मौजूदा सरकार और विपक्षी दल भ्रष्ट और नाकाम सियासी सिक्के के दो पहलू हैं. सरकार भ्रष्ट और घोटालेबाज है तो विपक्ष भ्रष्टाचार का मूक समर्थक. दोनों ही सत्ता की मलाई जीमने और अपनी कारगुजारियों का ढोल पीटने में जरा?भी शर्मिंदगी महसूस नहीं करते. चोरचोर मौसेरे भाई की तर्ज पर सरकार और विपक्ष की सियासी व जनविरोधी जुगलबंदी का विश्लेषण कर रहे हैं लोकमित्र.
सियासत को छोड़ दें तो शायद ही ऐसा कोई दूसरा क्षेत्र हो जहां अपने मुंह अपनी तारीफ करने का चलन हो. यहां तक कि उस मनोरंजन उद्योग क्षेत्र में भी नहीं है जहां का सारा खेल ही छवि का है. लेकिन सरकारें बड़ी बेशर्मी से सार्वजनिक पैसे से अपना गुणगान करती हैं. आजकल संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन यानी संप्रग सरकार अपने 4 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में यही कर रही है.
कितनी बड़ी विडंबना है कि जिस सरकार के पिछले 4 साल एक के बाद एक घोटाले सामने आने में और बारबार देश को राष्ट्रीय शर्म में डुबोने में गुजरे हों वह जश्न मना रही है. किस बात का जश्न? क्या इस बात के लिए कि बारबार घोटालों में पकड़े जाने के बाद भी सरकार बड़ी निर्लज्जता और अपनी जोड़तोड़ की बदौलत अभी तक बरकरार है? अगर महज अस्तित्व में बने रहने के लिए यह सरकार जश्न मना रही है तो यह उस की कोई उपलब्धि नहीं है बल्कि उसे अपने षड्यंत्र में मिली कामयाबी है और यह आम जनता पर सरकार का विद्रूप व्यंग्य है.
एक विद्रूप तमाशा जहां सत्तारूढ़ कांगे्रस पार्टी कर रही है वहीं प्रमुख विपक्षी पार्टी के रूप में भारतीय जनता पार्टी यानी भाजपा भी उसी तमाशे को दुहरा रही है. यह कितनी हास्यास्पद बात है कि जिस भाजपा ने बारबार मौका मिलने के बावजूद कांगे्रस को कभी संसद में घेर कर उसे तमाम घपलोंघोटालों के लिए देश के समक्ष शर्मसार होने के लिए मजबूर नहीं किया उलटे खुद ही ऐसी परिस्थितियां खड़ी कीं कि कांगे्रस तमाम नाजुक मौकों और मसलों में संसद का सामना करने से बच गई.
अंतर्कलह में उलझा रहा विपक्ष
भाजपा ने संसद को ज्यादातर मौकों में पिछले 4 सालों में ठप रखा. अब भाजपा कह रही है कि कांगे्रस को बेनकाब करने के लिए वह गांवगांव, शहरशहर जनजागरण अभियान चलाएगी. जब संसद में मौका था तब भाजपा के ज्यादातर नेता संसद में उपस्थित रहने के बजाय टीवी चैनलों का चक्कर लगाया करते थे.
बिहार में भाजपा और जनता दल (यूनाइटेड) की सरकार भले ही अभी तकनीकी रूप से चल रही हो लेकिन जहां तक वैचारिक और मजबूत दोस्ताना वाले गठबंधन की बात है तो यह भी अंदर ही अंदर टूटफूट चुका है.
नीतीश कुमार ने राजधानी दिल्ली में बिहार स्वाभिमान रैली की, उस में भाजपा को पूछा तक नहीं जबकि भाजपा रैली के लिए तैयारियां कर रही थी. यही नहीं, नीतीश ने रैली के मंच से प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और वित्त मंत्री पी चिदंबरम की तारीफ भी की, साथ ही यह भी कहा कि चुनावों तक कुछ भी हो सकता है. राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता. भाजपा के जले पर नमक छिड़कते हुए नीतीश कुमार ने यह कह कर अपना भाषण खत्म किया कि जो बिहार को स्पैशल राज्य का दरजा देगा, हम उस के साथ हैं.
कहने का मतलब यह है कि भले ही अभी नीतीश और भाजपा के बरतनभांडे अलग न हुए हों लेकिन वे देहरी तक आ गए हैं, कभी भी एक झटके में वे बाहर आ सकते हैं और इस का सब से बड़ा कारण है नरेंद्र मोदी. दरअसल, नरेंद्र मोदी सोच के स्तर पर तानाशाह हैं. संयोग से उन्होंने गुजरात में जीत की हैट्रिक भी लगा ली है जिस वजह से उन की तानाशाही का पारा और भी ऊपर चढ़ गया है. वे अपनेआप को पार्टी से ऊपर और विशिष्ट सम झते हैं. यही कारण है कि गुजरात में वे नरेंद्र मोदी के चलते भाजपा का अस्तित्व सम झते हैं न कि भाजपा के चलते नरेंद्र मोदी का अस्तित्व. इस वजह से भाजपा में अंदर ही अंदर बिखराव और एकदूसरे की टांग खींचने का दौर जारी है. कर्नाटक की जबरदस्त पराजय के पीछे भी भाजपा की आंतरिक कलह है.
दरअसल, नीतीश कुमार जैसे मुसलिमों की राजनीति करने वाले ही नहीं बल्कि भाजपा में भी बड़े पैमाने पर ऐसे लोग मौजूद हैं जो सोचते हैं कि अगर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया गया तो भाजपा को नुकसान होगा क्योंकि इस से सैक्युलर हिंदू वोट भी नहीं मिलेंगे इसलिए भाजपा में अंदर ही अंदर नरेंद्र मोदी का तमाम धड़े विरोध कर रहे हैं, यहां तक कि अपने को हिंदुओं का मसीहा बताने वाली शिवसेना भी नहीं चाहती कि नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार हों. इसीलिए शिवसेना ने सुषमा स्वराज का राग छेड़ा है.
इस का एक बड़ा कारण नरेंद्र मोदी की एमएनएस मुखिया राज ठाकरे से नजदीकी है. वास्तव में किसी भी तानाशाह की तरह नरेंद्र मोदी भी चापलूसी पसंद हैं. राज ठाकरे उन्हें हर तीसरे दिन हिंदू हृदय सम्राट घोषित करते रहते हैं, ऐसे में मोदी उन के लिए विशेष जगह तो रखेंगे ही. भाजपा और उस की अगुआई वाले गठबंधन में अंदर ही अंदर अगर अविश्वास की खिचड़ी पक रही है तो इस के पीछे एक कारण तीसरे मोरचे की खिचड़ी भी है.
इस साल अपने पुराने संगीसाथियों से होली खेलते हुए अचानक मुलायम सिंह यादव को इल्हाम हुआ कि देश में सब से ज्यादा ईमानदार राजनेता लालकृष्ण आडवाणी हैं. उन की जबान से ये शब्द निकलते ही हजारों कान खड़े हो गए. दरअसल, एनडीए में आंतरिक कलह को लोगों ने इन छिटपुट पटखनियों के रूप में भी देखा है. कांगे्रस पर भाजपा या उस के साथी दलों का अगर कोई खास असर नहीं पड़ा तो सब से बड़ी वजह यही है कि दोनों की राजनीति में कोई खास फर्क नहीं है. कांगे्रस के भ्रष्टाचार से दो हाथ आगे बढ़ कर नितिन गडकरी का भ्रष्टाचार उजागर हुआ है. झुग्गियों में चलते कौर्पोरेट दफ्तर, घर के ड्राइवर से ले कर चौकीदार तक को गडकरी ने अपने भ्रष्टाचार का हिस्सा बना दिया तो ऐसे में भला एक चोर दूसरे चोर को चोर कहे तो लोग गंभीरता से क्यों लेंगे.
सरकार के खोखले दावे
अब बात करते हैं संप्रग सरकार की. संप्रग सरकार के मुखिया के रूप में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने और संरक्षक के रूप में सोनिया गांधी ने 22 मई को पिछले 9 सालों का बखान करने के लिए 33 पृष्ठों का जो खाका पेश किया, वह वास्तव में झूठ का पुलिंदा है. अब सरकार के इस पहले दावे को ही लें कि सरकार 4 सालों से अबाध गति से चल रही है तो सच यह है कि सरकार समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की राजनीतिक कमजोरियों और उन कमजोरियों की लगाम इस सरकार के हाथ में होने की वजह से चल रही है.
वर्ष 2009 में जब सरकार बनी थी तो सरकार बनाने वाले इस गठबंधन में 11 पार्टियां शामिल थीं. इस समय इस में केवल 9 हैं. इस में भी अजित सिंह का राष्ट्रीय लोकदल बाद में आया है. 2009 के बाद से विपक्ष को, सरकार विशेषकर कांगे्रस के नेताओं ने नकारात्मक राजनीति के लिए जम कर कोसा. स्वयं सोनिया गांधी ने अपने भाषण का एक बड़ा हिस्सा भाजपा की तीखी आलोचना पर केंद्रित किया.
कांगे्रस अपनेआप में कितनी आत्ममुग्ध है, इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बड़ी बेशर्मी से अपने रिपोर्टकार्ड में खुद ही सरकार ने सभी क्षेत्रों के लिए खुद को डिस्टिंक्शन मार्क्स दे दिए हैं. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से ले कर संप्रग अध्यक्ष सोनिया गांधी तक ने 22 मई के अपने भाषण में आंतरिक सुरक्षा से ले कर विदेश, अर्थव्यवस्था जैसे सभी क्षेत्रों में कीर्तिमान बनाने की गाथा गाई. यही नहीं, जो कुछ नहीं हो सका, उस के लिए विपक्ष को दोषी ठहरा दिया.
आज सरकार जिन विधेयकों के नाम पर अपनी पीठ थपथपा रही है उन में से कइयों का तो अभी भविष्य ही तय नहीं है. सोनिया गांधी के ड्रीम प्रोजैक्ट खाद्य सुरक्षा विधेयक का भविष्य क्या होगा, कोई नहीं जानता. लेकिन उस की सहानुभूति लेने के लिए सरकार कोई मौका नहीं छोड़ना चाहती. यही वजह है कि चौथी वर्षगांठ के मौके पर सब से ज्यादा सोनिया गांधी ने इसी का जिक्र किया. दरअसल, सरकार इस गफलत में है कि जैसे पिछली बार मनरेगा ने उस की नैया पार लगाई थी, वैसे ही इस बार खाद्य सुरक्षा बिल लगा देगा. मनरेगा को भी सरकार ने भारत का नक्शा बदलने वाला आइडिया बताया, तब इस प्रोजैक्ट की बजट राशि क्यों घटाई जा रही है? हकीकत यह है कि मनरेगा भ्रष्टाचार का बहुत बड़ा जरिया बन चुका है.
वास्तव में चौथी वर्षगांठ से भी कई दिन पहले जो बड़ेबड़े सरकारी विज्ञापन हर जगह दिखने शुरू हो गए हैं, दरअसल, भारत निर्माण के नाम पर वे उसी ‘शाइनिंग इंडिया’ की याद दिला रहे हैं जो प्रमोद महाजन के नेतृत्व में वाजपेयी सरकार ने वर्ष 2008 में शुरू किया था, चुनावों के कुछ दिन पहले. लेकिन कांगे्रस को याद करना चाहिए कि झूठमूठ की शेखी कितनी भारी पड़ती है. एनडीए तब से आज तक लौट कर सत्ता का स्वाद नहीं चख सका.