वैसे तो वह सुनीता पर बेहद नाराज था. उसे लगता है कि सुनीता को शादी करनी ही नहीं थी. उस ने तो उस के साथ ही शादी करने की कसम खाई थी, फिर यकायक यों शादी कर लेना… सुनीता बेईमान निकली. पर समय के साथ उस की नाराजगी दूर होती चली गई.
‘वह तो लड़की थी… भला वह क्या कर सकती थी… और जो कुछ कर सकती थी, उस ने किया भी होगा. मैं ही समय रहते कुछ नहीं कर पाया, वरना ऐसी नौबत ही नहीं आती… पर, मैं भी क्या करता… हम तो पढ़ ही रहे थे… ऐसे में उसे भगा कर तो शादी नहीं की जा सकती थी. वैसे भी उसे तो उस के ब्याह की जानकारी उस के पत्र से ही बाद में मिली थी. तो वह क्या करता… जब तुम कुछ नहीं कर सकते थे, तो सुनीता कैसे कर लेती… नहीं, सुनीता गलत नहीं थी, बल्कि मजबूर थी…’ वह खुद अपने ही विचारों मेें उलझा रहा बहुत देर तक.
रहीम बहुत दिनों के बाद कटिंग कराने गया था. रिटायरमैंट के बाद वह यों ही अस्तव्यस्त सा बना रहता था. वैसे तो सुनीता से संबंध खत्म हो जाने के बाद से ही उस ने यों सजनासंवरना बंद कर दिया था. वह कैसे भी कालेज चला जाता और ज्यादातर समय पढ़ाई ही करता रहता.
नौकरी लग जाने के बाद भी उस ने अपने ऊपर ज्यादा ध्यान नहीं दिया था. उसे महसूस होता था कि उस के जीवन में कोई उत्साह नहीं बचा है. पर, अब जब सुनीता से उस की मुलाकात हुई, तब से उसे अपनी जिंदगी में रस दिखाई देने लगा था. उस ने सोच रखा था कि जब भी सुनीता उसे फोन करेगी, तब ही वह उस से मिलने को बोलेगा.
वह सुनीता से मिलने की तैयारी कर रहा था. चेहरे पर बढ़ चुकी अस्तव्यस्त दाढ़ी और लंबे हो रहे बालों को कटवाने के बाद उन्हें काला भी कराया था. घर आ कर रहीम ने बहुत देर तक स्नान किया. साबुन से रगड़रगड़ कर हाथपैर साफ किए, फिर आईने के सामने खड़ा हो कर देखता रहा था अपनेआप को.
कालेज के दिनों की याद आ गई थी उसे, ‘‘तुम कितनी देर तक आईने के सामने खड़े रहते हो,’’ अम्मी का झंझुलाया स्वर गूंज उठता, ‘‘बिलकुल लड़कियों की तरह’’ कहते हुए वे हंस देती.
‘‘अरे अम्मी, मैं कालेज जा रहा हूं… अच्छे से तैयार हो कर जाना पड़ता है… ऐसे ही गंदा चला गया तो लोग मुझे नहीं आप को ही नाम रखेंगे,’’ कहते हुए वह अपनी अम्मी के बाल खींच देता.
अम्मी उसे प्यार से खाना खिलातीं, ‘‘तेरी कमीज फट गई है… ये पैसे ले और कालेज से लौटते समय ले आना…’’
‘‘अरे वाह अम्मी… कितना ध्यान रखती हो मेरा…’’ वह उन की गोदी में सिर घुसा देता.
‘‘चल, इतना बड़ा हो गया है और अपनी अम्मी के पल्लू में छिपता है…’’ रहीम आईने के सामने खड़ा हो कर खो गया था पुरानी यादों में. अब अम्मी कहां हैं वे तो गुजर गईं… वह खुद ही बूढ़ा हो गया. कानों के पास कुछ कालापन सा दिखाई दिया. उस ने वहां क्रीम तो लगा ली, पर वह कालापन खत्म नहीं हुआ. उस ने गहरी सांस ली.
सुनीता ने वादानुसार फोन किया था, ‘‘फ्री हो, या फिर बाद में लगाऊं…?’’
रहीम तो सुबह से ही फोन का इंतजार कर रहा था. वह जानता था कि सुनीता उसे फोन जरूर लगाएगी. वह उस की इस बात का तो कायल रहा है. कालेज के दिनों में भी वह ऐसा ही करती थी, ‘‘कल कितने बजे मिलना है?”
‘‘दोपहर को 2 बजे… यहां भीड़भाड़ कम रहती है…’’
‘‘ओके…’’
वह 2 बजे पहुंच जाती, यदि रहीम जरा सा भी लेट हो जाता तो नाराज हो जाती, “यार, समय का ध्यान रखा करो… जब हम समय का ध्यान रखते हैं, तो समय भी हमारा ध्यान रखता है.’’
‘‘गलती हो गई मेरी मां… मुझे माफ कर दो…’’ रहीम अपने कान पकड़ कर माफी मांगता.
उसे भरोसा था कि सुनीता ने बोला है तो वह फोन अवश्य करेगी, इसलिए वह फोन हाथ में लिए ही बैठा था.
‘‘अरे, मैं फ्री हूं… कब से इंतजार कर रहा था फोन का…’’
‘‘इंतजार तो मैं भी कर रही थी… पर, समय तो तुम ने ही दिया था… तो उसी समय फोन किया…’’
‘‘ओह, और सुनाएं आप…’’
‘‘क्या सुनाएं… जीवन के गायब हुए 25-30 सालों का हिसाब तो सुना नहीं सकते…’’
‘‘सुनाना तो चाहिए. पर नहीं सुनाना तो कोई बात नहीं है…’’
‘‘तुम को याद है रहीम कि हम परसों के पहले आखिरी बार कब मिले थे…”
‘‘शायद 1982 में…’’
‘‘शायद नहीं, हम 22 अप्रैल,1982 को ही मिले थे.’’
‘‘तारीख सहित याद है तुम्हें…’’
‘‘हां, इस से अंदाजा लगा लो मैं ने अपने जीवन के एकएक पलों को कैसे काटा होगा…’’
रहीम कुछ नहीं बोला.
‘‘रहीम, मैं नहीं जानती कि तुम्हारी लाइफ कैसी रही, पर मैं अपनी लाइफ के बारे में जानती हूं… मेरी जिंदगी के एकएक पल में तुम समाए रहे हो…’’ सुनीता के आंसू निकल आए थे शायद. उस की आवाज में भारीपन आ गया था.
‘‘सुनीता, क्या हम कहीं मिल नहीं सकते?’’
‘‘मिलना ही होगा, वरना हम ढेर सारी बातें फोन पर तो कर नहीं सकते…’’
‘‘कब…?’’
‘‘तुम ही बताओ…’’
‘‘आज मिल सकती हो…”
‘‘ठीक है, पर कहां…?’’
‘‘तुम मेरे घर आ जाओ… अभी मैं घर पर अकेली हूं.’’
‘‘तुम्हारा घर…”
‘‘हां… यहां शांतिनगर में नया फ्लैट लिया है… कुछ महीनों पहले ही…”
‘‘ठीक है, पर…’’
‘‘मैं मोड़ पर तुम्हें लेने आ जाऊंगी…’’
‘‘ओके… मैं अभी पहुंच रहा हूं…’’
सुनीता कालोनी के मोड़़ पर ही मिल गई थी. उस के साथ पैदल चलते हुए उस के घर पर आ गया था.
सुनीता आज बहुत अच्छी लग रही थी. उस ने आसमानी रंग की साड़ी पहनी हुई थी. बालों का जूड़ा बनाया हुआ था. मैं उसे देखता रहा बहुत देर तक…
‘‘क्या देख रहे हो…?”
‘‘तुम बहुत दिनों के बाद मिली हो न…”
‘‘अब मैं कालेज के दिनों वाली सुनीता तो रही नहीं. बूढ़ी हो गई हूं…”
‘‘लगती तो नहीं हो कि तुम बूढ़ी हो गई हो…’’
‘‘तुम्हारी आंखों का धोखा है… मोतियाबिंद हो गया हो गया होगा. चैक करा लेना…’’ उस के होंठों पर मुसकान तैर गई.
‘‘तुम भी तो कितने बदल गए हो… उस दिन बाजार में मैं तुम्हें जरा सा भी नहीं पहचान पाई थी. बूढ़े हो गए हो, बूढ़़े… पर लगते अभी भी हैंडसम ही हो…’’ उस ने रहीम के गालों को खींचते हुए कहा.
‘‘हां यार… कितना समय निकल गया जीवन का… हम 60 के हो चले हैं… पर आज तुम को देखा तो ऐसा लगा मानो हम आज भी कालेज के स्टूडैंट ही हैं…’’
‘‘तुम्हारे बाल तो बहुत लंबे हुआ करते थे. अब भी इतने ही लंबे हैं क्या…?’’
सुनीता ने अपना जूड़ा खोल लिया. उस के बाल उस की पीठ पर बिखर गए.
‘‘मैं ने हमेशा इन बालों को तुम्हारी धरोहर ही माना है… देखो, सफेद जरूर हो गए हैं, पर लंबे आज भी उतने ही हैं…’’
वह उसे हैरान सा देख रहा था. उसे सुनीता परी सी नजर आ रही थी.
“रहीम, मेरी शादी अचानक ही कर दी थी… मैं बहुत रोई भी थी. अपनी मां को बताया भी था कि मैं केवल और केवल रहीम से ही शादी करना चाहती हूं, पर मेरी किसी ने एक न सुनी. उन को तुम्हारा धर्म पसंद नहीं था… मैं कुछ नहीं कर सकती थी रहीम… पिताजी ने जिस खूंटे से बांधा, मैं घिसटती हुई उस के साथ चली गई,’’ कहते हुए सुनीता सुबक पड़ी थी. उस की आंखों से आंसू बह रहे थे.
“रहीम, सच मानना कि मैं ने इतना विद्रोह अपने जीवन में कभी नहीं किया था, जितना उस दिन किया वह भी अपने पिताजी के सामने… पर, उन्होंने मेरी एक न सुनी…
“सच बताऊं रहीम, वैसे तो वे मान भी जाते, पर उन के सामने समाज खड़ा था… वे अपने समाज के खिलाफ नहीं जाना चाहते थे… भले ही उन की लाड़ली बिटिया कष्ट सह ले… यह कैसा समाज है रहीम… इसे व्यक्ति के अच्छे होने से कोई मतलब नहीं है… उसे केवल धर्म से मतलब है…?’’ कहते हुए सुनीता अब भी सुबक रही थी.
‘‘मेरे पति बैंक में नौकरी करते थे, मैं भी टीचर बन गई थी. मेरे 2 बच्चे हैें. बड़ी बिटिया की शादी हो गई है और एक बेटा है, वह अब विदेश में है. उस की भी शादी हो गई है. मैं ने अपने बेटे को बहुत रोका कि वह विदेश न जाए, वरना मैं यहां अकेली कैसे रहूंगी, पर वह नहीं माना और चला गया. मैं अकेली हो कर रह गई हूं. पति का देहांत तो 2-3 साल पहले हो गया. मैं अकेली कहां रहती, इसलिए इस शहर में ही यह मकान ले लिया है…’’ सुनीता की आंखों से आंसू बह रहे थे. मैं खामोश था. उस को संयत होने में समय लगा.
सुनीता अंदर चली गई. जब वह लौटी, तो उस के हाथोें में पानी के गिलास थे.
‘‘तुम भी अपनी दास्तां सुनाओ रहीम,’’ पानी का गिलास देते हुए सुनीता ने पूछा.
‘‘तुम्हारे जाने के बाद मैं ने यह शहर छोड़ दिया था. मैं कैसे रह पाता इस शहर में तुम्हारे बिना… भोपाल जा कर पढ़ाई की और फिर नौकरी भी लग गई, तो लगभग सारा समय ही बाहर रहा. पिछले साल ही मेरा रिटायरमैंट हुआ है तो यहां आ गया…’’
‘‘बच्चे कितने हैं…?”
‘‘मैं ने शादी नहीं की.मैं ने तो केवल तुम से शादी करने की कसम खाई थी. उसे मैं कैसे तोड़ सकता था,’’ रहीम ने अपनी नजरों को दूसरी ओर घुमा लिया था.
सुनीता हैरान सी उसे देख रही थी.
‘‘क्या… पागल हो तुम… वाकई पागल ही हो… सारी जिंदगी ऐसे ही काट ली…’’ सुनीता ने अपने साड़ी के पल्लू को अपनी आंखों में लगा लिया था.
रहीम चुप रहा.
‘‘यहां अकेले रहते हो…?’’
‘‘नहीं, मेरे छोटे भाई के परिवार के साथ…’’
‘‘ओह, अच्छा… वह नौशाद के साथ…’’
‘‘हां…’’
‘‘अच्छे से रखता है वह…’’
‘‘हां, बहुत स्नेह करता है मुझ से.’’
‘‘अच्छा…’’
दोनों चुप हो गए. रहीम बहुत देर तक बैठा रहा था सुनीता के यहां. लौटते समय सुनीता ने फिर आने की बोला था. सुनीता तब तक उसे देखती रही, जब तक कि वह उस की आंखों से ओझल नहीं हो गया.
रहीम को आज बहुत सुकून मिला था. जाने कितने दिनों के बाद उस के चेहरे पर रौनक थी. उस की दिनचर्या अब बदल चुकी थी. वैसे भी वह ऊपर के कमरे में अकेला ही रहता था, केवल खाना खाने नीचे आता था. दोपहर को वह बाहर निकल जाता था और शाम को लौट कर अपने कमरे में. अब उस ने दोपहर में बाहर निकलना कम कर दिया था. यही वह समय था, जब सुनीता उसे फोन करती थी. दोनों बहुत देर तक फोन पर बातें करते रहते. कभीकभी वह बाजार चला जाता, ऐसा वो तब ही करता, जब सुनीता उसे बताती कि वह बाजार जा रही है. दोनों वहां कैफे हाउस पर बैठ कर कौफी पीते. कभीकभी गंगा किनारे भी चले जाते. दोनों साथ ही प्रकृति के दर्शन करते और वहीं बैठ कर बातें करते रहते थे.
वैसे तो सुनीता चाहती थी कि रहीम उस के घर आ जाया करे, पर वह कहने में हिचकता था, ‘‘देखो, तुम अकेली रहती हो… तो बारबार तुम्हारे घर आना… अच्छा नहीं लगेगा. वैसे भी कालोनी में मेरे परिचित बहुत से लोग रहते हैं…’’
‘‘अरे, इस उम्र में किस बात का डर…’’
‘‘उम्र की बात नहीं है, बल्कि परिस्थितियों की बात है…’’
सुनीता ने भी ज्यादा जोर नहीं दिया, पर बात करने और हर दूसरे दिन मुलाकातों का सिलसिला अनवरत जारी रहा. दोनों में जवानी का जोश दिखाई देने लगा था.
‘‘रहीम, अब तो यही लगता है कि हमारी जो कहानी अधूरी रह गई है, उसे पूरा कर लिया जाए…’’ सुनीता ने पूरी गंभीरता के साथ बात की थी. वे बगीचे में रखी बैंच पर साथ बैठे थे. रहीम ने चौंकते हुए उस की ओर देखा.
सुनीता की आंखों में नेह निमंत्रण साफ दिखाई दे रहा था.
‘‘क्या पागलों जैसी बातें कर रही हो…? यह कोई उम्र है… हमारे बच्चों के बच्चे जवान हो चुके हैं…’’ और फिर हमारी जिंदगी बची ही कितनी है…’’
‘‘तुम क्या यह बारबार उम्र को बीच में ले आते हो…? उम्र से प्यार का क्या संबंध…? हम जब संयोग से मिल ही गए हैं और अपना अकेलापन काट रहे हैं, तो ऐसे में घुटघुट कर जिंदगी जीने का क्या मतलब है…’’ सुनीता नाराज हो गई थी. उसे भी लग रहा था कि वह हर बार अपनी उम्र को ढाल बना लेता है. यदि वाकई उसे अपनी उम्र की इतनी ही फिक्र है, तो फिर मिलता ही क्यों है सुनीता से.
उस ने सुनीता की ओर देखा और बोला, ‘‘तुम्हारे गाल गुस्से में और भी लाल हो जाते हैं… तुम ऐसे ही गुस्सा बनी रहा करो…’’
रहीम चाह रहा था कि सुनीता का मूड ठीक हो जाए. सुनीता ने अपने गुस्से को कम करने का कोई प्रयास नहीं किया.
‘‘ये जो तुम्हारे बालों की लट है न, किसी दिन मेैं इसे कैंची से कतर दूंगा…’’
‘‘काट दो… ये तो वैसे भी तुम्हारे ही हैं…’’
‘‘तो इस से कह दो कि वे अपनी हद में रहे…’’
सुनीता कुछ नहीं बोली.
‘‘देखो रहीम, हम को जिस धर्म और संप्रदाय ने अलग किया था, अब समाज की सोच और मानसिकता में फर्क आ चुका है… मैं जानती हूं कि तुम एक बेहतर इनसान हो… समाज जानता है कि तुम एक बेहतर इनसान हो… तो अब क्या परेशानी है…?’’
‘‘अच्छा, मैं सेाचता हूं तुम्हारे प्रस्ताव के बारे में…’’
उस ने केवल अपनी निगाह उठा कर रहीम की ओर देखा और उठ खडी हुई.
रहीम को सुनीता की बात तो ठीक लग रही थी, पर उसे केवल यह ही भय था कि लोग क्या सोचेंगे. उस ने अपनी सारी उम्र ऐसे ही अकेले काटी थी. उम्र बढ़ने के साथ ही उसे लगने लगा था कि कोई ऐसा उस के साथ होना ही चाहिए, जो उस की फिक्र भी करे और देखभाल भी.
सुनीता की भी यही स्थिति थी. वह तो और अकेली थी. अकेलापन उसे काटने दौड़ता होगा. जब दोनों अकेले हैं और दोनों को अपना जीवन ऐसे ही गुजारना है, तब दोनों एकदूसरे का सहारा क्यों नहीं बन सकते.
रहीम का चिंतन चलता रहा और एक फैसले पर जा कर रुक गया. उस ने तय कर लिया था कि उसे सुनीता के प्रस्ताव को स्वीकार कर लेना है और यह भी कि सुनीता को कोई परेशानी न हो, इसलिए उस के धर्म के अनुरूप वह अपनेआप को ढाल लेगा.
नौशाद को रहीम की बात सुन कर आश्चर्य हुआ, ‘‘पर, भाई… आप इतने समझदार हैं, फिर भी…’’
‘‘देखो नौशाद, मैं तुम्हारे भरोसे अपना बुढ़ापा नहीं काट सकता… अब तुम भी तो बुजुर्ग होते जा रहे हो… ऐसे में… कल तुम मेरी कितनी देखभाल कर पाओगे…?
‘‘पर…’’
‘‘तुम से मैं कुछ पूछ नहीं रहा हूं… केवल बता रहा हूं कि मैं सुनीता के साथ ब्याह करने जा रहा हूं… इसलिए तुम मुझे कोई सलाह न दो…’’
नौशाद चुप हो गया.
एक नए मकान के मुख्य द्वार पर नई नेम प्लेट लग चुकी थी ‘सुनीता रहीम निवास’. ड्राइंगरूम के एकदम सामने एक नया फोटो फ्रेम भी लग चुका था, जिस में सुनीता और रहीम एकदूसरे को माला पहना रहे थे. रहीम सुनीता का हाथ अपने हाथों में लिए मुसकरा रहा था.