घर आ कर सुकु ने दोनों बच्चों की विभिन्न आवश्यकताओं व अनुप्रिया की पसंदनापसंद चीजों की सूची बनाई. बच्चों के सारे सामान के बैग के साथ हम ने बच्चों को दूसरे दिन शिशुसदन पहुंचा दिया. इस प्रकार बच्चों की समस्या का समाधान हो गया था.
सुकु साढ़े 8 बजे दोनों बच्चों को शिशुसदन छोड़ती हुई स्कूल चली जाती थी और लौटते समय उन्हें लेते हुए घर चली आती थी. कुछ माह यों ही व्यतीत हो गए. अनुप्रिया कुछ दुबली लगने लगी थी लेकिन अनन्य का स्वास्थ्य ठीक था.
एक दिन सुकु की अनुपस्थिति में मैं ने अनु से पूछा, ‘‘बेटे अनु, तुम्हें शिशुसदन में रहना अच्छा नहीं लगता है क्या?’’
वह पलकें झपकाते हुए मासूमियत भरे स्वर में बोली, ‘‘पिताजी, यदि मैं कहूं कि मुझे वहां अच्छा नहीं लगता तो क्या मां नौकरी छोड़ देंगी?’’
छोटी सी बच्ची की इस तर्कसंगत बात को सुन कर मैं खामोश हो गया. उस दिन मैं ने मन में सोचा कि जो उम्र बच्चों को मां के साथ अपने परिवार में गुजारनी चाहिए, वह उम्र उन्हें एक नितांत ही अनजान स्त्री व परिवार के साथ व्यतीत करनी पड़ रही है.
परंतु सुकु के पास यह सब सोचने- समझने का समय नहीं था. वह तो स्वयं को शतप्रतिशत सही समझती थी. शीघ्र ही उस ने कार ले ली. मैं अब भी बस से फैक्टरी जाता था.
देखतेदेखते 3 वर्ष व्यतीत हो गए. इस अंतराल में हमारे मध्य सैकड़ों बार झगड़े हुए थे. अनु अब प्राथमिक स्कूल व अनन्य नर्सरी स्कूल में जाता था. अब दोनों बच्चों को हम दूसरे शिशुसदन में भेजने लगे थे.