story in hindi
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सर्दी का मौसम और जुकाम का प्रकोप कोई अस्वाभाविक बात तो नहीं है लेकिन इस साल के सर्द मौसम में छींकना भी कठिन हो रहा है. वाह रे, स्वाइन फ्लू. तेरे भय ने तो सब लोगों की नींद ही उड़ा दी है. लोगों का बस, यही प्रयास है कि चाहे जो कुछ हो जाए लेकिन जुकाम न हो. सर्दी से बचने के लिए हर कोई इस कदर एहतियात बरत रहा है कि कहीं उसे भूल से भी जुकाम न हो जाए.
हमारे एक मित्र लाख कोशिशों के बाद भी जुकाम के शिकार बन गए. जुकाम हुआ तो छींक आनी भी स्वाभाविक थी, लेकिन छींक आते ही जैसे विस्फोट हो गया. उस दिन बस से अपने आफिस जा रहे थे कि न जाने कैसे भीड़ भरी बस में अचानक छींक आ गई.
उन का छींकना था कि सिटी बस में जैसे हड़कंप सा मच गया. उस समय का दृश्य तो वाकई बहुत डराने वाला लगा. बस के यात्रीगण हमारे मित्र को ऐसी शिकायत भरी नजरों से देख रहे थे जैसे उन्होंने कोई बेहद संगीन अपराध कर दिया हो. लोगों का छींक के प्रति डर ने बस में ऐसी अफरातफरी मचाई कि ड्राइवर ने इमरजेंसी ब्रेक लगा कर बस को रोका और एक स्वर में बस के यात्री हमें बस से तुरंत बाहर निकालने पर उतारू हो गए. सभी यात्रियों के विरोध के आगे हमारे मित्र को झुकना पड़ा और बस से उतर कर वे पैदल ही आफिस कूच कर गए. उन की हालत ऐसी थी जैसे समाज बहिष्कृत किसी अभागे की हो सकती है.
केवल छींकने मात्र से लोग यह मान बैठे थे कि ‘स्वाइन फ्लू’ का संक्रमण फैलाने का ठेका उन्होंने ही ले लिया हो. दूर भागते लोगों की अफरातफरी ऐसा दृश्य उपस्थित कर रही थी जैसे 26/11 के मुंबई के ताज होटल पर आतंकी घटना के समय रहा होगा. छींकने वाले शख्स को छींक आने की आशंका मात्र से लोग भाग खड़े होते हैं, भय के माहौल में उन की दौड़भाग दूरी बनाने के लिए स्वाभाविक है.
आस्ट्रिया के चांसलर मेटरनिक के बारे में 19वीं सदी में एक कहावत बड़ी प्रचलित थी कि जब मेटरनिक को जुकाम होता था तब पूरा यूरोप छींकता था. जुकाम आस्ट्रिया के चांसलर को और छींकना पूरे यूरोप का. है न वाकई विलक्षण उदाहरण, लेकिन यहां इस वाक्य का लाक्षणिक अर्थ इतना भर है कि मेटरनिक इतना महत्त्वपूर्ण व्यक्ति बन गया था कि वह जो कुछ भी करता था उस का सीधा असर संपूर्ण यूरोप की जनता पर पड़ता था.
आजकल जुकाम का खौफ छाया हुआ है. ‘स्वाइन फ्लू’ का डर हर तरफ दिख रहा है. डाक्टरों की चांदी हो रही है तो तथाकथित ‘झोलाछाप’ डाक्टर भी चांदी काटने में पीछे नहीं. अस्पताल, नर्सिंग होम में मरीजों का सैलाब उमड़ रहा है तो मेडिकल शौप भी ग्राहकों की आवाजाही से रौशन हो रही हैं. जुकाम न हो जाए, बस इसी चिंता में लोग एडवांस में ही उपचार कराते फिर रहे हैं. धड़ाधड़ दवाइयां खरीदीबेची जा रही हैं. बिना सोचेसमझे लोग दवाइयां ऐसे खा रहे हैं जैसे मिठाइयों की मुफ्त की लूट मची हो.
साधारण जुकाम से पीडि़त हमारे मित्र उस दिन जैसे ही आफिस तशरीफ लाए कि उन की हालत देखते ही आफिस में हड़कंप मच गया. आननफानन में स्टाफ सेक्रेटरी ने एक इमरजेंसी मीटिंग काल कर डाली. बौस पर दबाव डाल कर हमारे मित्र महोदय को फौरन आफिस से घर भेज दिया गया ताकि वे अच्छे से इलाज करा सकें. बौस जो छुट्टियां स्वीकृत करने में हमेशा आनाकानी करते हैं, उस दिन उन्होंने फौरन एक सप्ताह की छुट्टी स्वीकृत कर उन्हें यथाशीघ्र घर भिजवाने के लिए टैक्सी मंगवा दी. स्टाफ ने स्वयं ही टैक्सी का किराया भी एडवांस में चुकता कर दिया.
उस दिन इमरजेंसी मीटिंग में कुछ नए नियम भी निर्धारित हुए. अब आफिस में हाथ हिला कर अभिवादन करने पर तुरंत प्रभाव से प्रतिबंध लगा दिया गया. जुकाम की क्षीण सी संभावना मात्र से ही आफिस आने पर रोक लगा दी गई. आफिस खर्चे से मास्क खरीदे गए और उन्हें धारण करना अनिवार्य बना दिया गया.
अगर देखा जाए तो आजकल ‘मास्क’ पहनना मजबूरी के साथसाथ फैशन भी बन गया है. अच्छे स्टैंडर्ड क्वालिटी के ‘मास्क’ धारण करने वाले लोग अब अपने को ‘हाईजेंट्री क्लास’ के ‘एक्टिव’ समझने लगे हैं. ‘मास्क’ नहीं खरीद पाने वाले बेचारे समाज के निम्न, गरीब, साधनविहीन की श्रेणी में आ गए हैं. उन्हें अब अपनी किस्मत पर शिकायत होने लगी है. वाकई उस ने दुनिया में 2 वर्ग के लोग पैदा किए हैं. कार्ल मार्क्स की ‘हैव्ज’ और ‘हैव्ज नाट’ की विचारधारा उन्हें चरितार्थ होती नजर आ रही है. मास्क लगाने वाले संपन्न वर्ग के पास सबकुछ है तो दूसरे वर्ग के पास कुछ नहीं.
मित्र महोदय अपने घर पहुंचे तो घर का माहौल भी बदल गया. उन्हें इस नई भूमिका में देख कर उन के परिजन भी मारे डर के उन से दूर भागने लगे थे. उन का गुनाह सिर्फ इतना सा था कि घर में पैर रखते ही उन्हें दोचार छींकें आ गई थीं. इतनी सी बात कालोनी और फिर मीडिया के द्वारा शहर भर में हौट न्यूज बन कर आग की तरह फैल गई. काम वाली बाई और आसपास के तमाम लोगों ने उन से अभेद्य दूरी बना ली. जैसे साक्षात में वे ‘स्वाइन फ्लू’ के लाइवड्रिस्ट्रीब्यूटर बन गए हों. जुकाम पीडि़त व्यक्तियों को 2 मोर्चों को एकसाथ फेस करना पड़ता है. एक तो अपने घर के परिजनों से तो दूसरे बाहरी लोगों से, जिन्हें समझाना बेहद मुश्किल होता है.
सर्दी की ऋतु में ब्याहशादी का सीजन भी जोर पकड़ने लगा है. धड़ल्ले से शादीब्याह निबटाए जा रहे हैं तो बेचारे दूल्हेदुलहनों को दूसरी ही चिंता सता रही है. उन के हनीमून भी मास्क पहन कर ही संपन्न हो रहे हैं. डाक्टरी सलाह दी जा रही है कि भीड़भाड़ वाले इलाकों से दूर रहें. अब भला ब्याहशादी से कैसे दूर रहा जा सकता है. कुछ अति समझदार दूल्हे व दुलहन मास्क पहन कर ही ब्याह रचा रहे हैं. दांपत्य जीवन भी खतरे में पड़ता जा रहा है. रोमांस, सुख की जगह डर पैदा करने लगा है.
स्कूलकालेज में छुट्टियां हो जाने से विद्यार्थी वर्ग आनंदित है. जहां छुट्टियां नहीं हैं वहां छोटेछोटे बच्चे भी स्कूल का टाइम होते ही छींकना शुरू कर देते हैं. पेरेंट्स बेचारे उन्हें स्कूल न भेज कर सीधे डाक्टरों के क्लीनिकों पर ले दौड़ते हैं. स्कूल से भागने का मन हो तो चालाक विद्यार्थी इस अचूक नुस्खे का प्रयोग कर के टीचरों से घर जाने की ससम्मान अनुमति पा लेते हैं.
अमीरीगरीबी हमारे पौराणिक सिद्धांतों के अनुसार पिछले जन्मों का परिणाम है पर असलियत यह है कि बहुत कम मारवाड़ी या गुजराती बिलकुल फटेहाल मिलेंगे और बहुत कम ब्राह्मण अरबोंखरबों से खेल रहे होंगे. अमेरिका के लेखक रौबर्ट कियोस्की की किताब ‘रिच डैड पूअर डैड’ की टैग लाइन ही है, ‘ऐसा क्या है जो अमीर बाप अपने बच्चों को पैसे के बारे में सिखाते हैं और गरीब बाप नहीं.’
उदाहरण के लिए एक गरीब का बेटा अपने घर में एअर कंडीशनर के लिए मांग करता है. गरीब बाप तुरंत उत्तर देगा, “मेरे पास इतना पैसा नहीं है, यह हमारी हैसियत नहीं है.’’
अमीर बाप का बेटा एक एअरकंडीशंड बड़ी कार की मांग करता है पर अमीर बाप के पास बेटे को एअरकंडीशंड कार के पैसे नहीं हैं पर वह कहेगा, “सोचो, हम कैसे एअरकंडीशंड बड़ी कार खरीद सकते हैं.”
पहले मामले में बेटे का दिमाग काम करना बंद कर देगा. एअरकंडीशनर तो खरीदा ही नहीं जा सकता. दूसरे का बेटा उपाय ढूंढ़ना शुरू करेगा कि कैसे वह भी पैसा लगाए ताकि एअरकंडीशंड बड़ी कार खरीद सके.
पहले की इच्छा कभी पूरी नहीं होगी पर दूसरा कहीं पैसा बचाएगा, कहीं काम कर के अतिरिक्त पैसे जोड़ेगा, स्कौलरशिप पर पढ़ने की कोशिश करेगा.
अमीर बापों का कहना कि टैक्स असल में समाज का अमीरों पर सजा है कि उन्होंने इतना क्यों कमाया, इसलिए वे इतना कमाते हैं कि टैक्स देने के बाद भी शान से रह सकें.
गरीब बाप का कहना होता है कि अमीर उन से पैसे छीन लेते हैं और सरकार उन से कुछ हिस्सा टैक्स में ले कर गरीबों में फिर सुविधाओं के रूप में बांट देती है. गरीब बाप अब सरकार (भारत में मंदिर पर) निर्भर हो जाता है और जितना काम करता है, उसे काफी समझता है और अपने बेटे को हमेशा गरीबी में पालता है.
अमीर बाप अकसर कहते हैं कि तुम अच्छा पढ़ो ताकि इतनी अक्ल हो कि बिजनैस शुरू कर सको. गरीब बाप कहता है कि अच्छा पढ़ो ताकि किसी कंपनी में लगीबंधी नौकरी मिल सके.
पहले को अगर किसी वजह से बाहर नौकरी करनी होती है तो वह उसे ट्रेनिंग समझता है, दूसरा नौकरी मिल जाने को अंतिम पढ़ाई मानता है. पहला ट्रेनिंग खत्म कर के सालदरसाल मेहनत कर के अपना व्यवसाय खड़ा करता है, दूसरा लगेबंधे वेतन में छोटे मकान में रह कर सरकार और समाज को कोसता रहता है.
मुसीबत आने पर गरीब बाप साहूकारों, मंदिरों, सरकारों, मुफ्त खाने या इलाज के रास्ते ढूंढ़ता है, अमीर बाप किसी भी तरह की आर्थिक समस्या आने पर समस्या से उबरने के लिए हाथपैर मारता है. वह लाइफगार्ड का इंतजार नहीं करता, मुसीबत उसे मजबूत बनाती है.
अमीर बाप अकसर चुस्त रहते हैं, अपनी सेहत का खयाल रखते हैं. अच्छे व मंहगे रेस्तराओं में खाते हैं पर हिसाब से. गरीब बाप लंगरों की खोज में रहता है और टीवी पर बकवास का मजा लेता है. अमीर बाप टीवी पर वे फिल्में देखता है जिन में संघर्ष दिखाया गया हो, गरीब बाप ऐसी फिल्में देखता है जिन में चमत्कार दिखाए जाते हैं.
सलीम जावेद की फिल्म ‘शोले’ में जय और वीरू दोनों सिर्फ 2 होते हुए भी गब्बर सिंह के गैंग का मुकाबला करने को तैयार हो जाते हैं क्योंकि उन्हें अपनेआप पर भरोसा है. फिल्म उन दोनों की हिम्मत की कहानी है जिस में कोई चमत्कार नहीं होता, कहीं से देवीदेवता प्रकट हो कर गब्बर सिंह को नहीं मारते. सैंकड़ों फिल्में बनी हैं, कुछ सफल भी हुई हैं, जिन में नायक या नायिका पर किसी देवीदेवता या पुलिस की कृपा हो जाती है. फिल्म ‘शोले’ न जाने क्यों इस से बचा है. यह फिल्म की सफलता का कारण है या नहीं पर कम से कम फिल्म का संदेश तो है.
समाज असलियत में जानबूझ कर गरीबों का सांत्वना देने की साजिश में उन्हें आलसी और निकम्मा बनाता है ताकि वे पीढ़ी दर पीढ़ी उसी भरोसे में रहें कि हम गरीब हैं तो यह हमारा दोष नहीं है. गरीबों के दोस्त, रिश्तेदार एक ही भाषा बोलते हैं. उन्हें सब से बड़े और प्रभावशाली सलाहकार, धर्म के दुकानदार हमेशा यही कहते रहते हैं कि ऊपर वाले पर भरोसा करो, दिन अवश्य फिरेंगे, यही ज्ञान गरीब बाप अपने बेटे को देता है.
अमीर बाप को यह सलाह पसंद नहीं आती. वह धर्म के पाखंड को ऊपरी तौर पर मानता है, चर्च, मसजिद, मंदिर जाता है. पर उस की निगाहें इस ओर लगी रहती हैं कि कैसे पैसे कमाया जाए नकि कैसे पैसे को अपनेआप पाया जाए. शायद वह इसलिए भी धर्म की दुकान की पूरी आर्थिक सहायता करता है क्योंकि वह गरीब खुद भी उस का कर्मचारी भी है, ग्राहक भी जिस से अमीर को फायदा होता है. वह अपनी संतानों में धर्म में अंधविश्वास करना नहीं सिखाता. उसे सदियों से बताया गया है कि अमीर बने रहना है तो ज्यादा जनता का गरीब बने रहना जरूरी है. वह अपने बेटों को स्विट्जरलैंड स्कीइंग के लिए भेजता है जिस में टांग टूटने का डर भी रहता है, सिर्फ तिरुपति नहीं, जहां वह सामाजिक रस्म निभाने जाता है और यही बेटे को कराता है.
गरीबी और अमीरी अगर पीढ़ी दर पीढ़ी दर चल रही है तो पिताओं के कारण, जो गलत व सही उदाहरण पेश करते हैं. एक अपने बेटे को बचपन से पैसा का सदुपयोग सिखाता है, दूसरा, पैसों के अभाव में जीना सीखता है. एक पैसा कमाने की प्रेरणा देता है, दूसरा कम में संतोष करना सीखाता है.
हमारे यहां जाति व्यवस्था है पर लाखों गरीब ब्राह्मण मिल जाएंगे. लाखों गरीब श्रत्रिय मिल जाएंगे. लाखों गरीब वैश्य मिल जाएंगे पर हर गरीब वैश्य पिता की शिक्षा के कारण कुछ नया कर के पैसा कमाना चाहता है. गरीब ऊंची जातियों के लोगों की सोच में जन्म से पाई गरीबों की भाषा घुस जाती है और वे पीढ़ी दर पीढ़ी वहीं के वहीं रहते हैं.
एलोन मस्क आज अमीर हैं तो इसलिए कि उस ने उस काम को किया जो दूसरे सिर्फ सोच रहे थे. मार्क जुकरबर्ग कुछ लिखे बिना लेखकों का मालिक बन बैठा. यह उन की उस शक्ति का परिणाम है जो उन के पिताओं ने दी. दोष भाग्य, देश के कानून, समाज की व्यवस्था में भी है पर मुख्य बात पिता की सही शिक्षा है जो अमीरों के बच्चों को पहले से ही रेस में आगे कर देती. यह उन के पिता की संपत्ति का कमाल नहीं है, यह उन के पिता की शिक्षा है जो चाहे उस ने शब्दों में दी या उदाहरणों में, पर कमाल करती है.
केंद्र में बैठी भाजपा सरकार ने 2 सितंबर को ‘वन नेशन, वन इलैक्शन’ के लिए 8 सदस्यीय कमेटी का गठन किया. इस कमेटी के अध्यक्ष पूर्व दलित राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को बनाया गया, अन्य सभी 7 सदस्यों के चयन से साबित हुआ कि यह भाजपा सरकार का विमर्श नहीं देश पर नोटबंदी, जीएसटी जैसा जजमैंट है.
इस का मतलब यह कि अगर यह लागू होता है तो देश में जनता एक बार वोट डालेगी, फिर उन्हें 5 सालों तक खामोश कर दिया जाएगा.
मूल सवाल यह है कि सरकार की प्रायोरिटी क्या है? वह आखिर ‘वन नेशन वन इलैक्शन’ को इतना अहमियत क्यों दे रही है, जबकि आज न जाने कितनी ही समस्याएं लोगों के सामने खड़ी हैं? सवाल यह कि क्या ‘वन नेशन वन इलैक्शन’ से पहले वन एजुकेशन नहीं हो जाना चाहिए था?
देश में दोहरी शिक्षा नीति है, जिस के पास पैसा है वह इस के दम पर महंगी व अच्छी शिक्षा ले सकता है, वहीं गरीबों के बच्चे 20वीं सदी के टीनटप्पर वाले स्कूलों में पढ़ाई करते रहें, उन्हें उन के भाग्य पर छोड़ दिया गया है. यह ढांचा ही गरीबों को गरीब बनाए रखने का सब से बड़ा जरीया बना हुआ है.
हिंदी पट्टी के काऊ स्टेट को छोड़ भी दिया जाए तो शिक्षा की कथित “क्रांति” करने वाली राजधानी दिल्ली, जिस की आप सरकार पासिंग परसैंटेज को ही सरकारी स्कूलों की बेहतरी मान अपनी पीठ थपथपाती है, क्या प्रेम नगर में पूड़ी वाले और पटेल नगर के खत्ते वाले के नाम से मशहूर राजकीय स्कूलों को बाराखंबा के मौडर्न स्कूल व पूसा रोड के सैंट माइकल स्कूल के बराबर मान सकती है?
दिल्ली की शिक्षा “क्रांति” एक नजर साइड रख दें, तो उत्तर प्रदेश, बिहार, उत्तराखंड, मध्य प्रदेश के सरकारी स्कूल के बच्चे डीपीएस, सैंट जौन, स्कौटिश, सैंट जेवियर, शिव नाडर, स्टेप बाय स्टेप, लोयला, दून स्कूल, सैंट कोलंबस जैसे स्कूल में पढ़े बच्चों के सामने भला टिक पाएंगे?
जाहिर है, सरकारी स्कूलों में पढ़ कर बच्चे आगे जा कर आधुनिक मजदूर ही बनते हैं, जिन का काम नए आधुनिक मशीनों में लिखी इंस्ट्रक्शन समझ पाने तक ही सीमित रहता है.
बात हैल्थ की, सरकार के लिए क्या जरूरी है? क्या इस से पहले ‘वन ट्रीटमेंट’ जैसी चीजें नहीं मिलनी चाहिए? कोरोना ने देश की बैंड बजा कर रख दी, सरकार ने कितना ही दुनिया के सामने अपनी इज्जत छुपाने की कोशिश की हो, लेकिन श्मशान घाटों में जलती चिताओं और गंगा में बहती लाशों ने तो हकीकत जगजाहिर कर ही दी.
कोरोना ने लोगों को तड़पाया, सरकारी अस्पतालों की भारी कमी को देश ने देखा. जिन के पास पैसा था उन्होंने ट्रीटमेंट लिया, उन्हें बचने का अवसर मिला. लेकिन जिन के पास पैसा नहीं था वो तो अनाम मौत दर्ज हो गए. हर गली में एक आदमी निबट लिया और खाते में भी नहीं चढ़ा. क्या सरकार की प्रायोरिटी ज्यादा अस्पताल नहीं होने चाहिए, सभी को बेहतर स्वास्थ्य सुविधा नहीं होनी चाहिए, जहां लोग सड़ते हुए मर न जाएं, बल्कि इलाज के बाद ठीक हो कर घर आएं?
देश की 80 करोड़ आबादी अभी भी सरकारी राशन पर गुजरबसर कर रही है. उन की आय इतनी नहीं कि वे इस महंगाई में घर का गुजारा चला सकें. प्रति व्यक्ति आय लगातार सिकुड़ रही है. क्या सरकार की चिंता “वन नेशन वन इलैक्शन” से पहले क्या इस बात पर नहीं जागी कि गरीबों के लिए सम्माजनक इनकम वाले जीवन को साकार किया जाना चाहिए, जहां वे अपने बच्चों के लिए एक बेहतर भविष्य की कामना कर सकें?
बात ‘वन’ की हो ही रही है, तो ‘वननैस’ क्या देश के लोगों का नहीं होना चाहिए? सरकार चुनाव एक ही बार में करवा लेना चाहती है, लेकिन देश के लोगों को एक नहीं कर पा रही, बल्कि सत्ता में बैठे नुमाइंदे खुद इस खाई को बढ़ाने के काम में लगे हुए हैं. दलितों को मंदिरों में जाने से पीटा जाता है, उस मंदिर में जहां का पुजारी सवर्ण होता है. दलितों के छूने भर से सवर्णों में झुरझुरी दौड़ पड़ती है.
जाहिर है, सरकार के इस नए एजेंडे में कारपोरेट का तड़का भी मिला हुआ है. ‘अदानीमोदी का रिश्ता क्या है?’ यह कल तक विपक्ष के नेता राहुल गांधी पूछ रहे थे, उन के इस सवाल को आम लोग सही मानने लगे हैं. ‘एक देश एक चुनाव’ के एजेंडे से यह साफ हो जाता है कि अदानी जैसे व्यापारी अब बारबार चुनावी पार्टियों में पैसा झोंकने को तैयार नहीं. वे एक ही बार में निबटा लेना चाहते हैं.
वहीं देश के संघीय ढांचे को चुनौती देता यह भाजपाई एजेंडा कैसे सफल होगा, देश की पार्टियां तैयार होंगी कि नहीं, राज्यों की आधी सरकारें मानेंगी कि नहीं, इस से लोकतंत्र को कितना नुकसान पहुंचेगा, यह सवाल अभी पकने लगेंगे, लेकिन भाजपा जरूर फिलहाल इस मुद्दे से महंगाई, बेरोजगारी, अर्थव्यवस्था, गरीबी जैसे मुद्दों से ध्यान भटकाना चाहती है.
पूर्वोत्तर भारत की भौगोलिक स्थिति कुछ ऐसी रही कि यह लंबे समय तक शेष भारत से अलगथलग जैसा रहा. ऐसी बात भी नहीं कि पूर्वोत्तर से हम बिलकुल अपरिचित भी रहे हों. तेल का पहला कुआं यहां मिलने से यह चर्चा में तो था ही, चाय के विशाल बागान और वन संपदाओं के लिए भी यह क्षेत्र जाना जाता था. हमारे कुछ व्यापारिक भाई और बंगाली भद्रजन भी इधर आतेजाते ही रहे थे. फिर भी पहली बार इधर हमारी भरपूर नजर तब पड़ी, जब विभाजन के वक्त यह भारत में शामिल होने के लिए आंदोलित हुआ. दूसरी बार तब, जब चीन ने वर्ष 1962 में इधर आक्रमण किया. हम गुवाहाटी, तेजपुर, डिब्रुगढ़ आदि नामों से परिचित हुए.
मगर इधर हुए तेजी से विकास कार्यों ने पूर्वोत्तर की तसवीर बदली है. उग्रवाद, अलगाववाद, आतंकवाद लगभग समाप्तप्राय हुआ, तो यहां बहुतकुछ बदलाव आए. शेष भारत ने पूर्वोत्तर को समझना और सहयोग करना आरंभ किया तो यहां की तसवीर बदली. अब यहां के स्थानीय युवा शिक्षा और रोजगार के लिए दक्षिण के बेंगलुरु, हैदराबाद, चेन्नई से ले कर उत्तर के दिल्ली, जयपुर, चंडीगढ़ आदि में भरपूर मिलेंगे. अन्य राज्यों के शहरों में भी उन की अच्छी संख्या देखी जा सकती है.
पूर्वोत्तर में पर्यटन के शौकीनों को यह जान लेना चाहिए कि यहां भव्य विशालकाय किले और महल नहीं मिलेंगे. महंगे, भारी स्वर्णाभूषणों और हीरेजवाहरात से सुसज्जित देवीदेवताओं के ऊंचऊंचे मंदिर और मठ नहीं मिलेंगे. कारण यह कि यह क्षेत्र भूकंप केंद्रित रहा है. इसलिए यहां के लोग हलके, ढलवां छत वाले मकान आदि ही बनाते रहे हैं. यहां तो बस नैसर्गिक, प्राकृतिक दृश्य और अछूती विशिष्ट श्रेणी की रोमांचक चीजें मिलेंगी. यहां के जीवन में विविधता और सरलता है और यही चीजें हमें आकर्षित भी करती हैं.
पूर्वोत्तर में जाने के लिए पहला पड़ाव तो सिलिगुड़ी ही है. इसे भारत का चिकेननेक भी कहा जाता है. भारत के नक्शे में इसे देखें. बिलकुल पतली सी पगडंडी समान है यह, जो पूर्वोत्तर को भारत से जोड़े हुए है और जिस का सामरिक महत्त्व है. वैसे, सिलिगुड़ी और जलपाईगुड़ी हैं तो पश्चिम बंगाल में, मगर पूर्वोत्तर के प्रदेश सिक्किम में जाने के लिए यहां आना ही पड़ेगा. आप यहां कश्मीर से कन्याकुमारी तक, कहीं से भी सीधे सिलिगुड़ी या जलपाईगुड़ी स्टेशन पहुंच सकते हैं, क्योंकि अब यहां से सीधी ट्रेनसेवा है.
कोलकाता से तो बस से भी पहुंचा जा सकता है. वैसे, सिलिगुड़ी में बागडोगरा हवाईअड्डा है, जहां दिल्ली या कोलकाता से सीधी विमानसेवा है, उस से भी पहुंचा जा सकता है.
सिक्किम
ऊंचे पर्वतों और खाइयों से घिरे इस राज्य में हरियाली ही हरियाली दिखती है. बात भी सही है. आखिर शिखर पर जब बर्फ से ढके पहाड़ हों, तो नीचे हरियाली रहनी ही है. यहां के प्राकृतिक दृश्य, विविध रंगों से परिपूर्ण जीवनशैली और हरीतिमा दर्शनीय तो हैं ही, दूध के समान बहती पहाड़ी नदियों को देखना भी सुखद है.
आमतौर पर यहां का जीवन शांत और सरल है. मुख्यतया सिक्किम के स्थानीय बौद्धों और उन के भव्य विहारों व मठों को देखा जा सकता है. इन के सामने सफेद या रंगीन पताकाओं की श्रृंखलाएं जैसे पर्यटकों से मौन वार्त्तालाप करती हों. यहां का नैसर्गिक सौंदर्य और रोमांचक वन्यजीव रोमांचित करने के लिए काफी हैं.
सिक्किम में अनेक स्थल हैं, जिन का पर्यटन की दृष्टि से विशेष महत्त्व है और पर्यटकों को अपनी तरफ आकर्षित करने में सक्षम हैं. यहां गंगटोक, ताशी व्यू पौइंट, रूमटेक, आर्किडेरियम, सरमसा गार्डन, लच्छुंग, यूमठंग, यूकसम, गोइछाला, रवोंगला, नाथूला सीमा आदि हैं, जिन्हें देख कर मन मुग्ध हो जाता है.
सिलिगुड़ी या जलपाईगुड़ी से सिक्किम जाने के लिए बससेवा तो है ही, इस के अलावा टैक्सियां भी हैं, जिन्हें स्वतंत्र रूप से या शेयर में भी बुक किया जा सकता है.
गंगटोक सिक्किम की राजधानी है. यह प्राकृतिक दृश्यों से परिपूर्ण है. दूरदूर तक जहां तक नजर जाती है, सीढ़ीनुमा खेत दिखाई देंगे, जो पूर्वोत्तर भारत की खासीयत हैं. ढलवा छत वाले झोंपड़ीनुमा मकान दिखेंगे. हांलाकि, अब समृद्धि के साथ बहुमंजिले भव्य मकान भी दिखने लगे हैं. हर पहाड़ के आगेपीछे दूधसमान जलधारा के झरने दिखेंगे. यदि बारिश हो जाए, तो इन की रफ्तार और तेजी देखते बनती है. गंगटोक से हिमालय की बर्फ से लदी कंचनजंघा पर्वत चोटी की शोभा देखते बनती है.
जनजातीय समुदायों में पहाड़ों के साथ झीलों को भी समान महत्त्व दिया जाता है और ऐसे में तिसांगु झील देखने जाना ज्यादा रोचक है. यहां नौकाविहार का आनंद लिया जा सकता है.
गंगटोक के पास ही डियर पार्क है, जिसे देख सकते हैं. आर्किड की लगभग 500 प्रजातियां सिक्किम में पाई जाती हैं. सो, इस के लिए आर्किडेरियम है, जहां आर्किड की किस्में और अन्य दुर्लभ प्रजाति के पौधे भी देखने को मिलते हैं.
पर्वतारोहण और ट्रेकिंग के लिए सिक्किम का विशेष स्थान है. इस के शौकीन पर्यटक इस के लिए सिक्किम का ही रुख करते हैं. सिक्किम का मुखौटा नृत्य बहुत प्रसिद्ध है. किंतु यह खास अवसरों पर ही देखने को मिल सकता है.
प्राचीन काल में चीन जाने का एक सिल्क रूट यानी रेशम मार्ग सिक्किम के नाथूला सीमा से ही होबीकर जाता था, तब सिक्किम के बगल में तिब्बत था. अब तिब्बत के चीन में विलय हो जाने के कारण नाथूला भारतचीन सीमा का प्रवेशद्वार है. यहां जाने का रास्ता काफी रोमांचक और जोखिम भरा है. अगर बर्फबारी नहीं हुई तो गनीमत. बर्फबारी के बीच रास्ता काफी फिसलनभरा हो जाता है. मजबूत जिप्सी गाड़ियां पर्यटकों की टीम को ले कर वहां नाथूला सीमा तक जाती हैं.
अंदाजा कीजिए कि एक तरफ ऊंचेऊंचे पहाड़ हैं, दूसरी तरफ गहरी खाई है. रास्ता जो है, वह बर्फ से भरा है. ऐसे में ड्राइवर गाड़ियों के अगले पहियों में लोहे की जंजीरें पहनाते हैं. इस से दबाव पड़ने पर बर्फ टूटतीपिघलती है, जिस से पहिए नहीं फिसलते. फिर मंथर गति से गाड़ी चलाते हुए वे आगे बढ़ते हैं.
रास्तेभर बर्फ से ढके पहाड़ दिखेंगे और नाथूला सीमा पर आमनेसामने कांटों की बाड़ के पीछे भारतीय और चीनी सैनिकों की टुकड़ियों को देखना और भी रोमांचक लगता है.
एक तरफ भारतीय ध्वज, तो दूसरी तरफ चीनी ध्वज लहराते दिखते हैं. चारों तरफ भयानक सन्नाटा और खामोशी. ऐसे में आप या अलौकिक आनंद की कल्पना करें या जनविहीन इलाकों में भयभीत हों. मगर यह यथार्थ है कि पहाड़ों का यही बर्फ धीरेधीरे गलगल कर नदियों को भरापूरा बनाता है. वही नदियां, जो हमारी जीवनदायिनी हैं. हमारे कृषि कार्यों के लिए जरूरी जल यही नदियां उपलब्ध कराती हैं. ट्रांसपोर्ट का कार्य तो ये आदिकाल से करती ही रही हैं.
पूर्वोत्तर में हस्तनिर्मित परंपरागत शिल्प का विशेष योगदान है. यहां सिक्किम में इसे विशेषकर देखा जा सकता है.बांस और बेंत के बुने हुए विभिन्न डिजाइनों के बहुरंगी थैले, पर्स और शोपीस, चमड़े के सामान, लकड़ी की कलाकृतियां, परंपरागत पोषाकें, स्कार्फ और टोपियां, स्थानीय आभूषण आदि पर्यटकों को अपनी तरफ आकर्षित करते हैं. वैसे, गंगटोक के लाल बाजार, सुपर बाजार, न्यू मार्केट में इन के साथ चीनी सजावटी सामान से भी भरे पड़े मिलेंगे.
अवसाद एक ऐसा डिसऔर्डर है जिसे दिमाग से जोड़ कर देखा जाता है. मगर इस के लक्षण शारीरिक रूप से भी दिखाई देते हैं. जिन्हें अवसाद की समस्या होती है उन में से लगभग 50% लोगों को शरीर में दर्द महसूस होता है. दरअसल, शरीर और मस्तिष्क आपस में जटिल रूप से जुड़े होते हैं. जब एक ठीक नहीं होता है तो इस बात की आशंका बहुत बढ़ जाती है कि दूसरे पर भी इस का प्रभाव दिखाई देने लगे. कई अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि अवसाद व्यक्ति के दिमाग में दर्द पैदा करने वाले हिस्सों को ऐक्टिव कर देता है, जिस से मसल्स पेन, जौइंट पेन, चैस्ट पेन, हैडेक आदि हो सकता है.
कई दफा हम दर्द दूर करने की दवा खाते रहते हैं पर इस दर्द की मूल वजह यानी अवसाद पर ध्यान नहीं देते और लंबे समय तक तकलीफ सहते रहते हैं.
‘यूनिवर्सिटी औफ कोलोरैडो, हैल्थ साइंस सैंटर’ के डाक्टर रोबर्ट डी कीले ने 200 से ज्यादा मरीजों का अध्ययन कर पाया कि शुरुआत में डाक्टर्स भी उन की शारीरिक तकलीफों खास कर गले और बदन में दर्द की वास्तविक वजह यानी अवसाद का अंदाजा नहीं लगा सके. इस वजह से लंबे समय तक उन्हें अपनी तकलीफों से छुटकारा नहीं मिला. केवल डाक्टर ही नहीं, बल्कि मरीज भी ऐंटीडिप्रैशन मैडिसिन लेने को तैयार नहीं थे, क्योंकि उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि वे डिप्रैशन के मरीज हैं.
क्या है अवसाद
अवसाद एक गंभीर स्थिति है. हालांकि यह कोई रोग नहीं, बल्कि एक संकेत है कि आप के शरीर और जीवन में असंतुलन पैदा हो गया है. अवसाद से निबटने में दवा उतनी कारगर नहीं होती जितनी आप की सकारात्मक सोच और जीवनशैली में बदलाव का प्रयास. साधारणतया अवसाद के प्रारंभिक शारीरिक लक्षणों के तौर पर नींद की कमी, कमजोरी, थकावट, आदि की पहचान की जाती है, पर कईर् दफा इस की वजह से शारीरिक पीड़ा जैसे बैक, नैक और जौइंट पेन आदि भी पैदा होने लगता है.
अवसादग्रस्त व्यक्ति न तो ठीक तरह से खाता है और न ही पूरी नींद ले पाता है. इस से भी मांसपेशियां कमजोर हो जाती हैं, जिस से शरीर और गरदन में दर्द हो सकता है.
अवसाद और शरीर में दर्द होना
इस संदर्भ में सरोज सुपरस्पैश्यलिटी हौस्पिटल, नई दिल्ली के न्यूरोलौजिस्ट डा. जयदीप बंसल कहते हैं कि शारीरिक दर्द और अवसाद में गहरा बायोलौजिकल संबंध है. न्यूरोट्रांसमीटर्स, सैरोटोनिन और नोरेपिनफ्रीन दर्द और मूड दोनों को प्रभावित करते हैं. अवसाद की स्थिति में ये अनियंत्रित हो जाते हैं. इन का अनियंत्रित हो जाना अवसाद और दर्द दोनों से जुड़ा होता है.
सामान्य तौर पर दर्द इस बात का सूचक होता है कि अंदर कोई परेशानी है. यह परेशानी शारीरिक या मानसिक अथवा दोनों हो सकती है. कई बार हमें कोई शारीरिक समस्या नहीं होती तब भी हमारे शरीर के किसी हिस्से में दर्द होने लगता है. इसे साइकोसोमैटिक पेन कहते हैं, जिस का तात्पर्य है कि मस्तिष्क और मन की परेशानी शारीरिक रूप से प्रदर्शित हो रही है.
समय के साथ बढ़ जाता है दर्द
अधिकतर अवसादग्रस्त लोग खुद को दूसरे लोगों से अलगथलग कर घर की चारदीवारी में कैद कर लेते हैं. इस से उन की शारीरिक सक्रियता काफी कम हो जाती है. कुछ लोग घंटों सोए रहते हैं या लगातार लंबे समय तक कंप्यूटर अथवा मोबाइल पर लगे रहते हैं. इस दौरान वे अपना पोस्चर भी ठीक नहीं रखते. गलत पोस्चर और लगातार एक ही स्थिति में बैठे रहने से कमर दर्द और गरदन में दर्द की समस्या हो जाती है. दिनरात बिस्तर में दुबके रहना, मांसपेशियों को कमजोर बना देता है. इस से भी शरीर और जोड़ों में दर्द होने लगता है. शारीरिक रूप से सक्रिय न रहने से हड्डियां भी कमजोर पड़ने लगती हैं.
सवाल
मैं 30 वर्षीय अविवाहित युवती हूं. बचपन में ही मेरे अलावा घर में 3 बड़े भाई हैं. मैं इकलौती छोटी बहन थी. भाइयों की लाडली होने चाहिए थी, पर लाड़प्यार तो दूर कभी किसी ने मुझ से सीधे मुंह बात भी नहीं की. मां अकसर बीमार रहती थीं, इसलिए पढ़ाई के साथसाथ मैं घर का कामकाज भी करने लगी. बावजूद इस के मेरा मंझला भाई मुझ से पता नहीं क्यों नफरत करता था. हमेशा लड़ताझगड़ता और मारपीट करता था. एक बार तो उस ने गला दबा कर मुझे जान से मारने की भी कोशिश की. मां ने बीचबचाव कर के किसी तरह मुझे बचाया.
मेरा यह भाई शायद अपनी बेरोजगारी से तनाव में रहता था. और किसी पर तो उस का बस चलता नहीं था, इसलिए वह जबतब मुझे ही मारनेपीटने लगता. किसी ने उसे समझाने का प्रयास नहीं किया और एक दिन उस ने आत्महत्या कर ली. उस के मरने के बाद मां की सेहत दिनोंदिन गिरने लगी और फिर उन की भी मृत्यु हो गई. बड़े भाई ने शादी कर ली. मुझे लगा कि भाभी के घर में आने से मां के जाने के बाद घर में आया सूनापन दूर होगा. मुझे भी घर के काम में कुछ सहयोग मिलेगा. शायद मेरे जीवन में कुछ सुकून आएगा पर स्थिति और बदतर हो गई. भाभी घर के किसी काम को हाथ नहीं लगाती. मेरा काम और बढ़ गया. इस पर मुझे भरपेट खाना तक नहीं मिलता. आते ही उस ने मुझ पर शादी करने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया. मेरी पढ़ाई तो मां की मृत्यु के बाद ही छूट गई थी. मुझे पढ़ने का शौक था. इसलिए मैं ने प्राइवेट परीक्षा दे कर ग्रैजुएशन कर ली.
मैं शादी नहीं करना चाहती और अपने पैरों पर खड़ा होना चाहती हूं पर दोनों भाई इस की इजाजत नहीं दे रहे. छोटा भाई मारपीट करता है और कहता है कि शादी नहीं करनी तो घर से निकल जाओ. इस घर में रहने का तुम्हें कोई हक नहीं है. घर पर उन दोनों का हक है.
कई बार मन करता है कि जहर खा कर अपना जीवन समाप्त कर दूं. बचपन से आज तक मैं ने सिर्फ दुख ही दुख देखे हैं. कभी किसी से प्यार के दो बोल सुनने को नहीं मिले.
मेरे पैदा होने के कुछ दिनों बाद पिता चल बसे तो मां मुझे मनहूस, कलमुंही और न जाने क्याक्या कहती रहीं. फिर भाईयों के हाथों पिटती, गालियां खाती रही. रहीसही कसर भाभी ने आ कर पूरी कर दी.
सारा दिन कोल्हू के बैल की तरह घर के कामों में पिस्ती रहती हूं. मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा कि क्या करूं. नौकरी वे मुझे करने नहीं देंगे, शादी मैं करना नहीं चाहती, क्योंकि पुरुषों पर से मेरा विश्वास उठ गया है. जब मुझे अपने घर पर अपने भाइयों से ही प्यार नहीं मिला तो किसी बाहर वाले से मैं क्या उम्मीद करूं कि वह मेरी परवाह करेगा. कभी जी करता है घर से भाग जाऊं तो कभी अपनी जीवन लीला को ही समाप्त कर लेने का मन करता है. कृपया बताएं क्या करूं?
जवाब
इसे संयोग ही कह सकते हैं कि बचपन से ले कर अब तक आप का जीवन त्रासदीपूर्ण रहा. इस के लिए घर के सदस्यों से ज्यादा आप के परिवार की प्रतिकूल परिस्थितियां जिम्मेदार रहीं.
पिता के अचानक चले जाने से 4-4 बच्चों की जिम्मेदारी आप की मां के कंधों पर आ गई. अकेली औरत के लिए ये सब संभालना और अकेले जीवन की जद्दोजहद को झेलना आसान नहीं था. इस के अलावा वे बीमार रहती थीं. अपनी परेशानियों से त्रस्त हो कर वे अपनी भड़ास आप पर निकालती थीं. इस से आप को यह नहीं समझना चाहिए कि उन्हें आप से प्यार नहीं था.
रही आप के भाइयों के आप के प्रति व्यवहार की बात तो मांबाप के न रहने से आप के विवाह की जिम्मेदारी भी आप के भाइयों पर आ गई. इसीलिए वे चाहते हैं कि आप शादी कर लें. आप के भाइयों का व्यवहार आप के प्रति सौहार्दपूर्ण नहीं रहा तो इस का निष्कर्ष यह नहीं निकालना चाहिए कि सभी मर्द उन्हीं की तरह निष्ठुर होते हैं.
आत्महत्या जैसी कायरतापूर्ण बात आप को अपने मन से निकाल देनी चाहिए. यह किसी समस्या का हल नहीं है. आप का दूसरा विकल्प घर से भागने का भी विवेकपूर्ण नहीं है. इस से आप किसी बड़े संकट में पड़ सकती हैं. इसलिए ऐसी भूल हरगिज न करें.
अपनी सोच को सकारात्मक रखें और घर वालों की बात मान कर शादी कर लें. हो सकता है कि शादी के बाद आप को वे सब खुशियां मिल जाएं, जिन से आप अब तक वंचित रही हैं. आप का अपना घर होगा, अपना परिवार होगा जहां आप पूरी तरह सुरक्षित होंगी.
सिद्धार्थ और प्रीति में आज फिर तूतू मैंमैं हो गई थी. ये इस घर की दरोदीवार के लिए कोई नई बात नहीं थी. दूसरे कमरे में सिद्धार्थ के मम्मीपापा और बड़ी बहन प्रगति चुपचाप बैठे हुए, ना चाहते हुए भी इस तमाशे का हिस्सा बने हुए थे.
सिद्धार्थ की मम्मी वीनू बोलीं, ‘‘ना जाने किस घड़ी में इस महारानी से शादी हुई थी. एक दिन भी मेरा बेटा सुकून की सांस नहीं ले सकता है.‘‘
बहन प्रगति बोली, ‘‘मम्मी तब तो सिद्धार्थ की आंखों में प्रीति की खूबसूरती और प्यार की पट्टी बंधी हुई थी. सच बात तो यह है, जो लड़की अपने मम्मीपापा की ना हुई, वह क्या किसी की होगी?‘‘
तभी भड़ाक से दरवाजा खुला और प्रीति मुंह फुलाए घर से बाहर निकल गई. क्याक्या सपने संजो कर उस ने शादी की थी, पर विवाह के पहले ही साल में रोमांस उन की शादी से काफूर हो गया था, जब प्रीति की बड़ी ननद प्रगति अपने पति का घर छोड़ कर आ गई थी.
प्रीति और सिद्धार्थ की हंसीठिठोली, छेड़छाड़ ना तो प्रगति को और ना ही वीनू को भाती थी. प्रीति क्या करे, उस के तो रिश्ते की अभी शुरुआत ही थी. पर प्रगति की खराब शादी, उन के प्रेमविवाह पर भारी पड़ती जा रही थी.
देखते ही देखते सारे प्यार के वादे शिकायतों में बदल गए थे. रहीसही कसर सिद्धार्थ की नौकरी जाने के बाद हो गई थी. सिद्धार्थ तो नौकरी जाने के कारण वैसे ही हताश हो गया था. साथ ही, घर पर बैठेबैठे वह रातदिन नकारात्मक विचारों से घिरा रहता था.
प्रीति अपने दफ्तर चली जाती थी, तो प्रगति ना जाने क्याक्या जहर सिद्धार्थ के जेहन में भरती रहती थी.
सिद्धार्थ को भी ये ही लगने लगा था कि प्रीति को लगता है कि वह उस के टुकड़े पर पल रहा है. अब वह भी प्रीति को कहता, ‘‘घर के काम को तो तुम हाथ भी नहीं लगाती हो? मेरी मम्मी और बहन तुम्हारी नौकरानी नही हैं.‘‘
अब प्रीति ने बस ये किया कि अपना खाना खुद बनाना शुरू कर दिया था. रातदिन की किचकिच से प्रीति तंग आ गई थी. उसे समझ आ गया था कि उस से एक गलत फैसला हो गया है. पर वह आज की व्यावहारिक लड़की थी, रोने के बजाय उस ने ऐसे रिश्ते से अलग होने का निर्णय ले लिया था. इसलिए प्रीति ने अपने दफ्तर के पास ही एक छोटा सा फ्लैट किराए पर ले लिया था.
जैसे ही प्रीति ने अलग घर में शिफ्ट होने की बात की, तो सिद्धार्थ के चेहरे पर आए राहत के भाव उस से छिपे ना रह सके. प्रीति थोड़ी सी आहत हो गई थी. उधर सिद्धार्थ की मम्मी को भी इस बार अपनी पसंद की लड़की लाने का मौका मिल गया था.
प्रीति के घर छोड़ने के एक हफ्ते बाद ही सिद्धार्थ की नौकरी लग गई थी. सिद्धार्थ की मम्मी ने खुश होते हुए कहा, ‘‘बेटा देखा तुम दोनों एकदूसरे के लिए बने ही नहीं थे. उस के जिंदगी से निकलते ही तुम्हारी नौकरी भी लग गई है.‘‘
प्रीति के घर छोड़ने के बाद सिद्धार्थ की जिंदगी सूनी, मगर शांत हो गई थी. उधर प्रीति की जिंदगी मे मयंक एक ठंडी हवा के झोंके की तरह ना जाने कहां से आ गया था. दोनों की मुलाकात एक कौमन फ्रैंड के यहां हुई थी. मयंक की शादी तो नहीं हुई थी, पर उस का दिल बहुत बुरी तरह टूटा हुआ था.
दोनों को धीरेधीरे एकदूजे का साथ भाने लगा था.
मयंक और प्रीति को साथ घूमतेफिरते देख कर, प्रीति की भाभी ने ही पहल की और प्रीति से कहा, ‘‘प्रीति, जब तुम्हें सिद्धार्थ के पास वापस नहीं जाना है तो उस रिश्ते को खत्म कर के ही आने वाली जिंदगी का स्वागत करो.‘‘
प्रीति सवालिया नजरों से भाभी से बोली, ‘‘भाभी, अगर इस बार भी मेरा चुनाव गलत निकला तो…?‘‘
भाभी बोली, ‘‘प्रीति, अगर तुम्हें सिद्धार्थ के पास वापस नहीं जाना है, तो क्यों ना उस रिश्ते से नजात पा लो.‘‘
प्रीति को भी भाभी की बात सही लगी. सिद्धार्थ के पास एक प्रेमी के रूप में दम तो था, पर पति के रूप में उस के पास रीढ़ की हड्डी नहीं थी. चाहे वह अकेली रहे, पर उस के पास वापस नहीं जाएगी.
मयंक प्रीति के फैसले को सुन कर खुश हो गया और बोला, ‘‘सोच तो मैं भी रहा था, पर फिर लगा कि हो सकता है, तुम उस रिश्ते को फिर से चांस देना चाहती हो, इसलिए चुप लगा गया.‘‘
सिद्धार्थ का परिवार भी लगातार उस पर तलाक लेने के लिए दबाव बना रहा था, पर सिद्धार्थ को समझ नहीं आ रहा था कि बात को मुद्दा बना कर प्रीति से डाइवोर्स ले.
उधर, सिद्धार्थ के परिवार ने पूरे जोरशोर से उस की दूसरी शादी की तैयारी शुरू कर दी थी. उन के अनुसार प्रीति अब उस की जिंदगी का बंद अध्याय है. सिद्धार्थ भी जिंदगी की नई शुरुआत करना चाहता था, इसलिए अपने दोस्त की सलाह पर वकील से मशवरा करने पहुंच गया था.
वकील कमलकांत 50 साल के अनुभवी वकील थे. सिद्धार्थ की बात सुन कर वे हंसते हुए बोले, ‘‘मसला भी क्या है… मसला तो कुछ खास नहीं है बरखुरदार. वैसे भी बिना किसी ठोस वजह के हमारे देश में तलाक नहीं होते हैं.‘‘
सिद्धार्थ बोला, ‘‘वकील साहब, कोई तो हल होगा.‘‘
वकील साहब बोले, ‘‘आपसी सहमति से तलाक हो सकता है या फिर कोई ऐसे सुबूत जुटाने पड़ेंगे, जो तुम्हारी पत्नी के खिलाफ इस्तेमाल कर सके.‘‘
सिद्धार्थ ये सब सोच ही रहा था कि प्रीति के वकील का तलाक का नोटिस आ गया. सिद्धार्थ ने चैन की सांस ली.
भले ही प्रीति उस की जिंदगी का हिस्सा नहीं थी, पर फिर भी वह कोई ऐसी बात नहीं करना चाहता था, जिस से प्रीति के आत्मसम्मान को ठेस लगे.
सिद्धार्थ के परिवार ने लड़की देखनी भी शुरू कर दी थी. उधर प्रीति ने भी नए घर के सपने सजाने शुरू कर दिए थे. दोनों ही पक्ष के वकीलों ने पूरी तसल्ली दी थी कि पहली ही तारीख में मामला हल हो जाएगा.
सिद्धार्थ ने अपने वकील को इस बात के लिए अच्छीखासी रकम दी थी. उधर प्रीति के वकील ने भी अपनी जेब गरम कर रखी थी.
पहली तारीख आई, परंतु जज नहीं बैठा और वह तारीख ऐसे ही चली गई. अब दूसरी तारीख पूरे 2 माह बाद की पड़ी थी. प्रीति को लगा था कि पहली तारीख पर जब कुछ हुआ ही नहीं, तो वकील को दोबारा फीस नहीं देनी पड़ेगी, परंतु वकील ने खींसे निपोरते हुए कहा, ‘‘मैडम, अपना बड़ा केस छोड़ कर, आप की समस्या को देखते हुए आप को डेट दिया हूं.‘‘
प्रीति ने फिर से 10,000 रुपए दिए. हालांकि उसे इस बार पैसा देना बहुत खल रहा था.
प्रीति और सिद्धार्थ पिछले 4 घंटे से प्रतीक्षा कर रहे थे. 4 घंटे बाद उन का नंबर आया, मगर जज ने फैसला नहीं सुनाया और आगे की तारीख दे दी थी.
जज ने अब 4 महीने बाद की नई तारीख दे दी थी. आज प्रीति और सिद्धार्थ दोनों ही बहुत हताश हो गए थे.
जब सिद्धार्थ घर पहुंचा, तो उस की मम्मी बोलीं, ‘‘अरे, कुछ लेदे कर एक महीने बाद की तारीख ले लो… आज ही तो तुम्हारी शादी की तारीख निकलवा कर आई हूं पंडितजी से.‘‘
उधर मयंक आतुर हो कर बोला, ‘‘प्रीति, घर वाले रातदिन शादी के लिए दबाव बना रहे हैं. अब कब तक बहाने बनाता रहूं?‘‘
उधर सिद्धार्थ ने इधरउधर से जज से जानपहचान निकलवानी शुरू कर दी थी. इस चक्कर में दलालों की जेब भी गरम करनी पड़ रही थी.
उधर मयंक और प्रीति भी दौड़धूप कर रहे थे. दोनों ही पक्ष जल्द से जल्द इस रिश्ते से छुटकारा चाहते थे, पर कानून के मसले भी अजीब थे.
4 माह में चक्कर काटकाट कर प्रीति और सिद्धार्थ दोनों के होश फाख्ता हो गए थे.
प्रीति तो एक दिन बोल भी उठी, ‘‘अगर मुझे पता होता कि आपसी सहमति से तलाक लेने में भी इतने झंझट हैं, तो मैं कभी ऐसा कदम नहीं उठाती.‘‘
मयंक प्रीति की बात सुन कर गुस्से में बोला, ‘‘मतलब, मैं ही बेवकूफ हूं.‘‘
सिद्धार्थ की मम्मी ने किसी तरह से शादी की तारीख आगे बढ़वा दी थी और उधर मयंक ने भी अपने परिवार से बस 4 महीने का समय मांगा था.
आज दोनों ही पक्ष को अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी थी. दोनों वकील की जिरह सुनने के पश्चात जज महोदय बोले, ‘‘अगर ऐसी छोटीछोटी बातों पर विवाह टूटने लगे, तो वैवाहिक संस्था से लोगों का विश्वास ही उठ जाएगा.‘‘
फैसला आ गया था. दोनों को एकसाथ 6 माह तक एकसाथ रहने की सलाह दी गई थी. अगर 6 माह बाद भी विचार नहीं मिलते, तो फिर इस पर विचार किया जाएगा.
जज महोदय बोले, ‘‘अब आप लोग अपने घर जा कर दोबारा से नई शुरुआत करें.‘‘
प्रीति और सिद्धार्थ दोनों ही सोच रहे थे कि वो जिंदगी में इतना आगे बढ़ चुके हैं कि अब कौन से घर जाएं?
वह घर, जो कानून की बैसाखियों के सहारे लड़खड़ा रहा है या वह घर, जो अब इस फैसले के पश्चात बसने से पहले ही उजड़ गया था.
दूर कहीं से आवाज आ रही थी, ‘‘चलो खुसरो घर अपने.‘‘
दोनों ही जन उस दोराहे पर खड़े थे, जहां से उन्हें आगे जाने की राह ही नहीं सूझ रही थी.
Sunny Deol Son Rajveer Deol : बॉलीवुड अभिनेता सनी देओल (Sunny Deol) इन दिनों अपनी फिल्म गदर 2(Gadar 2) की सक्सेस को एंजॉय कर रहे हैं. उनकी इस फिल्म ने बॉक्स ऑफिस पर ताबतोड़ कमाई की है. हालांकि इस बीच उनके छोटे बेटे राजवीर देओल (Rajveer Deol) की पहली फिल्म ‘दोनों’ का ट्रेलर रिलीज हुआ है. राजवीर देओल के साथ-साथ पूनम ढिल्लों की बेटी पलोमा ढिल्लों (Paloma Dhillon) भी इस फिल्म से बॉलीवुड में डेब्यू कर रही हैं.
बीते दिनों फिल्म का ट्रेलर रिलीज किया गया, जिसे लोगों का खूब प्यार मिल रहा है. हालांकि ट्रेलर लॉन्च इवेंट के दौरान राजवीर ने अपने पिता सनी देओल को लेकर खुल कर बात भी की.
क्यों सनी नहीं चाहते थे कि बेटे को एक्टर बनाना?
बीते दिन 4 सितंबर को फिल्म ‘दोनों’का ट्रेलर लॉन्च इवेंट रखा गया था. इस इवेंट की अब एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो रही है. वायरल वीडियो में राजवीर (Rajveer Deol) से मीडिया ने सवाल किया कि, जब उन्होंने अपने माता-पिता को बताया कि वह एक्टर बनना चाहते हैं तो इस पर उनका क्या रिएक्शन था? राजवीर ने इस सवाल का जवाब देते हुए कहा कि, ‘घरवाले चाहते थे कि मैं पढ़ाई पर ध्यान दूं. यहां तक की उनके पिता सनी देओल को इस बात से नफरत थी कि मैं एक्टर बनना चाहता हूं, क्योंकि फिल्म इंडस्ट्री काफी अनप्रिडिक्टेबल है.’
इसी के आगे राजवीर ने कहा, ‘मेरा मतलब है कि पापा जी को अपने करियर में 22 साल बाद हिट फिल्म (Gadar 2) मिली थी. इसलिए उन्हें फिकर रहती थी कि, कहीं ये बात हमें भी मेंटली बहुत थका न दें. लेकिन अब मुझे एक्टिंग से प्यार हो गया है.’
5 अक्टूबर को रिलीज होगी फिल्म
आपको बताते चलें कि सनी देओल के बेटे राजवीर (Rajveer Deol) की ये फिल्म “दोनों” 5 अक्टूबर को बड़े पर्दे पर रिलीज होगी. फिल्म में राजवीर और पलोमा लीड रोल में नजर आएंगे. जिसे अविनाश बड़जात्या ने डायरेक्ट किया है और राजश्री के बैनर तले इस फिल्म को बनाया गया है.
Prakash Raj on India Bharat Controversy : देश में इस समय ‘भारत’ बनाम ‘इंडिया’ का मुद्दा जोर-शोर से गरमाया हुआ है. राजनेता से लेकर बॉलीवुड एक्टर तक इस मुद्दे पर अपनी बात रख रहे हैं. दरअसल, 9 से 10 सितंबर के बीच दिल्ली में 20 समिट की बैठक होने वाली हैं, जिसमें शामिल होने के लिए देश-विदेश के कई नेता के साथ-साथ सेलेब्स को भी इन्वाइट भेजा गया है. लेकिन विवाद इस बात पर हो रहा है कि कार्ड में ‘प्रेसिडेंट ऑफ इंडिया’ की जगह ‘प्रेसिडेंट ऑफ भारत’ लिखा हुआ है.
जैसे ही इस इन्विटेशन की तस्वीर सोशल मीडिया पर वायरल हुई. वैसे ही विपक्षी दलों ने सरकार पर निशाना साधना शुरु कर दिया. उनका कहना है कि केंद्र सरकार देश का नाम ‘इंडिया’ से बदलकर ‘भारत’ करना चाहती है. इसी कड़ी में साउथ सिनेमा के पॉपुलर एक्टर प्रकाश राज (Prakash Raj on india bharat controversy) ने भी अपनी प्रतिक्रिया दी है.
Bharat! #Bharat #INDIA pic.twitter.com/oyRc80N9Bm
— Satish Acharya (@satishacharya) September 5, 2023
प्रकाश ने सरकार पर साधा निशाना!
आपको बता दें कि साउथ एक्टर प्रकाश राज (Prakash Raj on india bharat controversy) जितना अपनी फिल्मों से सुर्खियां बटोरते हैं. उतना ही वह अपने ट्वीट के चलते भी लाइमलाइट में रहते हैं. इस बार उन्होंने ‘भारत’ बनाम ‘इंडिया’ के मुद्दे पर अपनी रखी. उन्होंने ट्वीटर पर लिखा, ‘आप डर के साथ केवल नाम बदल सकते हैं… हम भारतीय गर्व के साथ आपको और आपकी सरकार को भी बदल सकते हैं. #इंडिया #जस्ट_आस्किंग.’
You can only change names with FEAR .. we INDIANS can change YOU and Your GOVERNMENT… with PRIDE . #INDIA #justasking https://t.co/VlnjNg25vf
— Prakash Raj (@prakashraaj) September 6, 2023
‘चंद्रयान 3’ का उड़ाया था मजाक
आपको बताते चलें कि एक्टर प्रकाश राज (Prakash Raj) ने ‘चंद्रयान 3’ का भी मजाक उड़ाया था, जिसके बाद सोशल मीडिया पर उनकी काफी आलोचना हुई थी. यहां तक की उनके खिलाफ पुलिस स्टेशन में केस भी दर्ज करवाया गया था. लेकिन ‘चंद्रयान 3’ की सफलता के बाद उन्होंने इसरो को बधाई दी और उनकी तारीफ भी की थी.
PROUD MOMENT for INDIA and to Humankind.. ??????Thank you #ISRO #Chandrayaan3 #VikramLander and to everyone who contributed to make this happen .. may this guide us to Explore and Celebrate the mystery of our UNIVERSE .. #justasking
— Prakash Raj (@prakashraaj) August 23, 2023