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परपीड़क : भाग 3

‘पढ़ने दो उसे, अभय,’ मीना ने सम  झाया था, ‘कई लोग खातेखाते पढ़ते भी हैं. पतिपत्नी की अपनीअपनी एक सीमा भी होती है. एकदूसरे के शौक और स्वाद में दखल नहीं देना चाहिए. पति पत्नी का मालिक नहीं होता.’

मां के सम  झाने पर अभय सहज हो गया था लेकिन दीपा अवाक् सी मीना का चेहरा देखने लगी थी.

‘पढ़ो बेटा, और साथसाथ खाते भी जाओ न. तुम तो खा ही नहीं रही हो. अभय ने शायद इसीलिए टोका था.’

‘जी…वो…बस, एक ही रचना. रवि सहायजी की रचना तो मैं भूखे पेट भी छोड़ नहीं सकती. बस, इसे पहले पढ़ लूं.’

क्षण भर को हम तीनों की आंखें मिलीं और अभय खिलखिला कर हंसने लगा.

‘रवि सहाय का लिखा भूखे पेट भी छोड़ नहीं सकती. क्या इतना अच्छा लिखते हैं वे?’

‘हां, बहुत अच्छा लिखते हैं.’

असीम संतोष का भाव था दीपा के चेहरे पर. मग्न थी वह पढ़ने में और अभय के अगले प्रश्न को उस ने हाथ के इशारे से नकार भी दिया था.

‘बाद में बात करते हैं.’

चुप हो गए थे हम सब. 10 मिनट बाद उस ने सरिता एक तरफ रख दी और नाश्ता करने लगी. मीना और अभय मेरी ओर देख कर मुसकरा रहे थे. सहसा अभय पूछने लगा :

‘कब से पढ़ रही हो रवि सहाय को?’

‘पिछले 10-12 साल से.’

‘कभी मिली हो उन से?’

‘नहीं, कभी मौका नहीं मिला.’

‘मिलना चाहोगी, कहो तो तुम्हें अभी मिला दूं.’

चुप हो गई थी दीपा. ऐसा लगा कि उसे अभय का सवालजवाब करना अच्छा नहीं लग रहा था. शायद उसे लग रहा था कि उस का पति उस की भावनाओं का मजाक उड़ा रहा है.

‘जलन नहीं हो रही मु  झे रवि सहाय से. तुम रवि सहाय का इतना मानसम्मान करती हो तो अच्छा लगेगा मु  झे भी. बोलो, मिलना चाहोगी उन से?’

चुप रही थी दीपा और इस बच्ची के चेहरे पर आतेजाते भाव पता नहीं क्यों मेरे मन ही मन में कहीं गहरे धंसने लगे थे. मानो ससुराल के लोगों में वह अकेली घिर गई हो…जैसे चक्रव्यूह में अकेला अभिमन्यु.

‘पापा ही तो हैं रवि सहाय.’

अभय ने मेरी तरफ इशारा किया था और उस के बाद सब बदल सा गया था. रोटी का कौर दीपा के हाथ से छूट गया था. उस की आंखें डबडबा गईं और भावनाओं के अतिरेक से उस के हाथपांव कांप से गए.

अविश्वास से मु  झे देखने लगी थी दीपा.  ि झलमिल आंखों में वे सारे भाव जिन्हें कोई नाम नहीं दिया जा सकता. वहीं जड़ सी खड़ी रह गई थी मेरी बहू, जो उस पल मु  झे, मु  झ से ही उपजी अपनी बेटी जैसी लगी थी. न जाने कब से जुड़ी थी मु  झ से, मेरे भावों से, मेरे विचारों से, मेरे सपनों से. कुछ भी बोल नहीं पाई थी तब दीपा मु  झ से. सिर्फ मेरी बांहों में समा गई थी. नन्ही सी बच्ची के समान. थोड़े आंसू, थोड़ी खुशी. अभय और मीना भी भावविभोर हो उठे थे.

‘ऐसा लग रहा है पापा कि यह मेरा मायका है. वहां भी आप मेरे साथ रहे थे और यहां तो हैं ही.’

किसी तरह निकला था उस के होंठों से जो मेरे लिए एक बहुत बड़ा सम्मान था. दीपा का माथा चूम लिया था मैं ने.

‘मैं कोशिश करूंगा बेटा, इस घर में तुम्हारा मायका सदा बना रहे.’

वह दिन और आज का दिन… 2 साल हो गए कभी कोई बात नहीं हुई, जिस ने हमें जरा सी भी तकलीफ पहुंचाई हो. कभी ऐसा कुछ नहीं हुआ जिस से कोई मनमुटाव…कोई उल  झन पैदा हुई हो.

‘‘सुनो अभय, लता ने पैन के बारे में कुछ नहीं सुनाया क्या? तुम ने पैन भी तो ला कर दिया है न मु  झे. क्या पैन तुम ने लता के सामने नहीं खरीदा था?’’

‘‘जी नहीं, पैन तो बाद में लिया था.’’

‘‘चलो, एक तजरबा करें. दीपा, तुम लता को पैन के बारे में भी बताओ और यह भी कहना कि तुम ने कितने प्यार से उसे मु  झे भेंट किया है. बस और कुछ मत कहना. इधरउधर की बातें कर के फोन रख देना. फिर देखना तमाशा.’’

‘‘मु  झे डर लगता है, पापा.’’

‘‘डर से डरोगे तो वह तुम्हें सारी उम्र डराएगा. लता की बहू डरडर कर ही पागल हो गई थी. बड़ों का सम्मान करना बच्चों का धर्म है बेटा, लेकिन सिर्फ तब तक जब तक बड़े बच्चों की सांस तक पर भी पहरा न बिठा दें.

‘‘मांबाप अपना जीवन अपने तरीके से जी चुके हैं. अब बच्चों को उन का जीवन जीने दें न. बच्चों को उल  झाउल  झा कर क्यों मारना? घबराओ मत, बेटा. तुम्हारी लाई साड़ी और सूट पहन कर ही हम लता के घर चलेंगे…आज ही. तुम भी साथ चलना…अपना रंग वह आज नहीं तो कल जरूर दिखा देगी. चलो, शाबाश… फोन करो लता को, हमारे सामने नहीं, अंदर अपने कमरे में जा कर आराम से उस से गपशप करो, जाओ, जाओ.’’

मैं ने जबरदस्ती दीपा और अभय को उन के कमरे में भेज दिया. मीना परेशान हो गई थी अपनी बहन की इस हरकत पर. लता के बहूबेटा बड़ी मुश्किल से अपनी गृहस्थी बचा पाए हैं, इसीलिए मां को लगभग छोड़ ही दिया है दोनों ने. गृहकलह की वजह से ही लता का पति समय से पहले ही चल बसा. अकेली रह गई लता अपनी आदतों से तो कभी बाज नहीं आई उलटा पति की मौत की वजह भी बच्चों को बता दिया. मां की देखभाल वे करें भी तो कैसे. एक दिन दुखी मन से उस का बेटा बोल उठा था :

‘मां किसी को भी शांति से क्यों नहीं जीने देतीं. थक जाता हूं मैं जब मां के पास जाता हूं. पता नहीं कहांकहां से खोद कर मां   झगड़े की वजह निकाल लेती हैं. अब तो हम साथ भी नहीं रहते तो भी   झगड़ा. अब किस बात का   झगड़ा?’

‘एक कान से सुन कर दूसरे कान से निकाल दिया करो. तुम्हारी मां को कोई खुश नहीं रख सकता. दूर से उस पर नजर रखो. नौकर है न घर में. अभी हाथपैर सलामत हैं उस के. जब तक शांति से जिया जाता है जियो. कल की कल देखेंगे,’ मीना ने सम  झाया था लता के बेटे को.

‘‘लेखक होने का कोई तो लाभ मिले. देखते हैं जो मोड़ कथा में दिया है उस का अंत क्या होगा. शाम को चलते हैं उस के घर, मिलनाजुलना भी हो जाएगा और दीपाअभय का मन भी साफ हो जाएगा.’’

हंस पड़ा था मैं.

शाम को उन्हीं कपड़ों में सजसंवर कर हम लता के घर चले गए. सदा की तरह अति बनावटी मुसकान और हंसी के साथ उस ने हमारा स्वागत किया.

‘‘क्या बात है लता? सदियां हो गईं मिले, कम से कम फोन पर ही बात कर लिया करो,’’ मैं ने अपनी छोटी साली का कंधा थपथपा दिया और बोला, ‘‘तुम्हारी आवाज सुने महीनों बीत गए हैं. कभी फोन क्यों नहीं करती हो. अच्छा लगता है तुम से बात कर के.’’

बड़ी गहरी सी नजर से मीना भी पढ़ रही थी बहन का चेहरा. 4 दिन पहले ही तो हम से बात हुई है, यह लता दीपा के सामने कैसे कह दे.

‘‘मौसी से आप की कुछ दिन पहले ही तो बात हुई है पापा, जब आप ने बताया था कि आप को हमारे उपहार बेहद पसंद आए हैं.’’

‘‘नहीं तो, हमारी बात हुए तो लंबा समय बीत गया.’’

‘‘मौसीजी, आप की बात हुई तो थी.’’

‘‘चलो छोड़ो, हुई थी या नहीं हुई थी. बताओ, क्या लोगे…शरबत या चाय?’’

बड़ी सफाई से टाल दिया लता ने. मीना बहन की चालाकी पर मुसकरा दी थी. दीपा भी देखसम  झ रही थी.

‘‘दीपा, जाओ बेटा, मौसी के साथ पकौड़े बना कर ले आओ…लता, जरा इसे सामान दिखा देना.’’

मैं ने जानबू  झ कर दोनों को भीतर भेज दिया था. अभय मेरी तरफ देख रहा था.

‘‘दीपा का दिमाग घुमा देगी मौसी, क्यों उन के पास भेज रहे हैं.’’

‘‘पढ़ेलिखे बच्चे हो तुम दोनों, इतनी बड़ी कंपनी में जिम्मेदारी के पद पर काम करते हो. कान के इतने कच्चे हो जो किसी के बहकावे में आ जाओ. हमारी भी बीत चुकी है और तुम्हारी मौसी की भी. परीक्षा तो तुम दोनों की है. तुम्हीं देखो और परखो. शरारती की शरारत पकड़ कर अपना घर बचाना तुम्हें अभी सीखना है बेटा. सो जाओ, तुम भी मौसी के पास… देखना इस बार उस के तरकश में कौन सा तीर है. जाओ न, जाओ, देखो.’’

लगभग 2 घंटे हम ने वहां बिताए. चायपकौड़े खाए. ज्यादा समय दीपा और लता ने साथ गुजारा. वापस आने तक सब हलकाफुलका ही रहा. मीना ने कोई भी विषय शुरू नहीं किया. कीचड़ में पैर मार कर भी क्या होता. सम  झदारी इसी में है कि बच कर निकल लिया जाए.

उस दिन हम बाहर से खापी कर आए. अच्छा मूड था हमारा. रात सोने की तैयारी में थे कि दीपा ने दरवाजा खटखटा दिया.

‘‘पापा, मैं आ जाऊं क्या?’’

‘‘आओ बेटा, आ जाओ. क्या हुआ, कुछ बात हुई क्या?’’

‘‘जी.’’

चुपचाप पास आ कर बैठ गई दीपा. मीना ने भी गौर से बहू का चेहरा पढ़ा. आंखें नम थीं दीपा की. कुछ पल की चुप्पी के बाद दीपा ने मेरा हाथ पकड़ा.

‘‘बोलो बच्ची, क्या हुआ?’’

‘‘मौसी का दिमाग ठीक नहीं है. वे परपीड़क हैं पापा. वे कितना   झूठ बोलती हैं. कह रही थीं उन्हीं के सम  झाने पर आप हमारे लाए कपड़े पहन कर आए हैं. दोपहर को उन्होंने आप को सम  झाया था कि बच्चों का मन रखने के लिए ही आप को कपड़े पहन लेने चाहिए. जो पैन मैं ने आप को दिया वह भी बेकार है, पैसे बरबाद किए हैं मैं ने…आप को वह भी पसंद नहीं आया.’’

‘‘सम  झाया कैसे था हमें? फोन पर ही सम  झाया होगा न. और हमारा फोन हफ्ते भर से चुप है. कब बात की हम से?’’

‘‘आप का सोचा ही किया मौसी ने. सुबह मैं ने पैन की बात की थी न, अभी उसे भी जोड़ दिया आप की नापसंद से.’’

‘‘तो सम  झ गईं तुम हमारी मंथरा को?’’

रो पड़ी दीपा मीना के गले से लग कर.

‘‘लता इस तरह का कुछ करेगी मु  झे शक ही नहीं पूरा विश्वास था. मेरी ही बहन है. पराई न वह है न तुम हो. तुम्हारा मन दुखा कर उसे आत्मसंतोष मिला होगा, मैं जानती हूं.’’

‘‘मम्मी, मु  झे तो आप पर विश्वास करना चाहिए था न. उन की बात मैं ने तो सच मान ली. पूरी तरह मौसी को भी तो गलत नहीं न कहा जा सकता.’’

‘‘तुम सीधी, सरल हो बेटा, तुम्हारा इस में क्या दोष. अभी दुनिया देखी कहां है तुम ने. ऐसे नमूने अकसर मिल ही जाते हैं, हमें ही बच कर निकलना चाहिए. लता पागल होती तो सम  झना आसान था क्योंकि पागल इनसान का दिमाग काम ही नहीं करता. सच कहा तुम ने…लता परपीड़क है और ऐसा इनसान अपने दिमाग का इस्तेमाल कुछ ज्यादा ही सम  झदारी से करता है. बिना सुबूत के कभी बात नहीं करेगा ताकि सामने वाले को कम से कम विश्वास तो करना ही पड़े. साड़ी का क्रीम कलर याद था उसे, पापा की नीली शर्ट भी उस ने देखी थी. बस, कह दिया तुम्हें कि क्रीम और नीले रंग दोनों बेकार हैं. तुम्हें विश्वास आना ही था क्योंकि रंग उस ने सुबूत के तौर पर बताए थे तुम्हें. पहले पैन की बात नहीं की क्योंकि पहले उसे पैन का पता ही नहीं था.’’

मीना ने दीपा को सम  झाया. वह बहुत बेचैन थी. कैसेकैसे जीव बनाए हैं न प्रकृति ने, जो अपने दिलोदिमाग से इतने मजबूर हैं कि अपना सब जला कर भी उन्हें आग का ताप नहीं लगता. अपना आसपड़ोस भी जला लेते हैं और सम  झ ही नहीं पाते कि सबकुछ जल जाने का कारण वे स्वयं ही हैं. तरस आता है ऐसे लोगों पर जब वे अपना घर भी जला कर बैठ जाते हैं और क्रोध भी आता है, जब यही आग वे अपने रिश्तेदारों के घर में भी लगा आते हैं.

सम  झदार इनसान भांप जाता है और नासम  झ कभीकभी चपेट में भी आ जाता है. रिश्ता है इसलिए निभाना भी हमारी मजबूरी है. परपीड़क कोई अपना है तो काट कर फेंका भी नहीं जाता. अच्छा है, आप उस से सचेत रहें, सतर्क रहें, बच कर रहें. अपना घर भी बचा कर रखें और अपना मन भी. ठीक उस तरह जिस तरह गुलाब कांटों में घिर कर भी खिलना और मुसकराना नहीं भूलता.

किस्मत की लकीरें : भाग 3

राय सर ने आश्वासन देते हुए कहा, “बेटी, तुम चिंता मत करो. मैं मैडिकल डिपार्टमैंट से तुम्हें क्रेडिट नोट कल ही दिलवा दूंगा, जिस के आधार पर कपिल का अस्पताल में कैशलेस ट्रीटमेंट हो जाएगा, क्योंकि हमारे बैंक का टाटा मेमोरियल अस्पताल, मुंबई के साथ बैंक कर्मचारियों और उन के परिवार के इलाज के लिए करारनामा किया हुआ है. इलाज में होने वाले खर्च पर आयकर नहीं लगेगा, क्योंकि कैंसर के इलाज में होने वाला खर्च आयकर के दायरे में नहीं आता है. हमारे बैंक का वहां गेस्टहाउस भी है. मैं तुम्हारे ठहरने की व्यवस्था भी करवा दूंगा.”

कायरा को लगा कि राय सर उस के पिता से भी बढ़ कर हैं. उन जैसे लोगों की वजह से ही दुनिया में भाईचारा और सेवाभाव बचा हुआ है. एक हमारे घर वाले हैं, जिन्होंने अपने ईगो की वजह से हम लोगों से रिश्ता तोड़ दिया, सब से निष्ठुर तो कपिल के मातापिता हैं, बेटे को कैंसर हो गया है, फिर भी उन का ईगो टस से मस नहीं हो रहा है.

कायरा ने गेस्टहाउस बुक करवाने के बाद मुंबई जाने के लिए कल का हवाई टिकट ले लिया. कपिल कैंसर होने की बात सुन कर पहले तो थोड़ा घबराया, लेकिन जल्द ही सामान्य हो गया. कायरा बोली, “चिंता मत करो, सब ठीक हो जाएगा, यमराज को इतनी आसानी से तुम्हें छीनने नहीं दूंगी.”

टाटा मेमोरियल अस्पताल में कपिल को तुरंत एडमिट कर लिया गया, क्योंकि राय सर ने सारी व्यवस्था पहले से ही कर दी थी. उन का बेटा एम्स भोपाल में डाक्टर था और उस के कुछ डाक्टर मित्र टाटा मेमोरियल अस्पताल में कार्यरत थे. उन के बेटे की वजह से सारा इंतजाम आसानी से हो गया. पंद्रह दिनों के बाद आपरेशन की तारीख मिल गई. डाक्टर ने कायरा से कहा, “स्थिति थोड़ी गंभीर है, लेकिन अभी भी उम्मीद बची हुई है. भरोसा रखिए.”

कायरा की प्रार्थना सुन ली. आपरेशन सफल रहा. डाक्टर ने कहा, “अब आप चिंता नहीं कीजिए, लगभग एक साल तक हर महीने कीमो और चेकअप के लिए कपिल को मुंबई आना होगा, लेकिन वह पूरी तरह से ठीक हो जाएगा.”

राय सर भगवान बन कर कायरा और कपिल की जिंदगी में आए थे. उन्होंने दोनों को न तो पैसे की दिक्कत होने दी और न ही बैंक में परेशान होने दिया. इतना ही नहीं, राय सर उन की दूसरी पोस्टिंग शाहपुरा शाखा में करवा देते हैं, जो उन के घर से महज 400 मीटर दूर था.

कपिल काफी कमजोर हो गया था. लगातार कीमो होने की वजह से उस के बाल झड गए थे. बीमारी की वजह से उसे लगातार छुट्टी पर रहना पड़ रहा था. जल्द ही कपिल की छुट्टियां समाप्त हो गईं. उसे वेतन मिलना बंद हो गया.

कायरा अपनी सैलरी से घर चला रही थी. उसे बारबार छुट्टी लेने में परेशानी हो रही थी, लेकिन राय सर उसे हर बार छुट्टी दिलवा देते थे. वे बैंक में काफी सीनियर थे और उन्हें बैंकिंग की अच्छी समझ थी, इसलिए सभी लोग उन की बहुत इज्जत करते थे.

एक साल होतेहोते कपिल का स्वास्थ्य सामान्य होने लगा. डाक्टर ने भी कह दिया कि अब कोई खतरा नहीं है. कपिल भी नियमित रूप से बैंक जाने लगा. राय सर की मेहरबानी से आगे भी उन की पोस्टिंग भोपाल के आसपास होती रही.

कायरा के लिए बीता हुआ साल दु:स्वप्न की तरह जरूर रहा, लेकिन अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति और राय सर की मदद से वह यमराज को भी परास्त करने में कामयाब रही. वह मन ही मन सोच रही थी, सचमुच, हाथ की रेखाएं स्थायी नहीं होती हैं. अगर खुद पर भरोसा हो, मन में लक्ष्य को प्राप्त करने की लगन हो और दिल में बिना हारे लगातार कोशिश करने का जज्बा हो, तो किस्मत की लकीरें भी बदल जाती हैं

कहीं किसी रोज : भाग 3

‘आराम, बुक्स, एक्सरसाइज, कुछ फोन पर बातें, फोन पर नेटफ्लिक्स भी देखती हूं.”

‘‘अच्छा? कौनकौन से शोज देखे हैं अब तक?”

‘‘सेक्रेड गेम्स देख रही हूं आजकल, वैसे और भी बहुत से देख लिए.”

विमल की आंखें कुछ चौड़ी हुईं, ‘‘सेक्रेड गेम्स?”

‘‘हां, फिर हैरान हुए तुम?”

विमल हंस पड़ा, जोया चली गई.

शाम को दोनों फिर बहुत देर तक स्विमिंग पूल के किनारे बैठे रहे, चाय भी साथ पी, जोया ने शरारती स्वर में कहा, ‘‘आज डिनर मेरे रूम में?”

विमल ने हां में सिर हिला दिया. विमल अब उस से अपनी फैमिली की बातें करता रहा, अपनी वाइफ और बच्चों के बारे में बताता रहा, जोया पूरी रुचि से सुनती रही, फिर बोली, ‘‘आप अपनी वाइफ को मेरे बारे में बताएंगे?”

‘‘नहीं,” कहता हुआ विमल मुसकरा दिया, तो जोया भी हंस पड़ी, कहा, ‘‘इसलिए मैं ने शादी नहीं की.” दोनों इस बात पर एकदूसरे को छेड़ते रहे, रात को डिनर के लिए जब विमल तैयार होने लगा, मन ही मन यही सोच रहा था कि वह अपनी वाइफ को धोखा दे रहा है, भगवान उसे कभी माफ नहीं करेंगे, यह पाप है वगैरह, पर जब जोया की हसीन कंपनी याद आती, सब नैतिकता धरी की धरी रह जाती.

जोया विमल के साथ समय बिताने के लिए उत्साहित थी, उसे विमल का स्वभाव सरल, सहज लगा था, वह उस से खूब मजाक करने लगी थी, उसे अपनी बातों पर विमल का झेंपना बहुत अच्छा लगता, रात को विमल उस के रूम में आया, दोनों ने काफी सहज हो कर बहुत देर बातें कीं, डिनर आर्डर किया, खूब हंसतेहंसाते खाना खाया, वेटर सब क्लीन कर  गया, तो जोया ने कहा, ‘‘विमल, मुझे तुम से मिल कर अच्छा लगा. यह और बात है कि हम एकदूसरे से बिलकुल अलग हैं.”

‘‘जोया, मैं ने बहुत सोचा कि तुम से दूरी न बढ़ाऊं, पर दिल है कि अब मानता  नहीं,” कहतेकहते विमल ने उसे खींच कर अपनी बांहों में भर लिया. जोया भी उस के सीने से जा लगी, फिर जो होना था, वही हुआ. पूरी रात दोनों ने एक बेड पर ही बिताई. सुबह जोया ही उठ कर फ्रेश हुई पहले, विमल को झकझोर कर हिलाया, ‘‘उठो, आज क्या इरादा है?”

‘‘तुम्हारे साथ ही रातदिन बिताने का इरादा है, और क्या?”

‘‘तुम्हे पता है जौन अपड़ाईक ने कहा है, सैक्स बिलकुल पैसे की तरह होता है, जितना मिले, उतना कम.

‘‘और मुझे डीएच लौरेंस की बात भी सही लगती है कि सैक्स वास्तव में इनसान के लिए सब से करीबी स्पर्शों में से एक स्पर्श होता है, लेकिन इनसान इसी स्पर्श से डरता है.”

‘‘अब तो वही सही लगता है, जो तुम्हें सही लगता है, कभी भी नहीं सोचा था कि ऐसे किसी के करीब आऊंगा.”

जोया की संगत का ऐसा असर हुआ कि हर बात में धर्म और ईश्वर की बात आंख मूंद कर मानने वाले विमल को अब कुछ याद न आता, औफिस के पहले और बाद का सारा समय जोया के साथ होता, वेटर्स और बाकी स्टाफ से दोनों की नजदीकी छुपने वाली थी ही नहीं, पर दोनों को परवाह भी नहीं थी किसी की, विमल पूरे का पूरा बदल रहा था, न उसे सुबह जीवनभर का नियम सूरज पर जल चढ़ाना याद रहता, न कोई फास्ट, अब उसे जोया की तर्कपूर्ण बातें भातीं, दुनियाभर के दार्शनिकों की कोट्स जोया के मुंह से सुन कर उस का दिल खुश हो जाता कि आजकल वह कितनी इंटेलीजेंट महिला के साथ रातदिन बिता रहा है, अपनी फैमिली से बात करता हुआ भी वह अब परेशान न होता, बल्कि उसे फोन रखने की जल्दी होती, वह इस लौकडाउन को अब मन ही मन थैंक्स कहने लगा था. जोया, वह तो थी ही अपनी तरह की एक ही बंदी, विमल का दीवानापन देख वह हंस देती.

अचानक ट्रेनें और बाकी सेवाएं शुरू हुईं, जोया के एक स्टूडेंट ने रूड़की में अपने किसी रिश्तेदार को कह कर पास दिलवा कर जोया के टैक्सी से दिल्ली जाने का इंतजाम कर दिया, वहां से वह अपने भाई के पास रह कर फिर बैंगलोर चली जाती, उस ने यह खबर जब विमल को दी तो विमल को ऐसा झटका लगा कि उस का चेहरा देख जोया भी गंभीर हुई, ‘‘विमल, हमारे रास्ते, मंजिल तो अलग हैं ही, इस में तुम इतना उदास मत हो, मुझे दुख हो रहा है.”

विमल ने उस का हाथ पकड़ लिया. गमगीन से स्वर में वह बोला, ‘‘मैं तो भूल ही गया था कि हमे बिछुड़ना भी होगा.”

जोया अपनी पैकिंग करने लगी.  होटल वालों को इस समय ध्यान रखने के लिए विशेष रूप से थैंक्स कहा, वेटर्स को बढ़िया टिप्स दी, विमल भी टूटे दिल से जाने के रास्ते खोजने लगा. चलते समय जोया विमल के गले लग गई, अपना कार्ड दिया, बोली, ‘‘जब मन करे, फोन कर लेना. वैसे, मैं जानती हूं कि कुछ ही दिन याद आएगी मेरी, फिर अपनी लाइफ में बिजी हो कर कभीकभी ही याद करोगे मुझे.”

‘‘और तुम…?”

जोया बस मुसकरा दी, कहा कुछ नहीं. टैक्सी आ गई, जोया बैठने लगी तो विमल ने बेकरारी से पूछा, ‘‘जोया, कब मिलेंगे?”

‘‘ऐसे ही, कभी भी, कहीं किसी रोज.”टैक्सी चली गई. विमल का दिल जैसे बहुत उदास हुआ, मन ही मन कहा, ‘‘जोया सिद्दीकी, बहुत याद आओगी तुम.”

दुख की छांव में सुख की धूप : भाग 3

“कितना प्यार करते हो?” थोड़ी चुप्पी के बाद मालती बोली.

“मैं उस के साथ आगे का जीवन जीना चाहता हूं. मैं…मैं… शादी करना चाहता हूं प्रीति से,” एक सांस में कह गया अभय. वह जानता था कि वह जिस से यह बात कर रहा है वह प्रीति की सास है. मालती के जवाब के इंतजार में वह अपनी उंगलियां चटकाने लगा.

“और प्रीति, क्या वह भी तुम्हें प्रेम करती है?” मालती ने सवाल किया.
मालती के सवाल से अभय के चेहरे पर पीड़ा नजर आई. एक पल को वह खामोश हो गया और फिर धीरे से बोला,”वह बात नहीं कर रही. मुझे यकीन है कि उस के दिल में मेरे लिए जगह है लेकिन स्वीकार नहीं कर रही,” अभय ने निराश हो कर कहा.

“तुम्हारे लिए उस के मन में जगह है यह कैसे कह सकते हो अभय? जब तक वह स्वीकार न करे, तुम यह कैसे मान बैठे हो कि वह तुम्हें प्यार करती है?” मालती के स्वर में थोड़ी तेजी थी.

“प्लीज आंटी, आप नाराज न हों. वह आप से, नेहा से बहुत प्यार करती है. आप दोनों के अलावा उसे कुछ नजर नहीं आता,” अभय के चेहरे पर कुछ चिंतित भाव थे. उस की बात मालती के दिल में धक से लग गई. कहीं सच में उन के कारण ही तो प्रीति अपने लिए कुछ सोचना नहीं चाहती.

“आंटी…मेरा मतलब, मैं आप का दिल नहीं दुखाने…सौरी आंटी…मुझे ऐसे नहीं कहना चाहिए था,” अभय को अपनी गलती का एहसास हुआ.

“कोई बात नहीं अभय. तुम ने कुछ गलत नहीं कहा,” मालती बोली.

“मुझे आप अपना बेटा नहीं बना सकतीं?” अभय ने अचानक से कहा.
इस बात से मालती की आंखों में नमी उतर आई. वह उस के चेहरे को देखने लगी.

“मैं यह बात इसलिए नहीं कह रहा हूं कि मुझे आप का फेवर चाहिए बल्कि इसलिए कह रहा हूं क्योंकि प्रीति आप को बहुत प्यार करती है. आप के परिवार का हिस्सा बन कर शायद प्रीति मुझे अपना ले,” अभय ने दीन भाव से कहा.

“मेरा बेटा बनने का बोझ अपने दिमाग पर मत लो अभय. यदि प्रीति तैयार हो जाए तो मुझे उस की शादी तुम से करने में खुशी होगी क्योंकि मैं खुद चाहती हूं प्रीति को बेटी की तरह विदा कर दूं,” मालती ने उठते हुए कहा.

“आंटी… मैं शायद कुछ गलत कह गया. क्या करूं, मुझे बहुत सजा कर कहना नहीं आता लेकिन मैं बस इतना कहूंगा कि प्रीति के परिवार का हिस्सा बनना चाहता हूं. मैं रोहन की जगह नहीं ले रहा लेकिन नेहा का भाई जरूर बनना चाहता हूं,” अभय ने अपनी बात दृढ़ता से रखी.

“मालती उस के सिर पर हाथ रख कर हौले से मुसकराई और वहां से निकल गई.

••••••••••••••••

“मां, आप अंधेरे में क्यों बैठी हो, तबीयत ठीक है न?” लाइट का स्वीच औन कर के प्रीति बोली.

“हां, तबीयत ठीक है,” मालती बोली.

“तो ऐसे अकेली क्यों बैठी हो? डिनर तैयार है. नेहा भूख से परेशान हो रही है और आप यहां अंधेरे में…चलिए खाना खाते हैं,” प्रीति ने कहा.

“तुम दोनों खा लो, मुझे भूख नहीं,” मालती लेटते हुए बोली.

“क्या बात है मां, आप परेशान लग रही हो. नया बौस… परेशान तो नहीं कर रहा वह?” प्रीति ने कहा.

“नहीं, ऐसा कुछ नहीं है. कौफी पी ली थी और साथ में सैंडविच भी तो भूख नहीं लग रही. नींद भी आ रही है. तुम दोनों खा लो न,” मालती ने बहाना बना कर कहा.

“पक्का न,” प्रीति ने शंकित हो कर कहा.

“पक्का मेरी अम्मां,” मालती ने हाथ जोड़ कर कहा. प्रीति हंसती हुई कमरे से बाहर निकल गई.

अभय की बात उस के दिमाग को चोट दे रही थी. अपने अतीत में झांकती मालती अकेलेपन से सिसक उठी. टूट कर प्रेम किया था प्रकाश ने लेकिन वह निभा न सकी. राघव का नाम और बच्चों की परवरिश उस के लिए जरूरी था. जाने कैसे सामना करेगी वह उस का.

आंखों में जैसे धुंध सी उतर आई. अपने सीने को भींच मालती सुबकने लगी. दर्द था कि कहीं दबा था जो बारबार खरोंच लगा देता. रोहन की मौत ने उसे एक बार फिर तोड़ दिया उस पर प्रीति का अकेलापन…

“नहीं…मैं प्रीति को अकेले तड़पने नहीं दूंगी. मुझे कुछ करना होगा. समझाना होगा प्रीति को,” खुद से बडबड़ाती मालती उलझन से निकलने की कोशिश करने लगी.

फोन की गैलरी में प्रीति की हंसती तसवीर अभय के चेहरे पर मुसकान ले आई,’समझती क्यों नहीं प्रीति. मुझे तुम्हारी जरूरत है. मैं प्यार करता हूं तुम से,’ वह बुदबुदाया.

‘तुम्हारी बेरूखी मार रही है मुझे. कैसे यकीन दिलाऊं तुम्हें कि मैं तुम्हें प्यार करता हूं. तुम पर हक रखना चाहता हूं. अपना हक देना चाहता हूं. बस, एक बार कह दो न अपने दिल की बात,’ अभय की आंखों से टपटप आंसू बह निकले और मोबाइल पर भी जा गिरे. वह मोबाइल अपनी उंगलियों से साफ करने लगा कि तभी प्रीति का नंबर डायल हो गया. अभय को इस का आभास नहीं हुआ. वह कुरसी पर सिर टिका अधलेटा हो गया था. देर रात मोबाइल पर अभय का कौल देख प्रीति घबरा गई. वह फोन नहीं उठाई.

“भाभी, देखो न किस का फोन है?” नेहा ने प्रीति से कहा.

“पता नहीं किस का नंबर है. अननोन लग रहा है,” प्रीति आंखें चुरा कर बोली.

“आप फिर भी एक बार फोन उठा लो. क्या पता कोई जरूरतमंद हो,” नेहा ने कहा तो प्रीति फोन ले कर बालकनी में चली गई. कान में फोन लगाई तो उधर से कोई आवाज नहीं आई.

“हैलो…हैलो…इतनी रात को फोन क्यों किया? हैलो…” अभय अब भी अपनी आंखें बंद किए बैठा था. उसे आभास भी नहीं था कि फोन पर प्रीति है. अभय का जवाब न सुन कर प्रीति को गुस्सा आ गया. वह फोन काट दी और दनदनाती वापस आ कर बिस्तर पर बैठ गई.

“क्या हुआ भाभी, कौन था?” नेहा ने उसे गुस्से में देख कर पूछा.

“पता नहीं कौन था. जवाब ही नहीं दिया,” प्रीति बोली.

“तब तो कोई सिरफिरा होगा. छोड़ो न. सो जाओ,” लाइट बंद कर के नेहा प्रीति के बगल में लेट गई.

अभय ने अपना फोन उठाया तो देखा कि प्रीति को रिंग गई थी. वह हड़बड़ा गया. तुरंत प्रीति का नंबर मिलाया.
लेकिन प्रीति ने इस बार फोन काट दिया. अभय परेशान हो समझ नहीं पाता कि क्या करे. वह व्हाट्सऐप पर मैसेज लिख देता है, “प्रीति सौरी, पता नहीं कैसे तुम्हें रिंग चली गई. हो सकता है कि स्क्रीन साफ करते समय ऐसा हो गया हो.”

अभय का मैसेज पढ़ कर प्रीति ने कोई जवाब नहीं दिया. फोन स्वीच औफ कर के रख दी. उस की आंखों के सामने रोहन का चेहरा नजर आने लगा. धीरेधीरे वह चेहरा धुंधला हो अभय के चेहरे में बदलने लगा. प्रीति घबरा कर अपनी आंखें भींच ली.

“उठ जाओ दोनों, 7 बज गए हैं. प्रीति औफिस नहीं जाना क्या?” मालती ने प्रीति को हिलाते हुए कहा.

“सोने दो मां…आज मन नहीं है कहीं जाने का. छुट्टी ले लेती हूं,” प्रीति आंखें बंद किए ही बोली.

“क्या करोगी पूरा दिन घर में अकेली? चलो उठो निकलो सब अपने काम पर,” मालती ने उस की चादर खींच कर कहा.

“प्लीज मां, मुझे 1-2 जगह औनलाइन इंटरव्यू देने जाना है. इसलिए आज औफिस नहीं जा रही,” प्रीति ने अंगङाई लेते हुए कहा.

“इंटरव्यू, लेकिन क्यों? अच्छीखासी जौब है तुम्हारी, फिर बदलने की क्यों सोच रही हो?” मालती समझ गई थी कि प्रीति अभय से दूर रहने के लिए ऐसा कर रही है.

“अरे मां, इतना परेशान क्यों हो जाती हो? आगे बढ़ना है ग्रोथ करनी है तो बदलाव जरूरी है वरना तरक्की कैसे होगी,” प्रीति समझाते हुए बोली.

“यही बात जीवन पर भी लागू होती है बेटा. पुराने दुख, तकलीफ हमें छोडेंगे नहीं तो आगे कैसे बढ़ेंगे. यह जो दर्द तुम ओढ़ कर बैठी हो न यह उतार दो प्रीति. सोचो बच्ची,” इतना कह कर मालती कमरे से निकल गई.

प्रीति उसे बाहर जाते देखती रही. उस का ध्यान अभय के मैसेज की ओर गया. फोन उठा उस के इनबौक्स को ओपन कर मैसेज टाइप कर बोली,
“कोई बात नहीं.”

फोन रख प्रीति वाशरूम चली गई. नेहा चुपचाप प्रीति का फोन उठा कर रात में आई कौल को देखने लगी. अभय का नाम देख नेहा सोच में पड़ गई. फोन वापस रख चादर मुंह पर ढक कर लेट गई.

वाशरूम से निकल कर प्रीति रसोई में मालती के पास जा कर खड़ी हो गई,”मां, हटिए मैं बना देती हूं नाश्ता.”

“रहने दो बेटा, बन गया है. चल तू बाहर बैठ. अभी काफी टाइम है कुछ बातचीत करते हैं,” मालती ने कप में चाय डालते हुए कहा. ट्रे उठा कर प्रीति ड्राइंगरूम में आ गई. मालती उस के पीछे थी. मेज पर ट्रे रख प्रीति सोफे पर बैठ गई.

“नौकरी छोड़ने का फैसला कहीं अभय की वजह से तो नहीं किया तुम ने?” मालती ने सीधे सवाल किया.
उस के इस सवाल पर प्रीति हड़बड़ा गई,”नहीं मां, ऐसी बात नहीं है.”

“तो कैसी बात है प्रीति, तुम और अभय अच्छे दोस्त हो. फिर अचानक क्या हुआ जो अभय तुम्हें लेने आना छोड़ दिया? तुम कुछ नहीं बताती, उस का जिक्र तक नहीं सुनती. आखिर हुआ क्या है? अगर अभय ने कुछ गलत किया है तो मुझे बताओ. बात करती हूं उस से,” मालती एक ही सांस में कह गई.

“अब आप से कैसे बताऊं मां…” उंगलियों को उमेठते हुए प्रीति खड़ी हो गई.

“कैसे क्या, अपने मुंह से बताओ. हुआ क्या है तुम दोनों के बीच?” मालती ने शब्दों पर जोर डालते हुए कहा.

“वह पागल हो गया है… दिमाग खराब हो गया है उस का….वह मुझ से…उस की हिम्मत देखो मां…वह बोल रहा था कि मुझ से प्यार करता है. उस ने कैसे सोच लिया कि मेरे अकेले होने का फायदा उठा लेगा,” इतना बोल कर प्रीति हांफने लगी. मालती उसे गले से लगा ली और उस की पीठ को सहलाने लगी.

“शांत मेरी बच्ची,” उस की मनोदशा देख मालती को अपना गुजरा वक्त याद आ गया. प्रकाश को बेइज्जत कर के घर से निकालते हुए मालती तड़प कर रोती रही लेकिन किसी को अपना दर्द दिखा नहीं पाई. प्रीति की हालत ऐसी न थी कि अभय का जिक्र दोबारा करे. वह उसे ऐसे ही गले लगाए बैठी रही. प्रीति की आंखों से बहते आंसू उस के कंधे को भिगोते रहे.

“सौरी मां…” खुद को नियंत्रित कर प्रीति मालती से अलग हो गई.

“सौरी क्यों? मां के कंधे से नाक साफ करने के लिए सौरी बोल रही हो न,” मालती ने प्रीति को हंसाने के लिए कहा.

“क्या मां आप भी. मेरी नाक नहीं बहती,” आंसू पोछते हुए प्रीति हंस पड़ी.

“हो गया आप दोनों का, मुझे भी कोई नाश्ता देगा या ऐसे ही रहूं भूखी,” नेहा अपने कमर पर हाथ रख दोनों के पीछे खड़ी थी.

•••••••••••••

“आप मुझे आज मिल सकते हैं अभयजी?” नेहा कालेज की कैंटीन में बैठी थी.

“हां नेहा, सब ठीक है न,” अभय का मन आशंका से धड़क उठा.

“सब ठीक है. मुझे आप से मिलना है बस. आप आ रहे हैं न?” नेहा के स्वर में जिद थी.

“ठीक है, कितने बजे आऊं?” अभय ने पूछा.

“आप लंच ब्रेक में आ सकते हैं. यदि कोई दिक्कत न हो तो या फिर मैं ऐसा करती हूं औफिस के पास ही आ जाती हूं,” नेहा ने कहा.

“नहीं कोई दिक्कत नहीं. मैं पहुंच जाऊंगा,” इतना कह अभय ने फोन रख दिया. प्रीति औफिस नहीं आई थी. अभय के मन में आशंकाओं के बादल उमड़ने लगे. 12 बजे थे. नेहा के कालेज तक पहुंचने में आधा घंटा लग सकता था. अभय स्टाफ को बता औफिस से निकल गया. बाइक की रफ्तार कुछ ज्यादा थी लेकिन उस के दिमाग में चलते विचारों से कम ही. लगभग 20 मिनट बाद वह नेहा के कालेज के बाहर था. बाइक को गेट से कुछ दूर पार्क कर अभय आतेजाते स्टूडैंट्स को देखने लगा. समय धीरेधीरे सरक रहा था. वह बारबार घड़ी देख लेता. ठीक 1 बजते ही अभय ने नेहा को मैसेज कर अपने आने की खबर दे दी. 10 मिनट बाद नेहा और अभय कालेज के पास एक रेस्तरां में थे.

“एक बात पूछूं अभय भैया…मैं आप को भैया कह सकती हूं न?” नेहा ने हिचकते हुए कहा.

“मुझे खुशी होगी, नेहा. वैसे भी मैं ने हमेशा तुम्हें छोटी बहन की तरह ही देखा है,” अभय के चेहरे पर मुसकान खिल गई.

“तो फिर वादा कीजिए, प्रीति भाभी को खुश रखेंगे,” नेहा ने अपनी हथेली अभय के सामने फैला कर कहा. उस की बात पर अभय चौंक गया. वह चुपचाप नेहा को देखने लगा.

“कुछ बोलिए भाई, मुझ झल्ली के भाई बन कर प्रीति भाभी को हमेशा खुश रखोगे न?” नेहा ने फिर कहा.

“मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि क्या कहूं. प्रीति की खुशी तो मेरा जीवन है लेकिन प्रीति को मैं पसंद नहीं,” अभय ने आंखों को झुका कर कहा.

“तो पसंद कवाएंगे भाई, पहले यह बताओ कि आप के पेरैंट्स इस शादी के लिए तैयार हो जाएंगे?” नेहा बोली.

“मैं बात कर चुका हूं. वे तैयार नहीं हैं लेकिन मैं ने स्पष्ट कह दिया है कि प्रीति के अलावा कोई और मेरी जिंदगी में नहीं आ सकती,” अभय ने साफ कहा.

“लेकिन अगर आप के पेरैंट्स नहीं माने तो यह शादी कैसे होगी?” नेहा ने कहा.

“वह मुझ पर छोड़ दो. प्रीति भी तो नहीं मान रही. मेरी शक्ल नहीं देखना चाहती वह. पागल सोचती है कि मैं उस पर दया कर रहा हूं जबकि जानती नहीं कि दया मैं मांग रहा हूं उस से उस की,” अभय झल्लाते हुए बोला.

“नहीं मान रही तो मना लेंगे…डोंट वरी भाई. बस, आप अपनी कोशिश करते रहो, मैं अपनी करती रहूंगी लेकिन मेरी एक शर्त है,” नेहा ने आंखें मटका कर कहा.

“बोलो क्या शर्त है? मुझे मंजूर है,” बिना शर्त जाने अभय ने मंजूरी दे दी.

“आप मेरे रोहन भाई की तरह मुझे भाई का प्यार दोगे. मुझे मेरा भाई चाहिए. ऐसा भाई जिस के हाथों में मेरी राखी चमके. बनेंगे ऐसा भाई?” नेहा की आंखों में पानी उतर आया.
उसे देख अभय अपनी जगह से उठ नेहा के नजदीक आ कर उसे गले से लगा लिया.

“तुम ने मुझे बहुत बड़ा सम्मान दे दिया, नेहा. मैं इस रिश्ते को ताउम्र निभाऊंगा. वादा रहा. और सुनो, तेरी प्रीति भाभी मेरी जिंदगी में न भी आए लेकिन तेरा यह भाई हमेशा तेरे साथ रहेगा,” अभय का गला भर्रा गया.
2 साल से रुके दर्द को नेहा की आंखें बहाने लगीं. प्रीति और मालती को संभालती नेहा अपने अंदर बह रहे जख्म को छिपाए हंसती रहती लेकिन आज अभय के साथ जुडे प्यारे रिश्ते ने उस जख्म पर मरहम रख दिया.

“चलो, अब मैं चलता हूं वरना जौब चली जाएगी अपनी. रूला दिया पगली ने,” नेहा के सिर पर चपत लगा कर अभय बोला. नेहा ने सहमति में गरदन हिला कर हामी भर दी.

ग्रामीण शाखा में अपने ट्रांसफर लैटर को हाथ में लिए मालती प्रकाश के केबिन को घूर रही थी. जानती थी कि प्रकाश उस से दूर रहने के लिए ही यह सब कर रहा है. कुछ सोच वह अपनी जगह से उठ कर प्रकाश के केबिन की ओर चल दी. “बौस हैं अंदर?” मालती ने मोहन से पूछा.

“हां हैं लेकिन फोन कौल पर हैं. बोल रहे थे कि कोई डिस्टर्ब न करे,” मोहन ने टोपी ठीक करते हुए कहा.

“ठीक है. चलो मेरे लिए चाय ले आओ. सिरदर्द हो रहा है मेरा,” मालती ने मोहन से कहा.

“पर मैडम, बौस ने बुलाया तो?” मोहन असंजस में था.

“अरे बाबा, मैं बता दूंगी कि मैं ने भेजा है. परेशान न हो. तुम्हें कोई डांट नहीं पङेगी,” मालती ने प्यार से कहा.

मोहन कैंटीन की ओर तेजी से निकल गया. भावनाओं को कंट्रोल कर मालती प्रकाश के केबिन में चली गई. अचानक मालती को सामने देख प्रकाश हड़बड़ा गया. दोनों एकदूसरे के सामने खड़े आंखें चुरा रहे थे.

“मेरा…मैं अपने ट्रांसफर की बात करने…” मालती ने शुरुआत की.

“मुझे लगता है कि तुम्हारा…मतलब आप का ट्रांसफर ही ठीक रहेगा ताकि आप आराम से अपना काम कर सकें,” प्रकाश ने फाइलों को उलटते हुए कहा.

“लेकिन ग्रामीण शाखा मेरे घर से काफी दूर है. मुझे दिक्कत हो जाएगी,” मालती थोड़ी नाराजगी से बोली.

“ऐप्लिकेशन दे दो. विचार करेंगे,” मालती की आंखों से बचता प्रकाश अपने मन को काबू किए था.

“लेकिन अचानक ट्रांसफर का डिसीजन किस बेस पर लिया गया? क्या मैं ठीक से काम नहीं कर रही थी?” मालती ने कहा.

“ठीक से तो रिश्ता निभाना चाहता था. लेकिन तुम ने उस रिश्ते को झट से तोड़ दिया. अब इतने सवाल क्यों? मैं चला गया लेकिन तुम ने पलट कर एक बार भी मुझे नहीं रोका. मैं प्यार करता था तुम से मालती, लेकिन तुम ने मुझे झूठा बना मुझ पर तोहमत लगा दी,” प्रकाश ने अपनी आवाज पर काबू रखते हुए वर्षों की शिकायतों को मालती के सामने फेंक दिया.
मालती की आंखें मन के भावों को रोकने की जुगत करने लगीं लेकिन लाल होता चेहरा उस के दर्द के उफान की चुगली कर रहा था.

“बोलो न मालती, क्यों डर गईं समाज से? क्यों नहीं मेरा साथ दिया?” प्रकाश फिर बोला.

“अब इन बातों का कोई फायदा नहीं. वक्त गुजर चुका है और हमारी भावनाएं भी वक्त के बाद पुरानी हो गई हैं. समाज के सामने लड़ने के लिए एक औरत को सब से पहले खुद का कत्ल करना होता है. लेकिन मैं डरपोक निकली. मैं नहीं छोड़ पाई अपने बुजुर्ग सासससुर को, अपने रिश्तों को. वह वक्त आज सा नहीं था प्रकाश…मैं इतनी बहादुर नहीं थी,” फफक पड़ी मालती.

“सालों से अपने प्रेम की कब्र पर सीमेंट चढ़ा रही हूं ताकि प्लास्टर झड़ कर कमजोर न हो जाए. इस मजबूत कब्र पर मेरी जिम्मेदारियों के फूल चढ़ाए गए थे जिन्हें मैं ने चुना था. तुम समझ नहीं पाओगे क्योंकि विधवा मैं थी तुम नहीं,” मालती ने प्रकाश की नाराजगी पर सवाल खड़ा कर दिया.

“बस, एक बार मेरा हाथ थाम लेतीं. मैं तुम्हें मुरझाने न देता. यकीन तो करतीं मुझ पर,” प्रकाश ने कहा.

“यकीन नहीं होता तो तुम से प्रेम न करती. लेकिन प्रकाश, इतनी स्वार्थी नहीं थी कि अपनी सफेद चादर के नीचे तुम्हारे रंग ढंक लेती. तुम्हें खिलने का हक था मुरझाने का नहीं. चलती हूं. हो सके तो दोस्त बन इस रिश्ते की कड़वाहट को कम करने की कोशिश करेंगे. यहीं रह कर, इसी औफिस में,” ट्रांसफर लैटर प्रकाश की टेबल पर रख मालती केबिन से बाहर निकल गई.

प्रकाश उसे जाते देखता रहा.
“आज भी तुम वैसी ही हो मालती. चलो प्रेम नहीं दोस्ती को निभाएंगे,” इतना कह कर प्रकाश ने लैटर फाड़ कर डस्टबिन में डाल दिया.

“कैसा रहा आज का दिन मां?” पानी का गिलास मालती के हाथों में दे कर प्रीति ने पूछा.

“बहुत अच्छा गुजरा, नए बौस से मिल कर आई,” इतना कह मालती सोफे पर पसर गई.

“तो बताओ कैसे दिखते हैं आप के खूशट बौस,” प्रीति जिज्ञासा से मालती के नजदीक बैठ गई.

“मैं उन्हें पहले से जानती हूं, उस समय से जब पहली बार नौकरी के लिए औफिस में कदम रखा था,” मालती ने कहा.

“अच्छा, नाम क्या है उन का? क्या पहले भी आप के बौस थे वह?” प्रीति ने उत्सुकता से पूछा.

“प्रकाश नाम है. सहकर्मी थे मेरे. प्रकाश मुझ से शादी करना चाहते थे,” इतना कह कर मालती प्रीति के चेहरे की ओर देखने लगी.

“क्या बात करती हो मां, आप को कहा था उन्होंने?” चौंकते हुए प्रीति बोली.

“प्रेम करता था प्रकाश मुझे लेकिन समाज विधवा को प्रेम की इजाजत नहीं देता. लांछन लगा कर बदनाम करता है. मैं हिम्मत नहीं कर पाई और प्रकाश को दोषी बना दिया,” मालती ने कहा.

“पर मां, जब आप उन्हें प्रेम ही नहीं करती थीं तो आप का कोई दोष नहीं,” प्रीति ने कहा.

“मैं…प्रेम करती थी प्रकाश से लेकिन कायर थी. उसे सम्मान न दे सकी. ताउम्र भय में बिता दी और जीती रही उस नाम के साथ जो मुझे मंझधार में छोड़ गया. बहुत कठिन होता है अकेले जीना. बहुत कठिन,” मालती की आंखों में आंसू थे.

“मां,” प्रीति उस की हथेलियों को सहलाने लगी.

“प्रीति, प्रेम की कद्र करो. समाज, रिश्ते और संबंध सब छूट जाते हैं. कोई साथ नहीं होता जब तुम रोते हो, जब तुम अकेले होते हो. एक साथी होना चाहिए जिसे अपना दुख अपनी पीड़ा कह सको,” मालती ने प्रीति को समझाते हुए कहा.

“पर मां, अपने पहले प्यार को कैसे भुलाया जा सकता है. यह धोखा नहीं है क्या? कैसे हम किसी के न होने से रिश्ता खत्म कर दें. नहीं मां, यह सही नहीं,” प्रीति ने कहा.

“यह खुद को धोखा है. अकेले रह कर कौन सा यश कमाना है? कौन सा पुण्य. प्रीति, तुम अकेली खुश हो तो कुछ नहीं कहूंगी. लेकिन बेटा, एक उम्र आएगी जब तुम्हारे आसपास बस सन्नाटा होगा. अपने जीवन को दांव पर लगा कर उस की याद में मत घुलो, जो चला गया तुम्हें छोड़ कर. तुम्हारे सामने तुम्हारा भविष्य है, अभय है जो तुम्हारी खुशी से ही खुश रहेगा. सोचो प्रीति सोचो,” मालती ने प्रीति के सिर पर हाथ फेर कर कहा.

“मां ठीक कह रही है, भाभी. भाई ने आप को कहा था कि हमारा खयाल रखना. इसलिए आप अपनी जिंदगी हमारे लिए कुरबान कर रही हो. पर हमारी खुशी इसी में है कि आप अपनी जिंदगी में आगे बढ़ो. मुझे भाई चाहिए भाभी, मेरे लिए भाई ले आओ,” नेहा ने विनती करते हुए कहा.

“मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा. मैं कुछ नहीं जानती. मैं बस इतना जानती हूं कि मैं रोहन से बहुत प्यार करती हूं और किसी को उस की जगह नहीं दे सकती. मेरे जिस्म पर किसी और का स्पर्श मुझ से बरदाश्त नहीं होगा,” इतना कह प्रीति रोने लगी.

“अभी तुम भावुक हो कर सोच रही हो. अभी भी तुम उस रिश्ते के बोझ में दबी हुई हो जिस रिश्ते से रोहन तुम्हें आजाद कर के चला गया. तुम्हारे दिल में अभय ने दस्तक दी है उसे सुन लो. प्रेम बारबार मौका नहीं देता. मत करो दरवाजा बंद. अपने लिए न सही अभय के लिए खोल दो यह दरवाजा,” इतना कह कर मालती अपने कमरे में चली गई. नेहा देर तक प्रीति को सुबकते देखती रही फिर मालती के पास जा कर लेट गई.

घर में सन्नाटा पसर गया. कोई कुछ नहीं बोल रहा था. ड्राइंगरूम में अंधेरे ने कुछ ज्यादा ही काला रंग डाला था जो मालती के कमरे से आती रोशनी से भी नहीं मिट रहा था. अचानक डोरबेल ने सन्नाटे में पत्थर मार दिया. प्रीति ने अपनी आंखों को साफ कर लाइट जलाई और दरवाजा खोल दिया. सामने अभय खड़ा था. उसे देख प्रीति का दिल जोर से कांप गया.

“मैं अंदर आ सकता हूं?” अभय के सवाल पर प्रीति सामने से हट गई. बिना जवाब दिए वह अपने कमरे में जा कर कोने में बैठ गई. उस की आहट सुन कर मालती बाहर आई,”अभय, क्या हुआ बेटा?” अभय को अचानक अपने घर देख मालती का चौकन्ना होना लाजिम था.

“मैं यहां से गुजर रहा था तो सोचा आप से मिलता चलूं, आंटी. प्रीति भी औफिस नहीं आई थी, तबीयत ठीक है न उस की?”

“मैं ठीक हूं अभय, तुम्हें चिंता करने की जरूरत नहीं,” प्रीति सामने थी.

“मैं बस…अच्छी बात है तुम ठीक हो. औफिस नहीं आईं तो चिंता स्वाभाविक है. दोस्त हूं तुम्हारा,” अभय इस बार खामोश होने के मूड में नहीं था.

“तुम दोनों बैठो मैं चाय लाती हूं,” इतना कह मालती किचन की ओर चली गई.

“प्रीति, तुम मुझ से नाराज न हो. भले ही मैं तुम्हें प्यार करता हूं लेकिन जबरन तुम्हारी जिंदगी में शामिल नहीं होऊंगा. मेरी भावनाएं मेरी हैं उस से तुम्हें कोई दिक्कत नहीं होने दूंगा,” अभय ने प्रीति की ओर देख कर कहा. उस की बात सुन प्रीति कुछ नहीं बोली. पैरों से फर्श कुरेदती रही.

“भाई, आप यहां, अरे वाह. अच्छा हुआ आप आ गए. मैं इन दोनों बोरिंग शक्लों के साथ रह कर बोर हो चुकी हूं. हर वक्त फूलकुमारी बनीं घूमती रहती हैं दोनों,” नेहा अभय के पास ही बैठ गई.

“इतने बोरिंग चेहरे भी नहीं हैं इन के,” अभय हंसते हुए बोला.

“अच्छा तो हम फूलकुमारी हैं. तुम्हें बताती हूं मैं लड़की,” मालती चाय के साथ ड्राइंगरूम में थी.

अभय और नेहा इस तरह बातें कर रहे थे जैसे शुरू से एकदूसरे के साथ रहते हों. नेहा अभय को भाई कह रही थी, यह सुन कर प्रीति की आंखों के सामने रोहन का चेहरा घूमने लगा.

दोनों की चुहलबाजी माहौल को हलका बना रही थी. लग नहीं रहा था कि कुछ समय पहले घर में एक अलग मातमी माहौल था. अभय की उपस्थिति घर में पुरुष की कमी को दूर कर रही थी.

“ओह, मुझे भूख लग रही है. 9 बज गए हैं मां,” नेहा बोली.

“खाना बना कहां है जो खाओगी. मेरे तो घुटने दर्द कर रहे हैं और प्रीति का सिर. तो बची तुम तो जाओ रसोई में,” मालती ने कहा.

“देख लो भाई. यही होता है मेरे साथ. अब 9 बजे क्या बनेगा भला,” नेहा बच्चों की तरह बोली.

“अरे परेशान क्यों हो. औनलाइन मंगवा लेते हैं. मैं हूं न,” अभय भी नेहा के साथ हो गया.

प्रीति खामोशी से नेहा और मालती के चेहरे पर आई चमक को देख रही थी. अभय में उसे रोहन की झलक दिखने लगी. मन की आंखों पर पड़ी धुंध छट रही थी और उस के सामने एक खिलखिलाता परिवार था. 11 बज चुके थे लेकिन रौनकें अब भी घर के कोने में फैली थीं. अभय की उपस्थिति में नेहा और मालती प्रीति की ओर ध्यान नहीं दे रही थीं, यह देख प्रीति को हंसी आ गई. उन के जीवन की कमी वह समझ गई.

“मैं सोने जा रही हूं मां. सुबह औफिस जाना है न. अभय आप मुझे औफिस ड्रौप कर दोगे न?” प्रीति की आवाज में कुछ बदलाव था जो अभय के कानों से होता दिल में उतर गया.

“हां प्रीति, मैं आ जाऊंगा,” उस की जबान पर आई खुशी नेहा और मालती के मन को सुकून दे गई. मालती ने प्रीति की ओर देखा. प्रीति ने आंखों से अपनी सहमति दे मालती के दिल पर पड़ा पत्थर हटा दिया.

“थैंक यू भाभी, मुझे भाई देने के लिए,” इतना कह कर नेहा प्रीति के गले लग गई. दुख की छांव सुख में बदल गई थी, जहां गुलमोहर खिले थे.

सजा : भाग 3

‘‘हां, मेरे शौहर, आप ने बाहर तख्ती पर अ. कुरैशी देखा था. अ. से असगर ही है. हमारे बच्चे हंसते हैं, अब्बू, ‘अ’ से अनार नहीं हम अपनी अध्यापिका को बताएंगे ‘अ’ से असगर,’’ फिर प्यार से बच्चे के सिर पर धौल लगाती बोली, ‘‘मुसकराओ मत, झटपट खाना खत्म करो फिर टीवी देखेंगे.’’

‘‘अरे, तरन्नुम तुम कुछ उठा नहीं रहीं,’’ रीता ने तरन्नुम को हिलाया.

‘‘हूं, खा तो रही हूं.’’

‘‘क्यों, खाना पसंद नहीं आया?’’ निकहत ने कहा, ‘‘सच तरन्नुम, मैं भी बहुत भुलक्कड़ हूं. बस, अपनी कहने की रौ में मुझे दूसरे का ध्यान ही नहीं रहता. खाना सुहा नहीं रहा तो कुछ फल और दही ले लो.’’

‘‘न दीदी, मुझे असल में भूख थी ही नहीं, वह तो खाना बढि़या बना है सो इतना खा गई.’’

‘‘अच्छा अब खाना खत्म कर लो फिर तुम्हें ऊपर वाला हिस्सा दिखाते हैं, जिस में तुम्हें रहना है. तुम्हारे यहां आ कर रहने से मेरा भी अकेलापन खत्म हो जाएगा.’’

‘‘पर किराए पर देने से पहले आप को अपने शौहर से नहीं पूछना होगा,’’ तरन्नुम ने कहा.

‘‘वैसे कानूनन यह कोठी मेरी मिल्कियत है. पहले हमेशा ही उन से पूछ कर किराएदार रखे हैं. इस बार तुम आ रही हो तो बजाय 2 आदमियों के बीच बातचीत हो इस बार तरीका बदला जाए,’’ निकहत शरारत से हंस दी, ‘‘यानी मकान मालकिन और किराएदारनी तथा मध्यस्थ भी इस बार मैं औरत ही रख रही हूं. राजन कपूर की जगह बिन्नी कपूर वकील की हैसियत से हमारे बीच का अनुबंध बनाएंगी, क्यों?’’

रीता जोर से हंस दी, ‘‘रहने दो निकहत दीदी, बिन्नी दी ने शादी के बाद वकालत की छुट्टी कर दी.’’

‘‘इस से क्या हुआ,’’ निकहत हंसी, ‘‘उन्होंने विश्वविद्यालय की डिगरी तो वापस नहीं कर दी है. जो काम कभी न हुआ तो वह आज हो सकता है. क्यों तरन्नुम, तुम्हारी क्या राय है? मैं आज शाम तक कागजात तैयार करवा कर होटल भेज देती हूं. तुम अपनी प्रति रख लेना, मेरी दस्तखत कर के वापस भेज देना. रही किराए के अग्रिम की बात, उस की कोई जल्दी नहीं है, जब रहोगी तब दे देना. आदमी की जबान की भी कोई कीमत होती है.’’

रीता तरन्नुम को तीसरे पहर होटल छोड़ती हुई निकल गई.

शाम को असगर के आने से पहले तरन्नुम ने खूब शोख रंग के कपड़े, चमकदार गहने पहने, गहरा शृंगार किया, असगर उसे तैयार देख कर हैरान रह गया. यह पहरावा, यह हावभाव उस तरन्नुम के नहीं थे जिसे वह सुबह छोड़ कर गया था.

‘‘आप को यों देख कर मुझे लगा जैसे मैं गलत कमरे में आ गया हूं,’’ असगर ने चौंक कर कहा.

‘‘अब गलत कमरे में आ ही गए हो तो बैठने की गलती भी कर लो,’’ तरन्नुम ने कहा, ‘‘क्या मंगवाऊं आप के लिए, चाय, ठंडा या कुछ और,’’ तरन्नुम ने लहरा कर पूछा.

‘‘होश में तो हो,’’ असगर ने कहा.

‘‘हां, आंखें खुल गईं तो होश में ही हूं,’’ तरन्नुम ने जवाब दिया, ‘‘आज का दिन मेरी जिंदगी का बहुत कीमती दिन है. आज मैं ने अपनी हिम्मत से तुम्हारे शहर में बहुत अच्छा घर ढूंढ़ लिया है. उस की खुशी मनाने को मेरा जी चाह रहा है. अब तो अनुबंध की प्रति भी है मेरे पास. देखो, तुम इतने महीने में जो न कर सके वह मैं ने 6 दिन में कर दिया,’’ अपना पर्स खोल कर तरन्नुम ने कागज असगर की तरफ बढ़ाए.

असगर ने कागज लिए. तरन्नुम ने थरमस से ठंडा पानी निकाल कर असगर की तरफ बढ़ाया. असगर के हाथ कांप रहे थे. उस की आंखें कागज को बहुत तेजी से पढ़ रही थीं. उस ने कागज पढ़े और मेज पर रख दिए. तरन्नुम उस के चेहरे के उतारचढ़ाव देख रही थी लेकिन असगर का चेहरा सपाट था कोरे कागज सा.

‘‘असगर, तुम ने पूछा नहीं कि मैं ने कागजात में खाविंद का नाम न लिख कर वालिद का नाम क्यों लिखा?’’ बहुत बहकी हुई आवाज में तरन्नुम ने कहा.

असगर ने सिर्फ सवालिया नजरों से उस की तरफ देखा.

‘‘इसलिए कि मेरे और निकहत कुरैशी के खाविंद का एक ही नाम है और अलबम की तसवीरें कह रही हैं कि हम दोनों बिना जाने ही एकदूसरे की सौतन बना दी गईं. निकहत बहुत प्यारी शख्सियत है मेरे लिए, बहुत सुलझी हुई, बेहद मासूम.’’

‘‘तरन्नुम,’’ असगर ने कहा.

‘‘हां, मैं कह रही थी वह बहुत अच्छी, बहुत प्यारी है. मैं उन का मन दुखाना नहीं चाहती, वैसा कुछ भी मैं नहीं करूंगी जिस से उन का दिल दुखी हो. इसलिए मैं वह घर किराए पर ले चुकी हूं और वहां रहने का मेरा पूरा इरादा है लेकिन उस घर में मैं अकेली रहूंगी. पर एक सवाल का जवाब तुम्हारी तरफ बाकी है, तुम ने मेरे साथ इतना बड़ा धोखा क्यों किया?’’

‘‘मुझे तुम बेहद पसंद थीं,’’ असगर ने हकलाते हुए कहा.

‘‘तो?’’

‘‘जब तुम्हें भी अपनी तरफ चाहत की नजर से देखते पाया तो सोचा…’’

‘‘क्या सोचा?’’ तरन्नुम ने जिरह की.

‘‘यही कि अगर तुम्हारे घर वालों को एतराज नहीं है तो यह निकाह हो सकता है,’’ असगर ने मुंह जोर होने की कोशिश की.

‘‘मेरे घर वालों को तुम ने बताया ही कहां?’’ तरन्नुम गुस्से से तमतमा उठी.

‘‘देखो, तरन्नुम, अब बाल की खाल निकालना बेकार है. शकील को सब पता था. उसी ने कहा था कि एक बार निकाह हो गया तो तुम भी मंजूर कर लोगी. तुम्हारी अम्मी ने झोली फैला कर यह रिश्ता अपनी बेटी की खुशियों की दुहाई दे कर मांगा था. वैसे इसलाम में 4 शादियों तक भी मुमानियत नहीं है.’’

‘‘देखिए, मुझे अपने ईमान के सबक आप जैसे आदमी से नहीं लेने हैं. आप की हिम्मत कैसे हुई निकहत जैसी नेक बीवी के साथ बेईमानी करने की और मुझे धोखा देने की,’’ तरन्नुम ने तमतमा कर कहा.

‘‘धोखाधोखा कहे जा रही हो. शकील को सब पता था, उसी ने चुनौती दे रखी थी तुम से शादी करने की.’’

‘‘वाह, क्या शर्त लगा रहे हैं एक औरत पर 2 दोस्त? आप को जीत मुबारक हो, लेकिन यह आप की जीत आप की जिंदगी की सब से बड़ी हार साबित होगी, असगर साहब. मैं आप के घर में किराएदार बन कर जिंदगी भर रहूंगी और दिल्ली आने के बाद अदालत में तलाक का दावा भी दायर करूंगी. वैसे मेरी जिंदगी में शादी के लिए कोई जगह नहीं थी. शकील ने शादी के बहुत बार पैगाम भेजे, मैं ने हर बार मना कर दिया. उसी का बदला इस तरह वह मुझ से लेगा, मैं ने सोचा भी नहीं था. आज पंचशील पार्क जा कर मुझे एहसास हुआ कि क्यों दिल्ली में घर नहीं मिल रहे? क्यों तुम उखड़ाउखड़ा बरताव कर रहे थे? देर आए दुरुस्त आए.’’

‘‘पर मैं तुम्हें तलाक देना ही नहीं चाहता,’’ असगर ने कहा, ‘‘मैं ने तुम्हें अपनी बीवी बनाया है. मैं तुम्हारे लिए दूसरी जगह घर बसाने के लिए तैयार हूं.’’

बहुत खुले दिमाग हैं आप के, लेकिन माफ कीजिए. अब औरत उस कबीली जिंदगी से निकल चुकी है जब मवेशियों की गिनती की तरह हरम में औरत की गिनती से आदमी की हैसियत परखी जाती थी. बच्चों से उन का बाप और निकहत से उस का शौहर छीनने का मेरा बिलकुल इरादा नहीं है और वैसे भी एक धोखेबाज आदमी के साथ मैं जी नहीं सकती. हर घड़ी मेरा दम घुटता रहेगा लेकिन तुम्हें बिना सजा दिए भी मुझे चैन नहीं मिलेगा. इसीलिए तुम्हारे घर के ऊपर मैं किराएदार की हैसियत से आ रही हूं.’’

फिर तेज सांसों पर नियंत्रण करती हुई बोली थी तरन्नुम, ‘‘मैं सामान लेने जा रही हूं. तुम निकहत को कुछ बताने का दम नहीं रखते. तुम बेहद कमजोर और बुजदिल आदमी हो. हम दोनों औरतों के रहमोकरम पर जीने वाले.’’

असगर के चेहरे पर गंभीरता व्याप्त थी. तरन्नुम अपनी अटैची बंद कर रही थी. वह मन ही मन सोच रही थी…अम्मीअब्बू की खुशी के लिए उसे वहां कोई भी बात बतानी नहीं है. यह स्वांग यों ही चलने दो जब तक वे हैं.’’

अब हम खुश हैं : भाग 3

रश्मि ने स्पष्ट किया, “तुम्हारी सुलझी बातों का मैं कायल हूं. मगर मुझे लगता है कि तुम्हारे मम्मीपापा इसे पसंद नहीं कर पाएं.”

“तो तुम्हीं बताओ कि मुझे क्या करना होगा?”

“मैं चाहती हूं कि तुम अपने पैरों पर खड़े हो जाओ. अपना खुद का व्यापार शुरू कर ही चुके हो. तुम्हारे पापा की दुकान पर तुम्हारे भैया का वर्चस्व है, इसलिए यह जरूरी था. क्योंकि दांपत्य जीवन के लिए आर्थिक स्वतंत्रता आवश्यक है.

“मेरी अपनी नौकरी है ही. फिर भी मैं उस घर में नहीं रहना चाहूंगी, जहां मुझे अपने अतीत का अहसास दिलाया जाए. मैं किसी की सहानुभूति या किसी की दया नहीं चाहती. यदि हम अलग रह सकें तो यह विवाह संभव है. आगे का आगे देखा जाएगा. हो सकता है, समय बीतने के साथ तुम्हारे मम्मीपापा को इस जातीय विभेद की व्यर्थता का बोध हो जाए.”

भारी मन लिए राकेश घर लौट आया था. उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह अपनी इस समस्या का समाधान किस प्रकार करे. संयोगवश उसी दिन उषा दीदी एक काम के सिलसिले में वहां आई थी. मम्मी उस से कहने लगी, “अब तो राकेश का अपना बिजनैस भी शुरू हो गया. अब इस की शादी हो जाए, तो हम निश्चिंत हों.”

“तो तुम्हारी नजर में कोई अच्छी सी लड़की है क्या?”

“है ना वो लड़की, जो राकेश की दोस्त है. क्या नाम है उस का. अरे हां, रश्मि, वह मुझे बहुत अच्छी लगी है. तुम उस से एक बार बात कर के देखो.”

अगले दिन इतवार था.

“अरे राकेश, तुम्हारी दोस्त रश्मि की तो कल छुट्टी है न,” उषा ने राकेश से कहा, “उस से मुझे मिलवाओगे नहीं. वह कई बार मुझ से मिलने के लिए कह चुकी है.”

“लो, तुम फोन पर ही बात कर लो,” राकेश बोला, “तुम्हीं उस से अपौइंटमेंट ले लो मिलने का. मैं क्या कह सकता हूं.”

फोन पर रश्मि उस की आवाज सुन कर बोली, “कैसी हैं दीदी? कैसे याद आई हमारी?”

“बस याद आ गई. कल तुम्हारी छुट्टी है तो सोचा कि तुम से मिल लूं,” वह बोली, “अब कई बार तुम मेरे घर आ चुकी हो तो सोचा कि इस बार तुम्हारे घर मिल ही लिया जाए.”

“मगर, मैं तो वर्किंग वूमन होस्टल में रहती हूं. यहां क्या मिलना. अगर आप कहें तो किसी रेस्टोरेंट में टेबल बुक कर दूं. आप लोगों का डिनर मेरी तरफ से.”

“ठीक है, यही सही. बता देना. मैं तैयार रहूंगी.”

थोड़ी देर बाद ही रश्मि का फोन आया, “गौतम शौपिंग मौल के रौयल रेस्टोरेंट में मैं ने टेबल बुक कर दी है. मैं वहां इंतजार करूंगी.”

ठीक शाम 7 बजे उषा जब रौयल रेस्टोरेंट पहुंची, तो उसे अकेले देख हैरान रह गई, “यह क्या दीदी, मम्मीपापा नहीं, राकेश भी नहीं. आप अकेले आई हैं.”

“कुछ विशेष बात करने के लिए अकेले ही आना होता है.”

“निःसंकोच कहिए दीदी. आप मेरी बड़ी बहन की तरह ही हैं.”

“तभी तो मैं तुम से कुछ कहने के लिए आई हूं,” उषा एकदम से उस का हाथ अपने हाथ में लेते हुए बोली, “तुम्हें राकेश कैसा लगता है ?”

“बहुत भले हैं और सुलझे विचारों वाले हैं,” वह सहज हो कर बोली, “मुझे अच्छे लगते हैं, तभी तो मैं उसे पसंद करती हूं.”

“तो मैं चाहूंगी कि इस पसंद को रिश्ते में बदल दिया जाए.”

“इस में कुछ दिक्कतें हैं दीदी,” वह एकदम से गंभीर हो कर बोली, “मैं ने बहुत तकलीफें झेली हैं और अपमान सहा है, क्योंकि मैं दलित परिवार से हूं. और आगे मुझे कुछ ऐसा झेलना न पड़े, इस के लिए मैं सतर्क रहती हूं.

“मैं ने महसूस किया है कि राकेश इसे सहजता से लेता है, मगर आप के मम्मीपापा में वह जातिपांति की फीलिंग्स मैं ने महसूस की है. वे जब जानेंगे कि मैं दलित परिवार से हूं, तो वे इसे सहजता से नहीं ले पाएंगे.”

“अरे, ऐसी बात नहीं है. मां ने ही मुझ से कहा है कि मैं इस रिश्ते के लिए तुम से बात करूं.”

“ठीक है. मगर, जैसे ही वे जानेंगी कि मैं क्या हूं, उन का अहं आड़े आ जाएगा. इस को मैं ने कई जगह देखा और महसूस भी किया है. ऐसे में ऐसे रिश्ते को टूटना ही है. मुझे राकेश स्वीकार है. मगर मैं उस के घर को स्वीकार नहीं कर पाऊंगी. अगर आप लोग हमें अलग रहने के लिए अनुमति देंगे, तो मैं इस पर विचार करूंगी.”

“यह अच्छा तो नहीं लगता कि तुम लोगों की शादी हो और तुम अलग रहो. दुनिया क्या कहेगी, इस पर भी विचार करो.”

“मैं ने पूरी तरह विचार कर लिया है दीदी, तभी कह रही हूं. मेरी एक सहेली बता रही थी कि पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी समाजों में ऐसा ही होता है कि नवदंपती अलग घर में ही रहते हैं. तो फिर हम अलग क्यों नहीं रह सकते? वैसे भी दिनभर हम बाहर ही रहेंगे. राकेश अपने बिजनैस में और मैं अपनी नौकरी में. तो अलग रहना ही है.

“दूसरी बात यह कि हम कहीं दूर नहीं, इसी शहर में हैं. वक्तजरूरत हम हाजिर हो सकते हैं. ऐसा है दीदी, मैं बिलकुल व्यावहारिक दृष्टि से चीजों को देख रही हूं. जब हम उस घर में नहीं रहेंगे, तो आसपड़ोस, रिश्तेनातेदारों के तानोंफिकरों से भी महफूज रहेंगे.”

“और शादी कैसे होगी?”

“बिलकुल सादा तरीके से. मुझे महंगे आभूषणों व कपड़ों का कोई शौक नहीं, ताकि फुजुलखर्ची से हम बच जाएं. अभी राकेश को अपने बिजनैस के लिए और पैसों की जरूरत होगी. पापा ने उसे दुकान खुलवा दी, यह बड़ी बात है. उस पर अभी बैंक का कर्ज भी है, जिसे उसे चुकता करना है.”

उषा उस की बात को ध्यानपूर्वक सुन रही थी. जैसे वह अपने भीतर कोई निर्णय ले रही हो.

डिनर के बिल को लेती हुई रश्मि बोली, “यदि मैं ज्यादा बोल गई हूं तो मुझे माफ करना दीदी. मगर मैं क्या करूं. कभीकभी हम लड़कियों को भी हार्ड डिसीजन लेना ही चाहिए, ताकि आगे चल कर कोई बड़ी दिक्कत न हो.”

“मैं तुम से सहमत हूं,” उषा उस का हाथ दबाते हुए बोली, “मैं पूरा प्रयास करूंगी कि तुम लोगों का जीवन संवर जाए. राकेश मेरा भाई है. मैं उसे खुश देखना चाहूंगी ही. और वह तुम्हारे साथ रह कर ही खुश रह सकेगा.”

थोड़े नानुकुर के बाद अंततः सभी सहमत हो गए थे. विचार यही हुआ था कि अभी वह एक फ्लैट किराए पर ले लेंगे. फिर आगे का आगे देखा जाएगा.

और इस प्रकार वह दोनों एक हो गए थे, जिस में उषा दीदी का विशेष योगदान रहा था.

अचानक राकेश पलटा और उसे देखते हुए बोला, “अरे, अभी तक सोई नहीं हो. दिनभर भागदौड़ की हो. थकी नहीं क्या, जो जग रही हो? कल औफिस नहीं जाना है क्या…? क्या सोच रही हो…?”

“बस कुछ नहीं, उषा दीदी के बारे में सोच रही थी. उन्होंने हमारे लिए विशेष मेहनत की. मैं उन की बहुत शुक्रगुजार हूं.”

“सो तो है. उन्होंने मेरी खुशी के लिए मेरे मम्मीपापा को राजी किया, अन्यथा कौन चाहता है कि उन के बेटेबहू उन से अलग हों.”

“मुझे यह निर्णय मजबूरी में लेना पड़ा राकेश. कल जब उन्हें इस जातीय दंभ का व्यर्थता बोध हो जाएगा, हम उन के साथ रह सकते हैं. जब उन्हें हमारी जरूरत होगी, तब हम उन के साथ होंगे.”

मैं एक लड़की से शादी करना चाहता हूं, उसके लिए अपने घर वालों को कैसे मनाऊं ?

सवाल

मैं 20 वर्षीय युवक हूं. एक लड़की से पिछले 2 सालों से प्रेम करता हूं. लड़की भी मुझे बेपनाह मुहब्बत करती है. हम दोनों अलगअलग शहरों में रहते हैं, इसलिए बहुत कम मिल पाते हैं. मगर फोन और फेसबुक चैटिंग से लगता है कि दूर हो कर भी दूर नहीं हैं. लड़की चूंकि हमारे ही समाज की है, इसलिए जातबिरादरी आदि का कोई विवाद नहीं है. मैं ने अपने घर में सीधेसीधे बात नहीं की है. घर में सब से छोटा हूं, इसलिए मातापिता के सामने अपने प्यार और विवाह की बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा. अपनी बहन से कहलवाया तो उन्हें बस एक ही आपत्ति है कि लड़की काफी दूर रहती है. वे इतनी दूर बरात ले जाना और अन्य खर्चों को वहन नहीं करना चाहते. इसीलिए आनाकानी कर रहे हैं. कहते हैं आसपास की किसी लड़की से रिश्ता तय करेंगे. बहन ने कहा कि भाई उस से प्यार करता है और उसी से शादी करना चाहता है, तो पिता ने डपट दिया कि प्यारमुहब्बत फिल्मी चोंचले हैं. हमारे यहां शादी के बाद प्यार किया जाता है. फिर यदि लड़की अपने शहर की होती तो एक बार को वे मान भी सकते थे पर इस प्रसंग में कुछ नहीं हो सकता, इसलिए इस लड़की को भूल जाओ.

दूसरी ओर लड़की के घर में भी यही मुद्दा है. चूंकि लड़की का भाई मेरा दोस्त है और उन के परिवार ने मुझे देखा हुआ है, मैं उन्हें भी पसंद हूं पर वे भी दूसरे शहर में अपनी बेटी को ब्याहने को तैयार नहीं हैं. लड़की के भाई ने अपने घर वालों को मनाने का भरसक प्रयास किया पर वे भी टस से मस नहीं हो रहे.

हम दोनों ही परेशान हैं. पर बेबस हैं. हम लोग घर से भाग कर शादी नहीं करना चाहते हैं, क्योंकि इस से दोनों परिवारों की बदनामी होगी और न ही कोई मैरिज कर सकते हैं. मैं अपने कैरियर पर भी ठीक से ध्यान नहीं दे पा रहा हूं. करें तो क्या करें, कुछ समझ में नहीं आ रहा.

जवाब

आप की उम्र अभी विवाह के लिए काफी कम है. यह समय अपने कैरियर पर ध्यान देने का है. इसलिए फिलहाल आप पूरी लगन और परिश्रम से अपनी पढ़ाई या नौकरी जो भी आप कर रहे हों, में लग जाएं. अपने कैरियर को प्राथमिकता दें. बाकी सब उस के बाद आता है.

अपना मनचाहा मुकाम पाने और समय बीतने के साथ हो सकता है दोनों परिवारों की सोच बदल जाए बशर्ते आप दोनों एकदूसरे से शादी करने के फैसले पर अडिग रहें.

रूपदिवानी : भाग 3

थोड़ी देर बाद धरा चली गई. रश्मि अनमनी सी पलंग पर पड़ गई. रश्मि की आंख खुली, तो संध्या का सुरमई रंग रात्रि की कालिमा में बदल रहा था. आज सूर्य पश्चिम से कैसे निकल आया. रश्मि को आश्चर्य हुआ. सृजन आज 7 बजे ही घर आ गया था. बड़ी भाभी वृंदा l ने सृजन को औफिस से तुरंत घर आने के लिए फोन किया था. वृंदा सहित घर के सब सदस्य बरामदे में बैठे थे. सृजन भी सीधा वहीं पर आया. अम्मां वृंदा को दिलासा दे रही थीं.

सृजन को देखते ही भतीजी पल्लवी सुबकते हुए बोली, ‘‘चाचू हमें अभी की अभी नानू के पास कानपुर ले चलिए. अजस्र मामा का फोन आया था कि नानू सब को बुला रहे हैं. हैलेट  अस्पताल की इमर्जेंसी में नानू एडमिट हैं. मैं ने अपना और मम्मा का सूटकेस लगा लिया है.’’

बड़े भैया कंपनी की मीटिंग में यूएसए गए हुए थे. रश्मि से सूटकेस लगाने को कह सृजन फ्रैश होने के लिए बाथरूम में घुस गया. ड्राइवर ने कार निकाल ली थी. स्टेशन पहुंचते ही सृजन ने देखा कि लेट होने की वजह से कानपुर की ट्रेन छूटने में 10 मिनट थे. तत्काल में सीट मिल गई. उन के ट्रेन में बैठते ही गाड़ी ने प्लेटफार्म छोड़ दिया. एकदो स्टेशन निकलने पर अपने औफिस को सूचित करने के लिए सृृजन ने अपना मोबाइल तलाशा, पर मोबाइल कहीं नहीं मिला. उस ने वृंदा से कहा, ‘‘भाभी जरा अपना मोबाइल दीजिए. मेरा मोबाइल या तो औफिस में छूट गया या घर पर हड़बड़ी में रह गया.’’

वृंदा के मोबाइल में सृजन के औफिस का नंबर था. उस ने औफिस में सूचना दे दी, ‘‘भाभी के साथ मैं कानपुर जा रहा हूं. चार दिन भी लग सकते हैं.’’

इधर रुक्मिणी ने देखा कि सृजन का मोबाइल उतारे हुए कपड़ों के नीचे पड़ा था. अगले दिन दोपहर में जब रश्मि आराम करने अपने कमरे में चली गई, तब रुक्मिणी ने सृजन का मोबाइल निकाला. उस में पांच लड़कियों के नंबर फीड थे. उन्होंने उन पांचों को मैसेज कर दिया, ‘‘आज शाम को 5 बजे मां ने घर पर मेरी बर्थडे की पार्टी रखी है. इसी पार्टी में मां मेरे जीवनसाथी के रूप में तुम्हारे नाम की घोषणा करेंगी. तुम मेरी पसंद हो. मैं ने मां को अपने और तुुम्हारे बारे में सबकुछ बता दिया है.’’

अभी 5 बजने में 2 घंटे शेष थे. रुक्मिणी ने रश्मि को बुलाया और ड्राइंगरूम में लगे सब फोटो दिखा कर वहां पर रश्मि और सृजन की शादी के फोटो लगवा दिए. उन की शादी की एलबम भी ड्राइंगरूम की बीच वाली मेज पर रख दी. रश्मि बारबार पूछ रही थी, ‘‘मां, आप ये सब क्यों कर रही हो?”

रुक्मिणी ने रश्मि से शादी वाली कैसेट भी लाने को कहा और बोलीं,’’ अपनी शादी की कैसेट टीवी पर लगा दे. भागदौड़ में मैं तुम्हारी शादी की सारी रस्में नहीं देख पाई थी. रतजगे के कारण मैं बरात में भी नहीं जा पाई थी. आज मैं और तुम घर में अकेले हैं. मेरी सहेलियों की बेटियां भी सृजन भैया की शादी की कैसेट देखने को व्यग्र हैं. वे लोग भी 5 बजे तक आ जाएंगी. समय अच्छा कट जाएगा.’’

5 बजते ही वे पांचों भी बुके ले कर आ गईं. उन की निगाहें सृजन को तलाश रही थीं. रुक्मिणी ने उन्हें पहले बरामदे में बैठाया. फिर रश्मि से कहा, ‘‘रेशू बिटिया, टीवी पर जरा वो वाली कैसेट लगवा देना.’’

रश्मि ने तुरंत अपनी शादी वाली कैसेट लगा दी और उन पांचों को ड्राइंगरूम में ले आई, ‘‘पार्टी जैसी तो कोई तैयारी लग नहीं रही है.’’ उन्होंने सोचा कि शायद दूसरे रूम में हो. फिर उन्होंने रश्मि से पूछा, ‘‘भाभीजी किस की शादी हमें दिखा रही हो?’’

रश्मि इठलाते हुए बोली, ‘‘अपनी और आप के भैया की शादी और किस की?’’

उन्होंने देखा कि रश्मि के साथ शादी की हर रस्म में सृजन उस के साथ में है. जैसेजैसे कैसेट आगे बढ़ रही थी, रश्मि और रुक्मिणी का उल्लास बढ़ता जा रहा था और उन पांचों के चेहरे फीके पड़ते जा रहे थे. अचानक रुक्मिणी बोली, ‘‘और कब तक न करती अपने सरजू की शादी? तीस का हो गया था, पर रश्मि को देखते ही उस पर लट्टू हो गया.’’ पांचों के मुंह से एकसाथ निकला, ‘‘तीस के…? बताते तो हैं अपने को… कह कर उन्होंने अपनी जीभ काट ली. बात संभालते हुए बोलीं, “लगते तो चौबीस के भी नहीं.’’

उन्होंने एलबम उठाई, तो हर फोटो में रश्मि और सृजन साथसाथ थे. ड्राइंगरूम की दीवारों पर निगाहें दौड़ाईं, तो ‘मुगलेआजम’ के शीशमहल के सेट की तरह सृजन के साथ रश्मि ही रश्मि नजर आ रही थी.

पांचों एकसाथ झटके से उठ खड़ी हुईं और बोलीं, ‘‘आंटीजी, हम चलते हैं. जरूरी काम है,” कह कर वे खटाखट सीढ़ियां उतरती चली गईं. रुक्मिणी पीछे से उन्हें आवाज देती रह गईं, “बर्थड़े का केक तो खाती जाओ. चाय तो पीती जाओ.’’

रश्मि खुशी से रुक्मिणी के गले लग गई. रुक्मिणी ने रश्मि से कहा, ‘‘अब ये मोबाइल सरजू को नजर नहीं आना चाहिए. आजकल के लड़कों को किसी के मोबाइल नंबर याद नहीं रहते.’’

क्या आप का बिल चुका सकती हूं

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परिवर्तन : शिव और कमला के बीच क्या बाकी रह गया था ?

शेव बनाते हुए शिव सहाय ने एक उड़ती नजर पत्नी पर डाली. उसे उस का बेडौल शरीर और फैलता हुआ सा लगा. वह नौकरानी को धुले कपड़े अच्छी तरह निचोड़ कर सुखाने का आदेश दे रही थी. उस ने खुद अपनी साड़ी झाड़ कर बताई तो उस का थुलथुल शरीर बुरी तरह हिल गया, सांस फूलने से स्थिति और भी बदतर हो गई, और वह पास पड़ी कुरसी पर ढह सी गई.

क्या ढोल गले बांध दिया है उस के मांबाप ने. उस ने उस के जन्मदाताओं को मन ही मन धिक्कारा-क्या मेरी शादी ऐसी ही औरत से होनी थी, मूर्ख, बेडौल, भद्दी सी औरत. गोरी चमड़ी ही तो सबकुछ नहीं.

‘तुम क्या हो?’ वह दिन में कई बार पत्नी को ताने देता, बातबात में लताड़ता, ‘जरा भी शऊर नहीं, घरद्वार कैसे सजातेसंवारते हैं? साथ ले जाने के काबिल तो हो ही नहीं. जबतब दोस्तयार घर आते हैं तो कैसी शर्मिंदगी उठानी पड़ती है.’

जब देखो सिरदर्द, माथे पर जकड़ कर बांधा कपड़ा, सूखे गाल और भूरी आंखें. उस के प्रति शिव सहाय की घृणा कुछ और बढ़ गई. उस ने सामने लगी कलाकृतियों को देखा.

वार्निश के डब्बों और ब्रशों पर सरसरी निगाह डाली. बिजली की फिटिंग के सामान को निहारा. कुछ देर में मिस्त्री, मैकेनिक सभी आ कर अपना काम शुरू कर देंगे. उस ने बेरहमी से घर की सभी पुरानी वस्तुओं को बदल कर एकांत के उपेक्षित स्थान में डलवा दिया था.

क्या इस औरत से भी छुटकारा पाया जा सकता है? मन में इस विचार के आते ही वह स्वयं सिहर उठा.

42 वर्ष की उम्र के करीब पहुंची उस की पत्नी कमला कई रोगों से घिर गई थी. दवादारू जान के साथ लगी थी. फिर भी वह उसे सब तरह से खुश रखने का प्रयत्न करती लेकिन उन्नति की ऊंचाइयों को छूता उस का पति उसे प्रताडि़त करने में कसर नहीं छोड़ता. अपनी कम्मो (कमला) के हर काम में उसे फूहड़पन नजर आता. सोचता, ‘क्या मिला इस से, 2 बेटियां थीं जो अब अपना घरबार बसा चुकी हैं. बाढ़ के पानी की तरह बढ़ती दौलत किस काम आएगी? 58 वर्ष की उम्र में वह आज भी कितना दिलकश और चुस्तदुरुस्त है.

कुरसी पर निढाल सी हांफती पड़ी पत्नी के रंगे बाल धूप में एकदम लाल दिखाई दे रहे थे. वह झल्लाता हुआ बाथरूम में घुस गया और देर तक लंबे टब में पड़ा रहा. पानी में गुलाब की पंखडि़यां तैर रही थीं. हलके गरम, खुशबूदार पानी में निश्चल पड़े रहना उस का शौक था.

कमला उस के हावभाव से समझ गई कि वह खफा है. उस ने खुद को संभाला और कमरे में आ कर दवा की पुडि़या मुंह में डाल ली.

बड़ी बेटी का बच्चा वैभव, उस ने अपने पास ही रख लिया था. बस, उस ने अपने इस लाड़ले के बचपन में अपने को जैसे डुबो लिया था. नहीं तो नौकरों से सहेजी इस आलीशान कोठी में उस की राहत के लिए क्या था? ढाई दशकों से अधिक समय से पत्नी के लिए, धनदौलत का गुलाम पति निरंतर अजनबी होता गया था. क्या यह यों ही आ गई? 18 वर्ष की मोहिनी सी गोलमटोल कमला जब ससुराल में आई थी तो क्या था यहां?

तीनमंजिले पर किराए का एक कमरा, एक बालकनी और थोड़ी सी खुली जगह थी. ससुर शादी के 2 वर्षों पहले ही दिवंगत हो चुके थे. घर में थीं जोड़ों के दर्द से पीडि़त वृद्धा सास और 2 छोटी ननदें.

पिता की घड़ीसाजी की छोटी सी दुकान थी, जो पिता के बाद शिव सहाय को संभालनी पड़ी, जिस में मामूली सी आय थी और खर्च लंबेचौड़े थे. उस लंबे से कमरे में एक ओर टीन की छत वाली छोटी सी रसोई थी. दूसरी ओर, एक किनारे परदा डाल कर नवदंपती के लिए जगह बनाई गई थी. पीछे की ओर एक अलमारी और एक दीवारघड़ी थी. यही था उस का सामान रखने का स्थान. दिन में परदा हटा दिया जाता. शैय्या पर ननदें उछलतीकूदती अपनी भाभी का तेलफुलेल इस्तेमाल करने की फिराक में रहतीं.

कमला मुंहअंधेरे रसोई में जुट जाती. बच्चों को स्कूल जाना होता था, और पति को दुकान. जल्दी ही वह भी एक प्यारी सी बच्ची की मां बन गई.

शुरू में शिव सहाय अपनी पत्नी को बहुत प्यार करता था. उसे लगता, उस की उजलीगुलाबी आभा लिए पत्नी कम्मो गृहस्थी की चक्की में पिसती हुई बेहद कमजोर और धूमिल होती जा रही है. रात को वह उस के लिए कभी रबड़ी ले आता तो कभी खोए की मिठाई.

कमला का आगमन इस परिवार के लिए समृद्धि लाने वाला सिद्ध हुआ. दुकान की सीमित आय धीरेधीरे बढ़ने लगी.

कमला ने पति को सलाह दी कि वह दुकान में बेचने के लिए नई घडि़यां भी रखे, केवल पुरानी घडि़यों की मरम्मत करना ही काफी नहीं है. चुपके से उस ने पति को अपने कड़े और गले की जंजीर बेचने के लिए दे दीं ताकि वह नई घडि़यां ला सके. इस से उस की आय बढ़ने लगी. काम चल निकला.

किसी कारण से पास का दुकानदार अपनी दुकान और जमीन का एक टुकड़ा उस के हाथों सस्ते दामों में बेच कर चला गया. दुकान के बीच का पार्टीशन निकल जाने से दुकान बड़ी हो गई. उस की विश्वसनीयता और ख्याति तेजी से बढ़ी. घड़ी के ग्राहक दूरपास से उस की दुकान पर आने लगे. मौडर्न वाच शौप का नाम शहर में नामीगिरामी हो गया.

मौडर्न वाच शौप से अब उसे मौडर्न वौच कंपनी बनाने की धुन सवार हुई. उस के धन और प्रयत्न से घड़ी बनाने का कारखाना खुला, बढि़या कारीगर आए. फिर बढ़ती आमदनी से घर का कायापलट हो गया. बढि़या कोठी, एंबेसेडर कारें और सभी आधुनिक साजोसामान.

बस पुरानी थी, तो पत्नी कमला. दौलत को वह अपने प्रयत्नों का प्रतिफल समझने लगा. लेकिन दिल के किसी कोने में उसे कमला के त्याग व सहयोग की याद भी उजागर हो जाती. अभावों की दुनिया में जीते उस के परिवार और उसे, आखिर इसी औरत ने तो संभाल लिया था. उस ने खुद भी क्याकुछ नहीं किया, घर सोनेचांदी से भर दिया है. इस बदहाल औरत के लिए रातदिन डाक्टर को फोन खटखटाते, मोटे बिल भरते खूबसूरत जिंदगी गंवा रहा है.

यदाकदा उस के मन में तूफान सा उठने लगता, वह अर्द्ध बीमार सी पत्नी पर गालियों की बौछार कर देता. कितनी सीधी और शांत औरत है. किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं. बस, एक मुसकान चिपकाए खाली सा चेहरा और उस की सुखसुविधाओं का ध्यान.

गृहस्थी की गाड़ी यों ही हिचकोले खाती चल रही थी. कभीकभी एक दुष्ट विचार उस के मन में गहरा जाता. काश, कोई अच्छी सी पत्नी आ सकती इस घर में. पर नई गृहस्थी बसाने की बात क्या सोची भी जा सकती है? वह नाना बन चुका है. नवासा 21 वर्ष का होने को आया. इंजीनियर बनने में कुल 2 साल ही तो शेष हैं. वही तो संभालेगा उस का फलताफूलता धंधा. रिश्ते के लिए अभी से लोग चक्कर लगाने लगे हैं. ऊपर की मंजिल उस के लिए तैयार कराई गई है, उस का एअरकंडीशंड बैडरूम और अनोखी साजसज्जा का ड्राइंगरूम. उस के लिए पत्नी के चुनाव के बारे में वह बहुत सजग है.

नाश्ते की मेज पर बैठा वह पत्नी से वैभव के संबंध के बारे में सलाहमशवरा करना चाहता था लेकिन आज वह और भी पुरानी व बीमार दिखाई दे रही थी. उस की मेज की दराज में अनेक फोटो और पत्र वैभव के संबंध में आए पड़े हैं. लेकिन क्या इस फूहड़ स्त्री से ऐसे नाजुक प्रसंग को छेड़ा जा सकता है?

वह कुछ देर तक चुप बैठा ब्रैड के स्लाइस का टुकड़ा कुतरता रहा. मन ही मन अपनेआप पर झुंझलाता रहा. न जाने क्यों व्यर्थ का आवेश उस की आदत बन चुकी है. उस की दरिद्रता के दिनों की साथी, उस की सहायिका ही नहीं, अर्द्धांगिनी भी, न जाने क्यों आज उस के लिए बेमानी हो चुकी है? कभीकभी अपनी सोच पर वह बेहद शर्मिंदा भी होता.

कमला को पति की भारी डाक देखने तक में कोई रुचि नहीं थी. नौकर गेट पर लगे लैटरबौक्स से डाक निकाल कर अपने साहब की मेज पर रख आता था. लेकिन आज नाश्ते के बाद बाहर टंगे झूले पर बैठी कमला ने पोस्टमैन से डाक ले कर झूले के हत्थे पर रख लिया. 2-3 मोटे लिफाफे झट से नीचे गिर पड़े. उस ने उन्हें उठाया तो उसे लगा लिफाफों में चिट्ठी के साथ फोटो भी हैं. सोचने लगी, किस के फोटो होंगे? उस ने उन्हें उलटापलटा, तो कम चिपका एक लिफाफा यों ही खुल गया. एक कमसिन सी लड़की की फोटो उस में से झांक रही थी. उस ने पत्र पढ़ा. वैभव के रिश्ते की बात लिखी थी. तो यह बात है, चुपचाप बहू लाने की योजना चल रही है. और उसे कानोंकान खबर तक नहीं.

क्या हूं मैं, केवल एक धाय मात्र? उस की आंखों से टपटप आंसू गिरने लगे. सदा से सब की झिड़कियां खाती आई हूं. पहले सास की सुनती रही. उन से डरडर कर जीती रही. यहां तक कि छोटी ननदें भी जो चाहतीं, कह लेती थीं. उसे सब की सहने की आदत पड़ गई है. उस की अपनी बेटियां भी उस की परवा नहीं करतीं और अब यह व्यक्ति, जो कहने को पति है, उसे निरंतर तिरस्कृत करता रहता है.

आखिर क्या दोष है उस का? कल घर में धेवते की बहू आएगी तो क्या समझेगी उसे? घर की मालकिन या कोने में पड़ी एक दासी? उस की दशा क्या होगी? उस की आज जो हालत है उस का जिम्मेदार कौन है? क्यों डरती है वह हर किसी से?

उस के पति ने भी कभी उस के रूप की सराहना की थी. उसे प्यार से दुलराया था. छाती से चिपटा कर रातें बिताई थीं. अब वह एक खाली ढोल हो कर रह गई है.

साजसज्जा की सामग्री से अलमारियां भरी हैं. साडि़यों और सूटों से वार्डरोब भरे पड़े हैं. लेकिन इस बीमार थुलथुल देह पर कुछ सोहता ही नहीं.

कम्मो झूले से उठ खड़ी हुई और ड्रैसिंग मेज पर जा कर खुद को निहारने लगी. क्या इस देह में अब भी कुछ शेष है? उसे लगा, उस के अंदर से एक धीमी सी आवाज आ रही है, ‘कम्मो, अपनी स्थिति के लिए केवल तू ही जिम्मेदार है. तू अपने पति की उन्नति में सहायक बनी लेकिन उस की साथी नहीं बनी. वह ऊंचाइयां छूता गया और तू जमीन का जर्रा बनती गई. वह आधी रात को घर में घुसा, तू ने कभी पूछा तक नहीं. बस, उस के स्वागत में आंखें बिछाए रही.’

उस की इच्छा हुई वह भी आज गुलाब की पंखडि़यों में नहाए. उस ने बाथरूम के लंबे टब में गुलाब की पंखडि़यां भर दीं, गीजर औन कर दिया. गरम फुहारों से टब लबालब भर गया तो उस में जा कर लेटी रही. उस में से कुछ समय बाद निकली तो काफी हलका महसूस कर रही थी. आज उस ने अपनी मनपसंद साड़ी पहनी और हलका मेकअप किया.

अब वह जिएगी तो अपने लिए, कोई परवा करे या न करे. एक आत्मविश्वास से वह खिलने लगी थी. स्नान के बाद ऊपर जा कर धूप में जाने की इच्छा उस में प्रबल हो उठी, लेकिन एक अरसे से वह सीढि़यां नहीं चढ़ी थी. घर की ड्योढ़ी लांघती तो उस की सांस बेकाबू हो जाती है, फिर इतनी अधिक सीढि़यां कैसी चढ़ेगी? फिर भी, आज उसे स्वयं को रोक पाना असंभव था. उस ने धीरेधीरे 3-4 सीढि़यां चढ़ीं, तो सांस ऊपरनीचे होने लगी.

वह बैठ गई. सामान्य होने पर फिर चढ़ने लगी. कुछ समय बाद वह छत पर थी. नीले आसमान में सूर्य चमक रहा था. उसे अच्छा लगा. वह आराम से झुक कर सीधी हो सकती है. बिना कष्ट के उस ने आगेपीछे, फिर दाएंबाएं होने का यत्न किया तो एक लचक सी शरीर में दौड़ गई. तत्पश्चात थोड़ी देर बाद वह बिना किसी परेशानी के नीचे उतर आई.

रसोई में रसोइया खाना बनाने की तैयारी कर रहा था. कमला काफी समय से वहां नहीं झांकी थी. नंदू पूछता, ‘क्या बनेगा’ तो बेमन से कह देती, ‘साहब की पसंद तू जानता ही है.’ पुराना नौकर मालिकों की आदतें जान गया था. इसलिए बिना अधिक कुछ कहे वह उन के लिए विभिन्न व्यंजन बना लेता. समय पर नाश्ता और खाना डायनिंग टेबल पर पहुंच जाता. घी, मसालों में सराबोर सब्जियां, चावल, रायता, दाल, सलाद सभी कुछ. कमला तो बस 2-4 कौर ही मुंह में डालती थी, पर फिर भी काया फूलती ही गई. उस का यही बेडौल शरीर ही तो उसे पति से दूर कर गया है.

कमला नीचे आई तो रसोईघर में घुस गई. उसे आज स्वयं भोजन बनाने की इच्छा थी. कमला ने हरी सब्जियां छांट कर निकालीं, फिर स्वयं ही छीलकाट कर चूल्हे पर रख दीं. आज से वह उबली सब्जियां खाएगी.

शिव सहाय कुछ दिनों के लिए बाहर गया था. कमला एक तृप्ति और आजादी महसूस कर रही थी. आज की सी जीवनचर्या को वह लगातार अपनाने लगी. शारीरिक श्रम की गति और अधिक कर दी. उसे खुद ही समझ में नहीं आया कि अब तक उस ने न जाने क्यों शरीर के प्रति इतनी लापरवाही बरती और मन में क्यों एक उदासी ओढ़ ली.

शिव सहाय दौरे से वापस आया और बिना कमला की ओर ध्यान दिए अपने कामों में व्यस्त हो गया. पतिपत्नी में कईकई दिनों तक बातचीत तक नहीं होती थी.

शिव सहाय कामकाज के बाद ड्राइंगरूम की सामने वाली कुरसी पर आंख मूंद कर बैठा था. एकाएक निगाह उठी तो पाया, एक सुडौल नारी लौन में टहल रही है. उस का गौर पृष्ठभाग आकर्षक था. कौन है यह? चालढाल परिचित सी लगी. वह मुड़ी तो शिव सहाय आश्चर्य से निहारता रह गया. कमला में यह परिवर्तन, एक स्फूर्तिमय प्रौढ़ा नारी की गरिमा. वह उठ कर बाहर आया, बोला, ‘‘कम्मो, तुम हो, मैं तो समझा था…’’

कम्मो ने मुसकान बिखेरते हुए कहा, ‘‘क्या समझा आप ने कि कोई सुंदरी आप से मिलने के इंतजार में टहल रही है?’’

शिव सहाय ने बोलने का और मौका न दे कम्मो को अपनी ओर खींच कर सीने से लगाते हुए कहा, ‘‘तुम्हारी बहुत उपेक्षा की है मैं ने. पर यकीन करो, अब भूल कर भी ऐसा नहीं होगा. आखिर मेरी जीवनसहचरी हो तुम.’’ कम्मो का मन खुशी से बांसों उछल रहा था वर्षों बाद पति का वही पुराना रूप देख कर. वही प्यार पा कर उस ने निर्णय ले लिया कि अब इस शरीर को कभी बेडौल नहीं होने देगी, सजसंवर कर रहेगी और पति के दिल पर राज करेगी.

वैभव की शादी के लिए वधू का चयन दोनों की सहमति से हुआ. निमंत्रणपत्र रिश्तेदारों और परिचितों में बांटे गए. शादी की धूम निराली थी.

सज्जित कोठी से लंबेचौड़े शामियाने तक का मार्ग लहराती सुनहरी, रुपहली महराबों और रंगीन रोशनियों से चमचमा रहा था. स्टेज पर नाचरंग की महफिल जमी थी तो दूसरी ओर स्वादिष्ठ व्यंजनों की बहार थी. अतिथि मनपसंद पेय पदार्थों का आनंद ले कर आते और महफिल में शामिल हो जाते.

आज कमला ने भी जम कर शृंगार किया था. वह अपने अनूठे सौंदर्य में अलग ही दमक रही थी. कीमती साड़ी और कंधे पर सुंदर पर्र्स लटकाए वह इष्टमित्रों की बधाई व सौगात ग्रहण कर रही थी. वह थिरकते कदमों से महफिल की ताल में ताल मिला रही थी. लोगों ने शिव सहाय को भी साथ खींच लिया. फिर क्या था, दोनों की जोड़ी ने वैभव और नगीने सी दमकती नववधू को भी साथ ले लिया. अजब समां बंधा था. कल की उदास और मुरझाई कमला आज समृद्धि और स्वास्थ्य की लालिमा से भरपूर दिखाई दे रही थी. ऐसा लग रहा था मानो आज वह शिव सहाय के घर और हृदय पर राज करने वाली पत्नी ही नहीं, उस की स्वामिनी बन गई थी.

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