अपराजिता ने उस लिफाफे को उठा कर पहले दोनों आंखों से लगाया. फिर नजाकत के साथ लिफाफे को खोला तो उस में एक गुलाबी कागज मिला. कागज को आधाआधा कर के 2 मोड़ दे कर तह किया गया था. चंद पल अपराजिता की उंगलियां उस कागज पर यों ही फिसलती रहीं… नानी के स्पर्श के एहसास के लिए मचलती हुईं. जब भावनाओं का ज्वारभाटा कुछ थमा तो उस की निगाहें उस कागज पर लिखे शब्दों की स्कैनिंग करने लगीं:
डियर अप्पू
‘‘जीवन में नैतिक सद््गुणों का महत्त्व समझना बहुत जरूरी है. इन नैतिक सद्गुणों में सब से ऊंचा स्थान ‘क्षमा’ का है. माफ कर देना और माफी मांग लेना दोनों ही भावनात्मक चोटों पर मरहम का काम करते हैं. जख्मों पर माफी का लेप लग जाने से पीडि़त व्यक्ति शीघ्र सब भूल कर जीवनधारा के प्रवाह में बहने लगते हैं. वहीं माफ न कर के हताशा के बोझ में दबा व्यक्ति जीवनपर्यंत अवसाद से घिरा पुराने घावों को खुरचता हुआ पीड़ा का दामन थामे रहता है. जबकि वह जानता है कि वह इस मानअपमान की आग में जल कर दूसरे की गलती की सजा खुद को दे रहा है.
‘‘अप्पू मैं ने तुम्हें कई बार अपने मांबाप पर क्रोधित होते देखा है. तुम्हें गम रहा कि तुम्हारी परवरिश दूसरे सामान्य बच्चों जैसी नहीं हुई है. जहां बाप का जिंदगी में होना न होना बराबर था वही तुम्हारी मां ने जिंदगी के तूफानों से हार कर स्वयं अपनी जान ले ली और एक बार भी नहीं सोचा कि उस के बाद तुम्हारा क्या होगा… बेटा तुम्हारा कुढ़ना लाजिम है. तुम गलत नहीं हो. हां, अगर तुम इस क्रोध की ज्वाला में जल कर अपना मौजूदा और भावी जीवन बरबाद कर लेती हो तो गलती सिर्फ और सिर्फ तुम्हारी ही होगी. किसी दूसरे के किए की सजा खुद को देने में कहां की अक्लमंदी है?
‘‘मेरी बात को तसल्ली से बैठ कर समझने की चेष्टा करना और एकदम से न सही तो कम से कम अगले जन्मदिन तक धीरेधीरे उस पर अमल करने की कोशिश करना… बस यही तोहफा है मेरे पास तुम्हारे इस खास दिन पर तुम्हें देने के लिए.
‘‘ढेर सारा प्यार,’’
‘‘नानी.’’
वक्त तेजी से आगे बढ़ रहा था. अपराजिता अब इंजीनियरिंग के आखिरी साल में थी और अपनी इंटर्नशिप में मशगूल थी. वह जिस कंपनी में इंटर्नशिप कर रही थी, प्रतीक भी वहीं कार्यरत था. कम समय में ही दोनों में गहरी मित्रता हो गई.
बीते सालों में अपराजिता नानी से 18वें जन्मदिन पर मिले सौगाती खत को अनगिनत बार पढ़ा था. क्यों न पढ़ती. यह कोई मामूली खत नहीं था. भाववाहक था नानी का. अकसर सोचती कि काश नानी ने उस के हर दिन के लिए एक खत लिखा होता तो कुछ और ही मजा होता. नानी के लिखे 1-1 शब्द ने मन के जख्मों पर चंदन के लेप का काम किया था. उस आधे पन्ने के पत्र की अहमियत किसी ऐक्सपर्ट काउंसलर के साथ हुए 10 सैशन की काउंसलिंग के बराबर साबित हुई थी.
अब अपराजिता के मस्तिष्क में बचपन में झेले सदमों के चलचित्रों की छवि धूमिल सी हो कर मिटने लगी थी. मम्मीपापा की बेमेल व कलहपूर्ण मैरिड लाइफ, पापा के जीवन में ‘वो’ की ऐंट्री और फिर रोजरोज की जिल्लत से खिन्न मम्मी का फांसी पर झूल कर जान दे देना… थरथर कांपती थी वह डरावने सपनों के चक्रवात में फंस कर. नानी के स्नेह की गरमी का लिहाफ उस की कंपकंपाहट को जरा भी कम नहीं कर पाया था.
नानी जब तक जिंदा रहीं लाख कोशिश करती रहीं उस की चेतना से गंभीर प्रतिबिंबों को मिटाने की, मगर जीतेजी उन्हें अपने प्रयासों में शिकस्त के अलावा कुछ हासिल न हुआ. शायद यही दुनिया का दस्तूर है कि हमें प्रियजनों के मशवरे की कीमत उन के जाने के बाद समझ में आती है.
प्रतीक और अपराजिता का परिचय अगले सोपान पर चढ़ने लगा था. बिना कुछ सोचे वह प्रतीक के रंग में रंग गई. कमाल की बात थी जहां इंटर्नशिप के दौरान प्रतीक उस के दिल में समाता जा रहा था तो दूसरी तरफ इंजीनियरिंग के पेशे से उस का दिल हटता जा रहा था.
वह औफिस आती थी प्रतीक से मिलने की कामना में, अपने पेशे की पेचीदगियों में सिर खपाने के लिए नहीं. ट्रेनिंग बोझ लग रही थी उसे. अपने काम से इतनी ऊब होती थी कि वह औफिस आते ही लंचब्रेक का इंतजार करती और लंचब्रेक खत्म होने पर शाम के 5 बजने का. कुछ सहकर्मी तो उसे पीठ पीछे ‘क्लौक वाचर’ पुकारते थे.
जाहिर था कि अपराजिता ने प्रोफैशन चुनते समय अपने दिल की बात नहीं सुनी. मित्रों की देखादेखी एक भेड़चाल का हिस्सा बन गई. सब ने इंजीनियरिंग में प्रवेश लिया तो उस ने भी ले लिया. उस ने जब अपनी उलझन प्रतीक से बयां की तो सपाट प्रतिक्रिया मिली, ‘‘अगर तुम्हें इस प्रोफैशन में दिलचस्पी नहीं अप्पू तो मुझे भी तुम में कोई रुचि नहीं.’’
‘‘ऐसा न कहो प्रतीक… प्यार से कैसी शर्त?’’
‘‘शर्तें हर जगह लागू होती हैं अप्पू…
कुदरत ने भी दिमाग का स्थान दिल से ऊपर रखा है. मुझे तो अपने लिए इंजीनियर जीवनसंगिनी ही चाहिए…’’
यह सुन कर अपराजिता होश खो बैठी थी. दिल आखिर दिल है, कहां तक खुद को संभाले… एक बार फिर किसी प्रियजन को खोने के कगार पर खड़ी थी. कैसे सहेगी वह ये सब? कैसे जूझेगी इन हालात से बिना कुछ गंवाए?
अगर वह प्रतीक की शर्त स्वीकार लेती है तो क्या उस कैरियर में जान डाल पाएगी जिस में उस का किंचित रुझान नहीं है? उस की एक तरफ कूआं तो दूसरी तरफ खाई थी, कूदना किस में है उसे पता न था.
अगले महीने फिर अपराजिता का खास जन्मदिन आने वाला था. खास इसलिए क्योंकि नानी ने अपने खत की सौगात छोड़ी थी इस दिन के लिए भी. बड़ी मुश्किल से दिन कट रहे थे… उस का धीरज छूट रहा था… जन्मदिन की सुबह का इंतजार करना भारी हो रहा था. बेसब्री उसे अपने आगोश में ले कर उस के चेतन पर हावी हो चुकी थी. अत: उस ने जन्मदिन की सुबह का इंतजार नहीं किया. जन्मदिन की पूर्वरात्रि पर जैसे ही घड़ी ने रात के 12 बजाए उस ने नानी के दूसरे नंबर के ‘लैगसी लैटर’ का लिफाफा खोल डाला. लिखा था:
‘‘डियर अप्पू’’
‘‘जल्दी तुम्हारी इंजीनियरिंग पूरी हो जाएगी. बहुत तमन्ना थी कि तुम्हें डिगरी लेते देखूं, मगर कुदरता को यह मंजूर न था. खैर, जो प्रारब्ध है, वह है… आओ कोई और बात करते हैं.’’
‘‘तुम ने कभी नहीं पूछा कि मैं ने तुम्हारा नाम अपराजिता क्यों रखा. जीतेजी मैं ने भी कभी बताने की जरूरत नहीं समझी. सोचती रही जब कोई बात चलेगी तो बता दूंगी. कमाल की बात है कि न कभी कोई जिक्र चला न ही मैं ने यह राज खोलने की जहमत उठाई. तुम्हारे 21वें जन्मदिन पर मैं यह राज खोलूंगी, आज के लिए इसी को मेरा तोहफा समझना.
‘‘हां, तो मैं कह रही थी कि मैं ने तुम्हें अपराजिता नाम क्यों दिया. असल में तुम्हारे पैदा होने के पहले मैं ने कई फीमेल नामों के बारे में सोचा, मगर उन में से ज्यादातर के अर्थ निकलते थे-कोमल, सुघड़, खूबसूरत वगैराहवगैराह. मैं नहीं चाहती थी कि तुम इन शब्दों का पर्याय बनो. ये पर्याय हम औरतों को कमजोर और बुजदिल बनाते हैं. कुछए की तरह एक कवच में सिमटने को मजबूर करते हैं. औरत एक शरीर के अलावा भी कुछ होती है.
‘‘तुम देवी बनने की कोशिश भी न करना और न ही किसी को ऐसा सोचने का हक देना. बस अपने सम्मान की रक्षा करते हुए इंसान बने रहने का हक न खोना.
‘‘मैं तुम्हें सुबह खिल कर शाम को बिखरते हुए नहीं देखना चाहती. मेरी आकांक्षा है कि तुम जीवन की हर परीक्षा में खरी उतरो. यही वजह थी कि मैं ने तुम्हें अपराजिता नाम दिया… अपराजिता अर्थात कभी न पराजित होने वाली. अपनी शिकस्त से सबक सीख कर आगे बढ़ो… शिकस्त को नासूर बना कर अनमोल जीवन को बरबाद मत करो. जिस काम के लिए मन गवाही न दे उसे कभी मत करो, वह कहते हैं न कि सांझ के मरे को कब तक रोएंगे.’’
‘‘बेटा, जीवन संघर्ष का ही दूसरा नाम है. मेरा विश्वास है तुम अपनी मां की तरह हौसला नहीं खोओगी. हार और जीत के बीच सिर्फ अंश भर का फासला होता है. तो फिर जिंदगी की हर जंग जीतने के लिए पूरा दम लगा कर क्यों न लड़ा जाएं.
‘‘बहुतबहुत प्यार’’
‘‘नानी.’’
अपराजिता ने खत पढ़ कर वापस लिफाफे में रख दिया. रात का सन्नाटा गहराता जा रहा था, किंतु कुछ महीनों से जद्दोजहद का जो शिकंजा उस के दिलोदिमाग पर कसता जा रहा था उस की गिरफ्त अब ढीली होती जान पड़ रही थी.
दूसरे दिन की सुबह बेहद दिलकश थी. रेशमी आसमान में बादलों के हाथीघोड़े से बनते प्रतीत हो रहे थे. चंद पल वह यों ही खिड़की से झांकती हुई आसमान में इन आकृतियों को बनतेबिगड़ते देखती रही. ऐसी ही आकृतियों को देखते हुए ही तो वह बचपन में मम्मी का हाथ पकड़ कर स्कूल से घर आती थी.
कल रात वाले लैगसी लैटर को पढ़ने के बाद से ही वह खुद में एक परिवर्तन महसूस कर रही थी… कहीं कोई मलाल न था कल रात से. वह जीवन को अपनी शर्तों पर जीने का निर्णय कर चुकी थी. औफिस जाने से पहले उस ने एक लंबा शावर लिया मानो कि अब तक के सभी गलत फैसलों व चिंताओं को पानी से धो कर मुक्ति पा लेना चाहती हो.
प्रतीक के साथ औफिस कैंटीन में लंच लेते हुए उस ने अपना निर्णय उसे सुनाया, ‘‘प्रतीक मैं तुम्हें भुलाने का फैसला कर चुकी हूं, क्योंकि मेरी जिंदगी के रास्ते तुम से एकदम अलग हैं.’’
‘‘यह क्या पागलपन है? कौन से हैं तुम्हारे रास्ते… जरा मैं भी तो सुनूं?’’ प्रतीक कुछ बौखला सा गया.