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‘‘बच्चों के लिए सैक्स एजुकेशन बहुत जरूरी है’’- पंकज त्रिपाठी

अभिनेता पंकज त्रिपाठी अभिनय जगत का ऐसा नाम है जिस ने फिल्म इंडस्ट्री में आज अपनी खास जगह बना ली है. हालिया रिलीज फिल्म ‘ओह माय गौड 2’ में प्रसिद्ध ऐक्टर अक्षय कुमार के होने के बावजूद पूरी फिल्म पंकज त्रिपाठी पर बेस्ड है.

ओएमजी का विषय बहुत ही ज्यादा नाजुक विषय है जिस के तहत, सैक्स एजुकेशन आज के समाज के लिए बहुत जरूरी है, को एक दिलचस्प तरीके से मनोरंजन के साथ प्रस्तुत किया गया है. फिल्म की कहानी के अनुसार आज के हालात को देखते हुए बच्चों से ले कर अज्ञानी तक को सैक्स एजुकेशन दिया जाना बहुत जरूरी है. ऐसा फिल्म में दर्शाया गया है.

‘गैंग्स औफ वासेपुर’ से ले कर ‘स्त्री’, ‘सिंघम रिटर्न्स’, ‘बच्चन पांडे’, ‘न्यूटन’, ‘बरेली की बर्फी’, ‘फुकरे’, ‘गुंजन सक्सैना’, ‘दबंग 2’, ‘मिमी’, ‘रावण’ आदि फिल्मों में अपने सशक्त अभिनय की छाप छोड़ने वाले पंकज त्रिपाठी से हाल ही में हुई दिलचस्प बातचीत के खास अंश प्रस्तुत हैं.

पंकज त्रिपाठी की हालिया रिलीज फिल्म ‘ओ माय गौड 2’ को दर्शकों  द्वारा सराहा जा रहा है. साथ ही, इस फिल्म में उन के अभिनय की भी बहुत तारीफ हुई है. इस फिल्म का मुख्य आधार सैक्स एजुकेशन है. जब उन से पूछा गया कि उन के हिसाब से आज के समाज में सैक्स एजुकेशन बच्चों से ले कर बड़ों तक क्यों जरूरी है तो वे कहते हैं, ‘‘आज के हालात को देखते हुए बच्चों से ले कर बड़ों तक सभी के लिए सैक्स का सही ज्ञान होना बहुत जरूरी है. जैसे कि, बच्चों को बैड टच और गुड टच पता होना चाहिए ताकि कोई उन के साथ बुरी हरकत न कर सके.

‘‘इसी तरह 10 से 20 साल तक के बच्चे सैक्स संबंधित गलत हरकतों के शिकार हो जाते हैं और वे यह बात किसी से शेयर नहीं करते. इस वजह से वे अंदर ही अंदर टौर्चर होते रहते हैं और कई बार तो डिप्रैशन में आ कर आत्महत्या तक कर लेते हैं. इसीलिए बहुत जरूरी है कि स्कूलों में भी सैक्स एजुकेशन एक विषय के रूप में सिखाई जाए ताकि सैक्स से संबंधित अज्ञानता के चलते नई पीढ़ी अंधकार में न डूबे.’’

‘ओएमजी 2’ की कहानी बच्चों को खासतौर पर सैक्स एजुकेशन के महत्त्व को समझाने के लिए फिल्माई गई है परंतु इस फिल्म को ए सर्टिफिकेट दिया गया है. इस पर पंकज कहते हैं, ‘‘ऐसा नहीं है कि पूरी फिल्म सैक्स एजुकेशन पर ही है. फिल्म में और भी बहुत सारी शिक्षाप्रद व मनोरंजन से भरपूर सामग्रियां हैं. फिल्म को ए सर्टिफिकेट मिला, इस का मु?ो भी दुख है, क्योंकि यह फिल्म बच्चों को सतर्क और जागरूक करने के हिसाब से बनाई गई थी ताकि किसी बच्चे के साथ गलत हो तो इस की उस को सम?ा हो और वह गलत रास्ते पर न जाए.

‘‘जहां तक सैंसर की बात है तो सैंसर बोर्ड अपने नियमों में बंधा हुआ है जिस का उसे पालन करना ही पड़ता है. पिछले दिनों कुछ फिल्मों को ले कर सैंसर को परेशानी का सामना करना पड़ा था. लिहाजा, वह अब पहले से और सतर्क हो गया है.’’

पंकज त्रिपाठी की भी बेटी है जो कि छोटी उम्र की है. बेटी के साथ अपने रिश्ते के बारे में वे बताते हैं, ‘‘मेरी बेटी मेरी दोस्त जैसी है. वह मुझ से कुछ भी शेयर करने में कतराती नहीं है. वह किसी भी विषय पर मु?ा से खुल कर बात कर लेती है और मैं भी उस के साथ दोस्ताना व्यवहार रखता हूं. यह बात मैं ने पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पर आधारित फिल्म करते समय सीखी. मेरा और मेरी बेटी का जैसा व्यवहार है वैसा मेरी बहन के साथ पिताजी का नहीं था और मैं नहीं चाहता कि मेरी बेटी और मेरे बीच दूरियां बनें. मेरी इच्छा है कि मेरी बेटी पूरी तरह से सम?ादार हो और अपना जीवन सही ढंग से जिए.’’

पंकज के जीवन में मां, बेटी, बहन, बीवी सभी का बहुत ज्यादा हस्तक्षेप रहा है. इसे ले कर वे कहते हैं, ‘‘मैं समस्त नारी जाति पर नतमस्तक हूं चाहे वह बेटी हो, बीवी हो, मां हो या बहन. मेरे मन  में सभी के लिए सम्मान और प्यार है क्योंकि मां जननी है, उस ने मु?ो जनम दिया है तो मेरी पत्नी ने मेरी बेटी को जन्म दिया है. ऐसे में दोनों ही मेरे लिए सम्मान की हकदार हैं.’’

कहा जाता है कि फिल्में समाज को शिक्षा देती हैं और फिल्मों की बदौलत दर्शकों में भी बदलाव देखने को मिलते हैं. जब उन से पूछा गया कि बतौर ऐक्टर उन्हें फिल्मों से कितना सीखने को मिला तो वे कहते हैं, ‘‘हां, यह सच है कई फिल्में ऐसी होती हैं जो आप को शिक्षित कर जाती हैं. जैसे ‘ओएमजी 2’ से और मेरी आने वाली फिल्म ‘मैं अटल हूं’ जिस में मैं अटल बिहारी वाजपेयी का किरदार निभा रहा हूं, इन दोनों फिल्मों में काम कर के मुझे बहुतकुछ सीखने को मिला. बतौर ऐक्टर ही नहीं, बतौर इंसान भी मैं ने बहुतकुछ सीखा.’’

फिल्म को साइन करने से पहले वे क्या करते हैं, इस बारे में वे बताते हैं, ‘‘मैं खुद ही कहानी पढ़ता हूं. पूरी कहानी तो नहीं, संक्षिप्त में सिनौप्सिस जरूर पढ़ता हूं. उस से पता चल जाता है कि पूरी कहानी का आधार क्या है. जैसे कि एक बूंद पानी पीने के बाद भी पता चल जाता है कि पानी मीठा है कि खारा, वैसे ही

4 पन्ने की स्क्रिप्ट में पूरी कहानी का अंदाजा हो जाता है.’’

ओएमजी 2 में प्रसिद्ध ऐक्टर अक्षय कुमार के होने के बावजूद पूरी फिल्म पंकज के कंधों पर है. इस बारे में उन का कहना है, ‘‘फिल्म के असली हीरो अक्षय कुमार ही हैं. कोविड-19 में जब वे

14 दिनों के लिए क्वारेंटाइन हुए थे, उस दौरान उन्होंने यह कहानी पढ़ी थी. उस वक्त उन को लगा कि मैं इस फिल्म का अहम किरदार निभाने के लिए सब से ज्यादा उपयुक्त हूं. लिहाजा, अक्षय ने मु?ा को जूम कौल पर कहानी सुनाई. जो मु?ो अच्छी लगी. हमेशा से अक्षय सामाजिक मुद्दों पर कहानी कहते आए हैं. फिर चाहे वह ‘पैडमैन’ हो या ‘टौयलेट एक प्रेमकथा’ हो. ऐसे में इस किरदार के लिए उन्होंने मु?ो चुना. मैं अक्षय का आभारी हूं, शुक्रगुजार हूं.’’

उत्तर प्रदेश के छोटे से गांव से आ कर मुंबई में कड़ा संघर्ष कर के आप ने फिल्म इंडस्ट्री में अपनी एक अलग जगह बनाई. अपने इस संघर्ष को आप कैसे देखते हैं, इस पर अक्षय कहते हैं, ‘‘जब मैं मुंबई आया था और अभिनय क्षेत्र में काम पाने के लिए संघर्ष कर रहा था उस वक्त मेरे पास पैसों की कमी थी. लेकिन उस दौरान मेरी पत्नी, जो शिक्षिका है, ने मेरा साथ दिया और घर का खर्च सबकुछ मैनेज किया.

‘‘इसी वजह से मैं अपने काम पर पूरा ध्यान दे पाया और आज एक ऐक्टर के रूप में आप को इंटरव्यू दे रहा हूं. मेरे पिता 99 वर्ष के हैं और माता 89 वर्ष की हैं. उन को यह भी नहीं पता कि मैं एक ऐक्टर हूं. गांव में आज भी मैं एक सीधासादा इंसान ही हूं. ऐक्टर से भी ज्यादा एक अच्छा इंसान बनने की मेरी कोशिश है. धर्म को आचरण में लाना चाहता हूं, मैं चाहता हूं कि मैं एक अच्छा इंसान बनूं जो किसी को पीड़ा न दे, जिस का आचरण अच्छा हो, सद्भावनासंचार बना रहे, यही कोशिश है.

काफी सालों पहले एक ऐक्टर हुआ करते थे जिन का नाम था केस्टो मुखर्जी. उस ऐक्टर ने सभी फिल्मों में बिना शराब पिए शराबी की ऐक्ंिटग की थी. क्या किसी अभिनय को निभाने के लिए क्या पदार्थ की अनिवार्यता जरूरी होती है, यह पूछने पर पंकज कहते हैं, ‘‘सच कहूं तो मैं पान खाता रहा हूं. मैं उस शहर बनारस से ताल्लुक रखता हूं जहां का पान प्रसिद्ध है. फिलहाल मैं ने जरूर पान खाना छोड़ दिया है लेकिन पहले मैं, खासतौर पर, बनारस से कत्था, सुपारी, सामग्री मंगाया करता था. वैसे भी, पान दातों के लिए और खाना हजम करने के लिए फायदेमंद होता है बशर्ते उस में तंबाकू न मिलाई गई हो.

‘‘जहां तक मेरी मिमिक्री करने की बात है तो इस बात की मुझे खुशी है कि मेरी वजह से किसी की रोजीरोटी चल रही है. मैं मुंबई रोजीरोटी कमाने आया था और अगर अब मेरी वजह से किसी की रोजीरोटी चल रही है तो इस से ज्यादा खुशी की बात मेरे लिए और क्या हो सकती है.’’

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को ले कर आजकल काफी सारे सवाल उठ रहे हैं. आज स्वतंत्र विचार व्यक्त करने के लिए  बहुत सारी बंदिशें हैं. इस बारे में पंकज कहते हैं, ‘‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जरूरी है. लेकिन हमें कितना स्वतंत्र होना है, यह देखना भी जरूरी है जैसे कि हैलमेट लगाना कानूनी तौर पर अनिवार्य है लेकिन आप कहें कि हम 1947 में आजाद हो गए तो अब हम हैलमेट नहीं लगाएंगे तो यह गलत होगा.

‘‘कहने का मतलब यह है अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सभी के लिए है लेकिन उस में भी कुछ बंदिशे हैं जो हमें मानना जरूरी हैं. जिम्मेदार होना जरूरी है. आज सोशल मीडिया के दौर में हर कोई प्रतिक्रिया दे रहा है. हर कोई अभिव्यक्ति कर रहा है. उन को यह भी नहीं पता कि वे प्रतिक्रिया क्यों दे रहे हैं. अगर प्रतिक्रिया देनी भी है तो सोचसमझकर और पूरी जानकारी हासिल कर प्रतिक्रिया देनी चाहिए.’’

आप के बारे में कहा जाता है कि आप ने एक विद्यालय गोद लिया है और उस विद्यालय का पूरा खर्चा आप ही उठाते हैं. इस पर पंकज कहते हैं, ‘‘हां, मैं जिस विद्यालय में पढ़ाई करता था उसी विद्यालय को मैं ने गोद लिया है और वहां पर मैं ने आज की तकनीकी  के मुताबिक कई नई सुविधाएं करवाई हैं. आज के  समय के अनुसार वहां के टीचर भी ज्यादा से ज्यादा जागरूक हैं क्योंकि मैं वहां पढ़ा हूं, इसलिए मैं अपने स्कूल को और अच्छा बना रहा हूं.’’

वे अपनी आगे आने वाली फिल्मों के बारे में कहते हैं, ‘‘‘फुकरे 3’, ‘खड़क सिंह’, ‘मिर्जापुर 3’, ‘मैं अटल हूं’, अनुराग बसु की ‘मेट्रो इन दिनों’, ‘मर्डर मुबारक हो’, ‘अभी तो पार्टी शुरू हुई है’ आदि कई फिल्मों में आप मुझे देखेंगे.’’

जबान : मां लक्ष्मी पर ही क्यों बिफर पड़ी ?

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बीवी ओल्ड, बीवी न्यू, बीवी गोल्ड, बीवी…

ज्योंज्यों जिंदगी टैक्निक से टैक्निकल होती जा रही है, त्योंत्यों इधर खुशियों के रूपस्वरूपों के साथसाथ डर के भी रूपस्वरूप बदलते जा रहे हैं. तकनीकी के इस युग में अनजाने लोगों से उतना डर नहीं लगता, जितना अनजाने नंबर की कौल से लगता है.
खाली जनधन खाते के सिवाय और तो मेरे पास कुछ भी नहीं, मगर फिर भी क्या पता किसी की अनजानी कौल सुनने पर वह मेरा खाली जनधन खाता और खाली कर जाए. असल में मैं ने जनधन खाता इसलिए खुलवाया था कि कम से कम उस में रसाई गैस की सब्सिडी आया करेगी, पर मजे की बात, उस में रसोई गैस की सब्सिडी कभी नहीं आई.

हे मेरी तरह के घरेलू कुत्ते उर्फ शेरो, घर के बाहर विदेशों से आयातित शेरों की तरह दहाड़ने वाले शुद्ध स्वदेशी सियारो, मैं सब के खुदा को हाजिर मान कर बयान से न बदलने वाला बयान दे रहा हूं, जिस का सोशल मीडिया जो चाहे मतलब निकाल ले, मेरा कहने का वही मतलब होगा कि मैं उतना अपनी बीवी को अटेंड करने से नहीं डरता, जितना अनजानी कौल अटेंड करने से डरता हूं. मैं उतना अपने ईमानदार, मेरे लिए समर्पित दोस्तों को अटेंड करने से भी नहीं डरता, जितना अनजानी कौल अटेंड करने से डरता हूं. इसलिए, मैं केवल उन्हीं नंबरों से आई कौल स्वीकारता हूं, जो मेरी कौंटैक्ट लिस्ट में हों. मैं अपनी बीवी तक की उसी कौल को अटेंड करता हूं, जो मेरी कौंटैक्ट लिस्ट में हो.

कल पता नहीं किस का फोन आया. मैं ने काट दिया. फिर उसी नंबर से दोबारा फोन आया, तो कुछ गुस्से से मैं ने फिर काट दिया. बाद में जब उन्होंने पुराने नंबर से फोन कर बताया तो पता चला कि गधे, ये तो अपने खास दोस्त का नया अननोन नंबर है. नंबर बदलने की परंपरा में ये उन का पांचवा नया नंबर था. पता नहीं क्यों वे उतनी जल्दी नंबर बदलते हैं, जितनी जल्दी गिरगिट भी रंग नहीं बदलता. पता नहीं क्यों वे उतनी जल्दी नंबर बदलते हैं जितनी जल्दी सांप भी केंचुली नहीं बदलता. नंबर बदलना उन का शौक है या कुछ और, वे ही जानें. चौथे दिन नंबर बदलने के पीछे आगे का राज वे ही जाने.

‘यार, मैं तुझे बारबार फोन कर रहा हूं और तू बारबार फोन काट रहा है?’ उन्होंने बेकार का सा शिकवा मुझ से किया, पर मैं ने उसे परे धकेल दिया, ‘अनजान नंबर था इसलिए…’

‘यह भी मेरा नया नंबर है.’

‘बंधु, तुम ही कहो, अब तुम्हारे कितने नंबर कैसे किसकिस नाम से सेव करूं? जब तुम्हारा मन करे, तुम नंबर बदल लेते हो,’ मैं ने अपना मोबाइल खुजलाते हुए वाजिब सा सवाल उठाया तो वे मुझे शांत कराते हुए बोले, ‘देखो दोस्त, मोबाइल है तो हर चौथे दिन नया नंबर है. आज आदमी के पास अपने मोबाइल के नंबर बदलने की ही तो बस एक औप्शन बचा है, सो बेचारा ईजीली बदल देता है. वैसे, आज आदमी आदमी न रह कर एक मोबाइल नंबर हो कर रह गया है. सो, टेक इट इजी यार.

‘देखो दोस्त, रिश्तों का अर्थ तो बहुत पहले बदल चुका था. दीनईमान का अर्थ भी बहुत पहले का बदल चुका है. इनसायित का अर्थ भी बहुत पहले बदल चुका है. नीयत का अर्थ भी बहुत पहले बदल चुका है. आदमियत का अर्थ भी बहुत पहले बदल चुका है. सच बोलने वाली जीभ भी बहुत पहले बदल चुकी है. सच सुनने वाले कान भी बहुत पहले बदल चुके हैं. समाजोपयोगी सोचने वाला दिमाग भी बहुत पहले बदल चुका है. ऐसे में अब कम से कम आदमी से नित अपने मोबाइल का नंबर बदलने का हक तो मत छीनो दोस्त… रही बात मेरा नया नंबर सेव करने की, तो तुम मेरा नया नंबर भी उसी तरह से सेव कर लो, जैसे एक आदर्श पति अपनी बीवी के तीनतीन नंबर यों सेव कर सेफ रहता है- बीवी ओल्ड, बीवी न्यू, बीवी गोल्ड, बीवी…

‘मेरा नंबर भी तुम उसी तरह सेव कर लो, जैसे हर आदर्श पत्नी अपने पति का हर नया नंबर सेव करती है- हसबेंड पुराने, हसबेंड नए, हसबेंड औफिस, हसबेंड इमर्जेंसी, हसबेंड टेंपरेरी, हसबेंड परमानेंट या फिर बेटा अपने पापा का हर नया नंबर यों सेव करता है- पापा पुराने, पापा नए, पापा घर, पापा औफिस या फिर…,’ बंधु ने 2,000 रुपए वाले नोट सी नसीहत दी, तो मैं ने अपने मोबाइल से अपना सिर फोड़ लिया. वे पास होते तो उन का भी फोड़ देता.

थैंक गौड, सिर फूटा तो फूटा, पर मोबाइल सहीसलामत रहा. सिर का क्या, जख्म हुआ तो हुआ, खून बहा तो बहा, चार दिन बाद सब ठीक हो जाएगा. न भी हुआ तो कौन सा नासूर बन जाएगा. बन भी जाए तो बन जाए, पर जो मोबाइल को कुछ हो जाता तो???

मुझे ऐसा लगता है कि मेरे पति ने मुझसे शादी नहीं समझौता किया है और वो मुझे छो़ड़ देंगे, बताएं मैं क्या करूं ?

सवाल

देखने में मैं साधारण हूं, रंग भी थोड़ा दबा हुआ है. मेरे पति 6 फुट, गोरे, दिखने में काफी स्मार्ट हैं. हमारी अरेंज्ड मैरिज है. एक साल हो चुका है शादी हुए. मैं अच्छी पढ़ीलिखी हूं.

जब मेरे पति ने शादी के लिए हां की थी तब मुझे काफी हैरानी हुई थी. बस, 15 दिनों के भीतर सगाई हुई और फिर शादी. कारण बताया गया कि इन की पोस्टिंग बेंगलुरु हो गई है, 15 दिनों बाद ही वहां जौइनिंग करनी है. लड़का शादी कर के पत्नी को साथ ले कर ही बेंगलुरु जाना चाहता है.

मैं इन से पूछना चाहती थी कि मुझे पसंद करने का कारण क्या है लेकिन शादी की तैयारी की जल्दबाजी में पूछ न सकी. शादी की पहली रात इन्होंने बताया कि इन की गर्लफ्रैंड थी, बहुत सुंदर थी लेकिन उस ने इन्हें धोखा दे दिया था और किसी और बहुत अमीर लड़के से शादी कर ली थी. इन्होंने कहा कि वे अब ऐसी लड़की चाहते थे जो घर बसा सके और शांति से जीवन चलते रहे.

ये मुझे प्यार करते हैं, खयाल भी रखते हैं लेकिन अंदर ही अंदर मुझे ऐसा लगता है जैसे इन्होंने मुझे से शादी कर के लाइफ में समझौता किया है. मन ही मन ये अपनी गर्लफ्रैंड से अभी भी प्यार करते हैं. जबतब यह खयाल आता रहता है और मेरा मन खिन्न हो जाता है. यह भी डर रहता है कहीं मुझे छोड़ दिया तो? आप मुझे इस दुविधा से निकलने में मदद कीजिए.

जवाब

ऐसा लग रहा है कि आप बेवजह अपने मन में तरहतरह की आशंकाएं पाल रही हैं. आप के पति के साथ धोखा हुआ है लेकिन इस के बावजूद वे समझदारी से काम लेते हुए अपनी जिंदगी सुकून से जीना चाहते हैं. इसलिए उन्होंने शादी का फैसला लिया और आप में उन्हें वे गुण दिखाई दिए जो आदमी एक पत्नी में चाहता है. रंगरूप पर आदमी रीझाता जरूर है लेकिन उस रंगरूप में गुण न हो, प्यार न हो, तहजीब न हो तो वह रंगरूप किसी काम का नहीं रह जाता. घरगृहस्थी चलाने के लिए सलीका, सम?ादारी, प्यार की जरूरत होती है.

आप में वे सब हैं, तभी आप के पति आप से प्यार करते हैं, खयाल रखते हैं. आप अपने मन के सारे बुरे खयाल निकाल कर खुश रहिए. खुशी इंसान के चेहरे की रंगत को निखार देती है. पति को पूरा प्यार दीजिए जिस की उन्हें जरूरत है. प्यार में वे धोखा खा चुके हैं, इसलिए अपने प्यार से पुराना सब उन के मन से निकालने की कोशिश कीजिए. अपने को अपटूडेट रखिए. व्यक्ति का व्यक्तित्व प्रभावशाली होना चाहिए. सुंदरता उस में अपनेआप आ जाती है. शादी हुए सिर्फ एक साल हुआ है, अपनी शादीशुदा लाइफ पूरी तरह एंजौय कीजिए.

किडनैपिंग : क्या अनामिका अपने मंसूबों में कामयाब हो पाई ?

शाम के करीब साढ़े 7 बजे का वक्त था. मोहन कुमार खंडेलवाल पटना स्थित अपने होटल में ही थे तभी उन के मोबाइल पर एक काल आई. वह काल एक अनजान नंबर से आई थी. जिस तरह वह अन्य काल्स को रिसीव करते थे, उसी तरह उस को भी रिसीव करते हुए जैसे ही हैलो कहा तभी दूसरी ओर से आवाज आई, ‘‘तुम्हारे बेटे शिवम का कार सहित अपहरण कर लिया है.’’

शिवम उन का 14 साल का बेटा था, जो पटना के बीरचंद पटेल रोड स्थित न्यू पटना क्लब में टेनिस खेलने जाता था. कार उन का ड्राइवर गिरीश पाठक चला कर ले जाता था. बेटे के अपहरण की बात सुन कर मोहन कुमार के तो जैसे होश ही उड़ गए. अपहर्त्ता बेटे को कोई हानि न पहुंचा सकें इसलिए वह बड़ी ही विनम्रता से बोले, ‘‘आप मेरे बेटे को छोड़ दीजिए, बदले में आप मुझ से जो भी मांगेंगे, मैं दे दूंगा.’’

‘‘हमें 2 करोड़ रुपए चाहिए. पैसों का इंतजाम करने के लिए कल दोपहर 2 बजे तक का वक्त दिया जाता है. तुम तब तक पैसों का इंतजाम कर लो और अगर तुम ने पैसे नहीं दिए या फिर कोई चालाकी दिखाने की कोशिश की तो तुम बेटे से हाथ धो बैठोगे.’’ अपहर्त्ता ने चेतावनी दी.

‘‘मैं पैसे दे दूंगा लेकिन बेटे को कुछ नहीं कहना. हमें बेटे से बात तो करा दो ताकि हमें कुछ तसल्ली आ जाए.’’ मोहन कुमार विनम्रता से बोले. बेटे की आवाज सुनने के लिए वह फोन को कान से चिपकाए रहे.

कुछ देर बाद उन के कान में बेटे की आवाज आई, ‘‘हां पापा, मैं अंकल के कब्जे में हूं.’’

बेटे की आवाज से उन्हें महसूस हुआ कि जैसे वह डरासहमा हुआ है. उन्होंने बेटे को हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘‘बेटा, घबराना मत. तुम बहुत जल्दी आ जाओगे.’’

इस से पहले कि वह और कुछ कहते दूसरी ओर से फोन डिसकनेक्ट हो गया. उन्होंने कई बार हैलोहैलो कहा. इस के बाद भी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली तो जिस नंबर से उन के फोन पर काल आई थी, काल बैक किया लेकिन फोन स्विच्ड औफ हो चुका था.

उस नंबर को उन्होंने कई बार डायल किया लेकिन स्विच्ड औफ होने की वजह से वह नहीं मिल सका. उन्होंने अपने ड्राइवर गिरीश पाठक को फोन लगाया लेकिन उस का फोन भी स्विच्ड औफ आ रहा था. अपहरण शिवम का हुआ है तो ड्राइवर का फोन बंद क्यों है? अपहर्त्ताओं ने क्या उसे भी अपने काबू में कर रखा है या वह उन के चंगुल से बाहर है. यह बात वह समझ नहीं पा रहे थे.

मोहन कुमार खंडेलवाल की घबराहट बढ़ गई. वह होटल से सीधे कौशल्या एस्टेट स्थित अपने घर पहुंचे. उन्होंने सब से पहले पत्नी से पूछा, ‘‘शिवम टेनिस खेलने के लिए घर से कितने बजे निकला था?’’

‘‘रोज की तरह वह शाम सवा 4 बजे निकला था. मगर क्या हुआ उसे? आप यह सब क्यों पूछ रहे हैं?’’ पत्नी ने पूछा.

न चाहते हुए भी मोहन कुमार को बेटे के अपहरण की बात पत्नी को बतानी पड़ी. बेटे के अपहरण की खबर सुनते ही पत्नी रोने लगीं. तब मोहन कुमार ने उन्हें समझाते हुए भरोसा दिलाया कि उन की अपहर्त्ता से बात हो चुकी है. जल्द से जल्द बेटे को उन के पास से ले आएंगे.

जिस टेनिस क्लब में शिवम प्रैक्टिस करने जाता था, मोहन खंडेलवाल ने फोन से उस क्लब के संचालक से संपर्क किया तो पता चला कि शिवम आज क्लब में पहुंचा ही नहीं था. इस का मतलब यह हुआ कि घर से क्लब जाते समय ही शिवम का अपहरण कर लिया था.

उन्होंने रात करीबन साढ़े 8 बजे फोन से पटना के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक मनु महाराज से बात कर बेटे के अपहरण की बात बता दी. साथ ही जिस फोन नंबर से उन के पास फिरौती के लिए फोन आया था, वह फोन नंबर भी उन्हें बता दिया. यह 7 फरवरी, 2014 की बात है.

मामला अपहरण का था इसलिए एसएसपी ने तुरंत तेजतर्रार पुलिस अधिकारियों की 3 टीमें बनाईं. तीनों टीमों के निर्देशन की जिम्मेदारी एसपी सिटी जयंत कांत को सौंपी गई.  एक पुलिस टीम शहर पुलिस उपाधीक्षक (सिटी) ममता कल्याणी की अगुवाई में बनी थी. एसएसपी के कहने पर मोहन खंडेलवाल एसपी सिटी जयंत कांत से मिले और उन्हें बेटे के अपहरण की कहानी बता दी. मोहन खंडेलवाल से बात करने के बाद एसपी सिटी ने शहर कोतवाली में अपहरण का केस दर्ज करा दिया.

मोहन खंडेलवाल ने पुलिस को बताया कि उन का ड्राइवर गिरीश पाठक ही सैंट्रो कार बीआरओ 1वी 8578 से शिवम को न्यू पटना क्लब ले जाता था और शाम 7 सवा 7 बजे वह टेनिस खेल कर घर लौट आता था. उन्होंने यह भी बताया कि शिवम के अपहरण के बाद ड्राइवर का फोन बंद है. इसलिए उन्होंने आशंका जताई कि शायद गिरीश पाठक ने ही अपने साथियों के साथ मिल कर शिवम का अपहरण कर लिया है.

जिस नंबर से फिरौती की काल आई थी, पुलिस ने उस नंबर को सर्विलांस पर लगा दिया. जांच से यह पता चला कि वह फोन नंबर कर्नाटक का है और वह प्रदीप पाठक के नाम से लिया गया है. लेकिन फिरौती की काल करते समय वह सिम दूसरे आईएमईआई नंबर वाले फोन में डाला गया था.

पुलिस की तीनों टीमें आईएमईआई नंबर और फोन नंबर के सहारे रात भर जांच को आगे बढ़ाने की कोशिश में जुटी रहीं. पुलिस को यह पता लग चुका था कि जिस समय अपहर्त्ता ने मोहन खंडेलवाल को फिरौती की काल की थी, उस समय उस के फोन की लोकेशन बिहार के ही भोजपुर जिले के नजदीक धनुपुरा गांव की थी.

एक पुलिस टीम पटना में मुख्य जगहों पर लगे सीसीटीवी और एएनपीआर कैमरों की फूटेज खंगालने लगी. एएनपीआर कैमरे शहर के मुख्य चौराहे पर लगे थे. इन कैमरों से वाहनों की नंबर प्लेट भी पढ़ी जा सकती है. पुलिस के पास खंडेलवाल की सैंट्रो कार का नंबर था इसलिए वह इन कैमरों से यह जानने की कोशिश करने लगी कि वह सैंट्रो कार किस तरफ गई है?

उधर बेटे की चिंता में खंडेलवाल दंपति को भी रात भर नींद नहीं आई. बीचबीच में वह पुलिस को फोन कर के यह जानने की कोशिश कर रहे थे कि पुलिस को अपहर्त्ताओं और बेटे के बारे में कोई जानकारी मिली कि नहीं. पुलिस से उन्हें आश्वासन के अलावा कुछ नहीं मिल रहा था.

सुबह होते ही पुलिस की टीमें धुनुपुरा गांव चली गईं और अपने तरीके से बच्चे के बारे में पता लगाने लगीं. इसी दौरान पुलिस सर्विलांस टीम से खबर मिली कि जिस फोन नंबर से खंडेलवाल से फिरौती की रकम मांगी गई थी, वह नंबर कुछ देर के लिए दूसरे फोन में डाला गया था. वह फोन वही था जिस में कर्नाटक वाला यही नंबर रेग्युलर यूज किया जाता था.

वह फोन कुछ देर के लिए औन होने पर पुलिस का काम आसान हो गया. इस से पुलिस को उस की लोकेशन पता चल गई. उस की लोकेशन धनुपुरा के पास इब्राहीमनगर की  थी. इब्राहीमनगर में पुलिस टीमों ने घरघर जा कर सर्चिंग शुरू कर दी. तभी सुबह 6 बजे एक मकान में 2 युवक और अपहृत शिवम मिल गया. शिवम के हाथपैर बंधे हुए थे और उस का मुंह भी कपड़े से बंधा था.

शिवम को सहीसलामत बरामद करने की बात जांच टीम ने एसएसपी को बता दी. बाद में बात मोहन खंडेलवाल को भी बता दी गई. बेटे को अपहर्त्ताओं के चंगुल से छुड़ाने पर खंडेलवाल दंपति की खुशी का ठिकाना न रहा. वे तुरंत कोतवाली पहुंच गए.

पुलिस ने जिन 2 युवकों को हिरासत में लिया था, उन्होंने अपने नाम अभिषेक सिंह और प्रदीप पाठक बताए थे. दोनों युवकों से पूछताछ करने के लिए पुलिस गिरफ्तार कर के उन्हें कोतवाली ले आई.

अभिषेक और प्रदीप पाठक से पूछताछ करने पर पता चला कि शिवम के अपहरण की साजिश खंडेलवाल के होटल में काम करने वाली युवती अनामिका और उस के पति गिरीश पाठक ने रची थी.

मोहन खंडेलवाल ने भी बेटे के अपहरण में गिरीश पाठक पर शक जताया था. गिरीश और उस की पत्नी अनामिका पिछले 2 दिनों से अपनी ड्यूटी पर भी नहीं आ रहे थे और उन के फोन भी स्विच्ड औफ थे. पुलिस ने भी दोनों मास्टर माइंड की तलाश शुरू कर दी, लेकिन उन का पता नहीं लगा.

केवल 14 घंटे के अंदर अपहृत बच्चे के सहीसलामत बरामद के अलावा 2 अपहर्त्ता भी गिरफ्तार किए जा चुके थे. यही पुलिस की बड़ी उपलब्धि थी. अभियुक्त अभिषेक और प्रदीप पाठक से विस्तार से पूछताछ की गई तो शिवम के अपहरण की दिलचस्प कहानी सामने आई.

बिहार की राजधानी पटना शहर में कौशल्या एस्टेट के रहने वाले मोहन कुमार खंडेलवाल का शहर में एग्जिवेशन रोड पर एक होटल था. इस के अलावा उन के कई और बिजनैस भी थे. इस की वजह से उन की गिनती शहर के अच्छे बिजनैसमैनों में थी. उन का एक बेटा था शिवम. वह सेंट जोसफ हाई स्कूल में कक्षा 9वीं में पढ़ता था.

14 वर्षीय शिवम को पढ़ाई के साथ टेनिस खेलने का शौक था. बेटे की रुचि को देखते हुए मोहन खंडेलवाल उस की प्रतिभा बढ़ाना चाहते थे. अच्छे खिलाड़ी बनने के गुर सीखने के लिए शिवम पटना के बीरचंद पटेल रोड पर स्थित न्यू पटना क्लब जाने लगा. वहां  वह ढाईतीन घंटे टेनिस की प्रैक्टिस करता था.

खंडेलवाल ने बेटे को क्लब ले जाने और वहां से घर लाने के लिए अपने ड्राइवर गिरीश पाठक की ड्यूटी लगा रखी थी. गिरीश ही सैंट्रो कार से शिवम को शाम 4 बजे क्लब ले जाता और उस के प्रैक्टिस करने के बाद 7-सवा 7 बजे घर लाता था.

गिरीश पाठक खंडेलवाल के होटल में रिसैप्शनिस्ट की नौकरी करने वाली अनामिका का पति था. अनामिका पटना के ही थाना जगनपुर के ककरबाग के रहने वाले दिलीप कुमार की बेटी थी. वह वहां पर एक डेयरी चलाते थे.

अनामिका अपने 2 भाइयों के बीच अकेली बहन थी. इसलिए परिवार में वह सब की दुलारी थी. इंटरमीडिएट पास करने के बाद उस ने मोहन खंडेलवाल के होटल में रिसैप्शनिस्ट की नौकरी कर ली.

खंडेलवाल के यहां गिरीश पाठक नाम का एक युवक ड्राइवर था जो भोजपुर जिले के कचनत गांव में रहने वाले देवेंद्रनाथ पाठक का बेटा था. मोहन खंडेलवाल को जब वह उन के होटल ले जाता तो फुरसत में रिसैप्शनिस्ट अनामिका से बात करता था. हमउम्र होने की वजह से दोनों खूब बातें करते थे. धीरेधीरे उन के बीच बातों का दायरा बढ़ता गया और वे एकदूसरे को चाहने लगे.

दिनोंदिन उन का प्यार बढ़ने लगा. हालात यहां तक पहुंच गए कि अलगअलग जाति होने के बावजूद उन्होंने शादी करने का फैसला ले लिया. फिर घर वालों की मरजी के खिलाफ गिरीश पाठक और अनामिका ने जनवरी 2013 में प्रेम विवाह कर लिया.

शादी के बाद दोनों ही पटना में किराए पर कमरा ले कर रहने लगे. चूंकि दोनों ही कमा रहे थे इसलिए उन की गृहस्थी ठीकठाक चल रही थी. वे एक बड़े बिजनैसमैन मोहन खंडेलवाल के यहां नौकरी करते थे. खंडेलवाल के ठाठबाट देख कर उन के मन में भी ऐश की जिंदगी गुजारने की लालसा होती थी, मगर जितनी पगार उन्हें मिलती थी उस से उन की महत्त्वाकांक्षाएं पूरी होने वाली नहीं थीं. ऐसा क्या करें, जिस से उन के पास भी अकूत संपत्ति हो जाए, इसी बात पर वे विचार करते थे.

इसी दौरान उन के दिमाग में विचार आया कि जिस खंडेलवाल के यहां वे नौकरी कर रहे हैं, क्यों न उन के बेटे शिवम का किडनैप कर लिया जाए. क्योंकि वह पैसे वाले हैं इसलिए शिवम की फिरौती पर उन्हें मोटा पैसा मिलने की उम्मीद थी. शिवम को क्लब तक गिरीश ही छोड़ने जाता था इसलिए उस का किडनैप भी आसानी से होने की उम्मीद थी.

गिरीश पाठक ने जल्दी से मालदार होने का उपाय तो खोज लिया लेकिन जो काम कर के अपनी तमन्ना पूरी करनी चाहते थे, वह काम इतना आसान नहीं था. उस ने इस योजना में अपने ताऊ के बेटे प्रदीप पाठक को शामिल करने का फैसला कर लिया.

प्रदीप पाठक भोजपुर जिले के ही थाना पीटो का रहने वाला था. वह बंगलुरु में एक ट्रैवल एजेंसी में ड्राइवर था. गिरीश की प्रदीप से फोन पर बात होती रहती थी. प्रदीप भी अपनी नौकरी से खुश नहीं था, वह भी जल्दी मोटे पैसे कमाना चाहता था.

29 जनवरी, 2014 को गिरीश ने उसे एक काम में मोटा पैसा कमाने का लालच दे कर पटना आने को कहा. प्रदीप ने उस से काम के बारे में जानना चाहा तो गिरीश ने कह दिया कि काम के बारे में वह पटना आने पर ही बताएगा.

पहली फरवरी, 2014 को प्रदीप बंगलुरु से पटना आ गया और मीठापुर बस स्टैंड के नजदीक अपने भाई विनय पाठक के मकान में ठहर गया. फोन कर के उस ने गिरीश को अपने आने की सूचना दी तोवह उस के कमरे पर ही पहुंच गया.

गिरीश ने उसे बिजनैसमैन मोहन खंडेलवाल के 14 वर्षीय बेटे शिवम के अपहरण कर मोटी फिरौती वसूलने की योजना बताई. अच्छे पैसे मिलने की उम्मीद में प्रदीप ने हामी भर दी.

वे इस गेम को सुरक्षापूर्वक खेलना चाहते थे. गिरीश चाहता था कि उन के साथ कोई ऐसा शख्स और शामिल हो जाए जो दबंग टाइप का हो. तब प्रदीप ने अभिषेक सिंह को शामिल करने का सुझाव दिया जो सीआरपीएफ की बटालियन नंबर 197 में नौकरी करता है. उस की पोस्टिंग सारंदा (झारखंड) में थी.

अभिषेक सिंह जिला भोजपुर के गड़हवी गांव के रहने वाले संतोष सिंह का बेटा था. आरडीएम हाईस्कूल में पढ़ते समय अभिषेक ने प्रदीप पाठक के यहां किराए पर कमरा लिया था. वहां रहने के दौरान ही उस की प्रदीप से दोस्ती हो गई. कभीकभी गिरीश भी प्रदीप पाठक के यहां आता था इसलिए वह भी अभिषेक सिंह को जानता था. बाद में अभिषेक की सीआरपीएफ में नौकरी लग गई. नौकरी लग जाने के बाद भी प्रदीप की अभिषेक से फोन पर बात होती रहती थी.

प्रदीप जब पटना आ गया तो उस ने मिलने के लिए अभिषेक को बुलाया. दोस्त के कहने पर अभिषेक पटना आ गया तो प्रदीप ने उस से बिजनैसमैन के बेटे का अपहरण करने के बारे में बात की. पैसों के लालच में अभिषेक भी उन की योजना में शामिल हो गया. फिर गिरीश, अनामिका, प्रदीप और अभिषेक ने योजना को अंजाम देने की रूपरेखा बनाई. उन्होंने हथियार वगैरह का इंतजाम भी कर लिया.

गिरीश ने प्रदीप और अभिषेक से कहा, ‘‘शाम करीबन 4 बजे शिवम को टेनिस खेलने के लिए सफेद रंग की सैंट्रो कार नंबर बीआर ओ 1वी 8578 से ले जाता हूं. जैसे ही मैं क्लब से थोड़ी पहले डबल ब्रेकर पर पहुंचूंगा, कार धीमी कर दूंगा. तुम लोग वहां पहले से ही तैयार रहना. कार धीमी होते ही गेट खोल कर कार में बैठ जाना.’’

7 फरवरी, 2014 को गिरीश पाठक शिवम को सैंट्रो कार से क्लब की ओर ले कर रवाना हुआ. अभिषेक और प्रदीप पाठक पहले से ही डबल ब्रेकर के पास खड़े हो गए थे. जैसे ही गिरीश डबल ब्रेकर के पास पहुंचा तो अपने साथियों को देख कर उस ने कार धीमी कर ली.

कार के पिछले गेटों के लौक उस ने पहले से ही खोल रखे थे. कार धीमी होते ही प्रदीप और अभिषेक कार के पिछले गेट खोल कर अंदर बैठ गए. शिवम ने अंजान लोगों को गाड़ी में चढ़ते देखा तो वह चौंक गया. इस से पहले कि शिवम उन से कुछ कहता, प्रदीप और अभिषेक ने तमंचा दिखा कर उसे डरा दिया. गिरीश कार तेज गति से चलाते हुए प्रदीप के भाई विनय पाठक के मकान पर ले गया.

मकान की चाबी प्रदीप के पास ही थी. उस ने ताला खोला और शिवम को डराधमका कर एक कमरे में बंद कर दिया. कार उन्होंने उसी मकान में खड़ी कर दी थी. प्रदीप के पास बंगलुरु का एयरसेल कंपनी का सिम था. गिरीश ने उस से वह सिम ले कर अपने मोबाइल फोन में डाला और शाम साढ़े 7 बजे शिवम के पिता मोहन खंडेलवाल को फोन कर के शिवम के अपहरण की जानकारी दी और 2 करोड़ रुपए की फिरौती मांगी. उस ने उस समय शिवम की उस के पिता से बात करा दी ताकि उन्हें बेटे के अपहरण होने का विश्वास हो जाए.

खंडेलवाल से बात करने के बाद उस ने एयरसेल का सिम निकाल कर प्रदीप को दे दिया और कहा कि वह इसे फोन में न डाले. गिरीश बहुत शातिरदिमाग था वह खुद को सेफ रखना चाहता था. इसलिए वह शिवम के साथ कमरे पर नहीं ठहरना चाहता था.

उस ने अभिषेक और प्रदीप से बहाना बनाते हुए कहा, ‘‘अभीअभी मेरी पत्नी का फोन आया है वह आरा आई हुई है. मैं उसे होटल में ठहरा कर रात में ही यहां आने की कोशिश करूंगा. नहीं तो सुबह जरूर आ जाऊंगा.’’ इतना कह कर गिरीश पाठक वहां से चला गया.

अगले दिन गिरीश को किसी तरह पता चल गया कि पुलिस शिवम को सरगर्मी से तलाश रही है तो वह पत्नी अनामिका को ले कर पटना से रफूचक्कर हो गया.

प्रदीप और अभिषेक को गिरफ्तार करने के बाद पुलिस ने विनय के मकान से ही मोहन खंडेलवाल की कार भी बरामद कर ली. इस के बाद पुलिस ने अनामिका और गिरीश पाठक की सरगर्मी से तलाश शुरू कर दी.

पुलिस ने गिरफ्तार किए गए दोनों अभियुक्त प्रदीप पाठक और अभिषेक सिंह को 8 फरवरी, 2014 को गिरफ्तार करने के बाद उन्हें कोर्ट में पेश कर जेल भेज दिया. लेकिन फरार मास्टरमाइंड गिरीश और अनामिका का पता नहीं लग सका. पटना पुलिस उन्हें हर संभावित जगहों पर खोजती रही. कई महीने की खोजबीन के बाद भी उन का कोई सुराग नहीं मिला.

इसी बीच पटना पुलिस को सूचना मिली कि अभियुक्त गिरीश पाठक और उस की पत्नी अनामिका दिल्ली में कहीं छिपे हुए हैं. घटना के दोनों मास्टर माइंडों को खोजने में पटना पुलिस ने दिल्ली पुलिस से सहयोग मांगा.  पुलिस आयुक्त बी.एस. बस्सी ने यह जांच क्राइम ब्रांच को करने के आदेश दिए.

क्राइम ब्रांच के डीसीपी भीष्म सिंह ने एसीपी के.पी.एस. मल्होत्रा के निर्देशन में एक पुलिस टीम बनाई. इस टीम में इंसपेक्टर सुनील कुमार, एसआई रविंद्र तेवतिया, निर्भय सिंह राणा, हेडकांस्टेबल ईश्वर सिंह, कुसुम पाल, अजय शर्मा, विक्रम दत्त, ईद मोहम्मद, कांस्टेबल मोहित कुमार, मनोज, प्रेमपाल, सुरेंद्र, उदयराम, अंजू आदि को शामिल किया गया.

टीम के पास केवल गिरीश पाठक का मोबाइल नंबर और फोटोग्राफ था. इन के सहारे उसे तलाशना किसी चुनौती से कम नहीं था. पुलिस टीम ने उस के फोन को सर्विलांस पर लगा दिया. लेकिन वह स्विच्ड औफ आ रहा था.

इतनी बड़ी दिल्ली में फोटो के सहारे उसे ढूंढना आसान नहीं था. पुलिस ने दिल्ली के बड़े सभी रेलवे स्टेशनों और अंतरराज्यीय बसअड्डों पर अपने मुखबिरों को लगा दिया. पुलिस ने मुखबिरों को अभियुक्त गिरीश पाठक का फोटो दे दिया था ताकि वे उसे पहचान सकें.

12 जून 2014 को आखिर क्राइम ब्रांच को सफलता मिल ही गई. एक मुखबिर ने सूचना दी कि फोटो में दिखने वाली सूरत का एक आदमी एक औरत के साथ सराय कालेखां बस टर्मिनल पर खड़ा है. मुखबिर की खबर पा कर पुलिस टीम तुरंत सराय कालेखां बस टर्मिनल पहुंच गई और उस आदमी और उस के साथ खड़ी औरत से पूछताछ की तो उन्होंने अपने नाम गिरीश पाठक और अनामिका हैं.

क्राइम ब्रांच औफिस ला कर दोनों से पूछताछ की गई तो उन्होंने पटना के बिजनैसमैन मोहन खंडेलवाल के बेटे शिवम के अपहरण की सारी कहानी उगल दी. चूंकि वे दोनों अभियुक्त पटना पुलिस के वांटेड थे इसलिए दिल्ली पुलिस ने उन की गिरफ्तारी की खबर  पटना पुलिस को दे दी.

दोनों अभियुक्तों को 12 जून, 2014 को साकेत कोर्ट में महानगर दंडाधिकारी अनु अग्रवाल के समक्ष पेश किया जहां से उन्हें जेल भेज दिया.

वांटेड अभियुक्तों की गिरफ्तारी की सूचना पर पटना पुलिस 14 जून को दिल्ली पहुंच गई और कोर्ट में उक्त दोनों अभियुक्तों को ट्रांजिट रिमांड पर दिए जाने की अर्जी पेश की. कोर्ट ने उन की अर्जी को मंजूर कर लिया. फिर पटना पुलिस अभियुक्त गिरीश पाठक और अनामिका को ट्रांजिट रिमांड पर पटना ले गई.

पटना कोतवाली में दोनों से पूछताछ की गई तो उन्होंने शिवम के अपहरण की साजिश रचने से ले कर अपहरण करने की कहानी बता दी. पूछताछ के बाद उन्हें पटना के न्यायालय में पेश कर जेल भेज दिया.

— कथा पुलिस सूत्रों पर आधारित हैं.

कौन हारा : भाग 1

वैशाली अपने जीवन से बहुत सुखी व संतुष्ट थी. घर में पति, 2 प्यारे से बच्चे, धनदौलत, ऐशोआराम और सामाजिक जीवन में मानसम्मान. और क्या चाहिए था. उस दिन भी वह सुखसागर में डूबी आंखें बंद किए बैठी थी कि उस की प्रिय सहेली वसुधा ने आ कर ऐसा बम सा फोड़ा कि वैशाली हक्काबक्का रह गई. वह क्या कह रही थी उसे समझ में नहीं आ रहा था या समझने के बाद भी उस पर भरोसा करने का मन नहीं हो रहा था.

‘‘हो सकता है वसुधा, तुम्हें कोई गलतफहमी हुई हो. सुधीर ऐसा कैसे कर सकते हैं? मैं उन के बच्चों की मां हूं और उन्हें कामयाबी की बुलंदियों पर पहुंचाने में मदद करने वाली हमसफर हूं.’’ वैशाली ने विश्वास न करने वाले अंदाज में वसुधा की ओर देख कर कहा.

‘‘इतनी बड़ी बात बिना विश्वास के मैं कैसे कह सकती हूं. यदि मुझे यह बात किसी और ने बताई होती तो विश्वास नहीं होता पर यह सब मैं ने खुद अपनी आंखों से देखा है और एक नहीं, कई बार. तुम हो कि न जाने कौन सी दुनिया में खोई रहती हो,’’ वसुधा की आंखों में गहरा दुख और चिंता थी.

वैशाली तड़प उठी थी, ‘‘लेकिन सुधीर तो मेरे हैं, सिर्फ मेरे. मुझ से पूछे बिना तो वह एक कदम नहीं उठाते फिर इतना बड़ा कदम कैसे? नहीं, लोग जलते हैं मुझ से, सुधीर से और हमारी कामयाबी से. यह शायद उन्हीं की कोई चाल होगी.’’

‘‘नहीं, चालवाल कुछ नहीं. बस इतना समझ लो, मर्द का प्यार आखिरी नहीं होता,’’ वसुधा ने कहा.

वैशाली बेजान सी सोफे पर गिर पड़ी और माथा पकड़ कर बैठ गई. फिर बुझे से स्वर में बोली, ‘‘क्या वह बहुत खूबसूरत है?’’

‘‘नहीं, तुम से क्या मुकाबला? लेकिन वही बात है न कि गधी पे दिल आ जाए तो परी क्या चीज है. सुना है कि सुधीर उस से जल्दी ही शादी करने वाले हैं.’’

‘‘शादी, नहींनहीं, ऐसा कैसे हो सकता है. क्या कमी है मुझ में. मैं ने क्या नहीं किया उन के लिए. बिजनेस को आसमान की बुलंदियों पर पहुंचाने में मदद की. न दिन देखा न रात और फिर उन के घर को सजाया, संवारा. बच्चे, पैसा, शोहरत सबकुछ तो है, फिर?’’ वैशाली सुधीर की बेरुखी का कारण नहीं समझ पा रही थी.

‘‘शायद मर्द जात होती ही ऐसी है. मर्द कभी संतुष्ट नहीं होता. खैर, यह समय कमजोरी दिखाने का नहीं है. हमें खुद ही कुछ करना होगा और उस लड़की को डराधमका कर, बहलाफुसला कर किसी भी तरह सुधीर से दूर रखना होगा. और हां, सुधीर से इस विषय में अभी कुछ मत कहना वरना बात खुल कर सामने आ जाएगी. परदा पड़ा ही रहे तो अच्छा है.’’

वसुधा तो वैशाली को समझाबुझा कर चली गई पर वैशाली का दम घुट सा रहा था. वह तो समझती थी कि सुधीर अपनी जिंदगी से संतुष्ट है फिर उस दूसरी औरत की जरूरत कहां से निकल आई थी यही सब सोचतेसोचते उस के आगे अतीत का दृश्य घूमने लगा.

वैशाली का सुधीर से परिचय उन दिनों हुआ था जब वह अपनी विज्ञापन एजेंसी का काम जमाने के लिए जीतोड़ कोशिश कर रहा था. वैशाली को उन दिनों काम की आवश्यकता थी और उसी सिलसिले में वह अपने किसी रिश्तेदार के माध्यम से सुधीर से मिली थी. सुधीर ने उसे साफसाफ कह दिया था कि वह अभी खुद ही संघर्ष कर रहा है. अत: ज्यादा वेतन नहीं दे सकेगा. अगर उसे कहीं और अच्छी नौकरी मिले तो वह जरूर कर ले. वैशाली इस बात पर हैरान थी पर उस ने बड़े विश्वास से कहा, ‘शायद इस की जरूरत ही न पड़े.’

और फिर कुछ ऐसा संयोग बना कि वैशाली के आते ही सुधीर को कामयाबी मिलती गई. वैशाली सुंदर होने के साथ मेहनती और समझदार भी थी. सुधीर ने उसे अपना दायां हाथ बना लिया था. जल्दी ही उन की एजेंसी का नाम देश भर में जाना जाने लगा था. सुधीर वैशाली से, और उस की कार्यपद्धति से बहुत प्रभावित था फिर एक दिन ऐसा भी आया जब सुधीर ने वैशाली के सामने विवाह का प्रस्ताव रख दिया.

वैशाली को क्या आपत्ति हो सकती थी. सुधीर में कोई ऐब नहीं था. वह कम बोलने वाला, खुशमिजाज व चरित्रवान था. बस, कमी थी तो इतनी कि वैशाली के मुकाबले वह एक बहुत साधारण शक्लसूरत का इनसान था, लेकिन पुरुष कामयाब और मालदार हो तो उस की यह कमी कोई कमी नहीं होती और फिर सुधीर तो उस से प्यार भी करता था. एक खूबसूरत भविष्य तो उस के सामने खड़ा था. फिर भी वैशाली ने उस से पूछा था, ‘क्या आप को लगता है कि आप मुझ से विवाह कर के खुश रहेंगे?’

नरेंद्र मोदी : अपने ही घर में सम्मान का मजाक

देश में संभवतया यह पहली बार हुआ है कि नरेंद्र मोदी का सम्मान ‘भाजपा’ द्वारा किया गया और वह भी इसलिए कि जी-20 सम्मेलन अच्छी तरह संपन्न हो गया.

यह कुछ ऐसी बात हो गई जैसे ‘भारत जोड़ो यात्रा’ पूर्ण करने के बाद अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस राहुल गांधी का सम्मान कार्यक्रम आयोजित करती. अगर मल्लिकार्जुन खड़गे राहुल गांधी का इसी तरह सम्मान किसी मसले पर कर दें तो क्या भारतीय जनता पार्टी और भाजपा के नेता मौन देखते रहेंगे. क्या ऐसे सम्मान समारोह आयोजित किए जाने चाहिए. ‌

दरअसल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सम्मान हो और उन की मातृसंस्था भाजपा ही सम्मान करे तो इसे अपनेआप में एक बड़ा मजाक ही कहा जाएगा.

अभी तक माना यह जाता रहा है कि आप ने अगर कुछ अच्छा किया है तो समाज, सामाजिक संस्थाएं, राज्य सरकार या देश की सरकार आप का सम्मान करें तो यह उचित और न्यायसंगत माना जाएगा. जी-20 सम्मेलन समाप्त होने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र दामोदरदास मोदी का भारतीय जनता पार्टी द्वारा 13 सितंबर को गुलाब के फूल दे कर सम्मान किया गया और यह सुर्खियां बनाया गया. इस से स्पष्ट है कि भाजपा और नरेंद्र मोदी की सोच कितनी नीचे चली गई है.

हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश के बड़े पदों पर बैठे लोग जैसा आचरण करते हैं, समाज भी वैसा ही करने लगता है. अब धीरेधीरे यह सब देख कर कोई भी व्यक्ति अपना सम्मान अपनी ही संस्थानों में कराने लगेगा क्योंकि वह अपनी संस्था का प्रमुख है तो ऐसा बहुत आसानी से संपन्न हो जाएगा. जबकि, नैतिकता की दृष्टि से यह पूरी तरह एक गलत आचरण ही होगा. नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री कार्यकाल में अगर जी-20 का सम्मेलन ऐतिहासिक रूप से संपन्न हो गया माना जा रहा है और सम्मान की आवश्यकता है तो यह कार्यक्रम अन्य दूसरी संस्थाएं करें तो अच्छा संदेश समाज में जाता. आप के आलोचक आप की प्रशंसा करें, सम्मान करें तभी वह सम्मान सम्मान है, अन्यथा यह तो कुछ ऐसा हो गया कि कोई शख्स बड़े पद पर पहुंच जाए, पैसे कमा ले तो अपने घर के ड्राइंगरूम में खरीद कर अपनी प्रशंसा के ‘ताम्रपत्र’ सजा ले.

देश के प्रधानमंत्री के रूप में तो नरेंद्र मोदी को ऐसी नजीर पेश करनी चाहिए जिसे देश के लोग स्वीकार करें. तो, आने वाला समय जब उस पर चले तो समाज और देश का भला हो. दरअसल, हुआ यह है कि भारतीय जनता पार्टी ने जी-20 शिखर सम्मेलन को ऐतिहासिक सफल मान कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रशंसा करते हुए 13 सितंबर को एक प्रस्ताव पारित किया और कहा- ‘समूह की भारत की अध्यक्षता को हमेशा पीपल्स जी-20 के रूप में देखा जाएगा.’ प्रस्ताव में भाजपा संसदीय बोर्ड ने शिखर सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा दिखाए गए मजबूत नेतृत्व और अटूट प्रतिबद्धता का उल्लेख किया.

प्रस्ताव में कहा गया- “जी-20 दिल्ली शिखर सम्मेलन भारत के कूटनीतिक इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण अध्याय के रूप में जुड़ गया है. यह एक परिवर्तनकारी क्षण है, जिस के नजरिए से वैश्विक मंच पर अब हमारे राष्ट्र को देखा जाएगा. प्रस्ताव में कहा गया है कि हम भाजपा कार्यकर्ता 9-10 सितंबर को नई दिल्ली में आयोजित सफल जी-20 शिखर सम्मेलन के लिए प्रधानमंत्री मोदी और भारत सरकार की गहरी सराहना करते हैं और उन का हार्दिक अभिनन्दन करते हैं. यह सफलता अद्वितीय और अभूतपूर्व है जो भारत की क्षमताओं और दूरदर्शी दृष्टिकोण में विश्व के विश्वास की पुष्टि करती है और इस से भारत की क्षमता व प्रधानमंत्री मोदी के प्रति दुनिया का विश्वास भी प्रमाणित हुआ है.” प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सम्मान में भाजपा ने कहा, “हम विगत वर्षों में अपनाए गए पारंपरिक जीडीपी केंद्रित विकास पथ से आगे बढ़ते हुए दुनिया को विकास का एक मानवकेंद्रित मौडल दिखाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी की सराहना करते हैं.”

जे पी नड्डा के नेतृत्व में भाजपा ने कहा- “स्थिरता, समावेश और समृद्धि पर जोर देने वाला यह मौडल जी-20 शिखर सम्मेलन में भाग लेने वाले देशों के बीच गहराई से प्रतिध्वनित हुआ, जिस ने मानवता की सामूहिक भलाई के लिए एक पुरोधा के रूप में भारत को प्रमुखता से स्थापित किया है. लोगों के प्रतिनिधि के रूप में हम अपने विश्वास में दृढ़ हैं कि प्रधानमंत्री मोदी के नेतृत्व में भारत लगातार विकास, सहयोग और वैश्विक नेतृत्व द्वारा चिह्नित मार्ग तैयार करेगा, एक विरासत तैयार करेगा जिसे भविष्य की पीढ़ियां आशा और सकारात्मकता के साथ देखेंगी.” भारतीय जनता पार्टी, दरअसल, आंख बंद कर के अपने और अपने नेताओं के कार्यों का गुणगान कर रही है. यह भाजपा के लिए बेहद खतरनाक स्थिति है क्योंकि कहा जाता है कि अगर अपनी खामियों को नहीं देख रहे हैं तो आप का अंत अवश्यंभावी है.

दोषी कौन : भाग 1

लॉकडाउन के कारण सभी की जानकारी में आई भोपाल की इस सच्ची कहानी में असली दोषी कौन है यह मैं आपको वाकिए के आखिर में बता पाऊँगा तो उसकी अपनी वजहें भी हैं . मिसेज वर्मा कोई 17 साल की अल्हड़ हाई स्कूल की स्टूडेंट नहीं हैं जिसे नादान , दीवानी या बाबली करार देते हुये बात हवा में उड़ा दी जाये . यहाँ सवाल दो गृहस्थियों और तीन ज़िंदगियों का है इसलिए फैसला करना मुझे तो क्या आपको और मामला अगर अदालत में गया तो किसी जज को लेना भी कोई आसान काम नहीं होगा .

जब कोई पेशेवर लिखने बाला किसी घटना को कहानी की शक्ल देता है तो उसके सामने कई चुनौतियाँ होती हैं जिनमें से पहली और अहम यह होती है कि वह इतने संभल कर लिखे कि किसी भी पात्र के साथ ज्यादती न हो इसलिए कभी कभी क्या अक्सर उस पात्र की जगह खुद को रखकर सोचना जरूरी हो जाता है . चूंकि इस कहानी का मुख्य पात्र 45 वर्षीय रोहित है इसलिए बात उसी से शुरू करना बेहतर होगा हालांकि इस प्लेटोनिक और मेच्योर लव स्टोरी की केंद्रीय पात्र 57 वर्षीय श्रीमति वर्मा हैं जिनका जिक्र ऊपर आया है .

श्रीमति वर्मा भोपाल के एक सरकारी विभाग में अफसर हैं लेकिन चूंकि विधवा हैं. इसलिए सभी के लिए उत्सुकता , आकर्षण और दिखावटी सहानुभूति की पात्र रहती हैं . दिखने वे ठीकठाक और फिट हैं लेकिन ठीक वैसे ही रहना उनकी मजबूरी है जैसे कि समाज चाहता है . हालांकि कामकाजी होने के चलते कई वर्जनाओं और बन्दिशों से उन्हें छूट मिली हुई है पर याद रहे इसे आजादी समझने की भूल न की जाए . कार्यस्थल पर और रिश्तेदारी में हर किसी की नजर उन पर रहती है कि कहीं वे विधवा जीवन के उसूल तो नहीं तोड़ रहीं . ऐसे लोगों को मैं सीसीटीवी केमरे के खिताब से नबाजता रहता हूँ जिन्हें दूसरों की ज़िंदगी में तांकझांक अपनी ज़िम्मेदारी लगती है .

उनके पति की मृत्यु कोई दस साल पहले हुई थी लिहाजा वे टूट तो तभी गईं थीं लेकिन जीने का एक खूबसूरत बहाना और मकसद इकलौता बेटा था जिसकी शादी कुछ साल पहले ही उन्होने बड़ी धूमधाम से की थी . उम्मीद थी कि बहू आएगी तो घर में चहल पहल और रौनक लेकर आएगी , कुछ साल बाद किलकारियाँ घर में गूँजेंगी और उन्हें जीने एक नया बहाना और मकसद मिल जाएगा . उम्मीद तो यह भी उन्हें थी कि बहू के आने के बाद उनका अकेलापन भी दूर हो जाएगा जो उन्हें काट खाने को दौड़ता था . कहने को तो बल्कि यूं कहना ज्यादा बेहतर होगा कि कहने को ही उनके पास सब कुछ था , ख़ासी पगार बाली सरकारी नौकरी रचना नगर जैसे पोश इलाके में खुद का घर और जवान होता बेटा , लेकिन जो नहीं था उसकी भरपाई इन चीजों से होना असंभव सी बात थी .

बहरहाल वक्त गुजरता गया और वे एक आस लिए जीती रहीं . यह आस भी जल्द टूट गई , बहू वैसी नहीं निकली जैसी वे उम्मीद कर रहीं थीं .  बेटे ने भी शादी के तुरंत बाद रंग दिखाना शुरू कर दिए . यहाँ मेरी नजर में इस बात यानि खटपट के कोई खास माने नहीं क्योंकि ऐसा हर घर में होता है कि बहू आई नहीं कि मनमुटाव शुरू हुआ और जल्द ही चूल्हे भी दो हो जाते हैं .  लेकिन जाने क्यों श्रीमति वर्मा से मुझे सहानुभूति इस मामले में हो रही है लेकिन पूरा दोष मैं उनके बेटे और बहू को नहीं दे सकता .

ऊपर से देखने में सब सामान्य दिख रहा था पर श्रीमति वर्मा की मनोदशा हर कोई नहीं समझ सकता जो जो दस साल की अपनी सूनी और बेरंग ज़िंदगी का सिला बेटे बहू से चाह रहीं थीं . कहानी में जो आगे आ रहा है उसका इस मनोदशा से गहरा ताल्लुक है जिसने खासा फसाद 30 अप्रेल को खड़ा कर दिया . इस दिन भी लोग असमंजस में थे कि 3 मई को लॉकडाउन हटेगा या फिर और आगे बढ़ा दिया जाएगा . बात सच भी है कि कोरोना के खतरे को गंभीरता से समझने बाले भी लॉकडाउन से आजिज़ तो आ गए थे .  खासतौर से वे लोग जो अकेले हैं लेकिन उनसे भी ज्यादा वे लोग परेशानी और तनाव महसूस रहे थे जो घर में औरों के होते हुये भी तन्हा थे जैसे कि श्रीमति वर्मा .

मुझे जाने क्यों लग रहा है कि कहानी में गैरज़रूरी और ज्यादा सस्पेंस पैदा करने की गरज से मैं उसे लंबा खींचे जा रहा हूँ .  मुझे सीधे कह देना चाहिए कि श्रीमति वर्मा अपने सहकर्मी रोहित से प्यार करने लगीं थीं जो उम्र में उनसे दो चार नहीं बल्कि 12 साल छोटा था और काबिले गौर बात यह कि शादीशुदा था . रोहित की पत्नी का नाम मैं सहूलियत के लिए रश्मि रख लेता हूँ . ईमानदारी से कहूँ तो मुझे वाकई नहीं मालूम कि रोहित और रश्मि के बाल बच्चे हैं या नहीं लेकिन इतना जरूर मैं गारंटी से कह सकता हूँ कि शादी के 14 साल बाद भी दोनों में अच्छी ट्यूनिंग थी . ये लोग भी भोपाल के दूसरे पाश इलाके चूनाभट्टी में रहते हैं

न उम्र की सीमा हो : भाग 1

नलिनी औफिस पहुंच कर अपनी सीट पर बैठी. नजरें अपनेआप कोने की ओर उठ गईं. विकास उसे ही देख रहा था. नलिनी ने पहली बार महसूस किया कि आंखें मौन रह कर भी कितनी स्पष्ट बातें कर जाती हैं और बचपन से जिस उदासी ने उस के अंदर डेरा जमा रखा था, वह धीरेधीरे दूर होने लगा है. एक उत्साह, एक उमंग सी भरने लगी है उस के रोमरोम में. नलिनी का मन शायद वर्षों से कुछ मांग रहा था, सूखे पड़े जीवन के लिए मांग रहा था थोड़ा पानी और अचानक बिना मांगे ही जैसे सुख की मूसलाधार बारिश मिल गई हो.

नलिनी ने बैग खोला, फाइल निकाली और काम शुरू किया. फिर विकास की तरफ देखा. वह एक पुरुष की मुग्ध दृष्टि थी जो नारी के सौंदर्यभाव से दीप्त थी. नलिनी की आंखें झुक गईं. वह बस हलका सा मुसकरा दी. विकास वहीं उठ कर चला आया, बोला, ‘‘आज बड़ी देर कर दी?’’

‘‘हां, 2 बसें छोड़नी पड़ीं… बहुत भीड़ थी.’’

‘‘तुम से कितनी बार कहा है, मेरे साथ आ जाया करो. आज शाम को जल्दी न हो तो मेरे साथ बीच पर चलना पसंद करोगी?’’

नलिनी ने संभल कर उस की तरफ देखा. न जाने क्यों उस की आंखों का सामना न कर पाती थी. उस ने सिर झुका लिया. दोनों के बीच गहरी खामोशी छाई रही. नलिनी को लगा विकास की नजरें जैसे देखती नहीं थीं, छूती थीं. वे जहां से हो कर बढ़ती थीं जैसे उस के रोमरोम को सहला जाती थीं.

नलिनी के मुंह से इतना ही निकल सका, ‘‘ठीक है, चलेंगे.’’

विकास थैंक्स कह कर अपनी सीट पर जा कर काम करने लगा.

पूरा दिन दोनों अपनीअपनी जगह घड़ी देखते रहे. शायद जीवन में पहली बार नलिनी ने ठीक 5 बजे अपना बैग समेट लिया. विकास तो जैसे तैयार ही बैठा था. विकास की गाड़ी से दोनों समुद्र के किनारे पहुंच गए.

शाम सी बीच पर झागदार लहरों में अपने पांव डुबोए शीतल नम हवा के स्पंदन को अपने रोमरोम में स्पर्श करने के स्वर्गिक आनंद में कुछ देर दोनों डूबे रहे. फिर दोनों एक किनारे पत्थरों पर बैठ गए. नलिनी समझ नहीं पाई वह इतना घबरा क्यों रही है. उस ने पुरुष दृष्टि का न जाने कितनी बार सामना किया था, मगर विकास की नजर उसे बेचैन कर रही थी. विकास की दृष्टि में प्रशंसा थी और वह प्रशंसा उस के शरीर को जितना पिघला रही थी उस का मन उतना ही घबरा रहा था.

विकास कह रहा था, ‘‘तुम बहुत सुंदर हो, तन से भी और मन से भी. यहां मुंबई आए 1 साल हो गया है मुझे, कितनी बार सोचा तुम्हारे साथ यहां आऊं. आज जा कर आ पाया हूं तुम्हारे साथ.’’

अपने रूप की प्रशंसा सब को अच्छी लगती है. नलिनी भी सम्मोहित सी उसे देखती रही. सोच रही थी, वह उस से छोटा है, कई साल छोटा, चेहरे पर खुलापन था, मोह लेने वाली शराफत थी. विकास ने उसे अपने बारे में, अपने परिवार के बारे में बताया कि उस के मातापिता मेरठ में रहते हैं और वह उन का इकलौता बेटा है, यहां अपने कुछ दोस्तों के साथ फ्लैट शेयर कर के रहता है.

समुद्र में सूरज का गोला लालभभूका हो धीरेधीरे उतर रहा था और उस के जीवन की कहानी भी धीरेधीरे बंद किताब के पन्नों सी विकास के सामने फड़फड़ाने लगी.

शुरुआत विकास ने ही यह पूछ कर कर दी थी, ‘‘कई महीनों से देख रहा हूं तुम्हें, मुझे ऐसा लगता है तुम ने खुद को एक सख्त खोल में छिपा रखा हो जैसे तुम्हारी आंखों में रहने वाली एक उदासी, मुझे अपनी ओर खींचती है नलिनी, तुम मुझ पर विश्वास कर के अपना दिल हलका कर सकती हो.’’

‘‘मुझे अपने चारों ओर खोल बनाना पड़ा. खुद को बचाने के लिए, चोट खाने और दर्द से दूर रहने के लिए. अगर ऐसा न करती तो शायद पागल हो गई होती. मेरे पापा की मृत्यु हुई तो कुछ दिन मृत्यु और शोक के रस्मोरिवाज निभाते हुए मैं ने जैसे सारे जीवन के लिए मिले आंसू बहा दिए. अपने छोटे दोनों भाइयों को अंतिम संस्कार करते देख मैं बहुत रोई. मैं बड़ी थी. उन दोनों पर क्या जिम्मेदारी डालती. पापा की मृत्यु कार्यकाल में ही हुई थी, इसलिए मानवीय दृष्टिकोण से मुझे उन के विभाग में ही यह नौकरी मिल गई और इसी के साथ अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करने की जिम्मेदारी मेरे ऊपर आ पड़ी. मां को मेरा ही सहारा था. अगर मेरे लिए कोई रिश्ता आ जाता तो मां मुझे याद दिलातीं कि शादी करने और परिवार बसाने से पहले क्या तुम्हें अपनी जिम्मेदारियां पूरी नहीं करनी चाहिए?’’

और मेरे दोनों भाई जब पढ़लिख कर अपने पैरों पर खड़े हो गए तो मां को उन के विवाह की चिंता सताने लगी. मेरे लिए रिश्ते आते. मैं इंतजार करती कि शायद मां या मेरी छोटी बहन कुसुम कुछ कहे पर उन्होंने कुछ नहीं कहा. मैं भी इस दर्द को पी गई और अपने दिल की बात अपने अंदर ही रहने दी. फिर भाइयों की भी शादी हो गई और वे अब विदेश जा बसे हैं. कुसुम की भी शादी हो गई है. मां मेरे साथ रहती हैं. अब मैं 35 साल की होने वाली हूं.’’

‘‘क्या?’’ विकास चौंक पड़ा, फिर हंसा, ‘‘अरे, लगती तो नहीं हो,’’ फिर उस के हाथ पर हाथ रख कर कहने लगा, ‘‘बहुत सोच लिया तुम ने सब के बारे में. अब दुनिया की परवाह करना बंद कर दो तो जीवन आसान हो जाएगा. बस, याद रखना कि तुम्हें ही अपना ध्यान रखना है.’’

विकास की आंखों में नलिनी ने वह सबकुछ पढ़ लिया था जिस की उम्मीद एक स्त्री किसी पुरुष से कर सकती है. वे दोनों साथसाथ चुप बैठे रहे. उस का शरीर विकास के शरीर को छू रहा था, उन के खयाल एकदूसरे के पास मंडरा रहे थे, उन का रिश्ता एक नए मोड़ पर आ पहुंचा था.

अब अचानक नलिनी के जीवन में वसंत आ गया था. धीरेधीरे विकास उस के हर खयाल, हर पल पर छा गया. औफिस में यों ही नजर भर देखना जैसे ढेरों बातें कह जाता, हाथों के मामूली स्पर्श से भी जैसे बदन में लपटें उठने लगतीं, नन्हेनन्हे शोले भड़क उठते जो हर तर्क को जला देते. वे कभी समुद्र किनारे मिलते, कभी एकांत पार्क में, लहरों के शोर से खामोश रेत में बैठे रहते एकदूसरे का हाथ थामे. वह जानती थी उस से बड़ी होने के बावजूद उस का शरीर अभी भी सुडौल और जवान है. पहले वे इसी में खुश थे, लेकिन अब ज्यादा चाहने लगे थे. जब नलिनी घर जाने के लिए उठती तो उसे हमेशा ऐसा लगता जैसे कुछ अधूरा रह गया हो. अगले दिन जब दोनों मिलते तो यह असंतोष उन्हें और बेचैन कर देता. अब नलिनी का दिल चाहता कि वे कहीं दूर चले जाएं और रातभर साथ रहें. वह विकास की बांहों में सोए पर वह कुछ कह न पाती. प्यार में सब शक्तियां होती हैं बस एक बोलने की नहीं होती.

पिया बावरा : भाग 1

सुभाष ने हैरत से अपने हाथों को देखा कि जिन में कल तक सिरिंज और आपरेशन के पतले नाजुक औजार होते थे अब उन में फावड़ा और कुदाल थमा दी गई.

‘‘क्यों डाक्टर, उठा तो पा रहे हो न?’’ एक कैदी ने मसखरी की, ‘‘अब यहां कोई नर्स तो मिलेगी नहीं जो अपने नाजुकनाजुक हाथों से आप को कैंचीछुरी थमाएगी.’’

सभी कैदियों को एक बड़ी चट्टान पर पहुंचा दिया गया और कहा गया कि यहां की चट्टानों को तोड़ना शुरू करो.

यह सुन कर सुभाष के पूरे शरीर में सिहरन सी दौड़ गई थी.

‘यह क्या हो गया मुझ से. कुछ भी बुरा करते समय आखिर ऐसे अंजाम के बारे में हम क्यों नहीं सोच पाते हैं?’ सुभाष मन ही मन अपने उस अतीत के लिए तड़प उठे जिस की वजह से आज वे जेल की सजा काट रहे हैं और अब कुछ हो भी नहीं सकता था. इतनी भारी कुदाल उठा कर पत्थर तोड़ना आसान नहीं था. डा. सुभाष गर्ग बहुत जल्दी थक गए. पहले पत्थर तोड़ना फिर उन्हें फावड़े की मदद से तसले में डालना. कुदाल की चार चोटों में ही उन की सांस फूल गई थी. काम रोक कर वहीं पत्थर पर बैठ कर वे सुस्ताने लगे. हीरालाल ने दूर से देखा और अपना काम रोक कर वहीं आ गया.

‘‘थक गए, डाक्टर?’’

सुभाष चुप रहे.

हीरालाल ने पूछा, ‘‘क्यों मारा था पत्नी को?’’

‘‘मैं ने नहीं मारा.’’

‘‘तो मरवाया होगा?’’ हीरालाल ने व्यंग्य से कहा.

डाक्टर चुप रहे.

‘‘बहुत सुंदर होगी वह जिस के लिए तुम ने पत्नी को मरवाया?’’ हीरा शरारत से बोला.

तभी एक सिपाही का कड़कदार स्वर गूंज उठा, ‘‘क्या हो रहा है. एक दिन आए हुआ नहीं कि कामचोरी शुरू हो गई,’’ और दोनों पर एकएक बेंत बरसा कर तुरंत काम करने का आदेश दिया.

बेंत लगते ही दर्द से तड़प उठे डाक्टर. अपनी हैसियत और हालात पर सोच कर उन की आंखें भर आईं. चुपचाप डाक्टर ने कुदाल उठा ली और काम में जुट गए.

जैसेतैसे शाम हुई. सभी कैदी अपनीअपनी कोठरी में पहुंचा दिए गए.

अपनी कोठरी में लेटेलेटे डा. सुभाष बारबार आंखें झपकाने की कोशिश कर रहे थे पर गंदी सीलन भरी जगह और नीची छत देख कर लग रहा था जैसे वह अभी सिर पर टपकने ही वाली है. 2 दिन पहले एक रिपोर्टर उन का इंटरव्यू लेने आई थी. उस ने प्रश्न किया था :

‘अपने प्यार को पाने के लिए क्या पत्नी का कत्ल जरूरी था? आप तलाक भी तो ले सकते थे?’

डाक्टर की यादों के मलबे में जाने कितने कांच और पत्थर दबे हुए थे. रात भर खयालों की हथेलियां उन पत्थरों और कांच के टुकड़ों को उन के जज्बातों पर फेंकती रहती हैं. काश, वे उत्तर दे पाते कि इतने बड़ेबड़े बच्चों की मां और अमीर बाप की उस बेटी को तलाक देना कितना कठिन था.

सुभाष गर्ग जिस साल डाक्टरी की डिगरी ले कर घर पहुंचे थे उसी साल 6 माह के भीतर ही वीणा पत्नी बन कर उन के जीवन में आ गई थी.

वीणा बहुत सुंदर तो नहीं पर आकर्षक जरूर थी. बड़े बाप की इकलौती संतान थी वह. उस के पिता ने सुभाष के लिए नर्सिंग होम बनवाने का केवल वादा ही नहीं किया, बल्कि टीके की रस्म होते ही वह हकीकत में बनने भी लगा था.

मातापिता बहत गद्गद थे. सुभाष भी नए जीवन के रोमांचक पलों को भरपूर सहेज रहे थे. जैसेजैसे डा. सुभाष अपने नर्सिंग होम में व्यस्त होने लगे और वीणा अपने बच्चों में तो पतिपत्नी के बीच की मधुरता धूमिल हो चली.

वीणा के तेवर बदले तो मुंह से अब कर्कश स्वर निकलने लगे. उसे हर पल याद रहने लगा कि वह एक अमीर पिता की संतान है और वारिस भी. इसलिए घर में उस की पूछ कुछ अधिक होनी चाहिए. इसीलिए उस की शिकायतें भी बढ़ने लगीं. सुभाष जैसेजैसे पत्नी वीणा से दूर हो रहे वैसेवैसे वे नर्सिंग होम और अपने मरीजों में खोते जा रहे थे. जीवन में तनिक भी मिठास नहीं बची थी. दवाओं की गंध में फूलों से प्यारे जीवन के क्षण खो गए थे. याद करतेकरते जाने कब डा. सुभाष को नींद ने आ घेरा.

खाने की थाली ले कर जब डा. सुभाष कैदियों की लाइन में लगते तो अपने नर्सिंग होम पर लगी मरीजों की लाइन उन्हें याद आने लगती. वह लाइन शहर में उन की लोकप्रियता का एहसास कराती थी जबकि यह लाइन किसी भिखारी का एहसास दिलाती है. डा. सुभाष को उस पत्रकार महिला का प्रश्न याद आ गया, ‘क्या सचमुच समस्या इतनी बड़ी थी, क्या और कोई राह नहीं थी?’

खाना खाते समय लगभग वे रोते रहते. अपने घर की वह शानदार डाइनिंग टेबल उन्हें याद आने लगती. बस, वही तो कुछ पल थे जिस में पूरा परिवार एकसाथ बैठ कर खाना खाता था. हालांकि यह नियम भी वीणा ने ही बनाया था.

वीणा का नाम व चेहरा दिमाग में आते ही डा. सुभाष फिर पुरानी यादों में खो से गए.

उस साल बड़ा बेटा पुनीत इंजीनियरिंग पढ़ने आई.आई.टी. रुड़की गया था और छोटा भी मेडिकल के लिए चुन लिया गया था. इधर नर्सिंग होम में पहले से और अधिक काम बढ़ गया तो डा. सुभाष दोपहर में घर कम आने लगे. रोज की तरह उस दिन भी घर से उन का टिफिन नर्सिंग होम आ गया था और उन के सामने प्लेट रख कर चपरासी ने सलाद निकाला था. तभी तीव्र सुगंध का झोंका लिए 30 वर्ष की एक युवती ने कमरे में प्रवेश किया.

‘सौरी सर, आप को डिस्टर्ब किया.’

डा. सुभाष ने गर्दन उठाई तो आंखें खुली की खुली रह गईं. मन में खयाल आया कि इतना सौंदर्य कहां से मिल जाता है किसीकिसी को.

‘सर, मैं डा. सुहानी, मुझे आप के पास डा. रावत ने भेजा है कि तुरंत आप से मिलूं.’

एक सांस में बोल कर युवती अपना पसीना पोंछने लगी.

सुभाष मुसकरा दिए.

‘आइए, बैठिए.’

‘नो सर. आप कहें तो मैं थोड़ी देर में आती हूं.’

‘नर्वस क्यों हो रही हैं डाक्टर, आप बैठिए,’ सुभाष ने खड़े हो कर सामने वाली कुरसी की ओर संकेत किया.

सुहानी डरती हुई कुरसी पर बैठ गई. डा. सुभाष ने चपरासी को इशारा किया तो उस ने दूसरी प्लेट सुहानी की तरफ रख दी.

‘नो सर, मैं दोपहर में पूरा खाना नहीं खाती हूं.’

‘आप सलाद लीजिए.’

उन के इतने अनुरोध की मर्यादा रखते हुए सुहानी ने थोड़ा सा सलाद अपनी प्लेट में रख लिया.

डा. सुभाष उस के सौंदर्य को देखते हुए मुसकरा कर बोले, ‘आज मेरी समझ में आया है कि कैसे लड़कियां केवल सलाद खा कर सुंदरता बनाए रखती हैं.’

सुहानी ने संकोच से देखा और बोली, ‘ओके, डाक्टर.’

डा. सुभाष ने कांटे में पनीर का एक टुकड़ा फंसा कर मुख में रख लिया और बोले, ‘आप यहां मेरी सहायक के रूप में काम करेंगी. अभी थोड़ी देर में सुंदर आप को केबिन दिखा देगा.’

उस दिन के बाद डा. सुभाष का हर दिन सुहाना होता गया. सुहानी केवल सौंदर्य की ही नहीं, मन की भी सुंदरी थी. उस के मीठे बोल डा. सुभाष में स्फूर्ति भर देते. यह काम की नजदीकियां कब प्यार में बदल गईं, दोनों को पता ही नहीं चला.

तब घर का पूरा उत्तरदायित्व वे अच्छी तरह पूरा कर रहे थे. पर पहले की तरह अब घर पर दुखी भी होते तो सुहानी की यादें उन की आंखों में घुलीमिली रहतीं.

उन दिनों वीणा कुछ अधिक ही चिड़चिड़ी होती जा रही थी. शायद इस की वजह यह थी कि बच्चों के जाने के बाद सुभाष भी उस से दूर हो गए थे और बढ़ती दूरी के चलते उस को अपने पति सुभाष पर शक हो गया था. एक रात वीणा ने पूछ ही लिया, ‘आजकल कुछ ज्यादा ही महकने लगे हो, क्या बात है?’

डा. सुभाष चौंक पड़े, ‘ये क्या बेसिरपैर की बातें कर रही हो. अब उम्र महकने की तो रही नहीं. मेरी तकदीर में तो आयोडीन और…’

‘बसबस. आदमियों की उम्र महकने के लिए हमेशा 16 की होती है.’

‘देखो वीणा, रातदिन दवाओं की खुशबू सूंघतेसूंघते जी खराब होने लगता है तो कभीकभार सेंट छिड़क लेता हूं. बहुत संभव है कि कभी ज्यादा सेंट छिड़क लिया होगा,’ सुभाष ने सफाई दी, लेकिन धीरेधीरे वीणा की शिकायतों और डा. सुभाष की सफाइयों का सिलसिला बढ़ गया.

नर्सिंग होम में वीणा के बहुत सारे अपने आदमी भी थे जो तरहतरह की रिपोर्ट देते रहते थे.

‘तुम्हारे इतने बड़ेबड़े बच्चे हो गए हैं. कल को उन की शादी होगी. बुढ़ापे में इश्क फरमाते कुछ तो शर्म करो,’ वीणा क्रोध में उन्हें सुनाती.

सुभाष ने उन दिनों चुप रहने की ठान ली थी. इसीलिए वीणा का पारा अधिक गरम होता जा रहा था.

रोजरोज की चिकचिक से तंग आ कर आखिर एक दिन सुभाष के मुख से निकल ही गया कि हां, मैं सुहानी से प्यार करता हूं और उस से शादी भी करना चाहता हूं.

डा. सुभाष को जेल की यातना सहते महीनों बीत चुके थे, लेकिन घर से मिलने कोई नहीं आया था. वे बच्चे भी नहीं जो उन के ही अंश हैं और जिन को उन्होंने अपना नाम दिया है. ऐसा नहीं कि बच्चे उन्हें प्यार नहीं करते थे पर मां तो मां ही होती है. मां की हत्या ने उन्हें बच्चों की नजरों में एक अपराधी, मां का हत्यारा साबित कर दिया था, पर क्या इस हादसे के लिए वे अकेले ही उत्तरदायी हैं?

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