओं को लुभाना पड़ता है. क्यों नहीं राजनेता पूरी तरह धर्म आधारित राजनीति से किनारा कर लेते. दरअसल भारत की वर्णवादी व्यवस्था को प्रश्रय देने के साथ धार्मिक विभेद को भी राजनीतिज्ञों ने अपने फायदे के लिए भुनाया है. सांप्रदायिकता भारतीय राजनीति की आनुशंगिक बन गई है.
हम मानें या न मानें, दुनिया के सारे धार्मिक समाजों में ‘अस एंड दे’ अपने और पराए का भाव अंतर्निहित है. इसलाम तो पूरी दुनिया को दारुल हरब और दारुल अमन (काफिर एवं इसलामी विश्व) की अवधारणा में बांट कर देखता है. इसलामी मुल्कों की उग्रवादी कार्यशैली इसी फलसफे पर आधारित है. ईसाई धर्म में कट्टरता का भाव न होते हुए भी विजातीय धर्मों के एनलाइटेनमैंट (धार्मिक जागरण) की गलतफहमी पलती रही.
हिंदू धर्म ने दूसरे धर्मों के साथ तो सर्वधर्म सद्भाव की बात कही पर अपने ही सजातीय हिंदू भाइयों के साथ जातीय आधार पर विद्वेष का रुख अपना लिया. दुनिया के इन 3 विशालतम धर्मों की अपेक्षा पारसी, बौद्ध, जैन जैसे अपेक्षतया छोटे संप्रदायों में वैमनस्य की भावना कम रही है. फिर भी सवाल जहां का तहां है कि आखिर मनुष्य को धर्म की जरूरत ही क्या है, खासकर जब, धार्मिक (तथाकथित) समाज ही सर्वत्र खूनखराबे और विद्वेष की जमीन तैयार कर रहे हैं.
अगर 21वीं सदी में पहुंच कर भी हम धर्म जैसी अर्थहीन परिकल्पना के मोहजाल से निकल नहीं सकते तो तमाम वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति का औचित्य ही क्या है. दुनिया को धार्मिक उन्माद के दावानल से निकालने का एक ही उपाय है कि सारे देश मजहबी मान्यताओं पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाएं. सांप्रदायिक सद्भाव के खोखले नारों से कोई फायदा नहीं होगा क्योंकि संप्रदाय ही हैं जो सद्भाव बिगाड़ रहे हैं.
नए संसद भवन के उद्घाटन के समय दलित आदिवासी राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को निमंत्रण न दे कर और संविधान में कोई हैसियत न रखने वाले बीसियों भगवाधारी भारीभरकम मठों के स्वामियों को विशेष जहाजों से बुला कर यही सिद्ध किया गया है कि यह प्रायोजन केवल धार्मिक है और मौजूदा भाजपाई सरकार धर्म को प्रोत्साहित या स्वतंत्रता ही नहीं देती, धार्मिक संदेशों की वह गुलाम भी है.
भारतीय संविधान का जो कचरा हुआ है उसे तो छोडि़ए पर हर भारतवासी के मन में यह बैठा दिया गया है कि जब देश अब इन भगवाधारियों के अनुसार चल रहा है तो वे भी अपना हर काम इसी तरह करें.
हर नागरिक, हर परिवार, हर व्यापार, हर उद्योग को स्पष्ट संदेश है कि उस का हर काम इसी तरह धर्म की अफीम पिलाने वालों के हाथों से शुरू हो, उन्हें दानदक्षिणा दीजिए, उन का आदेश सिरमाथे पर रखा जाए. जब राष्ट्रपति संसद के उद्घाटन के समय अपने अपमान पर त्यागपत्र देने का साहस नहीं कर सकतीं तो आम गृहिणी की क्या बिसात कि वह गली में घूमते एयरकंडीशंड बस में सवार किसी स्वामी की बात को ठुकरा सके.
इसलाम जो अफगानिस्तान, तुर्की व पाकिस्तान में कर रहा है, जो ट्रंप के समर्थक मलयेशिया में कर रहे हैं, वही भारत में हो रहा है. सब जगह वैरभाव सिखाया जा रहा है. लोगों को जबरन हांका जा रहा है. इन सब जगह वही पढ़ने व सुनने को मिल रहा है जो धर्म को स्वीकार है. उस के लिए दानपुण्य सर्वोपरि है.