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आरोही : विज्ञान पर भरोसा करती एक डॉक्टर की कहानी – भाग 3

“आरोही, तुम किचन में जा कर देख नहीं सकतीं कि क्या खाना बना है. आज कामवाली ने इतना घी, मसाला, मिर्च डाल दिया है कि खाना मुश्किल हो गया. दही मांगा तो घर में दही भी नहीं था. खाना एकदम ठंडा रख देती है. रोटी कभी कच्ची तो कभी जली, तो कभी ऐसी कि चबाना भी मुश्किल हो जाता है… एक टाइम तो घर में खाता हूं, वह भी कभी ढंग का नहीं मिलता,” कहते हुए वह खड़ा हो गया था.

दिन पर दिन अविरल का गुस्सा बढ़ता जा रहा था और व्यवहार में रुखापन आता जा रहा था. उस ने भी निश्चय कर लिया था कि जितना उसे बेड़ियों में जकड़ने की कोशिश करेगा, उतना ही वह ईंट का जवाब पत्थर से देगी. साथ में रहना है तो ठीक से रहो नहीं तो अलग हो जाओ. लेकिन वह अपनी तरफ से रिश्ता बनाए रखने का भरपूर प्रयास कर रही थी.

कुछ दिनों तक तो उसने गृहिणी की तरह उसे और मांजी को गरम रोटियां खिलाईं लेकिन कुछ दिनों बाद उसे लगने लगा कि शादी कर के वह लोहे की जंजीर के बंधन में जकड़ कर रह गई है. वह अपने मम्मीपापा से शिकायत कर नहीं सकती थी. उन्होंने पहले ही कहा था कि अविरल का स्वभाव गुस्सैल है. तुम्हें उस के साथ निभाना मुश्किल होगा. अविरल का क्रोध शांत करने के लिए उस का मौन आग पर जल के छींटे के समान होता और वह शांत हो कर उस की शिकायतों को दूर करने की कोशिश भी करती.

वह अपनी खुशी अब अपने प्रोफैशन में ढूंढ़ती और घरेलू उलझनों को अपने घर पर ही छोड़ जाती थी. इस बीच वह एक नन्हीं परी की मां बन गई थी. अब परी को ले कर हर समय अविरल उस पर हावी होने की कोशिश करने लगा. यदि वह जवाब दे देती तो अनबोला साध लेता. फिर उस की पहल पर ही बोलचाल शुरू होती. वह इतनी हंसनेखिलखिलाने वाली स्वभाव की थी, मगर अविरल के साथ रह कर तो वह हंसना ही भूल गई थी. दोनों के बीच में अकसर कई दिनों तक बोलचाल बंद रहती. वह कई बार शादी तोड़ देने के बारे में सोचती पर बेटी परी के बारे में सोच कर और अपने अकेलेपन की याद कर के वह चुप रह जाती.

एक दिन अविरल के दोस्त अन्वय के बच्चे की बर्थडे पार्टी थी. वहां पर जब ड्रिंक के लिए उस ने मना कर दिया तो अविरल सब के सामने उस पर चिल्ला पड़े. अन्वय बारबार 1 पैग लेने की जिद करते जा रहे थे… वह सब पहले ही कई पैग लगा चुके थे. वह नाराज हो कर वहां से घर लौट कर आ गई.

अविरल घर आ कर उस पर चिल्लाने लगे,” यदि एक छोटा सा पैग ले लेतीं तो क्या हो जाता?”

वह कुछ नहीं बोली. गुस्सा तो बहुत आ रहा था कि जब मालूम है कि वह ड्रिंक नहीं करती तो क्यों जबरदस्ती कर रहे थे. वह मौन रह कर अपना काम करती और नन्हीं परी के साथ अपनी खुशियां ढूंढ़ती. वह कई बार सोचती कि आखिर अविरल ऐसा व्यवहार क्यों करता है?

धीरेधीरे उसे समझ में आया कि अविरल के मन में उस की बढ़ती लोकप्रियता के कारण हीनभावना आती जा रही है. चूंकि कोविड के कारण उस की कंपनी घाटे में चल रही थी और कंपनी में छंटनी चल रही थी इसलिए उस के सिर पर हर समय नौकरी जाने की तलवार लटकती रहती थी.

वह उस की परेशानी को समझती और पत्नी का फर्ज निभाने की कोशिश करती रहती पर ताली एक हाथ से नहीं बजती. अविरल का पुरुषोचित अहंकार बढ़ता जा रहा था.

उन दोनों के बीच की दूरियां बढ़ती जा रही थीं. उसे देर रात तक पढ़ने का शौक था और उस के प्रोफैशन के लिए भी पढ़ना जरूरी था. अविरल के लिए उस की अंकशायिनी बनने का मन ही नहीं होता. इसलिए भी उस का फ्रस्ट्रैशन बढ़ता जा रहा था.

समय बीतने के साथवह मांजी और अविरल के स्वभाव और खानपान को अच्छी तरह से समझ चुकी थी. वह मांजी की दवा वगैरह का पूरा खयाल रखती और उस ने एक फुलटाइम मेड रख दी थी. सुबहशाम मांजी के पास थोड़ी देर बैठ कर उन का हालचाल पूछती. अब मांजी उस से बहुत खुश रहतीं. वह कोशिश करती कि अविरल के पसंद का खाना बनवाए. संभव होता तो वह डाइनिंग टेबिल पर उसे खाना भी सर्व कर देती. लेकिन वह महसूस करती थी कि अविरल की अपेक्षाएं बढ़ती ही जा रही हैं और शादी उस के कैरियर में बाधा बनती जा रही है.

उस का पुरुषोचित अहम बढ़ता ही जा रहा था. वह उस पर अधिकार जमा कर उस पर शासन करने की कोशिश करने लगा था. बातबेबात क्रोधित हो कर चीखनाचिल्लाना शुरू कर दिया था.

शुरू के दिनों में तो वह उस की बातों पर ध्यान देती और उस की पसंद को ध्यान में रख कर काम करने की कोशिश करती पर जब उस के हर काम में टोकाटाकी और ज्यादा दखलंदाजी होने लगी, तो उस ने चुप रह प्रतिकार करना शरू कर दिया था. अपने मन के कपड़े पहनती, अपने मन का खाती. मांबेटा दोनों को उस ने नौकरों के जिम्मे कर दिया था.

यदि अविरल कोई शिकायत करते तो साफ शब्दों में कह देती,”मेरे पास इन कामों के लिए फुरसत नहीं है.”

यदि श्यामा सही से काम नहीं करती तो अविरल कहते कि औनलाइन दूसरी बुला लो. लेकिन उस के पास इन झंझटों में पड़ने का टाइम भी नहीं है और ताकत भी नहीं… वह कहती कि कोई भी व्यक्ति पूरा परफैक्ट नहीं होता, जब मैं इतनी कोशिश कर के तुम लोगों की आशाओं पर खरी नहीं उतरी तो बेचारी श्यामा तो…” कहती हुई बैग उठा कर घर निकल गई थी.”

वह मन ही मन सोचती कि पति बनते ही सारे पुरुष एकजैसे ही बन जाते हैं. स्त्री के प्रति उन का नजरिया नहीं बदलता है. वह स्त्री पर अपना अधिकार समझ कर उस पर एकछत्र शासन करना चाहता है. पत्नी के लिए लकीर खींचने का हक पति को क्यों दिया जाए? आखिर पत्नी के लिए सीमाएं तय करने वाले ये पति कौन होते हैं? दोनों समान रूप से शिक्षित और परिपक्व होते हैं इसलिए पत्नी के लिए कोई भी फैसला लेने का अधिकार पति का कैसे हो सकता है?
इन्हीं खयालों में डूबी हुई वह अपनी दुनिया में आगे बढ़ती जा रही थी. उस की व्यस्तता बढ़ती जा रही थी. परी भी बड़ी होती जा रही थी. वह स्कूल जाने लगी थी. वह कोशिश कर के अपनी शाम खाली रखती. उस समय बेटी के साथ हंसतीखिलखिलाती, उसे प्यार से पढ़ाती. वह अपनी दुनिया में मस्त रहने लगी थी.
चूंकि वह सर्जन थी, उस का डायग्नोसिस और सर्जरी में हाथ बहुत सधा हुआ था. वह औनलाइन भी मरीजों को सलाह देती. अब वह मुंबई की अच्छी डाक्टरों में गिनी जाने लगी थी.

उसे अकसर कौन्फ्रैंस में लैक्चर के लिए बुलाया जाता. उसे कई बार कौन्फ्रैंस के लिए विदेश भी जाना पड़ता और अन्य शहरों में भी अकसर जानाआना लगा रहता था. डा. निर्झर कालेज में उन से जूनियर थे. वे सर्जरी में कई बार उस के साथ रहते थे. इसी सिलसिले में उस के पास आया करते थे. मस्त स्वभाव के थे. अकसर उन लोगों के साथ खाना खाने भी बैठ जाया करते थे. वे देर रात तक काम के सिलसिले में बैठे रहते और उस के साथ ज्यादातर दौरों पर भी जाया करते. डाक्टर निर्झर उसी की तरह हंसोड़ और मस्त स्वभाव के थे. वह उन के संग रहती तो लगता कि उस के सपनों को पंख लग गए हैं. निर्झर के साथ बात कर के उस का मूड फ्रैश हो जाता और उस के मन को खुशी और मानसिक संतुष्टि मिलती.

डा. निर्झर की बातों की कशिश के आकर्षण में वह बहती जा रही थी. वे भी उस के हंसमुख व सरल स्वभाव और सादगी के कारण आकर्षण महसूस कर रहे थे. दोनों के बीच में दोस्ती के साथ आत्मिक रिश्ता पनप उठा था. दोनों काम की बात करतेकरते अपने जीवन के पन्ने भी एकदूसरे के साथ खोलने लगे थे.
निर्झर से नजदीकियां बढ़ती हुई अंतरंग रिश्तों में बदल गई थी. यही कारण था कि अविरल और उस के रिश्ते के बीच दूरियां बढ़ती जा रही थीं.

निर्झर का साथ पा कर उसे ऐसा महसूस होने लगा जैसे उस के जीवन से पतझड़ बीत गया हो और वसंत के आगमन से दोबारा खुशीरूपी कलियों ने प्रस्फुटित हो कर उस के जीवन को फिर गुलजार कर दिया हो. वह दिनभर निर्झर के खयालों में खोई रहती. वह उस से मिलने के मौके तलाशती हुई उस के केबिन में पहुंच जाती.

निर्झर उस से उम्र में छोटा था. अब वह फिर से पार्लर जा कर कभी हेयरसैट करवाती तो कभी कलर करवाती. उस की वार्डरोब में नई ड्रेसैज जगह बनाने लगी थीं. यहां तक कि उस की बेटी भी उस की ओर अजीब निगाहों से देखती कि मम्मी को क्या हो गया है. अविरल शांत भाव से उस के सारे क्रियाकलापों को देखते रहते पर मुंह से कुछ नहीं कहते. वह अपनी दुनिया में ही खोई रहती. घर नौकरों के जिम्मे हो गया था. उस के पास बस एक ही बहाना रहता कि काम बहुत है. बेटी परी के लिए भी अब उस के पास फुरसत नहीं रहती थी.

समयचक्र तो गतिमान रहता ही है. लड़तेझगड़ते 10 साल बीत गए थे. वह अपनी दुनिया में खोई हुई थी.
उस ने ध्यान ही नहीं दिया था कि अविरल कब से उस की पसंद का नाश्ता खाने लगे थे. अपना पसंदीदा औमलेट खाना छोड़ दिया था.

सुबहसवेरे उठते ही उस का मनपसंद म्यूजिक बजा देते और कोशिश करते कि उसे किसी तरह से टैंशन न हो. कई बार उस के लिए खुद ही कौफी बना कर बैडरूम में ले आते क्योंकि वह हमेशा से रात में कौफी पीना पसंद करती थी. अविरल की आंखों में उस के लिए प्यार और प्रशंसा का भाव दिखाई पड़ता.

एक कौन्फ्रैंस के सिलसिले में उसे 4 दिनों के लिए चैन्नई जाना था. वह बहुत उत्साहित थी. वहां के लिए उस ने खूब शौपिंग भी की थी. वह बैग लगाने के बाद यों ही मेल चेक करने लगी. निर्झर की मेल थी. उस ने यूएस की जौब के लिए अप्लाई किया था. उस ने बताया कि वह अपने वीजा इंटरव्यू के लिए दिल्ली जा रहा है. आरोही को बाद में पता लगा कि निर्झर यहां पहले ही रिजाइन कर चुका था.

‘उफ, कितना छुपा रुस्तम निकला, जब तक चाहा उस को यूज करता रहा और टाइमपास करता रहा और चुपचाप नौ दो ग्यारह हो गया. वह निराशा में डूब गई थी. उदास मन से बैड पर लेट गई थी. उस ने मन ही मन निश्चय कर लिया था कि वह बीमारी का बहाना कर के उन लोगों से अपने न आ पाने के लिए माफी मांग लेगी लेकिन पशोपेश भी था कि वह भी नहीं जाएगी और निर्झर तो पहले ही नहीं गया होगा. इस से वहां परेशानी हो जाएगी. वह बुझे मन से गुमसुम मायूस हो कर बैड पर लेट गई थी. उसे झपकी लग गई थी. जब आंख खुली तो कमरे में घुप्प अंधेरा छाया हुआ था.

अविरल औफिस से आए तो उसे लेटा देख परेशान हो उठे, “डार्लिंग, ऐवरीथिंग इज ओके न?” वह जवाब भी नहीं दे पाई थी कि उस ने देखा कि अविरल उस के सामने कौफी का प्याला ले कर खड़ा था…”

वह तेजी से उठी और बोली, “अरे, तुम मेरे लिए कौफी…”

“तो क्या हुआ डार्लिंग, इट्स ओके…”
वह अपने मन को कौन्फ्रैंस के लिए तैयार कर ही रही थी कि तभी कमरे में परी आ गई थी. बैग देख कर बोली,”मौम, कहीं जा रही हो क्या?”
वह गुमसुमसी थी कुछ समझ नहीं पा रही थी कि क्या कहे.

“पापा बता रहे थे कि आप चैन्नई, एक कौन्फ्रैंस में जा रही हैं.”

वह चौंक पड़ी थी, अविरल से तो उस की कोई बात नहीं हुई. उन्हें उस के प्रोग्राम के बारे में कैसे पता है?

“मौम, मेरी छुट्टियां हैं. पापा भी फ्री हैं. चलिए न, फैमिली ट्रिप पर चलते हैं.आप को पूरे समय कौन्फ्रैंस में थोड़े ही रहना होता है…

“मौम प्लीज, हां कर दीजिए, हमलोग कब से साथ में किसी फैमिली ट्रिप पर नहीं गए हैं,” वह उस से लिपट गई थी.

अविरल भी आशा भरी निगाहों से उस की ओर देख कर उस की हां का इंतजार कर रहा था. परी झटपट उस के बैग के सामान को उलटपुलट कर देखने लगी, वह मना करती, उस के पहले ही उस ने मां की सैक्सी सी पिंक नाइटी निकाल ली थी. वह शर्म से डूब गई थी कि अब क्या कहे…

“पापा, मौम ने तो पहले से आप के साथ ही जाने का प्रोग्राम बना रखा है.”

उस की अपनी बेटी ने आज उसे इस अजीब सी स्थिति से उबार लिया था.
कहीं दूर पर गाना बज रहा था, ‘मेरे दिल में आज क्या है, तू कहे तो मैं बता दूं…’

एक अरसे के बाद उस ने आगे बढ़ कर अविरल और परी दोनों को अपने आगोश में भर लिया था. दोनों की आंखों में खुशी के आंसू आ गए थे.

“आरोही, हमलोग इस बार महाबलीपुरम भी चलेंगे,” अविरल खुश हो कर बोले.

“यसयस…” कहते हुए प्यार से उस ने पत्नी को अपने आगोश में ले लिया था.

आज अविरल के प्यारभरे चुंबन ने उस के दिल को तरंगित कर दिया था.
परी तेजी से उन से अलग हो कर भागती हुई अपनी फ्रैंड्स को अपनी चैन्नई ट्रिप के बारे में बताने में मशगूल हो गई थी.

साथी : भाग 3

‘‘ठहर जा, करती हूं न अभी तेरी भी खातिरदारी,’’ कहती वे जब तक कपिल के पास पहुंचतीं, कपिल भाग खड़ा हुआ. औफिस में इतने धीरगंभीर दिखने वाले कपिल का यह रूप देख कर कविता हंस पड़ी.

चायनाश्ते और गपशप के बीच सुनंदा ने कब पूरा खाना भी तैयार कर लिया, पता ही नहीं चला. कविता टेबल लगाने में मां की मदद करने लगी. कपिल को सधी उंगलियों से सलाद काटते देखती ही रह गई वह.

‘‘कविता, मेरा यह बेटा तो बेटी से भी बढ़ कर है मेरे लिए,’’ कविता को हैरानी से देखता देख सुनंदा बोल उठीं.

‘‘वह तो दिख ही रहा है, मां,’’ कविता की आंखों में तारीफ थी, ‘‘सचमुच आप खुशहाल हैं मां, जो आप को कपिल जैसा बेटा मिला है.’’

‘‘हूं, खुशहाल,’’ खुद को नियंत्रित करने के मां के सारे प्रयास विफल हो गए, ‘‘खुशहाल तो मैं खुद को उस दिन समझंगी जिस दिन मेरी बहू मेरे साथ किचन में खड़ी मेरा हाथ बंटाएगी, मेरे घर में भी नन्हे बच्चों की किलकारियां गूंजेगी, पर,’’ सुनंदा का मन तड़प उठा.

कपिल मां के चेहरे की असहजता को भांप कर विचलित हो उठा. भले ही मां ने आज से पहले कभी अपने मुंह से कुछ न कहा हो, लेकिन वह जानता तो है कि उस ने कबकब मां के दिल को दुखाया है, उन की भावनाओं को ठेस पहुंचाई है.

कविता के मन ने स्थिति की नाजुकता को भांप लिया और स्वयं को ही कोसने लगी, क्यों बेकार में उस ने ऐसी बात छेड़ दी, जिस ने अच्छेखासे हंसतेखेलते माहौल को बो?िल कर दिया. क्या जरूरत थी. खामोश नहीं बैठ सकती थी थोड़ी देर, एकाएक उस के मुंह से निकल गया, ‘सौरी.’

‘‘नहीं बेटा, तुम्हें ‘सौरी’ कहने की कोई जरूरत नहीं. यह जो मेरा बेटा है न, बड़ा ही स्वार्थी है. मेरे विषय में इस ने कभी सोचा ही नहीं. जिंदगी का सफर अकेले ही तय करने की ठान ली. बस, एक प्रतिज्ञा ले ली, भीष्म पितामह की तरह. अब चाहे शूलों की शैया पर ही लेटना पड़े तो भी क्या फर्क पड़ता है. कविता, अब तो बेटा, तू ही समझ सकती है इसे, मेरी तो सुनता ही नहीं, शायद तेरी बात मान जाए. जरा एक बात पूछना इस से, क्या पतझड़ के डर से बहारें उपवन में आना छोड़ देती हैं? पूजा के विषय में तो शायद इस ने तुझे बताया ही होगा. जब वह खुश है, सुखी है अपनी घरगृहस्थी में, अपने बालबच्चों में, फिर इस ने ऐसा क्यों किया?’’

‘‘मां, बस भी करो,’’ कपिल को मां से ऐसी उम्मीद नहीं थी. कविता के सामने तो वह अपना ही रोना ले कर बैठ गईं.

‘‘क्यों? क्यों बस करूं? क्या कुछ गलत कहा है मैं ने? जब उस ने तेरी कोई परवा नहीं की, फिर तू क्यों देवदास बना फिरता है उस के लिए?’’

‘‘मां,’’ कपिल खाने की प्लेट सरका कर उठ खड़ा हुआ.

‘‘हां, मेरी बातें तुझे बुरी लगती हैं. मगर क्यों? दुश्मन तो नहीं हूं न तेरी. भला चाहती हूं मैं तेरा. मां हूं मैं तेरी,’’ उन की आंखें छलछला उठीं.

खाना खाने के लिए कपिल वापस अपनी सीट पर बैठ गया. सभी खामोश थे. सुनंदा ने किसी तरह 2-4 निवाले अपने मुंह में डाले और खाना समाप्त होते ही किचन समेटने के बहाने जो वहां से हटीं फिर देर तक वापस नहीं लौटीं. अपराधबोध से कपिल का मन भर उठा. कविता भी असहज हो उठी.

‘‘नहींनहीं, कविताजी, यकीन कीजिए, मां ऐसी बिलकुल नहीं हैं, पर पता नहीं आज अचानक उन्हें क्या हो गया. मैं तो खुद हैरान हूं. लगता है, आप को देख कर ज्यादा ही भावुक हो गईं. खैर छोडि़ए, आप स्वतंत्र हैं, जो भी निर्णय लीजिएगा, सब सोचसमझ कर.’’

‘‘कैसा निर्णय?’’ कविता चौंकी.

‘‘मेरा मतलब था, आप अभी तक यहां पर सामान सहित शिफ्ट नहीं हुई हैं.’’

‘‘तो?’’

‘‘मेरा मतलब है, अगर आप यहां न आना चाहें तो मौका अभी भी है,’’ कपिल हंस रहा था.

‘‘ओहो,’’ कपिल की हंसी में वह भी शामिल हो गई.

कविता समझ रही थी कि कपिल यह सब शायद स्थिति को सामान्य करने की गरज से कह रहा था.

कविता की पूरी रात अजीब कशमकश में बीती. सुबह हुई तो लगा जैसे रातभर वह सोई ही न हो. कभी सुनंदा तो कभी कपिल उस के दिल और दिमाग पर कब्जा जमाए बैठे रहे. फ्रैश हो कर नीचे उतरी तो वातावरण रात जैसा बो?िल न था. सुनंदा नाश्ता लगा रही थीं, कपिल मां की मदद कर रहा था. सुनंदा ने उसे देखते ही अपने करीब आने का आग्रह किया. कपिल की निगाहों ने भी उस का स्वागत किया.

सुनंदा कल की अपेक्षा आज कुछ ज्यादा ही चुप थीं. उन की चुप्पी,

कपिल और कविता दोनों को ही खल रही थी. काफी देर बाद कपिल को संबोधित करते हुए वे बोलीं, ‘‘बेटा कपिल, कल के अपने उस व्यवहार के लिए मैं खुद बहुत शर्मिंदा हूं. हो सके तो मुझे माफ कर देना.’’

‘‘मां, बस, आगे कुछ मत कहना,’’ कपिल ने हाथ आगे बढ़ा कर अपनी हथेली मां की हथेली पर रख दी. अब उन्होंने कविता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया, ‘‘कविता, मैं खुद नहीं जानती बेटा कि कल अचानक मुझे क्या हो गया था. सच कहूं, मुझे कपिल से कोई शिकायत नहीं. मैं ने तो बहुत पहले ही हालात से समझता कर लिया था. मान लिया था कि कपिल की खुशी में ही मेरी खुशी है. मेरी वजह से बेटा, तेरे फैसले को कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए. तू ने अपना फैसला बदला तो मुझे बहुत दुख होगा. तू यहां, हमारे साथ रहने आ रही है, मतलब आ रही है.’’

‘‘मां, आप कहें तो कपिल के साथ जा कर मैं अपना सामान अभी ले आऊं, है न कपिल?’’ कविता ने कपिल की भी सहमति चाही.

कपिल ड्राइविंग सीट पर था, एकदम खामोश. कविता जानती थी उस की खामोशी अकारण नहीं थी. कल जो कुछ भी हुआ उस का असर अब तक उस के स्मृतिपटल पर शेष था. मां का दिल दुखा कर वह भी खुश नहीं था.

बात आखिर कविता ने ही छेड़ी, ‘‘वैसे कपिल साहब, एक बात कहूं, कल आप भी कुछ ज्यादा ही झंझला गए थे. मां ने शायद कुछ गलत कहा ही नहीं था. आप को नहीं लगता, जिंदगी की तरफ आप का रुख कुछ ज्यादा ही कठोर है. खैर, छोडि़ए.’’

‘‘आप कहना क्या चाहती हैं?’’

‘‘यही कि माना, नियति ने आप के साथ नाइंसाफी की पर क्या एक आप ही हैं जिसे नियति ने छला है? इस की सजा आप अपने जीवन को क्यों दे रहे हैं, कपिल साहब? जिंदगी बड़ी ही अनमोल चीज का नाम है. मेरा कहा मानिए तो खुशियों से दामन बचाबचा कर चलना छोड़ दीजिए. कभी तो उन्हें करीब आने का अवसर दीजिए.’’

सच कह रही थी कविता, कपिल का मन विचार करने पर मजबूर हो गया.

‘‘अरे, ऐसे क्या देख रहे हैं?’’ अपनी बात बीच में ही छोड़ कर पूछ बैठी वह.

‘‘यही कि आप लैक्चर बहुत बढि़या दे सकती हैं.’’

‘‘समझ गई, मेरी बातें आप को बिलकुल अच्छी नहीं लग रहीं.’’

‘‘अरे, नहींनहीं, ऐसा बिलकुल

नहीं है. मैं तो बस, यों ही मजाक कर रहा था.’’

‘‘मतलब, मेरी बातें आप सीरियसली सुन ही नहीं रहे.’’

‘‘अब लीजिए, मैं ने ऐसा कब कहा. आप की बातें सुन भी रहा था और उन पर गौर भी कर रहा था,’’ कपिल ने गाड़ी को पार्क करते हुए कहा.

‘‘अच्छा, तो कभी फुरसत में उन पर अमल भी करिएगा.’’

‘‘लीजिए, आप का होटल भी आ गया. चलें. बाकी बातें ‘ब्रेक’ के बाद,’’ कपिल ने मजाकिया अंदाज में कहा.

बातों का सिलसिला यों ही टूट जाए, दोनों ही नहीं चाहते थे.

जब तक वे वापस लौटे, सुनंदा ने लंच तैयार कर लिया. कपिल की पसंद की कढ़ी और बैगन की कलौंजी बनाई थी उन्होंने. अब बेसब्री से उन की राह तक रही थीं. कार का हौर्न सुन कर रहा ही नहीं गया उन से, घर के बाहर ही निकल आईं वे. सामान के नाम पर बस, एक अटैची और एक एयरबैग. सबकुछ सहेज कर तीनों खाना खाने बैठ गए. भूख ने खाने का स्वाद और भी बढ़ा दिया.

धीरेधीरे कविता को कपिल के घर आए करीब एक महीना गुजर गया. सच पूछा जाए तो उसे यही अब अपना घर लगने लगा था. लगता भी क्यों न, सुनंदा से जो इतना ढेर सारा प्यार मिल रहा था उसे और कपिल का साथ. इस घर का एक हिस्सा बन चुकी थी अब वह. और किसी की भी याद तक अब नहीं आती थी उसे. दोचार दिन, महीने 2 महीने क्या, अब तो पूरा जीवन ही गुजार देने को वह तैयार थी यहां.

आज सुबह से ही उस ने औफिस न जाने का मन बना लिया था, तभी तो अलसाई सी अभी तक बिस्तर पर ही पड़ी थी. सुनंदा के बारबार आवाज देने पर वह किसी तरह उठ कर नीचे डाइनिंग हौल तक गई.

‘‘क्या बात है? आज छुट्टी मारने का इरादा है क्या?’’ कपिल ने रास्ते में ही टोका.

‘‘कविता, तबीयत तो ठीक है न तेरी, बेटा?’’ सुनंदा ने उस के माथे पर हाथ फेरते हुए कहा.

‘‘हां मां, बस यों ही समझ लीजिए. आज दिनभर आप के साथ रहने का मन है,’’ कविता ने उन की हथेली को चूमते हुए कहा.

‘‘कोई जरूरत नहीं है इतना मक्खन लगाने की. वैसे भी, जब से तुम आई हो, मेरे हिस्से का लाड़ भी तुम्हें ही मिलता है,’’ कपिल शेव करतेकरते हंस पड़ा.

कपिल के जाने के बाद दोनों धूप में आ बैठीं. कविता को सुनंदा के साथ बैठ कर गपें मारना हमेशा से अच्छा लगता था. उन के हाथों में ऊन व सलाइयां थीं. उन की अभ्यस्त उंगलियां देखतेदेखते सलाइयों से खेलने लग गईं.

‘‘कविता?’’

‘‘जी.’’

‘‘एक बात पूछूं, तुम ने कभी अपने विषय में कुछ नहीं बताया कि कौनकौन हैं तुम्हारे घर में?’’

‘‘जी, घर, शायद मेरी नियति में नहीं. अपने विषय में बताऊं भी तो क्या? बताने जैसा कुछ है ही नहीं. बस, इतना समझ लीजिए कि वक्त ने ही जब जी में आया ठोकर मारी और जब जी में आया संभाल लिया. अब तो एक आदत सी पड़ गई है.

‘‘कहने को तो मेरे घर में सभी हैं और कोई भी नहीं. सच कहूं तो जो मेरे अपने थे उन्होंने बेगानों से भी बदतर व्यवहार किया और जो बेगाने थे, मैं उन्हें कभी भी अपना न सकी. एक घर ससुराल बन कर रह गया और एक मायका. अपने घर का सपना बस, सपना बन कर ही रह गया. खैर, मुझे अब किसी से कोई शिकायत नहीं.’’

‘‘बस बेटा, समझ गई मैं. तुम्हारे जख्मों को कुरेदना मेरा मकसद नहीं, मैं तो बस, यों ही पूछा. तुम नहीं जानतीं, तुम्हारे यहां आ जाने से मैं बहुत खुश हूं. पूछोगी नहीं क्यों? क्योंकि आजकल कपिल में बहुत सारे परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं मुझे. बहुत खुश रहने लगा है वह. जानती हो, यह मेरी दुआओं का असर है. तरस गई थी मैं उस के चेहरे पर खुशी की एक झलक देखने के लिए. पूजा उस के जीवन से क्या गई, उस ने तो मानो जिंदगी से ही मुंह मोड़ लिया. न कहीं जाना न आना बस, घर से औफिस और औफिस से घर. मैं ने तो कभी सोचा भी न था कि तुम जैसी कोई सीधीसादी, भोलीभाली लड़की उस के जीवन में आएगी और उस की जिंदगी ही बदल जाएगी. सच कहूं, मुझे तो लगता है वह तुम्हें पसंद करने लगा है. तुम्हारा साथ कुछ ज्यादा ही पसंद करने लगा है?’’

‘‘जी?’’

‘‘कविता, चौंकने का अभिनय मत करो, तुम्हें सब पता है. तुम क्या समझती हो मैं कुछ नहीं जानती?’’ वे हंसीं, ‘‘सच पूछो तो इस में बुराई भी क्या है? तुम दोनों मैच्योर हो. जो भी निर्णय लोगे, सोचसमझ कर लोगे. तुम दोनों की खुशी में मेरी भी खुशी है. एक बात पूछूं कविता, तुम्हारे दिल में भी तो एक साथी की तमन्ना होगी?’’

उन की चोर निगाहें कविता के चेहरे को पढ़ने का प्रयास करने लगीं, ‘‘हर इंसान जीवन में किसी न किसी का साथ चाहता है. वह चाहता है कि कोई ऐसा हो जिस के साथ वह अपने दुखसुख, अपना दर्द बांट सके. हर साथ को एक रिश्ते में बंधना पड़ता है. पतिपत्नी, मांबेटा, हर रिश्ते का एक नाम होता है, यही दुनिया का दस्तूर है.’’

कविता समझ रही थी, मां कहना क्या चाह रही हैं, लेकिन इतना घुमा कर. जो बात कपिल को साफसाफ शब्दों में कह देनी चाहिए थी उसे कहने के लिए उस ने मां का सहारा लिया. उस की नजरें सुनंदा के चेहरे पर जा टिकीं. वे अभी भी कुछ कह रही थीं, ‘‘मां हूं न उस की, वह समझता है, मैं कुछ समझती ही नहीं. बचपन का साथ था उस का और पूजा का,’’ उन की उंगलियां सलाइयों पर ठहर गईं, ‘‘वह पूजा पर जान छिड़कता रहा और पूजा? मैं ने कहा भी कि तू कहे तो मैं बात करूं पूजा की मां से. कहने लगा, ‘आप बेकार परेशान हो रही हैं, कोई फायदा नहीं. आप क्या समझती हैं, मैं ने उस से बात ही नहीं की होगी? किसी और को चाहती है वह शायद. मैं ही उस की चाहत के काबिल नहीं. इस में उस का क्या दोष है? मैं ने उसे चाहा है मां, यह गुनाह मेरा है तो सजा भी तो मुझे ही काटनी होगी, है न,’ और आज तक उस गुनाह की सजा…’’ वे कुछ कहतेकहते रुक गईं क्योंकि सामने कपिल खड़ा नजर आ रहा था.

‘‘तू इस वक्त?’’

‘‘हां मां, मैं ने सोचा, क्यों न आज घर चल कर आप लोगों के साथ ही लंच किया जाए.’’

‘‘यह क्यों नहीं कहता कि तेरा भी दिल औफिस में नहीं लगा,’’ सुनंदा के होंठों पर अर्थपूर्ण मुसकराहट थी.

‘‘आज?’’ वह कविता की ओर मुखातिब होता हुआ बोला, ‘‘औफिस में अनिता तुम से मिलने आई थी.’’

‘‘अनिता, कौन अनिता?’’ कविता सोच में पड़ गई.

‘‘अरे वाह, एक ही दिन में अनिता को भूल गईं. मां का संगसाथ ज्यादा रहेगा तो यही सब होगा. अनिता, इतने बड़े शहर में आप की एकमात्र सहेली, यही कह कर हमारा परिचय करवाया था न आप ने. अब कुछ याद आया आप को? पिछले करीब 2-3 हफ्ते पहले जिस के घर गए थे हम दोनों. आप ने कहा था न कि अगर इस के साथ वाला फ्लैट आप को मिल जाए तो? यह रही उस फ्लैट की चाबी. खुश हो जाइए, अब तो मां की बकबक से भी छुटकारा मिल जाने वाला है आप को,’’ कपिल ने चाबी कविता की ओर बढ़ा दी.

कविता हैरानी से कभी मां को तो कभी कपिल को और कभी चाबी को देखती रह गई.

यह सच था कि वह पिछले हफ्ते कपिल के साथ अनिता के घर गई थी. यह भी सच था कि उसे यह फ्लैट पसंद था, मगर फ्लैट की चाबी?

‘‘मां, आप का तो कहना था, कपिल मुझे पसंद करने लगे हैं. देख लिया न मां, आप ने कपिल की चाहत का नमूना. आप से भी एक बात कहना चाहूंगी मैं मां, थैंक्स, इतना सबकुछ खोने के बाद आखिर आप ने मेरे भी मन में कुछ पाने की आस जगा ही दी,’’ वह बिना कुछ बोले चुपचाप अपने कमरे की ओर मुड़ जाना चाहती थी, शायद पैकिंग करने, लेकिन जातेजाते न जाने क्याक्या कह गई.

अब वह यहां नहीं रहेगी और जब जाना ही है तो आज क्यों नहीं, अभी क्यों नहीं. सोच कर वह उठ खड़ी हुई पर यह क्या, जातेजाते उस के पांव ठिठक कर रह गए. कान मांबेटे के मध्य चल रहे संवाद पर जा टिके.

‘‘कपिल बेटा, यह सब क्या है?’’

‘‘पता नहीं मां, मैं तो समझता रहा कि कविता की यही मरजी है. यकीन करो मां, मेरा मकसद कविता का दिल दुखाना नहीं था. मैं ने तो उस की परेशानी कम करनी चाही थी. वह इस तरह रिऐक्ट करेगी, मैं ने तो सपने में भी नहीं सोचा था.’’

फिर भी बेटा, अनिता को कुछ कहने से पहले तुझे कम से कम एक बार कविता से तो पूछ लेना चाहिए था, आखिर वह क्या चाहती है. एक बात बता कपिल, क्या तेरी खुशी कविता के चले जाने में है? नहीं न. कविता अगर चली जाती है तो क्या तू खुश रह सकेगा? नहीं न. बेटा, मेरी नजरें धोखा नहीं खा सकतीं. मुझे क्यों ऐसा लगने लगा था कि तू कविता को चाहने लगा है. कह दे कि मैं गलत कह रही हूं. कह दे कि तू कविता को नहीं चाहता.’’

कपिल ने नजरें झका लीं, ‘‘हां मां, मैं कविता को चाहने लगा हूं, लेकिन मैं चाहता हूं कि कविता खुद मेरी चाहत को महसूस करे. मां, उम्र के इस पड़ाव पर मेरी चाहत मेरे लिए कोई माने नहीं रखती. मेरे लिए महत्त्व रखता है तो उस की इच्छा, उस की खुशी, उस का साथ. और अगर दूर रह कर भी मुझे उस का साथ मिले तो मैं स्वयं को बहुत खुशहाल समझंगा. सच तो यह है मां कि मैं ने जिंदगी में बहुतकुछ खोया है और अब किसी भी कीमत पर कुछ खोना नहीं चाहता. वह इस तरह नाराज हो कर चली जाए, यह तो बिलकुल ही नहीं चाहता. प्लीज मां, कविता को रोक लीजिए,’’ कपिल का स्वर अनुरोधभरा था.

‘‘पगले, तुझ से रूठ कर वह ऐसे ही चली जाएगी, तू ने यह कैसे सोच लिया. देख लेना, कविता कहीं नहीं जाएगी. मैं ने कह दिया न, मेरी नजरें धोखा नहीं खा सकतीं. फिर तुझे क्या पता, वह भी तुझे कितना चाहने लगी है, तेरी ही तरह,’’ सुनंदा के हाथ उस के माथे को सहलाते रहे.

कविता हैरान रह गई. इतने दिनों में वह कपिल जैसे सीधे और सच्चे इंसान को न पहचान सकी. कितना निश्च्छल और निर्मल मन है उस का. एक कदम भी और आगे न बढ़ा सकी वह, उसी पल पलटी. धागे में झलती, एक अकेली चाबी कपिल की ओर बढ़ाते हुए बोली, ‘‘कपिल, मुझे अफसोस है, मैं ने तुम्हें समझने में भूल की. अब मुझे इस की कोई जरूरत नहीं,’’ दूसरे ही पल वह सुनंदा की ओर पलटी, ‘‘मां, मैं अब यहां से कहीं नहीं जा रही, यहीं रहूंगी आप के पास और इंतजार करूंगी तब तक जब तक कि कपिल के मन से कुछ खोने का भय समाप्त नहीं हो जाता,’’ उस की नजरें लगातार कपिल पर टिकी रहीं.

सुनंदा ने आगे बढ़ कर उसे गले से लगा लिया. कपिल बिना कुछ कहे पास खड़ा मुसकराता रहा.

‘‘अब गिलेशिकवे दूर हो गए हों तो खानावाना खा लिया जाए,’’ सुनंदा ने दोनों को संबोधित करते हुए कहा और किचन में जाने के लिए उठ खड़ी हुईं. कविता भी उन के पीछेपीछे हो लेना चाहती थी पर तभी कपिल ने उस की बांह पकड़ ली, ‘‘कविता, प्लीज, एक मिनट, मैं कुछ कहना चाहता हूं तुम से. सच कहूं, मुझे खबर ही नहीं, मेरे मन ने कब तुम्हारे साथ की कामना की और कब तुम्हें अपना साथी मान लिया. तुम्हें खोने के एहसास मात्र से ही मेरा मन इतना विचलित हो जाएगा, मैं ने तो कभी सोचा भी न था. वादा करो कविता कि जीवन के इस सफर में अब तुम

मुझे कभी अकेला नहीं छोड़ोगी, जिंदगीभर मेरा साथ निभाओगी. बोलो, निभाओगी न?’’

कविता खामोश रही. उस की खामोशी में स्वीकृति का एहसास छिपा था और बंद होंठों में उस का इजहार. वह ज्यादा देर तक कपिल से नजरें न मिला सकी. उस की पलकें खुद ही झक गईं.

ख्वाब पूरे हुए : भाग 3 – नकुल की शादी से क्यों घर वाले नाराज थे?

“चलोचलो, नकुल, बहुत रात हो गई है. अब सो जाओ. इस बात पर कल सोचेंगे,” मन्नो ने नकुल को अपने पास खींचते हुए कहा.

अगले दिन सुबह से मौसम खराब था. रहरह कर बारिश हो रही थी. शाम से जो मूसलाधार बारिश हुई, देर रात तक चालू रही.

रात का एक बजने को आया था. नकुल का कहीं अतापता नहीं था. उस का मोबाइल भी बंद आ रहा था.

मन्नो हैरानपरेशान बिस्तर पर करवटें बदल रही थी कि तभी बरसात में बुरी तरह से भीगा हुआ नकुल घर में घुसा. उस ने हाथ में पकड़ा एक पैकेट उस की ओर बढ़ाया और मुदित मन तनिक हंसते हुए उस से कहा, “देख, इस में क्या है?”

‘ओह नकुल, जल्दी से कपड़े बदलो, नहीं तो बीमार पड़ जाओगे,” बोलते हुए जो मन्नो ने पैकेट खोला, वह उत्तेजित हो खुशी से चिल्ला उठी, “अरे वाह, मेरी पसंद के नर्गिसी कोफ्ते और दाल मखानी लाए हो. आज कौन सी लौटरी लग गई तुम्हारी कि इन सब का जुगाड़ कर लिया?”

कपड़े बदल कर छींकते हुए नकुल ने बिस्तर पर बैठते हुए 800 के तनिक भीगे हुए नोट उसे दिखाए  और फिर प्रसन्न मन उस से बोला,

“दुनिया में अच्छे लोग भी हैं यार. आज एक क्लाइंट के यहां घनघोर अंधड़बरसात में टाइम पर एकसाथ 10,000 रुपए के पिज्जा की डिलीवरी दी, तो उस ने खुश हो कर मुझे 1,000 रुपयों की टिप दी. उन के बच्चे की बर्थडे पार्टी थी. मुझे बढ़िया खाना भी खिलाया. सो, मैं तेरे लिए तेरा मनपसंद खाना ले आया.”

“ओह, नकुल, तुम बहुत अच्छे हो. मेरा कितना खयाल रखते हो.”

महीनों बाद उन दोनों के चेहरों पर मुसकराहट आई और दोनों तृप्त संतुष्ट एकदूसरे की बांहों में गुंथ सोए.

अगले दिन उन के लिए बेहद मायूसी भरा साबित हुआ. कहते भी हैं न, मुफलिसी और दुर्भाग्य का चोलीदामन का साथ है.

अगले दिन नकुल पिज्जा की डिलीवरी ले कर रात के 12 बजे शहर के सुदूर इलाके में एक क्लाइंट के घर जा रहा था कि तभी फिर से बदमाशों के एक गैंग ने उसे पकड़ लिया, और उस से खाने के पैकेट छीन लिण्, साथ ही उसे मारपीट कर उस का मोबाइल भी छीन लिया.

वह रोताधोता घर आया. बिना मोबाइल के डिलीवरी एक्जीक्यूटिव की नौकरी संभव न थी. सो, दोनों पतिपत्नी गमजदा अपनी फूटी किस्मत का रोना रो रहे थे कि तभी मन्नो ने कुछ सोच कर नकुल से कहा, “नकुल, सामने की खोली वाले धूनी काका महीनेभर से बीमार पड़े हैं. उन का सब्जी बेचने का ठेला यों ही बेकार खड़ा हुआ है. क्यों न हम कुछ दिनों के लिए उन का ठेला ले कर उन की तरह सब्जी बेचने का काम करें. मैं अभी काकी से इस बाबत बात कर के आती हूं.”

उन की किस्मत अच्छी थी और काकी ने उसे अपना ठेला मुफ्त में काका के ठीक होने तक दे दिया.

दोनों पतिपत्नी काका के सलाहमशवरे से उन से कुछ रुपए उधार ले कर सब्जी खरीद लाए और घरघर फेरी लगा कर बेचने निकल पड़े. शाम तक उन दोनों ने सब्जी कमा कर 500-600 रुपए कमा लिए.

बस तभी से उन की किस्मत पर लगा ग्रहण धीमेधीमे हटने लगा.

महीनेभर तक धूनी काका का ठेला उन के पास रहा. महीनेभर में उन्होंने एक ठेला खरीदने  लायक रुपए कमा लिए.

अब उन की जिंदगी पहले की तुलना में आसान हो गई थी, लेकिन दोनों की ही समझ में आ गया था कि एक सुविधासंपन्न जिंदगी जीने के लिए पढ़ाईलिखाई बहुत जरूरी है.

सो, दोनों ने ही बीए का फार्म प्राइवेट परीक्षा के लिए भर दिया.

अब उन्हें सब्जी बेचने का काम करते हुए पूरे दो वर्ष हो चले थे. उन की दालरोटी सहज भाव से चल रही थी. दोनों की बीए की पढ़ाई भी पूरी हो गई थी.

दोनों ने ही निर्णय लिया कि नकुल सब्जी का ठेला लगाता रहेगा और मन्नो बीऐड की प्रवेश परीक्षा देगी. मन्नो बीऐड में दाखिला लेने के लिए कड़ी मेहनत करने लगी.

आखिरकार उस की लगन रंग लाई और उसे बीऐड में प्रवेश मिल गया.

समय के साथ मन्नो की बीऐड पूरी हुई और उस ने सरकारी नौकरी के लिए आवेदन कर दिया.

मन्नो को नौकरी के लिए अप्लाई करे सालभर बीत गया था.

उस दिन नकुल दोपहर के वक्त घर पर ही था, तभी मन्नो के नाम रजिस्टर्ड डाक आई. नकुल ने लिफाफा खोला और खुशी के अतिरेक से भर्राए गले से चीख पड़ा, “मन्नो, हमारी किस्मत खुल गई. तेरी सरकारी नौकरी लग गई.”

मन्नो को गोद में उठा कर वह चक्करघिन्नी की भांति गोलगोल घूम पड़ा. फिर उसे गोद से उतार कर उस से बोला, “थैंक यू जानू, जिंदगी का हर लमहा मेरा साए की तरह साथ देने के लिए. अब तो तुम्हारी पक्की सरकारी नौकरी लग जाएगी. हमारे सारे दुखदर्द दूर.”

दोनों हंसतेचहकते आने वाले भविष्य के सतरंगे सपनों में खो गए.

Health Tips: सुबह का नाश्ता क्यों माना जाता है सबसे जरूरी भोजन

अकसर लोग खानेपीने के मामले में बहुत लापरवाही बरतते हैं. तमाम लोग ऐसे होते हैं, जिन्हें सुबह बिस्तर से उठने के बाद खाने का होश ही नहीं रहता है. रोजाना की व्यस्त जिंदगी में लोग सुबह जागते ही दफ्तर जाने की उधेड़बुन में इस कदर खो जाते हैं कि उन्हें भागतेभागते भी खाने की जरा भी फिक्र नहीं रहती. जैसेतैसे नहाओ, कपड़े पहनो, बैग समेटो और दफ्तर के लिए निकल पड़ो. दोपहर के खाने का डब्बा तो लोग रख लेते हैं, पर चलते वक्त खाने पर तवज्जुह नहीं देते, मगर ऐसा करना सेहत के लिहाज से बहुत घातक है. कुछ लोग सुबह के खानपान का पूरा खयाल रखते हैं, मगर ज्यादातर लोग काम की जल्दबाजी में नाश्ता ही नहीं करते या दोचार कौर खा कर महज खानापूर्ति भर कर लेते हैं. इस मामले में हमारे पड़ोस की एक माताजी आदर्श कही जा सकती हैं. 90 साल उम्र में भी उन्हें सुबह उठने के बाद 8 बजे से पहले ही भरपूर नाश्ते की दरकार रहती है. वे अकेली रहती हैं, मगर अपने दम पर परांठे, सब्जी व चाय वगैरह बना कर रोजाना बाकायदा नाश्ता करती हैं. पूजापाठ जैसी चीजें नाश्ते के बाद ही उन की दिनचर्या में शामिल होती हैं.

खैर, इन माताजी जैसी पोजीशन सभी की नहीं होती. माताजी को कौन सा दफ्तर भागना होता है. उन्हें ठीकठाक सरकारी पेंशन मिलती है, जिस का वे दिनभर खापी कर सही इस्तेमाल करती हैं. सुबह का नाश्ता, लंच, शाम का चायनाश्ता और फिर डिनर तक उन का दैनिक कार्यक्रम चलता रहता है. शायद इसीलिए इस उम्र में भी वे खासी हट्टीकट्टी हैं.

बहरहाल, बात सुबह के नाश्ते की अहमियत की थी, तो वाकई यह बेहद जरूरी होता है. ढंग से ब्रेकफास्ट यानी सुबह का नाश्ता न करने वाले जानेअनजाने में अपनी सेहत के साथ खिलवाड़ करते हैं. दरअसल, ब्रेकफास्ट किसी भी व्यक्ति को दिनभर फिट रहने में मदद करता है. ज्यादातर लोग रात को सोने से 2-3 घंटे पहले रात का खाना खाते हैं और फिर 6,7 या 8 घंटे की नींद लेते हैं. सुबह जागने के बाद नाश्ते की नौबत आतेआते 1-2 घंटे बीत जाते हैं. तब शरीर को एनर्जी की जरूरत होती है, जिस के लिए ठोस नाश्ता करना जरूरी होता है.

अगर सुबह का नाश्ता न किया जाए तो शरीर को दिन भर काम करने के लिए ऊर्जा नहीं मिल पाती. ऐसी हालत में शरीर रिजर्व एनर्जी से गुजारा करना शुरू कर देता है. ऐसी हालत में थकावट का एहसास होने लगता है. देर तक खाली पेट रहने से गैस बनने लगती है और हाजमा भी खराब हो जाता है.7 कई लोग ऐसे भी होते हैं, जो नाश्ता तो गोल कर जाते हैं यानी खाली चाय पी कर काम चला लेते हैं, पर दोपहर में लंच डट कर करते हैं. ऐसे लोग अकसर फैट की समस्या के शिकार हो जाते हैं. डाक्टरों का कहना है कि दिन भर की कुल कैलोरी का तिहाई भाग सुबह के नाश्ते में मिलना चाहिए. अगर दिन भर में करीब 2000 कैलोरी की शरीर को जरूरत है, तो करीब 700 कैलोरी ब्रेकफास्ट से मिलनी चाहिए. इसीलिए रोजाना पौष्टिक तत्त्वों से भरपूर ताजा नाश्ता सुबहसुबह जरूरी होता है, ताकि दिनभर काम करने की कूवत बनी रहे.

संतुलित ब्रेकफास्ट इनसान को पूरे दिन हर वक्त चुस्तदुरुस्त रखता है. ब्रेकफास्ट की आदत दिल के मरीजों, शुगर के मरीजों और ब्लडप्रेशर के मरीजों के लिए भी कारगर साबित होती है. बच्चों, बूढ़ों और जवानों यानी सभी के लिए ब्रेकफास्ट जरूरी होता है. अकसर स्कूल की बस छूट जाने के चक्कर में बच्चे ढंग से नाश्ता नहीं करते, पर ऐसा बहुत नुकसानदायक साबित होता है. दिन भर ऐसे बच्चे थकान के शिकार रहते हैं, वे अपनी पढ़ाई पर भी पूरा ध्यान नहीं लगा पाते. टीचरों को भी उन से शिकायत रहती है. यही हाल बगैर नाश्ता किए आफिस जाने वालों का भी होता है. वे पूरे मनोयोग से अपना काम नहीं कर पाते हैं और अकसर सीटों पर ऊंघते रहते हैं. ऐसे कर्मचारियों को जबतब बौस की फटकार सुननी पड़ती है.

कई कर्मठ नस्ल के बुजुर्ग भी जल्दी नाश्ता न करना अपनी शान समझते हैं. वे कहते हैं कि उन्होंने असली देशी घी खाया है और उन की बूढ़ी हड्डियों में बहुत दम है. ऐसी डायलागबाजी कर के वे सही तरीके से नाश्ता नहीं करते. मगर ऐसे जिद्दी किस्म के बुजुर्ग भी धीरेधीरे खाट पकड़ लेते हैं और घर वालों को परेशान करते हैं. मगर मुद्दे की बात यही है कि सुबह का नाश्ता यानी ब्रेकफास्ट दिन भर का सब से अहम खाना या खुराक है. रात भर के लंबे फास्ट यानी व्रत को ब्रेक करने यानी तोड़ने के लिए बने ब्रेकफास्ट की अहमियत समझना सभी के लिए बहुत जरूरी है.

ब्रेकफास्ट में क्या खाएं

ब्रेकफास्ट कब करें और उस में क्याक्या चीजें शामिल करें, यह बात काफी अहम है. जहां तक कब की बात है तो सुबह उठने के 2 घंटे के अंदर ब्रेकफास्ट कर लेना चाहिए. मोटे तौर पर अगर सुबह उठने का टाइम 6 बजे है, तो 8 बजे तक ब्रेकफास्ट निबट जाना चाहिए. ब्रेकफास्ट में ऐसी चीजें शामिल करनी चाहिए, जिन में कैल्शियम, आयरन, प्रोटीन, फाइबर और विटामिन वगैरह भरपूर मात्रा में हो. घीतेल, चीनी और मक्खन से भरपूर चीजें सुबह के नाश्ते के लिए मुनासिब नहीं होतीं. लंच या डिनर में भी तलीभुनी या मसालेदार चीजें ज्यादा लेना सही नहीं रहता. इन से सेहत संबंधी तमाम दिक्कतें पैदा हो जाती हैं.

सुबह के नाश्ते में कार्बोहाइड्रेट, प्रोटीन व फैट सही मात्रा में शामिल होने चाहिए. ताजे फलों का जूस, नारियल पानी, अंकुरित अनाज, कार्नफ्लैक्स और दलिया जैसी चीजें ब्रेकफास्ट के लिहाज से अच्छी होती हैं. अगर परांठे खाने का मन हो, तो आलू के परांठों के बजाय कम?घी वाले मेथी के परांठे खाएं. दूध, पनीर, अंडा व ताजे फल भी सुबह के नाश्ते के लिहाज से अच्छे होते?हैं. सिर्फ चायटोस्ट जैसा नाश्ता पर्याप्त नहीं कहा जा सकता. कुछ लोग काफी के साथ थोड़े से बिस्कुट खा कर नाश्ते की खानापूरी कर लेते हैं, पर यह ठीक नहीं है.

अगर ब्रेडमक्खन खाने की इच्छा हो, तो आटे वाले ब्रेड के साथ घर का बना सफेद मक्खन इस्तेमाल करें. मीठा खाने का मन हो तो रिफाइंड शुगर की बजाय गुड़ का इस्तेमाल करें. डोसा, पोहा, उपमा, सांबर, दाल, सोया, जई, ओट्स मील, लो फैट दूध, लो फैट दही, लस्सी और फलों को सुबह के नाश्ते में शमिल किया जा सकता है. चिकनाईयुक्त मीट, आमलेट, फ्रेंच टोस्ट, फ्राइड चावल, मलाई, पेस्ट्री व डब्बाबंद फलों को ब्रेकफास्ट में खाना मुनासिब नहीं रहता है.

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अजय कई सालों से सोच रहे थे कि अपने ड्राइंगरूम के सोफे और परदे बदलवा लें. आखिर 16 साल हो गए उन की शादी को. उन की पत्नी ऋचा के सामान के साथ सोफे और सैंट्रल टेबल उस के मायके से आए थे. ऋचा हरगिज तैयार नहीं थी कि इन सोफों को कबाड़ी को बेच कर नए सोफे लाए जाएं. उस के पिता ने कितने जतन से बढि़या लकड़ी मंगवा कर घर में ही बढ़ई बिठा कर अपने सामने ये 3 सोफे, टेबल, बैड, अलमारी वगैरह अपनी प्यारी बेटी की शादी में देने के लिए बनवाए थे, वह कैसे इन्हें कबाड़ी वाले को देने देती. सोफे की सिर्फ गद्दियां ही तो खराब हुई थीं, ढांचा तो बिलकुल दुरुस्त था. हर साल दीवाली पर अजय नए सोफे की बात करते और ऋचा मुंह फुला कर बैठ जाती.

आखिरकार इस बार अजय ने सोचा कि सोफे की गद्दियां और कपड़ा ही बदलवा दें तो ये फिर से नए जैसे हो जाएंगे. इस के लिए ऋचा तैयार हो गई. सहमति बन गई तो दोनों बाजार में सोफे का कपड़ा ढूंढ़ने निकले. पहले से कोई आइडिया नहीं था कि कितने का मिलेगा, कौन सा अच्छा होगा, मगर 6-7 दुकानें घूमने के बाद काफीकुछ सम?ा में आ गया. कपड़ों की इतनी वैराइटियां, इतने कलर देख कर दोनों भौचक्के रह गए. कुछ कपड़े तो रैक्सीन का सा आभास करा रहे थे. इन को साफ करना भी आसान था.

एक दुकानदार ने अजय से कहा कि बहुत रंगबिरंगे, मोटे और भारी कपड़े का चलन अब नहीं है. आजकल तो सैल्फ डिजाइन के रैक्सीन लुक वाले हलके कपड़े लोग सोफे के लिए पसंद करते हैं. गद्दियां अलग से बनीबनाई मिलती हैं. बढ़ई हमारा होगा जो एक से डेढ़ दिन में सोफे बना देगा. बात तय हो गई. ड्राइंगरूम की दीवारों से मैच करता सोफे का कपड़ा ऋचा ने सलैक्ट किया. अगले इतवार बढ़ई भेजने की बात कह कर अजय ने कुछ पैसा एडवांस दे दिया. दोनों खुश थे. नए सोफे के दाम से बहुत कम दाम में उन का काम हो रहा था.

अगले इतवार बढ़ई ने आ कर उन के सोफे की गद्दियां और कपड़ा बदल कर बिलकुल नया लुक दे दिया. लकड़ी भी पौलिश कर चमका दी. अजय बहुत खुश थे क्योंकि नया सोफा खरीदने के लिए जब वे इंटरनैट सर्च करते थे तो उन की रेंज 35 हजार से शुरू हो कर 80 हजार रुपए तक थी. मगर यहां तो उन का काम मात्र 17 हजार रुपए में ही हो गया. ऋचा की भावनाएं भी आहत नहीं हुईं, सोफा सैट भी नया हो गया और रंग भी दीवारों से मैच करता मिल गया.

हालांकि इस खोज के दौरान अजय और ऋचा ने फर्नीचर मार्केट में अनेकानेक प्रकार के कलात्मक सोफे, कुरसियां, टेबल्स आदि देखे जो उन्होंने पहले कभी नहीं देखे थे. वे हैरान थे कि आज इतनी वैराइटियां, इतनी शानोशौकत दर्शाने वाला फर्नीचर मार्केट में है कि हर पीस को देख कर मुंह से ‘वाह’ निकल जाता है.

2 साल पहले राहुल का ट्रांसफर दिल्ली से बेंगलुरु हो गया. वह एक अच्छी कंपनी में कार्यरत है, नौकरी खोना नहीं चाहता था, इसलिए ट्रांसफर से इनकार नहीं कर पाया. दिल्ली में उस के पिता ओमप्रकाश और छोटी बहन प्रिया रह गए. राहुल की मां का 5 साल पहले देहांत हो चुका है. उस के पिता ओमप्रकाश एक पैर से अपाहिज हैं. पत्नी की मौत के बाद उन्होंने नौकरी से जल्दी सेवानिवृत्ति ले ली ताकि बेटी अकेली न पड़ जाए.

पेंट की जगह वालपेपर दे शानदार लुक

राहुल के बेंगलुरु जाने के बाद घर के बहुत सारे काम रुके हुए थे. उन में सब से बड़ा काम था घर की पुताई करवाने का, जो पिछले 10 वर्षों से नहीं हुआ था. दीवाली आने से पहले अधिकांश घरों में पुताई होती है. इस से बारिश की सीलन भी खत्म हो जाती है और दीवाली की साफसफाई भी हो जाती है. लेकिन ओमप्रकशजी जानते थे कि इस के लिए कम से कम 4 मजदूर हफ्तेभर लगाने पड़ेंगे. कलर, ब्रश, चूनापुट्टी और न जाने क्याक्या खरीदना पड़ेगा. हफ्तेभर मजदूरों की निगरानी भी करनी पड़ेगी. कोई सामान कम पड़ जाए तो लेने के लिए बाजार भी भागना पड़ेगा और पूरा घर पेंट होने के बाद जमीन और सामान पर जमा रंग, चूना और गंदगी साफ करने में भी कई दिन लग जाएंगे.

ओमप्रकाशजी ने सारी चिंता फोन पर राहुल से जाहिर की तो वह बोला, ‘पापा, आप चिंता मत करो. मु?ो दशहरा की 4 दिनों की छुट्टी मिलेगी, मैं आ कर सब करवा दूंगा.’

‘पर बेटा, 4 दिनों में पुताई कैसे हो पाएगी?’ ओमप्रकाशजी बोले.

‘आप चिंता न करें, सब हो जाएगा,’ राहुल ने उन को भरोसा दिलाया.

वालपेपर

राहुल छुट्टियों में घर आया तो पापा को ले कर वालपेपर वाले की दुकान पर गया. वहां कई प्रकार के वालपेपर उन्होंने देखे. बेहद सुंदर डिजाइन के, कुछ सैल्फ डिजाइन के, लाइट कलर, डार्क कलर जैसा भी पसंद आए, दुकानदार ने अनेक फोल्डर उन के सामने खोल कर रख दिए. ड्राइंगरूम और डाइनिंग रूम के लिए एक तरह के और बाकी कमरों के लिए थोड़ा डिफरैंट कलर का वालपेपर ओमप्रकाशजी ने पसंद किया. राहुल को भी सलैक्ट किए गए वालपेपर अच्छे लगे.

दुकानदार ने उन्हें बताया कि अच्छी क्वालिटी के वालपेपर की उम्र भी 8 से 10 साल होती है और पुताई भी इतने ही समय तक चलती है. दोनों के खर्च में भी ज्यादा फर्क नहीं है. अब तो ज्यादातर औफिस, बड़ीबड़ी दुकानों, होटलों, मल्टीनैशनल कंपनियों और घरों में वालपेपर ही लगाए जा रहे हैं. लाइट कलर के प्लेन या मैट फिनिश वाले वालपेपर लगाने पर तो फर्क भी नहीं कर सकते कि वालपेपर लगा है या पेंट हुआ है.

वालपेपर की कीमत के साथ उस की लगवाई जुड़ी हुई थी. लगाने वाला कारीगर दुकानदार की तरफ से आया और उस ने 2 दिनों के अंदर ओमप्रकशजी के पूरे घर में वालपेपर लगा दिया. न ज्यादा गंदगी हुई और न बहुत समय लगा. सीलिंग पर पेंट का एक कोट उस ने खुद कर दिया और सभी दीवारें वालपेपर से सजा दीं. ओमप्रकाशजी के घर का तो लुक ही बदल गया. अगले दिन राहुल और प्रिया हर कमरे की वाल से मैच करते परदे भी खरीद लाए. बस, फिर क्या, पूरा घर नया हो गया. जो काम हफ्तों में होना था वह 3 दिनों में ही निबट गया.

घर जगमगाए हैंगिंग लाइट्स से

मालती इस दीवाली अपने ड्राइंगरूम में दोतीन हैंगिंग लाइट्स लगवाना चाहती थी. वह बाजार गई तो हैंगिंग लाइट्स की वैराइटियां देख कर दंग रह गई. हर पीस इतना खूबसूरत और डैलिकेट कि 3 की जगह वह 7 लाइट्स खरीद लाई और ड्राइंगरूम के साथ दोनों बालकनी में भी उस ने दोदो हैंगिंग लाइट्स लगवा लीं. बाजार में जगमग करती क्लिप-औन स्ंिट्रग लाइट्स, कौपर लाइट्स, मोजैक स्टाइल गुंबद के आकार का टेबल लैंप, नया फैमिली फोटो फ्रेम जैसी अनेक चीजें मालती ने देखीं जो वह अपने घर को सजाने में इस्तेमाल कर सकती है. दिल्ली हाट और गुरुग्राम के बंजारा मार्केट में बड़े कलात्मक मिरर उस ने देखे. जो ज्यादा महंगे नहीं थे. वह 2 मिरर भी खरीद लाई. एक बैडरूम के लिए और एक लिविंग एरिया में लगाने के लिए.

आजकल होम डैकोरेशन के लिए इतनी खूबसूरत चीजें मार्केट में हैं कि देखते ही मन ललचा उठता है. कांच और धातु के ऐसेऐसे शोपीस जो आप के ड्राइंगरूम की शोभा में चारचांद लगा दें. पैचवर्क के, कशीदाकारी वाले, गोटे और मोतियों से सजे कुशन कवर और टेबल क्लौथ तो आप के ड्राइंगरूम का लुक ही चेंज कर दें. छोटेछोटे सुंदर बीन बैग्स से ले कर कलात्मक सोफा सैट तक और कार्पेट से ले कर परदे तक हर चीज आप के बजट के अनुरूप मिल सकती है.

होम डैकोरेशन एक कला है. इस के लिए सब से पहले हमें अपना बजट तय करना चाहिए और फिर उन मार्केट्स के कई चक्कर लगा लेने चाहिए जहां होम डैकोर मिलता है. दिल्ली और गुरुग्राम में होम डैकोर का अच्छा और सस्ता सामान बहुत आसानी से मिल जाता है. लेकिन इस के लिए आप को कई बार मार्केट जाना पड़ सकता है. इस से वैराइटियों के बारे में और सही कीमत पता चल जाती है.

लोकल बाजारों में बहुतकुछ

अगर आप दिल्ली में रहते हैं तो घर की सजावट का सामान सदर बाजार (चांदनी चौक के पास), दिल्ली हाट (आईएनए मार्केट), कीर्ति नगर फर्नीचर मार्केट, अमर कालोनी (लाजपत नगर), पंचकुइयां फर्नीचर मार्केट (गोल मार्केट के पास, कनाट प्लेस), मुनिरका फर्नीचर मार्केट, तिलक नगर मार्केट या राजौरी गार्डन से खरीद सकते हैं. यहां सामान की क्वालिटी भी अच्छी मिलती है और वैराइटियों व चीजों में नयापन दिखता है. गुरुग्राम में बंजारा मार्केट (सैक्टर 56, गुरुग्राम) और सिकंदरपुर फर्नीचर मार्केट (एमजी रोड, सैक्टर 24, गुरुग्राम) में बहुत अच्छा फर्नीचर एवं होम डैकोरेशन की चीजें मिल जाती हैं.

अगर आप को इस बार त्योहारों में अपने घर का लुक बदलना है तो तय करिए कि आप क्याक्या नई चीजें लाना चाहते हैं. कुछ आइडिया हम आप को दे सकते हैं. मान लीजिए, आप अपने हौल में लगी पुरानी वालक्लौक देखदेख कर ऊब गए हैं तो इस बार उसे चेंज कर दीजिए और ले आइए वालक्लौक कौम्बो. इस के अलावा कोने की किसी खुली अलमारी को आप खुशबूदार रंगीन कैंडल्स से सजा सकते हैं. मेहमान आएंगे तो उन्हें वही पुरानी सफेदपीली ट्रे में चायनाश्ता सर्व न कर के इस बार कुछ नया ट्राई करें. चायकौफी इस बार नए कैमल ट्रे और कोस्टर सैट के साथ हो.

इस त्योहार में घर का डोरमैट चेंज कर दें क्योंकि आगंतुक की पहली नजर तो डोरमैट पर ही पड़ती है. इसलिए घर के दरवाजे पर हमेशा सुंदर और कोमल डोरमैट बिछाएं. आप चाहें तो किसी अच्छी कंपनी के डोरमैट्स सैट ले लीजिए. इन्हें देखते ही मेहमानों को अंदाजा हो जाएगा कि आप ने घर पर वाकई में मेहनत की है.

डाइनिंग टेबल को दें रौयल लुक

ज्यादातर लोगों के घरों में डाइनिंग टेबल या साइड टेबल पर फालतू सामान भरा रहता है. उन्हें लगता है कि टेबल का इस्तेमाल सिर्फ सामान रखने के लिए होता है, जबकि यह गलत है. अगर जगह की कमी है तो बात अलग है लेकिन डाइनिंग टेबल हो या साइड टेबल, उन्हें सजाएं, न कि स्टोरबौक्स की तरह इस्तेमाल करें. इस के लिए टेबल पर सैंटेड कैंडल्स या कोई सुंदर शो पीस रखें.

कलरफुल कुशन्स आप के सोफे और बोरिंग से बोरिंग बैडशीट का मिजाज बदल देते हैं. घर की दीवारों को यादों से कौन नहीं संजोना चाहता. पहले लोग दीवार पर फोटो फ्रेम टांगा करते थे, लेकिन अब क्लिप-औन स्ंिट्रग लाइट्स से अपनी यादों को जीते हैं. कमरों में कौपर लाइट लगवाने का ट्रैंड आजकल थोड़ा नया है.

पहले सिर्फ दीवाली या शादियों में लाइट्स लगाई जाती थीं लेकिन अब इन लाइट्स का इस्तेमाल घर को सजाने के लिए किया जाता है. इस तरह की लाइट्स को पिंजरे में लगा कर घर के एक कोने में टांग देने से घर का लुक बदल जाता है. लैंप की रौनक आज भी घर को जगमगा देती है तो इन्हें कभी अपने घर से जुदा मत कीजिए, बल्कि घर के एक कोने में इन्हें जगह जरूर दीजिए. ये घर को सचमुच कमाल का लुक देते हैं. पहले के वक्त में घरों में मिट्टी के तेल से जलने वाले लैंप हुआ करते थे, अब उन में डिजाइन्स आने लगी हैं. आप भी एक ऐसा ही लैंप अपनी बालकनी में टांग सकते हैं.

घर में प्लांट

घर में इंडोर प्लांट्स लगा कर भी घर को नया व सुंदर लुक दिया जा सकता है. आजकल इंडोर प्लांट्स लगाने के लिए विभिन्न रंगों और डिजाइनों के कलात्मक गमले मिलते हैं, जो ड्राइंगरूम, डाइनिंग रूम, बालकनी या सीढि़यों पर सजाए जा सकते हैं. इन में आप इंडोर प्लांट्स, जैसे ऐरीका पाम, पाइन प्लांट, एलोवेरा, स्पाइडर प्लांट, पोथोस, गरबेरा डेजी, बोस्टोन फर्न, मनी प्लांट, ड्रसिना पौधा, स्नेक प्लांट, पीस लिली, लेडी पाम, फिलौडेंड्रान पौधा, इंग्लिश आयवी, डम्ब केन या ग्रीन तुलसी का पौधा लगा सकते हैं.

इन पौधों को न तो तेज धूप चाहिए न ही बहुत पानी, मगर ये कमरे में लगें तो एक जीवंतता प्रदान करते हैं. यह बैस्ट और बजटफ्रैंडली औप्शन भी है. इंडोर प्लांट्स को गमले में लगाने के बजाय हैंगिंग पौट में भी लगाया जा सकता है. इस से तुरंत ही नया लुक मिलता है और यह बहुत सस्ता भी है. अपनी बालकनी को सीजनल फूलों से भी डैकोरेट कर सकते हैं. अगर आप को गार्डनिंग नहीं आती तो दिल्ली के सदर बाजार से नकली फूल ला कर सजाएं. बाजार में ऐसे फूल उपलब्ध हैं जो बिलकुल ओरिजिनल जैसे दिखते हैं. यह आइडिया भी बजटफ्रैंडली और खूबसूरत है. आप अपने घर के खुले हिस्से, छत के एक कोने को या अपनी बालकनी को आर्टिफिशियल घास से भी सजा सकते हैं. यह प्रकृति के करीब होने का भी एहसास कराएगा.

निर्णय : भाग 3

सरिता का ससुराल स्टेशन के पास ही रमेश नगर में  है. कुल आधे घंटे का रास्ता है यहां से. पर पता नहीं  क्यों वह कल बूआ के घर भी नहीं आई थी. आज आई है जब समय ही नहीं बचा है बैठ कर दो बातें करने का. सरिता आई तो जैसे उस की रुकी हुई सांसें भी चलने लगी थीं. बचपन में उस का मायका तथा ससुराल दोनों परिवार एक ही महल्ले में रहते थे. दोनों साथसाथ पढ़ती थीं एक ही कक्षा में. पक्की सहेलियां थीं दोनों. सूखे कुएं के पीछे, बुढि़या के घर से अमरूद तोड़ कर चुराने हों या पेटदर्द का बहाना कर स्कूल से छुट्टी मारनी हो, दोनों हमेशा साथ होती थीं. 7वीं-8वीं तक आतेआते तो इन दोनों की कारगुजारियां जासूसी एवं रूमानी उपन्यास पढ़ने तथा कभीकभार मौका पाते ही सपना टाकिज में छिप कर पिक्चर देख आने तक बढ़ गई थीं. क्या मजाल कि दोनों के बीच की बात की तीसरे को भनक तक लग जाए. उस के बाद साथ छूट गया था. सरिता के पिता का तबादला हो गया था. बाद में जब किसी बिचौलिए की सहायता से सरिता का रिश्ता नीलाभ के लिए आया तो सब ने स्वीकृति की मुहर इसीलिए लगाई थी कि कभी दोनों परिवार एकदूसरे के साथ, एक ही महल्ले में रहते थे. जानते हैं एकदूसरे को.

दूसरी ओर वह थी कि डाक्टर पति पाने से भी अधिक प्रसन्नता उसे सरिता को ननद के रूप में पाने की हुई थी. आज तक बदला नहीं है वह रिश्ता. यह बात छिपी तो नहीं किसी से फिर भी जिज्जी ने उस पर दबाव बढ़ाने के लिए सरिता को बुला भेजा था. उन्हें शायद लगा था कि इस विषय में सरिता अपनी सखी का नहीं बल्कि मां तथा जिज्जी का ही साथ देगी. आखिर उसे भी तो कुछ नहीं बताया गया था. वह धोखे में ही थी. आते ही सरिता उस के गले लग गई थी. 3 दिनों में पहली बार आंखें छलक आई थीं उस की. आंसू भी शायद तभी बहते हैं जब कोई पोंछने वाला हो सामने. उस ने इतना बड़ा सच छिपाया था सरिता से भी. पर उसे जरा भी बुरा नहीं लगा था. उस ने तो अहमियत ही न दी थी इस बात को. जिस बात को जानने का कोई कारण ही न हो, उसे न भी बताया जाए तो क्या हर्ज है. सब को सुना कर कहा था सरिता ने, ‘वे सब बड़े  हैं तो क्या दूसरों को सिर झुका कर उन की हर जायजनाजायज बात माननी पड़ेगी?’

जिज्जी ने चिढ़ कर दोनों को एक ही थैली के चट्टेबट्टे तक कह दिया था. बचपन की दबंगई गई कहां है सरिता की. बड़ी ही दुखती रग पर हाथ धर दिया था उस ने. सीधे कह दिया, ‘अपना दुख बिसरा चुकी हो जिज्जी?’ जिज्जी सन्न रह गई थीं. रोतीबिसूरती पैर पटकती जा बैठी थीं अपने कमरे में. उस की आंख के आगे अंधेरा छाने लगा था. देखा जाए तो जिज्जी के दुख की विशालता का कहां ओरछोर है. असमय ही पति की मृत्यु के बाद बेटे को अपने पास रख 6 महीने की बेटी सहित जिज्जी को नंगे पांव घर से बाहर कर दिया था उन के ससुराल वालों ने. वह समझती है जिज्जी की मनोदशा. तब की उपजी कड़वाहट ने उन का जीवन ही नहीं, दिलदिमाग तथा जबान तक को जहरीला कर दिया है. कहीं न कहीं यह बात भी थी कि मायके में अपने पांव जमाए रखने के लिए वे पूरे घर की नकेल को कस कर थामे रखना चाहती थीं. जबकि वह है कि फिसलती ही जा रही है उन के हाथों से. उस पर सरिता ने आ कर और गुड़गोबर कर दिया था. दृढ़ प्राचीर की भांति खड़ी हो गई थी सरिता उस के और मां व जिज्जी के बीच. निश्चय तो पहले से ही पक्का था, जब सरिता की बातों ने उस का हौसला और बढ़ा दिया था. दृढ़ता की अनगिनत परतें और चढ़ गई थीं उस के निश्चय पर. नीलाभ डाक्टर है. सोनू की बीमारी उन्होंने पहले भांप ली थी. उस से उखड़ेउखड़े और कटेकटे रहने लगे थे सोनू के लक्षण दूसरे साल ही प्रकट होने लगे थे. बोलता भी था दांत भी निकाल लिए थे. कूल्हों के बल घिसटता था. सहारा दे कर खड़ा करने पर भी पैर नीचे नहीं रखता था.

नीलाभ चपरासी को भेज कर अकसर सोनू को नर्सिंग होम बुलवा लेते थे. उसे पता ही न चलने दिया. पता नहीं कौनकौन से टैस्ट करवाए. दवाएं दी जाने लगीं. विटामिन एवं एनर्जी बूस्टर के नाम पर वह स्वयं न जाने कौनकौन सी दवाएं खुद अपने हाथों से देते रहे थे सोनू को. एक बार तो दिल्ली भी हो आए थे. घूमने के नाम पर. बहाने से नीलाभ सोनू को एम्स ले गए थे. गेस्ट हाउस लौटे तो चेहरा उतरा हुआ था. रोज बच्चों के साथ उसे पर्यटन विभाग की बस में बिठा देते दिल्ली दर्शन के लिए, स्वयं काम का बहाना कर फाइलें ले कर अलगअलग अस्पतालों के चक्कर काटते. शक तो उसे भी था. 3 साल का बच्चा स्वस्थ और सुंदर पर टांगें जैसे सूखी हड्डी मात्र. जान ही नहीं थी टांगों में. इस विषय में नीलाभ से बात करती तो वे खीज जाते या रूखा सा जवाब देते, ‘कुछ नहीं, सब ठीक है, कमजोरी है, ठीक हो जाएगी.’ पता नहीं ऐसा कह कर वे खुद को तसल्ली देते थे या उसे. उस ने चुपचाप कई प्रकार के आयुर्वेदिक तथा प्राकृतिक तेल व लेप मलने शुरू कर दिए थे सोनू की टांगों पर. दोनों एकदूसरे से नजरें चुराते, इस विषय में चिंतित तथा किसी अनहोनी की आशंका में घुलते रहते.

‘‘मैडम, रामबाग आ गया. अब किधर लूं?’’ टैक्सी वाले ने टोका तो सचेत हो कर उस ने इधरउधर देखा. टैक्सी वाला सोच रहा था कि सफर की थकी  सवारी शायद सो गई है. वह फिर से बोला, ‘‘उठो जी मैडमजी, बताओ कौन सी गली में लूं?’’

‘‘नीलाभ नर्सिंगहोम.’’

‘‘अच्छा जी,’’ कह कर उस ने निर्दिष्ट दिशा की ओर गाड़ी मोड़ दी. घर पहुंच कर उस की इच्छा ही नहीं हुई कि नीलाभ से कुछ पूछे या सवालजवाब करे. जो छिपी बात बाहर निकल ही गई हो उसे पुन: तो नहीं छिपाया जा  सकता. और कुछ हो न हो, पतिपत्नी के मध्य रिश्ता अवश्य ही अनाथ हो गया था. दोनों के बीच का गहन अबोला पूरे घर में सांयसांय करता डोलने लगा था. 2 छोटी बेटियां तो अबोध थीं अभी पर किशोरावस्था की ओर पग बढ़ाती बड़ी बेटी शिप्रा कुछ समझ रही थी, कुछ समझने का प्रयास कर रही थी. सोनू पता नहीं किस अज्ञात प्रेरणावश हर समय उसी के साथ चिपका रहता. अपनी सारी संचित शक्ति से वह अपने दृढ़ निश्चय, साहस तथा ममता को जागृत रखती कि कहीं किसी कमजोर पल में निष्ठुर पौरुष उसे अपने सामने घुटने टेकने को विवश न कर दे. 3 दिन का छूटा घर समेटने लगी तो उस ने नीलाभ की टेबल पर मैडिकल पत्रिका का एक अंक पड़ा देखा था. जन्मजात एवं वंशानुगत शारीरिक विसंगतियों का विशेषांक.

रात करीब 3 बजे उस की नींद खुली तो देखा नीलाभ लैपटौप पर दत्तचित्त हो कर पता नहीं क्या काम कर रहे थे. सांस रोक कर वह चुपचाप देखती रही थी. थोड़ी देर बाद लैपटौप बंद कर नीलाभ कोहनियों को मेज पर टिकाए दोनों हथेलियों में अपना झुका हुआ सिर थाम देर तक बैठे रहे थे. सुबह नर्सिंग होम नहीं गए वे. पता नहीं किस उधेड़बुन में लगे थे. कभी किसी को फोन करते, कभी कागजपत्तर फैला कर बैठ जाते. अचानक उठे और अटैची निकाल कर सोनू का सामान उस में भरने लगे. उसे लगा वह गश खा कर गिर पड़े. अपना सारा अहं, सारा मानअभिमान भूल कर वह नीलाभ के पैरों पर लोट गई.

‘‘बस करो, और मुश्किलें न बढ़ाओ ये सब कर के मेरे लिए.’’ नीलाभ तड़प कर बोले, ‘‘पत्थर नहीं हूं मैं. कोई इलाज नहीं है इस का यहां. और विदेश में इतना महंगा है कि मैं अपना सबकुछ बेच दूं तो भी पूरा न पड़ेगा, समझीं तुम. उस पर भी गारंटी कुछ नहीं.’’ पता नहीं नीलाभ की खीज, क्रोध और चिल्लाहट का मूल कारण क्या था. एक असहाय, अपाहिज बेटे के प्रति पिता का फर्ज निभा पाने की अक्षमता या एक कमजोर क्षण में एक निराश्रित को अपना मान लेने का निर्णय. शिप्रा आंसुओं में भीगी डरीसहमी दरवाजे के पीछे खड़ी सब देखसुन रही थी. दोनों छोटी बच्चियां भी डर के मारे अपने कमरे में दुबकी थीं. इस से पहले उन्होंने कभी पिता को इतने क्रोध में नहीं देखा था.

तभी डोरबैल बजी. सन्नाटा पसर गया कमरे में. क्षणभर को सब ठिठक गए. वह खुद को संभालती उठी और दरवाजा खोला. प्रजापतिजी थे. नीलाभ के मित्र एवं शिप्रा के लौंग जंप खेल के कोच. घर के असहज वातावरण को भांप कर कुछ अचकचा से गए थे. वह समझ गई थी उन के आने का कारण. अंतर विद्यालय प्रतियोगिता को कुछ ही दिन रह गए हैं पर शिप्रा का ध्यान ही नहीं है आजकल किसी चीज में. ‘‘प्रैक्टिस पर क्यों नहीं आती आजकल बेटा?’’ सीधे शिप्रा से ही पूछ लिया था प्रजापतिजी ने. शिप्रा अपने स्कूल का प्रतिनिधित्व करती है इस खेल में.

‘‘मुझे नहीं खेलना,’’ उस ने नजरें चुराते हुए कहा.

‘‘क्यों? क्या मुसीबत आन पड़ी है, पता तो चले? गोल्ड जीत सकती हो. स्टेट लेवल पर जाओगी. दिमाग में भूसा भरा है क्या? चांस रोजरोज नहीं मिलते.’’ नीलाभ ने शिप्रा के ‘सर’ के बैठे होने का भी लिहाज न किया और अपने भीतर दबा कहीं का आक्रोश कहीं निकाला. ‘‘रेखा के पांव की हड्डी टूट गई है जंप लगाते हुए,’’ शिप्रा डर कर बोली.

‘‘तो…?’’ हैरानी से प्रजापतिजी बोले. उन की बात बीच में ही काट कर नीलाभ बिफर पड़े, ‘‘चोट उसे लगी है. तुम्हारी तो सलामत हैं न दोनों टांगें. चोट के डर से क्या घर पर बैठ जाओगी?’’ शिप्रा आंसू रोकने का भरसक प्रयास कर रही थी. आंखें जैसे जल रही थीं उस की. मुंह तमतमा गया था. उस की दृष्टि सोनू के पैरों पर जमी थी. ‘‘लग सकती है मुझे भी. कहीं मेरे पैर भी…तो आप मुझे भी सोनू की तरह…’’ रुलाई में शब्द गड्डमड्ड हो गए थे. पुत्री के टूटेफूटे अस्फुट शब्द और अधूरे वाक्यों ने अपनी पूरी बात संप्रेषित कर दी थी. नीलाभ के पैरों के नीचे की धरती घूम सी गई. आंखों के आगे अंधेरा छा गया. बेदम हो कर वे पास पड़ी कुरसी पर ढेर हो गए.

मंजिल तक : भाग 3

‘‘तुम ने मेरा इस्तेमाल किया मगर मैं उतना नासम?ा नहीं जितना तुम मु?ो सम?ाती थीं. मैं ने वहां बैठ कर तुम्हारी सारी करतूतों की एक फाइल बनवा ली जिस का हर सफा तुम्हारी बेईमानियों की कहानी सुना रहा है.’’ ‘‘तो तुम क्या सुनना चाहते हो, हां, मैं उड़ना चाहती थी. कुछ बड़ा करना चाहती थी. मु?ो वहां की जिंदगी पसंद नहीं थी. मैं जिंदगी में एक ऐसा मुकाम हासिल करना चाहती थी जिस की मिडिल क्लास की लड़कियां सिर्फ कल्पना ही कर सकती हैं. मेरे सपने बड़े थे, बहुत बड़े. मगर अब मैं क्या करूं, तुम मानोगे नहीं, मगर यह भी सच है कि मैं ने तुम से प्यार किया है. यहां रह कर भी मैं ने किसी और का तसव्वुर तक नहीं किया. तुम चाहो तो मु?ो एक मौका दे सकते हो. मैं तुम से वादा करती हूं.’

’ ‘‘मु?ो तुम्हारे वादों में कोई दिलचस्पी नहीं है. दिलचस्पी है तो तुम्हारी दौलत में जिसे कमाने में मेरी जमीन के टुकड़े का इस्तेमाल हुआ है. वह जमीन जिसे मैं अपनी जान से भी ज्यादा चाहता था. तुम्हारी दौलत में मेरी भाभी की आस्था छिपी है, विश्वास के वे तार छिपे हैं जिन्हें तुम ने तारतार कर दिए हैं.’’ ‘‘तो?’’ सोनिया अविश्वास से देख रही थी. ‘‘मु?ो तुम से वह सबकुछ वापस चाहिए जो तुम ने मु?ा से छीना है, सूद समेत. जेल के अंदर चारदीवारों से टकराती तुम्हारी सिसकियां मु?ो तसल्ली देंगी कि मेरा सबकुछ धीरेधीरे वापस आ रहा है. तुम्हारी बरबादी मेरे सीने में जलती आग को ठंडा कर देगी.’’ ‘‘तुम ने अभी कहा कि तुम्हारी दिलचस्पी मेरी दौलत में है तो मेरी ये सारी दौलत तुम्हारी भी तो है, तुम यहीं रहो मेरे पास.’’ ‘‘तुम्हें सम?ादार कहूं या चालाक, सोनिया? जब फंसने लगी तो खुद को मेरे हवाले करने का फैसला ले लिया और वह भी दौलत के साथ.’’ ‘‘ऐसी बात नहीं है धर्मा,

मैं जानती हूं कि तुम्हारी मंजिल भी अमेरिका ही है. मैं तुम्हें दूर नहीं करना चाहती थी, बस, सही मौके की तलाश में थी. मेरी दौलत में से एकचौथाई हिस्सा मैं तुम्हारे नाम…’’ ‘‘कम है,’’ धर्मा ने सोनिया की बात बीच में काटते हुए कहा. ‘‘तो फिर?’’ सोनिया ने धर्मा को घूरते हुए कहा. ‘‘पूरी दौलत. मु?ो तुम्हारी सारी दौलत चाहिए.’’ ‘‘क्या?’’ सोनिया को एक तीव्र ?ाटका लगा और उस ने कुरसी को कस कर पकड़ लिया, ‘‘तुम खुद पागल हो गए या मु?ो पागल सम?ाते हो,’’ सोनिया की आंखें गुस्से से लाल हो रही थीं. ‘‘न तो मैं पागल हूं, न शायद तुम, यह तो कीमत है तुम्हें जेल से बचाने की. एक बार अगर जेल की हवा खा ली तो कभी अमेरिका का तसव्वुर भी तुम्हारे दिमाग में नहीं आएगा और जिंदगीभर किसी को हलका सम?ाने की भारी गलती नहीं करोगी.’’ ‘‘नामुमकिन,’’ सोनिया गुस्से में दांत भींचती हुई बोली. ‘‘तुम्हारे पास और कोई उपाय भी नहीं है, सोनिया. जेल कितने समय के लिए होगी, मैं नहीं जानता लेकिन सोचो कि आजीवन भी हो जाए तो खुद को मत कोसना. तुम चालाक हो, स्मार्ट हो. दौलत फिर से कमा सकती हो मगर जेल की दीवारों से बाहर लाख सिर पटक कर भी नहीं आ सकतीं.’’ सोनिया को काटो तो खून नहीं, ‘‘तुम मु?ो ब्लैकमेल कर रहे हो. मु?ो डरा कर मेरी मेहनत की कमाई को मु?ा से छीनने का काम कर रहे हो. तुम्हें इस की बड़ी कीमत अदा करनी पड़ सकती है, धर्मा.’’

‘‘मेहनत नहीं, बेईमानी की काली कमाई कहो सोनिया, मु?ो अफसोस है कि तुम्हारी इस काली कमाई में कहीं न कहीं मै भी हिस्सेदार हूं, तुम्हें इस मुकाम तक लाने में मेरा भी हाथ है. मैं तो अपना मेहताना मांग रहा हूं, सोनिया.’’ ‘‘मु?ो सोचने के लिए थोडा वक्त चाहिए, धर्मा. हम अगले वीकैंड में दोबारा मिल कर इस बात को सही अंजाम तक ले जाने की कोशिश करेंगे.’’ ‘‘जल्दी करना सोनिया, मेरे पास वक्त ज्यादा नहीं है. तुम तो जानती हो कि अमेरिका का वीजा मु?ो बहुत थोड़े समय के लिए मिला है. मैं यह काम अपने वकीलों पर नहीं छोड़ना चाहता.’’ सोनिया ने अपने वकील को दफ्तर में बुलाया और धर्मा के बारे में सबकुछ बताया. ‘‘आप धर्मा के पासपोर्ट का विवरण हमें दीजिए. हमारे लिए यह जानना बहुत जरूरी है कि वह अमेरिका में कब तक रह सकता है.’’ सोनिया ने अपनी पुरानी मेल खंगाली और धर्मा के पासपोर्ट की कौपी वकील को सौंप दी. वकील ने इधरउधर फोन किए.

1-2 जगह मेल लिखा और सोनिया से बोला, ‘‘धर्मा का वीजा इस महीने की 20 तारीख तक है. आप को किसी तरह से उसे 20 तारीख तक नहीं मिलना है. आगे फिर हम संभाल लेंगे.’’ ‘‘लेकिन इस बीच उस ने पुलिस को मेरे कामकाज के बारे में, मेरे बारे में बता दिया तो?’’ ‘‘आप को उसे रोकना होगा, किसी भी तरह से, किसी भी कीमत पर.’’ ‘‘धर्मा,’’ सोनिया की आवाज में थरथराहट थी, ‘‘मैं ने तुम्हारे बारे में, तुम्हारे प्रस्ताव के बारे में बहुत सोचा और इस निष्कर्ष पर पहुंची कि मैं अपनी सारी दौलत तुम्हारे नाम कर दूंगी, भाभी के नाम एक माफीनामा भी देने को तैयार हूं मैं. मगर…’’ ‘‘मगर क्या?’’ ‘‘अभी चल रही बीमारी कोरोना ने मु?ो भी आगोश में ले लिया है और मु?ो डाक्टर ने कम से कम 15 दिन अकेले में रहने को कहा है. उस के बाद टैस्ट होगा और अगर मैं यह जिंदगी और मौत की जंग जीत गई तो तुम से मिल कर सारे कागजात तुम्हारे हवाले कर दूंगी.’’ ‘‘लेकिन…’’ धर्मा कुछ कहना चाह रहा था. ‘‘मेरी बात मान लो, धर्मा.’’ ‘‘तुम्हारी बात तो माननी ही पड़ेगी सोनिया, तुम ने तो भाभी को भी फोन कर के अपनी बीमारी के बारे में बता दिया. एक बार फिर भाभी तुम्हारी बातों में आ गईं और मु?ो कसम दे दी.

तुम एक बार फिर जीतीं और मैं हारा, सोनिया.’’ सोनिया मन ही मन प्रसन्नता से सराबोर थी, ‘‘जीत तो हर हाल में तुम्हारी ही है धर्मा. मेरे हिस्से तो फिर से जद्दोजेहद आ गई लेकिन मैं हार मानने वालों में से नहीं हूं. मैं फिर से अपना नाम बनाऊंगी.’’ सोनिया और उस के वकील की नजर वीजा की उस तारीख पर थी जो उन्होंने उस के पासपोर्ट में देखी थी. उस तारीख के 2 दिनों बाद ही सोनिया ने धर्मा को अपने दफ्तर में बुलाया और कागजों का एक बंडल उसे पकड़ा दिया. धर्मा ने कागजों को उलटपलट कर देखा, ‘ये तो वही कागजात हैं जो तुम ने मु?ो दिए थे. इस पर तो तुम्हारे हस्ताक्षर नहीं हैं, सोनिया और बिना हस्ताक्षरों के सारे दस्तावेज रद्दी की टोकरी के लायक हैं.’’ धर्मा ने इधरउधर देखा और फिर मेज से कलम उठा कर सोनिया को पकड़ाते हुए कहा, ‘‘जब इतना कुछ किया है तो मेरे साइन भी तुम्हीं कर दो.’’ ‘‘धर्मा.’’ ‘‘क्यों मजाक कर रही हो सोनिया, क्या जेल भिजवाने का इरादा है?’’ ‘‘अगर तुम चाहते हो तो ऐसा ही सही,’ इलाके के पुलिस और इंटैलिजैंस वाले बड़ी ही मुस्तैदी से उन विदेशियों को पकड़ रहे हैं जो अपने वीजा की अवधि के बाद भी इस मुल्क में गैरकानूनी तरीके से रह रहे हैं.’’ ‘‘सोनिया, यह तुम क्या कह रही हो?’’ ‘‘धर्मा हैरानी से कभी सोनिया को तो कभी उस के वकील को देख रहा था,’’ ‘‘तुम्हें ऐसा नहीं करना चाहिए था, सोनिया. मैं ने तो यहां से भागने का प्लान भी बना लिया है.

एजेंट से बात तक भी हो गई कनाडा और दुबई होते हुए मुंबई जाने का प्लान.’’ ‘‘तुम ने बहुत बड़ी गलती की जो तुम यहां, इस देश में चले आए. उस से भी बड़ी गलती की कि मु?ा से संपर्क किया और सब से बड़ी गलती यह की कि मु?ो ब्लैकमेल करने की कोशिश की. अब तुम बड़े बेआबरू हो कर इस मुल्क से धक्के मार कर फेंक दिए जाओगे और वह भी जेल की अच्छीभली हवा खाने के बाद.’’ धर्मा वहीं कुरसी पर बैठ गया, ‘‘ठीक है सोनिया, अगर तुम यह चाहती हो तो ऐसा ही सही. मेरी जिंदगी तो वैसे भी बरबाद हो चुकी है, थोड़ी बरबादी और सही. बस, दुख इस बात का है कि मैं भाभी को क्या मुंह दिखाऊंगा. सोचा था कि तुम्हारा लिखा माफीनामा भाभी को दिखा दूंगा और इतने में ही उस बेचारी को तसल्ली हो जाएगी. लेकिन तुम इतनी शातिर निकलोगी, इस का मु?ो इल्म ही नहीं था.’’ धर्मा अपनी बात समाप्त करता तब तक पुलिस अंदर दाखिल हो चुकी थी. ‘‘आइए इंस्पैक्टर, ये रहे आप के मुजरिम. गिरफ्तार कर लीजिए. ये आप के मुल्क में गैरकानूनी तरीके से रह रहे हैं. इन को अरैस्ट कीजिए और फिर अपने कानून के मुताबिक डिपोर्ट कीजिए.’’ ‘‘यस मैडम, हम जानते हैं कि हमें क्या करना है. आप चल कर हमारी गाड़ी में बैठेंगी या मु?ो लेडी कौंस्टेबल को बुलाना पड़ेगा?’’ ‘‘यह क्या कह रहे हैं, इंस्पैक्टर साहब, आप होश में तो हैं?’’ ‘‘जी हां, मैं पूरी तरह से होश में हूं.’’ सोनिया ने स्वयं को संयत किया और क्रोध का कड़वा घूंट पी कर बोली, ‘‘आप तो हमारे ही मुल्क के लगते हैं, सर. मैं आप को अपनी भाषा में सम?ाती हूं. यह शख्स…’’ ‘‘इन्होंने आप के बारे में, आप के कामकाज के बारे में सबकुछ बता दिया है.

हम आप पर पहले से ही नजर रखे हुए थे. इन के द्वारा मिली जानकारी ने हमारे शक को पुख्ता कर दिया. आप पर ड्रग्स और नारकोटिक्स में संलिप्त होने के सारे सुबूत हैं और इस अपराध की इस मुल्क में कोई माफी नहीं है.’’ ‘‘आप सम?ा नहीं रहे हैं, सर. ये बिना वीजा के यहां…’’ ‘‘इन का वीजा हमारे पास है और इस स्पैशल वीजा को हम ने अलग से जारी किया है और जानबू?ा कर पासपोर्ट में इस की ऐंट्री नहीं की गई. हम जानते थे कि आप की नजर इन के यात्रा दस्तावेजों पर है, इसलिए गोपनीय तरीके से हम ने इन का साथ दिया.’’ सोनिया को काटो तो खून नहीं, स्तब्ध हो कर उस के होंठ फड़फड़ाए, ‘‘तुम ने मु?ो हरा दिया धर्मा लेकिन बदले में तुम्हें क्या मिला? तुम खाली हाथ आए थे और खाली हाथ ही जाओगे.’’ ‘‘नहीं सोनिया, मैं खाली हाथ जाने के लिए भारत से अमेरिका नहीं आया. मैं ने भाभी को वादा किया था कि मैं खाली हाथ नहीं लौटूंगा, पुलिस के आगे तुम्हारी एक नहीं चलनी और आज नहीं तो कल, तुम अपने जुर्म का इकरारनामा जरूर करोगी और जिसे मैं अपने साथ ले कर जाऊंगा. इस बीच अगर तुम्हारी गैरत ने जरा भी करवट बदली तो आखिरी पत्र पर भी साइन कर देना जो तुम्हारी ओर से भाभी के लिए क्षमायाचना है और जो तुम्हारे लिए एक निहायत ही मामूली पन्ना है मगर मेरे लिए यह लाखों डौलर से कम नहीं. तुम्हारा माफीनामा मेरी भाभी के लिए मेरी तरफ से अनमोल तोहफा होगा.’’ अगले ही दिन धर्मा के हाथों में एक फाइल थी जिस का पहला पृष्ठ ही सोनिया की तरफ से माफीनामा था, साथ ही कोने में लिखा था, ‘‘मैं ने अपने लिए कोई वकील मुकर्रर नहीं किया है क्योंकि मेरे अपराध की कोई माफी नहीं है.

मैं कोशिश करूंगी कि जेल की दहकती आंच में स्वयं को जला कर इतना निखार लूं कि तुम्हारे लायक बन सकूं, भाभी से आंख मिला सकूं. कोशिश करना कि मेरा इंतजार कर सको और न भी कर सको तो कोई बात नहीं. मेरा तुम पर कोई अधिकार नहीं. बस, इतनी सी गुजारिश है कि मेरे इस पत्र के हर शब्द को मेरा बुना हुआ कोई जाल न सम?ाना, इस पर यकीन करना, इस की सचाई पर संदेह मत करना.’’ धर्मा ने अनमना हो कर फाइल को अपनी ब्रीफकेस में डाला और टैक्सी को इशारा किया और हवाई अड्डे जाने के लिए कहा. हवाई अड्डे की औपचारिकताएं समाप्त कर के धर्मा एयर इंडिया के उस हवाईजहाज की ओर चल पड़ा जो दिल्ली जाने के लिए तैयार खड़ा था.

भोर- राजवी को कैसे हुआ अपनी गलती का एहसास- भाग 3

‘‘नहीं नहीं, मुझे अस्पताल नहीं जाना. मैं ठीक हो जाऊंगी,’’ राजवी बोली.

अक्षय को लगा कि राजवी कुछ छिपा रही है. कहीं वह मां तो नहीं बनने वाली? पर ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि वह तो कहती रही है कि बच्चे के बारे में तो अभी 5 साल तक सोचना भी मत. पहले मैं कैरियर बनाऊंगी, लाइफ को ऐंजौय करूंगी, उस के बाद ही सोचूंगी. फिर कौन सी बात छिपा रही है यह मुझ से? क्या इस के साथ वाकई रेप हुआ होगा? दुखी हो गया अक्षय यह सोच कर. उसे जीवन का यह नया रंग भयानक लग रहा था.

2 दिन बाद अक्षय जब शाम को घर आया तो देखा कि राजवी फिर से बेहोश जैसी पड़ी थी. उसे तेज बुखार था.

अक्षय परेशान हो गया. फिर बिना कुछ सोचे वह उसे अस्पताल ले गया. डाक्टर ने जांचपड़ताल करने के बाद उस के जरूरी टैस्ट करवाए और उन की रिपोर्ट्स निकलवाईं.

लेकिन रिपोर्ट्स हाथ में आते ही अक्षय के होश उड़ गए. राजवी की बच्चेदानी में सूजन थी और इंटरनल ब्लीडिंग हो रही थी. डाक्टर ने बताया कि उसे कोई संक्रामक रोग हो गया है.

चेहरा हाथों में छिपा कर अक्षय रो पड़ा. यह क्या हो गया है मेरी राजवी को? वह शुरू से ही कुछ बता देती या खुद ट्रीटमैंट करवा लेती तो बात इतनी बढ़ती नहीं. ये तू ने क्या किया राजवी? मेरे प्यार में तुझे कहां कमी नजर आई कि प्यार की खोज में तू भटक गई? काश तू मेरे दिल की आवाज सुन सकती.

अक्षय को डाक्टर ने सांत्वना दी कि लुक मिस्टर अक्षय, अभी भी उतनी देर नहीं हुई है. हम उन का अच्छे से अच्छा ट्रीटमैंट शुरू कर देंगे. शी विल बी औल राइट सून…

और वास्तव में डाक्टर के इलाज और अक्षय की केयर से राजवी की तबीयत ठीक होने लगी. लेकिन अक्षय का धैर्य और प्यार भरा बरताव राजवी को गिल्टी फील करा देता था.

अस्पताल से घर लाने के बाद अक्षय राजवी की हर छोटीमोटी जरूरत का ध्यान रखता था. उसे टाइम पर दवा, चायनाश्ता व खाना देना और उस को मन से खुश रखने के लिए तरहतरह की बातें करना, वह लगन से करता था.

और राजवी की इन सब बातों ने आंखें खोल दी थीं. नासमझी में उस ने क्याक्या नहीं कहा था अक्षय को. दोस्तों के सामने उस का तिरस्कार किया था. उस के रंग को ले कर सब के बीच उस का मजाक उड़ाया था और कई बार गुस्से और नफरत के कड़वे बोल बोली थी वह. यह सब सोच कर शर्म सी आती थी उसे.

अपनी गोरी त्वचा और सौंदर्य के गुमान की वजह से उस ने अपना चरित्र भी जैसे गिरवी रख दिया था. अक्षय सांवला था तो क्या हुआ, उस के भीतर सब कुछ कितना उजला था. उस के इतने खराब ऐटिट्यूड के बाद भी अक्षय के बरताव से ऐसा लगता था जैसे कुछ हुआ ही नहीं था. वह पूरे मन से उस की केयर कर रहा था.

राजवी सोचती थी मेरी गलतियों, नादानियों और अभिमान को अनदेखा कर अक्षय मुझे प्यार करता रहा और मुझे समझाने की कोशिश करता रहा. लेकिन मैं अपनी आजादी का गलत इस्तेमाल करती रही.

कुछ दिनों में राजवी के जख्म तो ठीक हो गए पर उन्होंने अपने गहरे दाग छोड़ दिए थे. जब भी वह आईना देखती थी सहम जाती थी.

पूरी तरह से ठीक होने के बाद राजवी ने अक्षय के पास बैठ कर अपने बरताव के लिए माफी मांगी.

अक्षय गंभीर स्वर में बोला, ‘‘देखो राजवी, मैं जानता हूं कि तुम मेरे साथ खुश नहीं हो. मैं यह भी जानता हूं कि मैं शक्लसूरत में तुम्हारे लायक नहीं हूं. काश मैं अपने शरीर का रंग बदलवा सकता पर वह मुमकिन नहीं है. तब एक ही रास्ता नजर आता है मुझे कि तुम मेरे साथ जबरदस्ती रहने के बजाय अपना मनपसंद रास्ता खोज लो.’’

इस बात पर राजवी चौंकी मगर अक्षय बोला, ‘‘मेरा एक कुलीग है. मेरे जैसी ही पोस्ट पर है और मेरी जितनी ही सैलरी मिलती है उसे. प्लस पौइंट यह है कि वह हैंडसम दिखता है. तुम्हारे जैसा गोरा और तुम्हारे जैसा ही फ्री माइंडेड है. अगर तुम हां कहो तो मैं बात कर सकता हूं उस से. और हां, वह भी इंडिया का ही है. खुश रखेगा तुम्हें…’’

‘‘अक्षय, यह क्या बोल रहे हो तुम?’’ राजवी चीख उठी. अक्षय ऐसी बात करेगा यह उस की सोच से परे था.

‘‘मैं ठीक ही तो कह रहा हूं. इस झूठमूठ की शादी में बंधे रहने से अच्छा होगा कि हम अलग हो जाएं. मेरी ओर से आज से ही तुम आजाद हो…’’

अक्षय के होंठों पर अपनी कांपती उंगलियां रखती राजवी कांपती आवाज में बोली, ‘‘इस बात को अब यहीं पर स्टौप कर दो अक्षय. मैं ने कहा न कि मैं ने जो कुछ भी किया वह मेरी भूल थी. मेरा घमंड और मेरी नासमझी थी. अपने सौंदर्य पर गुमान था मुझे और उस गुमान के लिए तुम जो चाहे सजा दे सकते हो. पर प्लीज मुझे अपने से अलग मत करना. मैं नहीं जी पाऊंगी तुम्हारे बिना. तुम्हारे प्यार के बिना मैं अधूरी हूं. जिंदगी का

और रिश्तों का सच्चा सुख बाहरी चकाचौंध में नहीं होता वह तो आंतरिक सौंदर्य में ही छिपा होता है, यह सच मुझे अच्छी तरह महसूस हो चुका है.’’

इस के आगे न बोल पाई राजवी. उस की आंखों में आंसू भर गए. उस ने हाथ जोड़ लिए और बोली, ‘‘मेरी गलती माफ नहीं करोगे अक्षय?’’

राजवी के मुरझाए गालों पर बह रहे आंसुओं को पोंछता अक्षय बोला, ‘‘ठीक है, तो फिर इस में भी जैसी तुम्हारी मरजी.’’  और यह कह कर वह मुसकराया तो राजवी हंस पड़ी. फिर अक्षय ने अपनी बांहें फैलाईं तो राजवी उन में समा गई.

वैलेंटाइन डे : पति पत्नी की प्यार भरी कहानी – भाग 3

भाभी सोफे की ओर बैठने का संकेत कर के अंदर चली गईं. शायद आवाज सुन कर सुमित बाहर निकल आया और उस के साथ में भाभी भी. हाथ में टे्र पकड़ रखी थी. उन्होंने नमकीन की प्लेट मेरी ओर बढ़ा दी.

‘‘भाभी, आप जानती हैं…’’

मैं अभी इतना ही बोल पाया था कि  हाथ की प्लेट मेरी ओर सरका कर वह फिर अंदर चली गईं और जब वापस आईं तो उन के पीछेपीछे बबलू भी था. वह वीडियो गेम खेल रहा था. मैं अपनी जगह से उठ कर उस की ओर जा ही रहा था कि द्वार पर मेरी पत्नी दिखी. उस के हाथ में चाय की टे्र थी.

‘‘चलिए, आप दोनों जल्दी से हाथमुंह धो लीजिए. चाय ठंडी हो रही है.  फिर बैठ कर बातें करते हैं,’’ भाभी ने हुक्म दिया.

मैं और सुमित आज्ञाकारी बच्चों की तरह चुपचाप हाथमुंह धो कर फटाफट आ गए. चाय पीतेपीते ज्यादा बातें दोनों महिलाएं ही कर रही थीं, बच्चों और टीवी का शोर अलग चल रहा था. 9 बज रहे थे.

‘‘अच्छा, अब चलते हैं,’’ मैं ने उठने का उपक्रम करते हुए कहा.

‘‘कहां जाते हैं? बैठिए भी. लगता है भाई साहब को भूख लगी है.’’

वह उठीं और अंदर चली गईं. उन के पीछेपीछे मेरी पत्नी भी. मुझे कुछ सम?ा में नहीं आ रहा था कि क्या हो रहा है. अंदर से भाभी की आवाज आई तो सुमित अंदर चला गया.

सुमित कमरे से बाहर आते हुए बोला, ‘‘चल यार.’’

उस ने केवल इतना कहा और मैं उस के पीछेपीछे बाहर निकल आया और गहरी सांस ली.

‘‘सुमित, बात क्या है? मुझे तो डर लग रहा है.’’

‘‘मुझे क्या पता यार. मैं तो अभी- अभी तेरे साथ ही घर लौटा हूं.’’

‘‘मगर हम जा कहां रहे हैं?’’

‘‘तेरी भाभी ने पान मंगाए हैं.’’

पान ले कर जब हम घर पहुंचे तो देखा कि खाने की मेज तरहतरह के पकवानों  से भरी थी. हमारे सिर चकराने लगे…जैसे हम कोई मायावी दुनिया में पहुंच गए हों.

‘‘चलिए, खाना लग गया है, बस, आप लोगों का इंतजार था.’’

आज्ञाकारी बच्चों की तरह हम ने उस आदेश का पालन किया.

खाना परोसने से पहले भाभी ने एक फरमान जारी किया, ‘‘चलिए, निकालिए हमारा गिफ्ट. फिर हम खाना शुरू करते हैं. बच्चे भी भूखे हैं.’’

हम ने चुपके से अपनाअपना गिफ्ट उन दोनों के हाथों में थमा दिया.

बच्चों ने जोरजोर से तालियां पीटीं और खाने की मेज पर टूट पडे़. दोनों ने मिल कर तीनों बच्चों के लिए प्लेटें लगा दीं. जब हम भी खाने बैठ गए और लगने लगा कि वातावरण कुछ सामान्य हो चला है तब मैं ने हिम्मत कर के पूछ लिया, ‘‘भाभी, एक बात पूछूं?’’

‘‘मुझे मालूम है कि आप क्या पूछने वाले हैं. अब इन लोगों को ज्यादा सस्पेंस में रखना ठीक नहीं है. क्यों? बता दें न?’’ उन्होंने मेरी पत्नी की ओर देखा. उस ने कहा, ‘‘मैं बताती हूं. जबजब हम सुनते थे कि कोई पति अपनी पत्नी को किसी न किसी अवसर पर गिफ्ट देता है तो हमारे दिलों में जलन होती थी, क्योंकि हमें कभी कुछ नहीं मिलता. हम ऐसे अवसरों पर एकदूसरे के सामने कुढ़ लेती थीं और कर ही क्या सकती थीं, लेकिन कल हम दोनों ने तय कर लिया कि तुम दोनों को सबक सिखाना चाहिए. इसलिए हम ने खाना नहीं बनाया. यह हमारा पहला कदम था.

‘‘चूंकि यह बात पहले से तय थी इसलिए हम ने ज्यादा खाना  बना कर रख दिया था और वही अगले दिन बच्चों को खिला दिया. हम ने अपने लिए भी बनाया था मगर विश्वास करो, हमारा खाने का मन नहीं हुआ. हां, इतना अवश्य मानती हूं कि मैं ने डब्बों में रखे सूखे नाश्ते खा कर, चाय पी कर  काम चलाया, भूख जो नहीं सह पा रही थी.’’

भाभी ने अपनी तरफ से जोड़ा, ‘‘मैं ने भी, लेकिन जब हम ने देखा कि तुम दोनों खाने का समय निकल जाने के बाद भी हमें बिना कुछ कहे घर से बाहर निकल गए तो हम ने सोचा कि तुम लोग खापी कर आ जाओगे. मगर तुम लोगों की यह बात हमारे दिलों को छू गई कि हमारे ऐसे कठोर व्यवहार के बावजूद तुम ने हमारे लिए खाना पैक करवाया. हमारे दिलों में ग्लानि  हुई. हमारा क्रोध शांत हुआ तो दिमाग विचारशील हो गया. फिर पिंकू ने बताया कि तुम लोग किसी गिफ्ट के बारे में बात कर रहे थे, वह भी चौक पर खडे़ हो कर.’’

‘‘पिंकू कहां था?’’ सुमित ने हैरान  हो कर पूछा.

‘‘वह वहीं से गुजर रहा था. अपने दोस्त के घर कोई सीडी देखने जा रहा था,’’ भाभी ने कहना जारी रखा, ‘‘मैं ने देखा कि तुम अंदर से पैसे ले कर कहीं चले गए. आज जब छोटू भाई ने फोन किया कि तुम ने 2 गिफ्ट पैक कराए और बचा पैसा वापस लेना भूल गए तो सारी बात हमारी सम?ा में आ गई.’’

‘‘मगर वह दुकान वाला तुम्हें कैसे जानता है?’’ सुमित ने पूछा.

‘‘याद नहीं हम ने किशोर भाई की बेटी की शादी के लिए वहीं से गिफ्ट लिया था. उस समय उस के पास गिफ्ट रैपर खत्म हो गया था, तब उस ने बाहर से तुरंत रैपर मंगवा कर पैक कर के दिया था. तुम ने उस की इस तत्परता की तारीफ की थी. यही नहीं जब भी कोई तोहफा लेने का अवसर आता है, हम दोनों उसी दुकान पर जाते हैं. इसलिए दुकानदार ऐसे ग्राहकों का बहुत खयाल रखता है.’’

‘‘अच्छा, तो हमें भी अपनी गलती को मान लेना चाहिए, क्यों यार?’’ सुमित की आंखों की भाषा को मैं ने पढ़ लिया और स्वीकृति में अपना सिर हिला दिया.

सुमित ने पहले अपना गला साफ किया फिर गिलास उठा कर पूरा पानी पी गया. इस के बाद हिम्मत जुटा कर उस ने सारी घटना उन दोनों के सामने बयां कर दी.

‘‘यह विदेशी परफ्यूम नहीं है. सोलह आने देशी, वह भी अपने ही गोलबाजार से खरीदा हुआ है. हमें माफ कर दो. वादा करते हैं कि अगली बार कोशिश करेंगे कि कुछ अच्छा सा तोहफा आप लोगों को दे सकें…वह भी आप के बिना मांगे,’’ हम दोनों ने सिर ?ाका लिया.

मैं ने सुना, मेरी बीवी कह रही थी, ‘‘नहींनहीं, आप ऐसा न कहिए. हम पहले ही अपने किए पर बहुत शर्मिंदा हैं. आप लोग हमें माफ कर दीजिए. कल इन्होंने मजाक में ही सही, बिलकुल ठीक कहा था कि जहां रिश्तों की कोई अहमियत नहीं होती वहां तोहफे दे कर या शारीरिक हावभावों के प्रदर्शन द्वारा बारबार रिश्तों को साबित करना पड़ता है. हमारे यहां ऐसे दिखावे की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि ये रिश्ते दिलों के हैं और इन की जड़ें मजबूत हैं.’’

वातावरण को गंभीर होता देख उसे फिर से हलका बनाने के उद्देश्य से मैं ने कहा, ‘‘सोच लो. अभी भी अपना वक्तव्य बदल सकती हो. जनमजनम के चक्कर में न पड़ो वरना इसी कंजूस मक्खीचूस को झेलना पडे़गा. इस से तुम कुंआरी भली,’’ मैं ने पत्नी को छेड़ते हुए कहा.

सब ठठा कर हंस पडे़. उसे भी मजबूर हो कर हंसना पड़ा.

सुगंध : धन दौलत के घमंड में डूबे लड़के की कहानी – भाग 3

उसे अपने व्यवहार व मानसिकता को बदलना चाहिए, कुछ ऐसा ही समझाने के लिए मैं अगले दिन दोपहर के वक्त उस से मिलने पहुंचा था.

उस दिन चोपड़ा मुझे थकाटूटा सा नजर आया, ‘‘यार अशोक, मुझे अपनी जिंदगी बेकार सी लगने लगी है. आज किसी चीज की कमी नहीं है मेरे पास, फिर भी जीने का उत्साह क्यों नहीं महसूस करता हूं मैं अपने अंदर?’’

उस का बोलने का अंदाज ऐसा था मानो मुझ से सहानुभूति प्राप्त करने का इच्छुक हो.

‘‘इस का कारण जानना चाहता है तो मेरी बात ध्यान से सुन, दोस्त. तेरी दौलत सुखसुविधाएं तो पैदा कर सकती है, पर उस से अकेलापन दूर नहीं हो सकता.

‘‘अपनों के साथ प्रेमपूर्वक रहने से अकेलापन दूर होता है, यार. अपने बहूबेटे के साथ प्रेमपूर्ण संबंध कायम कर लेगा तो जीने का उत्साह जरूर लौट आएगा. यही तेरी उदासी और अकेलेपन का टौनिक है,’’ मैं ने भावुक हो कर उसे समझाया.

कुछ देर खामोश रहने के बाद उस ने उदास लहजे में जवाब दिया, ‘‘दिलों पर लगे कुछ जख्म आसानी से नहीं भरते हैं, डाक्टर. शिखा के साथ मेरे संबंध शुरू से ही बिगड़ गए. अपने बेटे की आंखों में झांकता हूं तो वहां अपने लिए आदर या प्यार नजर नहीं आता. अपने किए की माफी मांगने को मेरा मन तैयार नहीं. हम बापबेटे में से कोई झुकने को तैयार नहीं तो संबंध सुधरेंगे कैसे?’’

उस रात उस के इस सवाल का जवाब मुझे सूझ गया था. वह समाधान मेरी पत्नी को भी पसंद आया था.

सप्ताह भर बाद चोपड़ा को नर्सिंग होम से छुट्टी मिली तो मैं उसे अपने घर ले आया. सविता भाभी भी साथ में थीं.

‘‘तेरे भतीजे विवेक की शादी हफ्ते भर बाद है. मेरे साथ रह कर हमारा मार्गदर्शन कर, यार,’’ ऐसी इच्छा जाहिर कर मैं उसे अपने घर लाया था.

‘‘अरे, अपने बेटे की शादी का मेरे पास कोई अनुभव होता तो मार्गदर्शन करने वाली बात समझ में आती. अपने घर में दम घुटेगा, यह सोच कर शादीब्याह वाले घर में चल रहा हूं,’’ उस का निराश, उदास सा स्वर मेरे दिल को चीरता चला गया था.

नवीन और शिखा रोज ही हमारे घर आते. मेरी सलाह पर शिखा अपने ससुर के साथ संबंध सुधारने का प्रयास करने लगी. वह उन्हें खाना खिलाती. उन के कमरे की साफसफाई कर देती. दवा देने की जिम्मेदारी भी उसी को दे दी गई थी.

चोपड़ा मुंह से तो कुछ नहीं कहता, पर अपनी बहू की ऐसी देखभाल से वह खुश था लेकिन नवीन और उस के बीच खिंचाव बरकरार रहा. दोनों औपचारिक बातों के अलावा कोई अन्य बात कर ही नहीं पाते थे.

शादी के दिन तक चोपड़ा का स्वास्थ्य काफी सुधर गया था. चेहरे पर चिंता, नाराजगी व बीमारी के बजाय खुशी और मुसकराहट के भाव झलकते.

वह बरात में भी शामिल हुआ. मेरे समधी ने उस के आराम के लिए अलग से एक कमरे में इंतजाम कर दिया था. फेरों के वक्त वह पंडाल में फिर आ गया था.

हम दोनों की नजरें जब भी मिलतीं, तो एक उदास सी मुसकान चोपड़ा के चेहरे पर उभर आती. मैं उस के मनोभावों को समझ रहा था. अपने बेटे की शादी को इन सब रीतिरिवाजों के साथ न कर पाने का अफसोस उस का दिल इस वक्त जरूर महसूस कर रहा होगा.

बहू को विदा करा कर जब हम चले, तब चोपड़ा और मैं साथसाथ अगली कार में बैठे हुए थे. सविता भाभी, मेरी पत्नी, शिखा और नवीन पहले ही चले गए थे नई बहू का स्वागत करने के लिए.

हमारी कार जब चोपड़ा की कोठी के सामने रुकी तो वह बहुत जोर से चौंका था.

सारी कोठी रंगबिरंगे बल्बों की रोशनी में जगमगा रही थी. जब चोपड़ा मेरी तरफ घूमा तो उस की आंखों में एक सवाल साफ चमक रहा था, ‘यह सब क्या है, डाक्टर?’

मैं ने उस का हाथ थाम कर उस के अनबुझे सवाल का जवाब मुसकराते हुए दिया, ‘‘तेरी कोठी में भी एक नई बहू का स्वागत होना चाहिए. अब उतर कर अपनी बहू का स्वागत कर और आशीर्वाद दे. रोनेधोने का काम हम दोनों यार बाद में अकेले में कर लेंगे.’’

चोपड़ा की आंखों में सचमुच आंसू झलक रहे थे. वह भरे गले से इतना ही कह सका, ‘‘डाक्टर, बहू को यहां ला कर तू ने मुझे हमेशा के लिए अपना कर्जदार बना लिया… थैंक यू… थैंक यू वेरी मच, मेरे भाई.’’

चोपड़ा में अचानक नई जान पड़ गई थी. उसे अपनी अधूरी इच्छाएं पूरी करने का मौका जो मिल गया था. बडे़ उत्साह से उस ने सारी काररवाई में हिस्सा लिया.

विवेक और नई दुलहन को आशीर्वाद देने के बाद अचानक ही चोपड़ा ने नवीन और शिखा को भी एक साथ अपनी छाती से लगाया और फिर किसी छोटे बच्चे की तरह बिलख कर रो पड़ा था.

ऐसे भावुक अवसर पर हर किसी की आंखों से आंसू बह निकले और इन के साथ हर तरह की शिकायतें, नाराजगी, दुख, तनाव और मनमुटाव का कूड़ा बह गया.

‘‘तू ने सच कहा था डाक्टर कि रिश्तों के रंगबिरंगे फूल ही जिंदगी में हंसीखुशी और सुखशांति की सुगंध पैदा करते हैं, न कि रंगीन हीरों की जगमगाहट. आज मैं बहुत खुश हूं क्योंकि मुझे एकसाथ 2 बहुओं का ससुर बनने का सुअवसर मिला है. थैंक यू, भाई,’’ चोपड़ा ने हाथ फैलाए तो मैं आगे बढ़ कर उस के गले लग गया.

मेरे दोस्त के इस हृदय परिवर्तन का वहां उपस्थित हर व्यक्ति ने तालियां बजा कर स्वागत किया.

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