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नकली नोट और फर्जी स्टांप का काला साम्राज्य

बिहार में नकली नोट, फर्जी स्टांप व फर्जी स्टांप पेपर्स के धंधे से जुड़े कई खिलाड़ी तेलगी को मात देते दिख रहे हैं. हालिया छापे में बरामद नकली नोट और करोड़ों के स्टांप  व स्टांप पेपर्स संकेत दे रहे हैं कि राज्य में गैरकानूनी धंधे का काला साम्राज्य खड़ा हो रहा है. पेश है बीरेंद्र बरियार की रिपोर्ट.
‘लगता है रंजीतवा ने नोट छापने का मशीन लगा लिया है? कौन काम करता है कि एतना रुपय्या कमा रहा है? गांव वालों पर अंधाधुंध पैसा लुटाता है और गांव में बड़का मकान कैसे बना रहा है?’ रंजीत के गांव वाले उस की शाहखर्ची देख मजाकमजाक में कहते रहते थे कि लगता है उस ने नोट छापने की मशीन लगा रखी है, पर यह मजाक तब सच साबित हो गया जब नकली नोट और स्टांप व स्टांप पेपर्स छापने व बेचने के आरोप में रंजीत को पुलिस ने दबोच लिया और उस की 2 प्रिंटिंग मशीनों का पता चला. उस ने सच में नोट छापने की मशीन लगा रखी थी.
पटना के न्यू बाइपास रोड से सटे खेमनीचक गांव के एक घर में लगाई गई पिं्रटिंग प्रैस में नकली स्टांप, स्टांप पेपर्स और भारतीय नोट के साथ विदेशी नोट छापने का काम चलता था. लगातार 24 घंटे तक चली छापेमारी में प्रैस समेत 100 करोड़ रुपए के नकली स्टांप, स्टांप पेपर्स, रुपए, डाक टिकट, पोस्टल और्डर, एनएससी आदि बरामद किए गए. इन में अमेरिका, इंगलैंड और अरब देशों की करीब 10 लाख रुपए की नकली करैंसी थी.
जाली स्टांप व स्टांप पेपर्स के धंधे का नया खिलाड़ी 40 साल का रंजीत नकली स्टांप व स्टांप पेपर्स के साथसाथ नकली नोट भी छापने लगा था. इतने पर भी उस का मन नहीं भरा तो वह अमेरिका, इंगलैंड, नेपाल और अरब देशों की करैंसी छापना चालू कर करोड़पति से अरबपति बनने की राह पर चल पड़ा.
इस धंधे में रंजीत नकली स्टांप पेपर्स का इंटरनैशनल धंधेबाज अब्दुल करीम तेलगी का भी उस्ताद निकला. मुंबई और कोलकाता को जालसाजी का मुख्य अड्डा बनाने वाले तेलगी ने देश की इकोनौमी को करीब 20 हजार करोड़ रुपए का चूना लगाया था. कर्नाटक मूल के उस शख्स
ने देश में नकली स्टांप पेपर्स का ऐसा साम्राज्य खड़ा कर लिया था कि उस के चेलेचपाटे आज भी उस के काले धंधे के जाल को फैलाने में लग कर करोड़ोंअरबों रुपयों के वारेन्यारे कर रहे हैं.
बचपन के दिनों में ठेले पर सब्जी और टे्रनों में फल बेचने वाले तेलगी ने अपने शातिर दिमाग से नकली स्टांप पेपर्स का धंधा चालू किया और देखते ही देखते 20 हजार करोड़ रुपए का स्टांप पेपर्स घोटाला कर डाला था. उस का नैटवर्क देश के 12 राज्यों में फैला हुआ था. इन मामलों में उस पर कुल 47 मुकदमे चले जिन में से 12 महाराष्ट्र में ही थे. वर्ष 2011 में अदालत ने उसे 10 साल की कैद की सजा सुनाई थी पर जेल में ही एड्स की बीमारी होने से उस की मौत हो गई.
रंजीत के गांव वालों की मानें तो 5 साल पहले तक वह गांव में लफंगई करता फिरता था और शराब पी कर इधरउधर बेहोश पड़ा रहता था. 3-4 साल पहले वह अकसर पटना आनेजाने लगा था. कुछ समय बाद ही वह बड़ी और महंगी गाडि़यों में घूमने लगा. दिनभर गांव में रहता था, पर रात को किसी होटल में चला जाता. होटल में गांव के दोस्तों को खूब खिलातापिलाता था. कुछ दिन ऐशमौज करने के बाद गांव से चला जाता.
पटना के एसएसपी मनु महाराज ने बताया कि खेमनीचक में छपते नकली स्टांप, स्टांप पेपर और नोटों के पीछे एक बड़ा गिरोह सक्रिय था. वहां से बिहार के अलावा उत्तर प्रदेश, ओडिशा, पश्चिम बंगाल व झारखंड में जुडिशियल और नौन जुडिशियल स्टांपों को भेजा जाता था.
इस इंटरस्टेट गिरोह का सरगना रंजीत कुमार है. रंजीत समेत 16 जालसाजों को पुलिस ने दबोचा. उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले के खजनी थाना के उसरी गांव के रहने वाले रंजीत ने पटना के हनुमाननगर महल्ले के अभय अपार्टमैंट के फ्लैट नंबर 204 में अपना अड्डा बना रखा था. वहीं से वह नकली स्टांप, स्टांप पेपर और नोट का काला धंधा चलाता था. इस के अलावा पत्रकार नगर के रघुहरि अपार्टमैंट के फ्लैट नंबर 504 को रंजीत ने नकली स्टांप, स्टांप पेपर्स और नोटों का गोदाम बना रखा था.
वर्ष 2011 में भी नकली स्टांप के एक मामले में पुलिस ने रंजीत को पटना के गर्दनीबाग महल्ला से गिरफ्तार किया था. उस समय भी उस के पास से करोड़ों रुपए के नकली स्टांप और रुपए बरामद किए गए थे. 9 महीने तक जेल में रहने के बाद उसे जमानत मिली थी. जेल से बाहर निकलते ही वह फिर से अपने पुराने धंधे में लग गया था. रंजीत के साथ पकड़ा गया अर्जुन सिंह भी इस धंधे का पुराना और मंजा हुआ खिलाड़ी है. इस मामले में वह कई दफे जेल जा चुका है. इस के अलावा पुलिस के हत्थे चढ़ा हेमकांत चौधरी उर्फ झाजी गिरोह का पुराना मैंबर है और नकली स्टांप पेपर बेचने के आरोप में 3 वर्षों तक जेल की हवा खा चुका है.
रंजीत के गिरोह के द्वारा हर महीने करीब 50 करोड़ रुपए के नकली नोट, स्टांप, स्टांप पेपर्स, डाक टिकट आदि की सप्लाई की जाती थी. इस से सरकारी राजस्व को 1 वर्ष में 600 करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा था. स्टांप वैंडरों की मिलीभगत से नकली स्टांप, स्टांप पेपर्स का धंधा फलफूल रहा था. नकली स्टांप व स्टांप पेपर्स छापने वालों और बेचने वाले वैंडरों के बीच 50-50 फीसदी कमाई का हिसाब होता है.
गौरतलब है कि नकली स्टांप पेपर्स की लगातार मिल रही शिकायतों के मद्देनजर, पटना पुलिस ने ‘औपरेशन डीएससी’ यानी औपरेशन डुप्लीकेट स्टांप ऐंड करैंसी शुरू किया था. 29 दिनों की मशक्कत के बाद आखिरकार पुलिस को भारी कामयाबी मिली. छापामारी में 2 पिं्रटिंग प्रैस, 2 कंप्यूटर सैट, 3 स्कैनर, 3 पिं्रटर, 12 मोबाइल फोन, 5 से 20 हजार रुपए तक के नकली स्टांप, एनएससी और डाक टिकट, 50 व 10 रुपए के नकली नोटों का अंबार, 10 से 20 हजार रुपए तक के नौन जुडिशियल स्टांप पेपर, 5 से 500 रुपए तक के कोर्ट फी स्टांप, वैलफेयर स्टांप टिकट, दर्जनों नकली बैंक चैक बुक, प्रिंटिंग ब्लौक, पेपर कटिंग मशीन, पिं्रटिंग इंक, स्टांप और टिकट पिं्रट करने वाली डाई आदि पुलिस ने बरामद किए हैं.
ज्ञात हो कि पिछले 3 वर्षों के दौरान पटना में नकली स्टांप, स्टांप पेपर्स और नकली नोट का धंधा करने वालों का नैटवर्क बड़ी तेजी से फैला है.

जीवन की मुसकान

मैं पोस्ट औफिस गई थी. मुझे पत्रों के लिफाफे पर ऐड्रैस लिखने थे. मैं ने हर लिफाफे पर ऐड्रैस लिखा, टिकट लगाया और वहां से चल पड़ी. लिफाफे पोस्ट बौक्स में डाल कर एटीएम से पैसे निकालने गई. तब ध्यान आया, मेरा पर्स तो पोस्ट औफिस की बैंच पर रह गया.
मैं वापस पोस्ट औफिस पहुंची. इधरउधर देखा तो लाइन में खड़े लोगों ने बताया, ‘‘दीदी, आप का पर्स चाय वाले लड़के को मिला था. उस ने पोस्टमास्टर साहब को दे दिया.’’
मैं पोस्टमास्टर साहब के पास पहुंची तो उन्होंने पर्स दे दिया. मैं ने तब उस चाय वाले लड़के को ढूंढ़ा, उस को पास बुला कर इनाम देना चाहा तो उस ने पैसे या इनाम लेने से इनकार कर दिया और बोला, ‘‘यह तो मेरा फर्ज था.’’ और दौड़ता चला गया. 
इंदुमती पंडया, राजकोट (गुज.)
 
बात पुरानी है. सुबह 5 बजे मेरे पति फैक्टरी के काम के लिए जीप से रामपुर से बरेली जा रहे थे. जीप ड्राइवर चला रहा था. रास्ते में एक ट्रक से जीप का ऐक्सिडैंट हो गया जिस में ड्राइवर तो उछल कर नीचे गिर गया व बेहोश हो गया, मेरे पति लुढ़क कर स्टीयरिंग के बीच में फंस गए. जीप पिचक गई.
वहां पर सिर्फ एक ढाबा था जिसे  4 भाई चलाते थे. उन्होंने जीप की बौडी कटवा कर मेरे पति को बाहर निकाला. मेरे पति के दाहिने हाथ व पैर की काफी हड्डियां टूट गई थीं. बेहोश होने से पहले उन्होंने बरेली का पता, जिन से मिलना था, बता दिया. 
उन लोगों ने मेरे पति को बरेली तक छोड़ा. आज मैं सोचती हूं कि अगर वे चारों भाई मेरे पति की मदद नहीं करते तो वे शायद आज दुनिया में न होते.
आशा गुप्ता, जयपुर (राज.)
 
मेरे पति को अपने व्यापार के सिलसिले में दुर्गापुर जाना था. चूंकि उन का जाना बेहद जरूरी था, इसलिए ड्राइवर नहीं मिला तो वे स्वयं ही कार चला कर जाने को तैयार हो गए.
हावड़ा से लगभग 40-45 किलोमीटर गए होंगे कि 80-90 की गति से चल रही उन की कार का अगला दाहिना चक्का फट गया और कार सड़क के बीच के डिवाइडर से टकरा गई. वे सामने के विंडग्लास को तोड़ते हुए डिवाइडर की दूसरी तरफ छिटक कर दूर जा गिरे.
स्थानीय 2-3 युवकों ने मेरे पति को उठाया. गाड़ी के अंदर से उन के जरूरी कागजातों का बैग और मोबाइल फोन भी ला कर दिया. उन लड़कों ने मेरे पति को आननफानन हावड़ा के एक अस्पताल में दाखिल करवा दिया और हमें सूचना दी. आज भी, जब मैं उन लड़कों के बारे में सोचती हूं, तो श्रद्धा से मेरा सिर झुक जाता है.
अर्चना अग्रहरि, हावड़ा (प.बं.) 
 

गाने हैं गानों का क्या

फिल्मी गानों को लंबे समय से सैंसर की कैंची, कानूनी पचड़ों, महिला संगठनों, धर्म के ठेकेदारों समेत राजनीतिक दलों के विरोध का सामना करना पड़ रहा है. फिल्में तो बाद में रिलीज होती हैं, गानों के विवाद पहले रिलीज हो जाते हैं. कई बार ये विवाद फिल्मों की फ्री पब्लिसिटी तो कभी निर्मातानिर्देशकों को चूना लगा देते हैं. पर जिस मंशा से हंगामा मचता है वह पूरा ही नहीं होता. कैसे, बता रहे हैं राजेश कुमार.

धर्म के ठेकेदार कहते हैं कि राधा को सैक्सी कहना पाप है भले ही वे पूरा जीवन कृष्ण के लिए नाचतीगाती रही हों लेकिन उन्हें डांस फ्लोर पर कोई नहीं नचा सकता. इसलिए यह पाप करने वाले यानी फिल्म ‘स्टूडैंट औफ द ईयर’ के निर्मातानिर्देशक को धार्मिक भावनाएं आहत करने के जुर्म में कानूनी और धार्मिक फतवा जारी कर दिया जाता है.

इसी तरह फिल्म ‘खिलाड़ी 786’ के सुपरहिट गाने ‘हुक्का बार’ पर कुछ सामाजिक तत्व यह कह कर बैन लगाने की असफल कोशिश करते हैं कि इस से युवाओं में गलत संदेश जाएगा. कुछ इसी तरह का शोर रैप सिंगर हनी सिंह के गानों को ले कर मचा. हाल ही में फिल्म ‘बौस’ के गीत ‘पार्टी औल नाइट’ के साथ भी यही कारस्तानी हुई.

हिंदी फिल्मों की कल्पना बिना गानों के मुश्किल है. एक दौर ऐसा भी था जब पूरी फिल्म ही गानों के जरिए बनाई जाती थी. कई बार तो फिल्में सिर्फ अपने गानों की वजह से ही याद की जाती हैं.

गानों के प्रति मोह

गानों के प्रति जनता के बढ़ते मोह को देखते हुए 70-80 के दशकों में कई बार फिल्में नए गाने जोड़ कर दोबारा रिलीज की जाती थीं. फिल्म के प्रचार पोस्टरों में यह लिखा जाता था कि अमुक फिल्म देखिए नए गानों के साथ. राकेश रोशन ने फिल्म ‘कहो न प्यार है’ के दौरान भी कुछ ऐसा किया था जब उन्होंने फिल्म की रिलीज के कुछ सप्ताह बाद अमीषा पटेल पर पिक्चराइज एक गाना रिलीज किया था और दर्शक सिर्फ उसी अतिरिक्त गाने को देखने के लिए दोबारा उस फिल्म के लिए सिनेमाघरों में उमड़ पड़े थे.

अभी ज्यादा पुरानी बात नहीं है जब प्रकाश झा की नक्सलवाद पर आधारित फिल्म ‘चक्रव्यूह’ के गाने को ले कर इसी तरह का बवाल मचा था. ‘बिड़ला हो या टाटा, अंबानी हो या बाटा, सब ने अपने चक्कर में देश को ही काटा…’ गाने को ले कर प्रकाश झा को कानूनी नोटिस भेजा गया. नोटिस कुमार मंगलम बिड़ला, सिद्धार्थ बिड़ला, सी के बिड़ला, एस के बिड़ला, बी के बिड़ला और निर्मला बिड़ला जैसे दिग्गज उद्योगपति घरानों की तरफ से भेजा गया. नोटिस में कहा गया कि इस गाने से उन का नाम बदनाम हो रहा है.

प्रकाश झा ने एक डिस्क्लेमर डाल कर मामले को रफादफा कर दिया. गौर करने वाली बात यह है कि इस गाने को सैंसर बोर्ड से मंजूरी मिल चुकी थी. इस मामले में यह भी कहा गया कि सैंसर बोर्ड की सीईओ पंकजा ठाकुर ने रिवाइजिंग कमेटी की जल्दबाजी में एक मीटिंग बुला कर इस फिल्म को बिना कट के पास कर दिया. इस फिल्म के राइटर अंजुम राजबाली हैं, जो सैंसर बोर्ड में मैंबर भी हैं. इसलिए फिल्म पर सैंसर बोर्ड ने इतनी मेहरबानी दिखाई. खैर, इस विवाद से यह गाना जरूर चर्चा में आ गया.

फिल्मी गानों के बोलों को ले कर होने वाले विवाद कोई आज के नहीं हैं बल्कि इस से पहले भी कई फिल्मों के गाने अपने बोलों को ले कर विवादित होते रहे हैं. दिबाकर बनर्जी की पौलिटिकल थ्रिलर फिल्म ‘शंघाई’ के गाने ‘भारत माता की जय सोने की चिडि़या डेंगू मलेरिया…’ को ले कर बजरंग दल ने आपत्ति जताई थी. बजरंग दल के मुताबिक इस के गाने में भारत माता पर आपत्तिजनक टिप्पणी की गई है. इसलिए इस गाने पर प्रतिबंध लगना चाहिए.

हालांकि फिल्म से इस गाने को हटाया नहीं गया. दिबाकर बनर्जी की एक और फिल्म ‘लव, सैक्स और धोखा’ के एक गाने पर विवाद हुआ. फिल्म के एक गीत ‘तू नंगी अच्छी लगती’ के नंगी शब्द पर जब सैंसर बोर्ड ने एतराज किया तो गाने में नंगी शब्द के स्थान पर गंदी शब्द डाला गया.

शिरीश कुंदर की अक्षय कुमार स्टारर फिल्म ‘जोकर’ में चित्रांगदा सिंह पर फिल्माए गए आइटम सौंग में ‘आई वांट फखत यू…’ को वल्गर करार दिया गया. जबकि ‘फखत यू…’ वास्तव में एक शब्द है जिस का मतलब ‘सिर्फ तुम’ होता है पर चूंकि हर कोई इस का मतलब नहीं समझ सकता और दूसरा मतलब लगा लेता है, इसलिए फिल्म निर्माता ने ऐन वक्त पर गाने के बोल में इसे ‘आई वांट जस्ट यू…’ कर दिया. ऐसा सिर्फ विवादों से बचने के लिए किया गया.

हद तो तब हो गई जब शीला मुन्नी नाम की 2 बहने कोर्ट पहुंच गईं. मुंबई के ठाणे में मुन्नी और शीला नाम की 2 बहनों ने ‘शीला की जवानी…’ और ‘मुन्नी बदनाम हुई…’ गानों को ले कर ठाणे कोर्ट में याचिका दायर कर दोनों गानों पर प्रतिबंध लगाने की मांग की.

सैंसर बोर्ड भी मजबूर

आमिर खान के प्रोडक्शन में बनी फिल्म ‘डेल्ही बैली’ गाने को ले कर काफी बवाल हुआ था. विरोध करने वालों के मुताबिक इस गीत में ‘भाग डी के बोस…’ को लगातार इस तरह गाया गया है कि सुनने वालों को एक गाली सुनाई देती है. बाद में सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने सैंसर बोर्ड से इस गीत पर पुनर्विचार करने के लिए कहा. पर यह गाना हर टीवी चैनल और रेडियो पर चाव से सुना गया.

इसी तरह के विरोध का सामना राम गोपाल वर्मा को मीडिया पौलिटिक्स आधारित फिल्म ‘रण’ के गाने के लिए करना पड़ा कि फिल्म के एक गाने में राष्ट्रीय गान की पैरोडी की गई, इस आरोप के चलते सुप्रीम कोर्ट ने इस गाने पर रोक लगा दी.

माधुरी दीक्षित की कमबैक फिल्म ‘आजा नचले’ पर भी बवाल मचा था. इस के टाइटल सौंग में जातिसूचक शब्द का प्रयोग हुआ है, ऐसा कह कर कई राज्यों में फिल्म को बैन तक कर दिया गया था. बढ़ते विवाद को देखते हुए यश चोपड़ा ने गाने के बोल बीप करवा कर फिल्म जैसेतैसे रिलीज करने में ही भलाई समझी.

माधुरी की एक और फिल्म ‘खलनायक’ के गीत ‘चोली के पीछे क्या है…’ के बोलों को ले कर जबरदस्त विरोध हुआ था. इस विवाद से गाना तो बैन नहीं हुआ पर हां जो इस गाने के बारे में नहीं जानते थे वे इस विवाद के चलते इसे सुनने जरूर लगे.

सैक्सी शब्द को ले कर फिल्म ‘खुद्दार’ में करिश्मा कपूर के आइटम सौंग ‘सैक्सी सैक्सी सैक्सी मुझे लोग बोलें…’ पर महिला संगठनों ने जम कर विरोध दर्ज कराया था और बाद में सैक्सी की जगह ‘बेबी बेबी बेबी मुझे लोग बोलें…’ कर के गाना दोबारा रिलीज हुआ. जबकि गोविंदा के गाने ‘मेरी शर्ट भी सैक्सी, मेरी पैंट भी सैक्सी…’ को ले कर कोई विवाद नहीं हुआ. इसे वैचारिक दोगलापन न कहें तो और क्या कहा जाए?

दरअसल, ऐसे फिल्मी गानों की एक लंबी सूची है जो आपत्तिजनक समझे गए और जिन को ले कर अलगअलग धर्म, समाज के ठेकेदार, महिला संगठन और राजनीतिक दलों ने विरोध जताया.

अगर असली विरोध करना ही है तो इन गानों को जरूरत से ज्यादा तूल ही न दिया जाए . लेकिन ऐसा करने से धर्म, पार्टी और समाज का झंडा उठाए घूमने वालों की दुकानें कैसे चलतीं?

मजेदार बात यह है कि इन गानों की धुनों पर ही बहुत से धार्मिक गाने रचे गए जो जागरणों में बजाए जाते हैं और जिन पर घरेलू या पेशेवर लड़कियां नाचती हैं. चूंकि यह धर्म के तंबू के नीचे होता है, इसलिए किसी को कोई आपत्ति नहीं होती है.

तकनीक के बढ़ते कदम

आज के तकनीकी दौर में दुनियाभर में नएनए आविष्कार हो रहे हैं. रोजमर्रा की जरूरत की चीजों से ले कर चिकित्सा, विज्ञान और मनोरंजन के आधुनिक यंत्रों की उत्पत्ति में तकनीकी क्रांति का अहम योगदान है. इसी के मद्देनजर लास वेगास में अंतर्राष्ट्रीय उपभोक्ता इलैक्ट्रौनिक्स  प्रदर्शनी ‘सीईएस 2014’ का भव्य आयोजन हुआ. 7 से 10 जनवरी तक चली इस प्रदर्शनी में वियरेबल गैजेट्स की धूम तो रही ही, साथ में कार, मोबाइल, होम अप्लाएंस, गेमिंग गैजेट्स, टीवी, रोबोट और मोबाइल की दुनिया के अनोखे प्रोडक्ट्स लौंच भी किए गए. इन नई तकनीकों से रूबरू होने के लिए यहां लाखों लोग पहुंचे.

इस टैक्नोलौजी ट्रेड शो की खासीयतों की बात करें तो इस में टोयोटा की हाइड्रोजन से चलने वाली भविष्य की कार, रिमोट से मुड़ने वाली सैमसंग की टीवी स्क्रीन, 4जी वाला कैमरा, बिजली कटने के बाद भी कई घंटे जलने वाला बल्ब, खुद ही पार्क होने वाली बीएमडब्ल्यू की कार और खेलने के स्पैशल दस्ताने जैसे अनोखे फीचर्स से लैस गैजेट्स मौजूद थे. कुल मिला कर देखा जाए तो ट्रेड शो में दुनियाभर के लोगों को भविष्य के कई अनोखे दिलचस्प गैजेट्स से रूबरू होने का मौका मिला.  

समलैंगिक गृहस्थी पर कानून की चोट

अदालती फरमान चाहे कुछ भी हो लेकिन समलैंगिक समुदाय खुद के अधिकारों और स्वभाव को न तो अनैतिक मानता है और न ही गैरकानूनी. शायद इसीलिए देश भर में जहां कई समलैंगिक जोड़े शादी कर अपनी गृहस्थी बसा रहे हैं वहीं फैशन, सिनेमा और अन्य क्षेत्रों की हस्तियां अपनी समलैंगिक प्रकृति को उजागर करने से परहेज नहीं कर रहीं. इस संवेदनशील मसले की अंदरूनी समस्याओं, सरकारी नजरिए और सामाजिक परिप्रेक्ष्यता का विश्लेषण कर रही हैं साधना शाह.

पश्चिम बंगाल की राजधानी ?कोलकाता के एक उपनगर मध्यमग्राम का बादू महल्ला. यहां रूपम और काजल ने अपनी गृहस्थी बसाई. अपने घर वालों से विद्रोह कर. विद्रोह की नौबत इसलिए आई क्योंकि रूपम और काजल समलैंगिक हैं और उन की गृहस्थी एक गे गृहस्थी है. एक दशक पहले उत्तर कोलकाता के एक मंदिर में सिंदूर लगा कर दोनों ने एकदूसरे को अपनाया. हालांकि इस ब्याह को कानूनी मान्यता नहीं है और न ही मिल सकती है, बल्कि सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले के तहत समलैंगिक संबंध अपराध की श्रेणी में आ गया है. रूपम और काजल दोनों पुरुष हैं. उन की गृहस्थी में काजल महिला भूमिका निभाता है. दरअसल, पल्लव लिंग परिवर्तन के बाद काजल बना है. दोनों ने अपने घर वालों से अलग हो कर ब्याह रचाया और उस के बाद दोनों अन्य ‘स्टे्रट’ दंपतियों की तरह अपना गृहस्थ जीवन जी रहे हैं.

दक्षिण कोलकाता में एक और समलैंगिक गृहस्थी है सरोज और रजिंदर की. ये दोनों महिला समलैंगिक हैं. नदिया जिले के एक कसबे की दोनों सहेलियों को एकदूसरे में अपना जीवनसाथी मिल गया. पर घर वाले ऐसे संबंध के लिए तैयार नहीं हुए. दोनों के परिवार ने उन पर कड़ी पाबंदी लगा दी. लेकिन एक दिन दोनों अपने घरों से भाग कर दक्षिण कोलकाता के गडि़याहाट के एक मकान में बतौर पेइंग गैस्ट रहने लगे. वे अपने लिव इन रिलेशन में बहुत खुश हैं.

गौरतलब है कि हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय दंड विधान की धारा 377 के तहत समलैंगिक संबंध को अपराध करार दिया है. पर रूपम व काजल और सरोज व रजिंदर जैसे अन्य भारतीय समलैंगिक जोड़ों के साथ दिक्कत यह है कि उन्होंने कानून की धारा 377 के अनुरूप ‘प्राकृतिकअप्राकृतिक यौनाचरण’ की कानूनी व्याख्या को ध्यान में रख कर प्रेम नहीं किया. इस बात से कतई इनकार नहीं किया जा सकता कि आज के समाज में समलैंगिकता भी एक जीवनशैली बन चुकी है. और ऐसे जोड़े अपनी जीवनशैली से खुश भी हैं.

हमारे देश में 2 दशकों से समलैंगिकता को ले कर काफी चर्चा हो रही है. वहीं, साहित्य से ले कर फैशन व सिनेमा के क्षेत्र से जुड़े बहुत सारे सैलिब्रिटी खुलेआम अपने समलैंगिक परिचय देने या समलैंगिक यौनाचरण उजागर करने से गुरेज नहीं कर रहे हैं. शायद यही कारण है कि समलैंगिक जीवनशैली को कानूनी मान्यता देने के लिए बहुत सारी स्वयंसेवी संस्थाएं कमर कस कर मैदान में उतरी हैं.

लेकिन इस के साथ एक और मुद्दा भी जुड़ गया और वह है एचआईवी एड्स के इलाज का. नाज फाउंडेशन एक ऐसी संस्था है जो एचआईवी और एड्स के लिए काम करती है. इस संस्था ने धारा 377 को रद्द किए जाने के लिए 2001 में दिल्ली हाई कोर्ट में एक याचिका दायर की थी.

गौरतलब है कि नाज फाउंडेशन द्वारा इस धारा के खिलाफ याचिका दायर करने का मकसद एचआईवी और एड्स के समलैंगिक मरीजों को इलाज की सहूलियत दिलाना था. पर 2008 में कोर्ट ने मामला खारिज कर दिया. उस के बाद नाज फाउंडेशन ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. सुप्रीम कोर्ट ने मामले को फिर से दिल्ली हाई कोर्ट में भेज दिया और उस से तमाम पक्षों पर गंभीरता के साथ विचार कर फैसला सुनाने का आदेश दिया.

वर्ष 2009 में दिल्ली हाई कोर्ट ने 2 वयस्क व्यक्तियों के द्वारा यौन संबंध बनाए जाने को मौलिक अधिकार मानते हुए समलैंगिक संबंध को अपराध मानने से इनकार कर दिया. उस ने यह भी कहा कि मौजूदा स्थिति में धारा 377 नागरिक अधिकार के विरुद्ध है. कोर्ट ने इस तरह के यौनाचार को तब अपराध करार दिया, जब यह किसी की मरजी के खिलाफ या नाबालिगों यानी 18 साल से कम उम्र के साथ किया गया हो. वहीं, कोर्ट ने इस धारा को रद्द करने जैसी कोई बात अपने फैसले में नहीं कही थी.

अदालती उठापटक

कुछ समलैंगिकों का मानना है कि धारा 377 पर जो बवाल मच रहा है वह अपने आप में बहुत भ्रामक है. आधुनिक समाज में समलैंगिकता के कई रूप हैं, मसलन लेस्बियन, गे या एमएसएम (मैन सैक्स विद मैन), बाईसैक्सुअल (उभयलैंगिक), ट्रांसजैंडर (लिंग परिवर्तन कर लड़का से लड़की या लड़की से लड़का) आदि. इस कानून की जिस तरह व्याख्या की जा रही है उस के तहत समकामियों के बीच भेदभाव बरते जाने का अंदेशा है.

इस पर चर्चा करने से पहले आइए यह देखें कि धारा 377 दरअसल क्या कहती है? दिल्ली हाई कोर्ट ने इसे अपराध मानने से किस आधार पर मना कर दिया था? और सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले को किस तर्क के तहत पलट दिया?

इन सवालों के जवाब हम ने कोलकाता में आपराधिक मामलों के जानेमाने वकील शिव प्रसाद मुखर्जी से लिए. भारतीय दंड विधान की धारा 377 के बारे में मुखर्जी कहते हैं कि संविधान की इस धारा के तहत अगर कोई व्यक्ति प्रकृति के नियम के विरुद्ध स्वेच्छा से किसी पुरुष, महिला या पशु के साथ यौन संबंध बनाता है तो यह अपराध है.

इस अपराध की सजा के तौर पर10 साल की कैद और जुर्माने का प्रावधान है. लेकिन 2 जुलाई, 2009 को दिल्ली हाई कोर्ट ने ऐसे यौन संबंध को अपराध मानने से इनकार कर दिया था. उस का तर्क यह था कि 2 वयस्क व्यक्तियों द्वारा अपनी मरजी से किसी तरह के यौन संबंध में लिप्त होने को अपराध की श्रेणी में रखा जाना मौलिक अधिकार का हनन है. लिहाजा, उस ने समलैंगिक संबंध को अपराध मानने से इनकार किया.

दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले से असंतुष्ट धार्मिक संगठनों ने धर्म और नैतिकता के आधार पर दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की. सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली हाई कोर्ट के इस फैसले को यह कहते हुए निरस्त कर दिया कि संविधान की धारा 377 अपने आप में असंवैधानिक नहीं है. इस कारण धारा 377 के मद्देनजर दिल्ली हाई कोर्ट का तर्क कानूनन निराधार है. लेकिन साथ में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर व्यवस्थापिका चाहे तो इस धारा को संशोधित या फिर इसे रद्द कर सकती है.

धारा 377 पर भेदभाव का आरोप

अब समलैंगिकों के साथ भेदभाव के मुद्दे पर कुछ विशेषज्ञों के विचार जानते हैं. अमिताभ सरकार, जो स्वयं एक रूपांतकारी (ट्रांसजैंडर) सामाजिक कार्यकर्ता हैं और कोलकाता की एचआईवी-एड्स के लिए समर्पित संस्था ‘साथी’ के लिए काम करती हैं, वे इंटिग्रेटेड नैटवर्क फौर सैक्सुअल माइनौरिटी की भी सदस्य हैं लेकिन पेशे से फैमिली प्लानिंग एसोसिएशन औफ इंडिया की डैवलपमैंट कंसल्टैंट हैं. धारा 377 के तहत समलैंगिकों के बीच भेदभाव के मुद्दे पर वे कहती हैं कि लेस्बियन के यौनसंबंध में ‘पेनिटे्रशन’ की गुंजाइश नहीं होती है. इस के लिए लेस्बियन आमतौर पर सैक्सटौय का इस्तेमाल करती हैं और कानून में सैक्सटौय का कोई जिक्र नहीं है.

इस मुद्दे पर शिव प्रसाद मुखर्जी का कहना है कि भारतीय दंड विधान की एक अन्य धारा में पेनिटे्रशन की विस्तार से व्याख्या है, जिस में पेनिटे्रशन कहने का तात्पर्य केवल पुरुष यौनांग की बात नहीं कही गई है. वहीं धारा 377 में अप्राकृतिक शब्द की निर्दिष्ट व्याख्या नहीं है. लिहाजा, धारा 377 के दायरे में लेस्बियन को नहीं रखा जा सकता. लेकिन जहां तक पतिपत्नी के बीच यौन संबंध का सवाल है, उस में भी धारा 377 अपनी टांग अड़ा सकता है. इस की वजह यह है कि महिलापुरुष के बीच भी कई तरह के यौनाचार हुआ करते हैं. उन में कुछ प्रकृति के खिलाफ ‘पेनिटे्रशन’ के तहत आ सकते हैं.

ऐसा ही मामला बाईसैक्सुअल का भी है, जो पुरुष या महिला होते हुए पुरुष और महिला दोनों के साथ यौनसंबंध बनाते हैं. अमिताभ सरकार कहती हैं कि सुप्रीम कोर्ट में सरकार की ओर से जो तथ्य पेश किए गए, अगर उसी को लेते हैं तो उस के अनुसार, हमारे देश में गे की संख्या लगभग 25 लाख है और इन में से 7 प्रतिशत यानी 1 लाख 75 हजार एचआईवी पौजिटिव हैं. आने वाले समय में इन की संख्या 4 लाख होने का अंदेशा है. वहीं, लेस्बियन और महिला बाईसैक्सुअल का कोई आंकड़ा उपलब्ध नहीं है. बावजूद इस के, कुछ सालों में इन की भी तादाद बढ़ी है. देश में लेस्बियन के लिए काम करने वाली संस्था बहुत कम हैं. लेकिन एलजीबीटी मार्च में बड़ी तादाद में लेस्बियन और बाईसैक्सुअल महिलाएं शिरकत करती हैं. लेकिन धारा 377 के तहत कानूनन इन्हें कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता.

ट्रांसजैंडर का नजरिया

समलैंगिकता के संबंध में अमिताभ सरकार 3 बातें कहती हैं. एक, कोई भी कानून हो, हर किसी के लिए बराबर होना चाहिए. लेकिन धारा 377 के तहत गे और पुरुष ट्रांसजैंडर पर सजा की तलवार लटक रही है.

दूसरे, यह कानून अंगरेजों के जमाने का है. कुछ समय पहले अंगरेजों ने खुद अपने देश में ऐसे कानून को रद्द कर दिया है. इंगलैंड में महिला और बराबरी (वुमेन ऐंड इक्वैलिटी मिनिस्ट्री) मामलों की मंत्री मारिया मिलर ने 10 दिसंबर, 2013 को इंगलैंड और वेल्स में सेम सैक्स कपल मैरिज ऐक्ट 2013 के तहत ऐसे जोड़े की शादी को भी मान्यता दिए जाने की घोषणा कर दी है. ऐसे में भी हम लकीर के फकीर बने रहें, इस की कोई तुक नहीं बनती.

तीसरा, हर तरह के यौनाचरण का चलन भारत में सदियों से रहा है. खजुराहो, कोणार्क की मूर्तियां और महाभारत में शिखंडी का प्रकरण इस का प्रमाण है. लेकिन आज समाज परिवर्तन के बड़ेबड़े दौर से गुजर चुका है. पुराने कानून में बदलाव की जरूरत है.

वहीं, ट्रांसजैंडर ऐक्टिविस्ट और पीपल लाइक अस नामक ट्रांसजैंडरों की संस्था की कार्यकारी निदेशक अग्निवा लाहिड़ी का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला न केवल एलजीबीटी के लिए बड़ा धक्का है बल्कि पूरे भारतीय समाज के लिए बड़ा झटका है. कैसे?

अग्निवा का कहना है कि इस में कानून और न्याय के बीच एक कट्टरपंथी न्याय व्यवस्था का विकास साफ दिखाई दे रहा है, जबकि पिछले कई दशकों के बाद दिल्ली हाई कोर्ट ने देश के हरेक नागरिक के लिए समानता के सिद्धांत के आधार पर फैसला सुनाया था. उस फैसले ने न केवल सैक्स माइनौरिटी के अधिकार की रक्षा की थी, बल्कि समाज के हर क्षेत्र में होने वाले भेदभाव के खिलाफ भी वह फैसला एक मील का पत्थर था. उस फैसले ने अप्रत्यक्ष रूप से सैक्स माइनौरिटी को बहुसंख्यकवाद के हमले का सामना करने की कूवत भी प्रदान की थी.

अग्निवा का यह भी कहना है कि देश में भ्रष्टाचार से ले कर प्राकृतिक संसाधन की लूटखसोट तक एक से बढ़ कर एक मुद्दे हैं. इन से निबटने के बजाय तुलनात्मक रूप से कम प्रासंगिक मुद्दे पर पार्टियां ज्यादा मुखर हो रही हैं. यह भी सच है कि सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में जो कुछ कहा है, उस का अर्थ साफ है कि इस मुद्दे पर सरकार को ही कदम उठाना होगा. वह सरकार को अपने कंधे पर बंदूक रख कर चलाने देने को तैयार नहीं.

दिल्ली हाई कोर्ट के फैसले के बाद समकामी आंदोलन के कार्यकर्ता और सैक्स माइनौरिटी से जुड़ी तमाम संस्थाएं आत्मसंतुष्टि में जी रही थीं. लेकिन सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद तमाम तरह के समलैंगिकों के साथ ‘स्टे्रट’ दंपतियों के माथे पर भी बल पड़ने लगे हैं.

कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि समकामी आंदोलन का एक वृत्त पूरा हुआ. यह आंदोलन जहां से चला था, वापस वहीं पहुंच गया. हालांकि कुछ का मानना है कि असली लड़ाई अब शुरू होगी और नए सिरे से शुरू करनी होगी क्योंकि धारा 377 की तलवार हर उस जोड़े पर लटक रही है जो सैक्स की आम धारा से परे ‘अलग किस्म के यौनाचरण’ के कायल हैं.

बहरहाल, सुप्रीम कोर्ट का फैसला एक तरफ है लेकिन एक मां तो सिर्फ अपने बच्चे की खुशी चाहती है. एक समकामी पुरुष की मां बीना ठाकुरता अपने बेटे का दर्द अच्छी तरह समझती हैं कानून क्या कहता है, इस से उन्हें फर्क नहीं पड़ता. वे चाहती हैं तो सिर्फ अपने बेटे के लिए मरजी से जीवन जीने का अधिकार.

भारत भूमि युगे युगे

दलाल के चक्कर में जेठमलानी
दूसरों को धोखाधड़ी के मामलों में न्याय दिलाने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता और भाजपा नेता राम जेठमलानी को एक दलाल ने 7 करोड़ रुपए का चूना लगा दिया. मामला बेहद परंपरागत ढंग से संपन्न हुआ. राम जेठमलानी को चेन्नई में एक जमीन पसंद आ गई तो बतौर एडवांस उन्होंने एक दलाल को भारीभरकम राशि दे दी. बारबार कहने पर भी उस दलाल ने जमीन की रजिस्ट्री नहीं कराई तो झल्लाए जेठमलानी ने चेन्नई में 4 जनवरी को पुलिस कमिश्नर एस जौर्ज से संपर्क कर मामला दर्ज करा दिया.
यह संक्षिप्त कथा देश में रोज कई जगह दोहराई जाती है, फर्क सिर्फ इतना है कि उस में वकील कम होते हैं और राम जेठमलानी जैसे दिग्गज तो कतई नहीं होते. धोखाधड़ी से ताल्लुक रखते इस मसले से नैतिक शिक्षा यही मिलती है कि ज्यादा लालच और दलालों पर ज्यादा भरोसा नहीं करना चाहिए.
 
टल गया नीतीश का संकट
धर्मस्थल जाने में बड़े झंझट होते हैं. पहले जूते बाहर उतारने पड़ते हैं और अगर जूते कीमती हों तो उन की चिंता होती है कि कहीं ऐसा न हो कि किसी जूताचोर का दिल उन पर आ जाए और वह धरम का यह प्रिय काम कर डाले. इस चक्कर में भगवान की तरफ ध्यान कम ही जा पाता है.
लेकिन पटना में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के साथ मामला सिर का था. दिसंबर के आखिरी हफ्ते में एक गुरुद्वारे में वे गए तो एक सलाह, जिसे आदेश कहना बेहतर होगा, यह मिली कि कृपया सिर ढक लें. नीतीश के सामने जब यह धार्मिक संकट आया तो उन्होंने न में सिर हिला कर मना कर दिया तो सिख गुरुओं ने एतराज जताया. बात बवाल मचने से पहले आईगई हो गई पर यह भी बता गई कि टोपी पहनने या सिर ढकने के मामले में वे नरेंद्र मोदी के प्रतिद्वंद्वी अभी भी हैं.
 
हवाहवाई इंटरव्यू
सब से बड़े राज्य का मुख्यमंत्री होना या एक बड़े नेता का बेटा होना ही आदर्श नेतागीरी के लक्षण नहीं हैं. नेतागीरी एक अदा भी है जो बीते दिनों अखिलेश यादव ने भी निभाई. पुराने कांग्रेसी नेताओं की तरह उन्होंने भी हवाई जहाज में इंटरव्यू दिया और मान लिया कि देशभर ने देख लिया है कि अब वे एक पूर्ण नेता हो गए हैं.
हवाई जहाज में इंटरव्यू देने की बड़ी परेशानी यह है कि नेता को ज्यादा सजग रहना पड़ता है. चूंकि प्रसारण हो रहा है या होगा इसलिए वह आंख, नाक और कान तक नहीं खुजला पाता और सामने देखता रहता है. पत्रकार और कैमरामैन भी रोमांचित और खुश रहते हैं कि स्टूडियो और जमीन पर तो इंटरव्यू लेते रहते हैं, आज मौका मिला कि मुफ्त में हवा में उड़ भी लिए और ड्यूटी भी निभाई.
 
अंधविश्वासी हैं शिवराज
शिरडी के सांईंबाबा मंदिर में 2014 के शुरू के 3 और 2013 के आखिरी 6 दिनों में नकद 16 करोड़ रुपए भक्तों ने दान किए. इस से ज्यादा दिलचस्प खबर शिरडी से यह आई कि इन्हीं दिनों मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को देखने के लिए सांईंभक्त मंदिर छोड़ कर भागे और स्थानीय लोगों ने माना भी कि इस से पहले किसी नेता को देखने में लोगों ने इतनी दिचलस्पी नहीं दिखाई.
सांईंबाबा के साथ अब खुद की ब्रांडिंग करने के लिए भी शिरडी आदर्श जगह हो चली है जहां देश के चारों कोनों से लोग आते हैं और अपनी जेबें खाली करते हैं. शिवराज सिंह चौहान की लोकप्रियता देख भाजपा आलाकमान को चिंतित होना चाहिए या खुश, यह तो वही तय करें लेकिन तकनीकी तौर पर अंधविश्वास फैलाने में जरूर शिवराज अव्वल साबित हो रहे हैं.
 

मुजफ्फरनगर दंगों के बाद की जिंदगी बेबस और बेहाल

उत्तर प्रदेश में मुजफ्फरनगर के बाशिंदों के दंगों से मिले जख्म भर ही रहे थे कि कड़कती ठंड के कहर और सियासी नमक ने उन्हें फिर से हरा कर दिया. मुख्यमंत्री का गांव ग्लैमर की चाशनी में डूबा था तो इधर बेबस जिंदगियां मदद की गुहार लगा रही थीं. सड़क के किनारे मदद की आस में बैठे पीडि़तों का दर्द बयां कर रहे हैं शैलेंद्र सिंह.

दंगे आम लोगों के जीवन पर कैसे प्रभाव डालते हैं, यह देखना हो तो मुजफ्फरनगर के राहत शिविरों में रह रहे लोगों की दयनीय हालत को देख कर समझा जा सकता है. सर्द रातें इन शिविरों पर कहर बन कर टूट रही हैं. सरकार की फाइलों में राहत शिविर भले ही खत्म हो चुके हैं पर लोग अभी भी यहां पर टैंट के नीचे रहने को मजबूर हैं. उत्तर प्रदेश की जिस अखिलेश सरकार को राहत शिविरों में रह रहे पीडि़तों के लिए इंतजाम करने थे, वह सैफई महोत्सव के रंग में डूबी रही. वह टैंट डाल कर रह रहे लोगों को जमीन पर अवैध कब्जा करने वाला मान कर उन के खिलाफ मुकदमे कायम कर रही है. सरकार ने राहत के नाम पर 1,800 लोगों को 5-5 लाख रुपए दे कर उन का मुंह बंद करने का काम किया है. दंगा पीडि़त बाकी 3 हजार लोग कहां जाएं, इस का कोई जवाब उस के पास नहीं है. दंगों के बाद इन पीडि़तों की जिंदगी बेबस, बेहाल और लाचार नजर आती है. यहां के हालात देख कर ऐसा लगता है जैसे सरकार राहत नहीं खैरात दे रही हो.

मुजफ्फरनगर के 4 गांव लोई, जोला, शाहपुर और बसीकला के राहत शिविरों के हालात देखने पर यहां के रहने वालों का दर्द समझ में आ जाता है. 27 दिसंबर, 2013 तक इन गांवों के राहत शिविरों में 1200 लोग रह रहे थे. मुजफ्फरनगर से शाहपुर 30 किलोमीटर, जोला 60 किलोमीटर, लोई 60 किलोमीटर और बसीकला 35 किलोमीटर के करीब बसे हैं. यहां राहत शिविर में रहने वालों के लिए पहले गांव के किनारे सड़क के पास ऊंची जमीन देख कर टैंट लगाए गए थे.

सही माने में देखें तो यहां लोग रह नहीं रहे थे, बल्कि वे अपनी जिंदगी से जंग लड़ रहे थे. राहत शिविरों के पास कूडे़ के ढेर लगे थे. कई जगहों पर गड्ढों में गंदा पानी भरा था. टैंट से पानी निकास का कोई इंतजाम न था. शिविर के आसपास किसी भी तरह के शौचालय की व्यवस्था नहीं की गई थी. दूर से देखने पर यह राहत शिविर किसी झुग्गीझोंपड़ी बस्ती से नजर आते थे.

खाने के लिए जरूरतभर सामान नहीं मिल रहा था. ऐसे में परिवार के बडे़ लोग अपने बच्चों के लिए रोटियां बचा कर रख लेते थे. खुद भूखे पेट गुजारा कर रहे थे. लोई कैंप में उस समय 72 महिलाएं गर्भवती थीं. उन में से 8-9 तो ऐसी थीं जिन को किसी भी वक्त पर प्रसव हो सकता था. गर्भवती महिलाओं के लिए सुरक्षित प्रसव कराने के लिए कोई खास इंतजाम न था. यहां बने स्वास्थ्य केंद्रों पर डाक्टर कुछ समय के लिए ही आते थे. यहां किसी भी तरह की एंबुलैंस भी देखने को नहीं मिली थी. दवा लेने के लिए लोगों को लाइनें लगानी पड़ती हैं.

यहां रहने वाली फातिमा ने बताया कि अगर दिन में कोई जरूरत पडे़ तो शहर से एंबुलैंस आ जाती है. रात के लिए कोई इंतजाम नहीं है. 20 दिन के बच्चे की मां रेहाना कहती हैं, ‘‘मुझे तो कैंप में ही बच्चा हो गया था. हमें पूरी मात्रा में दूध नहीं मिलता. मेरा बच्चा मेरा दूध पीता है. मुझे अपनी नहीं, बच्चे की चिंता है. इस सर्दी में कहां जाएं समझ नहीं आता है,’’ सब से मुश्किल यहां रहने वाली जवान बहू और लड़कियों  के सामने होती है. उन को नहाने के लिए खुली जगह का ही उपयोग करना पड़ता है.

राहत शिविरों की बदहाली

सर्दी के मौसम के बावजूद बच्चों और बूढ़ों के लिए अलग से कोई इंतजाम नहीं किए गए थे. इसी तरह नवजात शिशुओं और महिलाओं के लिए दूध या दूसरे पौष्टिक खाने का इंतजाम नहीं था. सर्दी से बचने के लिए आग जलाने को लकड़ी आती थी पर वह जल्द ही जल कर खत्म हो जाती थी. ऐसे में पूरी रात ठंडक में काटनी पड़ती थी. शिविर में गद्दा और रजाई ऐसे थे जिन से जाड़े का बचाव संभव न था.

सब से बड़ी परेशानी उन बच्चों के लिए थी जो स्कूल पढ़ने जाते थे. झगडे़ के डर से ये बच्चे अपने स्कूल नहीं जा पा रहे थे. हाईस्कूल और इंटरमीडिएट की बोर्ड परीक्षाओं के मद्देनजर सरकार ने राहत शिविरों के आसपास किसी भी तरह के परीक्षा केंद्रों की स्थापना भी नहीं की गई है. ऐसे में ये बच्चे अपने पुराने स्कूलों में जा कर परीक्षा देने का साहस नहीं कर पाएंगे.

जोला के राहत शिविर में रहने वाले कक्षा 10 के छात्र दानिश कुरैशी कहते हैं, ‘‘मेरा स्कूल गांव के अंदर है. हम पिछले 5 माह से पढ़ने स्कूल नहीं गए हैं. हमारे स्कूल का परीक्षा सैंटर भी पास के दूसरे स्कूल में है. मेरे घर वाले कह रहे हैं कि हम वहां परीक्षा देने नहीं जा सक ते. हम वहां जाएंगे तो दंगा करने वाले लोग हम से बदला ले सकते हैं.’’

राहत शिविरों में रहने वाली महिलाओं और लड़कियों के साथ बदसलूकी की घटनाएं भी घटीं. प्रशासन ने इन को दबाने का काम किया. औल इंडिया प्रोग्रैसिव वूमेन एसोसिएशन की राष्ट्रीय अध्यक्ष कविता कृष्णनन कहती हैं, ‘‘दंगों के दौरान और बाद में महिलाओं के साथ हुई यौन हिंसा में सरकार ने कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया है. बलात्कार के कई मामले ऐसे हैं जिन में मुकदमा कायम होने के बाद भी दोषियों को पकड़ा नहीं गया है. बहुत सारे ऐसे मामले भी हैं जिन में कोई मुकदमा तक कायम नहीं हुआ है.’’

मुआवजे के साथ जुड़ी शर्तें

सरकार ने दंगा पीडि़तों को जो मुआवजा बांटा है उस को ले कर तमाम तरह के सवाल उठ रहे हैं. मुआवजा सभी दंगापीडि़तों को नहीं मिला है. जिन को दिया गया है उन से शपथपत्र ले लिया गया कि अब वे अपने गांव नहीं जाएंगे और अपनी किसी जायदाद का दावा नहीं करेंगे. इन मुआवजा पाने वालों ने यह भी जिला प्रशासन को लिख कर दे दिया है कि ये लोग किसी राहत शिविर में नहीं रहेंगे.

मुजफ्फरनगर के रहने वाले इमरान अली कहते हैं, ‘‘मुआवजे के लिए ऐसी शर्तें रख कर सरकार ने पीडि़तों के जख्मों पर नमक छिड़कने का काम किया है.’’ इमरान खुद भी दंगा पीडि़त हैं.

मैगसेसे अवार्ड पाने वाले समाजसेवी डाक्टर संदीप पांडेय कहते हैं, ‘‘पुनर्वास का मतलब मुआवजा भर नहीं होना चाहिए. सरकार ने राहत शिविरों में रहने वालों के साथ जिस तरह से व्यवहार किया है वह ठीक नहीं है. सरकार को ऐसे इंतजाम करने चाहिए कि शामली और मुजफ्फरनगर  जैसी घटनाएं दोबारा न घटें. राहत शिविरों में रहने वालों का सही माने में पुनर्वास होना चाहिए. केवल मुआवजा दे कर अपनी जिम्मेदारी से नहीं बचना चाहिए. सरकार को चाहिए कि वह दंगा पीडि़तों को घर और खेती के लिए जमीन दे ताकि वे अपना जीवन गुजरबसर कर सकें.’’

किस से करें फरियाद

शिविर में ऐसे लोग भी थे जो आसपास जमीन खरीद कर अब अपना मकान बनाने की योजना में हैं. सरकारी राहत शिविर खत्म होने के बाद भी ये टैंट के नीचे रहने को मजबूर हैं क्योकि इन के पास रहने को छत नहीं है. जो 5 लाख रुपया इन को सरकार की ओर से दिए भी गए थे उस का बड़ा हिस्सा जमीन खरीदने में ही चला गया. अब घर कहां से बने, यह इन को समझ नहीं आ रहा है. ऐसे में ये लोग टैंट के नीचे रहने को मजबूर हैं.

दरअसल, सरकार ने मुआवजे के लिए केवल 9 गांवों को ही चुना है जहां पर दंगा ज्यादा फैला था. सचाई यह है कि दंगे ने आसपास के 144 गांवों में लोगों को बेघर कर दिया था. सरकार ने इन सब की कोई सुध नहीं ली है. मुजफ्फरनगर के शामली के फुगना गांव में रहने वाली हदीसा बताती हैं, ‘‘जिस दिन दंगा भड़का उस दिन हमारे गांव में 2 शादियां थीं. अचानक घर के बाहर गोलियां चलने लगीं. घरों को जलाया जाने लगा. हमारे घरों में लूटपाट शुरू हो गई. मुझे भी चोट लगी. मेरा हाथ टूट गया. अब मेरे हाथ ने काम करना बंद कर दिया है. मुझे इलाज के लिए सरकारी मदद भी नहीं मिली.’’

कुरबा गांव के रहने वाले कगू कहते हैं, ‘‘हमारी जमीन पर गांव के दूसरे लोगों ने कब्जा कर रखा है.  हमारी सुनने वाला कोई नहीं है. हमें किसी तरह की मदद नहीं दी गई. हम बेघर हो चुके हैं. हमारे पास कुछ नहीं है. हम अकेले नहीं हैं.’’

खरट से आए शमशाद चौधरी कहते हैं, ‘‘जिस जमीन की कीमत दंगे से पहले 5 लाख रुपए थी अब उस की कीमत घट कर आधी रह गई है. ऐसे में हम अपनी जमीन बेच कर दूसरी जगह जमीन कैसे ले सकते हैं. सरकार ने ऐसे लोगों को दंगापीडि़त नहीं माना है जो बेघर हो गए हैं.’’

सरकार ने मुआवजा बांट कर जिस तरह से दंगापीडि़तों का घर और जमीन छीन ली है वह पूरी तरह से गलत है.

लखनऊ दिखा सुस्त

मुजफ्फरनगर की दिल्ली से दूरी 104 किलोमीटर और लखनऊ से 517 किलोमीटर है. शायद यही वजह रही होगी कि राहत शिविरों के हालात देखने दिल्ली से नेता पहुंचने लगे पर लखनऊ के लोग वहां तक नहीं पहुंच पाए. कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी और राष्ट्रीय जनता दल के मुखिया लालू प्रसाद यादव के मुजफ्फरनगर पहुंचने से राहत शिविरों के हालात खुल कर सामने आने लगे. सर्दियों की शुरुआत होते ही राहत शिविरों में बच्चों के मरने की घटनाओं का खुलासा हो गया. तब पता चला कि अलगअलग राहत शिविरों में 40 बच्चों की सर्दी लगने से मौत हो गई थी. यह बात लखनऊ में बैठे सत्ताधारी समाजवादी पार्टी के नेताओं और सरकारी अफसरों को अच्छी नहीं लगी. मामले को राजनीतिक रंग देने का काम शुरू कर दिया गया.

दूसरी ओर कुछ सामाजिक संगठनों ने भी राहत शिविरों में जा कर वहां के हालात देखने शुरू कर दिए. जौइंट सिटिजन इनिशिएटिव यानी जेसीआई ने भी मुजफ्फरनगर और शामली के राहत शिविरों को देखा और वहां की जरूरतों को समझा. जेसीआई के पुनीत गोयल कहते हैं, ‘‘करीब 15 हजार लोग बेघर हैं. इन में से वे लोग भी हैं जिन को सरकार ने 5 लाख रुपए का मुआवजा दे दिया है. इन लोगों को सरकार ने स्थायी रूप से विस्थापित माना है. ये लोग अपने गांव वापस नहीं जा सकते. अपने मकानजमीन पर कब्जे की मांग नहीं कर सकते. यह बात सरकार ने इन लोगों से शपथपत्र में लिखवा ली है. यह शपथपत्र देने के बाद ही उन को 5 लाख रुपए का मुआवजा दिया गया.’’

बहरहाल, सरकार और प्रशासन अपनीअपनी धुन में व्यस्त हैं. नौकरशाह वही करते हैं, जो उन के आका कहते हैं. दर्द तो ये दंगा पीडि़त झेल रहे हैं जिन की सुध लेने वाला कोई नहीं है.

शातिरों से बचना आप की चुनौती

उगते सूरज को सब सलाम करते हैं. शायद इसीलिए कल तक खास बन कर इतराने वाले अचानक ‘आप’ के सत्ता में आने के बाद आम बनने पर उतारू हैं. सत्ता में हिस्सेदारी लूटने की मंशा लिए ये शातिर लोग ‘आप’ का दामन थाम कर अपना उल्लू सीधा करने की फिराक में हैं. ऐसे में इन शातिर खिलाडि़यों से कैसे निबटेंगे आम आदमी पार्टी के नेता, विश्लेषण कर रहे हैं बीरेंद्र बरियार ज्योति.

भ्रष्टाचार के खिलाफ राष्ट्रीय आंदोलन से उपजा नया सियासी दल आम आदमी पार्टी यानी ‘आप’ की लोकप्रियता अखिल भारतीय स्तर पर बढ़ती जा रही है. अन्य पार्टियों से अलग ‘आप’ ईमानदारी को अपना मिशन बना कर राजनीति के मैदान में है. चुनावी जंग में पहली बार ही इसे मतदाताओं ने दिल्ली की सत्ता की बागडोर थमा दी है. उस की अद्वितीय सफलता का ही असर है कि देशभर में लोग ‘आप’ का साथ देने के साथ उस की सदस्यता ग्रहण कर रहे हैं.

बिहार और झारखंड में भी आम आदमी पार्टी में शामिल होने के लिए ‘पहले आप पहले आप’ वाला माहौल नहीं है, हर कोई आप की बहती गंगा में हाथ धोने या कहिए डुबकी लगाने के लिए उतावला है. आप के पक्ष में तेजी से बनते और बढ़ते माहौल से ‘आप’ को कोई बड़ा फायदा भले ही न हो लेकिन कई बड़े दलों की परेशानी तो बढ़ ही सकती है.

‘आप’ के मुखिया अरविंद केजरीवाल के दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने के बाद तमाम सरकारी सुविधाओं और सुरक्षा के भारीभरकम तामझाम को लेने से मना करने से भी सियासी दलों के सामने मुश्किलें खड़ी हो गई हैं. दूसरे राज्यों के मुख्यमंत्रियों को सरकारी सुविधाएं न निगलते बन रही हैं न ही उगलते बन रही हैं. उधर, ‘आप’ के सामने बड़ी समस्या यह पैदा हो गई है कि शातिर और आपराधिक छवि के लोग भी आप के कंधे पर सवार हो कर सियासी महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने की कवायद में लग गए हैं.

सरकारी सुविधाओं का कम से कम लाभ लेने वाले ‘आप’ के नेताओं ने सुविधाभोगी नेताओं के सामने बड़ी ही दुविधा की स्थिति पैदा कर दी है. ब्यूरो औफ पुलिस रिसर्च ऐंड डैवलपमैंट के आंकड़ों के मुताबिक, समूचे देश में14 हजार 842 वीआईपी की हिफाजत में 47 हजार 557 पुलिस वाले लगे हुए हैं. हरेक राज्य की सरकारों और नेताओं को केरल से सबक लेने की जरूरत है. वहां महज 33 वीआईपी हैं और उन की देखरेख में केवल 55 पुलिस वालों को ही लगाया गया है.

बिहार जैसे गरीब राज्य को 4,591 वीवीआईपीज की सुरक्षा पर हर साल 141 करोड़ 95 लाख रुपए खर्च करने पड़ते हैं. सूबे के हरेक मंत्री की सुरक्षा में 18-18 पुलिस वाले और हरेक विधायक को 3-3 गार्ड मुहैया कराए गए हैं. वीआईपीज की लिस्ट में केवल मंत्री- विधायक ही नहीं हैं, 382 लोग ऐसे भी हैं जिन का सियासत से कोई नाता नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट में राज्य सरकार ने जो शपथपत्र दायर कर रखा है, उस में 3,591 वीआईपीज को सुरक्षा मुहैया कराई गई है, इन में से 70 लोगों के ऊपर गंभीर आपराधिक आरोप लगे हुए हैं. देश में 761 नागरिकों पर 1 पुलिस वाला तैनात है तो बिहार में 1,456 की आबादी पर 1 पुलिस वाला है. राज्य में वीआईपीज की हिफाजत के लिए 10 हजार पुलिस वालों को लगाया गया है, जबकि साढ़े 10 करोड़ की कुल आबादी की सुरक्षा के लिए 87 हजार पुलिस वाले हैं.

दिल्ली में ‘आप’ की सरकार बनने के बाद उस के मुख्यमंत्री और मंत्रियों ने सरकारी सुविधाओं व सुरक्षा को लेने से मना कर बाकी दलों के नेताओं के सामने अनोखी चुनौती पेश की है.

बिहार में ‘आप’ के सदस्य बने चार्टर्ड अकाउंटैंट श्यामबाबू शर्मा कहते हैं कि सरकार और पुलिस, पब्लिक की हिफाजत के लिए होती है, न कि वीआईपी के लिए. पुलिस सुरक्षा लेना तो स्टेटस सिंबल बन गया है. इस वीआईपीज कल्चर को खत्म करने की जरूरत है. पब्लिक की सुरक्षा की बात आती है तो पुलिस वालों की कमी का रोना रोया जाता है, पर वीआईपीज की सुरक्षा में हजारों पुलिस वालों को आसानी से लगा दिया जाता है. अरविंद केजरीवाल और ‘आप’ के नेताओं ने इस परंपरा को तोड़ने की कोशिश की है. बाकी दलों में अगर जरा भी शर्म है तो उन्हें उन की सुरक्षा के नाम पर लगाए गए पुलिस वालों को जनहित में हटा देना चाहिए.

वीआईपी कल्चर पर झटका

सियासत के अखाड़े में पुराने व घाघ नेताओं और राजनीतिक दलों को धूल चटाने के बाद ‘आप’ ने वीआईपी कल्चर पर तगड़ा वार किया है. उन की सादगी से बाकी दलों के नेता ऊहापोह में हैं कि वे लोग भी ‘आप’ के नेताओं की तरह आम आदमी बन कर रहें या फिर अपना चोला न बदलें. भाजपा के एक बड़े नेता कहते हैं कि बाकी दलों के नेताओं और मंत्रियों के सामने भी खुद को मिली सुविधाओं और सुरक्षा में कटौती करने की मजबूरी खड़ी हो गई है. अगर वे ऐसा नहीं करते हैं तो चुनाव के समय जनता उन से इस से जुड़े सवाल पूछ कर उन की बोलती बंद कर सकती है.

‘आप’ ने सब से बड़ा झटका वामपंथी दलों को ही दिया है. भाजपा और कांगे्रस को दरकिनार कर तीसरी ताकत की रट लगाने वाले वामपंथी दल दिल्ली में आम आदमी पार्टी की कामयाबी से भौचक हैं. सियासत के गलियारों में जिस खाली जगह पर वामपंथी दलों की नजरें टिकी हुई थीं उस पर ‘आप’ ने अपना कब्जा जमा लिया है.

खास बात यह है कि ‘आप’ कांगे्रस और भाजपा जैसी राष्ट्रीय पार्टियों के साथ ही क्षेत्रीय दलों के लिए बहुत बड़ा खतरा बन कर उभरी है. क्षेत्रीय दलों को तो अपना अस्तित्व बचाने के लिए जुगत लगानी पड़ रही है. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कहते हैं कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी के पक्ष में जनादेश गया है, पर बिहार में उस की स्थिति मजबूत नहीं है. दिल्ली में ‘आप’ की जीत ने बता दिया है कि जहां लोग कांगे्रस से नाराज होते हैं वहां मजबूरी में भाजपा को वोट देते हैं. दिल्ली में भाजपा के बजाय जनता ने आम आदमी पार्टी को वोट दिया. वे कहते हैं कि राज्यों में फिलहाल ‘आप’ की कोई खास और दमदार मौजूदगी नहीं है, इसलिए क्षेत्रीय दलों को इस से कोई खतरा होने का सवाल ही नहीं उठता है.

नीतीश भले ही ‘आप’ की बढ़ती ताकत को खारिज कर दें पर दिल्ली में रहने वाले बिहारियों ने नीतीश कुमार और जदयू को पूरी तरह से नकार दिया है. ‘आप’ की आंधी की वजह से नीतीश के सुशासन और तरक्की के दावों के ढोल की गूंज दिल्ली तक नहीं पहुंच सकी. जदयू ने दिल्ली में 27 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे, जिस में मटियामहल के उम्मीदवार को छोड़ कर सभी की जमानत जब्त हो गई. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने द्वारका, संगम विहार, ओखला, किराड़ी और बुराड़ी में जम कर चुनाव प्रचार किया था. इन इलाकों में बिहारियों की संख्या काफी ज्यादा है. द्वारका में 2,751, संगम विहार में 9,010, ओखला में 9,500, बुराड़ी में 2,643 और किराड़ी में 944 वोट ही जदयू को मिले.

बिहार में आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्य रत्नेश चौधरी कहते हैं कि सियासत के पुराने ढर्रे में बदलाव लाने में ‘आप’ कामयाब रही है और दिल्ली में ‘आप’ को मिली कामयाबी ने यह साबित कर दिया है कि भारत के लोकतंत्र में लोक पहली बार आगे निकला है. उन का दावा है कि दिल्ली के चुनावी नतीजे का असर बिहार की राजनीति पर भी पड़ेगा और अगले लोकसभा चुनाव में ही सूबे में ‘आप’ की धमक और चमक दिखाई देगी. उन का दावा है कि बिहार में कांगे्रस के नए सिरे से उठने के आसार पूरी तरह से खत्म हो गए हैं. भाजपा, जदयू और राजद से नाराज वोटर निश्चित रूप से नएनवेले विकल्प ‘आप’ को वोट दे कर दिल्ली के नतीजों को बिहार में दोहराने की कोशिश करेगा. कुल मिला कर कहा जा सकता है कि ‘आप’ सभी दलों के लिए मजबूत चुनौती बन कर उभरी है.

ममता पर साइड इफैक्ट

अब तक तमाम राजनीतिक पार्टियां आम आदमी के नाम पर ही अपनी राजनीति करती आ रही थीं. वहीं, देश की राजनीति में एक आम आदमी की हैसियत महज ‘मैंगो पीपल’ की ही रह गई थी, जिसे चुनाव के बाद गुठली समझ पर फेंक दिया जाता रहा है. आम आदमी के दमखम को ये राजनीतिक नेता अब तक समझ नहीं पाए थे. लेकिन पिछले दिनों दिल्ली विधानसभा में आम आदमी पार्टी की जीत से ऐसा लगने लगा है कि राजनीति के माने और उस का ढर्रा बदल जाएंगे. देश की जनता में भी एक उम्मीद जगी है कि बदलाव आने को है. इसी कारण पारंपरिक राजनीतिक पार्टियों के नेताओं की नींद हराम हो गई है. तमाम राजनीतिक पार्टियों में एक हद तक खलबली सी मच गई है, इस में दोराय नहीं है. ‘आप’ ने विधानसभा में जो प्रोमो दिखाया है, उस से साफ है कि इस का बड़ा असर लोकसभा चुनाव में दिखेगा. गौरतलब है कि ‘आप’ ने पूरे देश में 300 उम्मीदवार खड़े करने की घोषणा कर दी है.

यही कारण है कि लोकसभा चुनाव के मद्देनजर तमाम राष्ट्रीय पार्टियां आम जनता के नजरिए को ध्यान में रख कर रणनीति बनाने में जुट गई हैं. इसी खलबली का असर पश्चिम बंगाल में भी साफ नजर आने लगा है.

ममता बनर्जी भी आम आदमी के नजरिए से लोकसभा चुनाव की तैयारियों में लग गई हैं. 34 साल के वाम शासन के बाद मां, माटी, मानुष का नारा दे कर सरकार बनाने वाली ममता बनर्जी से लोगों को बहुत अधिक उम्मीदें थीं. राज्य की जनता को ममता सरकार से जो उम्मीदें थीं, वे पूरी नहीं हो पाई हैं. पिछले डेढ़ सालों के दौरान राज्य की जनता को वाम-तृणमूल शासन में कोई खास फर्क नजर नहीं आया.

देश की राजनीति में आज आम आदमी का हौवा सिर चढ़ कर बोल रहा है तो जनता भी आम आदमी के करिश्मे और उस की ताकत से वाकिफ हो चुकी है. ऐसे में ममता ने भी एक तरफ अपने मंत्रियोंनेताओं को ‘आप’ पर किसी भी तरह की बयानबाजी से बचने की हिदायत दे रखी है तो दूसरी तरफ वे आम जनता को केंद्र में रख कर लोकसभा चुनाव की तैयारी में लग गई हैं. यह ‘आप’ का साइड इफैक्ट ही है कि जनताजनार्दन को ध्यान में रख कर ही पिछले दिनों ममता बनर्जी ने एक प्रशासनिक कैलेंडर का उद्घाटन किया.

सियासी कैलेंडर

अब सवाल है कि क्याकुछ है ममता बनर्जी के इस प्रशासनिक कैलेंडर में? यह कैलेंडर कई माने में खास है. पूरे देश में अपनी तरह का यह पहला कैलेंडर है. 250 पन्नों के इस कैलेंडर में 2014 के हरेक महीने में 61 सरकारी विभाग के जिम्मे क्याक्या काम हैं और उन कामों को पूरा करने की समयसीमा क्या है, इस का पूरा ब्योरा मौजूद है. इस कैलेंडर में वित्त विभाग के जो काम निर्धारित किए गए हैं उन में प्रमुख ई-स्टैंपिंग, वेतनपैंशन के मामले में ई-गवर्नेंस, आबकारी लाइसैंस, शराब परिवहन के लिए औनलाइन लाइसैंस आदि हैं.

भूमि और भूमि सुधार विभाग के लिए कर वसूली पर जोर देने के साथ ‘अपना घर अपनी जमीन’ परियोजना का कार्यान्वयन, जमीन का डिजिटल मैप पूरा करने का काम आदि भी प्रशासनिक कैलेंडर में दर्शाए गए हैं.

वहीं, शिक्षा विभाग के लिए माओवाद प्रभावित जंगलमहल की छात्राओं के लिए साइकिल वितरण, राज्य के 1.21 करोड़ छात्रछात्राओं के लिए मिड डे मील के अलावा विभिन्न जिलों में नए सरकारी स्कूलकालेज खोलने का काम निर्धारित किया गया है. स्वास्थ्य विभाग के लिए 2014 में 17 नए सरकारी अस्पतालों का निर्माण, तमाम सरकारी अस्पतालों में ‘फेयर प्राइस’ दवा काउंटर के साथ तमाम न्यूनतम फीस पर पैथोलौजिकल जांच केंद्र के निर्माण पर भी कैलेंडर में जोर दिया गया है.

दरअसल, ममता बनर्जी के नेतृत्व में राज्य सरकार ने पिछले 2 सालों से जिन नई प्रशासनिक योजनाओं का बीड़ा उठाया है, उन तमाम योजनाओं का खाका और उन की पूरी समय सारणी इस कैलेंडर में है. दावा है कि आजाद भारत में ऐसा कभी नहीं न देखा गया है और न ही सुना गया है.

पार्टी का कहना है कि सरकारी कामकाज में गति लाने के लिए ममता बनर्जी ने यह कदम उठाया है. राज्य की सत्ता पर काबिज होने के बाद सरकारी और प्रशासनिक कामकाज को समय पर पूरा करने पर ममता जोर देती आई हैं. लेकिन इस दिशा में अब तक कुछ ठोस नहीं हो पाया था.

अब जाहिर है इस के जरिए ममता बनर्जी अपनी छवि को चमकाने के जुगाड़ में हैं. कैलेंडर तैयार होने से पहले प्रशासनिक अधिकारियों के साथ मुख्यमंत्री ने कई बैठकें कीं. बैठक में ममता ने तमाम विभागों के अब तक के कामकाज का हिसाब लिया. यहां उल्लेखनीय है कि तमाम सरकारी योजनाओं के लिए केंद्र से मिलने वाली रकम को ले कर पश्चिम बंगाल को केंद्र से हमेशा शिकायतें रही हैं. लेकिन केंद्र से मिली रकम को राज्य द्वारा पूरा खर्च न कर पाने पर उस रकम के लौटा देने की भी बहुत सारी मिसाले हैं. यह वाम शासन से होता आया है. और अब ममताराज में भी हुआ है.

यह सुकून की बात है कि निहायत अंदरूनी प्रशासनिक कामकाज की गति अब विभाग का अंदरूनी मामला नहीं रह गया है, बल्कि इसे कैलेंडर में दर्ज कर सार्वजनिक कर दिया गया है. इस के अलावा तय समयसीमा में काम पूरा किया जाए, इस के लिए सरकार ने सेवा कानून पारित किया है, जिस के तहत निर्धारित समय के भीतर काम पूरा न होने पर जनता सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ कार्यवाही कर सकती है.

इस से साफ है कि प्रशासनिक कैलेंडर का मकसद सरकारी कर्मचारियों को जवाबदेह बनाना है. सालभर तमाम विभागों को क्याक्या काम करने हैं, यह पहले से तय होने के कारण साल के अंत में प्रशासनिक कैलेंडर के आधार पर जनता सरकारी विभाग और सरकारी कर्मचारियों से कैफियत मांग सकती है.

बहरहाल, ‘आप’ ने दिल्ली में सत्ता हासिल करने के साथ आगामी लोकसभा चुनाव के लिए हरियाणा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड़, महाराष्ट्र, गुजरात समेत अन्य प्रदेशों में अपना विस्तार शुरू कर दिया है. इस बीच अभिनेत्री, समाजसेवी, डाक्टर, इंजीनियर, पत्रकार आदि लगातार पार्टी में शामिल हो रहे हैं. मध्य प्रदेश में सदस्यता अभियान शुरू होते ही हजारों लोगों का तांता लग गया. कुल मिला कर उभरती इस पार्टी की सफलता के घोड़े पर हर कोई सवार होना चाहता है.

जाहिर है इस में ईमानदार लोगों से ज्यादा शातिर शख्सीयतों की भरमार है, जो ‘आप’ के कंधे पर अपनी सियासी बंदूक से निशाना साध रहे हैं. ऐसे में इस भीड़भरी जमात में ‘आप’ के लिए ऐसे शातिरों को पहचानना बड़ी चुनौती होगी.

-साथ में साधना

 

मध्यवर्ग में उच्च शिक्षा का संकट

ज्ञान का युग कहलाने वाले इस दौर में मध्यवर्ग परिवारों में हर कोई अपने बच्चों को ऊंची शिक्षा दिलाना चाहता है. इस के लिए वह अपने बच्चों को देश के सब से बेहतर शिक्षा संस्थान में ही नहीं, विदेश में भी भेजने की इच्छा रखता है लेकिन उच्च शिक्षा पाना मध्यवर्ग परिवारों के सदस्यों के लिए बड़ा संकट बनता जा रहा है. शिक्षा के बाजार में ऊंची डिगरियां खरीदना इस वर्ग के लिए मुश्किल हो रहा है क्योंकि शिक्षा बहुत ही महंगी हो गई है. शिक्षा पाने के बाद न तो नौकरी की गारंटी है और न ही व्यवसाय की सफलता की, इसलिए यह आर्थिक संकट और भारी पड़ रहा है.

ग्लोबलाइजेशन के मद्देनजर करीब2 दशकों से उच्च शिक्षा का विस्तार हुआ है. उदारीकरण के दौर में उच्च शिक्षा के प्रति मध्यवर्गीय परिवारों में न केवल उत्सुकता जागी, ये आगे बढे़. आर्थिक तौर पर सामर्थ्य न होते हुए भी उधार पाने में पीछे न रहे. अधिकांश परिवारों में पढ़ाईलिखाई कर्ज पर चल रही है. इस के लिए मांबाप बैंकों से एजुकेशन लोन, व्यक्तिगत लोन ले रहे हैं या अपनी कंपनी अथवा विभाग से कर्ज ले कर लाड़ले या लाड़ली को पढ़ा रहे हैं. कई तो अपनी जमीनजायदाद बेच कर या गिरवी रख कर बच्चों की शिक्षा पर खर्च कर रहे हैं. 40-50 हजार से डेढ़ लाख रुपए तक कमाने वाला अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाना चाहता है, परिवार में चाहे एक कमाने वाला हो या मियांबीवी दोनों.

इस दौर में उच्च शिक्षा के निजीकरण का ट्रैंड इसलिए विकसित हुआ क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा बढ़ने लगी. विश्व में नौलेज सोसायटी क्रिएट करने की जरूरत महसूस हुई लेकिन इस से दक्ष, शिक्षित वर्कर नहीं, केवल नौलेज वर्कर तैयार हो रहा है.

भारत में करीब 50.5 करोड़ युवा 25 वर्ष से कम उम्र के हैं. वर्तमान में एक करोड़़ 10 लाख युवा उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं. यह 17 से 23 साल की उम्र का 11 प्रतिशत है. सरकार को उम्मीद है कि यह संख्या 2017 तक बढ़ कर 21 प्रतिशत हो जाएगी.

उच्च शिक्षा के लिए अधिकांश बच्चों को अपने घर से दूर रहना पड़ता है. कालेज होस्टल या निजी घर किराए पर ले कर रहना और खानेपीने का खर्च किसी भी शहर में सस्ता नहीं है. ऐडमिशन से ले कर कोर्स फीस और अन्य तरहतरह के चार्ज व डोनेशन बहुत भारी पड़ते हैं. बच्चे को जेब खर्च चाहिए, वह अलग.

विदेशी शिक्षा का मोह इन सालों में जरूरत से ज्यादा बढ़ा है और आवश्यक हो या न हो, एक विदेशी विश्वविद्यालय की डिगरी विवाह और नौकरी दोनों के लिए आवश्यक बनती जा रही है. यह डिगरी न सस्ती है और न आसानी से मिलती है. उद्योग चैंबर की एक रिपोर्ट के अनुसार, 4 लाख 50 हजार छात्र विदेशों में पढाई पर 13 खरब रुपए खर्च कर रहे हैं. सब से अधिक छात्र अमेरिका में हैं. इस के बाद इंगलैंड, आस्ट्रेलिया, कनाडा, न्यूजीलैंड, चीन, रूस आदि देशों में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं.

एसोचैम का एक सर्वे बताता है कि ज्यादातर मांबाप की कमाई का 65 प्रतिशत बच्चों की शिक्षा पर खर्च हो रहा है. मांबाप हाईस्कूल से कालेज तक की पढ़ाई पर 18 से 20 लाख रुपए खर्च कर रहे हैं. मध्यवर्ग में ज्यादातर वेतनभोगी उच्च शिक्षा पर खर्च कर रहा है. शिक्षा का खर्च 28 से 32 प्रतिशत बढ़ता जा रहा है जबकि अभिभावकों की आमदनी में इतनी वृद्धि नहीं हो पाती.

कमाने वाला एक संकट अनेक

78 प्रतिशत अभिभावकों का कहना है कि जहां घर में कमाने वाला एक ही हो, वहां यह संकट और ज्यादा है यानी पतिपत्नी दोनों कमाते हैं तो भी मुश्किल है. फिर भी उच्च शिक्षा 10 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है. इन में डाक्टरी, इंजीनियरिंग, मैनेजमैंट, सीए की ओर अधिक आकर्षण है. एक अनुमान के अनुसार, 5 साल के मैडिकल कोर्स में निजी मैडिकल कालेजों में एक छात्र पर 40-45 लाख रुपए खर्च आता है. इस में डोनेशन, फीस, होस्टल आदि खर्च शामिल हैं.

इस के बाद डेढ़ साल का इंटर्न अनिवार्य है. फिर एमडी और एमएस में भी मोटा पैसा खर्च करना पड़ता है. देश में ज्यादातर मैडिकल शिक्षा खर्च सैल्फ फाइनैंस्ड मैडिकल कालेजों में होता है क्योंकि ये कालेज सरकारी सहायता के बिना चलते हैं.

इसी तरह प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेजों में 4 साल के कोर्स में 10-12 लाख रुपए का खर्च आता है. सरकारी कालेजों में यह खर्च थोड़ा कम है. एमबीए, सीए में भी 3 से 5 लाख रुपए खर्च हो जाते हैं.

इन तमाम कोर्सों में ऐडमिशन से पहले कोचिंग का मोटा खर्च इन परिवारों की कमर तोड़ रहा है. सर्वे बताते हैं कि शैक्षिक फीस का करीब 25 प्रतिशत ट्यूशन पर खर्च करना पड़ता है. इंजीनियरिंग की ट्यूशन फीस 2 से 3 लाख, मैडिकल की 2 से 3 लाख, सीए की 2 से 3 लाख रुपए है.

शिक्षा जैसे पवित्र पेशे में एक पूरा लूटतंत्र विकसित हो गया है. माफिया, बिचौलिए पैदा हो गए जो देसी, विदेशी विश्वविद्यालयों में ऐडमिशन के नाम पर मोटी कमाई कर रहे है. कंसल्टैंटों की दुकानें चल रही हैं, फ्रैंचाइजीज खुले हैं जो ऐडमिशन और बाद में प्लेसमैंट के नाम पर अभिभावकों की अंटी ढीली करने में लगे हैं. कोचिंग कारोबारी 9वीं क्लास से ही बच्चों के अभिभावकों को फंसा लेते हैं.

दरअसल, उच्च शिक्षा का जो सिस्टम बना हुआ है वह बेहद खर्चीला है. ज्योंज्यों उच्च शिक्षा की दर बढ़ रही है, मध्यपरिवारों के लिए आर्थिक संकट बढ़ता जा रहा है. कालेजों, विश्वविद्यालयों में फीस वसूलने के कई तरीके हैं, इन में विदेशी/एनआरआई कोटा, मैनेजमैंट कोटा, मैरिट आदि शामिल हैं. पिछले साल सरकार ने आईआईटी की फीस में 80 फीसदी की बढ़ोतरी की थी.

इंडियन बैंक एसोसिएशन के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2010 में उच्च शिक्षा के लिए सार्वजनिक  बैंकों से कर्ज लेने वाले 18 लाख लोग थे जबकि 2001 में केवल 3 लाख थे. इन में करीब 75 फीसदी लोग वे थे जिन्होंने छोटा यानी 4 लाख रुपए तक का लोन लिया था. लोन के लिए रिश्वत चुकानी पड़ती है, वह अलग.

घूस का बोलबाला

निजी उच्च शिक्षा संस्थान भ्रष्टाचार से अछूते नहीं हैं. पिछले दिनों कुछ मैडिकल कालेज की सीटें बढ़वाने से ले कर मान्यता पाने तक में मैडिकल काउंसिल को मोटी घूस देने के मामले सामने आए थे. यह पैसा भी अभिभावकों से ही वसूला जाता है.

उच्च शिक्षण संस्थान गैरलाभकारी उद्देश्य से नहीं चलते. वे विशुद्ध तौर पर कारोबारी मुनाफे की नींव पर बने हैं. इन का बगैर मेहनत, बगैर जवाबदेही के मोटे मुनाफे का व्यापार है. निजी क्षेत्र की शिक्षा का मानदंड अभी तक यही है कि संस्थान का भवन कितने एकड़ में फैला है, कितने कमरों में एअरकंडीशनर लगे हैं, कितने कंप्यूटर हैं. समाचारपत्रों के पन्नों के पन्ने इन के विज्ञापनों से भरे रहते हैं और यह तो स्पष्ट ही है कि इन विज्ञापनों का भुगतान छात्रों को ही करना होता है.

इन में शिक्षा कमजोर है. यहां से निकलने के बाद कोईर् गारंटी नहीं कि छात्र को रोजगार मिल ही जाएगा. कमजोर उच्च शिक्षा, कमजोर रोजगार ही दे सकती है. भारीभरकम खर्च के बावजूद गुणवत्ता से भरी शिक्षा की कमी है. यही कारण है कि उच्च शिक्षा पा कर भी छात्र मनमुताबिक नौकरी, कामधंधा नहीं कर पा रहा है. कोर्स से इतर वह राजनीति या अन्य धंधे की ओर जा रहा है.

इन सब के बावजूद अध्ययन बताते हैं कि उच्च शिक्षा आर्थिक विकास के लिए महत्त्वपूर्ण साबित नहीं हो रही है. उच्च शिक्षा पाने के बाद लोग दूसरे पेशे में जा रहे हैं. जो योग्य हैं वे विदेश जा रहे हैं और इस तरह प्रतिभा पलायन नहीं रुक रहा है. उच्च शिक्षा से गरीबी कम नहीं हो रही है. इस का संबंध मानव विकास से भी नहीं जुड़ पा रहा है.

चीन की बात करें तो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में वहां कई सुधार हुए हैं. चीन में ट्यूशन फीस नहीं है. छात्र के रहनसहन का खर्च अभिभावकों पर अधिक नहीं है. इसे सरकार देख रही है. प्रतिभा पलायन वहां ज्यादा नहीं है. अमेरिका में शिक्षा की गुणवत्ता के लिए एक आयोग का गठन किया गया है जो अमेरिका को उच्च शिक्षा में विश्व का गुरु बनाने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है.

हमारे यहां शिक्षा की गुणवत्ता जांचने पर कोई ध्यान नहीं है. स्तरहीनता है. कोई जवाबदेही नहीं है. स्टैंडर्ड मेंटेन करने के लिए कोई रैगुलेटरी सिस्टम नहीं है. इस मामले में हम पूरी तरह फेल हैं.

यह हकीकत है कि भारत का युवा आज जिन इंजीनियरिंग उपकरणों, गैजेट्स का इस्तेमाल कर रहा है, अधिकतर विदेशी हैं. सरकार को रक्षा सामग्री से ले कर दूसरी तमाम चीजें विदेशों से आयात करनी पड़ती हैं. हमारे यहां ज्यादातर बड़े शिक्षा संस्थान या तो राजनीतिबाजों द्वारा चलाए जा रहे हैं या छुटभैये व्यापारियों के द्वारा, जो जमीन खरीद सकते हैं और मान्यता प्राप्त करने में सही व्यक्ति को रिश्वत दे सकते हैं.

आंकड़ों के अनुसार, वैज्ञानिक अनुसंधान में भारत का हिस्सा मात्र 2.1 प्रतिशत है जबकि चीन की बात करें तो वह हम से बहुत आगे है. चीन का हिस्सा 14.7 प्रतिशत है. यह जानकारी यूनेस्को की रिपोर्ट ने दी है.

हमारी रिसर्च पर आएदिन सवाल खड़े होते रहे हैं. विश्वविद्यालयों में नकली थीसिस, नकल की हुई किताबें अपने नाम से छपवाने की घटनाएं ताजा हैं.

यही नहीं, हमारे छात्र देश में पढ़ रहे हों या विदेश में, भेदभाव का शिकार हो रहे हैं. सामाजिक गैर बराबरी पीछा नहीं छोड़ पा रही है. मध्यवर्गीय परिवारों को आर्थिक शोषण के साथसाथ सामाजिक विषमता को भी झेलना पड़ रहा है. विदेशों में आएदिन भारतीय छात्रों के साथ हिंसा, भेदभाव की घटनाएं सामने आती हैं. अमेरिका, आस्ट्रेलिया से ले कर दिल्ली के औल इंडिया मैडिकल इंस्टिट्यूट  यानी एम्स तक में नस्लीय, जातिगत भेदभाव का हल्ला उठता रहता है. देश के हर विश्वविद्यालय, कालेजों में इस तरह की समस्याएं बरकरार हैं.

अगर सामाजिक नजरिए से देखें तो इस उच्च शिक्षा के बाद अभिभावकों के समक्ष  शादी जैसी जिम्मेदारी की समस्या भी होती है. बेटे की शादी करनी हो तो आज की तारीख में कम से कम 10 से 15 लाख और बेटी की शादी में 20 से 30 लाख रुपए खर्च होना मामूली बात है. ऐसे में मध्यवर्गीय परिवार के सामने खासा तनाव है.

शिक्षा का कारोबार

समाज को बनाने में शिक्षा का बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान होता है. जिस देश में शिक्षा का उद्देश्य नितांत स्वार्थपूर्ण कारोबार बन जाता है, उस में चोरी, बेईमानी, ठगी होने लगती है. ऐसे में समझा जा सकता है उस समाज का चरित्र कैसा होगा. ऐसे में आने वाले समाज की नैतिकता, युवाओं के संस्कारों पर सवाल मत उठाइए. क्या हम उच्च शिक्षा के लिए युवाओं को सामाजिक, पारिवारिक और राष्ट्रीय दायित्व सिखाने का काम कर रहे हैं?

हमारे यहां उच्च शिक्षा का मतलब न कैरियर से रहा, न ज्ञान प्राप्ति से और न ही एक अच्छे  इंसान से. हमारी उच्च शिक्षा इन सब से कोसों दूर होती जा रही है. उच्च शिक्षा देश, समाज बनाने वालों के हाथों में नहीं, धंधेबाजों, मुनाफाखोरों, लुटेरों के सिपुर्द है.

इस में युवाओं का कोई दोष नहीं है. यह हमारी मौजूदा व्यवस्था की देन है जो पूरी तरह से निकम्मी, भ्रष्ट, अनैतिकता की शिकार है. यही वजह है कि आज के युवा हमारे देश के राजनीतिक, सामाजिक सिस्टम से बेहद खफा हैं और वे बदलाव के लिए आक्रोशित हैं. वे इसे बदल देने पर आमादा दिखाई दे रहे हैं.

असल में हमारे यहां शिक्षा पहले धर्म के शिकंजे में रही. अब सत्ता और कौर्पोरेट ने हथिया ली. इन का उद्देश्य व्यक्ति, समाज, देश की आर्थिक, सामाजिक प्रगति से कतई नहीं रहा. आजादी के बाद शिक्षा में सुधार के लिए कईर् आयोग बने लेकिन वे धूल फांकते रहे. शिक्षा का बजट भी सरकारों ने बहुत कम रखा, वह भी घोटालों की भेंट चढ़ता गया.

शिक्षा पर निर्णय लेने वालों में आज राजनीतिबाज और नौकरशाह प्रमुख हैं. उन पर कौर्पोरेट और मुनाफाखोरों का प्रभाव है, जो एक अच्छे समाज व युवाओं के भविष्य को देख कर नहीं, महज स्वार्थ के लिए फैसले करते हैं. सरकार का नियंत्रण उन से छिटक चुका है. उन पर किसी तरह के कानून, नियमकायदे प्रभावी नहीं हैं. जनता जब शोर मचाती है तब सरकार जागती है पर शिक्षा के ठेकेदारों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं कर पाती. उन पर शिकंजा कस पाने में सरकार पूरी तरह लाचार है. बातबात में शिक्षा माफिया अदालतों की शरण में जा कर सुधार की कार्यवाही को अटका देने में कामयाब हो जाता है. माफिया का गहरा असर समाज से ले कर सरकार और सुप्रीम कोर्ट तक पर है.

शिक्षा जैसे अहम विषय को ठगों व माफिया के हवाले नहीं किया जा सकता. जब तक इसे अच्छे, ईमानदार, उच्च आदर्श वाले शिक्षाविदों को सौंपा नहीं जाएगा तब तक न समाज तरक्की कर पाएगा, न देश. मध्यवर्गीय परिवारों को शिक्षा के आर्थिक बोझ, तनाव से मुक्ति चाहिए. यह ठीक है उच्च शिक्षा पर खर्च होता है पर इतना भी नहीं कि पानी सिर से ऊपर गुजरने लगे. ऐसी शिक्षा का कोई मतलब नहीं जो सबकुछ लुटा देने के बाद भी कुछ न दे पाए.

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