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खट्टामीटा : इकलौते बच्चे के सुखदुख से जूझती मां की कहानी

साढ़े 4 बजने में अभी पूरा आधा घंटा बाकी था पर रश्मि के लिए दफ्तर में बैठना दूभर हो रहा था. छटपटाता मन बारबार बेटे को याद कर रहा था. जाने क्या कर रहा होगा? स्कूल से आ कर दूध पिया या नहीं? खाना ठीक से खाया या नहीं? सास को ठीक से दिखाई नहीं देता. मोतियाबिंद के कारण कहीं बेटे स्वरूप की रोटियां जला न डाली हों? सवेरे रश्मि स्वयं बना कर आए तो रोटियां ठंडी हो जाती हैं. आखिर रहा नहीं गया तो रश्मि बैग कंधे पर डाल कुरसी छोड़ कर उठ खड़ी हुई. आज का काम रश्मि खत्म कर चुकी है, जो बाकी है वह अभी शुरू करने पर भी पूरा न होगा. इस समय एक बस आती है, भीड़ भी नहीं होती.

‘‘प्रभा, साहब पूछें तो बोलना कि…’’

‘‘कि आप विधि या व्यवसाय विभाग में हैं, बस,’’ प्रभा ने रश्मि का वाक्य पूरा कर दिया, ‘‘पर देखो, रोजरोज इस तरह जल्दी भागना ठीक नहीं.’’

रश्मि संकुचित हो उठी, पर उस के पास समय नहीं था. अत: जवाब दिए बिना आगे बढ़ी. जाने कैसा पत्थर दिल है प्रभा का. उस के भी 2 छोटेछोटे बच्चे हैं. सास के ही पास छोड़ कर आती है, पर उसे घर जाने की जल्दी कभी नहीं होती. सुबह भी रोज समय से पहले आती है. छुट्टियां भी नहीं लेती. मोटीताजी है, बच्चों की कोई फिक्र नहीं करती. उस के हावभाव से लगता है घर से अधिक उसे दफ्तर ही पसंद है. बस, यहीं पर वह रश्मि से बाजी मार ले जाती है वरना रश्मि कामकाज में उस से बीस ही है. अपना काम कभी अधूरा नहीं रखती. छुट्टियां अधिक लेती है तो क्या, आवश्यकता होने पर दोपहर की छुट्टी में भी काम करती है. प्रभा जब स्वयं दफ्तर के समय में लंबे समय तक खरीदारी करती है तब कुछ नहीं होता. रश्मि के ऊपर कटाक्ष करती रहती है. मन तो करता है दोचार खरीखरी सुनाने को, पर वक्त बे वक्त इसी का एहसान लेना पड़ता है.

रश्मि मायूस हो उठी, पर बेटे का चेहरा उसे दौड़ाए लिए जा रहा था. साहब के कमरे के सामने से निकलते समय रश्मि का दिल जोर से धड़कने लगा. कहीं देख लिया तो क्या सोचेंगे, रोज ही जल्दी चली जाती है. 5-7 लोगों से घिरे हुए साहब कागजपत्र मेज पर फैलाए किसी जरूरी विचारविमर्श में डूबे थे. रश्मि की जान में जान आई. 1 घंटे से पहले यह विचार- विमर्श समाप्त नहीं होगा.

वह तेज कदमों से सीढि़यां उतरने लगी. बसस्टैंड भी तो पास नहीं, पूरे 15 मिनट चलना पड़ता है. प्रभा तो बीमारी में भी बच्चों को छोड़ कर दफ्तर चली आती है. कहती है, ‘बच्चों के लिए अधिक दिमागखपाई नहीं करनी चाहिए. बड़े हो कर कौन सी हमारी देखभाल करेंगे.’

बड़ा हो कर स्वरूप क्या करेगा यह तो तब पता चलेगा. फिलहाल वह अपना कर्तव्य अवश्य निभाएगी. कहीं वह अपने इकलौते पुत्र के लिए आवश्यकता से अधिक तो नहीं कर रही. यदि उस के भी 2 बच्चे होते तो क्या वह भी प्रभा के ढंग से सोचती? तभी तेज हार्न की आवाज सुन कर रश्मि ने चौंक कर उस ओर देखा, ‘अरे, यह तो विभाग की गाड़ी है,’ रश्मि गाड़ी की ओर लपकी.

‘‘विनोद, किस तरफ जा रहे हो?’’ उस ने ड्राइवर को पुकारा.

‘‘लाजपत नगर,’’ विनोद ने गरदन घुमा कर जवाब दिया.

‘‘ठहर, मैं भी आती हूं,’’ रश्मि लगभग छलांग लगा कर पिछला दरवाजा खोल कर गाड़ी में जा बैठी. अब तो पलक झपकते ही घर पहुंच जाएगी. तनाव भूल कर रश्मि प्रसन्न हो उठी.

‘‘और क्या हालचाल है, रश्मिजी?’’ होंठों के कोने पर बीड़ी दबा कर एक आंख कुछ छोटी कर पान से सने दांत निपोर कर विनोद ने रश्मि की ओर देखा.

वितृष्णा से रश्मि का मन भर गया पर इसी विनोद के सहारे जल्दी घर पहुंचना है. अत: मन मार कर हलकी हंसी लिए चुप बैठी रही.

घर में घुसने से पहले ही रश्मि को बेटे का स्वर सुनाई दिया, ‘‘दादाजी, टीवी बंद करो. मुझ से गृहकार्य नहीं हो रहा है.’’

‘‘अरे, तू न देख,’’ रश्मि के ससुर लापरवाही से बोले.

‘‘न देखूं तो क्या कान में आवाज नहीं पड़ती?’’

रश्मि ने संतुष्टि अनुभव की. सब कहते हैं उस का अत्यधिक लाड़प्यार स्वरूप को बिगाड़ देगा. पर रश्मि ने ध्यान से परखा है, स्वरूप अभी से अपनी जिम्मेदारी समझता है. अपनी बात अगर सही है तो उस पर अड़ जाता है, साथ ही दूसरों के एहसासों की कद्र भी करता है. संभवत: रश्मि के आधे दिन की अनुपस्थिति के कारण ही आत्मनिर्भर होता जा रहा है.

‘‘मां, यह सवाल नहीं हो रहा है,’’ रश्मि को देखते ही स्वरूप कापी उठा कर दौड़ आया.

बेटे को सवाल समझा व चाय- पानी पी कर रश्मि इतमीनान से रसोईघर में घुसी. दफ्तर से जल्दी लौटी है, थकावट भी कम है. आज वह कढ़ीचावल और बैगन का भरता बनाएगी. स्वरूप को बहुत पसंद है.

खाना बनाने के बाद कपड़े बदल कर तैयार हो रश्मि बेटे को ले कर सैर करने निकली. फागुन की हवा ठंडी होते हुए भी आरामदेह लग रही थी. बच्चे चहलपहल करते हुए मैदान में खेल रहे थे. मां की उंगली पकड़े चलते हुए स्वरूप दुनिया भर की बकबक किए जा रहा था. रश्मि सोच रही थी जीवन सदा ही इतना मधुर क्यों नहीं लगता.

‘‘मां, क्या मुझे एक छोटी सी बहन नहीं मिल सकती. मैं उस के संग खेलूंगा. उसे गोद में ले कर घूमूंगा, उसे पढ़ाऊंगा. उस को…’’

रश्मि के मन का उल्लास एकाएक विषाद में बदल गया. स्वरूप के जीवन के इस पहलू की ओर रश्मि का ध्यान ही नहीं गया था. सरकार जो चाहे कहे. आधुनिकता, महंगाई और बढ़ते हुए दुनियादारी के तनावों का तकाजा कुछ भी हो, रश्मि मन से 2 बच्चे चाहती थी, मगर मनुष्य की कई चाहतें पूरी नहीं होतीं.

स्वरूप के बाद रश्मि 2 बार गर्भवती हुई थी पर दोनों ही बार गर्भपात हो गया. अब तो उस के लिए गर्भधारण करना भी खतरनाक है.

रश्मि ने समझौता कर लिया था. आखिर वह उन लोगों से तो बेहतर है जिन के संतान होती ही नहीं. यह सही है कपड़ेलत्ते, खिलौने, पुस्तकें, टौफी, चाकलेट स्वरूप की हर छोटीबड़ी मांग रश्मि जहां तक संभव होता है, पूरी करती है. पर जो वस्तु नहीं होती उस की कमी तो रहती ही है.

‘‘देख बेटा,’’ 7 वर्षीय पुत्र को रश्मि ने समझाना आरंभ कर दिया, ‘‘अगर छोटी बहन होगी तो तेरे साथ लड़ेगी. टौफी, चाकलेट, खिलौनों में हिस्सा मांगेगी और…’’

‘‘तो क्या मां,’’ स्वरूप ने मां की बात को बीच में ही काट दिया, ‘‘मैं तो बड़ा हूं, छोटी बहन से थोड़े ही लड़ूंगा. टौफी, चाकलेट, खिलौने सब उस को दूंगा. मेरे पास तो बहुत हैं.’’

रश्मि की बोलती बंद हो गई. समय से पहले क्यों इतना समझदार हो गया स्वरूप? रात का भोजन देख कर नन्हे स्वरूप के मस्तिष्क से छोटी बहन वाला विषय निकल गया. पर रश्मि जानती है यह भूलना और याद आना चलता ही रहेगा. हो सकता है बड़ा होने पर रश्मि स्वरूप को बहन न होने का सही कारण बता भी दे लेकिन जब तक वह इसी तरह जीने का आदी नहीं हो जाता, रश्मि को इस प्रसंग का सामना करना ही होगा.

मनपसंद व्यंजन पा कर स्वरूप चटखारे लेले कर खा रहा था, ‘‘कितना अच्छा खाना है. सलाद भी बहुत अच्छा है. मां, आप रोज जल्दी घर आ जाया करो.’’

रश्मि का मन कमजोर पड़ने लगा. मन हुआ कल ही त्यागपत्र भेज दे, नहीं चाहिए यह दो कौड़ी की नौकरी, जिस के कारण उस के लाड़ले को मनपसंद खाना भी नसीब नहीं होता.

‘‘चलो मां, लूडो खेलते हैं,’’ स्वरूप हाथमुंह धो आया था.

‘‘थोड़ी देर तक पिता के संग खेलो, मैं चौका संभाल कर आती हूं,’’ रश्मि ने बरतन समेटते हुए कहा.

ऐसा नहीं कि केवल सतीश की तनख्वाह से गृहस्थी नहीं चलेगी लेकिन घर में स्वयं उस की तनख्वाह का महत्त्व भी कम नहीं. रोज तरहतरह का खाना, स्वरूप के लिए विभिन्न शौकिया खर्चे, उस के कानवैंट स्कूल का खर्चा आदि मिला कर कोई कम रुपयों की जरूरत नहीं पड़ती. अभी तो अपना मकान भी नहीं. फिर वास्तविकता यह है कि प्रतिदिन हर समय मां घर में दिखेगी तो मां के प्रति उस का आकर्षण कम हो जाएगा. इसी तरह रोज ही अच्छा भोजन मिलेगा तो उस भोजन का महत्त्व भी उस के लिए कम हो जाएगा. जैसेजैसे स्वरूप बड़ा होगा उस की अपनी दुनिया विकसित होती जाएगी. मां के आंचल से निकल कर पढ़ाई- लिखाई, खेलकूद और दोस्तों में व्यस्त हो जाएगा. उस समय रश्मि अकेली पड़ जाएगी. इस से यही बेहतर है कि कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पड़ेगा.

सब काम निबटा कर रश्मि की आंखें थकावट से बोझिल होने लगीं. निद्रित पुत्र के ऊपर चादर डाल कर वह सतीश की ओर मुड़ी.

‘‘कभी मेरा भी ध्यान कर लिया करो. हमेशा बेटे में ही रमी रहती हो,’’ सतीश ने रश्मि का हाथ थामा.

‘‘जरा याद करो तुम्हारी मां ने भी कभी तुम्हारा इतना ही ध्यान रखा था,’’ रश्मि ने शरारत से कहा.

‘‘वह उम्र तो गई, अब तो हमें तुम्हारा ध्यान चाहिए.’’

‘‘अच्छा, यह लो ध्यान,’’ रश्मि पति से लिपट गई.

सुबह उठ कर, सब को चाय दे कर रश्मि ने स्वरूप के स्कूल का टिफिन तैयार किया. फिर दूध गरम कर के उसे उठाने चली.

‘‘ऊं, ऊं, अभी नहीं,’’ स्वरूप ने चादर तान ली.

‘‘नहीं बेटा, और नहीं सोते. देखो, सुबह हो गई है.’’

‘‘नहीं, बस मुझे सोना है,’’ स्वरूप ने अड़ कर कहा.

आखिर 15 मिनट तक समझाने- बुझाने के बाद उस ने बेमन से बिस्तर छोड़ा. पर ब्रश करने, कपड़े पहनने व दूध पीने के बीच वह बारबार जा कर फिर से चादर ओढ़ कर लेट जाता और मनाने के बाद ही उठता. अंत में बैग कंधे पर डाले सतीश का हाथ पकड़े वह बस स्टाप की ओर रवाना हुआ तो रश्मि ने चैन की सांस ली. बिस्तर संवारना है, खाना बनाना, नाश्ता बनाना, नहाना फिर तैयार हो कर दफ्तर जाना है. रश्मि झटपट हाथ चलाने लगी. कपड़ों का ढेर बड़ा होता जा रहा है. 2 दिन से समय ही नहीं मिल रहा. आज शाम को आ कर अवश्य धोएगी.

‘‘कभी तो आंगन में झाड़ू लगा दिया कर रश्मि,’’ सब्जी छौंकते हुए रश्मि के कान में सास की आवाज पड़ी. कमरों के सामने अहाते के भीतर लंबाचौड़ा आंगन है, पक्के फर्श वाला. झाड़ू लगाने में 15-20 मिनट लग जाना मामूली बात है.

‘‘आप ही बताओ अम्मां, किस समय लगाऊं?’’

‘‘अब यह भी कोई समस्या है? जो दफ्तर जाती हैं क्या वे झाड़ू नहीं लगातीं?’’

रश्मि चुप हो गई. बहस में कुछ नहीं रखा. सब्जी में पानी डाल कर वह कपड़े निकालने लगी.

मांजी अब भी बोले जा रही थीं, ‘‘करने वाले बहुत कुछ करते हैं. स्वेटर बनाते हैं, पापड़बड़ी अचार, डालते हैं, कशीदाकारी करते हैं…’’

बदन पर पानी डालते हुए रश्मि सोच रही थी, ‘आज जा कर सब से पहले मार्च के महीने का ड्यूटी चार्ट बनाना है.’

‘‘अम्मां, जमादार आए तो उसे 2 रुपए दे कर आंगन में झाड़ू लगवा लेना,’’ रश्मि ने सास को आवाज दी.

‘‘सुन, मेरे लिए एक जोड़ी चप्पल ले आना.’’

‘‘ठीक है, अम्मां,’’ कंघी कर के रश्मि ने लिपस्टिक लगाई.

‘‘वह सामने अंगूठे और पीछे पट्टी वाली चप्पल.’’

रश्मि ने भौंहें सिकोड़ीं, सास किसी खास डिजाइन के बारे में कह रही थीं.

‘‘अरे, वैसी ही जैसी स्वीटी की नानी ने पहनी थी, हलके पीले से रंग की.’’

‘‘अम्मां, मैं शाम को समझ लूंगी और कल चप्पल ला दूंगी.’’

रश्मि टिफिन पैक करने लगी. परांठा भी पैक कर लिया. नाश्ता करने का समय नहीं था.

‘‘मेरे ब्लाउज के जो बटन टूटे थे, लगा दिए हैं?’’

‘‘ओह,’’ रश्मि को याद आया, ‘‘शाम को लगा दूंगी.’’

अम्मां का चेहरा असंतुष्ट हो उठा. रश्मि किसी तरह पैरों में चप्पल डाल कर दफ्तर के लिए रवाना हुई. तेज चले तो 9 बजे वाली बस अब भी मिल सकती है.

आज शाम रश्मि जल्दी नहीं निकल सकी. 4 बजे साहब ने बुला कर जो टारक योजना समझानी शुरू की तो 5 बजने पर भी नहीं रुके.

‘‘मेरी बस निकल जाएगी, साहब,’’ उस ने झिझकते हुए कहा.

‘‘ओह, मैं तो भूल ही गया,’’ बौस ने चौंक कर घड़ी देखी.

‘‘जी, कोई बात नहीं,’’ रश्मि ने मुसकराने का प्रयास किया.

दफ्तर से निकलते ही टारक योजना दिमाग से निकल गई और रात को क्या भोजन बनाए इस की चिंता ने आ घेरा. जाते हुए सब्जी भी खरीदनी है. बस आने पर धक्कामुक्की कर के चढ़ी पर वह बीच रास्ते में खराब हो गई. रश्मि मन ही मन गालियां देने लगी. दूसरी बस ले कर घर पहुंचतेपहुंचते 7 बज गए. दूर से ही छत के ऊपर छज्जे पर खड़ा स्वरूप दिख गया. छुपनछुपाई खेल रहा था बच्चों के संग. बहुत ही खतरनाक स्थिति में खड़ा था. गलती से भी थोड़ा और खिसक आया तो सीधे नीचे आ गिरेगा. रश्मि का तो कलेजा मुंह को आ गया.

‘‘स्वरूप,’’ उस ने कठोर स्वर में आवाज दी, ‘‘जल्दी नीचे उतर आओ.’’

‘‘अभी आया, मां,’’ कह कर स्वरूप दीवार फांद कर छत के दूसरी ओर गायब हो गया. अभी तक स्कूल के कपड़े भी नहीं बदले थे. सफेद कमीज व निकर पर दिनभर की गर्द जमा हो गई थी. बाल अस्तव्यस्त और हाथपांव धूल में सने थे. रश्मि का खून खौलने लगा. अम्मां दिन भर क्या करती रहती हैं. लगता है सारा दिन धूप में खेलता रहा है. हजार बार कहा है उसे छत के ऊपर न जाने दिया करें.

‘‘अम्मां,’’ अभी रश्मि ने आवाज ही दी थी कि सास फूट पड़ीं, ‘‘तेरा बेटा मुझ से नहीं संभलता. कल ही किसी क्रेच में इस का बंदोबस्त कर दे. सारा दिन इस के पीछे दौड़दौड़ कर मेरे पैरों में दर्द हो गया. कोई कहना नहीं मानता. स्कूल से लौट कर न नहाया, न कपड़े बदले, न ही ठीक से खाना खाया. ऊधम मचाने में लगा है. तू अपनी आंखों से देख क्या हाल बनाया है. मैं ने छत पर जाने से रोका तो मुझे धक्का मार कर निकल गया.’’

‘‘है कहां वह? अभी तक आया नहीं नीचे,’’ क्रोध से आगबबूला होती रश्मि स्वयं ही छत पर चली.

‘‘क्या बात है? नीचे क्यों नहीं आए?’’ ऊपर पहुंच कर उस ने स्वरूप को झिंझोड़ा.

‘‘बस, अपनी पारी दे कर आ रहा था मां.’’

मां के क्रोध से बेखबर स्वरूप की मासूमियत रश्मि के क्रोध को पिघलाने लगी, ‘‘चलो नीचे. दादी का कहा क्यों नहीं माना?’’

‘‘मुझे अच्छा नहीं लगता,’’ स्वरूप ने मुंह फुलाया, ‘‘इधर मत कूदो, कागज मत फैलाओ. कमरे में बौल से मत खेलो, गंदे पांव ले कर सोफे पर मत चढ़ो.’’

रश्मि की समझ में न आया किस पर क्रोध करे. बच्चे को बचपना करने से कैसे रोका जा सकता है? सास की भी उम्र बढ़ रही है, ऐसे में सहनशीलता कम होना स्वाभाविक है.

‘‘दादी तुम से बड़ी हैं स्वरूप. तुम्हें बहुत प्यार करती हैं. उन का कहना मानना चाहिए.’’

‘‘फिर मुझे आइसक्रीम क्यों नहीं खाने देतीं?’’

रश्मि थकावट महसूस करने लगी. कब तक नासमझ रहेगा स्वरूप.

‘‘आ गए लाट साहब,’’ पोते को देखते ही दादी का गुस्सा भड़क उठा, ‘‘तुम ने अभी तक इसे कुछ भी नहीं कहा? अरे, मैं कहती हूं इतना सिर न चढ़ाओ,’’ अपने प्रति दोषारोपण होते देख रश्मि का शांत होता क्रोध फिर उबल पड़ा.

‘‘चलो, कपड़े बदल कर हाथमुंह धोओ.’’

‘‘मैं नहीं धोऊंगा,’’ स्वरूप ने अड़ कर कहा.

‘‘क्या?’’ रश्मि जोर से चिल्लाई.

‘‘बस, मैं न कहती थी तुम्हारा लाड़प्यार इसे जरूर बिगाड़ेगा. लो, अब भुगतो,’’ सास ने निसंदेह उसे उकसाने के लिए नहीं कहा था पर रश्मि ने तड़ाक से एक चांटा बेटे के कोमल गाल पर जड़ दिया.

स्वरूप जोर से रो पड़ा, ‘‘नहीं बदलूंगा कपड़े. जाओ, कभी नहीं बदलूंगा,’’ कह कर दूर जा कर खड़ा हो गया.

‘‘हांहां, कपड़े क्यों बदलोगे, सारा दिन आवारा बच्चों के साथ मटरगश्ती के सिवा क्या करोगे? देख रश्मि, असली बात तो मैं भूल गई, जा कर देख बौल मार कर ड्रेसिंग टेबल का शीशा तोड़ डाला है.’’

रश्मि को अब अचानक सास के ऊपर क्रोध आने लगा. थकीमांदी लौटी हूं और घर में घुसते ही राग अलापना शुरू कर दिया. गुस्से में उस ने स्वरूप के गाल पर 2 चांटे और जड़ दिए.

रश्मि क्रोध से और भड़की. पुत्र को खींच कर खड़ा किया और तड़ातड़ पीटना शुरू कर दिया.

‘‘सारी उम्र मुझे तंग करने के लिए ही पैदा हुआ था? बाकी 2 तो मर गए, तू भी मर क्यों न गया?’’

‘‘क्या पागल हो गई है रश्मि. बच्चे ने शरारत की, 2 थप्पड़ लगा दिए बस. अब गाली क्यों दे रही है? क्या पीटपीट कर इसे मार डालेगी?’’

क्रोध, ग्लानि और अवसाद ने रश्मि को तोड़ कर रख दिया था. कमरे में आ कर वह फफकफफक कर रो पड़ी. यह क्या किया उस ने. जान से भी प्रिय एकमात्र पुत्र के लिए ऐसी अशुभ बातें उस के मुंह से कैसे निकलीं?

‘‘जोश को समय पर लगाम दिया कर. जो मुंह में आता है वही बकने लगती है,’’ इकलौता पोता रश्मि की सास को भी कम प्रिय न था, ‘‘अरे, मैं सारा दिन सहती हूं इस की शरारतें और तू ने सुन कर ही पीटना शुरू कर दिया,’’ रश्मि की सास देर तक उसे कोसती रही. रश्मि के आंसू थम ही नहीं रहे थे. रहरह कर किसी अज्ञात आशंका से हृदय डूबता जा रहा था.

तभी एक कोमल स्पर्श पा कर रश्मि ने आंखें खोलीं. जाने स्वरूप कब आंगन से उठ आया था और यत्न से उस के आंसू पोंछ रहा था, ‘‘मत रोओ, मां. कोई मां की बद्दुआ लगती थोड़ी है.’’

रश्मि ने खींच कर पुत्र को हृदय से लगा लिया. कौन सिखाता है इसे इस तरह बोलना. समय से पहले ही संवेदनशील हो गया. फिर अभीअभी जो नासमझी कर रहा था वह क्या था?

जो हो, नासमझ, समझदार या परिपक्व, रश्मि के हृदय का टुकड़ा हर स्थिति में अतुलनीय है. पुत्र को बांहों में भींच कर रश्मि सुख का अनुभव कर रही थी.

मेरा एक विधवा औरत से संबंध है, क्योंकि मेरी पत्नी मेरे साथ संबंध नहीं बनाना चाहती, क्या मैं सही कर रहा हूं ?

सवाल 

मैं 62 साल का हूं और पत्नी की आयु 60 साल है. जबकि उम्र को देखते हुए हम दोनों का शारीरिक स्वास्थ्य बहुत अच्छा है. मैं ने पत्नी को कई उदाहरण दे कर बताया कि इस उम्र में शारीरिक संबंध कोई गलत नहीं हैं पर वह किसी भी तरह मेरी बात सुनने को तैयार नहीं है. उस का कहना है कि बहूबेटे के घर में और 50 के बाद इंसान को यह सब छोड़ देना चाहिए.

उस दौरान जब पत्नी के मन में शारीरिक संबंधों को लेकर अरुचि पैदा हुई थी, मैं एक विधवा औरत के प्रति आकर्षित होने लगा था जो मेरे खेतों में काम करने आती थी. धीरेधीरे वह विधवा भी मुझ में रुचि लेने लगी और हमारे बीच शारीरिक संबंध कायम हो गए. हम सप्ताह में एक बार सहवास करते हैं. उस की कोई मांग नहीं, जो देता हूं, ले लेती है. हमारे शारीरिक संबंधों पर इसलिए परदा पड़ा है क्योंकि उस ने नसबंदी करा रखी है.

मैं कई बार महसूस करता हूं कि यह गलत है. पत्नी को समझाता हूं कि घर में खाना नहीं मिलने पर कितने दिन आदमी भूखा रहेगा. जवाब मिलता है, अगर घर में खाना नहीं मिलता तो होटल में खाइए. कृपया रास्ता बताइए.

जवाब 

आप का पत्र पढ़ कर लगता है, आप की समस्या इतनी गंभीर नहीं थी जितनी आप ने अनैतिकता का लबादा ओढ़ कर बना दी है. अगर आप का पक्ष देखा जाए तो आप अपनी पत्नी के साथ ही शारीरिक संबंधों को सुचारु रखना चाहते थे, मगर उन की उदासीनता के चलते आप अपनेआप पर संयम खो बैठे और अवैध संबंधों की दलदल में फंस गए.

जरा सोचिए कि इतने सालों तक आप की पत्नी ने आप को संतुष्ट रखा, आप की इच्छाओं का सम्मान किया, हो सकता है अब उन्हें कोई अंदरूनी शारीरिक कष्ट हो, जिस की वजह से वे इस के प्रति उदासीन हैं. आप उन्हें किसी महिला चिकित्सक के पास ले जाएं, शायद सबकुछ आसान हो जाए. आप की पत्नी को भी आप की भावनाओं का आदर करना चाहिए और समझना चाहिए कि बहूबेटी के होने से पतिपत्नी की निजी जिंदगी खत्म नहीं हो जाती.

अब आप को एक सलाह है कि आप एक इज्जतदार इंसान हैं, ऐसे अवैध संबंध कभी न कभी उजागर हो ही जाते हैं. सोचिए, अगर आप के साथ ऐसा हो गया तो आप की पत्नी, घर, परिवार और समाज के सामने आप की क्या इज्जत रह जाएगी. इतने सालों में आप ने जो विश्वास, प्यार और मानसम्मान अर्जित किया है, सब रेत की तरह हाथ से फिसल जाएंगे.

आप पत्नी के सहयोगी न होने पर संयम से काम लें, अच्छा साहित्य पढ़ें, योगा व ध्यान का अभ्यास करें. वरना आप जिस अनैतिक संबंधों के गर्त में गिरते जा रहे हैं उस से आप की जो छिछालेदर होगी उस की कल्पना करना भी बड़ा वीभत्स है.

अस्थमा मरीजों के लिए कारगर उपाय है इन्हेलेशन थैरेपी

ठंड के मौसम में अस्थमा के अटैक होने का खतरा ज्यादा रहता है. ऐसे में इन्हेलेशन थैरेपी सांस न ले पाने की तकलीफ को रोकने में लाभदायक साबित हो सकती है.

सर्दी का मौसम शुरू होते ही स्वादिष्ठ खाने के साथ गरमागरम चाय की चुस्कियां और पिकनिक या पहाड़ों की ट्रिप मौसम के मजे को दोगुना कर देते हैं. लेकिन सर्दी का आगमन 17 साल के कालेज जाने वाले राहुल सिंह के लिए काफी मुश्किलभरा रहता है क्योंकि उसे अस्थमा की समस्या है. राहुल के लिए तो सर्दी में होने वाला मामूली सा जुकाम भी कई बार अस्थमा के अटैक का कारण बन जाता है.

राहुल को बचपन से ही अस्थमा है और यह बीमारी न सिर्फ राहुल के लिए, बल्कि उस के पूरे परिवार के लिए भी परेशानी का सबब बनी हुई है. इस मामले में राहुल अकेला नहीं है, बल्कि दुनियाभर में 235 मिलियन लोग अस्थमा से ग्रस्त हैं. ठंड में यह समस्या ज्यादा गंभीर हो जाती है.

विशेषज्ञों के अनुसार, अकसर लोग मानते हैं कि यह समस्या बुजुर्गों में होती है जबकि अस्थमा फेफड़ों की बीमारी है जिस में फेफड़ों से जाने वाली सांस की नलियों में सूजन आ जाती है. अमेरिकन लंग एसोसिएशन के तथ्यों के अनुसार, अस्थमा बचपन में पाई जाने वाली समस्याओं में आम है और वर्तमान में 18 साल से कम उम्र के 7.1 मिलियन बच्चे इस समस्या से पीडि़त हैं.

अस्थमा और सर्दी का संबंध

अस्थमा से ग्रस्त रोगी के फेफड़ों से जाने वाली सांस की नलियां बहुत ही संवेदनशील होती हैं और ठंड में सूखी हवा व वातावरण में वायरस या कीटाणुओं की बढ़ोतरी से अस्थमा की समस्या ज्यादा गंभीर हो जाती है. विभिन्न अनुसंधानों में प्रकाशित अध्ययनों के अनुसार, ठंड के मौसम में अस्पताल में अस्थमा से पीडि़त रोगियों की संख्या ज्यादा होती है.

नैशनल इंस्टिट्यूट औफ ट्यूबरक्लोसिस ऐंड रेस्पिरेटरी डिजीज के एमडी (चैस्ट) डा. सुशील मुंजाल का कहना है, ‘‘सांस की नलियों में सूजन के कारण सांस की नलियां बहुत ज्यादा सिकुड़ जाती हैं जिस से बलगम जैसा पदार्थ जमा होने लगता है और यह नलियों को सांस लेने में प्रभावित करता है. इस से अस्थमा के रोगियों को सांस लेने में दिक्कत होने लगती है. सर्दी में ठंडी हवाओं के कारण सांस की नलियां और ज्यादा सिकुड़ जाती हैं जिस से सांस लेने में बहुत ज्यादा तकलीफ होने लगती है. इसलिए लोगों को यह समझना जरूरी है कि सर्दियों में सही इलाज और दवाओं से अस्थमा के लक्षणों को काफी हद तक नियंत्रित और मैनेज किया जा सकता है.’’

आम भ्रांतियां

रोगियों और उन के परिवारों में अस्थमा की जानकारी व उस के इलाज को ले कर कई तरह की भ्रांतियां होती हैं.

लोगों को लगता है कि अस्थमा सिर्फ उन्हीं को हो सकता है जिन के परिवार में अस्थमा की समस्या है, अस्थमा संचारी रोग है, अस्थमा को मछली वाली थैरेपी से ठीक किया जा सकता है, अन्य दवाएं ज्यादा बेहतर हैं या सिर्फ योग से अस्थमा अटैक को रोकने में मदद मिलती है.

लोग सोचते हैं कि अस्थमा के ट्रिगर से परहेज करने पर इसे रोका जा सकता है और इन्हेलर अस्थमा के इलाज में आखिरी विकल्प है. अस्थमा को ले कर लोगों में इस तरह की कई भ्रांतियां हैं.

डा. सुशील मुंजाल कहते हैं, ‘‘अस्थमा के इलाज के दौरान रोगी और उस के परिवार वाले अकसर इस से जुड़ी कई गलत सूचनाओं के साथ आते हैं. इसलिए हैल्थकेयर से जुड़े लोगों को रोगियों और उस के परिवार वालों को अस्थमा से जुड़े तथ्यों के बारे में जानकारी देनी चाहिए. अस्थमा को छिपाने के बजाय उस से जुड़े इलाज के महत्त्व को समझाना जरूरी है. इलाज के विकल्पों में सब से कम साइड इफैक्ट्स इन्हेल्ड कोरटिकोस्टेरौयड यानी कि इन्हेलेशन थैरेपी की जानकारी देनी चाहिए.’’

इन्हेलेशन थैरेपी

स्वास्थ्य से जुड़े विशेषज्ञों ने देखा है कि अस्थमा रोगी इसे नियंत्रित करने में काफी लापरवाही बरतते हैं. इसी वजह से लगातार नियमित दवाएं लेने के बावजूद रोगी रोजाना अस्थमा के लक्षणों से प्रभावित रहता है और रोजमर्रा के कामों में उसे दिक्कत महसूस होती है. इस समस्या से नजात पाने के लिए ओरल दवाओं के मुकाबले इन्हेलेशन थैरेपी ज्यादा बेहतर है क्योंकि इस में साइड इफैक्ट्स तो कम होते ही हैं, साथ ही यह जल्दी काम भी करती है. इन्हेलेशन थैरेपी में इन्हेलर पंप में मौजूद कोरटिकोस्टेरौयड सांस की नलियों में जाता है. इस बारे में डा. सुशील मुंजाल कहते हैं, ‘‘मुश्किल यह है कि रोगी स्टेरौयड सुन कर ही इन्हेलर का इस्तेमाल नहीं करना चाहते लेकिन लोग इस तथ्य से अनजान हैं कि कोरटिकोस्टेरौयड प्राकृतिक रूप से शरीर में भी बनता है जो शरीर की सूजन कम करने में सहायक होता है. इसलिए यह बच्चों के साथसाथ गर्भवती महिलाओं के लिए भी सुरक्षित है.’’

रेस्पिरेटरी मैडिसन में प्रकाशित अध्ययन लेख के अनुसार, अस्थमा के लिए इन्हेलेशन थैरेपी और क्लिनिकल प्रभाव के बीच संबंध सकारात्मक है. अध्ययन में वयस्कों, किशोरों और बच्चों में अस्थमा के लक्षणों व फेफड़ों के काम को बेहतर तरीके से नियंत्रित करने में सुधार दिखा है.

सांस की नलियों की सूजन को कम करने के लिए बहुत ही कम मात्रा (तकरीबन 25 से 100 माइक्रोग्राम) कोरटिकोस्टेरौयड की जरूरत होती है लेकिन ओरल दवाओं या टैबलेट में ज्यादा मात्रा (तकरीबन 10 हजार माइक्रोग्राम) शरीर में चली जाती है और दवा की बहुत ही कम मात्रा फेफड़ों तक पहुंचती है. अस्थमा रोगी गोली या टैबलेट के माध्यम से लक्षणों को कम करने के लिए 200 गुना ज्यादा दवा की मात्रा लेता है.

डा. सुशील मुंजाल बताते हैं, ‘‘ओरल दवाओं की ज्यादा मात्रा पहले रक्त में घुल कर सभी अंगों में पहुंचती है जिस में फेफड़े भी शामिल हैं लेकिन इन्हेलेशन थैरेपी में कोरटिकोस्टेरौयड सीधे फेफड़ों में पहुंचता है, इसलिए लक्षणों को नियंत्रित करने के लिए स्टेरौयड की आवश्यक मात्रा इन्हेलेशन थैरेपी से मिलती है.’’ इस तरह आसान विकल्पों से रोगी सर्दी के मौसम में अस्थमा को नियंत्रित कर के मौसम का भरपूर मजा ले सकते हैं.

वापसी : तृप्ती अमित के पास वापस क्यों लौट आई ?

मैं अटैची लिए औटो में बैठ गई. करीब 1 महीने बाद अपने पति अमित के पास लौट रही थी. मुझे विदा करते मम्मीडैडी की आंखों में खुशी के आंसू थे. मैं ने रास्ते में औटो रुकवा कर एक गुलदस्ता और कार्ड खरीदा. कार्ड पर मैं ने अपनी लिखावट बदल कर लिखा, ‘हैपी बर्थडे, सीमा’ और फिर औटो में बैठ घर चल. सीमा मेरा ही नाम है यानी गुलदस्ता मैं ने खुद के पैसे खर्च कर अपने लिए ही खरीदा था. दरअसल, पटरी से उतरी अपने विवाहित जीवन की गाड़ी को फिर से पटरी पर लाने के लिए इनसान को कभीकभी ऐसी चालाकी भी करनी पड़ती है. पड़ोस में रहने वाली मेरी सहेली कविता की शादी 2 दिन पहले हुई थी. मम्मीपापा का सोचना था कि उसे ससुराल जाते देख कर मैं ने अपने घर अमित के पास लौटने का फैसला किया. उन का यह सोचना पूरी तरह गलत है. सचाई यह है कि मैं अमित के पास परसों रात एक तेज झटका के बाद लौट रही हूं.

मुझे सामने खड़ी देख कर अमित हक्केबक्के रह गए. उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि मैं बिना कोई सूचना दिए यों अचानक घर लौट आऊंगी.

मैं मुसकराते हुए उन के गले लग कर बोली, ‘‘इतना प्यार गुलदस्ता भिजवाने के लिए थैंक यू, माई लव.’’

उन के गले लग कर मेरे तनमन में गुदगुदी की तेज लहर दौड़ गई थी. मन एकदम से खिल उठा था. सचमुच, उस पल की सुखद अनुभूति ने मुझे विश्वास दिला दिया कि वापस लौट आने का फैसला कर के मैं ने बिलकुल सही कदम उठाया.

‘‘तुम्हें यह गुलदस्ता मैं ने नहीं भिजवाया है,’’ उन की आवाज में नाराजगी के भाव मौजूद थे.

‘‘अब शरमा क्यों रहे हो? लो, आप से पहले मैं स्वीकार कर लेती हूं कि आज सुबह उठने के बाद से मैं आप को बहुत मिस कर रही थी. वैसे एक सवाल का जवाब दो. अगर मैं यहां न आती तो क्या आप आज के दिन भी मुझ से मिलने नहीं आते? क्या सिर्फ गुलदस्ता भेज कर चुप बैठ जाते?’’

‘‘यार, यह गुलदस्ता मैं ने नहीं भिजवाया है,’’ वे एकदम से चिड़ उठे, ‘‘और रही बात तुम से मिलने आने की तो तुम मुझे नाराज कर के मायके भागी थीं. फिर मैं क्यों तुम से मिलने आता?’’

‘‘चलो, मान लिया कि आप ने यह गुलदस्ता नहीं भेजा है, पर क्या आप को खुशी भी नहीं हुई है मुझे घर आया देख कर? झूठ ही सही, पर कम से कम एक बार तो कह दो कि सीमा, वैलकम बैक.’’

‘‘वैलकम बैक,’’ उन्हें अब अपनी हंसी रोकने में कठिनाई हो रही थी.

‘‘आई लव यू, माई डार्लिंग. लेकिन…’’

‘‘लेकिन क्या?’’

‘‘अगर आप ने नहीं भेजा है, तो फिर यह गुलदस्ता मुझे किस ने गिफ्ट किया है?’’

‘‘यह तो तुम ही बता सकती हो. मुझ से दूर रह कर किस के साथ चक्कर चला रही हो?’’

‘‘मैं आप की तरह अवैध रिश्ता बनाने में विश्वास नहीं रखती हूं. बस, जिंदगी में जिस एक बार दिल दे दिया, सो दे दिया.’’

‘‘अवैध प्रेम करने का शौक मुझे भी नहीं है, पर यह बात तुम्हारे शक्की मन में कभी नहीं घुसेगी,’’ वे एकदम नाराज हो उठे.

‘‘देखोजी, मैं तो इस मुद्दे को ले कर कभी झगड़ा न करने का फैसला कर के लौटी हूं. इसलिए मुझे उकसाने की आप की सारी कोशिशें अब बेकार जाने वाली हैं,’’ उन का गुस्सा कम करने के लिहाज से मैं प्यार भरे अंदाज में मुसकरा उठी.

‘‘तुम तो 1 महीने में ही बहुत समझदार हो गई हो.’’

‘‘यह आप सही कह रहे हो.’’

‘‘मैं क्या सही कह रहा हूं?’’

‘‘यही कि एक महीना आप से दूर रह कर मेरी अक्ल ठिकाने आ गई है.’’

‘‘तुम तो सचमुच बदल गई हो वरना तुम ने कब अपने को कभी गलत माना है,’’ वे सचमुच बहुत हैरान नजर आ रहे थे.

‘‘अब क्या सारा दिन हम ऐसी ही बेकार बातें करते रहेंगे? यह मत भूलिए कि आज आप की जीवनसंगिनी का जन्मदिन है,’’ मैं ने रूठने का अच्छा अभिनय किया.

‘‘तुम कौन सा मुझे बता कर लौटी हो, जो मैं तुम्हारे लिए एक भव्य पार्टी का आयोजन कर के रखता,’’ वे मुझ पर कटाक्ष करने का मौका नहीं चूके.

‘‘पतिदेव, जरा व्यंग्य और दिल दुखाने वाली बातों पर अपनी पकड़ कमजोर करो, प्लीज. आज रविवार की छुट्टी है और मेरा जन्मदिन भी है. आप का क्या बिगड़ जाएगा अगर मुझे आज कुछ मौजमस्ती करा दोगे? साहब, प्यार से कहीं घुमाफिरा लाओ… कोई बढि़या सा गिफ्ट दे दो,’’ मैं भावुक हो उठी थी. कुछ पलों की खामोशी के बाद वे बोले, ‘‘वह सब बाद में होगा. पहले सोच कर यह बताओ कि यह गुलदस्ता तुम्हें किस ने भेजा होगा.’’ मैं ने भी फौरन सोचने की मुद्रा बनाई और फिर कुछ पलों के बाद बोली, ‘‘भेजना आप को चाहिए था, पर आप ने नहीं भेजा है…तो यह काम विकास का हो सकता है.’’

‘‘कौन है यह विकास?’’ वे हैरान से नजर आ रहे थे, क्योंकि उन्हें अंदाजा नहीं था कि मैं किसी व्यक्ति का नाम यों एकदम से ले दूंगी. ‘‘पड़ोस में रहने वाली मेरी सहेली कविता की शादी 2 दिन पहले हुई है. यह विकास उस के बड़े भाई का दोस्त है.’’

‘‘आगे बोलो.’’

‘‘आगे क्या बोलूं? पति से दूर रह रही स्त्री को हर दिलफेंक किस्म का आदमी अपना आसान शिकार मानता है. वह भी मुझ पर लाइन मार रहा था, पर मैं आप की तरह…सौरी… मैं कमजोर चरित्र वाली लड़की नहीं हूं. उस ने ही कोशिश नहीं छोड़ी होगी और मुझे अपने प्रेमजाल में फंसाने को यह गुलदस्ता भेज दिया होगा. मैं अभी इसे बाहर फेंकती हूं,’’ आवेश में आ कर मैं ने अपना चेहरा लाल कर लिया. ‘‘अरे, यों तैश में आ कर इसे बाहर मत फेंको. कोई पक्का थोड़े ही है कि उसी कमीने ने इसे भेजा होगा.’’

‘‘यह भी आप ठीक कह रहे हो. तो एक काम करते हैं,’’ मैं उन की आंखोें में प्यार से देखने लगी थी.

‘‘कौन सा काम?’’

‘‘आप इस से ज्यादा प्यारा और ज्यादा बड़ा एक गुलदस्ता मुझे भेंट कर दो. उसे पा कर मैं खुश भी बहुत हो जाऊंगी और अगर इसे विकास ने ही भेजा होगा, तो इस की अहमियत भी बिलकुल खत्म हो जाएगी.’’

‘‘तुम तो यार सचमुच समझदार बन कर लौटी हो,’’ उन्होंने इस बार ईमानदार लहजे में मेरी तारीफ की.

‘‘सच?’’

‘‘हां, अभी तक तो तुम्हारे अंदर आया बदलाव सच ही लग रहा है.’’

‘‘तो इसी बात पर बाहर लंच करा दो,’’ मैं ने आगे बढ़ कर उन के गले में बांहें डाल दीं.

‘‘नो प्रौब्लम, स्वीटहार्ट. मैं नहा लेता हूं. फिर घूमने चलते हैं.’’ फिर जब कुछ देर बाद मैं उन के मांगने पर तौलिया पकड़ाने गई, तो उन्होंने मेरा हाथ पकड़ कर मुझे गुसलखाने के अंदर खींच लिया. मेरा मन तो चाह ही रहा था कि ऐसा कुछ हो जाए. 1 महीने की दूरी की कड़वाहट को मिटाने का काम सिर्फ बातों से नहीं हो सकता था. अत: उन की बांहों में कैद हो कर मेरा उन के साथ मस्त अंदाज में नहाना हम दोनों की मनमुटाव की कड़वाहट को एक झटके में साफ कर गया था. वे मुझे गोद में उठा कर शयनकक्ष में ले आए… प्यार के क्षण लंबे होते गए, क्योंकि महीने भर की प्यास जो हम दोनों को बुझानी थी. बाद में मैं ने उन से लिपट कर तृप्ति भरी गहरी नींद का आनंद लिया.

जब 2 घंटे बाद मेरी आंखें खुलीं तो मैं खुद को बहुत हलकाफुलका महसूस कर रही थी. मन में पिछले 1 महीने से बसी सारी शिकायतें दूर हो गई थीं. मुझे परसों रात को विकास के साथ घटी वह घटना याद आने लगी जिस के कारण मैं खुद ही अमित के पास लौट आई थी. परसों रात मैं तो विकास के सामने एकदम से कमजोर पड़ गई थी. कविता की शादी में हम दोनों खूब काम कर रहे थे. हमारे बीच होने वाली हर मुलाकात में उस ने मेरी सुंदरता व गुणों की तारीफ करकर के मुझे बहुत खुश कर दिया था. लेकिन मुझे यह एहसास नहीं हुआ था कि अमित से दूर रहने के कारण मेरा परेशान व प्यार को प्यासा मन उस के मीठे शब्दों को सुन कर भटकने को तैयार हो ही गया था. मैं उस रात कविता के घर की छत पर बने कमरे से कुछ लाने गई थी. तब विकास मेरे पीछेपीछे दबे पांव वहां आ गया. दरवाजा बंद होने की आवाज सुन कर मैं मुड़ी तो वह सामने खड़ा नजर आया. उस की आंखों में अपने लिए चाहत के भाव पढ़ कर मैं बुरी तरह घबरा गई. मेरा सारा शरीर थरथर कांपने लगा.

‘‘विकास, तुम मेरे पास मत आना. देखो, मैं शादीशुदा औरत हूं…मेरे हंसनेबोलने का तुम गलत अर्थ लगा रहे हो…मैं वैसी औरत नहीं हूं…’’ उस ने मेरे कहने की रत्ती भर परवाह न कर मुझे अपनी बांहों में भर लिया.

‘‘प्लीज, मुझे जाने दो…छोड़ो मुझे,’’ मैं उस से ऐसी प्रार्थना जरूर कर रही थी पर इस में भी कोई शक नहीं कि मुझे उस की नाजायज हरकत पर तेज गुस्सा नहीं आया था. उस कमरे के साथ बालकनी न जुड़ी होती तो न जाने उस रात क्या हो जाता. उस बालकनी में 2 किशोर लड़के गपशप कर रहे थे. अगर ऐन वक्त पर उन दोनों की हंसने की आवाजें हमारे कानों तक न आतीं, तो विकास थोड़ी सी जोरजबरदस्ती कर मेरे साथ अपने मन की करने में सफल हो जाता. उस की पकड़ ढीली पड़ते ही मैं कमरे से जान बचा कर भाग निकली थी. मैं सीधी अपने घर पहुंची और बिस्तर पर गिर कर खूब देर तक रोई थी. बाद में कुछ बातें मुझे बड़ी आसानी से समझ में आ गई थीं. मुझे बड़ी गहराई से यह एहसास हुआ कि अमित के साथ और उस से मिलने वाले प्यार की मेरे तनमन को बहुत जरूरत है. वे जरूरतें अगर अमित से नहीं पूरी होंगी तो मेरा प्यासा मन भटक सकता है और किसी स्त्री के यों भटकते मन को सहारा देने वाले आशिकों की आजकल कोई कमी नहीं.

तब मैं ने एक महत्त्वपूर्ण फैसला करने में जरा भी देर नहीं लगाई थी. किसी विकास जैसे इनसान को प्रेमी बना कर अपनी इज्जत को दांव पर लगाने से बेहतर मुझे अमित के पास लौटने का विकल्प लगा. मैं मायके में रहने इसलिए आई थी, क्योंकि मुझे शक था कि औफिस में उस के साथ काम करने वाली रितु के साथ अमित के गलत संबंध हैं. वे हमेशा ऐसा कुछ होने से इनकार करते थे पर जब उन्होंने उस के यहां मेरे बारबार मना करने पर भी जाना चालू रखा, तो मेरा शक यकीन में बदलता चला गया था.उस रात मुझे इस बात का एहसास हुआ कि यों मायके भाग कर अमित से दूर हो जाना तो इस समस्या का कोई हल था ही नहीं. यह काम तो अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारने जैसा था. यों दूर रह कर तो मैं अकेले रह रहे अमित को रितु से मिलने के ज्यादा मौके उपलब्ध करा रही थी. तभी मैं ने अमित के पास लौट आने का फैसला कर लिया था और आज सुबह औटो कर के लौट भी आई थी.

कुछ देर तक सो रहे अमित के चेहरे को प्यार से निहारने के बाद मैं ने उन के कान में प्यार से फुसफुसाते हुए कहा, ‘‘मुझे बहुत जोर से भूख लग रही है, जनाब.’’

‘‘तो प्यार करना फिर से शुरू कर देता हूं, जानेमन,’’ नींद से निकलते ही उन के दिलोदिमाग पर मौजमस्ती हावी हो गई.

‘‘अभी तो मेरे पेट में चूहे कूद रहे हैं.’’

‘‘तो बोलो खाना खाने कहां चलें?’’

‘‘मेरा चाइनीज खाने का मन है.’’

‘‘तो चाइनीज खाने ही चलेंगे.’’

‘‘पहले से तो किसी के साथ कहीं जाने का कोई प्रोग्राम नहीं बना रखा है न?’’

‘‘तुम रितु के साथ मेरा कोई प्रोग्राम होने की तरफ इशारा कर रही हो न?’’ वे एकदम गंभीर नजर आने लगे.

‘‘बिलकुल भी नहीं,’’ मैं ने झूठ बोला.

‘‘झूठी,’’ उन्होंने मेरे होंठों पर छोटा सा चुंबन अंकित करने के बाद संजीदा लहजे में कहा, ‘‘मैं तुम्हें आज फिर से बता देता हूं कि रितु के साथ मेरा कोई गलत चक्कर…’’

‘‘मुझे आप पर पूरा विश्वास है,’’ मैं ने उन्हें टोका और हंस कर बोली, ‘‘मैं तो आप को बस यों ही छेड़ रही थी.’’

‘‘तो अब इस जरा सा छेड़ने का परिणाम भी भुगतो,’’ उन्होंने मुझे अपने आगोश में भरने की कोशिश की जरूर, पर मैं ने बहुत फुरती दिखाते हुए खुद को बचाया और कूद कर पलंग से नीचे उतर आई.

‘‘भूखे पेट न भजन होता है, न प्यार, मेरे सरकार. अब फटाफट तैयार हो जाओ न.’’

‘‘ओके, पहले तुम्हारी पेट पूजा कर ही दी जाए नहीं तो प्यार का कार्यक्रम रुकावट के साथ ही चलेगा,’’ मेरी तरफ हवाई चुंबन उछाल कर वे तैयार होने को उठ गए. रितु को ले कर अमित के अडि़यल व्यवहार ने मुझे विकास की तरफ लगभग धकेल ही दिया था. अगर हमारा मनमुटाव मुझे गलत रास्ते पर धकेल सकता है, तो मैं अपने प्यार, सेवा और विश्वास के बल पर उन को अपनी तरफ खींच भी सकती हूं. उन की आंखों में अपने लिए गहरी चाहत और प्यार के भावों को पढ़ कर मुझे लग रहा कि बिना शर्त लौटने का फैसला कर के मैं ने बिलकुल सही कदम उठाया.

ऊंची उड़ान : आकाश और संगीता के बीच क्या रिश्ता था ?

रात के 12 बजे फोन की घंटी बजी. उस समय आकाश और संगीता शर्मोहया भूल कर एकदूसरे से लिपट कर शारीरिक संबंध बना रहे थे. दोबारा फोन की घंटी बजी. जब संगीता के कानों में घंटी की आवाज पड़ी, तो वह आकाश से बोली, ‘‘आकाश, तुम्हारा फोन बज रहा है.’’

‘‘बजने दो. मुझे डिस्टर्ब मत करो.’’

इस के बाद वे दोनों अपने काम में बिजी हो गए. कुछ समय बाद आकाश ने कहा, ‘‘बहुत मजा आया संगीता.’’ संगीता कुछ कहती, उस से पहले फोन की घंटी फिर बजी.

‘‘आकाश फोन…’’ संगीता बोली.

‘‘जाओ, तुम ही फोन उठा लो,’’ आकाश ने संगीता से कहा.

‘‘हैलो… कौन हो तुम? इतनी रात को बारबार फोन क्यों कर रहे हो?’’ संगीता ने पूछा.

‘क्यों… तुम दोनों के काम में रुकावट आ गई? मुझे मालूम है कि तुम सावंत की पत्नी हो, जो चंद रुपयों के लिए किसी का भी बिस्तर गरम करती हो,’ फोन पर किसी की आवाज आई.

‘‘क्या बकवास कर रही हो? कौन हो तुम?’’ संगीता ने पूछा.

‘बेशर्म औरत, आधी रात को जिस शादीशुदा मर्द के साथ तुम रंगरलियां मना रही हो, मैं उसी की पत्नी बोल रही हूं.’ यह सुन कर संगीता चौंक गई. ‘‘किस का फोन है? किस से बहस कर रही हो?’’ आकाश ने पूछा.

‘‘तुम्हारी पत्नी का फोन है…’’ संगीता इतना ही बोल पाई.

आकाश ने चौंकते हुए कहा, ‘‘क्या… कल्पना का फोन है? पहले क्यों नहीं बताया. लाओ, फोन दो… हैलो… कल्पना.’’

‘हैलो… मैं कल्पना…’ और कुछ बोलतेबोलते वह चुप हो गई.

आकाश चौंक पड़ा, ‘‘क्या बात है कल्पना? क्या हुआ? घर में सब ठीक है न? प्रतिमा और सुमन की तबीयत… जल्दी बताओ,’’ उस ने कई सवाल एकसाथ पूछ लिए. कल्पना की सांस फूली सी लग रही थी. वह धीरे से बोली, ‘आप जल्दी से घर आइए. अब मुझ में इतनी हिम्मत नहीं कि फोन पर बता सकूं.’ ‘ठीक है कल्पना, मैं सुबह होते ही घर पहुंचता हूं,’’ आकाश फोन रख कर सोच में डूब गया. 3 साल भी नहीं हुए थे आकाश को यहां आए हुए. अच्छीनौकरी और मुंहमांगी तनख्वाह ने आखिर उस के बरसों के बांध को तोड़ दिया था. पुरानी नौकरी के साथ पुराने शहर और घरपरिवार को छोड़ कर वह यहां आ बसा था.

पत्नी कल्पना ने कई बार समझाया, 2 जवान बेटियों के साथ भला वह नौकरीपेशा औरत कैसे संभाल पाएगी सब अकेले ही, लेकिन आकाश पर एक ही धुन सवार थी कि किसी भी तरह अमीर बनना है. आकाश के हुनर की वहां कोई कद्र न थी. वह ज्यादातर समय घर पर ही बिता देता था. नौकरी करने वाली पत्नी को उस का घर से जुड़े रहना बड़ी राहत देता है. बेटियों को स्कूल लाने व ले जाने की जिम्मेदारी आकाश की थी. साथसाथ सब्जीभाजी और राशन की जिम्मेदारी भी. कुलमिला कर एक खुशहाल परिवार था. लेकिन उस खुशहाल माहौल में पहला कंकड़ उसी दिन पड़ गया था, जिस दिन आकाश के पड़ोसी राजकुमार अपनी नई मोटरसाइकिल ले आए थे. राजकुमार एक ठेकेदार था. हर साल लाखों रुपए का मुनाफा और मुनाफे के साथसाथ मशहूर हो गया था उस का नाम.

राजकुमार की दौलत आकाश को अंदर ही अंदर कहीं चुभ गई थी. एक दिन आकाश अपनी सारी जमापूंजी जोड़ने बैठा, ‘कल्पना… कल्पना… कहां हो तुम?’

‘कपड़े सुखा रही हूं.’

‘कपड़े सुखा कर जल्दी आओ. हां सुनो… आज तक मैं ने तुम्हें जितने भी रुपए रखने को दिए हैं, वो सब ले कर आओ.’

‘अब इन पैसों से क्या करने का इरादा है तुम्हारा? किसी के बहकावे में आ कर ज्यादा मुनाफा जोड़ने के चक्कर में नहीं आइएगा.’

‘अमीर बन कर ऐशोआराम में अपनी जिंदगी बिताना मेरा सपना है.’

‘मैं तुम से बहस नहीं करना चाहती. तो तुम ने अपने मन में ठान लिया है, वह सब करो. लेकिन अपनी हद में रह कर.’

आज आकाश एक कंपनी का एमडी है. गाड़ी, आलीशान घर, चपरासी सबकुछ है उस के पास. लेकिन इन सुविधाओं का मजा उठाने के लिए उस का परिवार साथ नहीं है. जिन के लिए यह सब किया, वे अपनी जिंदगी के नियमों को लांघ कर उस के पास रहने नहीं आ सकते, सिवा तीजत्योहार के.

आकाश ने शहर के कुछ लोगों से धीरेधीरे अपना मेलजोल बढ़ाया और वह एक बीयरबार में पार्टनर बन गया. वहां रुपयों की बारिश होने लगी. आकाश अपनी सोच से बाहर निकला… आखिर घर में क्या दिक्कत हुई है, जो कल्पना उसे फोन पर बताने के लिए हिम्मत न कर सकी.

आकाश ने अपने मोहल्ले के एक करीबी दोस्त से वादा लिया था कि उस की गैरहाजिरी में वह उस के घर पर नजर रखेगा और बीवीबेटियों की खैरखबर लेता रहेगा. कहीं उस के दोस्त ने घर में कुछ गड़बड़ तो नहीं की होगी या बाहर का कोई? दूसरे दिन आकाश घर पहुंचा. घर पर नौकरानी के सिवा कोई नहीं था. उस ने बताया, ‘‘साहब, कल्पना मैडम और प्रतिमा बेटी किसी डाक्टर के पास गए हुए हैं. वे लोग आते ही होंगे.’’

कुछ देर बाद कल्पना और प्रतिमा घर पहुंचे. आकाश ने पूछा, ‘‘कल्पना, घर में सुमन भी नहीं है और तुम दोनों किसी डाक्टर के पास गई थीं. तुम सब की तबीयत तो ठीक है न?’’ ‘‘प्रतिमा, तू अपने कमरे में जा. मैं इस का चैकअप कराने गई थी,’’ कल्पना दुखी लहजे में बोली.

‘‘चैकअप कराने… क्यों?’’

‘‘सुनो इस की करतूत… कल 7 बजे जब मैं सब्जी लेने जा रही थी, तब मेरी नजर सोफे पर बैठी सुमन पर पड़ी. सिर पर हाथ रख कर देखा, तो उस को तेज बुखार था. डाक्टर के पास से लाई दवा सुमन को दी और उस के पास बैठेबैठे मेरी आंख लग गई. ‘‘आधी रात को मेरी नींद खुली. देखा तो सुमन का बुखार उतर गया था. सोचा, प्रतिमा को देखती चलूं. प्रतिमा अपने कमरे में तो थी, पर उस के साथ में था आप के दोस्त राजकुमार का बेटा. यह देख कर मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गई.’’

‘‘राजकुमार का लड़का?’’ आकाश चिल्लाया.

‘‘रुको, अब दूसरों से लड़नाझगड़ना समझदारी की बात नहीं है. न ही किसी पराए पर आंख मूंद कर यकीन करना. सुमन और प्रतिमा मेरी एक बात नहीं सुनतीं. उलटा, तुम्हारी तरह मुझे डांट देती हैं. आजकल घर में जो कुछ भी हो रहा है, तुम्हारे बुरे काम का असर है. दोनों जवान बेटियां मेरे हाथ से निकल चुकी हैं. उन्हें सही राह पर लाना तुम्हारी जिम्मेदारी है.’’ आकाश सिर पकड़ कर बैठ गया. वह पछता रहा था कि अपने परिवार से दूर रहना, किसी पराए पर यकीन करना और जिंदगी में ऊंची उड़ान भरना कभीकभी बेवकूफी भरा काम भी हो सकता है.

सफर कुछ थम सा गया

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Nawazuddin Siddiqui से लेकर Rajkummar Rao तक को स्टार बनाने के पीछे है ये कास्टिंग डायरेक्ट

Casting Director Mukesh Chhabra  : बॉलीवुड एक्टर पंकज त्रिपाठी, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, विक्की कौशल, विनीत कुमार सिंह, एक्ट्रेस ऋचा चड्ढा, फातिमा सना शेख, सान्या मल्होत्रा, हुमा कुरैशी, जायरा वसीम, जयदीप अहलावत और राजकुमार आदि कलाकारों को तो आज ज्यादातर लोग जानते हैं. इन तमाम स्टार्स के फैंस न केवल देश में बल्कि विदेश भी है. लेकिन क्या आप जानते हैं इन तमाम कलाकारों को फिल्मों में काम करने का मौका किसने दिया है ? अगर नहीं, तो आइए जानते हैं उन ”कास्टिंग डायरेक्ट” के बारे में जिन्होंने कई लोगों को फर्श से अर्श तक का रास्ता दिखाया है.

आपको बता दें कि कास्टिंग डायरेक्टर ”मुकेश छाबड़ा” (Casting Director Mukesh Chhabra) ने कई कलाकारों की जिंदगी बदली है. उन्होंने आज तक बॉलीवुड को कई उम्दा एक्टर और एक्ट्रेस खोज कर दिए हैं. दरअसल, मुकेश छाबड़ा एक कास्टिंग डायरेक्टर है. जो फिल्मों की कहानी के अनुसार कलाकारों को चुनते हैं.

शाहरुख और इरफान खान की कहानियों का पड़ा प्रभाव

दिल्ली के मध्यवर्गीय परिवार में जन्मे ”मुकेश छाबड़ा” (Casting Director Mukesh Chhabra) बचपन से ही फिल्मों और फिल्मी गानों के शौकीन थे. मात्र 11 साल की उम्र में ही मुकेश ने ‘नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा’ की ”समर थिएटर वर्कशॉप” ज्वाइन कर ली थी. इसके बाद वह ‘थिएटर इन एजुकेशन’ कंपनी से जुड गए. जहां उन्होंने शाहरुख खान, इरफान खान सहित कई बड़े सितारों की कहानियां सुनी और इस तरह धीरे-धीरे उन पर फिल्मों का प्रभाव पड़ने लगा. फिर एक दिन उन्होंने तय किया कि वह फिल्मी दुनिया में कदम रखेंगे, जिसके बाद मुकेश ने कई निर्दशकों के विज्ञावन के लिए कलाकारों को तलाशा. ऐसे करते-करते वह उनकी फिल्मों में असिस्टेंट भी बन गए.

‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ से बदली किस्मत

फिर वर्ष 2005 में वह मुंबई आए. जहां उन्होंने औपचारिक रूप से ”कास्टिंग डायरेक्टर” का काम किया. धीरे-धीरे वह करीब 300 फिल्मों के लिए कास्टिंग कर चुके थे, लेकिन फिल्म ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ ने उन्हें भरपूर शोहरत दिलवाई. साथ ही कास्टिंग की अहमियत से फिल्म इंडस्ट्री को भी रूबरू करवाया.

इस फिल्म में ”मुकेश” ने फिल्म इंडस्ट्री को एक दो नहीं कई कलाकार दिए. जो आज लोगों के दिलों पर राज करते हैं. बहरहाल इस फिल्म से मुकेश छाबड़ा को तो पहचान मिली ही. साथ ही एक्टर पंकज त्रिपाठी, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, (Nawazuddin Siddiqui) राजकुमार राव, विनीत सिंह, हुमा कुरैशी, ऋचा चड्ढा और जयदीप अहलावत जैसे कई कलाकारों को भी अपना टैलेंट दिखाने मौका मिला. हालांकि इस फिल्म के लिए कास्टिंग करना उनके लिए बिल्कुल भी आसान नहीं था, क्योंकि इस मूवी के लिए उन्हें 384 किरदारों को तलाशना था.

राजकुमार और विक्की को भी मुकेश ने ही दिया था पहला मौका 

आपको बता दें कि अभिनेता ”राजकुमार राव” (Rajkummar Rao) को भी ”कास्टिंग डायरेक्टर मुकेश छाबड़ा” ने ही पहला मौका दिया था. मुकेश, राजकुमार को तब से जानते थे जब वह ‘श्रीराम सेंटर ऑफ परफॉर्मिंग आर्ट’ में काम किया करते थे. वो वहा उनके जूनियर थे.

वहीं अभिनेता ”विक्की कौशल” (vicky kaushal) की जिंदगी को भी मुकेश छाबड़ा ने ही बदला है. विक्की की पहली फिल्म ‘मसान’ को राष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुका है लेकिन वो इस फिल्म के लिए डायरेक्टर की पहली पसंद नहीं थे. दरअसल ‘मसान’ के लिए जिस अभिनेता का चयन किया गया था. उन्होंने शूटिंग शुरू करने से पहले ही फिल्म से किनारा कर लिया था, जिसके बाद ”विक्की कौशल” को फिल्म के लिए चुना गया.

स्थानीय कलाकारों का इस तरह करते है चयन

आपको बताते चले कि, एक बार एक इंटरव्यू में ”कास्टिंग डायरेक्टर मुकेश छाबड़ा” ने बताया था कि, ”जहां फिल्म की शूंटिग होने वाली होती है. वो वहां से ही स्थानीय कलाकारों का चयन करते हैं, जिससे कहानी में नयापन के साथ-साथ ताजगी भी आ सके. इससे नए टैलेंट को भी मौका मिल जाता है और कहानी में विश्वसनीयता भी आ जाती है.” वहीं हाल ही में मुकेश छाबड़ा (Casting Director Mukesh Chhabra) ने करीब 30-40 शो और कई फिल्मों की कास्टिंग की है, जिसमें राजकुमार हिरानी की फिल्म ‘डंकी’ से लेकर तुषार हीरानंदानी की सीरीज ‘स्कैम-2’ का नाम शामिल है.

5 राज्यों के विधानसभा चुनाव : नाव में पानी या पानी में नाव

वो तो भला हो बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार का जिन्होंने जातिगत जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक कर 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में जनता की थोड़ी दिलचस्पी पैदा कर दी,नहीं तो चुनाव बड़े नेताओं की रैलियों भाषणों और सरकारी इश्तिहारों में सिमटकर उबाऊ हुए जा रहे थे.

जातिगत जनगणना हालांकि प्रादेशिक मुद्दा नहीं है लेकिन वोटर पर गहरे तक असर डाल रहा है, जो बारीकी से देख रहा है कि इस मसले पर कौन सा दल क्या रुख अपना रहा है. भाजपा पर सवर्णों की पार्टी होने का ठप्पा और गहराना इन राज्यों में उसे नुकसान पहुंचा रहा है तो जाहिर हैं इंडिया गठबंधन ने तगड़ी रिसर्च के बाद ही यह चाल चली है.

तेलांगना और मिजोरम छोड़ कर बाकी तीनों राज्यों मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा और कांग्रेस के बीच सीधा मुकाबला है.साल 2018 के चुनाव में कांग्रेस ने ये तीनों ही राज्य भाजपा से छीन लिए थे लेकिन इसकेबाद 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने फिर बढ़त बना ली थी. इससे यह तो साबित होता है कि मतदाता के पास वोट डालने के राष्ट्रीय अलगऔर प्रादेशिक मुद्दे अलग होते हैं.प्रदेश सरकार का कामकाज और मुख्यमंत्री की इमेज विधानसभा चुनाव में अहम रोल निभाते हैं.

इस बार भाजपा ने प्रधानमंत्री नरेंद्रमोदी का चेहरा आगे कर चुनाव को मोदी बनाम गांधी बनाने का फैसला लिया है जिसमें वह चाहकर भी कामयाब नहीं हो पा रही है क्योंकि हर कोई जानता है कि चुना मुख्यमंत्री जाना है इसलिए उसकी चुनाव पूर्व यात्राओं को खास रिस्पांस नहीं मिला. वोटर को यह एहसास है किनरेंद्र मोदी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी तो चुनावी रैलियों के बाद लोकसभा चुनाव में व्यस्त हो जाएंगे. अपनी चुनी सरकार के जिम्मेदार तो हम ही होंगे तो हम क्यों धरमकरम राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के नाम पर वोट डालें. यह फैसला भाजपा को महंगा पड़ रहा है क्योंकि राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सत्ता विरोधी लहर क्रमश 30 और 20 फीसदी के लगभग ही है जबकि मध्यप्रदेश में 60 फीसदी से भी ज्यादा हैजहां मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को लेकर खासी नाराजी है जिससे खुद भाजपा चुनाव प्रचार के दौरान ही लड़खड़ाती नजर आ रही है.

अपनी दूसरी पंक्ति के नेताओं और मुख्यमंत्री पद के दावेदारों पर दांव न खेलने की नीति से भगवा खेमे में हताशा है और बाहरी और अंदरूनी भितरघात भी उसकी परेशानियां हैं. कार्यकर्ताओं में भी पहले जैसा जोश नहीं दिख रहा है. इन कमियों और खामियों को मोदी नाम के मास्क से ढकने की कोशिश कामयाब होगी इसमें शक है, क्योंकि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता और स्वीकार्यता दोनों में 10 साल में गिरावट आई है. उनके भाषणों की एक सी स्टाइल और रटीरटाई बातों से लोग उबने लगे हैं क्योंकि दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के नागरिक होने के नाते जनता नया कुछ सुनना चाहती है.

इन राज्यों के लगातार चुनावी दौरों से भी नरेंद्र मोदी की साख गिर रही है. ड्राइंग रूम में बैठी महिलाएं भी अगर कभी न्यूजचैनल खोल लेती हैं तो उन्हें देखकर यह कहने से नहीं चूकतीं कि महंगाई तो बढ़ेगी ही जब बेतहाशा खर्च प्रचार पर होगा तो.

कांग्रेस ने अपने प्रादेशिक क्षत्रपों पर ही भरोसा जताकर बुद्धिमानी का काम किया है कि जनता चाहे तो मौजूदा सरकारों और मुख्यमंत्री के नाम पर वोट दे और चाहे तो गांधी परिवार के नाम पर वोट दे दे. आइए देखें किस राज्य में चुनावी माहौल और तस्वीर कैसी है.

मध्यप्रदेश:बहुत स्पष्ट है संदेश

सीट – 230

2018

कांग्रेस – 114 ( 40.89 )

भाजपा – 109 ( 41.02 )

बसपा –   2 ( 1.29 )

2013

भाजपा – 165 ( 44.88 )

कांग्रेस    58 ( 36.38 )

बसपा –   4  ( 6.29 )

साल 2018 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने भाजपा के इस गढ़ में सेंधमारी कर 2019 के लोकसभा चुनाव के मद्देनजर उम्मीद जताई थी कि नरेंद्र मोदी का जादू उतर रहा है लेकिन नतीजे हर किसी की उम्मीद के उलट थे, जिसकी इकलौती वजह थी पुलवामा की एयर स्ट्राइक, जिसकी लहर पूरी हिंदी पट्टी में चली थी.

यानी यह डेढ़ साल वाली कमलनाथ सरकार के कामकाज का मुल्यांकन नहीं था. इसके बाद एक नाटकीय घटनाक्रम में चम्बल इलाके के दिग्गज कांग्रसी ज्योतिरादित्य सिंधिया अपने समर्थक विधायकों सहित भाजपा में शामिल हो गए थे, जिससे कमलनाथ सरकार गिर गई थी. 2021 के उपचुनाव में भाजपा ने 28 में से 19 सीटें जीतकर सरकार बना ली थी और शिवराज सिंह चौहान चौथी बार मुख्यमंत्री बने थे.

अब पांचवी बार भी वे मुख्यमंत्री बन पाएंगे इसकी कोई वजह दूरदूर तक नहीं आती. वह केवल इसलिए नहीं कि आलाकमान यानी मोदीशाह ने उनकी अनदेखी करते बतौर सीएम पेश करने काबिल नहीं समझा बल्कि इसलिए भी कि जनता भी उनसे नाखुश है.

ज्योतिरादित्य सिंधिया की बेईमानी से बनी सरकार को कांग्रेसी नाजायज सरकार कहते हैं तो शिवराज सिंह तिलमिला उठते हैं जबकि प्रदेश की कमान संभालने के बाद खुद को साबित करने उनके पास मुकम्मल वक्त था लेकिन इस दौरान वे बजाय जमीनी काम करने के शो बाजी और सार्वजनिक रूप से धर्म कर्म करने में लगे रहे. इससे जनता कब की उकता चुकी है यह उन्हें बताने वाला कोई नहीं था.

इसमें कोई शक नहीं कि 2013 तक लोग उन्हें पसंद करते थे लेकिन पिछले चुनाव में जनता ने उन्हें चलता कर दिया था क्योंकि शिवराज सिंह आत्ममुग्धता के शिकार हो चले थे. प्रदेश में बढ़ते भ्रष्टाचार और बाबूशाही से भी जनता आजिज आ गई थी जो लगातार बेकाबू हो गई तो मुख्यमंत्री बदलने की मांग उठने लगी. आलाकमान संगठन पर उनके प्रभाव और पिछली सेवाओं के चलते उन्हें हटा नहीं पाया क्योंकि उसे डर फूट्मफाट का था.दूसरी तरफ मुख्यमंत्री की कुर्सी हथियाने आधा दर्जन नेता उधार बैठे थे लिहाजा उसे बेहतर यही लगा कि शिवराज सिंह को ही रहने दिया जाए.

कर्नाटक के नतीजे के बाद आलाकमान चौकन्ना हुआ पर तब तक नर्मदा का बहुत सा पानी वह चुका था इसलिए मोदीशाह की जोड़ी ने तोड़ यह निकाला कि जितने भी दिग्गज दावेदार हैं उन सभी को विधानसभा चुनाव लड़ा दिया जाए. इससे संतुलन भी बना रहेगा, पार्टी की हालत भी सुधरेगी और शिवराज सिंह की दावेदारी खुदवखुद खारिज हो जाएगी. समझदार होंगे तो इशारा समझ जाएंगे,लिहाजा एक चौंका देने वाले फैसले में 3 केंद्रीय मंत्रियों और 4 सांसदों को विधानसभा टिकट दे दिए, इनमें नरेंद्र सिंह तोमर प्रह्लाद पटेल कैलाश विजयवर्गीय के नाम खास हैं.ये सभी मुख्यमंत्री पद के बराबरी से दावेदार हैं.

मुद्दत से केंद्र की राजनीति करते ये नेता अपने डिमोशन से अब दुखी और हैरान परेशान हैं कि शिवराज सिंह के साथसाथ तो हमारे भी पर कुतर दिए गए. अब फिर इस उम्र में जनता के बीच जाकर उसके हाथपांव जोड़ने पड़ेंगे जबकि आदत तो राजाओं सरीखे रहने की पड़ गई है. इस पर भी खुदा न खास्ता अगर हार गए तो राजनैतिक जीवन खत्म.

इस फैसले से भाजपा को फायदा तो कोई होता नहीं दिख रहा, उलटे उसकी छीछलेदार तबियत से हुई. शिवराज सिंह के गृह नगर विदिशा से वायरल हुई एक पोस्ट पर लोगों ने खूब मजे लिए जिसमें कहा गया था कि भाजपा को अगर गारेंटेड जीत चाहिए तो अच्छा तो यह होगा कि विदिशा से नरेंद्र मोदी, गंज बासौदा से अमित शाह, सिरोंज से जेपी नड्डा और शमशाबाद सीट से राजनाथ सिंह चुनाव लड़ लें.

शिवराज सिंह ने भी आलाकमान से सीधे टकराने के बजाय खुद की ब्रांडिंग का तरीका चुना और 45 दिनों में ही बेरहमी से अरबों रूपए विज्ञापनों पर फूंक दिए. टीवी और अखबारों के सरकारी विज्ञापनों से संदेश यह गया कि शिवराज सिंह हमारे भले का कुछ नहीं कर पाए तो जनता का पैसा प्रचार में बर्बाद कर प्रदेश को और कंगाल कर रहे हैं क्योंकि प्रदेश सरकार पहले से ही खरबों के कर्ज में डूबी हुई है.जाहिर है खुद मुख्यमंत्री ने जनता को नाराज करने में कोई कसर नहीं छोड़ी.

चुनाव के ठीक पहले शुरू की गई लाडली बहना योजना जिसे मास्टर स्ट्रोक कहकर प्रचारित किया गया से हर महीने एक हजार रूपए लेने वाली सभी सवा करोड़ महिलाएं खुश नहीं हैं और इसे चुनावी टोटका और शिगूफा करार दे रही हैं.इसके बाद भी भाजपा को इससे थोड़ाबहुत लाभ होगा. लेकिन वह नैय्या पार लगाने बाला होगा इसमें शक है क्योंकि सवर्ण और नौकरीपेशा महिलाएं इससे यह कहते नाखुश हैं कि हजार रूपए महीने से किसी की आर्थिक स्थिति नहीं सुधर सकती. इससे महंगाई और बढ़ेगी और यह पैसा सरकार कमा या कहीं से पैदा नहीं कर रही है यह तो हमारे टैक्स का है.

दलित आदिवासी और मुसलमान तो भाजपा से मुंह मोड़े बैठे ही हैं पर संपन्न पिछड़ों का साथ उसे मिला हुआ है लेकिन ये कुल 50 फीसदी पिछड़ों का एक चौथाई यानी 12.5 फीसदी भी नहीं हैं. आचार संहिता लागू होने के डेढ़ महीने पहले से शिवराजसिंह ने ताबड़तोड़ घोषणाएं की लेकिन उनका कोई भरोसा नहीं कर रहा क्योंकि उनका पूरा हो पानाअसंभव है और वह भी इस शर्त पर कि आप इसके लिए भाजपा और शिवराज को ही चुनें.

इस स्थिति पर वह कहावत लागू होती है कि आप अपना मूल्याकंन इस आधार पर करते हैं कि आप क्या कर सकते हैं जबकि दुनिया इस बिना पर करती है कि आपने अब तक क्या किया.राजनैतिक विश्लेषकों से पहले आम जनता यह कहने लगी है कि इतनी अलोकप्रियता आज तक किसी मुख्यमंत्रीयहां तक कि दिगविजय सिंह के हिस्से में भी नहीं आई थी.

दूसरी तरफ कांग्रेस अपनी वापसी को लेकर आश्वस्त है. उसे भरोसा है कि एंटीइनकम्बेंसी का फायदा उसे मिलेगा और शख्सियत के पैमाने पर भी कमलनाथ शिवराज सिंह पर भारी पड़ते हैं. कमलनाथ हालांकि लोगों की बहुत बड़ी पसंद नहीं हैं लेकिन जैसे भी हैं उनके नाम पर माहौल बन रहा है क्योंकि कांग्रेस में कोई और दमदार चेहरा है भी नहीं.

इस दफा पूर्व मुख्यमंत्री दिगविजय सिंह ने भी कमलनाथ के सामने हथियार डाल दिए हैं. इसके पीछे त्याग या निष्ठा कम भविष्य के लिए अपने बेटे जयवर्धन सिंह को प्रदेश में जमाने की हसरत ज्यादा है. वैसे भी कांग्रेस में होता वही है जो सोनिया राहुलगांधी फरमान जारी कर देती हैं. कमलनाथ जबतब शिवराज पर तीखे तंज कसकर जनता का गुस्सा उनके प्रति और बढ़ा देते हैं, जिसमें दिग्विजय सिंह सहित सारे कांग्रेसी हा में हां मिलाते रहते हैं. तंज शिवराज सिंह भी कमलनाथ पर खूब कसते हैं लेकिन जनता इसे उनकी खीझ समझ खारिज कर देती है.दिग्गज कांग्रेसी रणदीप सिंह सुरजेवाला के भाजपा पर तार्किक और तीखे हमले युवाओं का ध्यान कांग्रेस की तरफ खींचने में कामयाब हो रहे हैं.

प्रदेश में बसपा अपनी जमीन लगातार खो रही है. इस बार तो उसका खाता खुलना ही उसके लिए बड़ी उपलब्धि होगी. आम आदमी पार्टी भी कुछ खास करने की स्थिति में नहीं है. समाजवादी पार्टी विन्ध्य इलाके की 2-4 सीटों पर 5-10 हजार वोट ले जाएगी और कोई दल उलटफेर करने की हालत में नहीं है जिसका फायदा कांग्रेस को मिलेगा लेकिन बड़ा फायदा राहुल और प्रियंका गांधी की सभाओं में उमड़ती भीड़ का उसे 2018 के चुनाव की तरह मिलेगा.

राजस्थान – पक्का नहीं स्थान

सीट 200

2018

कांग्रेस – 100 ( 39.3 )

भाजपा – 73 ( 38.77 )

बसपा –   6 ( 4.03 )

आरएलपी  3 ( 2.40 )

निर्दलीय   13 ( 9.47 )

2013

भाजपा – 163 ( 45.2 )

कांग्रेस  –  21  ( 33.1 )

बसपा –  3 ( 3.4 )

नेशनल पीपुल्स पार्टी – 4 ( 4.3 )

निर्दलीय – 7 ( 6.8 )

मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के मुकाबले कांग्रेस राजस्थान में ज्यादा दिक्कतों और चुनौतियों का सामना कर रही है क्योंकि लम्बे समय तक सचिन पायलट और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच गहरी तनातनी रही.3 बार तो लगा कि सरकार अब गई कि अब गई.

2018 में मध्यप्रदेश की तरह यहां के वोटर ने भी कांग्रेस को बाउंड्री पर ही रखा था. अशोक गहलोत जब मुख्यमंत्री बने थे तब उनके सामने प्राथमिकता जनता कम सचिन पायलट ज्यादा थे कि इन्हें कैसे साधा जाए. हालांकि पिछले 6 महीने से कांग्रेस के लिहाज से सब कुछ ठीकठाक है और अशोक गहलोत डेमेज कंट्रोल में लगे हैं पर जनता पूरी तरह आश्वस्त नहीं है कि सत्ता मिलते ही फिर कांग्रेसी कुनबे में कलह नहीं होगी.

इसी दिक्कत का सामना भाजपा भी कर रही है जो यहां भी नरेंद्र मोदी के चेहरे पर लड़ रही है. वसुंधरा राजे सिंधिया को साइड लाइन करने का थोड़ा ही सही खामियाजा तो भाजपा को भुगतना पड़ेगा.वसुंधरा राजे ने भी अपनी तरफ से 5 साल सुस्ती ही दिखाई जनता के भले के लिए गहलोत सरकार को वे मुंह जुबानी ही घेरती रहीं, जमीनी तौर पर कुछ नहीं किया. वे शायद यह मानकर चल रही थीं कि हर 5 साल में सरकार बदलने का रिवाज कायम रहेगा और सीएम की कुर्सी उन्हें बैठे बिठाए मिल जाएगी. उनका राजसी दंभ टूटा तो भाजपा की तरफ से दर्जनभर दावेदार मुख्यमंत्री पद के पैदा हो गए हैं जिन में लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला केन्द्रीय मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत और अर्जुन राम मेघवाल सहित प्रदेश अध्यक्ष सतीश पुनिया के नाम प्रमुख हैं लेकिन इनमें से कोई भी वसुंधरा राजे जितना वजनदार नाम नहीं है और सब एकदूसरे की टांग खिंचाई में लगे हैं.

पायलट की वजह से दिक्कत में पड़ते नजर आ रहे अशोक गहलोत अब थोड़े सुकून में हैं. जातिगत जनगणना की घोषणा कर उन्होंने राजस्थान में हलचल पैदा कर दी है क्योंकि लम्बे वक्त से यह मांग प्रदेश से उठती रही है जिसे पूरा करने का श्रेय वे ले गए हैं तो जाहिर है इसका फायदा भी कांग्रेस उठाएगी.

दूसरे राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का भी फायदा गहलोत सरकार को मिलेगा लेकिन वह 100 का आंकड़ा पार कर ही जाएगा यह कह पाना मुश्किल है. इसके लिए कांग्रेस को अभी और पसीना बहाना पड़ेगा क्योंकि यहांथोड़ा बहुत प्रभाव बसपा और नेशनल पीपुल्स पार्टी का भी है. खासे वोट इस दौर में भी कम्युनिस्टों को मिल रहे हैं.

पिछले चुनाव में उम्मीद से ज्यादा निर्दलियों ने परचम लहराया था हालांकि अशोक गहलोत ने इन्हें मैनेज करने में कामयाबी हासिल कर ली थी और तोड़फोड़ के सूत्रों का राजनैतिक गणित में सही इस्तेमाल करते बसपा को तो लगभग खत्म ही कर दिया. मायावती की खुमारी अब राजस्थान से भी उतरने लगी है.

जमीनी मुद्दों के बजाय हवाहवाई राजनीति के चलते भाजपा पहले सी आश्वस्त नहीं लग रही. उसके तमाम प्रादेशिक नेता अलाली काटते रहे. पेपर लीक मुद्दे पर वह सरकार को प्रभावी ढंग से नहीं घेर पाई और बढ़ते अपराधों सहित साम्प्रदायिक हिंसा पर भी ढुलमुल रही. अब नरेंद्र मोदी अपनी रैलियों और भाषणों में इन्हें जोरशोर उठा रहे हैं लेकिन ठंडे लोहे पर चोट मारने से कभी किसी को कुछ हासिल नहीं हुआ हांबेवजह का शोर जरुर होता है.

इस बार जातिगत समीकरण साधने में सभी को पसीने आ रहे हैं. राज्य में लगभग 12 फीसदी जाट,8 फीसदी राजपूत, 9 फीसदी गुर्जर और 8 फीसदी मीणा समुदाय के वोटर हैं. इन चारों सम्पन्न समुदायों से हर बार 75 के लगभग विधायक चुनकर आते हैं लेकिन जातिगत जनगणना के बवंडर के बाद 18 फीसदी दलित 10 फीसदी मुसलमान और 13 फीसदी आदिवासी समुदाय भी लामबंद हो रहे हैं.

अब देखना दिलचस्प होगा कि दलित किस खेमे में ज्यादा जाता है अगर वह बंटा तो दिक्कत कांग्रेस को ज्यादा पेश आएगी. यह वोट बसपा और हनुमान बेनीवाल की नेशनल पीपुल्स पार्टी की तरफ ज्यादा झुका तो विधानसभा त्रिशंकु भी हो सकती है. हालांकि कांग्रेस को माली सेनी समाज के 12 फीसदी वोटों की बेफिक्री है क्योंकि खुद अशोक गहलोत इसी जाति के हैं और जातिगत जनगणना के उबाल में एकजुट दिख रहे हैं.

छत्तीसगढ़ में बघेल का खेल

सीट 90

2018

कांग्रेस – 68  ( 43 )

भाजपा – 15 ( 33 )

बसपा –   2  ( 3.9 )

जनता कांग्रेस 5 ( 7.6 )

2013

भाजपा – 49  ( 41  )

कांग्रेस   39  ( 40.3 )

बसपा –   1  ( 4.3 )

कोई भी सियासी पंडित यहां तक कि धर्मार्दी मीडिया भी यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा कि छत्तीसगढ़ में कांग्रेस जा रही है या फिर भाजपा वापसी कर रही है. बिलाशक मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने इस आदिवासी बाहुल्य राज्य को मैनेज कर रखा है और कोई खास नाराजी उनके सरकार के प्रति नहीं है.

कांग्रेस की अंदरूनी कलह भी एक हद तक थमी है लेकिन सरगुजा राजघराने के टीएस सिंहदेव सिर्फ उपमुख्यमंत्री बनाए जाने से पूरी तरह संतुष्ट नहीं है. कांग्रेस या भूपेश बघेल इस कद्दावर कांग्रेसी को कैसे साधकर रखेंगे. यही बात छत्तीसगढ़ के समीकरणों और नतीजों को प्रभावित करेगी. बाबा के नाम से मशहूर सिंहदेव भूपेश बघेल की स्वीकार्यता और लोकप्रियता के आगे हाल फिलहाल तो नतमस्तक हैं लेकिन नतीजों के बाद रहेंगे इसमें शक है.

पिछले चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने अपनी अलग पार्टी जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ बना ली थी जिसने ठीकठाक प्रदर्शन करते 5 सीट झटक भी लीं थी लेकिन इस चुनाव में उसे कुछ खास मिलेगा ऐसा लग नहीं रहा हालांकि बिगाड़ तो वह पिछले चुनाव में भी कुछ नहीं पाई थी. अजित जोगी के बेटे अमित जोगी विरासत संभाले रखने में असफल रहे हैं और पत्नी रेणु जोगी भी ज्यादा दिलचस्पी अस्वस्थता के चलते नहीं ले पा रहीं तय है. उन्हें साफसाफ दिख रहा है कि हाट लुट चुकी है.

उम्मीद थी कि भाजपा रमन सिंह को बतौर मुख्यमंत्री पेश कर मैदान में उतरेगी लेकिन यहां भी चेहरा उसने नरेंद्र मोदी का ही आगे रखा है जो आदिवासियों में बहुत ज्यादा और राहुल गांधी के मुकाबले लोकप्रिय नहीं हैं. वसुंधरा राजे की तरह रमन सिंह भी आम टपकने के इंतजार में 5 साल आराम फरमाते रहे. आम तो नहीं गिरा लेकिन मोदी शाह के फैसले से जो ओले गिरे उन्हें वे न तो समेट पा रहे हैं और न ही गला पा रहे हैं.

बेमन से चुनावी समर में कूदे रमन सिंह के बाद जमीनी नेता ब्रजमोहन अग्रवाल हालांकि पूरा जोर लगा रहे हैं लेकिन भाजपा अगर जीती जिसकी उम्मीद अभी न के बराबर है तो उन्हें मुख्यमंत्री बना ही दिया जाएगा इसकी गारंटी न होना प्रदेश भाजपा का मनोबल गिरा रही है.

राज्य में आदिवासी वोटरों की तादाद 32 फीसदी के लगभग है जबकि दलित वोट 13 फीसदी हैं. ये कांग्रेस का परंपरागत वोट बैंक है जो हिंदुत्व के नाम से ही बिदकता है. इस बार भाजपा के इशारे पर बसपा और गौंडवाना गणतंत्र पार्टी ने गठबंधन किया है लेकिन वह बहुत ज्यादा असरकारी नहीं दिख रहाहालांकि. यह वोटकटवा गठबंधन जितना भी करेगा कांग्रेस का ही नुकसान करेगा. सबसे बड़ी तादाद 47 फीसदी पिछड़ों की है जो भाजपा और कांग्रेस में लगभग बराबरी से बंट जाते हैं. अब जातिगत जनगणना की प्रियंका गांधी कीघोषणा के बाद इनका रुख क्या होगा यह बेहद दिलचस्पी वाली बात होगी. 10 फीसदी ब्राह्मण बनिया सवर्ण वोट भाजपा की तरफ ज्यादा झुकाव रखता है.

भाजपा ने इस साल की शुरुआत में हिंदुत्व कार्ड खेलने की कोशिश की थी. आरएसएस सहित कई धर्म गुरुओं ने हिंदू और हिंदुत्व के नाम पर हल्ला मचाया था लेकिन दलित आदिवासी तो दूर की बात है खुद को सवर्ण समझने लगे पिछड़ों ने ही उनकी बातों पर कान नहीं दिया था क्योंकि लोग कोई फसाद नहीं चाहते. यदाकदा होते नक्सली हादसे जरुर चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं लेकिन नतीजों पर कोई फर्क डालने की स्थिति में नहीं है. कम्युनिस्ट प्रभाव वाला बस्तर अब कांग्रेस के हाथ में है लेकिन भाजपा भी 2-3 सीटों पर असर रखती है.पिछले चुनाव में कांग्रेस 12 में से 11 सीट यहां की ले गई थी.

जब कोई मुद्दा या एंटीइनकम्बेंसी नहीं होती तो वोट नेताओं के व्यक्तित्व पर डलते हैं. इस लिहाज से तो भूपेश बघेल बाकियों पर भारी पड़ते नजर आ रहे हैं जिन्हें बस अपने और कांग्रेस के पक्ष में बने माहौल को बनाए रखना है.

तेलंगाना – त्रिकोणीय लड़ाई में सीधे फंसे केसीआर

समूचे दक्षिण भारत की राजनीति बदलाव के दौर से गुजर रही है और तेलंगाना इससे अछूता नहीं कहा जा सकता. मुख्यमंत्री चन्द्र शेखर राव यानी केसीआर अभी भी थोड़े लोकप्रिय हैं लेकिन वे दक्षिण भारत के एनटीआर, एमजीआर, जयललिता और यहां तक कि चंद्रबाबू नायडू, पिनराई विजयन और सिद्धारमैया जितने प्रभावी साबित नहीं हो पाए तो इसकी एक बड़ी वजह उनकी हर कभी बदलती फिलासफी भी है. हालांकि वे हिंदूवादी नहीं हैं लेकिन धर्मस्थलों खासतौर से मंदिरों के लिए उन्होंने भी खजाने का मुंह पूरी दरियादिली से खोल रखा है. यह दांव उन्हें महंगा भी पड़ सकता है क्योंकि कर्नाटक की तरह तेलंगाना के लोग भी धर्म के नाम पर कोई फसाद चाहने के मूड में नहीं हैं.

अभिवाजित आंध्रप्रदेश की तेलुगु देशम पार्टी के जुझारू नेताओं में से एक रहे 70 वर्षीय  केसीआरपृथक तेलंगाना मुहिमके इकलौते हीरो थे जिसका इनाम उन्हें साल 2014 और 2019 के विधानसभा चुनाव में जिताकर जनता ने दिया भी था. राजनीति में आने से पहले वे कामगारों को खाड़ी देशों में सप्लाई करने का धंधा किया करते थे. इसके बाद उन्होंने टीडीपी ज्वाइन कर ली थी और उम्मीद से कम वक्त में एक पुख्ता जगह आंध्रप्रदेश की राजनीति में बना ली थी.

पिछले विधानसभा चुनाव में उनकी बनाई पार्टी टीआरएस( तेलांगना राष्ट्र समिति ) को 119 में से 88 सीटें 46.87 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. कांग्रेस को इस चुनाव में करारा झटका लगा था. वह पृथक तेलंगाना बनानेके बाद भी 28.43 वोटों के साथ 19 सीटों पर सिमट कर रह गई थी.

भाजपा गिरते पड़ते एक सीट ले जा पाई थी और उसे महज 6.98 फीसदी ही वोट मिले थे. एआईएमआईएम ने ठीकठाक प्रदर्शन करते 2.71 फीसदी वोटों के साथ मुसलिम बाहुल्य इलाकों की 7 सीटें जीत ली थीं क्योंकि उसने टीआरएस से समझौता कर रखा था. तेलेगु देशम पार्टी को भी अपने बचेखुचे प्रभाव का फायदा मिला था जिसने 3.51 फीसदी वोटों के साथ 2 सीट जीत ली थीं.

इसके पहले 2014 के संयुक्त आंध्रप्रदेश विधानसभा चुनाव में टीआरएस के हिस्से में 63 कांग्रेस के खाते में 13 और भाजपा के हिस्से में 5 सीटें आई थीं. एआईएमआईएम ने तब भी 7 सीटें हासिल की थीं.यह वक्त था जब कांग्रेस का ग्राफ पूरे देश सहितआंध्रप्रदेश में भी हैरतंगेज तरीके से गिरा था. इसके पहले उसने 2009 के चुनाव में 294 में से 156 सीटें जीतकर सरकार बनाई थी. इसके बाद वह यहां लड़खड़ाई तो संभल नहीं पाई लेकिन इस चुनाव में वह पहले के मुकाबले काफी मजबूत नजर आ रही है, पांव भाजपा ने भी तेलंगाना में जमाए हैं जिसके चलते मुकाबला त्रिकोणीय हो गया है और केसीआर गफलत में पड़ गए हैं कि इन दोनों में से किसका कितना विरोध करें.

अब हाल यह है कि भारत राष्ट्र समिति यानी बीआरएस बन चुकी टीआरएस के गढ़ में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही सेंधमारी कर रहे हैं लेकिन कांग्रेस आगे दौड़ रही है क्योंकि संगठनात्मक रूप से वह काफी मजबूत है. उसके कार्यकर्ता और समर्थक गांव देहातों तक में हैं.यहां के लोग नरेंद्र मोदी को जाने न जाने लेकिन इंदिरा गांधी आज भी इनके जेहन में है.

कांग्रेस को इस बार बड़ा फायदा अपने परंपरागत 18 फीसदी दलित वोटों की वापसी का मिल सकता है जो पिछले चुनावों में टीआरएस के साथ चले गए थे क्योंकि तेलंगाना बनने के पहले केसीआर ने पहला मुख्यमंत्री दलित बनाने का वादा किया था जो पूरा नहीं हुआ तो दलित समुदाय उन्हें सबक सिखाने उतारू होने लगा है. केसीआर ने हरेक दलित परिवार को 3 एकड़ जमीन देने का वादा भी पूरा नहीं किया है इसलिए भी दलित उन पर खार खाए बैठे हैं.

मल्लिकार्जुन खड़गे को राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाए जाने से तेलंगाना के दलित भी कांग्रेस की तरफ दौबारा झुक रहे हैं. उलट इसके भाजपा कुछ बड़े शहरों औरबड़े तबकों रेड्डीऔर वेलामास के अलावा संपन्न पिछड़ी जातियों गौड़, गोला और मुदिराज तक सिमटी है. उसका जनाधार भी राम नाम या धर्म की राजनीति के चलते बेहद सिमटा हुआ है.

पिछले दिनों हुए सनातन विवाद की कोई हलचल तेलंगाना में देखने में नहीं आई थी. मुसलमान तो भाजपा के साथ हैं हीनहीं, साथ ही दलित और आदिवासी भी उससे दूर ही हैं. सवर्णों और ब्राह्मणों के सहारे भाजपा दहाई का आंकड़ा भी छू ले तो यह उसके लिए बड़ी उपलब्धि की बात होगी.

केसीआर के रूख को लेकर जनता भ्रमित है जो कभी एनडीए की आंख के तारे हुआ करते थे. उन्होंने धारा 370, नोटबंदी और जीएसटी जैसे अहम मुद्दों पर मोदी सरकार का समर्थन किया था. राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव में भी वे भाजपा के साथ खड़े दिखाई दिए थे लेकिन इसके बाद से भगवा गैंग से उनकी तल्खियां इतनी बढ़ गईं कि वे कभी प्रधानमंत्री की आगवानी करने हवाईअड्डे तक नहीं पहुंचे.यह बात खुद नरेंद्र मोदी ने मंच से कही भी थी.राष्ट्रीय राजनीति में छा जाने का सपना देख रहे केसीआर इंडिया गठबंधन का भी हिस्सा नहीं बने.

2019 में 4 लोकसभा सीटें झटक ले जाने वाली भाजपा यहापांव न जमा पाए इस बाबत केसीआर ने आम जनता की भावनाओं की परवाह न करते अनाप शनाप पैसा मंदिरों को देना शुरू कर दिया जो कि बेवजह था. तेलंगाना के मशहूर यदाद्रीमंदिर के लिए आरबीआई से 65 करोड़ रूपए में 125 किलो सोना खरीदने की घोषणा को वोटर ने सहजता से नहीं लिया था.इस मंदिर के लिए उन सहित उनकी पार्टी के कई विधायकों और सांसदों ने स्वर्ण दान भी किया था.

इसी तरह एक और भद्रकाली मंदिर के विकास के लिए भी सरकार ने 20 करोड़ की मदद दी  थी.इस धर्म प्रेम से राज्य के 13 फीसदी मुस्लिम वोटर कांग्रेस की तरफ खिसक सकते हैं जो 45 सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाते हैं. मुसलमानों का आरक्षण खत्म करने की बात भी दहाड़ कर गृह मंत्री अमित शाह सार्वजनिक रूप से कह चुके हैं. यह बात कर्नाटक की तरह कांग्रेस को ही फायदा देगी,जहां के मुसलमानों ने जनता दल एस को छोड़ते कांग्रेस पर भरोसा जताया था.

यह केसीआर की घबराहट और लड़खड़ाते आत्मविश्वास को दिखाते फैसले हैं जबकि जनता उन्हें ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक की तरह तटस्थ और बहुत मजबूत समझती रही थी.रही सही कसर 16 सितंबर को कांग्रेस कार्यकारणी की मीटिंग ने पूरी कर दी, जिस में कद्दावर नेता जुपल्ली कृष्ण राव सहित बीआरएस के कई जमीनी नेताओं ने कांग्रेस का हाथ थामा. इसके पहले हैदराबाद में लगे कुछ हौर्डिंग्स में सोनिया गांधी को तेलंगना तिल्ली यानी तेलांगना की देवी के रूप में दिखाया गया था.

कांग्रेस की ये घोषणाएं भी वोटर को लुभा रही हैं कि वह अगर सत्ता में आई तो महिलाओं को हर महीने 2500 रूपए की वितीय सहायता के आलावा 500 रूपए में गैस सिलेंडर सहित आरटीसी बसों में मुफ्त यात्रा और सभी घरों को 200 यूनिट फ्री बिजली देगी.वोटर को अपनी इन गारंटियों के बाबत कांग्रेस पड़ोसी राज्य कर्नाटक का उदाहरण दे रही है जहां उसके किए वादे पूरे हो रहे हैं.

ऐसे में केसीआर का बड़ा डर कांग्रेस है जो सत्ता विरोधी लहर का फायदा उठाते तेलंगाना की सत्ता हासिल करने कमर कस चुकी है. राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को 16 दिन इस राज्य में भी खासा रिस्पांस मिला था, तब युवाओं के उमड़े हुजूम से बीआरएस और भाजपा दोनों हैरान रह गए थे.

मिजोरम में सीधी टक्कर

पिछले 4 चुनावों की तरह इस बार भी 40 विधानसभा सीटों वाले मिजोरम में एमएनएफ यानी   मिजो नेशनल फ्रंट और कांग्रेस में सीधा मुकाबला है, जिसमें कांग्रेस को वापसी करने में पसीने छूट रहे हैं. हालांकि जेडपीएम( जोरम पीपुल्स मूवेंट ) भी मजबूती से मैदान में है लेकिन इस बार हालात कुछ बदले हुए हैं.

2018 के विधानसभा नतीजों के बाद जब कांग्रेस मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में जीत का जश्न मना रही थी तब मिजोरम की सत्ता छिन जाने का अफसोस मनाने का न तो उसके पास वक्त था और न ही मौका था. इस चुनाव में कांग्रेस महज 5 सीटों पर सिमट कर रह गई थी लेकिन उसका वोट शेयर 29.98 फीसदी था. एमएनएफ को 26 सीटें 37.7 फीसदी वोटों के साथ मिली थीं. जेडपीएम ने 8 सीटें 22.9 फीसदी वोट शेयर के साथ हासिल की थीं.

भाजपा ने एक सीट महज 8 फीसदी वोटों के साथ जीती थी जबकि चुनाव के ठीक पहले कांग्रेस के 4 दिग्गज नेताओं ने उसका दामन थामा था. इसके पहले 2013 के चुनाव में भाजपा को एक भी सीट नहीं मिली थी जिसमें कांग्रेस ने सारे रिकार्ड ध्वस्त करते हुए 34 सीटें 45.83 फीसदी वोटों के साथ जीती थीं.एमएनएफ 28.65 फीसदी वोटों के साथ 5 सीटें जीत पाई थी.

तब कांग्रेस ने फिर से ललथनहवला को मुख्यमंत्री बनाया था जो जनता की उम्मीदों पर किसी भी एंगल से खरे नहीं उतर पाए. दूसरे, हाईकमान ने भी पार्टी की अंदरूनी कलह पर ध्यान नहीं दिया जिसका खामियाजा उसे 2018 में बाहर होकर भुगतना भी पड़ा था. इसके पहले 2008 में भी कांग्रेस ने 32 सीटें जीतकर सरकार बनाई थी.

मिजोरम के इतिहास की तरह वहां की राजनीति भी कम दिलचस्प नहीं है. 90 फीसदी ईसाईयों वाले पूर्वोत्तर के इस राज्य में वोट मूलतय नेताओं की लोकप्रियता और सरकार के कामकाज की बिना पर पड़ते रहे हैं. पिछले 37 सालों से यहां मुख्यमंत्री या तो कांग्रेस के ललथनहलवा रहे हैं या फिर एमएनएफ के संस्थापक लालडेंगा और उनके बाद जोरामथंगा को यह जिम्मेदारी मिली है. इस दौरान कुछ छोटेमोटे दल मिजोरम में बने लेकिन जनाधार के अभाव में खत्म भी होते गए. इस लिहाज सेजेडपीएम को इस चुनाव में खुद को बनाए रखना चुनौती साबित हो सकती है.

कभी पेशे से मजदूर रहे जोरामथंगा यहां के लोकप्रिय और जुझारू नेता हैं जो 1998 से 2008 तक मुख्यमंत्री रहे थे लेकिन उन्हें 2008 में जनता ने खारिज कर दिया था. यही हाल 2018 में ललथनहलवा का हुआ था जो राजनीति में आने से पहले बैंक कर्मी हुआ करते थे.इस बार ऊंट किस करवट बैठेगा यह देखन दिलचस्पी की बात होगी.

80 पार कर चुके इन दोनों बूढ़े नेताओं के व्यक्तित्व की लड़ाई में कौन भारी पड़ेगा और जोरामथंगा के 5 साल के कामकाज का मूल्याकन जनता कैसे करती है. इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस की सीटें मिजोरम में बढ़ेंगी लेकिन वे 21 का आंकड़ा छू पाती हैं या नहीं इसमें सभी की दिलचस्पी है.

रही बात भाजपा की तो वह लड़ाई में न तो पहले कभी थी और न अब है क्योंकि यहां राम श्याम और सनातन वगैरह नहीं हैं. मणिपुर हिंसा का असर मिजोरम पर पड़ेगा इसमें भी शक है क्योंकि जातिगत लड़ाई मिजोरम में न के बराबर है.

मणिपुर हिंसा के बाद मिजोरम के कोई 10 हजार मेतेई समुदाय के लोगों को सरकार ने असम और मणिपुर भेज दिया था और कोई 13 हजार कुकियों को राज्य में आने दिया था. कोई हिंसा न होने देने का श्रेय जोरामथंगा को जनता ने अगर दिया तो कांग्रेस को यहां ज्यादा उम्मीदें नहीं पालना चाहिए.

कमाल की चीज है पैट थेरैपी

आज थेरैपी का जमाना है. आजकल अनेक थेरैपियां पारंपरिक उपचारों की मुख्यधारा में आ मिली हैं. ये थेरैपियां सफलतापूर्वक रोगमुक्ति में सहायक सिद्ध हो रही हैं. इन में से एक है ‘पैट थेरैपी’. इस थेरैपी के तहत पालतू जानवरों, जैसे खरगोश, कछुआ, तोता, गिलहरी वगैरह के म्यूजियम से बच्चे अपने मनपसंद जानवरों को कुछ निश्चित दिनों के लिए घर ले जाते हैं, उन के साथ खेल कर, उन की देखभाल कर के वे बहुत खुश होते हैं और यही खुशी उन के शारीरिक व मानसिक विकास को बढ़ा देती है.

छोटे पालतू जानवरों के सान्निध्य से बीमार लोगों को स्वास्थ्य लाभ कराने की योजना वर्ष 1790 में इंगलैंड के सेनेटोरियम में शुरू की गई थी. आज स्थिति यह है कि वैज्ञानिकों को इस थ्योरी के ठोस प्रमाण लगातार मिल रहे हैं कि पालतू जानवरों के साथ खेलकूद व स्नेह करने से हृदयगति सामान्य होती है, मौन रहने वाले लोग बातचीत करने लगते हैं और शैतान व सदैव अशांत रहने वाले बच्चे शांत हो जाते हैं.

4 साल की उम्र का एक बच्चा असामान्य था. वह चुपचाप घंटों बैठा रहता. उस की अपने आसपास बिखरे खिलौनों में जरा भी रुचि न थी. उस के परेशान मातापिता उसे ‘पैट थेरैपिस्ट’ के पास ले गए. थेरैपिस्ट अपने पालतू कुत्ते को क्लीनिक में ले आया. कुत्ते को देख कर हमेशा चुप रहने वाला बच्चा अचानक बोला- ‘टौमीटौमी.’ उस दिन के बाद से वह बच्चा कुत्ते के साथसाथ थेरैपिस्ट से भी खुल गया. लगभग 10 महीने बाद वह सामान्य बच्चों की तरह बोलने, हंसने व खेलने लगा.

शायद इस के पीछे जानवरों का निश्च्छल प्यार ही होता है जो मनुष्यों को सहज बनाने में मदद करता है. जानवर न तो आप को जवाब देते हैं, न आप से झगड़ते हैं, न आप की आलोचना करते हैं और न ही आप पर रोब जमाते हैं. उन के यही सब गुण आप को अपरिमित आनंद देते हैं. अगर आप में से कुछ लोगों ने पालतू जानवर पाल रखे हैं तो आप को निश्चित रूप से उन के सान्निध्य में शारीरिक व मानसिक सुख अवश्य मिलता होगा और भौतिक जगत में अकेला होने पर भी आप को अकेलेपन का एहसास नहीं होता होगा.

तनाव से राहत

कई बुजुर्ग दंपती, जिन के बच्चे उन के पास नहीं रहते, एक न एक पालतू जानवर पाल कर उसी की देखभाल में अपनी दिनचर्या समर्पित किए रहते हैं. बहुत सी फिल्मी हस्तियां रफी, बफी, सिल्की, शैडी, पैची वगैरह कुत्तों के साथ या किट्टू, परी, फरी, चिट्टी इत्यादि बिल्लियों के साथ मजे में पूरी जिंदगी बिताती हैं. पालतू जनवरों की सूची में चिरपरिचित कुत्तों, बिल्लियों, तोतों, घोड़ों, खरगोशों के साथ ही साथ अजीबोगरीब किस्म के जानवर जैसे अजगर, मगरमच्छ, बिच्छू या रीछ भी होते हैं. हालांकि अब कई पर प्रतिबंध लगा हुआ है.

विदेशों में पैट थेरैपी पर काम किया जा रहा है. इस के तहत जो तथ्य सामने आए हैं वे यह स्पष्ट करते हैं कि पालतू जानवर आक्रामक मनोवृत्ति के इंसान को भी पालतू यानी आनाक्रामक बनाने में सहायक होते हैं. इस के अतिरिक्त मानसिक रूप से परेशान बच्चे या भावनात्मक स्तर पर तनाव    झेलते बच्चे जानवरों के संगसाथ में अपना दुख भूल कर उन के साथ सहज हो कर हंसतेखेलते हैं. राजकुमार सिद्धार्थ के रूप में माई के बाग से आहत हंस की सेवा कर के गौतम बुद्ध ने बाल्यकाल में ही शांति और अहिंसा का संकेत दे दिया था. दलदल में फंसी बग्घी के थके घोड़ों को सहारा दे कर बाहर निकालने वाले अमेरिका के महान राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन का भी यही संदेश था कि पशु हमारे मित्र हो सकते हैं. इन के निस्वार्थ स्नेह का हमें आदरसम्मान करना चाहिए.

डाक्टरों के अनुसार, पशु न केवल मनोवैज्ञानिक लाभ देते हैं बल्कि इन के सान्निध्य में हृदयगति भी असामान्य से सामान्य होती पाई गई है. वे कहते हैं पालतू जानवर पालने वाले हृदयरोगी दूसरों की अपेक्षा अधिक दिन जीवित रहते हैं. यह भी देखा गया है कि जिन के घरों में पशुपक्षी होते हैं और जो उन्हें सच्चा स्नेह देते हैं, वे कम बीमार पड़ते हैं. निश्चित रूप से आने वाली सदी में पालतू जानवरों का सान्निध्य रोगियों के लिए एक सस्ता उपचार साबित होगा.

पशुपक्षियों से प्रेम करें

आज अभिभावकों को चाहिए कि वे अपने बच्चों को एक छोटा जानवर पालने से न रोकें. विकास की प्रक्रिया में पशुपक्षी का यह प्रेम निश्चित रूप से उन्हें मदद करेगा. जो बच्चे जानवर पालते हैं, वे उन की देखभाल कर के शुरू से ही दूसरों की जिम्मेदारी उठाने का पाठ सहज ही सीख जाते हैं. जो स्नेही एवं उदार होते हैं, वे ही जानवर पाल सकते हैं. अपने प्रिय जानवर को समय पर पूरा खाना देना, उसे नहलाना, साफ करना, उस के रहने की जगह, खाने के बतरनों की सफाई, उस के स्वास्थ्य की चिंता करना, उसे प्रतिदिन टहलाना, उस से बातें करना व खेलना आदि सभी क्रियाकलाप बच्चे को अनुशासित व जवाबदेह बनाते हैं.

कामकाज से थक कर लौटने पर घर में घुसते ही पालतू पशुपक्षी का हर्षोन्माद, उस की आंखों से प्यारभरा स्वागत और निश्च्छल प्रेम पा कर थकान काफूर हो जाती है. आप का अवसाद पलभर में दूर हो जाता है, वह भी साल के 365 दिन. ऐसा आप के अपने बच्चे या घर के अन्य सदस्य भी नहीं कर सकते.

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