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मध्यवर्ग में उच्च शिक्षा का संकट

ज्ञान का युग कहलाने वाले इस दौर में मध्यवर्ग परिवारों में हर कोई अपने बच्चों को ऊंची शिक्षा दिलाना चाहता है. इस के लिए वह अपने बच्चों को देश के सब से बेहतर शिक्षा संस्थान में ही नहीं, विदेश में भी भेजने की इच्छा रखता है लेकिन उच्च शिक्षा पाना मध्यवर्ग परिवारों के सदस्यों के लिए बड़ा संकट बनता जा रहा है. शिक्षा के बाजार में ऊंची डिगरियां खरीदना इस वर्ग के लिए मुश्किल हो रहा है क्योंकि शिक्षा बहुत ही महंगी हो गई है. शिक्षा पाने के बाद न तो नौकरी की गारंटी है और न ही व्यवसाय की सफलता की, इसलिए यह आर्थिक संकट और भारी पड़ रहा है.

ग्लोबलाइजेशन के मद्देनजर करीब2 दशकों से उच्च शिक्षा का विस्तार हुआ है. उदारीकरण के दौर में उच्च शिक्षा के प्रति मध्यवर्गीय परिवारों में न केवल उत्सुकता जागी, ये आगे बढे़. आर्थिक तौर पर सामर्थ्य न होते हुए भी उधार पाने में पीछे न रहे. अधिकांश परिवारों में पढ़ाईलिखाई कर्ज पर चल रही है. इस के लिए मांबाप बैंकों से एजुकेशन लोन, व्यक्तिगत लोन ले रहे हैं या अपनी कंपनी अथवा विभाग से कर्ज ले कर लाड़ले या लाड़ली को पढ़ा रहे हैं. कई तो अपनी जमीनजायदाद बेच कर या गिरवी रख कर बच्चों की शिक्षा पर खर्च कर रहे हैं. 40-50 हजार से डेढ़ लाख रुपए तक कमाने वाला अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाना चाहता है, परिवार में चाहे एक कमाने वाला हो या मियांबीवी दोनों.

इस दौर में उच्च शिक्षा के निजीकरण का ट्रैंड इसलिए विकसित हुआ क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा बढ़ने लगी. विश्व में नौलेज सोसायटी क्रिएट करने की जरूरत महसूस हुई लेकिन इस से दक्ष, शिक्षित वर्कर नहीं, केवल नौलेज वर्कर तैयार हो रहा है.

भारत में करीब 50.5 करोड़ युवा 25 वर्ष से कम उम्र के हैं. वर्तमान में एक करोड़़ 10 लाख युवा उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं. यह 17 से 23 साल की उम्र का 11 प्रतिशत है. सरकार को उम्मीद है कि यह संख्या 2017 तक बढ़ कर 21 प्रतिशत हो जाएगी.

उच्च शिक्षा के लिए अधिकांश बच्चों को अपने घर से दूर रहना पड़ता है. कालेज होस्टल या निजी घर किराए पर ले कर रहना और खानेपीने का खर्च किसी भी शहर में सस्ता नहीं है. ऐडमिशन से ले कर कोर्स फीस और अन्य तरहतरह के चार्ज व डोनेशन बहुत भारी पड़ते हैं. बच्चे को जेब खर्च चाहिए, वह अलग.

विदेशी शिक्षा का मोह इन सालों में जरूरत से ज्यादा बढ़ा है और आवश्यक हो या न हो, एक विदेशी विश्वविद्यालय की डिगरी विवाह और नौकरी दोनों के लिए आवश्यक बनती जा रही है. यह डिगरी न सस्ती है और न आसानी से मिलती है. उद्योग चैंबर की एक रिपोर्ट के अनुसार, 4 लाख 50 हजार छात्र विदेशों में पढाई पर 13 खरब रुपए खर्च कर रहे हैं. सब से अधिक छात्र अमेरिका में हैं. इस के बाद इंगलैंड, आस्ट्रेलिया, कनाडा, न्यूजीलैंड, चीन, रूस आदि देशों में शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं.

एसोचैम का एक सर्वे बताता है कि ज्यादातर मांबाप की कमाई का 65 प्रतिशत बच्चों की शिक्षा पर खर्च हो रहा है. मांबाप हाईस्कूल से कालेज तक की पढ़ाई पर 18 से 20 लाख रुपए खर्च कर रहे हैं. मध्यवर्ग में ज्यादातर वेतनभोगी उच्च शिक्षा पर खर्च कर रहा है. शिक्षा का खर्च 28 से 32 प्रतिशत बढ़ता जा रहा है जबकि अभिभावकों की आमदनी में इतनी वृद्धि नहीं हो पाती.

कमाने वाला एक संकट अनेक

78 प्रतिशत अभिभावकों का कहना है कि जहां घर में कमाने वाला एक ही हो, वहां यह संकट और ज्यादा है यानी पतिपत्नी दोनों कमाते हैं तो भी मुश्किल है. फिर भी उच्च शिक्षा 10 प्रतिशत की दर से बढ़ रही है. इन में डाक्टरी, इंजीनियरिंग, मैनेजमैंट, सीए की ओर अधिक आकर्षण है. एक अनुमान के अनुसार, 5 साल के मैडिकल कोर्स में निजी मैडिकल कालेजों में एक छात्र पर 40-45 लाख रुपए खर्च आता है. इस में डोनेशन, फीस, होस्टल आदि खर्च शामिल हैं.

इस के बाद डेढ़ साल का इंटर्न अनिवार्य है. फिर एमडी और एमएस में भी मोटा पैसा खर्च करना पड़ता है. देश में ज्यादातर मैडिकल शिक्षा खर्च सैल्फ फाइनैंस्ड मैडिकल कालेजों में होता है क्योंकि ये कालेज सरकारी सहायता के बिना चलते हैं.

इसी तरह प्राइवेट इंजीनियरिंग कालेजों में 4 साल के कोर्स में 10-12 लाख रुपए का खर्च आता है. सरकारी कालेजों में यह खर्च थोड़ा कम है. एमबीए, सीए में भी 3 से 5 लाख रुपए खर्च हो जाते हैं.

इन तमाम कोर्सों में ऐडमिशन से पहले कोचिंग का मोटा खर्च इन परिवारों की कमर तोड़ रहा है. सर्वे बताते हैं कि शैक्षिक फीस का करीब 25 प्रतिशत ट्यूशन पर खर्च करना पड़ता है. इंजीनियरिंग की ट्यूशन फीस 2 से 3 लाख, मैडिकल की 2 से 3 लाख, सीए की 2 से 3 लाख रुपए है.

शिक्षा जैसे पवित्र पेशे में एक पूरा लूटतंत्र विकसित हो गया है. माफिया, बिचौलिए पैदा हो गए जो देसी, विदेशी विश्वविद्यालयों में ऐडमिशन के नाम पर मोटी कमाई कर रहे है. कंसल्टैंटों की दुकानें चल रही हैं, फ्रैंचाइजीज खुले हैं जो ऐडमिशन और बाद में प्लेसमैंट के नाम पर अभिभावकों की अंटी ढीली करने में लगे हैं. कोचिंग कारोबारी 9वीं क्लास से ही बच्चों के अभिभावकों को फंसा लेते हैं.

दरअसल, उच्च शिक्षा का जो सिस्टम बना हुआ है वह बेहद खर्चीला है. ज्योंज्यों उच्च शिक्षा की दर बढ़ रही है, मध्यपरिवारों के लिए आर्थिक संकट बढ़ता जा रहा है. कालेजों, विश्वविद्यालयों में फीस वसूलने के कई तरीके हैं, इन में विदेशी/एनआरआई कोटा, मैनेजमैंट कोटा, मैरिट आदि शामिल हैं. पिछले साल सरकार ने आईआईटी की फीस में 80 फीसदी की बढ़ोतरी की थी.

इंडियन बैंक एसोसिएशन के आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2010 में उच्च शिक्षा के लिए सार्वजनिक  बैंकों से कर्ज लेने वाले 18 लाख लोग थे जबकि 2001 में केवल 3 लाख थे. इन में करीब 75 फीसदी लोग वे थे जिन्होंने छोटा यानी 4 लाख रुपए तक का लोन लिया था. लोन के लिए रिश्वत चुकानी पड़ती है, वह अलग.

घूस का बोलबाला

निजी उच्च शिक्षा संस्थान भ्रष्टाचार से अछूते नहीं हैं. पिछले दिनों कुछ मैडिकल कालेज की सीटें बढ़वाने से ले कर मान्यता पाने तक में मैडिकल काउंसिल को मोटी घूस देने के मामले सामने आए थे. यह पैसा भी अभिभावकों से ही वसूला जाता है.

उच्च शिक्षण संस्थान गैरलाभकारी उद्देश्य से नहीं चलते. वे विशुद्ध तौर पर कारोबारी मुनाफे की नींव पर बने हैं. इन का बगैर मेहनत, बगैर जवाबदेही के मोटे मुनाफे का व्यापार है. निजी क्षेत्र की शिक्षा का मानदंड अभी तक यही है कि संस्थान का भवन कितने एकड़ में फैला है, कितने कमरों में एअरकंडीशनर लगे हैं, कितने कंप्यूटर हैं. समाचारपत्रों के पन्नों के पन्ने इन के विज्ञापनों से भरे रहते हैं और यह तो स्पष्ट ही है कि इन विज्ञापनों का भुगतान छात्रों को ही करना होता है.

इन में शिक्षा कमजोर है. यहां से निकलने के बाद कोईर् गारंटी नहीं कि छात्र को रोजगार मिल ही जाएगा. कमजोर उच्च शिक्षा, कमजोर रोजगार ही दे सकती है. भारीभरकम खर्च के बावजूद गुणवत्ता से भरी शिक्षा की कमी है. यही कारण है कि उच्च शिक्षा पा कर भी छात्र मनमुताबिक नौकरी, कामधंधा नहीं कर पा रहा है. कोर्स से इतर वह राजनीति या अन्य धंधे की ओर जा रहा है.

इन सब के बावजूद अध्ययन बताते हैं कि उच्च शिक्षा आर्थिक विकास के लिए महत्त्वपूर्ण साबित नहीं हो रही है. उच्च शिक्षा पाने के बाद लोग दूसरे पेशे में जा रहे हैं. जो योग्य हैं वे विदेश जा रहे हैं और इस तरह प्रतिभा पलायन नहीं रुक रहा है. उच्च शिक्षा से गरीबी कम नहीं हो रही है. इस का संबंध मानव विकास से भी नहीं जुड़ पा रहा है.

चीन की बात करें तो उच्च शिक्षा के क्षेत्र में वहां कई सुधार हुए हैं. चीन में ट्यूशन फीस नहीं है. छात्र के रहनसहन का खर्च अभिभावकों पर अधिक नहीं है. इसे सरकार देख रही है. प्रतिभा पलायन वहां ज्यादा नहीं है. अमेरिका में शिक्षा की गुणवत्ता के लिए एक आयोग का गठन किया गया है जो अमेरिका को उच्च शिक्षा में विश्व का गुरु बनाने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है.

हमारे यहां शिक्षा की गुणवत्ता जांचने पर कोई ध्यान नहीं है. स्तरहीनता है. कोई जवाबदेही नहीं है. स्टैंडर्ड मेंटेन करने के लिए कोई रैगुलेटरी सिस्टम नहीं है. इस मामले में हम पूरी तरह फेल हैं.

यह हकीकत है कि भारत का युवा आज जिन इंजीनियरिंग उपकरणों, गैजेट्स का इस्तेमाल कर रहा है, अधिकतर विदेशी हैं. सरकार को रक्षा सामग्री से ले कर दूसरी तमाम चीजें विदेशों से आयात करनी पड़ती हैं. हमारे यहां ज्यादातर बड़े शिक्षा संस्थान या तो राजनीतिबाजों द्वारा चलाए जा रहे हैं या छुटभैये व्यापारियों के द्वारा, जो जमीन खरीद सकते हैं और मान्यता प्राप्त करने में सही व्यक्ति को रिश्वत दे सकते हैं.

आंकड़ों के अनुसार, वैज्ञानिक अनुसंधान में भारत का हिस्सा मात्र 2.1 प्रतिशत है जबकि चीन की बात करें तो वह हम से बहुत आगे है. चीन का हिस्सा 14.7 प्रतिशत है. यह जानकारी यूनेस्को की रिपोर्ट ने दी है.

हमारी रिसर्च पर आएदिन सवाल खड़े होते रहे हैं. विश्वविद्यालयों में नकली थीसिस, नकल की हुई किताबें अपने नाम से छपवाने की घटनाएं ताजा हैं.

यही नहीं, हमारे छात्र देश में पढ़ रहे हों या विदेश में, भेदभाव का शिकार हो रहे हैं. सामाजिक गैर बराबरी पीछा नहीं छोड़ पा रही है. मध्यवर्गीय परिवारों को आर्थिक शोषण के साथसाथ सामाजिक विषमता को भी झेलना पड़ रहा है. विदेशों में आएदिन भारतीय छात्रों के साथ हिंसा, भेदभाव की घटनाएं सामने आती हैं. अमेरिका, आस्ट्रेलिया से ले कर दिल्ली के औल इंडिया मैडिकल इंस्टिट्यूट  यानी एम्स तक में नस्लीय, जातिगत भेदभाव का हल्ला उठता रहता है. देश के हर विश्वविद्यालय, कालेजों में इस तरह की समस्याएं बरकरार हैं.

अगर सामाजिक नजरिए से देखें तो इस उच्च शिक्षा के बाद अभिभावकों के समक्ष  शादी जैसी जिम्मेदारी की समस्या भी होती है. बेटे की शादी करनी हो तो आज की तारीख में कम से कम 10 से 15 लाख और बेटी की शादी में 20 से 30 लाख रुपए खर्च होना मामूली बात है. ऐसे में मध्यवर्गीय परिवार के सामने खासा तनाव है.

शिक्षा का कारोबार

समाज को बनाने में शिक्षा का बड़ा महत्त्वपूर्ण योगदान होता है. जिस देश में शिक्षा का उद्देश्य नितांत स्वार्थपूर्ण कारोबार बन जाता है, उस में चोरी, बेईमानी, ठगी होने लगती है. ऐसे में समझा जा सकता है उस समाज का चरित्र कैसा होगा. ऐसे में आने वाले समाज की नैतिकता, युवाओं के संस्कारों पर सवाल मत उठाइए. क्या हम उच्च शिक्षा के लिए युवाओं को सामाजिक, पारिवारिक और राष्ट्रीय दायित्व सिखाने का काम कर रहे हैं?

हमारे यहां उच्च शिक्षा का मतलब न कैरियर से रहा, न ज्ञान प्राप्ति से और न ही एक अच्छे  इंसान से. हमारी उच्च शिक्षा इन सब से कोसों दूर होती जा रही है. उच्च शिक्षा देश, समाज बनाने वालों के हाथों में नहीं, धंधेबाजों, मुनाफाखोरों, लुटेरों के सिपुर्द है.

इस में युवाओं का कोई दोष नहीं है. यह हमारी मौजूदा व्यवस्था की देन है जो पूरी तरह से निकम्मी, भ्रष्ट, अनैतिकता की शिकार है. यही वजह है कि आज के युवा हमारे देश के राजनीतिक, सामाजिक सिस्टम से बेहद खफा हैं और वे बदलाव के लिए आक्रोशित हैं. वे इसे बदल देने पर आमादा दिखाई दे रहे हैं.

असल में हमारे यहां शिक्षा पहले धर्म के शिकंजे में रही. अब सत्ता और कौर्पोरेट ने हथिया ली. इन का उद्देश्य व्यक्ति, समाज, देश की आर्थिक, सामाजिक प्रगति से कतई नहीं रहा. आजादी के बाद शिक्षा में सुधार के लिए कईर् आयोग बने लेकिन वे धूल फांकते रहे. शिक्षा का बजट भी सरकारों ने बहुत कम रखा, वह भी घोटालों की भेंट चढ़ता गया.

शिक्षा पर निर्णय लेने वालों में आज राजनीतिबाज और नौकरशाह प्रमुख हैं. उन पर कौर्पोरेट और मुनाफाखोरों का प्रभाव है, जो एक अच्छे समाज व युवाओं के भविष्य को देख कर नहीं, महज स्वार्थ के लिए फैसले करते हैं. सरकार का नियंत्रण उन से छिटक चुका है. उन पर किसी तरह के कानून, नियमकायदे प्रभावी नहीं हैं. जनता जब शोर मचाती है तब सरकार जागती है पर शिक्षा के ठेकेदारों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं कर पाती. उन पर शिकंजा कस पाने में सरकार पूरी तरह लाचार है. बातबात में शिक्षा माफिया अदालतों की शरण में जा कर सुधार की कार्यवाही को अटका देने में कामयाब हो जाता है. माफिया का गहरा असर समाज से ले कर सरकार और सुप्रीम कोर्ट तक पर है.

शिक्षा जैसे अहम विषय को ठगों व माफिया के हवाले नहीं किया जा सकता. जब तक इसे अच्छे, ईमानदार, उच्च आदर्श वाले शिक्षाविदों को सौंपा नहीं जाएगा तब तक न समाज तरक्की कर पाएगा, न देश. मध्यवर्गीय परिवारों को शिक्षा के आर्थिक बोझ, तनाव से मुक्ति चाहिए. यह ठीक है उच्च शिक्षा पर खर्च होता है पर इतना भी नहीं कि पानी सिर से ऊपर गुजरने लगे. ऐसी शिक्षा का कोई मतलब नहीं जो सबकुछ लुटा देने के बाद भी कुछ न दे पाए.

जनता को सुविधाएं

मुफ्त पानी, सस्ती बिजली, मुफ्त पढ़ाई, भूख से न मरने देने लायक सस्ता अनाज जैसे मामलों पर काफी सवाल उठते हैं कि सरकारों को वोटरों को खुश करने के लिए यह करना चाहिए या नहीं? जिस देश में अधिकांश जनता भूखी, नंगी, बदहाल हो वहां अगर कर के पैसे से ये सुविधाएं दी जाएं तो बहुत गलत भी न होगा. उस के कई तर्क दिए जा सकते हैं.

देश के सभी नागरिकों को पुलिस व्यवस्था लगभग जेब से सीधे कुछ दिए बिना मिलती है. इस का लाभ उन्हीं को तो होता है न, जिन के पास पैसा, संपत्ति है. गरीबों का कोई क्या ले जाएगा. क्या अमीरों से पुलिस व्यवस्था के नाम पर कुछ लेना व्यावहारिक होगा?

देश के सभी नागरिकों को सड़कों की सुविधाएं मुफ्त ही मिलती हैं. गांवों की कच्ची सड़कें छोड़ दें तो गांवों को जोड़ने वाली सड़कों से ले कर शहरों तक की सड़कें लोगों को मुफ्त ही मिलती हैं. टोल दे कर चलने की बंदिश तो बहुत थोड़ी सड़कों पर ही है और वह भी केवल तेज वाहनों के लिए है.

अदालतों के दरवाजे खटखटाने का हक भी हरेक को है, वह भी लगभग मुफ्त. यह बात दूसरी है कि वकील बहुत खा जाते हैं पर अदालतों को तो नाममात्र का पैसा ही देना होता है.

देश की रक्षा का खर्च भी जनता सीधे नहीं देती. करों से प्राप्त कुल रकम में से उसे दिया जाता है. पुराने किलों, महलों की मरम्मत का काम जनता पर अतिरिक्त बोझ डाले बिना दशकों तक किया जाता है. चुनावों में वोट डालने पर जेब से कुछ नहीं देना पड़ता. सड़कों पर लगी बत्तियों का पैसा उन बत्तियों के नीचे से गुजरने वालों को नहीं देना होता.

इन सब का पैसा देती तो जनता ही है पर दूसरे करों के सहारे. और यह भार कुछ लोगों पर ज्यादा होता है तो कुछ पर बहुत कम. सस्ता पानी, सस्ती बिजली और सस्ती शिक्षा के बारे में भी ऐसे ही तर्क दिए जा सकते हैं. गरीबों पर बोझ कम होगा तो वे जिंदा भी रहेंगे और फिर हो सकता है कि वे दूसरों के लिए सस्ते में काम करें. अगर आप उन से इन सब चीजों के दाम लेंगे तो आप को इस की कीमत अधिक वेतन के जरिए देनी ही होगी.

अरविंद केजरीवाल ने अगर बिजली सस्ती कर दी और एक सीमा तक पानी मुफ्त कर दिया तो बहुत आफत नहीं आ गई. यह पैसा वही लोग किसी न किसी रूप में चुका ही देंगे. यही आधुनिक प्रशासन व्यवस्था का अर्थ है. हां, अगर कहीं बरबादी हो रही हो तो उस का जरूर खयाल रखना चाहिए. वह असल में घातक है.

कानून और न्यायाधीश

न्यायाधीशों पर जनता का आज भी अथाह विश्वास है. अदालतों के गलियारों में जूते घिसने, अपनी वर्षों की कमाई और जमीन व जायदाद वकीलों व पेशकारों को देने के बावजूद लोगों को भरोसा है कि जब भी न्याय मिलेगा, सही मिलेगा. पहली अदालत में नहीं मिलेगा तो दूसरी अदालत में मिलेगा ही. अदालतों के गलियारों में न्यायाधीशों की बेईमानियों के किस्से सुनने को मिलते हैं पर चूंकि कभी कोई पक्का प्रमाण नहीं मिला, इसलिए समझा जाता है कि वे विशिष्ट चरित्र के लोग हैं.

इस विशिष्टता पर लगातार 2 धब्बे लगे हैं. पूर्व जस्टिस अशोक कुमार गांगुली और जस्टिस स्वतंत्र कुमार पर उन के साथ काम कर रहीं कानूनी प्रशिक्षुओं के साथ यौन दुर्व्यवहार के मामले सामने आए हैं. न्यायाधीश गांगुली के मामले में शिकायत- कर्ता युवती ने जो बातें कही हैं वे कमोबेश वैसी ही हैं जैसी तहलका पत्रिका के संपादक तरुण तेजपाल के विरुद्ध उन की सहायिका ने कही थीं. यद्यपि कानूनी प्रशिक्षु के मामले में सर्वोच्च न्यायालय की एक कमेटी ने शिकायत को सही पाया है फिर भी न्यायाधीश गांगुली केवल पश्चिम बंगाल मानव अधिकार आयोग से त्यागपत्र दे कर बच गए जबकि तरुण तेजपाल को लगातार जेल में बंद कर रखा गया है.

न्यायाधीश स्वतंत्र कुमार भी अभी तक किसी पुलिस प्रक्रिया से बचे हैं. पर इन दोनों मामलों ने साफ कर दिया है कि न्यायाधीश भी उसी मिट्टी के बने हैं जिस मिट्टी से देश के अन्य अधिकारी, मंत्री या असरदार लोग बने हैं. जो लोग अपने से कम उम्र की लड़कियों को छेड़ने से बाज नहीं आते उन के हाथों में देश का भविष्य वैसा ही है जैसा नेताओं के हाथों में, जिन पर घोटालों के आरोप लगते रहते हैं.

अमेरिकी लेखक जौन ग्रिशम ने एक उपन्यास लिखा था ‘द ब्रैद्रन’ जिस में एक ही जेल में कई न्यायाधीशों को विभिन्न आरोपों में बंद बताया गया है. भारत की जेलों में न्यायाधीशों को जेल शायद ही कभी मिली हो. एक के इंपीचमैंट का मामला संसद में महीनों तक चला पर लोकसभा के निर्णय से पूर्व ही न्यायाधीश ने त्यागपत्र दे दिया.

उत्तर प्रदेश में प्रौविडैंट फंड के दुरुपयोग का मामला काफी समय से लटक रहा है पर किसी को भी नहीं मालूम कि न्यायाधीशों को कठघरों में कैसे खड़ा किया जाए.

न्यायाधीश कानून और न्याय से ऊपर हैं, यह मानना गलत है. पर जिस तरह से यहां देवीदेवताओं की तरह न्याय और न्यायालयों पर निष्ठा व्यक्त की जाती है, उस का असर है कि न्यायाधीश स्वयं को कुछ अलग समझने लगे हैं. न्यायपालिका सही न्याय कर सके, इस के लिए जरूरी है कि न्यायाधीश अपनी मानवीय कमजोरियों को दबा कर रखें और कम में गुजारा करना सीखें.

 

खिसियाते मुख्यमंत्री और सबक

राजनीति में आना, चुनाव जीतना और फिर शासन की बागडोर संभालना आसान है पर राज करना कठिन है. एक तरफ घिसेपिटे मुलायम सिंह यादव उत्तर प्रदेश में ऐसा ही महसूस कर रहे हैं तो दूसरी तरफ दिल्ली में नईनवेली आम आदमी पार्टी के अरविंद केजरीवाल. मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश यादव ने अपने पुश्तैनी गांव सैफई में एक महारंगारंग प्रोग्राम किया जबकि अरविंद केजरीवाल ने सचिवालय के सामने शिकायत दरबार लगाया. दोनों में वाहवाही की जगह थूथू हुई.

अखिलेश यादव ने जोश में आ कर सरकार के करोड़ों रुपए बरबाद कर के सलमान खान, माधुरी दीक्षित, कपिल शर्मा, आलिया भट्ट को नाचने के लिए बुला लिया और जहां मंच पर नाचगाना हुआ, उसी के पीछे समाजवादी पार्टी के युवाओं ने पुलिस से जम कर कुरसीतोड़ नाच कियाऔर नारों के गाने लगाए. टीवी चैनलों ने जम कर खिंचाई की कि जब राज्य में लोग राहत शिविरों में ठंड में ठिठुर रहे हैं तो इस नाचगाने का क्या औचित्य? अखिलेश यादव कितना ही कहते रहें कि यह परंपरा का सवाल है, बस. 1 करोड़ रुपए खर्च हुए. कोई इसे मानने को तैयार नहीं.

इधर, अरविंद केजरीवाल के जनता दरबार में भी सैफई की तरह भीड़ जुटी पर यह सरकारी अमले से सताए लोगों की थी जिन्हें यह भरोसा है कि अब मुख्यमंत्री उन का है, उन की सुनेगा. अरविंद केजरीवाल ने सोचा था कि लोग आएंगे, कतार में खड़े होंगे, एकएक कर के अफसरों की खिंचाई होगी. पर ऐसा न हुआ. लोगों ने एकदूसरे को खींचना शुरू कर दिया. भगदड़ सी मच गई. कुचले जाने का डर पैदा हो गया. आखिरकार, दरबार बरबाद हो गया. दोनों मुख्यमंत्री अब खिसिया रहे हैं, एक हठी में, रोब में, गुस्से में तो दूसरा एक अच्छा काम न कर पाने के मलाल में.

दरअसल, राज करना आसान नहीं है. यह पाठ पढ़ना होता है, सीखना होता है. आमतौर पर जो नेता काले दलदल में फंसते हैं वे राज न कर पाने और दूर की न सोचने के कारण फंसते हैं. न तो सरकार का काम छातियां मटकाने वाली लड़कियों को नचवाना है और न ही प्रजा को जहांगीरी न्याय दिलवाना है.

अरविंद केजरीवाल के लिए सबक है कि शिकायत सुननी हो तो शिकायतें मंगवाओ, 10-20 कार्यकर्ताओं से प्राइवेट जांच करवाओ, फिर एकएक को बुलाओ.

अखिलेश यादव को सबक सिखाना टेढ़ी खीर है. वे तो समझते हैं कि राजपुत्रों को सब माफ है. जो खिलाफ बोले उस का मुंह बंद कर दो. जो आईना दिखाए उसे जेल में डाल दो, आईना तोड़ दो. राजगद्दियां ऐसे ही छिनती हैं. पर अखिलेश यह समझते हैं कि गद्दी छिनने के बाद फिर मिलेगी, इसलिए डरना क्या. अरविंद केजरीवाल की निगाहें पूरे देश पर हैं इसलिए वे दूध के जले हैं तो रूहअफजा भी फूंक कर पिएंगे, ऐसी उम्मीद की जा सकती है.

राजनीतिक दल और विकास

वर्ष 2014 के आम चुनाव देश के लिए नया इतिहास लिखेंगे. एक तरफ कांग्रेस है जो अपने शासन को बचाने में लगी है तो दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी में नई जान फूंकने वाले नरेंद्र मोदी हैं जिन की जीत से देश की नीतियों को नया मोड़ मिलना निश्चित है. तीसरी तरफ ‘आप’ है पर पता नहीं उस को किस के वोट मिलेंगे, वह किसे हराएगी. उस की नीतियां दोनों से अलग हैं पर मूलरूप से वह लोकतांत्रिक मूल्यों में व धर्म, जाति, वर्ण, वर्ग से ऊपर होने का दावा करती है. चुनावों के बाद इन में से जो भी जीतेगा, उसे क्षेत्रीय दलों के साथ नए समीकरण बनाने होंगे.

पर क्या जनता को कुछ नया मिलेगा? शायद नहीं. कांग्रेस और भाजपा के मामले में धर्मनिरपेक्षता और विकास के वादों के अलावा दोनों दल कुछ ऐसा न कह रहे हैं न कर रहे हैं कि जिस से लगे कि इन दलों की नीयत राजगद्दी पर चढ़ने के अलावा कुछ और है. दोनों दल अपने या अपनों के वास्ते कुछ करने के लिए चुनावी मैदान में हैं, जनता की सेवा के बारे में तो इन के घोषणापत्रों में बारीक अक्षरों में भी कहीं नहीं लिखा है.

जनता की सेवा का क्या अर्थ है? एक राजनीतिक दल से यह अपेक्षा नहीं की जाती कि वह सड़कें साफ कराएगा या पुलिस वाले की ड्यूटी लगाएगा. यह काम प्रशासन का है. उस पर नजर रखना जीतने वाले राजनीतिक दल का काम है. यह जनता की सेवा नहीं है. यह तो प्रशासन जनता से मिले पैसे के बदले करता है. यह कर्तव्य है उस का.

सेवा उसे कहते हैं जो पैसे की अपेक्षा के बिना की जाए और ऐसे काम किए जाएं जो लोग खुद नहीं कर सकते. दलों का काम लोगों के मुंह में निवाला रखना भी नहीं. उन का काम जनता को नई राह सुझाना है, जनता की सोच बदलना है, 10-20-30 साल आगे की सोचना है. सेवा का अर्थ लोगों के उन कामों को करने का है जो वे अपने बलबूते नहीं कर सकते और न ही नौकरशाही से उस की अपेक्षा की जा सकती है.

इस में सब से बड़ा काम है लोगों को कुरीतियों, अवैज्ञानिक जड़ सोच, गलत परंपराओं, धर्मजाति के नाम पर अलगाव, आर्थिक भेदभाव, मुनाफाखोरी, तनाव, शोषण आदि से बचाना. अफसोस यह है कि देश के प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस ने उस जिम्मेदारी को बिलकुल छोड़ दिया है जिस के जरिए कांग्रेस महात्मा गांधी के काल में घरघर पहुंचाई गई थी. दूसरी प्रमुख पार्टी भारतीय जनता पार्टी उलटी सूई घुमा कर समाज को पुरातनपंथी विचारों के खूंटों से बांधना चाहती है.

आम आदमी पार्टी को छोड़ कर अन्य पार्टियों ने यह ध्येय रखने की कभी आवश्यकता ही नहीं समझी. उन्हें जनता या समाज से सरोकार नहीं है. वे केवल भाषा, जाति, धर्म, क्षेत्र के जंजालों में जनता को फंसा कर गन्ने से निकाले रस की तरह निचोड़ कर पावर रस निकालने में लगी रही हैं. देश का विकास आर्थिक व प्रशासनिक नीतियों में बारबार हेरफेर से नहीं होगा. विकास बड़ेबड़े ब्लूपिं्रटों पर अपनी मोहर लगाने या शिलान्यासों से भी नहीं होगा. विकास तब होगा जब हर नागरिक की उत्पादकता बढ़े. पर जब तक नागरिकों के पैर सामाजिक कीचड़ में फंसे रहेंगे, कुछ ज्यादा नहीं हो सकता. नई तकनीक के कारण कुछ सुख नसीब हुए हैं पर वे ज्यादा नहीं चलेंगे. हां, अगर अरविंद केजरीवाल को खासी सीटें मिल गईं, जैसा दिल्ली विधानसभा चुनावों में हुआ, तो मामला कुछ और होगा पर ऐसा सोचना तो दिन में सपने देखने जैसा होगा.

 

आपके पत्र

सरित प्रवाह, दिसंबर (द्वितीय) 2013
‘न्यायालय और कट्टरपंथी’ शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय टिप्पणी में आप ने  ‘रामलीला’ फिल्म पर आए अदालती फैसले की सही आलोचना की है. आप का यह कहना उचित है कि दूसरे पक्ष का तर्क सुने और बहस किए बिना फैसला सुना देना न्यायसिद्धांतों के खिलाफ है.
जहां तक धर्म संबंधी विवाद है, उस में कट्टरपंथियों की बात आंख मूंद कर स्वीकार कर लेना और फैसले देना पश्चिम देशों में भी होता रहा है. ग्रीस में आज से 7 दशक पहले कट्टरपंथियों ने एक वैज्ञानिक के खिलाफ मुकदमा दायर कर विजय हासिल की थी.
हुआ यह था कि एक वैज्ञानिक ने ग्रीस में एक किताब लिखी जिस में उस की खोज कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है, लिखा था जबकि धर्मग्रंथ के अनुसार सूर्य ही पृथ्वी के चक्कर लगाता है. फैसला लिखने वाले भी अवैज्ञानिक (धर्मग्रंथ वाले) संस्कार ले कर बड़े हुए थे. लिहाजा, फैसला सत्य लिखने वाले के खिलाफ आया और वैज्ञानिक को कट्टरपंथियों ने मृत्युदंड दे दिया. इसीलिए आप की बात जायज है कि अदालतें कट्टरपंथियों की बात मान कर उन्हें पारलौकिक बना देती हैं.
माताचरण पासी, वाराणसी (उ.प्र.)
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‘नैना लाल किदवई की मंशा’ आप की एक अद्वितीय टिप्पणी है. नैना लाल किदवई ने सरकार से सुधारों की मांग की है. अमीर खरबपति उद्योगपति जब भी सुधारों की बात करते हैं तो उन का मतलब ऐसे सुधारों से होता है जिन से उन का मुनाफा बढ़े, उन्हें सरकार के काम में सुधार नहीं चाहिए. उन्हें उन किसानों की चिंता नहीं जिन की जमीन को सरकार मैले कागज पर कुछ भी टाइप कर, उन्हें नाममात्र का मुआवजा दे कर, उन से छीन लेती है. जबकि किसान भी छोटा उद्योगपति है, उत्पादन करता है, 2-3 नौकर रखता है.
नैना की और भी शिकायतें हैं जैसे पर्यावरण संबंधी कानून, औनलाइन पेमैंट की सुविधा, बिजनैस में नियमों, अनुमतियों आदि की भरमार, मगर इन से होने वाली हानियों की तरफ उन का ध्यान नहीं गया है.
असल में इस देश में उद्योगपति बनते ही इन नियमों के अंबार से हैं. जो लोग नेताओं व अफसरों के निकट होते हैं वे सफल हो जाते हैं. नैना लाल किदवई उद्योगों की कमजोरियों को सरकारी तंत्र के बहाने छिपा रही हैं जबकि सरकारी तंत्र व्यापारियों और कारखानेदारों को पनपने नहीं देना चाहते. औद्योगिक कंपनियों की संस्था को छोटे व्यापारियों की सुविधाओं का खयाल करना चाहिए ताकि उद्योगों का माहौल सुधरे.
कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)
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संपादकीय टिप्पणी ‘नैना लाल किदवई की मंशा’, अपने यहां छोटे उद्योगों के न पनपने के कारणों पर प्रकाश डालने के साथसाथ बहुत ही अमीर उद्योगपति सुधार की आड़ में क्या चाहते हैं, इस पर भी प्रकाश डालती है. सच तो यह है कि भारत की कृषि योग्य आधी धरती इन के अधूरे सपनों को पूरा करने के लिए कलकारखानों के जंगलों में बदल गई. इस पर भी शिकायत बिना यह सोचे कि आज अगर ये धरतीपुत्र न होते तो हमारी क्या दशा होती, जायज प्रतीत नहीं होती. पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान जय किसान’ का नारा ऐसे ही नहीं लगाया था. यही हाल पर्यावरण संबंधी कानूनों से शिकायत का है.
एक तरफ तो हम गंगा के मैली होने की शिकायत करते हैं दूसरी ओर उद्योगों का कचरा भी वहीं डालते हैं. ऐसी बात नहीं है कि प्रशासन इस से अनभिज्ञ हो परंतु उपरोक्त सुधार करने से अमीर उद्योगपतियों और खरबपतियों को घाटा जो हो जाएगा. इसलिए छोटे व्यापारियों को लगाने दो सचिवालय के चक्कर. हम तो एसी रूम में बैठे हैं न.
कृष्णा मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)
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सरित प्रवाह में ‘न्यायालय और कट्टरपंथी’, ‘एफआईआर का अधिकार’ व ‘राजनीति का मोदीपन’ शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय टिप्पणियां बहुत अच्छी लगीं.
हमारे देश में हर सरकारी विभाग में ऊपर से ले कर नीचे तक भ्रष्टाचार फैला हुआ है. हालात तो ऐसे हो गए हैं कि सरकारी महकमे में काम करने वाले कुछ कर्मचारी इतने निठल्ले हो गए हैं कि जिस काम के एवज में वे सरकार से पैसा लेते हैं उस को करने में भी आनाकानी करते हैं. वे काम करने के बदले में रिश्वत मांगते हैं. कोई रिश्वत नहीं देता है तो उस का काम लटका कर उसे परेशान किया जाता है.
प्रदीप गुप्ता, बिलासपुर (हि.प्र.)
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अंजाम बुरा होगा
दिसंबर (द्वितीय) अंक में प्रकाशित ‘हिंसक होती महिलाएं’ लेख में महिलाओं द्वारा किए जा रहे अत्याचार का अच्छा बखान किया गया है. दरअसल, टीवी चैनलों पर दिखाए जा रहे धारावाहिकों में महिला पात्रों को बेहद क्रूर व षड्यंत्रकारी दिखाया जाता है. पुरुष द्वारा प्रताडि़त स्त्रियों के अंतर्मन में संचित आक्रोश भी कई बार दुर्घटनाओं को अंजाम देता है. स्त्रियों को दी जाने वाली शारीरिक व मानसिक यातनाओं पर अंकुश लगाने से अपराधों में कमी लाई जा सकती है.
श्याम चौरे, इंदौर (म.प्र.)
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सच्ची तसवीर
दिसंबर (द्वितीय) अंक में छपे व्यंग्य ‘सरकारी बाबू’ में सरकारी कर्मचारियों की सही तसवीर दिखाई गई है. सरकारी बाबू साल में 180 दिन ही काम पर जाते हैं.52 इतवार, 52 शनिवार, 30 अर्न्ड लीव, 15 कैजुअल लीव, 20  सिक लीव, 16 त्योहारों आदि की लीव यानी 365 दिनों में वे 185 दिन छुट्टी पर रहते हैं. जिस दिन काम पर जाते हैं उस दिन
2 बार चाय के लिए, 1 बार खाने के लिए आधेआधे घंटे की छुट्टी. कोई लीडर आदि मर जाए, चुनाव हो तो और छुट्टियां.
भारतीय जब काम करते हैं तो देखते हैं किस काम को करने में उन्हें निजी लाभ है जबकि चीनी ऐसा नहीं सोचते. इसीलिए हम से बाद में आजाद होने के बावजूद चीन हम से आगे निकल गया.
आई पी गांधी, करनाल (हरियाणा)
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परिवारवाद की राजनीति
दिसंबर (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘मुलायम का सियासी कुनबा’ तथा ‘लालू बिन सब सून’ पसंद आए. जहां तक राजनेताओं की बात है, आज शायद ही कोई नेता ऐसा होगा जिस ने अपने कुटुंब को अपना सियासी कुनबा न
बनाया हो. उत्तर प्रदेश में ही देखिए, युवा मुख्यमंत्री लैपटौप और कन्याधन बांट कर युवाओं का कितना भला कर रहे हैं. यह दिनोंदिन बढ़ती बेरोजगारी बता रही है.
लोकप्रिय बनने के लिए सरकारी धन को लुटाने की नहीं, जनता के लिए कुछ विकास करने की जरूरत है. जनता का प्यारा नेता ही लोकप्रिय होता है और जननायक भी. जैसे लाल बहादुर शास्त्री, सरदार पटेल और महात्मा गांधी थे. पर किसे इस की परवा है. अब तो इस के
2 ही रास्ते प्रतीत होते हैं, प्रथम आरक्षण की बैसाखी प्रत्येक वर्गजाति को पकड़ाते जाओ, दूसरा अपने कुनबे को विरासत देते जाओ, ताकि कुरसी जाने न पाए.
के मिश्रा, लखनऊ (उ.प्र.)
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प्राथमिकताएं तय हों
दिसंबर (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘विकास पर राजनेताओं की खोखली सोच’ में राष्ट्रीय व राज्य स्तरीय पार्टियों एवं नेताओं की कार्यशैली की पोल सही ढंग से खोलने का प्रयास किया गया है. लेकिन क्या ये मोटी चमड़ी वाले राजनेता जातीय, धार्मिक व हर क्षेत्र को निष्पक्षता की आंख से देख पाएंगे? क्या विकास, विकास के अंतर्विरोधों को हटा कर विकास की प्राथमिकताएं तय कर पाएंगे?
आम जनता का विश्वास इन राजनेताओं से हट गया है. लेकिन अब यह प्रश्न खड़ा होता है कि देश में लोकतंत्र कैसे चले? इस संबंध में मैं लोकप्रिय सरिता के माध्यम से कुछ सुझाव रखना चाहता हूं :
  1. अमेरिका की तरह राष्ट्रपति शासन प्रणाली कायम की जाए. ताकि गठबंधन सरकारों से देश को मुक्ति मिले और सही निर्णय लिए जा सकें.
  2. देश हजारों वर्ष गुलाम रहा है तथा आज भी देश के ज्यादातर लोगों की भावनाएं ढोंगी, धार्मिक पंडे, मुल्लाओं, बड़े व्यापारियों, साधुसंतों, राजेरजवाड़ों, पंचों, बड़े घरानों से जुड़ी हुई होने के कारण वे लोकतंत्र में भी स्वतंत्र जिंदगी जीना नहीं चाहते हैं. तथा इन्हीं के प्रभाव से आज निष्पक्ष, ईमानदार, योग्य, समाजसेवी, देशभक्त व्यक्ति चुनाव में सफल नहीं हो पाते हैं. इसलिए गुलामी से जकड़े देशवासियों को स्वतंत्र हो कर जीना सिखाया जाए.
  3. देश के 30 प्रतिशत व्यक्ति मूलभूत सुविधाओं रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, जल, बिजली आदि से वंचित रह कर केवल वोट देने के लिए जी रहे हैं. वे आज भी संविधान, मौलिक अधिकारों, नियमअधिनियमों को नहीं जानते, फिर वे अपने मतों का सही उपयोग कैसे करेंगे?
  4. देश की 30 प्रतिशत आम जनता राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्रियों, राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों व उन के चुनाव चिन्ह की ही जानकारी नहीं रखती. ऐसे में वह सही मतदान कैसे करेगी? उन्हें जानकारी मुहैया कराई जाए.
  5. देश के पंचायत स्तर के गांवों, कसबों, नगरों व महानगरों में हर स्तर के दलाल, चमचे जीवित हैं. उन को आम जनता से अलग किया जाए.
जगदीश प्रसाद पालड़ी, जयपुर (राजस्थान)
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रोचक कहानी
कहानी ‘मिशन मुहब्बत’ मजेदार लगी. हर रिश्ते की एक गरिमा होती है. यह ठीक है प्रेम भावना कभी भी किसी भी उम्र में पनप सकती है लेकिन फिर भी मर्यादित सीमा के अंदर ही यह भावना अच्छी लगती है. कहानी का अंत सही है.
 मीना टंडन, कृष्णानगर (दिल्ली) 
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चहेती पत्रिका सरिता
आज 69 वर्ष की आयु में भी सरिता मेरी और मेरे परिवार की चहेती पत्रिका है. इस का कलेवर कई बार बदला परंतु ढोंग और आडंबर के विरुद्ध इस की धार कुंद कभी नहीं हुई. स्वास्थ्य, बागबानी, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक आदि विविध विषयवस्तु के साथसाथ नियमित स्तंभों में भी रोचक सामग्री परोस कर यह पत्रिका सभी रुचियों व विभिन्न आयुवर्ग के पाठकों को बांधे रखने में पूरी तरह से सफल रही है.
पिछले कई वर्षों तक मैं सरिता हाथ में आते ही सर्वप्रथम पूरे पृष्ठ की कविता का आनंद लेता रहा हूं. आजकल हिंदी कविता अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष से गुजर रही है ऐसी स्थिति में हिंदी साहित्य की इस अनूठी विधा को आप की पत्रिका जैसी अन्य पत्रिकाओं के सहारे की बहुत जरूरत है.
बी डी शर्मा, यमुना विहार (दिल्ली) 
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राजनेताओं की राजनीति
सरिता दिसंबर (द्वितीय) अंक में छपे ‘विकास पर राजनेताओं की खोखली सोच’, ‘बिन लालू सब सून’, ‘मुलायम का सियासी कुनबा’ और ‘गोरखालैंड को भूल गए दार्जिलिंग के जसवंत’ ये 4 लेख राजनीति में रुचि रखने वाले सजग पाठकों के लिए सामयिक खुराक हैं. राजनीति आज पद और पैसा पाने का सहज, सरल धंधा है उन के लिए, जो बेशर्म और बेईमान बनने की हिम्मत रखते हैं.
राजनेताओं की खोखली सोच के कारण कहीं केवल करोड़ों की लागत से हाथियों की मूर्तियां खड़ी हुईं तो कहीं 2,500 करोड़ रुपए की लागत से गुजरात के सरदार सरोवर तट पर सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा स्थापित की जा रही है. पश्चिम बंगाल में ममता की सरकार ने विकास के नाम पर सड़क के किनारे त्रिफला लैंपपोस्ट खड़ी कर के लंदन की रौनक लाने का वादा पूरा किया.  लेकिन साल होतेहोते ही रोशनी बुझ गई है. दूसरी तरफ कोयला घोटाला, आदर्श सोसायटी, 2जी स्पैक्ट्रम तथा कौमनवैल्थ गेम्स में खोखली व्यवस्था की तसवीर प्रकाश में आई तो सत्ता की सुरक्षा में तैनात पुलिस वाहिनी साप्ताहिक और मासिक के अलावा अतिरिक्त कमाई करने में लगी है.
जहां तक दार्जिलिंग के सांसद जसवंत सिंह की बात है, उन्हें तो यह पद दार्जिलिंग की विकलांग राजनीति के उपहार के रूप में मिला था. ‘आप गोरखालैंड चाहते हैं, मैं भी गोरखालैंड चाहता हूं’, कहने वाले जसवंत सिंह दार्जिलिंग ही भूल गए. सांसद की गुमशुदगी की रिपोर्ट तक दर्ज की गई.
बिर्ख खडका डुवर्सेली, दार्जिलिंग (प.बं.) 

हिंदी मराठी भाई भाई

सियासत की तरह फिल्मी दुनिया में भी दोस्ती और दुश्मनी स्थायी नहीं रहती, इस बात को अमिताभ बच्चन और राज ठाकरे ने एक बार फिर सच साबित कर दिया. सब जानते हैं कि लगभग 5 साल पुरानी तल्खी के चलते राज ठाकरे बिग बी से इतने खफा थे कि जबतब उन पर तीखी टिप्पणियां करते रहते थे. कभी भोजपुरी फिल्मों में काम करने के नाम पर तो कभी यूपी का ब्रैंड ऐंबेसडर बनने पर. बीते दिनों अमिताभ और राज ठाकरे के रिश्तों में आई दरार उस वक्त भर गई जब दोनों ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) के कार्यक्रम में मंच साझा किया. कार्यक्रम के दौरान मंच पर राज ठाकरे अमिताभ के पैर छूने के लिए आगे बढ़े लेकिन बिग बी ने उन्हें गले से लगा लिया. यानी अब कह सकते हैं कि हिंदीमराठी भाईभाई.

अलविदा फारुख

बौलीवुड के मशहूर अभिनेता 65 वर्षीय फारूख शेख का 27 दिसंबर को दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया. गौरतलब है कि फारूख परिवार के साथ छुट्टियां मनाने दुबई गए थे. उन्होंने फिल्म ‘गरम हवा’, ‘चश्मे बद्दूर’, ‘उमराव जान’, ‘नूरी’, ‘किसी से न कहना’ और ‘शतरंज के खिलाड़ी’ जैसी बेहतरीन फिल्मों में अपने दमदार अभिनय से दर्शकों का दिल जीता. हाल ही में वह रणबीर कपूर के साथ फिल्म ये ‘जवानी है दीवानी’ में नजर आए थे. साथ ही टैलीविजन में ‘जीना इसी का नाम है’ जैसे कार्यक्रम की मेजबानी भी की जिस में उन्होंने कई जानीमानी हस्तियों का इंटरव्यू भी लिया था.

बुरे फंसे गायक पलाश

यूफोरिया बैंड के प्रमुख गायक पलाश सेन इन दिनों खासे परेशान हैं. दरअसल, पलाश आईआईटी बौंबे के एक फैस्टिवल में लोगों का मनोरंजन करने के इरादे से मंच पर मौजूद थे. उसी दौरान उन के द्वारा किया गया एक मजाक आईआईटी की छात्रा को इतना बुरा लगा कि उस ने अपने ब्लौग के जरिए महिलाओं पर अश्लील टिप्पणी का आरोप लगा डाला और उन के बैंड को बैन करने की मांग भी कर डाली. उस के मुताबिक, कार्यक्रम के दौरान पलाश ने ऐसी टिप्पणी की जिस से लगता है कि वे महिलाओं को केवल सुंदरता और शारीरिक बनावट के तौर पर जानते हैं. अब बेचारे पलाश हर जगह सफाई देते फिर रहे हैं.
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