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फिर वही शून्य – भाग 1 : समर को सामने पा कर सौम्या का क्या हुआ ?

सुनहरी सीपियों वाली लाल साड़ी पहन कर जब मैं कमरे से बाहर निकली तो मुझे देख कर अनिरुद्ध की आंखें चमक उठीं. आगे बढ़ कर मुझे अपने आगोश में ले कर वह बोले, ‘‘छोड़ो, सौम्या, क्या करना है शादीवादी में जा कर? तुम आज इतनी प्यारी लग रही हो कि बस, तुम्हें बांहों में ले कर प्यार करने का जी चाह रहा है.’’

‘‘क्या आप भी?’’ मैं ने स्वयं को धीरे से छुड़ाते हुए कहा, ‘‘विशाल आप का सब से करीबी दोस्त है. उस की शादी में नहीं जाएंगे तो वह बुरा मान जाएगा. वैसे भी इस परदेस में आप के मित्र ही तो हमारा परिवार हैं. चलिए, अब देर मत कीजिए.’’

‘‘अच्छा, लेकिन पहले कहो कि तुम मुझे प्यार करती हो.’’

‘‘हां बाबा, मैं आप से प्यार करती हूं,’’ मेरा लहजा एकदम सपाट था.

अनिरुद्ध कुछ देर गौर से मेरी आंखों में झांकते रहे, फिर बोले, ‘‘तुम सचमुच बहुत अच्छी हो, तुम्हारे आने से मेरी जिंदगी संवर गई है. अपने आप को बहुत खुशनसीब समझने लगा हूं मैं. फिर भी न जाने क्यों ऐसा लगता है जैसे तुम दिल से मेरे साथ नहीं हो, कि जैसे कोई समझौता कर रही हो. सौम्या, सच बताओ, तुम मेरे साथ खुश तो हो न?’’

मैं सिहर उठी. क्या अनिरुद्ध ने मेरे मन में झांक कर सब देख लिया था? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता. खुद को संयत कर मैं ने इतना ही कहा, ‘‘आप भी कैसी बातें करते हैं? मेरे खुश न होने का क्या कारण हो सकता है? इस वक्त मुझे बस, समय से पहुंचने की चिंता है और कोई बात नहीं है.’’

शादी से वापस आतेआते काफी देर हो गई थी. अनिरुद्ध तो बिस्तर पर लेटते ही सो गए, लेकिन मेरे मन में उथलपुथल मची हुई थी. पुरानी यादें दस्तक दे कर मुझे बेचैन कर रही थीं, ऐसे में नींद कहां से आती?

कितने खुशनुमा दिन थे वे…स्कूल के बाद कालिज में प्रवेश. बेफिक्र यौवन, आंखों में सपने और उमंगों के उस दौर में वीरांगना का साथ.

वीरांगना राणा…प्यार से सब उसे वीरां बुलाते थे. दूध में घुले केसर सी उजली रंगत, लंबीघनी केशराशि, उज्ज्वल दंतपंक्ति…अत्यंत मासूम लावण्य था उस का. जीवन को भरपूर जीने की चाह, समस्याओं का साहस से सामना करने का माद्दा, हर परिस्थिति में हंसते रहने की अद्भुत क्षमता…मैं उस की जीवंतता से प्रभावित हुए बिना न रह सकी. हम दोनों कब एकदूसरे के निकट आ गईं, खुद हमें भी न पता चला.

फिर तो कभी वह मेरे घर, कभी मैं उस के घर में होती. साथ नोट्स बनाते और खूब गप लड़ाते. मां मजाक में कहतीं, ‘जिस की शादी पहले होगी वह दूसरी को दहेज में ले जाएगी,’ और हम खिलखिला कर हंस पड़ते.

एक दिन वीरां ने मुझ से कहा, ‘आज भाई घर आने वाला है, इसलिए मैं कालिज नहीं चलूंगी. तू शाम को आना, तब मिलवाऊंगी अपने भाई से.’

वीरां का बड़ा भाई फौज में कैप्टन था और छुट्टी ले कर काफी दिन के बाद घर आ रहा था. इसी वजह से वह बहुत उत्साहित थी.

शाम को वीरां के घर पहुंच कर मैं ने डोरबेल बजाई और दरवाजे से थोड़ा टिक कर खड़ी हो गई, लेकिन अपनी बेखयाली में मैं ने देखा ही नहीं कि दरवाजा सिर्फ भिड़ा हुआ था, अंदर से बंद नहीं था. मेरा वजन पड़ने से वह एक झटके से खुल गया, मगर इस से पहले कि मैं गिरती, 2 हाथों ने मुझे मजबूती से थाम लिया.

मैं ने जब सिर उठा कर देखा तो देखती ही रह गई. वीरां जैसा ही उजला रंग, चौड़ा सीना, ऊंचा कद…तो यह था कैप्टन समर राणा. उस की नजरें भी मुझ पर टिकी हुई थीं जिन की तपिश से मेरा चेहरा सुर्ख हो गया और मेरी पलकें स्वत: ही झुक गईं.

‘लो, तुम तो मेरे मिलवाने से पहले ही भाई से मिल लीं. तो कैसा लगा मेरा भाई?’ वीरां की खनकती आवाज से मेरा ध्यान बंटा. उस के बाद मैं ज्यादा देर वहां न रह पाई, जल्दी ही बहाना बना कर घर लौट आई.

उस पूरी रात जागती रही मैं. उन बलिष्ठ बांहों का घेरा रहरह कर मुझे बेचैन करता रहा. एक पुरुष के प्रति ऐसी अनुभूति मुझे पहले कभी नहीं हुई थी. सारी रात अपनी भावनाओं का विश्लेषण करते ही बीती.

समर से अकसर ही सामना हो जाता. वह बहन को रोज घुमाता और वीरां मुझे भी साथ पकड़ कर ले जाती. दोनों भाईबहन एक से थे, ऊपर से सताने के लिए मैं थी ही. रास्ते भर मुझे ले कर हंसीठिठोली करते रहते, मुझे चिढ़ाने का एक भी मौका न छोड़ते. मगर मेरा उन की बातों में ध्यान कहां होता?

मैं तो समर की मौजूदगी से ही रोमांचित हो जाती, दिल जोरों से धड़कने लगता. उस का मुझे कनखियों से देखना, मुझे छेड़ना, मेरे शर्माने पर धीरे से हंस देना, यह सब मुझे बहुत अच्छा लगने लगा था. कभीकभी डर भी लगता कि कहीं यह खुशी छिन न जाए. मन में यह सवाल भी उठता कि मेरा प्यार एकतरफा तो नहीं? आखिर समर ने तो मुझे कोई उम्मीद नहीं दी थी, वह तो मेरी ही कल्पनाएं उड़ान भरने लगी थीं.

अपने प्रश्न का मुझे जल्दी ही उत्तर मिल गया था. एक शाम मैं, समर और वीरां उन के घर के बरामदे में कुरसी डाले बैठे थे तभी आंटी पोहे बना कर ले आईं, ‘मैं सोच रही हूं कि इस राजपूत के लिए कोई राजपूतनी ले आऊं,’ आंटी ने समर को छेड़ने के लहजे में कहा.

‘मम्मा, भाई को राजपूतनी नहीं, गुजरातिन चाहिए,’ वीरां मेरी ओर देख कर बडे़ अर्थपूर्ण ढंग से मुसकराई.

आंटी मेरी और समर की ओर हैरानी से देखने लगीं, पर समर खीज उठा, ‘क्या वीरां, तुम भी? हर बात की जल्दी होती है तुम्हें…मुझे तो कह लेने देतीं पहले…’

समर ने आगे क्या कहा, यह सुनने के लिए मैं वहां नहीं रुकी. थोड़ी देर बाद ही मेरे मोबाइल पर उस का फोन आया. अपनी शैली के विपरीत आज उस का स्वर गंभीर था, ‘सारी सौम्या, मैं खुद तुम से बात करना चाहता था, लेकिन वीरां ने मुझे मौका ही नहीं दिया. खैर, मेरे दिल में क्या है, यह तो सामने आ चुका है. अब अगर तुम्हारी इजाजत हो तो मैं मम्मीपापा से बात करूं. वैसे एक फौजी की जिंदगी तमाम खतरों से भरी होती है. अपने प्यार के अलावा तुम्हें और कुछ नहीं दे सकता. अच्छी तरह से सोच कर मुझे अपना जवाब देना…’

‘सोचना क्या है? मैं मन से तुम्हारी हो चुकी हूं. अब जैसा भी है, मेरा नसीब तुम्हारे साथ है.’

हमारे प्यार को परिवार वालों की सहमति मिल गई और तय हुआ कि मेरी पढ़ाई पूरी होने के बाद हमारा विवाह किया जाएगा.

उलझे धागे : दामिनी के गले की फांस क्या चीज बन रही थी ? – भाग 1

महिलाओं के घेरे में थोड़ा दूर उपेक्षित सी बैठी आंसू बहाती शैली को देख कर आज दामिनी के मन में नफरत के नहीं, बल्कि दया और सहानुभूति के भाव उभर कर आए. हालांकि, यह वही चेहरा है जिस ने पहलेपहल उस का परिचय नफरत की अनुभूति से करवाया था. शैली से परिचय होने से पहले तक वह मन के इस भाव से अनजान थी. कोरे मन को तो सिर्फ प्रेम के निश्च्छल भाव का ही एहसास था.

अरे हां. वह यह कैसे भूल सकती है कि शैली ने ही तो जानेअनजाने उसे यह भी महसूस करवाया था कि प्रेम किया नहीं जाता बल्कि हो जाता है. मानव को तो उस की जिंदगी में आना ही था. उसे तो शैली का शुक्रगुजार होना चाहिए. विवाह से पहले तो उसे यही बात गांठ बांध कर सिखाई गई थी कि अपने पति से प्यार करना ही स्त्री का धर्म और कर्म है. फिर चाहे पति के कर्म कुछ भी हों. इसी सीख को साथ बांध कर उस ने ससुराल की दहलीज के भीतर कदम रखा था.

महिलाओं की भीड़ में से जगह बनाती दामिनी शैली के निकट जा पहुंची. उस ने शैली को सांत्वना देने के लिए उस के कंधे पर हाथ रखा. देखते ही एक बार तो शैली की आंखों में आश्चर्य के भाव आए, दूसरे ही पल उस की रुकी रुलाई फूट पड़ी. दामिनी की सास सुमित्रा आंखें फाड़े इस मिलन को देख रही थी. शोक संतिप्त औरतों और सहयोगियों में कानाफूसी शुरू हो गई.

‘भई कलेजा हो तो दामिनी जैसा. सौत को कितने प्यार से गले लगाया है,’ एक स्वर फुसफुसाया.

‘घायल की गति घायल जाने. यह भी तो उसी मंजिल की मुसाफिर है,’ दबीदबी सी सरसराती हुई यह बात दामिनी तक पहुंची. उस ने अपने, शैली के और मानव के सहयोगियों व रिश्ते के   झुंड की तरफ देखा, वह कोई तीखा सा जवाब देना चाहती थी लेकिन मौके की नजाकत को देखते हुए चुप्पी साध गई.

घर के आंगन में पति विनय का पार्थिव शरीर पड़ा है. कल एक अनियंत्रित कार ने विनय को कुचल दिया था. अभी कुछ देर पहले ही उस की डैडबौडी को हौस्पिटल से लाया गया है. दामिनी के बेटे सिद्ध का इंतजार हो रहा है. उसे आने में अभी एक घंटा और लगने की संभावना है. कोई आंसू भी बहाए तो आखिर कितनी देर. पुरुष बाहर गलियारे में और महिलाएं घर के बरामदे में बैठी बातचीत में मशगूल हो गईं.

‘विनय के पीएफ और ग्रेच्युएटी का पैसा किसे मिलेगा. दामिनी को या शैली को,’ पुरुषों के बीच चर्चा का विषय था.

‘नियम और हिसाब से तो दामिनी ही इस की हकदार है. वही असल ब्याहता है. यह अलग बात है कि इस रिश्ते को न तो दामिनी मानती है और न ही कभी विनय ने माना,’ बात आगे बढ़ी. कमोबेश यही चर्चा महिलाओं के ग्रुप में भी थी जो दामिनी और शैली के कानों तक भी पहुंच रही थी.

‘हां है, दामिनी विनय की ब्याहता और यह भी सच है कि दामिनी ने अपनी इच्छा से गठबंधन की गांठ खोल दी थी. न, न खोली नहीं थी. बस, उसे ढीला भर किया था. इतना ही कि वे दोनों अपनीअपनी परिधि में स्वेच्छा से विचरण कर सकें. तभी तो सामाजिक व कानूनी दृष्टि से दोनों आज भी पतिपत्नी हैं,’ एक और स्वर गूंजा.

वैसे भी देखा जाए तो गठबंधन एक रस्सी ही तो है जिस के दोनों सिरों से 2 अनजान जनों को बांध दिया जाता है. अब यदि दोनों के चलने की दिशा एक ही हो तो ठीक है वरना वह रस्सी दोनों के ही गले का फंदा बन जाती है. अलगअलग दिशा में चलने पर यह बंधन गरदन पर घाव देने के अलावा कुछ नहीं करता. इस रस्सी की ऐसी ही रगड़न दामिनी ने अपने गले पर ससुराल में अपने पहले ही दिन महसूस की थी.

सालों पहले ससुराल की चौखट पर द्वार रुकाई. रिश्ते की ननदों का नेग मांगना. चुहल और शरारत से भरी अल्हड़ हंसी के बीच दामिनी को उस के कमरे में पहुंचाना. सबकुछ दामिनी की आंखों के सामने से गुजरने लगा. तभी अचानक इस तसवीर में शैली का आना मानो खाने में किरकिरी. सबकुछ बेस्वाद सा हो गया था.

दामिनी आज भी उस रात को कहां भूल सकी है जब उस के अरमानों के फूल खिलने से पहले ही मसल दिए गए थे. शादी की वह पहली रात जब वह आंखों की गुस्ताखियों को पलकों के पीछे, चेहरे की लाज को चुनरी की   झीनी परत से और खुद से बेवफाई कर विनय के जाते हुए दिल की बेकाबू धकधक को छिपाने की नाकाम कोशिश करती हुई विनय की राह देख रही थी.

कमरे में फुल एसी चलने के बावजूद पसीनेपसीने हो रही दामिनी खिड़की के रास्ते कमरे में   झांकते सितारों से गुफ्तगू करने लगी. तभी उसे छत के दूसरे कोने पर 2 मानव आकृतियां दिखाई दीं. एक पुरुष और एक स्त्री को आपस में उल  झते देख कर उसे जिज्ञासा तो हुई लेकिन अनजान घर में पहले दिन की  ि झ  झक ने उसे ताका  झांकी करने से रोक दिया. उस ने सितारों की तरफ से अपनी आंखें हटा लीं और अपने कान उस जोड़े की बातचीत पर लगाने की कोशिश की.

‘सम  झने की कोशिश करो शैली. मैं ऐसा नहीं कर सकता. समाज की निगाहों में वह मेरी पत्नी है. किस आधार पर उसे छोड़ने का दावा करूं. फिर मैं तो तुम्हारा ही हूं न. भरोसा करो मु  झ पर,’ पुरुष स्वर फुसफुसाया.

‘अरे, यह तो विनय की आवाज लग रही है. लेकिन साथ में यह शैली क्या बला है. क्या यह बातचीत मेरे संदर्भ में हो रही है? क्या विनय ने यह शादी केवल दिखावे के लिए की है?’ दामिनी के मन में विचारों का   झं  झावात उठा. भारीभरकम शादी का जोड़ा. ऊपर से इतने जेवर. इन सब से भी अधिक कष्टदायी वह वार्त्तालाप. दामिनी चक्कर खा कर गिर पड़ी. सुबह होश में आई तो विनय को सोफे पर सोता पाया.

‘क्या था जो रात में घटित हुआ था. कोई सपना या फिर हकीकत.’ दामिनी हड़बड़ा कर अपने कपड़े ठीक करती हुई उठ बैठी. तभी दरवाजे पर खटखट हुई. दामिनी ने दरवाजा खोला. सामने चचेरी ननद विभा चाय के 2 कप लिए खड़ी थी.

‘कैसी हो भाभी. रात ठीक से नींद आई न?’ विभा ने पूछा. दामिनी केवल मुसकरा दी. उन की बातचीत सुन कर विनय भी उठ गया. उस ने एक कप उठाया और कमरे से बाहर निकल गया. अब विभा और दामिनी ही थीं.

‘दीदी, यह शैली का क्या किस्सा है. कल रात विनय से   झगड़ रही थी,’ दामिनी ने अपने मन में फंसे कांटे को निकालने की कोशिश की.

‘कुछ नहीं, भाभी. शैली जरा नकचढ़ी टाइप की लड़की है. सुमित्रा चाची की सहेली की बेटी शैली के मांपापा एक ऐक्सिडैंट में खत्म हो गए थे. उन दोनों ने अपने घरवालों की मरजी के खिलाफ यह शादी की थी जिस में चाची ने उन की बहुत मदद की थी. उन की मृत्यु के बाद चाची शैली को अपने साथ ले आई. विनय और शैली बचपन के साथसाथ खेलेबढ़े हैं न, इसलिए वह विनय पर अपना पूरा अधिकार सम  झती है. नासम  झ लड़की है, सम  झ जाएगी. तुम फिक्र मत करो.’ विभा ने उसे सम  झाने की कोशिश की लेकिन दामिनी की छठी इंद्रिय उसे अनिष्ट का संकेत दे रही थी.

2 दिनों बाद दामिनी अनछुई ही मायके वाले घर आ गई क्योंकि अगले ही महीने उस के मास्टर्स के एग्जाम थे. अब उसे 2 महीने यहीं रहना था. लेकिन 2 महीने के बाद? तब क्या होगा. तब क्या होगा, ससुराल तो जाना ही पड़ेगा. बिना किसी ठोस आधार के वह विनय और शैली को दोषी भी तो नहीं ठहरा सकती न.

‘चलो, जो होगा देखा जाएगा, अभी से बवाल मचाना ठीक नहीं,’ सोचती हुई दामिनी अपनी पढ़ाई में जुट गई.

इन 2 महीनों के दौरान विनय ने उस से कोई खास संपर्क नहीं रखा था. नईनवेली शादी जैसा कोई उत्साह उस की बातचीत में नहीं होता था. बस, एक औपचारिकता थी जिसे वह किसी तरह निभा रहा था.

‘लगता है खुल कर बात करनी पड़ेगी,’ निर्णय ले कर दामिनी फिर से पति के घर आ गई. बात करने पर हालांकि विनय ने शैली से अपना कोई रिश्ता स्वीकार नहीं किया लेकिन दामिनी से उस की दूरी अब भी बरकरार थी. दामिनी ने गौर किया कि शैली का पूरे घर पर नियंत्रण है. सभी बड़े फैसलों में उस की सहमति आवश्यक होती थी. सुमित्रा उसे अपनी बेटी सा ही मानती थी लेकिन दामिनी सम  झ गई थी कि वह बेटी नहीं बल्कि बहू बनने का सपना पाल रही थी जो दामिनी के आने से चूरचूर हो गया.

अचानक बाहर गलियारे में हलचल हुई. दामिनी यथार्थ में आ गई. शायद सिद्ध आ गया है. श्मशानगृह जाने की तैयारी होने लगी. एक बार फिर से घर का माहौल गमगीन हो गया. परिजनों के क्रंदन के बीच विनय अपने आखिरी सफर पर निकल गया. दामिनी बिलकुल निर्विकार भाव से बैठी थी. घर की महिलाओं के लाख जोर देने के बावजूद उस ने अपनी चूड़ीबिंदी नहीं उतारी. मंगलसूत्र तो उस ने कभी का उतार कर विनय को थमा दिया था.

हां, उसी दिन जब उस ने विनय का घर छोड़ा था. जब उसे बैंक में पोस्ंिटग मिली थी. बैंक में नौकरी भी उसे कहां इतनी आसानी से मिली थी. उसे याद है वे सब कड़वे दिन. वे कसैली रातें. उसे कहां पता था कि जीवन ने उस के लिए क्याक्या सोच रखा है. वह तो शैली की शादी करवा कर अपनेआप को विजेता महसूस कर रही थी. शैली की शादी करवाना भी कहां आसान रहा था उस के लिए.

पढ़ाई करने से एक नहीं बल्कि कई फायदे होते हैं, जानें उन लाभ के बारे में

मार्क ट्वेन ने कहा था, ‘‘जो नहीं पढ़ता, वह कहीं से भी उस व्यक्ति से बेहतर नहीं है जो पढ़ नहीं सकता.’’ निरंतर पढ़ते रहने से हमारे व्यक्तित्व का निरंतर विकास चलता रहता है. मानव मस्तिष्क निरंतर काम करने वाली मशीन है जिसे हमेशा जानकारी, ज्ञान चाहिए होता है. पढ़ते रहने से हमारे दिमाग का पोषण होता है और दिमाग नकारात्मक सोच व चिंताओं से दूर रहता है. लगातार ज्ञान अर्जित करना बहुत आवश्यक है. पढ़ने से हमारे ज्ञान की नींव मजबूत होती है. जिन के पास ज्ञान होता है उन का व्यक्तित्व भी प्रभावशाली होता है. ज्ञान से हमारी बुद्धि का विकास होता है, हमारा मानसिक स्तर सुधरता है.

  1.  पढ़ने की आदत से हमारे पास कई जानकारियां होती हैं जिन से समयसमय पर हम दूसरों के भी काम आ सकते हैं.
  2.  पढ़ने से हमारी बुद्धि तेज होती है जिस के कारण हम किसी भी परिस्थिति में बिना घबराए तुरंत निर्णय ले सकते हैं.
  3.  हर व्यक्ति का ज्यादा से ज्यादा पढ़ने का उद्देश्य होना चाहिए क्योंकि पढ़ते रहने से हम स्वयं को शिक्षित करते जाते हैं और यह समय का सदुपयोग करने का सब से अच्छा साधन भी है.
  4.  पढ़ने से हमें बहुत सारी पुरानी संस्कृति व सभ्यताओं के बारे में पता चलता है.
  5.  सफल जीवन का रहस्य है जानकारी, ज्ञान. हमारी कई समस्याओं का हल कहीं न कहीं किसी किताब में मिल ही जाता है. किताबें हमारी टीचर, मार्गदर्शक होती हैं जिन से हमें प्रेरणा मिलती रहती है.
  6.  अच्छे लेखक हमें उस खूबसूरत, काल्पनिक दुनिया में ले जाते हैं जहां मनोरंजन का कोई और साधन या टैक्नोलौजी नहीं ले जा सकती.
  7.  दार्शनिक स्टीव जौब्स ने एक बार कहा था कि पढ़ने और सीखने से सफलता मिलती है जबकि जानकारी की कमी आप को छोटा व सीमित रखती है.
  8.  किसी विषय पर आप की जानकारी सीमित होगी तो आप किसी सामाजिक स्थिति में स्वयं को अकेला और पिछड़ा हुआ महसूस करेंगे. पढ़ने से अनेक विषयों की विस्तृत जानकारी मिलती है.
  9.  हम जब से पैदा होते हैं, हमें कहानियां सुनाई जाती हैं क्योंकि वे अवचेतन मन को प्रभावित करती हैं.
  10.  किताबों में बहुत ताकत होती है. सफल लोग बताते हैं कि कम से कम एक किताब ने उन्हें जीवन में प्रभावित किया होता है.
  11.  पढ़ने से अकेलापन खत्म होता है खासतौर से लंबे सफर पर. इसलिए किताबों को अपना सच्चा साथी बना लें. किताबें हमारी ऐसी विश्वसनीय दोस्त हैं जो कभी हमारा साथ नहीं छोड़तीं, हमें कभी नहीं छलतीं.
  12.  पढ़ने से हमारी याद्दाश्त सुधरती है, एकाग्रता बढ़ती है जिस से हम चरित्रों और तथ्यों को याद रखने में सफल होते हैं.
  13. पढ़ना मनोरंजन का सब से सस्ता साधन है. यह इंटरनैट और लाइब्रेरी में भी सुलभ है.
  14.  हर विषय पर बात कर के लोगों पर आप का अच्छा प्रभाव पड़ता है. यह दुखद है कि आजकल लोग सैलिब्रिटी गौसिप या टीवी के शोज की ही ज्यादा बातें करते दिखते हैं.
  15.  किताबें छोटी होती हैं, उन्हें कहीं ले जाना भी आसान है. न उन्हें बिजली की जरूरत होती है न उन्हें हानि पहुंच सकती है.
  16.  अगर आप को लिखने का शौक है तो पढ़ने से आप का लेखन भी सुधरता है.

तो अब हर हफ्ते या 15 दिनों में एक किताब पढ़ने का नियम बना लें. बस या ट्रेन में सफर करते समय भी पढ़ते हुए अपना समय अच्छी तरह बिताएं. यह व्यक्तिगत पसंद है कि हम उपन्यास पढ़ें या एजुकेशनल, रहस्यपूर्ण, सस्पैंस थ्रिलर या साइंस फिक्शन या इतिहास. अपने व्यक्तित्व को निखारने वाली किताबें या स्वास्थ्य संबंधी किताबें पढ़ कर अपने मस्तिष्क का विकास करें. पढ़ने से हमारा स्वास्थ्य भी सुधरता है. सोने से पहले कुछ देर पढ़ने से दिनभर की चिंताओं से छुटकारा मिल जाता है. सो, ज्ञान अर्जित करते रहें, पढ़ते रहें और आगे बढ़ते रहें.

जानें क्या होता है सिस्ट और क्यों हैं ये जानलेवा ?

इन दिनों लोग सिस्ट की बीमारी से अधिक परेशान हैं, खासकर महिलाएं. शरीर के अंदर पाई जाने वाली ‘सिस्ट’, जिस को मैडिकल भाषा में ‘इकाइनोकोकस ग्रैनुलोसस’ के नाम से जाना जाता है. इसे हाइडेटिड सिस्ट भी कहते हैं. यह एक विशेष कीड़े का अंडा होता है जिस के ऊपर कवच चढ़ा होता है. यह अंडा शरीर के जिस भी अंग में पहुंच जाता है वहां धीरेधीरे आकार में बड़ा होना शुरू हो जाता है. सिस्ट का शरीर के अंदर सब से प्रिय निवास स्थान या तो फेफड़ा होता है या फिर जिगर यानी लिवर. इस के अलावा मस्तिष्क, दिल, हाथ व पैर की मांसपेशियां और कभीकभी शरीर की हड्डियों के अंदर भी पाई जाती है.

यह कीड़ा सिर्फ 5 मिलीमीटर लंबा होता है. यह (कीड़ा) पहले कुत्ते की आंतों में निवास करता है और इस (कीड़े) की जीवनलीला 5 महीने से ले कर तकरीबन 2 साल तक होती है. अपनी इस छोटी सी जीवनयात्रा में ही यह कुत्ते की आंतों से निकलने वाले मल पदार्थों के जरिए लाखों की संख्या में अंडे, धरती की मिट्टी में पहुंचा चुका होता है.

ऐसे पहुंचती है शरीर में सिस्ट

हमारे देश में गंदगी, कीचड़ व नाले की भरमार है. मलमूत्र व कचरा जमीन पर खुलेआम पड़ा होता है. कुत्ते जहांतहां मलमूत्र त्याग कर देते जिस से जमीन और वातावरण दूषित होता है.

कहने का मतलब यह है कि मिट्टी, पानी व हवा में इस कीड़े (इकाइनोकोकस) के अंडों की भरमार है और ऐसी गंदी जगहों पर खोमचे वाले, चाट वाले, फलों का रस निकालने वाले, भेलपुरी बेचने वाले लाइन लगा कर खड़े होते हैं. जाहिर है कि खुले वातावरण में बिकने वाले खाद्य पदार्थों का इन कीड़ों के अंडों से मिश्रित हवा व पानी से आच्छादित होना निश्चित है. इस में कोई शक नहीं कि जब आप परिवार या मित्रों के साथ तफरीह के लिए निकलेंगे तो भला इन खुले आसमान में सड़कों के किनारे हवा के झोंकों से टकराते लुभावने भारतीय फूड का आनंद उठाने से पीछे नहीं हटेंगे. जब गरमागरम मसालेदार खाना आप के पेट में पहुंचेगा तो वह अकेला नहीं होगा बल्कि अपने साथ सिस्ट बनाने वाले अंडे भी समेटे होगा. आप को पता ही नहीं चलेगा क्योंकि ये कीड़े के अंडे इतने बारीक होते हैं कि आंख से दिखते ही नहीं.

फेफड़े में सिस्ट

पेट में अंडे पहुंचने के बाद उस के अंदर का कीड़ा बाहर निकल आता है और आंत की दीवार को छेद कर आंतों में स्थित खून की नलियों के जरिए जिगर में पहुंच जाता है और वहां से फिर शरीर के अन्य अंगों को प्रस्थान कर जाता है. शरीर में प्रमुख रूप से यह जिगर यानी लिवर और फेफडे़ में अपना स्थायी पड़ाव डाल लेता है. अपने पड़ाव पर पहुंच कर यह बढ़ना शुरू कर देता है और अपने चारों ओर एक कवच का निर्माण कर ‘हाइडेटिड सिस्ट’ को जन्म देता है और यह धीरेधीरे आकार में बढ़ना शुरू कर देती है. सिस्ट बन जाने पर कवच के अंदर सुरक्षित कीड़ा अपने बच्चों को जन्म देने लगता है और कुछ समय के बाद इन की संख्या काफी मात्रा में हो जाती है जिन्हें मैडिकल भाषा में ‘डौटर सिस्ट’ कहते हैं.

ऐसे हो सकती है सिस्ट

अगर आप ऐसे इलाके में निवास करते हैं जहां भेड़ों व बकरियों को पालने व बेचने का धंधा होता है या फिर आप या आप के बच्चे गलीनुक्कड़ में पाए जाने वाले आवारा कुत्तों के साथ खेलते हैं या उन को स्पर्श करते हैं. या फिर आप ने जो घर पर कुत्ता पाल रखा है उस को न तो नियमित इंजैक्शन लगाते हों और न ही उस की समुचित सफाई का ध्यान रखे हों और वह पालतू कुत्ता घर के अंदर ज्यादा समय बिताने के बजाय बाहर की गंदी नालियों में मुंह मारता घूमता हो, तो सिस्ट रोग हो सकता है.

अगर आप व आप के बच्चे खाना खाने के पहले अपने हाथों को साबुन से न साफ करते हों, जमीन व मिट्टी को स्पर्श करने के बाद बगैर हाथ धोए सीधा खाना खाने लगते हों. अगर आप व आप के बच्चों के गंदे व लंबे नाखून हैं जिन में मिट्टी भरी रहती है. अगर आप सड़कों पर खुली हवा में रखे फू्रट चाट व अन्य फास्ट फूड खाने के शौकीन हैं तो आप को और आप के बच्चों का फेफड़े या जिगर के सिस्ट रोग हो सकते हैं. अगर आप सड़कछाप घटिया ढाबे में नौनवेज खाने के शौकीन हैं तो संभावना इस बात की ज्यादा है कि सिस्ट के कीड़े के अंडों से भरपूर मीट का अधपका टुकड़ा आप के पेट के अंदर जा कर सिस्ट बना सकता है.

अगर आप खांसी, बलगम, छाती दर्द, इस्नोफीलिया से ग्रस्त हैं तथा कभीकभी खांसी के साथ खून भी आ जाता है तो संभावना हो सकती है कि आप छाती के सिस्ट रोग से पीडि़त हों. अगर पेट के दाहिने हिस्से में दर्द होता है और उसी हिस्से में गांठ भी मालूम पड़ती है तो हो सकता है कि जिगर यानी लिवर में सिस्ट विराजमान हो.

इलाज

फेफड़े के सिस्ट रोग से पीडि़त मरीज को चाहिए कि वह किसी अनुभवी थोरेसिक सर्जन से परामर्श करे और उन की निगरानी में जल्द से जल्द इलाज शुरू कर दे वरना फेफड़े की सिस्ट फट जाने पर पीडि़त मरीज को गंभीर परिणाम भुगतने पड़ सकते हैं. छाती का एक्सरे सिस्ट की उपस्थिति को प्रमाणित करने वाली सब से सस्ती व सरल जांच है.

इस के अलावा सिस्ट का आकार, उपस्थित होने का स्थान और इलाज का निर्धारण करने के लिए अन्य आधुनिक जांचें जैसे छाती का मल्टीस्लाइड सीटी स्कैन और एमआरआई की जरूरत पड़ती है. इसलिए हमेशा ऐसे अस्पतालों में जाएं जहां इन सब जांचों की सुविधा हो और एक अनुभवी थोरेसिक सर्जन की उपलब्धता हो. कुछ विशेष अत्याधुनिक खून की जांचों की आवश्यकता भी पड़ सकती है.

सिस्ट के इलाज के निर्धारण में कई बातों का ध्यान रखना पड़ता है, जैसे सिस्ट का आकार, छाती के अंदर उस का निवास स्थान और मरीज की शारीरिक अवस्था. फेफड़े की सिस्ट का सब से उत्तम और आदर्श इलाज औपरेशन ही है. सिस्ट से ग्रस्त मरीज को चाहिए जितनी जल्दी हो सके, औपरेशन के जरिए फेफड़े की सिस्ट को निकलवा दे. औपरेशन में सिस्ट के साथ फेफड़े का कुछ भाग निकालना पड़ सकता है.

चुनें अत्याधुनिक अस्पताल

औपरेशन में विशेष तकनीक अपनानी पड़ती है जिस में सिस्ट निकालने के पहले ही विशेष दवाएं डाल कर सिस्ट के अंदर पाए जाने वाले तरल पदार्थ में उपस्थित जिंदा कीड़ों को मार कर उन्हें निष्क्रिय करना पड़ता है वरना औपरेशन के बाद भी और नईनई सिस्ट के बनने का खतरा बना रहता है. तरल पदार्थ को छाती के अंदर बगैर गिराए, हिफाजत से निकालना पड़ता है.

एक विशेष दवा अल्बेंडाजोल औपरेशन के पहले व बाद में दी जाती है. इसलिए ऐसे मरीजोें को चाहिए कि किसी बड़े अस्पताल में, जहां अत्याधुनिक औपरेशन थिएटर व आईसीयू की सुविधा हो और जहां फेफड़े के औपरेशन नियमित रूप से होते हों, अपना इलाज कराएं. इस तरह के औपरेशन के लिए एक अनुभवी थोरेसिक सर्जन का होना बहुत जरूरी है.

कभीकभी औपरेशन के बजाय सूई डाल कर फेफड़े की सिस्ट का पानी निकाल कर उस में दवा भरनी पड़ती है. पर यह स्थायी इलाज नहीं है और दूसरे, सूई से निकालते समय सिस्ट के अंदर का पानी छाती के अंदर फैलने का डर रहता है जिस से छाती व दूसरे अंगों में और नईनई अनगिनत सिस्ट के बनने का खतरा पैदा हो जाता है. इसलिए सूई द्वारा इलाज कुछ विशेष परिस्थितियों में ही मजबूरन करना पड़ता है, जहां मरीज की अवस्था ठीक न हो.

यह भूल मत करना : माधवी की शादी हुई या नहीं ? – भाग 1

मेहंदी लगातेलगाते इंदू और वेदा इतनी थक गई थीं कि कुछ मिनटों में ही सो गईं. मौसी ने ही मेहंदी सनी सारी कटोरियां धोईं और कोन बटोरे. मेरी भी आंखों में चुभन हो रही थी, कुछ तो रोरो कर, कुछ जागजाग कर.

‘‘अभी तुझे बहुतेरे रतजगे करने हैं लाडो, सो जा,’’ तभी बूआ ने कहा तो मैं ने पलकें झका लीं और ‘‘बत्ती बुझ देना, बूआ,’’ कह कर पलंग से जा टिकी. सामने आंगन की बत्ती जल रही थी. बगल के कमरे से जलते दीए का मद्धम प्रकाश आ रहा था.

धीरेधीरे सारी आवाजें सिमट गईं. नीचे रसोईघर से कटोरियों के धुलने की आवाज आ रही थी.

‘‘एकता मौसी को भी भेज देना, बूआ, 3 बज रहे हैं,’’ मैं ने कमरे की बत्ती बुझ कर बाहर जाती बूआ से कहा.

‘‘हां, भेज देती हूं.’’

कुछ ही क्षणों में एकता मौसी के कदमों की आहट हुई. वे अंदर आते ही बोलीं, ‘‘उठो माधवी, ऊपर लेट जाओ. बैठेबैठे पीठ अकड़ गई होगी,’’ कह कर मौसी ने मुझे सहारा दे कर उठाया और पलंग पर लिटाया, फिर बोलीं, ‘‘मेरे लिए मेरी सहेली सपना ने यह सब किया. कटोरी में से शक्कर तथा नीबू के रस का घोल रातभर लगाती रही थी. रातभर सोने न दिया, ठिठोली करती रही थी.’’ मौसी मुझे बताती रहीं.

‘‘मौसी, मेरे पास ही लेट जाइए न,’’ मैं ने कहा तो मेरी चादर ठीक करतेकरते वे ठिठकीं और बोलीं, ‘‘क्या बात है, माधवी?’’

मैं अंधेरे के बावजूद उन से नजरें चुराती हुई बोली, ‘‘कुछ नहीं, आप भी थक गई होंगी न इसीलिए.’’

‘‘सच बताना, माधवी,’’ मौसी मेरी बात काटती हुई बोलीं.

‘‘नहीं मौसी, बस’’

मगर जब वे मेरे पास लेट गईं तो मैं ने पूछा, ‘‘मौसाजी कब आएंगे, मौसी?’’

‘‘न…नहीं आएंगे.’’

‘‘क्यों?’’ मैं ने चौंक कर पूछा.

‘‘बस, नहीं आएंगे. वे मेरे मायके के किसी भी काम में नहीं आते.’’

‘‘क्यों, मौसीजी?’’

मेरे इस सवाल पर वे कुछ क्षण चुप रहीं, फिर बोलीं, ‘‘सो जाओ, माधवी, कल हल्दी चढ़ेगी,’’ कह कर उन्होंने करवट ले ली.

किंतु मैं सो न सकी. आलोक का चेहरा, जो दिनभर से मैं ने आंखों में छिपा रखा था, रात के अंधेरे में चमकने लगा. ‘आलोक, आलोक,’ मेरे होंठ बुदबुदा उठे, ‘जब आएगा तो मुझे ढूंढ़ेगा.’

आलोक 6 माह के लिए जापान गया है. 6 साल से हम एकदूसरे को जानते हैं.

‘जापान से आ जाऊं, फिर मुझे तुम से कुछ पूछना है,’ आलोक ने कहा था.

‘क्या?’

6 साल कितनी जल्दी बीत गए. बीएससी करने विश्वविद्यालय चली गई और वह सूचना तकनीक का पाठ्यक्रम करने बेंगलुरु चला गया. साल में 2 बार आता. हम मिलते भी. हम एकदूसरे को मन के राज बताते. मैं उस से प्रेम करने लगी थी और मुझे विश्वास था कि वह भी मुझ से प्रेम करता था, वरना क्या वह मुझे फूल लाला कर देता. बेंगलुरु से मुझे फोन करता, मुझ से कहता, ‘तुम आज बहुत अच्छी लग रही हो’ या कि ‘जापान से आ कर तुम से कुछ पूछूंगा?’

इन सब के अलावा अन्य युवकों से मुझे बचाना, सदा मेरा ध्यान रखना कभी न भूलता. मैं जानती हूं कि वह मुझे बहन के रूप में नहीं देखता. उस ने स्पष्टतया पूछा था, ‘तुम उन लड़कियों में से नहीं हो न, जो लड़कों से बात करने से पहले उन्हें राखी बांधना जरूरी समझती हों?’

हालांकि उस ने इस बात को चुटकुले की तरह पचाना चाहा था पर संदेश तो मुझे मिल ही गया कि वह मुझे बहन तो नहीं ही बनाना चाहता.

मैं ने भी कार्डों, नजरों और जैसा भी मुझ से बना, उसी जरिए आलोक को जता दिया था कि मैं उस से प्रेम करती हूं. मगर फिर भी स्पष्ट बात तो कुछ हो ही नहीं पाई थी.

जब मेरी सगाई हुई, उस से पहले ही मैं उसे लिख चुकी थी. अब शादी की रात मेरे सिर पर आ खड़ी हुई है और आलोक का कोई संदेश मेरे पास नहीं आया. एक सिसकी निकल पड़ी मेरे अंदर से. तुरंत मौसी का हाथ मेरे सीने पर आया, ‘‘माधवी, क्या बात है?’’ फुसफुसा कर उन्होंने पूछा तो मैं सुबकसुबक कर रो पड़ी.

उन्होंने उठ कर मुझे अपनी छाती से लगा लिया, मैं रोतेरोते जब चुप हो गई तो मुझे पलंग पर लिटा, पानी ले आईं और बोलीं, ‘‘लो, पियो,’’ फिर बोलीं, ‘‘बत्ती जलाऊं?’’

‘‘नहीं, मौसी,’’ मैं ने पानी का गिलास उन्हें थमाते हुए कहा.

‘‘हां, अब बताओ, क्या बात है?’’

‘‘कुछ नहीं, मौसी.’’

‘‘नहीं, कुछ तो है, माधवी. बता कर जी हलका कर लो. ससुराल में कितनी ही बातों से अभी दोचार होना है. नएनए लोग मिलेंगे, सब से निबटना है. ऐसे

में यहां से कुछ बोल मत ले जाओ,’’ मौसी बोलीं.

उन की आवाज में ‘कुछ’ था. उन्होंने फिर पूछा, ‘‘जब कोई बात नहीं तो उदास क्यों हो?’’

‘‘क्या घर छोड़ने का दुख न होगा?’’ मैं बोली.

‘‘माधवी, मां का घर और इस उम्र के साथियों के घर छूटने का दुख अलगअलग होता है.’’

‘‘मौसी, आप क्या कह रही हैं?’’

‘‘तुम्हारी आंखों में बेबसी की छटपटाहट देख रही हूं.’’

‘‘मौसी, मैं…’’ कहती मैं फिर रो पड़ी. मौसी ने मेरी ठोड़ी पकड़ मेरा चेहरा अपनी ओर घुमाया और धीरे से पूछा, ‘‘तुम किसी और से शादी करना चाहती हो?’’

यह सुन कर मैं ने सिर झका लिया. मौसी फिर बोलीं, ‘‘आलोक से?’’

मैं ने चौंक कर सिर उठाया.

‘‘ठीक है न, माधवी?’’

‘‘मगर मौसी, आज तक आलोक ने तो मुझ से कुछ कहा नहीं पर मैं ने पिछले कितने बरसों से उसे ही, मेरा मतलब है, उस से ही…’’ इस से आगे मेरे गले से शब्द ही नहीं निकल पाए.

‘‘माधवी, उसे पता है कि तुम्हारी शादी हो रही है?’’

‘‘हां, मौसी. सगाई से पहले ही मैं ने उसे लिख दिया था, मगर आज तक कोईर् उत्तर नहीं आया.’’

‘‘कितनी बार लिखा.’’

‘‘3 बार.’’

‘‘पता सही था?’’

‘‘हां, मैं ने आलोक को इस से पहले भी तो लिखा. दूसरे दोस्तों ने भी तो उसे लिखा है.’’

‘‘उन से पूछताछ की?’’

‘‘नहीं, मौसी, कैसे करती?’’

‘‘क्यों? क्यों नहीं कर सकती थीं? मुझ से तो कहतीं, मैं करती. साहस न हो तो प्रेम नहीं करना चाहिए, माधवी.’’

दोस्त अजनबी : आखिर क्या हुआ था सुधा और पुण्पावती के बीच ? – भाग 1

ट्रेन के कूपे में अपनी बर्थ पर पहुंच कर मैं एक तरह से ढह ही गई. कूपे का अटेंडैंट मेरा भारी बैग खिसकाता ले आ रहा था. यों तो पोलैंड के वार्सा स्टेशन पर कुली नहीं थे पर न जाने क्यों, शायद मैं प्रथम श्रेणी की यात्री थी या विदेशी थी, उस ने इशारे से अटैची के लिए हाथ बढ़ाया तो मैं ने झठ हैंडल उसे पकड़ा दिया.

स्टेशन के गेट से ले कर ट्रेन तक सामान घसीटने में ही मैं हांफने लगी थी. इस बीच मेरा सामान निर्धारित स्थान पर रखा जा चुका था. अटेंडैंट को थैंक्स कह कर खुद को व्यवस्थित करने में जुट गई. अभी 2 यात्री और आते होंगे, मैं ने सोचा, कितना अच्छा हो कि वे महिलाएं हों. तभी खिडक़ी के बाहर निगाह गई, ट्रेन तो चल पड़ी थी. कोई अफरातफरी नहीं, कोई सीटी-झंडी नहीं, न कोई दौड़ते हुए चढ़ा न कोई हड़बड़ा कर उतरा.

यों तो अब तक मैं यूरोप में कई ट्रेन यात्राएं कर चुकी थी पर अभी भी ट्रेन का इस तरह चुपचाप चल पडऩा देख कर हैरानी होती थी. इस का मतलब अब कोई दूसरा सहयात्री नहीं होगा. अच्छा लगा, मैं इस समय अकेले ही रहना चाहती थी.

‘‘टिकट प्लीज,’’ टीटी आ गया था. मैं ने टिकट और पासपोर्ट दे दिया. थोड़ी देर उलटपलट कर देखने के बाद उस ने दोनों चीजें वापस कर दीं.

‘‘टी आर कौफी इन द मौर्निंग?,’’ वह पूछ रहा था.

‘‘कौफी.’’

‘‘ओके, प्लीज क्लोज द डोर,’’ और वह निकल गया.

अब मैं ने कूपे का मुआयना करना शुरू किया. एक ओर सामान रखने की जगह थी जिस पर मेरी अटैची रखी थी. उस पर 3 हैंगर लटके थे. कोने में तिकोनी टेबल थी जिस का टौप उठाने पर वौशबेसिन था और नीचे डस्टबिन. टेबल के ऊपर छोटी सी अलमारी थी. खोल कर देखा, 3 चौकलेट, केक, 3 बोतल पानी, गिलास और 3 पैकेट्स में तौलिया-साबुन रखे थे. कूपे में 3 ही बर्थ थीं. सब पर कायदे से सफेद चादर बिछी थी. सब देख मन खुश हो गया. चौकलेट खा कर पानी पिया तो कुछ राहत मिली. बाहर देखा, अंधेरा होने लगा था. खिडक़ी की स्क्रीन बंद की और लाइट बुझा कर बिस्तर पर लेट गई.

आंखें बंद होते ही ट्रेन रुक गई, ‘ओह, ये स्काइप पर पुण्पावती कैसे आ गई?’

‘‘कैसी हो सुधा, अकेलेअकेले बड़ा जी घबरा रहा था, सोचा तुम से थोड़ी बातें कर लूं.’’

‘‘मगर अभी मैं तुम्हारे घर से ही तो ट्रेन में चढ़ी थी. इतनी जल्दी बुदापैश्त पहुंच भी गईं?’’

‘‘मेरे घर? मैं तो कब से तुम्हें बुला रही हूं, तुम मेरे पास आईं ही कब?’’

‘‘अअअअच्छाआआआ…बाद में बात करती हूं, अभी तबीयत ठीक नहीं लग रही,’’ मैं ने घबरा कर लैपटौप बंद कर दिया. प्यास से गला सूख रहा था. झटके से आंख खुल गई. मैं तो ट्रेन में अपनी बर्थ पर थी, पानी पिया, ओह गौड, नो मोर पुण्पावती…मेरा सिर घूम रहा था. पिछले एक साल की तमाम यादें न जाने कब का बदला लेने एकसाथ टूट पड़ीं.

बुदापैश्त के 2 कमरे के फ्लैट में अनुराग के काम पर चले जाने के बाद इस कमरे से उस कमरे में भटकती मैं. कभी एक बालकनी में खड़ी होती कभी दूसरी में. न अगलबगल में कोई दिखता न सडक़ पर. ‘हे प्रकृति, कैसे कटेंगे 2 साल इस मनहूस शहर में. हमारे यहां तो बालकनी में खड़े हो कर ही इतना मनोरंजन हो जाता है कि समय कब उड़ गया, पता ही नहीं चलता. अब मैं इस पीढ़ी की तो हूं नहीं जिस की सारी दुनिया टीवी, लैपटौप या मोबाइल में समाई रहती है. न हिंदी के गाने, न हिंदी के चैनल्स’. घबराया बेचैन मन तलाश में कि अनुराग के जाने के बाद कुछ तो समय बीते. हिंदुस्तान से हंगरी के समय का भी 7 घंटे का अंतर था, इसलिए हर समय वहां भी बात करना संभव नहीं था.

एक दिन, ‘अच्छा, चलो आज तुम्हें सरप्राइज देते हैं,’ कहते हुए अनुराग ने स्काइप खोला. मित्रों की लिस्ट में एक नाम ‘पुण्पावती’ था.

‘ये कौन हैं?’

‘तुम्हारी तरह एक बोरियत की मारी,’ अनुराग मुसकराए, ‘अंतर इतना भर है कि ये वार्सा यूनिवर्सिटी में विजिटिंग प्रोफैसर हैं.’

‘पति को छुट्टी नहीं मिली सो वे आ नहीं पाए. बेटी नौकरी करती है, सो क्लास के बाद बिलकुल अकेली हो जाती हैं.’

‘इन का समय तो क्लास में कट ही जाता होगा.’

‘लो यार, तुम्हें कौन सा रातदिन इन्हीं से बात करनी होगी. धीरेधीरे तुम्हारा सर्कल बन जाएगा.’

‘ठीक है. वे आनलाइन हैं, मिलाओ, देखें बात हो सकती है या नहीं.’

मेरे मन में कोई खास उत्साह नहीं था. हमारे लैपटौप का कैमरा खराब था सो केवल आवाज सुनी जा सकती थी.

जाने परदेश के अकेलेपन की मार थी या एकजैसी परिस्थितियां, बातचीत दोस्ती में बदलती गई. बड़े सहज रूप में एक दिन उन्होंने वार्सा आने का निमंत्रण दिया और थोड़ी झिझक, संकोच व अनुराग के कहने के बाद मैं ने उसे मान भी लिया.

पुण्पावती खुश हो गई, ‘अरे वाह भाई सुधा, मुझे तो उम्मीद नहीं थी. मेरी इधर छुट्टियां होने वाली हैं, मैं परेशान थी कि टाइम कैसे पास होगा. मैं बुदापैश्त पहले न आ चुकी होती तो जरूर आ जाती. अब तुम पोलैंड आओगी तो खूब घूमेंगे. अरे हां, तुम जरमनी घूम आई हो क्या?’

‘नहीं, कोई साथ ही नहीं मिलता. अनुराग के पास तो टाइम ही नहीं है.’

‘कोई बात नहीं, तुम अनुराग जी से कह कर वहां कोई होटल बुक करा लेना. डेट देख लेते हैं. यहां से फिर जरमनी चलेंगे. केवल बर्लिन.’

कुछ दिन कार्यक्रम तय करने की सरगरमियां चलती रहीं. लंबीलंबी बातें, एक ओर पुण्पा से दूसरी ओर अनुराग से. आखिरकार कार्यक्रम फाइनल हुआ.

‘पुण्पा, मैं 3 दिन तुम्हारे साथ रह कर लिथुआनिया चली जाऊंगी, वहां मेरे मामा रहते हैं, 2 दिन उन के पास रह कर वापस बुदापैश्त आ जाऊंगी.’

‘सिर्फ 3 दिन के लिए आना भी कोई आना हुआ?’ मैं ने तो सोचा था खूब घूमेंगे. मेरा भी कुछ टाइम अच्छा पास हो जाएगा, मगर तुम तो…’ पुण्पा की आवाज रोंआसी हो गई.

छंटती हुई काई : क्या निशात के ससुराल वाले दकियानूसी सोच छोड़ पाएं ? – भाग 1

ड्यूटी खत्म कर मैं शाम को घर लौट रहा था कि तभी ताज कंपाउंड में एक दुकान के सामने वाली 3 मंजिला पीली बिल्डिंग के मैनगेट से हनीफ और उस के बेटे को निकलते देख कर बाइक धीमी कर दी. बिल्डिंग के नेमप्लेट पर सुनहरे अक्षरों में लिखा था ‘सुल्तान मंसूरी, टीसी, प्रैसीडेंट, पसमांदा वैलफेयर समिति.’

मैं ने पूछा,”यहां किस काम से आए?’’

हनीफ के चेहरे पर खिंची मायूसी और फिक्र के घनेरे बादल देख कर बात जबान पर ही ठहर गई, “जी…जी…हां… नहीं… कुछ खास नहीं. बस, एक फैमिली मैटर पर सलाह लेने आया था, प्रेसिडैंट साहब से,’’ आवाज में खुरदुरापन और झुंझलाहट साफ झलक रही थी. वह चाह कर भी अपनी समस्या छिपा नहीं सका.

‘‘चलिए, चौक पर एक रेस्तरां में मिलते हैं, तब तफसील से बात करेंगे. सब ठीक हो जाएगा,’’ मैं ने बाइक स्टार्ट कर दी.

मेरा क्लासफैलो हनीफ 6 बहनों का अकेला भाई है. पिता की बेहद तंग और आर्थिक स्थिति के कारण 6वीं कक्षा से आगे नहीं पढ़ सका. बाजार जा कर ठेले पर रैडिमेड कपड़े बेच कर रोजीरोटी की जुगाड़ करने लगा. फिर किसी रैडिमेड गारमैंट की दुकान पर नौकरी करने लगा.

कुशाग्र, मेहनती और लच्छेदार बातों से प्रभावित कर किसी भी ग्राहक को खाली हाथ लौटने न देने का गुण रखने वाले हनीफ ने 25 साल की उम्र में किराए की दुकान ले कर अपनी रैडीमेड गारमैंट की थोक दुकान खोल ली. कानपुर, दिल्ली से माल ला कर
दुकानों को सप्लाई करने लगा.

3 साल बाद उस ने दूसरी दुकान खरीद ली और मार्केट में अपनी साख बना ली. देखते ही देखते उस की जद्दोजेहद और मेहनतकशी ने उसे 2-2 बिल्डिंगों का मालिक बना दिया. उस का घर बच्चों की किलकारियों से गूंजने लगी. खुशमिजाज, मिलनसार इंसान के तौर पर उस का व्यक्तित्व लोकप्रिय होने लगा.

चाय की दुकान पर हमारी रोज मुलाकात होती और बातचीत का सिलसिला भी देर तक चलता. लेकिन 3 साल पहले मेरे और उस के बीच कुछ ऐसा घटा था जिस की कड़वाहट आज भी मेरे दिलोदिमाग में बसी थी. यहां तक कि हमारा सलामकलाम भी बंद हो गया. उस तल्ख हादसे के बाद मैं उस के घर से हो कर जाने वाली सड़क पर से भी नहीं गुजरता. सालों बाद हनीफ को यकायक सामने देख कर मन कसैला तो बहुत हुआ लेकिन उस के चेहरे पर उड़ती हवाइयां और माथे की सिलवटें देख कर इंसानी रिश्ते का ऐहतराम करते हुए बात करनी पड़ी.

अभी अपने दरवाजे पर बाइक खड़ी कर ही रहा था कि तीसरी बेटी की चहकती आवाज ने आकर्षित कर लिया, ‘‘अब्बू, अभी घर के अंदर नहीं आएंगे आप? पहले जा कर कुछ मीठा ले आइए. फिर धमाकेदार खबर सुनिए,’’ शोख, चंचल और हंसमुख बेटी दरवाजे पर रास्ता रोक कर खड़ी हो गई.

“अच्छाअच्छा बेटी, पहले खबर तो सुना दीजिए. फिर हवा की तरह जा कर तूफान की तरह मिठाई ले कर लौट कर आते हैं,’’ मैं बेटी की मासूमियतभरी अदा पर मुसकरा कर बोला.

‘‘अब्बू, इस मोटी ने इंजीनियरिंग इंट्रेस ऐग्जाम में बेहतरीन रैंक हासिल किया है,’’ मंझली बेटी छोटी को पीछे खींच कर खुश हो कर बोली.

‘‘वाहवाह, आप से ऐसी ही उम्मीद थी. शाबाश मेरा बेटा,’’ कहते हुए जलतरंग सी हंसी वाली बेटी का माथा चूम लिया तो वह मुझ से लिपट गई. मारे खुशी के मेरी पलकों की कोरें भीगती देख कर दोनों बेटियों और बीवी की आंखें भी छलछला गईं.

मैं रेस्तरां से बाहर हनीफ का इंतजार करने लगा. ऐसा क्या घट गया कि हनीफ जैसे मजबूत और निडर शख्स को इतना गमजदा बना दिया. हनीफ और मैं धीरेधीरे एक जगह पर बैठ गए.

हनीफ थोड़ी देर तक टोपी की तह बनाता और खोलता रहा. उस के अंदर की बेचैनी को जुमले बनाने में वक्त लगा,”वे मऊरानीपुर वाले हमारे समधी हैं न, अजमेरी साहब. कल अपनी अहलिया के साथ आ कर मेरी बेटी निशात को घर पर छोड़ गए.’’

मऊरानीपुर वाले अजमेरी साहब के तीसरे बेटे से पिछले साल ही हनीफ ने अपनी बेटी निशात का निकाह पढ़वाया था, जो एक बेटी की मां भी बन गर्ई थी.

‘‘लेकिन क्यों?’’ मैं आश्चर्यचकित रह गया. मुझे याद है, हनीफ मंसूरी को अपनी बेटी की शादी में दिल खोल कर खर्च करते देख मंसूरी समाज के आर्थिक तौर पर कमजोर लोगों को अपनी बेटियों का भविष्य खतरे में पड़ता दिखाई देने लगा था.

‘‘पक्यात के समय ₹5 लाख से एक धेला कम नहीं,’’ समधिन अड़ गई थीं. बहुत समझाया लेकिन हनीफ को लड़के की मां की मांग पूरी करनी पड़ी.

‘‘लड़का सरकारी नौकरी करता है. महीने की बंधीबधाई पगार है, साथ में सरकारी सुविधाएं… बेटी की आरामदेह जिंदगी की गारंटी है,’’ माअशरे के लोगों ने समझाया था.

तीनसितारा होटल में बारात के ठहरने का इंतजाम, कार, गृहस्थी की जरूरतों की तमाम चीजें और डिजाइन की चीजें. समधिन के लिए सोने का सैट. समधी, देवर एवं ननदों के साथ उन के शौहरों और बच्चों को सोने की चैन, अंगूठियां एवं कान के झुमके, बारात में आए मर्दऔरतों के लिए सूट. घरातीबारातियों के लिए बुफे सिस्टम में कई डिशेज वाला खाना और स्नैक्स. कुल मिला कर ₹15 लाख खर्च किए थे हनीफ ने अपनी बेटी की शादी पर.

1 साल ही में नवासी पैदा हो गई तो बच्चे के लिए जेवर, झूला, बिस्तर, गरम कपड़े, पूरे घर के लिए कपड़े… पूरे ₹3 लाख और खर्च किए थे हनीफ ने. इतना सब देने के बावजूद बेटी को हनीफ के घर वापस छोड़ जाने पर समधियाने की नीयत और बरताव पर ढेर सारे सवाल उठने लगे.

“उस की सास अकसर कहती है कि बेटी को बीए की डिगरी तो दिलवा दी है, लेकिन ससुराल में रहने और निभनेनिभाने का तरीकासलीका नहीं सिखलाया गया है. घर का सारा कामकाज आता है, यह भी झूठ बोला था मांबाप ने. बात करने तक की तमीज नहीं है. शौहर को ले कर अलग रहने की प्लानिंग कर रही है.

“सास कहती हैं कि कल की छोकरी हमें तौरतरीके सिखला रही है. बातबात पर अपने बिजनैसमैन बाप की दौलत का घमंड दिखलाती है. सुन कर लगता है कि इतना पैसे वाला व्यापारी बाप कहीं अरब का बादशाह तो नहीं है. ऐसी छोटीछोटी, तर्कहीन, अर्थहीन बातें कर के मेरी बेटी का जीना हराम कर दिया है अजमेरी के घर वालों ने,’’ बतलाते हुए हनीफ का गला भर आया था.

बेटी का दर्द मुझ से भला ज्यादा और कौन समझ सकता है. मैं ने उस के कंधे पर हमदर्दी भरा हाथ रखा तो वह कमजोर दीवार की तरह बिखरने लगा. हनीफ के 1-1 शब्द उन की जाहिलियत, लालचीपन की कलई खोल रहा था.

वह नाजुक सी लड़की : क्या मंजरी और रोहन की शादी हो पाई ? – भाग 1

“मां, क्या सामने वाले मकान में कोई किराएदार आ गए हैं? वहां लाइट जल रही है,” रोहन ने अपनी मां सुजाताजी से पूछा.

‘‘हां, दोपहर में मैं ने ट्रक से सामान उतरते हुए देखा था. पतिपत्नी और एक सुंदर और नाजुक सी बेटी है. मैं उन के घर चाय ले कर गर्ई थी, तो उन्होंने कह दिया कि हमलोग चाय नहीं पीते हैं. महिला ने अपना नाम भी नहीं बताया था. थोड़ी अक्खड़ सी लग रही थीं.’’

रोहन 22 साल का स्वस्थ, सजीला, हंसमुख सुजाता और सुरेश का इकलौता बेटा है. पिता की बाजार में रैडीमेड कपड़ों की चलती हुई दुकान है. मां सुजाता गृहिणी हैं. मध्यवर्गीय परिवार था.

मां के मुंह से सुंदर और नाजुक सी लडक़ी सुन कर उस को देखने की जिज्ञासा जाग उठी थी. उस की बालकनी और उन का कमरा आमनेसामने था. किशोरवय मन की असीम उत्कंठा के कारण हवा में परदों के हिलते ही वह सुंदर सी लड़की को झांकने का प्रयास करता, पर उस के दीदार से वह वंचित रह जाता था.

लगभग 10-15 दिनों के बाद वह जबतब दिखने लगी थी. कभी झाड़ू लगाती हुई, तो कभी कपड़े सुखाती हुई. हर समय व्यस्त और अपने में उलझी हुई.

एक दिन सुजाता ने उसे बताया कि उस की मां का नाम माधुरी है. वे पार्षद का चुनाव लड़ी थीं, लेकिन चुनाव हार गई थीं.

“मां, तभी उन के यहां लोगों की चहलपहल बनी रहती है. अच्छा है, कोई परेशानी होगी, तो काम आसानी से हो जाएगा.”

“मुझे तो नहीं लगता कि वे किसी का काम करती होंगी,” सुजाताजी बोलीं.”

रोहन सामने वाली लडक़ी के बारे में अधिक से अधिक जानने को उत्सुक हो उठा था. वह बदरंग सा सलवारकुरता पहनी रहती. उस का चेहरा डराडरा हुआ, उदासी के आवरण से ढका रहता. वैसे, उस का रंग दूध के माफिक सफेद था, आंखें बड़ीबड़ी, कजरारी और पतले होंठ और काले घुंघराले बाल. रोहन की नजरें तो उस पर से हठती ही नहीं थीं, लेकिन आपस में नजरें मिलते ही वह डरी हुई हिरणी की भांति कुलांचे भरती हुई पलभर में अंदर भाग जाती थी. रोहन तो उस के प्यार में पागल ही हो चुका था.

काफी दिनों की लुकाछिपी के बाद एक दिन जब वह कालेज जाने के लिए अपनी स्कूटी निकाल रहा था, तभी वह भी अपनी साइकिल निकाल कर गेट बंद कर रही थी. दोनों की आंखें चार हुई थीं. उस को मुसकराते देख कर मंजरी ने अपनी आंखें झुका ली थीं. उस के माथे पर चोट का काला निशान देख वह चौंक उठा था, फिर उस के हाथों की चोट, जिसे वह अपने दुपट्टे से छिपाने का असफल प्रयास कर रही थी, उस की आंखों से छिप नहीं सकी थी.

अब तो वह उस से बात करने के लिए बेचैन हो उठा था. वह उस के इंतजार में एक जगह रुक गया था. संयोगवश कुछ दूर जाने के बाद चौराहे पर रैडलाइट हो जाने के कारण सारा ट्रैफिक रुक गया था. वह अपनी साइकिल किनारे से निकालने का प्रयास कर रही थी, तभी एक बाइक वाले के धक्के के कारण वह
अपना बैलेंस नहीं संभाल सकी और साइकिल के साथ ही गिर पड़ी थी. रोहन की सांसे तेजी से चलने लगी थीं और दिल जोरजोर धडक़ने लगा. उस ने जल्दी से उसे सहारा दे कर उठाया था,”आप को चोट तो नहीं लगी?”

“नहीं, मैं ठीक हूं.”

“चलिए, मैं आप की चोट की ड्रैसिंग करवा दूं. उस के हाथ से खून बह रहा था.

“नहीं, आप रहने दीजिए. अम्मां को मालूम होगा तो वह मुझे मारेंगी. सचाई उस के मुंह से निकल पड़ी थी.”

उस ने अपने जेब से रूमाल निकाल कर उस की चोट पर जबरदस्ती बांध दिया था. कैमिस्ट शौप से एक ट्यूब भी खरीद कर दिया था.

“आप के माथे पर चोट कैसे लगी?”

“मैं सीढ़ी से गिर गई थी.” उस के चेहरे से उस का सफेद झूठ साफ झलक रहा था.

उस ने घबरा कर रूमाल खोल कर वापस कर दिया,”मैं स्कूल के लिए बहुत लेट हो गई हूं,” कहती हुई वह जल्दी से अपनी साइकिल पर बैठ कर वहां से चली गर्ई. वह कुछ देर तक वहां पर ठगा सा खड़ा रह गया था.

यह थी, उस की पहली मुलाकात. उस ने घर लौट कर मां को पूरी बात बता दी. घर सामने होने के कारण वहां आनेजाने वालों पर उन लोगों की निगाहें पड़ ही जाती थीं. उन के यहां अकसर शाम को कुछ लोग आया करते और देर तक बैठकें हुआ करती थीें पर मोटे परदे और बंद दरवाजे अपने अंदर का रहस्य अपने अंदर ही समेटे रहते.

अब वह रोहन की मुसकराहट का प्रतिउत्तर छोटी सी मगर डरी हुई मुसकान से देने लगी थी. उस का मासूम चेहरा जैसे अपने दिल के दर्द की कहानी बयां न करने को बेचैन हो. लगभग 3 महीने बीत गए थे, लेकिन उन लोगों के विषय में कुछ अधिक नहीं मालूम हो सका था. रोज शाम को कुछ छुटभैये टाइप के दबंगों का चेहरा पहचान में आने लगा था.

सुजाता और माधुरी के बीच थोड़ीबहुत बातचीत होने लगी थी. माधुरी ने एक दिन शिकायती लहजे में उन्हें बताया कि मंजरी का पढ़ने में मन नहीं लगता है जबकि इस साल बोर्ड की परीक्षा है. दिनभर टीवी देखती रहती है.

सुजाता की तो मानों मुंहमांगी मुराद पूरी हो गई,”आप, आज से ही मेरे पास भेज दिया करिए. मैं उसे पढ़ा दिया करूंगी.”

वह सुजाता के पास पढ़ने आने लगी थी. वह उसे प्यार से कुछ खिलापिला भी दिया करती थी. धीरेधीरे वह खुलने लगी थी.

“आंटी, मैं पढऩा चाहती हूं, लेकिन अम्मां मेरी स्कूल की अकसर ही छुट्टी करवा देती हैं. मैं जैसे ही पढ़ने बैठती हूं, वे चिल्ला पड़ती हैं. घर का सारा काम करना फिर भी गाली और पिटाई. मैं तो अपनी जिंदगी से थक चुकी हूं.”

रोहन उस की बातों को सुन रहा था. उस की बड़ीबड़ी आंखें रोतेरोते लाल हो उठी थीं. उसे समझ नहीं आ रहा था कि इस नाजुक सी लडक़ी के दर्द को वह कैसे दूर करे.

सुजाताजी ने प्यार से उसे अपने कलेजे से लगा लिया था, “बेटी, मत घबराओ, कोई भी परेशानी हमेशा नहीं रहती. तुम्हारे जीवन में भी खुशियां आएंगी.”

रोहन और मंजरी की छोटीेछोटी मुलाकातें कभी उन के घर पर तो कभी घर से बाहर, तो कभी इशारेइशारे से होने लगी थी. दोनों एकदूसरे के प्यार में खोने लगे थे.
एक दिन वह अपनी बालकनी में कपड़े सुखाते हुए रोशन को इशारा कर रही थी, तब उस की मां माधुरी ने उसे रोहन को इशारा करते हुए देख लिया था और उस दिन सुजाता के साथ उन्होंने खूब गालीगलौच और लड़ाई की और रोहन पर अपनी बेटी को फुसलाने का इलजाम लगा कर उसे गुंडों से पिटवाने और जेल में डलवाने की धमकी तक दे डाली थी.

वे खुलेआम चिल्ला रही थीं,”मेरी पहुंच बड़ेबड़े नेताओं तक है, तुुहारा बेटा जेल चला गया, तो जमानत भी नहीं होगी.”

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दिन के सपने : वीरेश और सुनंदा के हनीमून में आखिर क्या हुआ था ?

शहर की भागदौड़ भरी जिंदगी से कुछ वक्त निकाल कर कुदरती नजारों में समय बिताना किसे अच्छा नहीं लगता है. शायद इसी वजह से सुनंदा को जैसे ही पता चला कि वीरेश हनीमून के सिलसिले में दार्जिलिंग जाने के लिए दफ्तर में छुट्टी की अर्जी दे कर घर लौटा है, तो वह खुशी से झूम उठी.

दार्जिलिंग शहर से दूर एक छोटी सी जगह चटकपुर के बारे में वीरेश को किसी से जानकारी मिली थी, तभी से वह उसी जगह को देखना अपनी पहली पसंद बना बैठा था.

दार्जिलिंग शहर से ही तकरीबन 28 किलोमीटर व सोनदा शहर से सिर्फ 7 किलोमीटर दूर चटकपुर समुद्रतल से 7810 फुट की ऊंचाई पर बसा है. छोटी जगह होते हुए भी यह सैलानियों के लिए बेहद सुकून भरा है. आसमान छूते ऊंचेऊंचे पेड़ों के साए में खिले रंगबिरंगे फूल देखते ही बनते हैं.

शायद इसी माहौल के चलते चटकपुर वीरेश की पहली पसंद था. हिमालय के घने जंगल के रास्ते वे कब और कैसे चटकपुर पहुंच गए, पता ही नहीं चला.

उस दिन दार्जिंलिंग का मौसम कुछ ज्यादा ही सुकून भरा था. कंचनजंघा को छूती ठंडी हवा बदन में अजीब सा जोश जगा रही थी. देखते ही देखते उन्हें चटकपुर के रंगबिरंगे फूलपौधों से घिरे मकान दिखने लगे. गाड़ी ज्यों ही नरबू शेरपा के होम स्टे के सामने आ कर रुकी, ताजा हवा का एक झोंका आ कर रास्ते की उन की सारी थकान मिटा गया.

रबू शेरपा का होम स्टे क्या था, जैसे कश्मीर की डल झील में तैरता कोई शिकारा. कमरे के अंदर का साजोसामान किसी स्वप्नपुरी का सा नजारा पेश कर रहा था. शहर के पांचसितारा होटलों की मौडर्न सुविधाओं को झुठलाती इस छोटी सी जगह में नरबू शेरपा का होम स्टे बड़ा शानदार था.

सैलानियों के लिए बने कमरों के सामने नरबू व उस की पत्नी समीरन का निजी घर था. उस से लगे आधुनिक उपकरणों से लैस रसोईघर से उठती खुशबू भूख की ज्वाला में घी का काम कर रही थी. लेकिन नरबू शेरपा के कमरे की खिड़की पर खड़ी वह लड़की कौन थी, जिस से नजर मिलते ही वीरेश अपनी सुधबुध खो बैठा था

क्या कोई लड़की इतनी खूबसूरत भी हो सकती है, जिसे देखने के बाद किसी और को देखने की इच्छा ही खत्म हो जाए वह हसीना वीरेश से आंखें चार होते ही खिड़की का परदा खींच कर पीछे हट गई थी. सुनंदा के साथ हनीमून मनाने आए वीरेश को लगा कि अब हनीमून में क्या रखा है.

सुनंदा को पीछे छोड़ वीरेश अचानक नरबू के सामने आ खड़ा हुआ था. ‘‘नरबूजी, आप और आप की पत्नी यहां का सारा कारोबार कैसे संभालते हो  मैं किसी दूसरे को तो यहां नहीं देख रहा हूं,’’ वीरेश ने इसी बहाने उस लड़की के बारे में जानना चाहा. ‘‘है न रेशमा… आप यहां जोकुछ देख रहे हैं, सब रेशमा की वजह से है. उस के यहां आते ही हमारी किस्मत खुल गई है. हमारा कारोबार भी चल निकला है.’’

‘रेशमा…’ यह लफ्ज कानों में रस सा घोलता वीरेश के दिल में उतर गया था. ‘‘आप की बेटी रेशमा क्या पहले कहीं और रहती थी ’’ वीरेश की उत्सुकता बढ़ गई थी.

‘‘रेशमा हमारी बेटी नहीं है साहब. वह हमारी जिंदगी में अचानक ही आई थी. कभी हमारा कश्मीर में होम स्टे का छोटामोटा कारोबार था. अनाथालय में पलीबढ़ी रेशमा के गीत सुनने के लिए वहां आए सैलानी उस की ओर खिंचे चले आते थे.

‘‘जब वह कुछ बड़ी हुई, तो हम कानूनी तौर पर अनाथालय से उसे अपनी बेटी बना कर ले आए. गीतसंगीत का शौक उसे बचपन से ही था. जैसेजैसे वह सयानी हुई, उस की गायकी में निखार आता गया. रात में जब वह गाती थी, तो घाटी में एक अलग ही समां बंध जाता था.

‘‘लेकिन हमें ऐसे बुरे दिनों का सामना करना पड़ेगा, हम ने कभी नहीं सोचा था. दरअसल, दूर कहीं से आए एक सैलानी को रेशमा से प्यार हो गया और वह प्यार कुछ ऐसा परवान चढ़ा कि वह सैलानी अपना सबकुछ छोड़ कर कश्मीर का ही हो कर रह गया.

‘‘उन्हीं दिनों बादल फटने के बाद आसपास की चट्टानें सैलाब की तेज धारा के साथ हम पर मौत बन कर घाटी में उतर आईं. फिर पलक झपकते ही तेज धार में हमारा सबकुछ बह गया. ‘‘हम ने रेशमा को तो बचा लिया, लेकिन वह सैलानी बह गया. फिर उस का कहीं पता नहीं चला.

‘‘अपने प्रेमी से जुदा हो कर रेशमा भी वादी में गुम हो जाती, अगर उसे हमारा सहारा न मिलता. फिर हम कश्मीर से यहां चले आए और नए सिरे से इस होम स्टे को बनाया.

‘‘रेशमा के करिश्मे के चलते हम चंद सालों में फिर से उठ खड़े हुए. लेकिन सबकुछ ठीक होते हुए भी रेशमा खोईखोई सी रहने लगी. वह घर से जबतब निकल जाती. रात में उस के दर्दभरे गीत सुन कर लोग दुखी हो जाते. नरबू की बातों के बीच वीरेश का ध्यान बारबार रेशमा की ओर खिंच जाता. सुनंदा से जब न रहा गया, तो वह वीरेश को खींच कर अंदर ले गई.

हनीमून मनाने आए उन दोनों के लिए वह होम स्टे बेचैनी का सबब बन गया था. देर रात तक सुनंदा वीरेश के आगोश में पड़ेपड़े जब ऊब गई, तो बोल उठी, ‘‘कमरे में मुझे अकेली छोड़ कर बारबार आंगन में जा कर खड़े होने की तुम्हारी वजह मैं समझती हूं. जिस ने तुम्हें बेचैन कर रखा है, उसे मैं ने भी देखा है. सपने देखना बंद करो वीरेश. तुम्हारी इच्छा की इज्जत करते हुए मैं ने अपना सबकुछ तुम्हें सौंप दिया. किसी एक का हो कर रहना ही मर्दानगी है.’’

लेकिन उस रात सुनंदा की आंखों में आए आंसुओं को तरजीह न दे कर वीरेश करवट बदल कर सो गया. वीरेश के लिए वह न भूलने वाली रात थी. उस ने जोकुछ देखा, वह सच था या सपना, उस की समझ में नहीं आया. उस ने देखा कि रेशमा अचानक अपने कमरे से बाहर निकल आई. सफेद रंग की सलवारकमीज और काला दुपट्टा उस के गोरे बदन में तिलिस्म सा पैदा कर रहा था. आंगन में खिले बेला के फूल को अपने जूड़े में लगा कर वह कोई गीत गुनगुना रही थी. उसे आंगन में अकेला देख वीरेश काम वासना की आग में जल उठा था.

सुनंदा गहरी नींद में थी. उसे उसी हाल में छोड़ रेशमा को बांहों में भर लेने को वीरेश मचल उठा. देखते ही देखते रेशमा गुनगुनाते हुए घर से बाहर निकल गई थी. वीरेश यह सोच कर हैरान था कि बला की इस खूबसूरत लड़की को नरबू ने अपने घर के पिंजरे में कैद कैसे कर रखा है

वीरेश रेशमा के पीछेपीछे मशीन की तरह बाहर निकल आया था. देखते ही देखते रेशमा वीरेश की आंखों से ओझल हो गई थी. अब उसे रेशमा के गीत की आवाज दूर से आती सुनाई दे रही थी. उस की समझ में नहीं आया कि इतनी जल्दी वह पथरीले, टेढ़ेमेढ़े रास्ते से टीले पर कैसे पहुंच गई. हार कर वीरेश कमरे में सुनंदा के पास आ कर सो गया था.

सुबह वीरेश की अलसाई आंखें रेशमा को ही ढूंढ़ रही थीं. उस ने देखा कि नरबू उस के साथ वाले कमरे को संवारने में मसरूफ था. शायद किसी नए सैलानी के आने की बात थी.

दार्जिलिंग का मौसम उस दिन सुबह से ही खुशनुमा था. शाम होते ही एक नौजवान अपनी गाड़ी से जैसे ही होम स्टे में दाखिल हुआ, नरबू ने सलामी बजाते हुए उस का कमरा खोल दिया. शाम होते ही वीरेश का कमरा चांदनी रात की शीतल रोशनी से जगमगा उठा था. वीरेश व सुनंदा को अपने कमरे से बाहर बरामदे में बैठ कर बातें करता देख वह नौजवान उन की ओर बढ़ आया था.

वीरेश से हाथ मिलाते हुए उस ने कहा, ‘‘मैं अभिजीत… कर्नाटक से. आप लोग शायद कोलकाता से हैं. कैसा लग रहा है यहां ’’ ‘‘गनीमत है कि कुदरत से छेड़छाड़ करने वालों की बुरी नजर से महफूज है यह जगह. लेकिन आप अकेले…  कोई संगीसाथी नहीं मिला क्या ’’ वीरेश ने अभिजीत से पूछा.

‘‘हैं न आप लोग. वैसे, इस माहौल में फलफूल रहे विभिन्न प्रजाति के फूलपौधे, पेड़ व जीवजंतु खासकर चाय की पैदावार से जुड़ी यहां की मिट्टी की क्वालिटी की स्टडी के लिए सरकार ने मुझे यहां भेजा है,’’ अभिजीत ने बताया.

इन बातों के बीच नरबू गरमागरम कौफी दे गया. वहां वीरेश के साथ बैठी सुनंदा का दिल कहीं, नजरें और कहीं थीं. उस ने मन ही मन कहा, ‘इस आफत को मिट्टी की जांच के लिए कोई और जगह नहीं मिली…’ फिर सोचा, ‘इस हैंडसम के दिल में क्या चल रहा है कौन जाने.’

जो भी हो, अभिजीत की शख्सीयत काबिलेतारीफ थी, जिस से सुनंदा भी प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकी. हालांकि सच तो यह था कि जैसे रेशमा को देख कर वीरेश सुनंदा को भूल बैठा था, कुछ देर के लिए ही सही अभिजीत को देख कर सुनंदा भी वीरेश को भूल गई थी.

उस दिन रेशमा किसी काम से शहर गई थी. उसे आतेआते शाम गहरा गई थी. होम स्टे के अहाते में खड़ी गाड़ी किसी नए सैलानी के आने का संकेत था. रेशमा आतेजाते सैलानियों की खोजखबर कम ही रखती थी. वह शहर से आते ही अपने कमरे में चली गई थी.

रात गहराने लगी थी. बाहर पेड़पौधे शबनमी चांदनी में नहा रहे थे. आंगन में खिले फूल कुछ ज्यादा ही निखरेनिखरे से लग रहे थे. अभिजीत आंगन में खड़ा हुआ था. खिड़की खोलते ही रेशमा की नजर अभिजीत पर पड़ी, वह सन्न रह गई. उस नीम अंधेरे में भी वह कश्मीर के अपने बिछड़े पे्रमी को पहचान गई. यकीनन, वह अभिजीत ही है.

यह जान कर रेशमा झट से खिड़की बंद कर बिस्तर पर आ बैठी. उस की सांसें तेजतेज चल रही थीं. उधर अभिजीत को सिर्फ इतना लगा कि कोई उसे देख कर पीछे हट गया है. अभिजीत को आंगन में खड़ा देख वीरेश कुछ सोच ही रहा था कि सुनंदा पीछे से बोल उठी, ‘‘खिड़की बंद करो. मुझे ठंड लग रही है. खिड़की न हुई, मेरी सौत हो गई.’’

‘औरतों में छठी इंद्री कितनी तेज होती है,’ इतना सोच कर वीरेश मुसकरा उठा था. आंगन में खड़ा अभिजीत अपने कमरे में जाने की बात सोच ही रहा था कि आंखों को चकाचौंध कर देने वाले कपड़ों में किसी लड़की को दुपट्टे में अपना चेहरा छिपाए तेज कदमों से बाहर जाते देख उस के पैर रुक गए थे. उस ने सोचा कि होम स्टे में उस ने तो सिर्फ

2 ही उम्रदराज लोगों को देखा था, फिर यहां जवान खूबसूरत लड़की कैसे  रात में वह अकेली निकल कर गई कहां   अभिजीत की इच्छा हुई कि वह उस का पीछा करे, लेकिन उसे यह ठीक नहीं लगा. फिर भी वह बाहर निकला. लड़की को मदमस्त चाल से घाटी के टेढ़ेमेढे़ रास्ते से हो कर जाते हुए देर तक वह देखता रहा, फिर वह उस की आंखों से ओझल हो गई.

अभिजीत अपने दिल की उत्सुकता दबाए लौटना चाह रहा था कि रात की चुप्पी को भंग करता किसी औरत के गले का सुमधुर गीत सुन कर वह ठिठक सा गया था. गीत की लाइनें उसे साफ सुनाई पड़ रही थीं:

‘ऐ सनम… तुझ से मैं दूर चला जाऊंगा,

याद रखना कि तुझे याद बहुत आऊंगा…’

गीत सुनते ही अभिजीत मन ही मन बोल उठा, ‘अभीअभी जो लड़की मेरी आंखों के सामने से गुजरी है, कहीं वह रेशमा तो नहीं… लेकिन इतने सालों बाद वह इस होम स्टे में कैसे ’

इस के बाद अभिजीत के पैरों में जैसे पंख लग गए हों. आवाज का पीछा करता वह दौड़ पड़ा था.

वह चिल्ला उठा, ‘‘रेशमा… रेशमा, तुम कहां हो… ’’

दूर ऊंचे टीले पर मदमाती चांदनी में खड़ी रेशमा बांहें फैलाए बिछड़े प्रेमी को अपनी बांहों में भर लेने को बेचैन वही दर्दभरा गीत दोहरा रही थी. पास पहुंचते ही ‘रेशमा… मेरी रेशमा’ कहते हुए अभिजीत उस की बांहों में समा गया था. फिर दोनों ऐसे गले लग गए, जैसे दो बदन एक जान हों.

‘‘रेशमा, इतने साल बाद तुम मुझे यहां मिलोगी, यह कितने हैरत की बात है. लेकिन तुम यहां कैसे रेशमा  मैं तो अपने काम से यहां आया था, लेकिन तुम्हें यहां कौन छोड़ गया ’’ अभिजीत दोनों हाथों से रेशमा का चेहरा थामे उस की आंखों में आए खुशी के आंसुओं के अक्स में अपने अतीत की उभरती यादों में डूब गया था.

‘‘अभिजीत, ये बातें फिर कभी. अगर रातोंरात हम यहां से भाग नहीं निकले, तो होम स्टे वाले हमें कभी जाने नहीं देंगे. उन्हें शक है कि मेरे जाते ही उन का कारोबार चौपट हो जाएगा. उन से ज्यादा डर तो मुझे कमरे में ठहरे बाबू से लगता है. अपनी खूबसूरत पत्नी के रहते वह आंगन में खड़ा अजीब नजरों से मुझे घूरता रहता है. मुझे डर है कि मेरे लिए वह अपनी पत्नी की हत्या भी कर सकता है.’’ यह बताते हुए रेशमा सहम गई.

‘‘अब तुम मेरे साथ हो रेशमा. दुनिया तुम्हें मुझ से अलग नहीं कर सकती,’’ अभिजीत बोल उठा.

अभी सुबह का उजाला फैला भी न था कि अभिजीत रेशमा को ले कर वहां से चला गया. सुबह होते ही होम स्टे में अफरातफरी मच गई थी. सभी हैरानी से एकदूसरे का मुंह ताक रहे थे. नरबू शेरपा अपनी पत्नी समीरन के साथ मुंह लटकाए बैठा था. वीरेश को लग रहा था, मानो किसी ने रातोंरात उस का सबकुछ लूट लिया हो. सुनंदा बड़े अरमान से हनीमून मनाने आई थी, लेकिन वीरेश की नजर रेशमा से क्या मिली, वह रातदिन उस की एक झलक पाने के लिए खिड़की पर आंखें गड़ाए रहता. वह सुनंदा को कमरे में अकेला छोड़ जबतब आंगन में आ खड़ा होता.

कर्नाटक से आया अभिजीत रेशमा को ले उड़ा है, यह जान कर सुनंदा की खुशी का ठिकाना नहीं था. वीरेश किसी हारे हुए सिपाही की तरह सुनंदा के आगे हथियार डाल चुका था. जब रेशमा अपने बिछड़े साथी के साथ हमेशा के लिए वीरेश की आंखों से दूर चली गई, तो उसे हनीमून की याद आई.

दिनभर के हंगामे के बाद जब होम स्टे में आखिरी रात बिताने की बारी आई, तो वीरेश ने जैसे ही सुनंदा को अपनी बांहों में भरना चाहा, वह खुद को उस की पकड़ से छुड़ाते हुए बिफर उठी, ‘‘वीरेश, यह होम स्टे है, अपना घर नहीं. कल तक जिस की चाहत में तुम मुझे पहचानने से भी इनकार कर रहे थे, आज एकाएक मेरे प्रति इतनी हमदर्दी कैसे

‘‘जिस तरह रेशमा को देखते ही तुम अपनी ब्याहता खूबसूरत बीवी को भूल बैठे थे, मुझे भी तुम से ज्यादा स्मार्ट अभिजीत को देख कर कुछ ऐसा ही लगा था.

‘‘कितना अच्छा होता, अगर रेशमा की जगह अभिजीत मुझे भगा ले जाता और रेशमा तुम जैसे मतलबी यार को दुत्कार देती.’’

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