राममंदिर निर्माण को ले कर वैष्णवों और शैवों की तनातनी को ले कर हिंदुओं में जो असमंजस था उस की भ्रूणहत्या होने लगी है. इस की वजह यह है कि शंकराचार्य यह नहीं बता पा रहे कि किस धर्मग्रंथ में कहां यह लिखा है कि आधेअधूरे मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा होना सनातन धर्म में वर्जित या निषेध बताया गया है. हालांकि इतना ही खरा सच यह भी है कि वैष्णव संत भी नहीं बता पा रहे कि आधेअधूरे मंदिर की प्राणप्रतिष्ठा फलां या अमुक धर्मग्रंथ के मुताबिक होना शास्त्र सम्मत है.
अब यह स्पष्ट हो चुका है कि चारों पीठों के शंकराचार्य 22 जनवरी को अयोध्या के जलसे में नहीं जाएंगे. क्यों नहीं जाएंगे, इस पर एक शंकराचार्य अविमुक्तेश्वरानंद साफ कर चुके हैं कि अयोध्या में शास्त्रीय विधि की उपेक्षा हो रही है. मंदिर अभी पूरा बना नहीं है और प्रतिष्ठा की जा रही है. हम धर्मशास्त्र के हिसाब से ही चलना चाहते हैं और उसी के अनुसार जनता को चलाना चाहते हैं. राम हैं, यह हमें धर्मशास्त्र ने ही बताया. जिस शास्त्र से हम ने राम को जाना उसी शास्त्र से हम प्राणप्रतिष्ठा भी जानते हैं.
इन शंकराचार्य का रोना यह भी है कि जब वे शास्त्रों और विधिविधान की बात करते हैं तो उन्हें झट से एंटी मोदी कह दिया जाता है. बात सही है क्योंकि देश का माहौल राममय से ज्यादा मोदीमय है. अब अनुभव तो यह है और सिद्धांत भी है कि जो राजा कह दे वही कानून हो जाता है और जो उस के पुरोहित कह दें वही विधान हो जाता है. एक पुरानी कहावत इस माहौल पर सटीक बैठती है कि सूर्य पूर्व दिशा से नहीं उगता बल्कि जिस दिशा से वह उदय होता है उसी दिशा को पूर्व मान लिया जाता है.
सोशल मीडिया पर खामोशी
राममंदिर को ले कर खासा जोश सोशल मीडिया पर है लेकिन उस में तर्क नहीं है, आस्था का सैलाब उमड़ा पड़ रहा है. अव्वल तो कोई भी शैव इस का विरोध नहीं कर रहा लेकिन वैष्णवों ने शंकराचार्यों की ही वैसी ही छिलाई शुरू कर दी है जैसी कि वे आदतन कांग्रेसियों, वामदलों, नक्सलियों, नास्तिकों, खालिस्तानियों, मुसलमानों और बुद्धिजीवियों की किया करते हैं.
वायरल हो रही एक पोस्ट में शंकराचार्यों को एक मजार पर दिखाया गया है. इस में लिखा है कि श्रीराम मंदिर प्राणप्रतिष्ठा से नाराज शंकराचार्य कभीकभी दरगाह पर चले जाते हैं क्योंकि वहां सब काम पूरे मुहूर्त के साथ सनातनी विधिविधान से होते हैं.
इस और ऐसी दर्जनों सैकड़ों पोस्टों पर शंकराचार्य के अनुयायी बेचारे खामोश रहने को मजबूर हैं क्योंकि उन्हें नहीं मालूम कि धर्म क्या कहता है. यही हाल वैष्णवों का है जिन्हें धर्म की एबीसीडी भी नहीं मालूम लेकिन आज उन का दबदबा है. इसलिए बहस में वे स्वभाविक तौर पर भारी पड़ रहे हैं.
शैव हों या वैष्णव, इन दोनों ही संप्रदायों में ब्राह्मणों का वर्चस्व है जो बमुश्किल 3 फीसदी देश की आबादी का हिस्सा हैं. 12 फीसदी गैरब्राह्मण सवर्णों को छोड़, बाकी 85 फीसदी तो दलित, आदिवासी, मुसलमान और ओबीसी वाले हैं जिन के लिए धर्म का मतलब वही होता है जो ये धर्माचार्य बताते रहते हैं.
इस का यह मतलब नहीं कि 15 फीसदी सवर्ण धर्म के सिद्धांत, दर्शन या विधिविधान समझते हैं. फर्क इतना है कि उन्हें कर्मकांड करने की और मंदिरों में जाने की मनाही नहीं है क्योंकि धर्म का धंधा चलता तो आखिर उन्हीं से है. अब मुट्ठीभर पैसे वाले पिछड़े और दलित भी इस जमात में शामिल हो गए हैं लेकिन इस से उन की सामाजिक हैसियत नहीं बदलने वाली. फिर भी दिल को बहलाने को खयाल बुरा नहीं वाली तर्ज पर वे मेहनत की कमाई पंडेपुजारियों पर उड़ा रहे हैं.
सोशल मीडिया लाख बकवास सही लेकिन हकीकत भी यही है कि इस पर कुछ सार्थक मुद्दों पर भी बात हो जाती थी जो राममंदिर के हल्ले के चलते बंद हो गई है. वैष्णवजन सुबह से ले कर रात तक इस पर रामधुन बजाते इस पर देश और समाज की तरह कब्जा जमा चुके हैं. ‘राम आएंगे तो अंगना सजाऊंगी…’ टाइप के भजन दिनरात बज और बजाए जा रहे हैं.
आम आदमी के हितों से सरोकार रखते मुद्दों का गायब होना तथाकथित लोकतंत्र के लिहाज से बेहद खतरनाक और नुकसानदेह है. मीडिया भी दिनरात ‘राम आएंगे…’ गा रहा है और घरों, खासतौर से सवर्णों के, में इस बात पर चर्चा नहीं हो रही कि फुटकर महंगाई इतनी और उतनी बढ़ गई है, बेरोजगारी की दर कितने फीसदी इस तिमाही में बढ़ी है. हां, लोगों को सोशल मीडिया पर लुढ़कते ज्ञान की पोस्टों से यह चिंता जरूर सता रही है कि मिट्टी का एक दीया 5 रुपए का मिल रहा है, इस से पहले कि वह 10 रुपए का हो जाए उसे खरीद लेना ही बुद्धिमानी की बात है.
मुद्दे की बात दीया और पूजापाठ रह जा रही है तो इस की वजह शैव और वैष्णवों की मिलीजुली साजिश है कि तुम इतने मंदिर हथिया लो, उतने पर हमारा कब्जा रहेगा. मकसद यह कि लोग पूजापाठी बने रहें, उस में ही हमारा तुम्हारा कल्याण है. बाकी सब तो मोह, माया और मिथ्या है. देश पिछड़ता है तो पिछड़े हमारी बला से, हमारा रसूख और दबदबा कायम रहना चाहिए. इस छद्म युद्ध में अहम दक्षिणा है जो राममंदिर से आए, श्याम मंदिर से आए या फिर शंकर या फिर देवी मंदिर से, कोई फर्क नहीं पड़ना.
धर्म पर बहस तो इस की पैदाइश के साथ ही होती रही है जिस से लोग हर दौर में भ्रमित रहे हैं. यह जाल धर्म के ठेकेदार ही एक नियमित अंतराल से बुनते हैं. प्राचीन भारत में धार्मिक बहसों को शास्त्रार्थ कहा जाता था. मध्यकाल का आचार्य शंकर और मंडन मिश्र का और कुमारिल भट्ट बनाम बौद्ध भिक्षुओं के बीच का शास्त्रार्थ आज भी मिसाल है. आर्य समाज के मुखिया दयानंद सरस्वती का तो जिक्र तक अब नहीं होता जिन्होंने कुछ सुधार कर बहुत सी विसंगतियां थोप दी थीं.
इन शास्त्रार्थ का नतीजा क्या निकला, यह सोशल मीडिया वीरों, जो आमजन ही होते हैं, को नहीं मालूम क्योंकि उन्हें धर्मग्रंथ कभी पढ़ने ही नहीं दिए गए. वे संस्कृत में थे जो आज भी द्विजों की भाषा है. बुद्ध और भीमराव आंबेडकर ने गहराई से इन्हें पढ़ा और ब्राह्मणों व ब्राह्मणत्व के चिथड़े उड़ा कर रख दिए.
अब ये दोनों ही आज राम, कृष्ण और शंकर से कम नहीं पूजे जाते. इस साजिश को सोशल मीडिया पर कोई उजागर नहीं करता और जो आधेअधूरे ज्ञान व जानकारियों की बिना पर ही सही तर्क करते हैं उन्हें ‘हो हो’ कर धकिया दिया जाता है. इस मानसिकता के ताजे शिकार बिहार के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर, सपा नेता स्वामी प्रसाद मौर्य और ताजा उदाहरण बिहार के आरजेडी विधायक फ़तेह बहादुर का है जो भाजपा और कांग्रेस दोनों पर ही अंधविश्वास फ़ैलाने का आरोप लगाते हैं.
उन की इस दलील को खारिज नहीं किया जा सकता कि जो लोग पत्थर में प्राण डालने की बात कर रहे हैं वो देश के लिए बहुत कारगर साबित होंगे. इन्हें देश की सीमा पर सुरक्षा बलों के साथ और देश के सभी अस्पतालों में तैनात कर देना चाहिए जिस से कि वहां मरने वालों में ये प्राण डाल सकें.