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जय हो

दिल्ली में केजरीवाल ने आम आदमी का मुद्दा उठा कर वाहवाही क्या लूटी, सल्लू मियां ने भी अपनी फिल्म ‘जय हो’ में आम आदमी के फैक्टर को भुना डाला.

‘जय हो’ न तो देशभक्ति पर बनी फिल्म है न ही इस में सलमान खान ने देशभक्ति का कोई काम किया है. यह फिल्म अच्छाई का प्रचार करती है. फिल्म में दिखाने की कोशिश की गई है कि सत्ता में बैठे लोग पावर का गलत इस्तेमाल किस तरह करते हैं और आम आदमी त्रस्त होता रहता है. फिल्म का यह विषय नया या अनूठा बिलकुल नहीं है, सैकड़ों बार दोहराया जा चुका है. लेकिन ‘जय हो’ में सलमान खान ने खुद को आम आदमी का प्रतिनिधि जताते हुए भ्रष्ट राजनीतिबाज से टक्कर ले कर अपनी ‘जय हो’ कराई है.

किसी भी फिल्म में सलमान खान का नाम ही फिल्म की गारंटी समझा जाता है. फिल्म कूड़ा हो तो भी सलमान के प्रशंसक उसे हाथोंहाथ लेते हैं. वह चाहे चश्मा उलटा पहन ले, कमर पर तौलिया हिला दे, शर्ट फाड़ कर अपनी छाती दिखाए, उस के फैंस को उस की हर अदा अच्छी लगती है.

‘जय हो’ में सलमान के भाई व निर्देशक सोहेल खान ने सभी चटखारेदार मसाले डाले हैं ताकि सलमान के प्रशंसकों को खुश किया जा सके. फिल्म में भरपूर ऐक्शन है, फनी जोक्स हैं, लव सौंग्स हैं, कौमेडी है, सलमान ने अपनी शर्ट भी उतारी है. फिल्म में गंभीरता बिलकुल नहीं है. फिल्म के कई सीन उस की पिछली फिल्मों के कौपी लगते हैं.

यह फिल्म 2006 में आई तेलुगू फिल्म ‘स्टालिन’ की रीमेक है. ओरिजिनल फिल्म में चिरंजीवी हीरो था. उस वक्त वह राजनीति में आने का प्लान बना रहा था. इसी मकसद से उस फिल्म को बनाया गया था. ‘जय हो’ में सलमान खान ने खुद को दक्षिण भारत के सुपरस्टार रजनीकांत जैसा दिखाने की कोशिश की है.

यह फिल्म सलमान की ही पिछली फिल्म ‘दबंग’ जैसी है, मगर इस फिल्म में वह कुछ ज्यादा खूंखार लगा है, शेर की तरह दहाड़ा भी है. फिल्म में सलमान खान ने अनगिनत लाशें बिछाई हैं. सलमान खान की फिल्मों को पचा पाना हर किसी के बस की बात नहीं है. इस फिल्म में दिखाई गई हिंसा को सिर्फ उस के फैंस ही पचा सकते हैं. अगर बात करें एंटरटेनमैंट की, तो यह फिल्म सलमान की ही ‘एक था टाइगर’ से काफी कमजोर है.

कहानी जय अग्निहोत्री (सलमान खान) की है, जिसे सेना से निकाल दिया गया है. अब उस का एक ही लक्ष्य है, लोगों की मदद करना. वह अपने दोनों भाइयों (अश्मित पटेल और यश टोंक) के साथ मदद करने वाले को संदेश भी देता है कि किसी की मदद के बदले उसे थैंक्यू मत कहो, बदले में 3 और लोगों की मदद करो.

एक दिन जय गुंडों के चंगुल से एक लड़की को छुड़ाता है. वह फोन पर लड़कियां छेड़ने वाले से भी निबटता है, साथ ही हर किसी की मदद को भी तैयार रहता है. भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाता है तो भ्रष्ट मंत्री दशरथ पाटिल (डैनी) की आंख की किरकिरी बन जाता है. लेकिन जब जय को गृहमंत्री की काली करतूतों के बारे में पता चलता है तो वह उस के खिलाफ आम आदमी की जंग शुरू कर देता है. इस जंग में उस की बहन गीता (तब्बू) उस के साथ है. गृहमंत्री तब जय का दुश्मन हो जाता है. वह मुख्यमंत्री प्रधान (मोहनीश बहल) पर जानलेवा हमला करता है और इलजाम जय पर लगा देता है, साथ ही वह जय को आतंकवादी करार देता है. मुख्यमंत्री बच जाता है. वह बयान देता है कि जय बेकुसूर है. उसे तो गृहमंत्री ने कत्ल करने की कोशिश की थी. जनता जय का साथ देती है और जय गृहमंत्री के गुर्गों को मौत के घाट उतार देता है. सारी जनता गृहमंत्री पर टूट पड़ती है और उसे उस के किए की सजा देती है.

फिल्म की नायिका पिंकी (डेजी शाह) है जिस ने सलमान के साथ एक गाने में परफौर्म किया है. वह कुछ दृश्यों में ही नजर आई है. वह सलमान खान से प्यार करती है.

कहानी को पूरी तरह सलमान खान को केंद्र में रख कर लिखा गया है. उस की फौजी जिंदगी को फ्लैशबैक में दिखाया गया है. सलमान खान ने खलनायकों की फौज को धूल चटाई है. फिल्म का शुरू का भाग कुछ धीमा है. क्लाइमैक्स में खूब हिंसा है. मिलिट्री अफसर सुनील शेट्टी को जय की मदद करने के लिए सड़क पर टैंक ले कर आया देख दर्शकों को हंसी आ जाती है.

सलमान की मां की भूमिका में नादिरा बब्बर और बहन की भूमिका में तब्बू का काम अच्छा है. फिल्म का गीतसंगीत पक्ष कमजोर है. सलमान और डेजी शाह पर फिल्माया गाना ‘तेरे नैना…’ अच्छा बन पड़ा है. छायांकन अच्छा है.

 

खेल खिलाड़ी

रोनाल्डो को सर्वोच्च सम्मान
फुटबाल की दुनिया के सरताज क्रिस्टियानो रोनाल्डो को फीफा द्वारा वर्ष 2013 के न सिर्फ सर्वश्रेष्ठ फुटबालर के खिताब से नवाजा गया बल्कि पुर्तगाल के सर्वोच्च सम्मान ‘ग्रैंड औफिसर औफ द और्डर औफ प्रिंस हेनरी’ से भी सम्मानित किया गया. रोनाल्डो रियाल मैड्रिड फुटबाल क्लब के फौरवर्ड खिलाड़ी हैं. पुर्तगाल के राष्ट्रपति एनिबल कावाकी सिल्वा ने जब उन्हें सम्मानित किया तो वे भावुक हो गए और उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति के हाथों सम्मान पा कर मैं बेहद गर्व महसूस कर रहा हूं. मेरी तमन्ना है कि मैं अपने देश का नाम पूरी दुनिया में रोशन करूं.
   कभी हार न मानने वाले रोनाल्डो के जीवन में भी कई उतारचढ़ाव आए लेकिन वे कभी निराश नहीं हुए. एक समय जब रोनाल्डो अपने प्रतिद्वंद्वी लियोनेल मेसी से पिछड़ गए थे तब उन्होंने कहा था कि इस से जिंदगी रुक नहीं जाती, जिंदगी यों ही चलती जाएगी और ‘यूरो 2012’
में वे अपने दम पर टीम को सेमीफाइनल तक ले गए. उस दौरान फाइनल में भले ही पुर्तगाल को हार मिली लेकिन चैंपियन टीम स्पेन को रोनाल्डो ऐंड कंपनी ने पानी पिला दिया था.
वर्ष 2012-13 के सीजन में 56 मैचों में उन्होंने कुल 66 गोल दाग कर दिखा दिया कि वे दुनिया के सर्वश्रेष्ठ फुटबाल खिलाड़ी हैं. वर्ष 2009 में रियाल मैड्रिड ने 10 करोड़ यूरो यानी उस दौरान लगभग 700 करोड़ रुपए में रोनाल्डो को खरीदा था और उसी दौरान मेसी का जादू भी चल निकला. तब बहस होने लगी कि रोनाल्डो और मेसी में बेहतर कौन है? तब भी रोनाल्डो दूसरे खिलाडि़यों की तरह हताश, परेशान नजर नहीं आए और अपने खेल पर फोकस किया. कई चुनौतियों का सामना करते हुए रोनाल्डो ने बुरे वक्त में भी टीम के लिए कई मैचजिताऊ गोल किए हैं और पिछले वर्ष उन की टीम ने ला लीगा मुकाबला भी जीता.
6 फुट 1 इंच वाले रोनाल्डो पूरी शिद्दत और निष्ठा के साथ खेलते हुए गोल दागने में कामयाब रहते हैं. रोनाल्डो काफी चुस्तदुरुस्त हैं और फुर्तीले भी. गोल दागने में रोनाल्डो का कोई जोड़ नहीं. जिस तरह से रोनाल्डो अपनी टीम के लिए खेलते हैं उस से दूसरे उभरते खिलाडि़यों को प्रेरणा और बहुतकुछ सीखने को मिलता है.
वावरिंका का कमाल
एक तरफ जब ठंड से पूरा उत्तर भारत  ठिठुर रहा था वहीं दूसरी तरफ मेलबौर्न में आस्ट्रेलियाई ओपन में भीषण गरमी में स्विट्जरलैंड के स्टानिस्लास वावरिंका और दुनिया के नंबर वन खिलाड़ी स्पेन के राफेल नडाल के बीच कड़ा मुकाबला चल रहा था. इस मुकाबले में भारी उलटफेर करते हुए वावरिंका ने पुरुष एकल खिताब में पहला ग्रैंड स्लैम जीत लिया.
वावरिंका के लिए यह जीत आसान नहीं थी. वावरिंका ने आक्रामक शुरुआत की. नडाल कमर की चोट से परेशान थे. बावजूद इस के, नडाल ने पहले 2 सैटों में वावरिंका से मात खाने के बाद मैच में वापसी करते हुए तीसरे सैट में जीत दर्ज की लेकिन नडाल 14वां ग्रैडस्लैम नहीं जीत सके. वावरिंका ने सीधे सैटों में नडाल को 6-3, 6-2, 3-6, 6-3 से हरा कर बाजी मार ली.
गौरतलब है कि पिछले 20 वर्षों में ऐसा पहली बार हुआ है जिस में अभी तक कोई ग्रैंडस्लैम न जीतने वाले खिलाड़ी ने 2 दिग्गजों (राफेल नडाल और नोवाक जोकोविच) को हरा कर ग्रैंडस्लैम जीता हो. 
हर कोई यही मान कर चल रहा था कि यह खिताब नडाल ही जीतेगा लेकिन जबरदस्त फौर्म दिखाते हुए वावरिंका ने नडाल से यह खिताब छीन कर इतिहास रच दिया.
वहीं दूसरी तरफ भारत की सनसनी सानिया मिर्जा का मिश्रित युगल का तीसरा ग्रैंड स्लैम खिताब जीतने का सपना टूट गया. 
महिला एकल मुकाबले की बात करें तो चीन की अनुभवी टेनिस खिलाड़ी
ली ना ने भी बड़ी उलटफेर करते हुए स्लोवाकिया की सिबुलकोवा को हरा कर सब से ज्यादा उम्र में यह खिताब जीतने का गौरव हासिल किया.
बहरहाल, वावरिंका की इस जीत ने राफेल नडाल को सोचने पर मजबूर कर दिया है कि उन्हें आगे आने वाले मैच में भी कड़ी टक्कर मिलेगी. इसलिए उन्हें भी वावरिंका को मात देने के लिए विशेष तैयारी करनी पड़ेगी.
सायना ने दिखाया दमखम
15वर्ष बाद भारत की शीर्ष बैडमिंटन खिलाड़ी सायना नेहवाल ने उभरती खिलाड़ी और दूसरी वरीयता प्राप्त विश्व चैंपियनशिप की कांस्य पदक विजेता पी वी सिंधू को लखनऊ में बाबू बनारसी दास इंडोर स्टेडियम में हरा कर इंडिया ग्रांपी गोल्ड का महिला एकल खिताब हासिल कर लिया.
यह मुकाबला 38 मिनट तक चला जिस में सिंधू ने सायना को कड़ी चुनौती दी. लेकिन सायना ने अपना संयम न खोते हुए सिंधू को मात दे दी. इस से पहले सायना डेनमार्क में वर्ष 2012 में डेनमार्क ओपन सुपर सीरीज प्रीमियम खिताब अपने नाम कर चुकी हैं.
गौरतलब है कि सायना नेहवाल और पी वी सिंधू विश्व बैडमिंटन महासंघ के टूर्नामैंट में पहली बार भिड़ी थीं और इस से पहले ये दोनों खिलाड़ी इंडियन बैडमिंटन लीग में भिड़ चुकी हैं.
जीत के बाद सायना ने कहा कि यह जीत मेरे लिए विशेष है क्योंकि लंबे समय के बाद मैं फाइनल खेल रही थी. नर्वस भी थी लेकिन चीजें मेरे पक्ष में रहीं. पिछले कुछ महीनों से सायना लगातार खराब फौर्म से जूझ रही थीं जिस के कारण वे विश्व रैंकिंग में भी पिछड़ कर 9वें स्थान पर पहुंच गईं. इस जीत से सायना के फिर से रैंकिंग में आगे निकलने की उम्मीद है.
हरियाणा के हिसार में जन्मी सायना अब तक कई बड़ी उपलब्धियां हासिल कर चुकी हैं. वे विश्व जूनियर चैंपियन के अलावा वर्ष 2006 में एशियन चैंपियनशिप भी जीत चुकी हैं. मातापिता दोनों के बैडमिंटन खिलाड़ी होने के कारण सायना को शुरू से ही इस खेल के प्रति लगाव रहा है. सायना की तरह कई ऐसी खिलाड़ी भी हैं जो इस खेल में आगे बढ़ना चाहती हैं, पर यहां तक नहीं पहुंच पाती हैं क्योंकि उन के सामने एक नहीं, कई अड़चनें हैं. सब से बड़ी दिक्कत पैसों के अभाव के कारण अच्छी ट्रेनिंग में वे पिछड़ जाती हैं पर इस से हौसला हारना नहीं चाहिए क्योंकि कई ऐसे खिलाड़ी भी हैं जो अपनी मेहनत व विश्वास के दम पर खेल में आगे बढ़े हैं.

पाठकों की समस्याएं

मैं एक लड़की से प्यार करता हूं. वह भी मुझे प्यार करती है. हम दोनों विवाह करना चाहते हैं. परेशानी यह है कि वह मेरी मां के चाचा की बेटी है और आयु में मुझ से 2 साल बड़ी है. क्या हमारा रिश्ता घर वालों और समाज को मंजूर होगा? क्या हमें इस बारे में अपने परिवार वालों से बात करनी चाहिए? सुझाव दीजिए.
जब आप किसी से प्यार करते हैं तो आप को रिश्तों की समझ होनी चाहिए. क्या आप को प्यार करने से पहले मालूम नहीं था कि आप का उस लड़की के साथ क्या रिश्ता है? आप के इस रिश्ते के लिए आप के परिवार वाले हरगिज तैयार नहीं होंगे. वैसे भी जरूरी नहीं कि जिस से प्यार किया जाए उस से विवाह भी हो. इस नए रिश्ते से आप की, आप के परिवार की और उस लड़की की समाज में बदनामी होगी. हिंदू परिवार में अपनी मौसी से विवाह करना मान्य नहीं होता है. इसलिए इस बारे में परिवार वालों से बात न करें और अपने प्यार को मात्र आकर्षण समझ कर भूल जाने में ही आप की व उस लड़की की भलाई है.
मैं 38 वर्षीय पुरुष हूं. विवाह को 8 साल हो चुके हैं पर हम अभी भी संतानसुख से वंचित हैं. हम ने डाक्टरी इलाज वगैरह सब कुछ कर लिया पर संतान सुख नहीं मिला. अब हम ने बच्चा गोद लेने का फैसला किया है. घर वाले चाहते हैं कि हम परिवार से ही बच्चा गोद लें जबकि मैं और पत्नी चाहते हैं कि परिवार से बाहर का बच्चा गोद लें. इस से एक बेसहारा को सहारा मिलेगा. आप बताइए हमें क्या करना चाहिए?
आप ने बच्चा गोद लेने का निर्णय बिलकुल सही लिया है और जहां तक बच्चा परिवार से या बाहर से गोद लेने की बात है, आप का बाहर से बच्चा गोद लेने का निर्णय सही है क्योंकि इस के पीछे छिपी आप की सोच नेक है कि इस से एक अनाथ बच्चे को सुरक्षित भविष्य मिलेगा और उसे एक परिवार का
सहारा मिलेगा.
परिवार से बच्चा गोद लेने पर भविष्य में समस्या हो सकती है जैसे अगर उसे बड़े हो कर उस के असली मातापिता का पता चले या फिर संपत्ति विवाद भी हो सकता है. जबकि बाहर से बच्चा गोद लेने पर ऐसी समस्या नहीं आती है, आप उसे अपने अनुसार ही ढालते हैं. उस में कोई हस्तक्षेप नहीं होता.
मैं 20 वर्षीय अविवाहित युवती हूं. मुझे सैक्स की पूरी जानकारी है और कई बार मेरा मन सैक्स करने को करता है. क्या विवाह से पूर्व शारीरिक संबंध स्थापित करना सही होगा? मैं अपने मन को कैसे समझाऊं?
इस आयु में ऐसी चाहत होना स्वाभाविक है. भले ही आप को सैक्स की पूरी जानकारी हो लेकिन विवाह से पूर्व ऐसे संबंध सिर्फ आप को टैंशन व परेशानी ही देंगे.
विवाह के बाद ऐसे संबंधों का खुलासा भी वैवाहिक संबंधों के बिखरने का कारण बनता है. इसलिए आप अपना ध्यान कहीं और लगाइए. अपनी पसंद की किसी हौबी को अपना पैशन बनाइए और सैक्स संबंधों को विवाह के बाद ही अपने जीवन में लाइए. यही आप के लिए बेहतर होगा. इस के बाद भी अगर आप का मन सैक्स करने को करता है तो आप शीघ्र ही विवाह कर लीजिए.
मैं 30 वर्षीय अविवाहित युवती हूं और एक प्राइवेट संस्थान में काम करती हूं. मेरी परेशानी यह है कि मेरे घर वाले मेरी शादी की उम्र होते हुए भी शादी नहीं कर रहे हैं बल्कि मुझ से छोेटा भाई, जो केवल 22 वर्ष का है, उस की शादी के लिए परेशान हैं. मुझे समझ नहीं आ रहा, वे ऐसा क्यों कर रहे हैं. मेरी सभी सहेलियां और सहयोगी विवाहित हैं. जब वे अपने वैवाहिक जीवन की बातें करते हैं तो मैं खुद को उन से अलगथलग महसूस करती हूं. मुझे समझ नहीं आ रहा है मैं अपने परिवार को कैसे तैयार करूं?
जीवन में हर कार्य का एक निश्चित समय होता है और निश्चित समय पर किया गया कार्य ही आप को खुशी व संतुष्टि देता है. आप की विवाह की उम्र होते हुए भी परिवार वालों का आप के विवाह की जिम्मेदारी से मुंह मोड़ना सर्वथा गलत है. कहीं आप के परिवार द्वारा आप के विवाह को गंभीरता से न लेने के पीछे आप का कामकाजी होना तो नहीं है. वे आप के विवाह के बाद आप के द्वारा दिए जाने वाले आर्थिक सपोर्ट को न खोने देना चाहते हों. आप इस बारे में अपने घरवालों से खुल कर बात कीजिए और उन के सामने अपनी इच्छा जाहिर कीजिए. इस के लिए आप अपने किसी नजदीकी दोस्त या रिश्तेदार की भी मदद ले सकती हैं.
मैं 28 वर्षीय युवती हूं. नौकरी के सिलसिले में अपने भाई के साथ दिल्ली में रहती हूं. मेरे भाई शादीशुदा हैं. भाभी अपनी सरकारी नौकरी की वजह से भैया से दूर दूसरे शहर में रहती हैं. दिल्ली आ कर मुझे पता चला कि मेरे भैया का अपनी कुलीग के साथ चक्कर चल रहा है. मुझे भाभी की बहुत चिंता हो रही है. मुझे समझ नहीं आ रहा है कि मैं इस बारे में भैया से बात करूं या घर वालों को बता दूं. आप सुझाव दीजिए.
आप इस विषय में अपने भैया से खुल कर बात करें. अगर वे आप की बात पर ध्यान न दें तो आप अपने परिवार वालों को इस बारे में बता कर उन से भैया से बात करने को कहें क्योंकि आप के भैया का गलत व्यवहार 2 लोगों की जिंदगी तबाह कर सकता है. आप के भैया के प्रेमप्रसंग में कहीं न कहीं थोड़ी गलती आप की भाभी की भी है. पत्नी से दूरी ही शायद उन्हें भटकाव की राह पर चलने के लिए प्रेरित कर रही है. फिर भी आप के भैया गलत हैं, उन से इस बारे में दोटूक बात करनी जरूरी है.

रेडियो सीलोन के वे सुनहरे दिन

श्रीलंका ब्रौडकास्टिंग कौर्पोरेशन लिमिटेड यानी एसएलबीसी के विदेश विभाग से जुड़े रहे 3 वरिष्ठ उद्घोषकों मनोहर महाजन, विजयलक्ष्मी डिसेरम और रिपुसूदन कुमार ऐलावादी का शुमार प्रसारण जगत की शीर्ष हस्तियों में किया जाता है. इन उद्घोषकों ने लोकप्रियता का वह दौर भी देखा और भोगा है जब इन के पीछे करोड़ों श्रोताओं की जमात होती थी. इसे एक सुखद संयोग कह सकते हैं कि इन तीनों हस्तियों से छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में मिलने का मौका मिला. इसी मुलाकात में उन्होंने रेडियो के उन सुनहरे पलों को याद कर कई ऐसी बातें बताईं जिन्हें सुन कर उस दौर की यादें ताजा हो जाती हैं. 13 फरवरी ‘वर्ल्ड रेडियो डे’ के रूप में मनाया जाता है. तो आइए, हम आप को उन सुनहरे पलों की यादों के सफर में ले चलते हैं.

मनोहर महाजन जब भी रेडियो पर अपनी आवाज बिखेरते थे तो श्रोता सारा कामधाम छोड़ कर उन की आवाज सुनने लगते थे. जब उन से रेडियो सीलोन की बात शुरू की तो वे अपने पुराने साथियों के बारे में बताते हुए कहते हैं, ‘‘मेरे गुरु अमीन सयानी, उन के बड़े भाई हमीद सयानी, दलबीर सिंह परमार, ज्योति परमार, पद्मिनी, परेरा, विजयलक्ष्मी, सुभाषिनी, नलिनी परेरा, विमल धर्म, मेरे बौस जामलडीन, गोपाल शर्मा, ब्रज किशोर दुबे, कुमार और सरदार प्रीतपाल सिंह सहित ढेर सारे नाम हैं. वाकई वह बहुत यादगार दौर था.’’

अमीन सयानी बनने का ख्वाब

रेडियो की दुनिया के शुरुआती सफर को याद करते हुए मनोहर बताते हैं, ‘‘मैं प्रसारण की दुनिया में बाइचांस आया. बचपन से मैं सांस्कृतिक रुझान वाला हूं. पोस्टगे्रजुएशन पूरा कर मैं सूचना व प्रसारण मंत्रालय के संगीत व नाटक प्रभाग से जुड़ गया. तभी रेडियो सीलोन में 2 उद्घोषकों की आवश्यकता का एक विज्ञापन दिल्ली के अखबारों में आया. रेडियो सीलोन की उस जमाने में तूती बोलती थी. आलम यह था कि लोग रेडियो खरीदते थे तो पहले देखते थे कि सीलोन साफ पकड़ता है कि नहीं. फिर अमीन सयानी साहब को सुनतेसुनते हम लोग सोचते थे कि यार, अगर वहां पहुंच जाएंगे तो स्टार बन जाएंगे. ऐसे बहुत से ख्वाब लिए मैं ने अपना आवेदनपत्र भेज दिया और उस के बाद दिल्ली में इंटरव्यू हुआ जिस की एक लंबी कहानी है. मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा यह जानकर कि मैं सैलेक्ट हो गया था. खुशी की बात यह थी कि मुझे अमीन सयानी साहब ने 1 माह प्रशिक्षित किया और फिर मैं कोलंबो जा कर रेडियो सीलोन से जुड़ गया.

स्टारडम का दौर

मनोहर बताते हैं, ‘‘उस दौर में रेडियो सीलोन के उद्घोषक लोकप्रियता के मामले में किसी भी बड़े फिल्मी कलाकार से कम नहीं थे. हम लोगों के लिए फ्लाइटें तक रुक जाती थीं. तब कस्टम क्लियरेंस बेहद सख्त था. उन दिनों शर्ट और अंगूठी तक की पासपोर्ट में एंट्री होती थी. ऐसे सख्ती वाले दौर में जब हम लोग जाते थे और उन्हें जैसे ही पता चलता था कि हम रेडियो सीलोन के अनाउंसर हैं तो हमारा कस्टम क्लियरेंस नहीं होता था. ऐसा ही हाल रेलवे का था. अगर पता लग जाए कि हम लोग फलां ट्रेन से जा रहे हैं तो रेलवे स्टेशन पर हुजूम लग जाता था.’’

एक दिलचस्प घटना को याद करते हुए वे बताते हैं, ‘‘मुझे याद है, मैं कलकत्ता मेल से अपने नेटिवप्लेस जा रहा था. ऐसे में परमार साहब (स्व. दलबीर सिंह) ने रेडियो सीलोन के एक कार्यक्रम में इस बाबत उद्घोषणा कर दी. इस के बाद तो पूछिए मत, लोग मुझे चेहरे से जानते नहीं थे लेकिन हर स्टेशन पर हुजूम उमड़ पड़ा. हर स्टेशन पर मेल रोकी गई. लोगों का रिस्पौंस देख कर मेरे कंपार्टमैंट वाले भी मुझे बाहर कर देते थे कि जाइए, जल्दी मिलिए ताकि टे्रन आगे बढ़े. ऐसा सिर्फ मेरा ही तजरबा नहीं था बल्कि मेरे जितने साथी थे, सभी ने यह स्टारडम पाया है.’’

नया करने की हसरत

रेडियो सीलोन पहुंचने के बाद मनोहर को लगा कि क्या वे सिर्फ मोहम्मद रफी को सुनिए, लता मंगेशकर को सुनिए, इस फिल्म में किशोर कुमार को सुनिए, इस की फरमाइश यह है आदि सब के लिए आए हैं? उन्हें तो ब्रौडकास्टिंग में और कुछ करना था. इसी हसरत के साथ उन्होंने बहुत से प्रयोग किए. मनोहर के अनुसार, ‘‘मैं पहला उद्घोषक था, जिस ने ‘रेडियो पत्रिका’ निकाली. प्रकाशित पत्रिका की तरह मेरी औडियो पत्रिका थी वह जिस में संपादकीय, संदेश गीत, हफ्ते के श्रोता और हफ्ते के विचार सहित बहुत कुछ होता था. मेरा यह प्रयोग इतना लोकप्रिय हुआ कि जब मेरी रेडियो पत्रिका का 100वां और 200वां अंक आता था, उस को हम स्पैशल करते थे और श्रोता सुन कर उस को लिखते थे और उस को छपवा कर उस की प्रति देशभर में रेडियो श्रोता संघों को भेजते थे.’’

भूलेबिसरे गीतों का प्रयोग

रेडियो सीलोन के दौरान मनोहर ने एक अनूठा प्रयोग किया. वे बताते हैं, ‘‘उन दिनों रेडियो सीलोन में गीतों की लाइबे्ररी में मैं ने देखा कि ढेर सारे ग्रामोफोन रिकौर्ड्स गट्ठरों में बंधे रखे हुए थे. मुझे बड़ी तकलीफ हुई. उन में ज्यादातर 1931 से 1945 तक के दौर के थे. उन में ऐसे रिकौर्ड्स भी मिले जिन के लेबल पर कोई जानकारी नहीं थी. तब कोई इंटरनैट नहीं, इलैक्ट्रौनिक मीडिया नहीं, तो कैसे उन के बारे में जानकारी हासिल करता. मैं ने एक प्रयोग किया, उन रिकौर्ड्स को भूलेबिसरे गीत कार्यक्रम के तहत बजाना शुरू किया. उस कार्यक्रम में मैं ने श्रोताओं को आमंत्रित करना शुरू किया कि आप के पास इस गीत के बारे में अगर जानकारी हो तो हमें जरूर बताइए. उन की जो जानकारी आती थी उसे बहुमत के आधार पर मैं उस रिकौर्ड पर लिखवा देता था. इस तरह मैं ने उस नायाब खजाने को पहचान देने की दिशा में एक अनोखा काम किया.’’

बहरहाल, उन्होंने 1967 में रेडियो सीलोन में अपनी सेवा शुरू की थी और 1974 में, 32 साल की उम्र में वहां की नौकरी छोड़ दी. उस के बाद कहीं नौकरी नहीं की. वे मुंबई आ गए और देश के पहले फ्रीलांस ब्रौडकास्टर बन गए. उस दौर में विविध भारती पर बहुत से कार्यक्रम शुरू हुए. उन्होंने विविध भारती पर प्रसारण के लिए अलगअलग पार्टियों के कार्यक्रम स्वतंत्र रूप से प्रोड्यूस किए.

फिल्म पब्लिसिटी और रेडियो

मुंबई आने के बाद उन्होंने फिल्मों की रेडियो पब्लिसिटी के क्षेत्र में भी काम शुरू किया. वे कहते हैं, ‘‘तब अमीन सयानी साहब इस क्षेत्र में स्थापित हो चुके थे. उन के बाद मैं और प्रदीप शुक्ला. इस तरह हम 3 के अलावा प्रोड्यूसर और किसी से काम कराना नहीं चाहते थे. अमीन साहब ने बहुत सी फिल्में मुझे दिलवाईं और बड़े बजट की ‘रोटी कपड़ा और मकान’, ‘कुर्बानी’, ‘क्रांति’, ‘शोले’, ‘दीवार’, ‘सत्यम शिवम सुंदरम’ सहित उस दौर की तमाम बड़ी फिल्में उन के साथ कीं. इन फिल्मों में मुझे ‘शोले’ की याद आ रही है. वह फिल्म इतनी हिट होगी, इस का पब्लिसिटी प्रोग्राम बनाते वक्त हम लोगों को बिलकुल भी अंदाजा नहीं था.

‘‘वैसे तो मैं ने बहुत से यादगार रेडियो प्रोग्राम किए लेकिन कमाल अमरोही साहब की ‘रजिया सुल्तान’ का तजरबा सब से अलग रहा. दरअसल, कमाल साहब को इस फिल्म के रेडियो प्रोग्राम के लिए रैगुलर आवाज के बजाय नई आवाज चाहिए थी. उस के लिए देशभर में विज्ञापन दिए गए थे. लोग आए भी लेकिन कमाल साहब को 2 माह से कोई भी आवाज पसंद नहीं आ रही थी. एक दिन इलाहाबाद से एक सज्जन आए. बहुत अच्छी थी उन की आवाज, लेकिन वे शुद्ध हिंदी वाले थे. खुद के परिचय का जो अनाउंसमैंट पहले करना पड़ता था वह वे नहीं कर पा रहे थे. ऐसे में प्रोड्यूसर जगमोहन मट्टूजी ने मुझ से कहा कि मनोहर, यह अनाउंसमैंट तुम कर दो. मैं ने कहा, ‘ठीक है, सर’. इस तरह मैं ने वह ओपनिंग अनाउंसमैंट किया कि ये सज्जन इलाहाबाद के हैं, इन का नाम यह है और ये ‘रजिया सुल्तान’ का डायलौग रिकौर्ड कर रहे हैं, ट्रैक फालोज. इस तरह मैं ने बोल दिया.

‘‘इस टेप को कमाल साहब ने सुना और उस आवाज को तो रिजैक्ट कर दिया लेकिन ओपनिंग आवाज को ले कर कहने लगे, ‘यह किस की आवाज है, आई वांट दिस वौयस.’ इस तरह कमाल साहब ने रजिया सुल्तान के लिए मुझे चयनित किया और रजिया सुल्तान के जो प्रोग्राम थे वे ब्रौडकास्टिंग के माइलस्टोन थे. क्योंकि उस में खालिस उर्दू बोली गई थी. मुझे मालूम है 15 मिनट का रेडियो प्रोग्राम करने में मुझे 8-8 घंटे लगते थे. क्योंकि कमाल साहब एक भी गलत उच्चारण, एक भी गलत पौज जाने नहीं देते, तुरंत रिजैक्ट कर देते थे. इसलिए पहली बार मैं ने अपनी लाइफ में नफीस उर्दू, सिर्फ उर्दू बोली है. उस प्रोग्राम की मेरे पास एक कौपी है, लोग सुनते हैं तो दीवाने हो जाते हैं.

मेरी आवाज ही पहचान है

मनोहर बताना जारी रखते हैं, ‘‘रेडियो और स्टेज ने जो मुझे दिया उस का नतीजा है कि सीनियर सिटिजन हो जाने के बाद भी स्टिल, आई एम सैलिंग माई वौयस. हां, यह है, जरूर है कि अब मेरी आवाज पहले से मैच्यौर हो गई है, क्योंकि मैं यंग साउंड नहीं करता हूं. अगर कोई मुझे कहे कि आप पुराने तरीके से ही कार्यक्रम पेश करो तो दैट इज नौट पौसिबल. हालांकि मैं तब तक रिटायर नहीं होऊंगा जब तक सेहत और मेरे सामने के दांत मुझे इजाजत नहीं देते. मैं प्रसारण के अलगअलग क्षेत्रों में सक्रिय हूं. डिस्कवरी चैनल पर मेरे खयाल से 1,200 से ज्यादा कहानियों में मेरी आवाज है. ऐसे ही नैशनल ज्योग्राफिक में 350 घंटे से ज्यादा का मैं ने नेरेशन किया हुआ है. म्यूजिक के तो हजारों प्रोग्राम किए. अब मैं मुंबई में अपना टे्रनिंग इंस्टिट्यूट चला रहा हूं, जिस में नौजवान बच्चों को वौयस कल्चर में ट्रैंड करता हूं. मेरी एक किताब ‘यादें रेडियो सीलोन की’ भी रिलीज हुई है.

‘‘अपने कैरियर में मुझे खुद को ले कर तो नहीं लेकिन अमीन साहब को ले कर एक खलिश जरूर होती है. मुझे लगता है अभी तक उन के काम का समाज ने सही मूल्यांकन नहीं किया. उन्हें ‘पद्मश्री’ भी दिया गया तो इस उम्र में कि वे उस को सही से एंजौय भी न कर सके. खैर, बातें तो बहुत सी हैं. मैं आज भी अपने श्रोताओं और अपने चाहने वालों के करीब रहता हूं.’’

मनोहर महाजन की तरह ही रेडियो की बेमिसाल आवाज विजयलक्ष्मी डिसेरम भी रेडियो से जुड़ी ढेरों यादें बांटती हैं. वे कहती हैं, ‘‘वर्ष 1967 में मैं शादी कर लखनऊ से श्रीलंका गई थी. वहां पर मुझे रेडियो सीलोन के अलावा कुछ भी नहीं मालूम था और यहां मैं गोपाल शर्मा और अमीन सयानी की आवाज से ही परिचित थी. आज के एफएम रेडियो की तरह उस जमाने में श्रीलंका में रेडियो फ्यूजन सर्विस हुआ करती थी. इस का कनैक्शन रेडियो सीलोन के स्टूडियो से होता था. यह एक ऐसा जरिया था कि हर आदमी उस पर हिंदी के अलावा तमिल, मलयालम, अंगरेजी और सिंघली के कार्यक्रम सुन सकता था. मैं ने वहां पर गोपाल शर्मा को सुना तो बड़ी प्रभावित हुई. परिस्थितिवश रेडियो सीलोन जाना हुआ तो वहां लाइबे्ररी में शिव कुमार सरोज और गोपाल शर्मा से मुलाकात हुई. उन्होंने मुझे औफर किया कि तुम चाहो तो ट्राई कर सकती हो. पढ़ीलिखी हो, यहां पर काम सीख सकती हो. इस तरह मेरी रेडियो श्रीलंका में शुरुआत हो गई. यहां मेरी टे्रनिंग शुरू हो गई और थोड़े समय के प्रसारण से मैं सीधे जुड़ गई. वह जमाना आज से बिलकुल जुदा था. तब हमें अपने सीनियर से ही सीखना होता था. धीरेधीरे मैं माहिर होती गई और मुझे खुशी है कि श्रोता मुझे बहुत पसंद करते थे.’’

अलग आवाज, अलग पहचान

रेडियो में विविधता और कार्यक्रमों की लोकप्रियता के सवाल पर विजयलक्ष्मी कहती हैं, ‘‘उस दौर के प्रोग्राम की बातें करूं तो मेरी समझ में सभी प्रोग्राम यादगार थे. हम सभी के प्रोग्राम में विविधता रहती थी. मुझे याद आ रहा है एक प्रोग्राम जो ‘आप के अनुरोध पर’ नाम से हुआ करता था. हालांकि श्रोताओं की पसंद पर होता था लेकिन हर उद्घोषक जब भी प्रस्तुत करता था, अपने ढंग से प्रस्तुत करता था. दलबीर सिंह परमार अपने इस प्रोग्राम में जोहरा बाई अंबाले वाली और शमशाद बेगम आदि के गीत ज्यादा सुनवाते थे. मनोहर महाजन मिलेजुले गीत पसंद करते थे. चूंकि मैं छोटी थी तो मुझे रफी की आवाज, लता की आवाज या ओ पी नैयर के जोशोखरोश वाले गाने पसंद आते थे, मैं उन्हें पेश करती थी. हम लोगों के प्रस्तुतीकरण के ये विविध रूप श्रोताओं ने खूब पसंद किए.’’

गृहयुद्ध से बिगड़े हालात

उसी दौरान श्रीलंका गृहयुद्ध के संकट से घिरा. तब के मुश्किल हालात पर विजयलक्ष्मी कुछ यों कहती हैं, ‘‘शुरुआती टे्रनिंग के बाद रेडियो सीलोन में मैं ने 1970 से 1985 तक का अरसा गुजारा. 1983 में श्रीलंका में गृहयुद्ध की वजह से हालात बिगड़ने लगे. हालत यह हो गई कि कुछ लोग हमारा घर जलाने के लिए आ गए थे. तब श्रीलंका ही एक ऐसा देश था जहां सब से ज्यादा नेता और जर्नलिस्ट मारे गए थे. ऐसे माहौल में मुझे लगा कि मुझे यहां से निकल जाना चाहिए. इस दौरान मुझे तत्काल वाश्ंिगटन में वौयस औफ अमेरिका में जौब मिल गया.’’

हिंदुस्तानी संगीत का जनून

अपनी आगे की योजना को ले कर वे कहती हैं, ‘‘वाश्ंिगटन में मैं बौलीवुड सिने म्यूजिक रिसर्च सैंटर शुरू करना चाहती हूं. वहां रह रहे हमारे देश के लोगों में हिंदुस्तानी संगीत को ले कर एक जनून सा है. जब से ए आर रहमान को औस्कर मिला है तब से हिंदी फिल्म म्यूजिक के लिए यह जनून कुछ ज्यादा बढ़ सा गया है. मेरी तैयारी है कि हिंदी फिल्म म्यूजिक की संपूर्ण जानकारी किसी एक वैबसाइट में डाल सकूं ताकि लोगों को हमारे संगीत के बारे में सही जानकारी मिल सके.’’

रिपुसूदन कुमार ऐलावादी बचपन से रेडियो की दुनिया में हैं. विजयलक्ष्मी और मनोहर की तरह वे भी रेडियो सीलोन के स्वर्णिम दिनों को दिल में संजोए हैं. वे बताते हैं, ‘‘मैं बेसिकली भोपाल का रहने वाला हूं. तब आकाशवाणी भोपाल पर एक प्रोग्राम ‘मलयालम सीखिए’ नाम से आता था. उस में एक गुरुजी 2 बच्चों को मलयालम सिखाते थे. उन में एक बच्चा मैं था. तब हमें एक प्रोग्राम के 5 रुपए मिलते थे. इस से रेडियो की तरफ मेरा स्वाभाविक रुझान बढ़ा. भोपाल के माहौल का कुछ असर था कि हमारी हिंदी और उर्दू अच्छी थी.

‘‘कालेज की पढ़ाई के दौरान आकाशवाणी भोपाल से ‘युववाणी’ कार्यक्रम प्रस्तुत करने का मौका मिलने लगा. तब मैं ने कुमार के नाम से रेडियो पर बोलना शुरू किया था. उन दिनों रेडियो पर आवाज आना बहुत बड़ी बात मानी जाती थी. लिहाजा, अंदर से आत्मविश्वास जगा कि रेडियो पर हम और बेहतर बोल सकते हैं. आकाशवाणी भोपाल से मैं डेढ़ साल तक जुड़ा रहा, फिर 19 साल की उम्र तक पहुंचतेपहुंचते वहां न्यूज सैक्शन में सह संपादक हो गया. रेडियो पर तब मैं सब से कम उम्र का सह संपादक था.

‘‘इसी दौरान रेडियो सीलोन में उद्घोषक की जरूरत के लिए अखबारों में इश्तिहार निकला. मैं ने भी आवेदन कर दिया. 9 हजार लोगों में हम 20 लोगों को चुना गया. फिर नई दिल्ली के श्रीलंका हाई कमीशन में 2 दिन तक अलगअलग टैस्ट ले कर हम लोगों को छांटा गया. इस के बाद मैं घर आ गया. अचानक एक दिन एसएलबीसी की चिट्ठी आई तो मैं हैरान रह गया क्योंकि 9 हजार लोगों में मुझ अकेले को चुना गया था. इस के बाद परिस्थितिवश करीब डेढ़ साल के बाद मैं ने घर वालों की मरजी के खिलाफ कोलंबो जा कर एसएलबीसी जौइन किया. वहां पर भी रेडियो सीलोन के इतिहास में मैं सब से कम उम्र (21 साल) का उद्घोषक था.

‘‘मैं रेडियो सीलोन में नियमित उद्घोषक के तौर पर गाने तो पेश करता ही था लेकिन मैं ज्यादातर रात 9.30 बजे का एशिया बुलेटिन पढ़ता था. मैं खुद ही एडिटिंग करता था. वहां दिनभर के न्यूज की कौपी हम लोगों को दे दी जाती थी. फिर हम उस में हिंदुस्तान, पाकिस्तान और बंगलादेश  की रुचि के मुताबिक न्यूज आइटम छांट कर अलग कर लेते थे और अपने बुलेटिन में समावेश करते थे.’’

जान पर बन आई थी मेरी

विजयलक्ष्मी की तरह रिपुसूदन ने भी श्रीलंका के बिगड़े हालात के दिन देखे हैं. उन्हें याद करते हुए वे बताते हैं, ‘‘80 के दशक में श्रीलंका के हालात बहुत बिगड़ गए थे. कई बार तो वहां मेरी जान पर बन आई थी. मुझे याद है, कर्फ्यू लगा हुआ था और रात का न्यूज बुलेटिन मुझे पढ़ना था. रात में एसएलबीसी से गाड़ी लेने नहीं आई मुझे. मैं दुविधा में था कि अब क्या करूं? अगर नहीं जाता हूं तो न्यूज प्रसारित नहीं होगी. ऐसे में रेडियो सीलोन को ले कर एक गलत संदेश जाता कि इस देश के हालात इतने बुरे हैं कि इन के यहां न्यूज भी नहीं जा पाती है. ऐसे में मैं अपने घर से नीचे उतरा, अपने दांतों से अपना आईडैंटिटी कार्ड दबाया और दोनों हाथ ऊपर कर सड़क पर चलना शुरू किया. चारों तरफ मिलिट्री और पुलिस लगी हुई थी. इतने में भागते हुए कुछ जवान आए और मुझ से हैंड्सअप कहा. मैं ने कहा, ‘मैं तो पहले से ही हैंड्सअप किए हुए हूं.’ मैं ने उन को अपना कार्ड दिखाया और अंगरेजी में बोला कि मैं यहां पर अनाउंसर हूं, न्यूज रीडर हूं. अगर न्यूज नहीं पढ़ूंगा तो यह गलत होगा. फिर उन्होंने अपनी मिलिट्री की गाड़ी में मुझे छोड़ा, तब मैं ने जा कर न्यूज पढ़ी. इस तरह मुझे लगा कि यहां रहना ठीक नहीं है. लिहाजा मैं वापस आ गया.’’

रिपुसूदन 1970 से 1980 तक रेडियो सीलोन में रहे. न्यूज बुलेटिन के अलावा ‘बालसखा’ कार्यक्रम उन का बहुत पौपुलर हुआ. वे पाकिस्तानी फिल्मी गीतों का एक प्रोग्राम भी पेश करते थे. उन्हें नातिया कव्वाली का प्रोग्राम पेश करने को कहा जाता था क्योंकि उन की उर्दू अच्छी थी.

रेडियो सीलोन छोड़ कर हिंदुस्तान लौटने के बाद उन्होंने फिल्म प्रभाग के साथ काम किया. मुंबई दूरदर्शन पर समाचार भी पढ़ा. फिल्म डिवीजन की डौक्युमैंट्री में आवाज भी दी. इस के अलावा अमीन सयानी और मनोहर के साथ बहुत से स्पौंसर्ड प्रोग्राम किए. अब वे पूरी तरह फ्रीलांसिंग में बिजी हैं. जिन्हें उन की आवाज की जरूरत होती है वे उन्हें बुलाते हैं.

रेडियो सीलोन का वह सुहाना दौर तो वे आज भी नहीं भूलते.

बच्चों के मुख से

मेरी बहू को जल्दी गुस्सा आता है. वह मेरी पोती को छोटीछोटी बातों पर डांट देती है. एक दिन मैं श्रीखंड बनाने के लिए दही फेंट रही थी. मेरी पोती ने आ कर पूछा, ‘‘दादी, आप क्या कर रही हैं?’’
मैं ने कहा, ‘‘श्रीखंड बनाने के लिए दही फेंट रही हूं.’’
उस ने मेरे हाथ से कटोरा ले लिया और खुद फेंटने लगी. फेंटतेफेंटते वह बोली, ‘‘दादी, आप यह काम मम्मी को दिया करो, तो उन का गुस्सा जल्दी उतर जाएगा.’’ उस की बातें सुन कर हम सब हंस पड़े.  
विमल काल्पीवार, मंडला (म.प्र.)
 
मैं घर के लिए महीने भर का राशन ले कर आई और सामान रखने में बच्चे मेरी मदद करने लगे. मैं लिस्ट में देख कर सामान का नाम लेती और बच्चे उस सामान को ले जा कर रख देते थे. तभी मैं ने लिस्ट में देख कर गरम मसाले की ओर इशारा कर के अपने 5 साल के बेटे से उसे उठा कर रखने के लिए कहा.
मैं ने देखा कि वह गरम मसाले के पैकेट को बारबार छू कर देख रहा है. मुझे समझ में नहीं आया कि वह ऐसा क्यों कर रहा है. तब मैं ने उस से पूछा, ‘‘बेटा, आप इस पैकेट को बारबार क्यों छू रहे हो?’’ वह बड़ी मासूमियत से बोला, ‘‘मम्मी, आप ने तो कहा था कि यह गरम मसाला है पर मैं ने इसे छू कर देखा तो यह ठंडा है.’’
यह सुन मैं अपनी हंसी रोक न पाई.
अंजलि जैन, तिमारपुर (दिल्ली)
 
मैं ने अपनी व्यस्तता के चलते अपनी 4 वर्षीय भतीजी से कहा, ‘‘बाहर बरामदे से ‘वो’ लाना जरा.’’ कुछ समय बाद आई और बोली, ‘‘बूआ बाहर ‘वो’ नहीं है.’’
मैं ने कहा, ‘‘‘वो’ क्या?’’ उस ने कहा, ‘‘बूआ, जो आप ने मंगाया था.’’
अब मेरी हंसी रोके नहीं रुक रही थी क्योंकि जो चीज मैं ने उस से मंगाई थी उस का नाम तो मैं बताना ही भूल गई थी. 
प्राक्षी त्यागी, मुजफ्फरनगर (उ.प्र.)
 
मैंप्राइमरी स्कूल में अध्यापक हूं. एक दिन कक्षा 3 में गया तो देखा एक लड़का व एक लड़की लड़ रहे हैं.
मैं ने पूछा, ‘‘भई, क्यों लड़ रहे हो? क्या बात है?’’
लड़के ने गुस्से से कहा, ‘‘सर, इस लड़की ने मुझे किस क्यों किया?’’
मैं ने हंसते हुए कहा, ‘‘अरे, इस में गुस्सा होने की क्या बात है, किस ही तो किया है.’’ लड़के ने उसी लहजे में कहा, ‘‘किस तो लड़के लड़की को करते हैं. इस ने मुझे क्यों किया?’’
उस की बात सुन कर मैं हंसे बिना नहीं रह सका.
महेश चंद्र भटनागर, मुंबई (महाराष्ट्र) 
 

चिंता से घबराना कैसा

चिंता मानव जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है. चिंता किसे नहीं होती और कब नहीं थी? पहले चिंता के क्षेत्र और दायरे कम थे. अब चिंता की परिधि व प्रकार बढ़े हैं. पर चिंतित होने की कोई बात नहीं है. आज बेहतर समाधान भी हाजिर हैं. ये समाधान तकनीकी विकास से संबंधित हैं और विशेषज्ञ सेवाओं से संबंधित भी. आवश्यकता होने पर चिंता के समाधान के लिए व्यावसायिक सेवाएं भी ली जा सकती हैं. जीवन के हर पल को बेहतर बनाने का प्रयास करना हमारा कर्तव्य है, फिर भी जकड़ ही लेती है कोई न कोई चिंता. 

तो आइए, चिंता को चिंता की तरह न लें बल्कि एक चुनौती और अवसर की तरह लें, जो आप के जीवन को बेहतर बनाने आई है, अपनी ओर ध्यान आकर्षित कर के. मात्र पहचान करने की आवश्यकता है कि चिंता का वास्तविक केंद्र बिंदु क्या है? 

कार्यालय संबंधी चिंताएं

कार्यालय का वातावरण एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कारक होता है. देखें, क्या यह वातावरण आप को अच्छा लगता है? यदि नहीं, तो क्या आप निर्लिप्त हो कर कार्य कर सकते हैं? यदि यह भी संभव नहीं लगे और कोई विशेष विवशता न हो तो आप कार्यालय परिवर्तन के बारे में सोच सकते हैं. स्थानांतरण या कोई दूसरा काम भी ढूंढ़ सकते हैं जिस से आप की मानसिक दशा पर घातक प्रभाव न पड़े. शोध अध्ययनों के अनुसार अपने कार्य से संतुष्टि भी मानसिक दशा को प्रभावित करती है.

इस पर भी ध्यान दें कि कार्य करने में आप को आनंद आता है या मात्र धनलाभ के लिए आप कार्यरत हैं? यदि आप ने कार्य का चयन अपनी रुचिव क्षमता के अनुसार किया है तो आप संतुष्ट व सुखी होंगे. इस के लिए आप अपना कोई व्यवसाय भी आरंभ कर सकते हैं जिस में आप अपनी क्षमताओं का उपयोग कर सकें.

पतिपत्नी दोनों ही कामकाजी हों तब भी समस्याएं स्थायी चिंता का विषय बन जाती हैं. समय से कार्यालय पहुंचना, किसी काम के लिए छुट्टी लेना, बच्चों व परिवार की देखभाल आदि पर मतभेद 

हो सकता है. इस तरह के परिवारों का अध्ययन बताता है कि यदि परिवार आर्थिक रूप से समर्थ है तो ‘कामकाज’ यानी नौकरी न करने वाली पत्नी के होने पर सामंजस्य ठीक रहा किंतु जिन परिवारों में पति की आय कम थी वहां भी पूर्णकालिक नौकरी की अपेक्षा अंशकालिक नौकरी करने वाली पत्नियों का परिवार अधिक सुखी था.

यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक होगा कि ये परिणाम हर पतिपत्नी पर लागू हों, आवश्यक नहीं. ये नतीजे ‘औसत व अधिकांशत:’ के आधार पर हैं. आगे आप के विचार, व्यक्तित्व व सामंजस्य क्षमता पर ही सब निर्भर है.

इस के अलावा यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि कार्य का आप के स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ रहा है. यदि कार्य प्रतिकूल है तो आप को अपने कार्य के बारे में पुनर्विचार करने की आवश्यकता है. अस्वस्थता से कई समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं जो पारिवारिक सुखशांति में बाधक हो सकती हैं. आप की अस्वस्थता का आप के कार्य पर नकारात्मक असर न पड़े, इस के लिए भी खुद को शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ रखना आप का कर्तव्य है.

सामाजिक व आर्थिक चिंताएं

सम्मानित जीवन जीने का सब को अधिकार है. सवाल यह है कि सम्मान कैसे प्राप्त करें? समाज में किन मूल्यों या कारकों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है? यहीं से जन्म लेती है द्विविधा और अनिर्णय की स्थिति, जैसे ईमानदारी को अधिक महत्त्व दिया जाए या भौतिक संसाधनों (कार वगैरह) की प्राप्ति को? इन में से किसी एक को चुनना तब और भी कठिन हो जाता है जब यह भी पता हो कि घोषित व पोषित मूल्यों में अंतर है. दोनों को मापने की कसौटियों में भी विचलन है. ऐसे में क्या करें?

आप अपने व्यवहार, आचरण, रचनात्मकता, सामाजिक चेतना, योग्यता, व्यक्तित्व व विशिष्टता से पहचान बनाएं यह स्थायी और सुंदर भी हैं. अपने समूह व समाज में उन्हीं गुणों व मूल्यों को महत्त्व दें जिन्हें आप महत्त्वपूर्ण और वांछित समझते हैं. 

दूसरों से अधिक धनी होना, जीवनयापन का व्यय बढ़ना, धन को ही स्टेटस का पैमाना मानना, दूसरों से अच्छा पद व व्यवसाय आदि के बारे में सोचते रहना चिंताओं को न्योता देना है, जिस का कोई समाधान नहीं है क्योंकि इस की कोई सीमा नहीं है.

यहां एक उच्चाधिकारी के घर की घटना का उदाहरण लेते हैं. उन के यहां कोई अतिथि आने वाले थे. उन की बेटी घर संवार रही थी. वह बाहर के कमरे यानी बैठक से रैक अंदर ले जाने लगी तो उस के पिताजी ने टोका, ‘‘कहां ले जा रही हो? यहीं रहने दो इसे.’’

‘‘नहीं, इस का परदा अच्छा नहीं लगता, साड़ी का है,’’ वह बोली तो उच्चाधिकारी महोदय ने समझाया, ‘‘इस में संकोच की क्या बात है? हम छोटे हो जाएंगे क्या? यह तो सम्मान का ‘तमगा’ है. हां, कीमती चीज होती तो अवश्य मेरे ईमानदार आचरण को कोई ठेस पहुंचा सकता था, मन ही मन सोच कर कि बहुत बेईमान रहे होंगे. 

इस तरह स्वयं मूल्यस्पष्टता के साथ ही अपने बच्चों को भी सही दिशा दे सकते हैं ताकि उन का ध्यान भी खोखली चीजों में न उलझ कर सार्थक दिशा में लगे. दिखाने की प्रवृत्ति त्याग कर अपनी आवश्यकता के अनुरूप जीवनशैली अपनाएं व सुखी रहें. 

दरअसल, आप के ही वश में होता है इस तरह की चिंताओं को अलविदा कहना.

दांपत्य संबंधी चिंताएं

यदि आप अविवाहित हैं तो विवाह की चिंता (व्यक्ति, स्थान, व्यवसाय, स्तर, व्यक्तित्व आदि) होगी. यदि  ‘अकेले रह गए’ विवाहित हैं तो पुनर्विवाह की भी चिंता हो सकती है, पर यह ध्यान रहे कि पुनर्विवाह बहुधा उच्च आर्थिक स्तर के परिवारों में ही सफल रहे हैं. वैसे बहुत कुछ आप के हाथ में है.

सब से महत्त्वपूर्ण पहलू है सामंजस्य, जो प्रत्येक दंपती के जीवन को प्रभावित करता है. सामंजस्य संबंधी चिंता होनी स्वाभाविक है किंतु दांपत्य में प्रवेश के बाद समायोजन बनाए रखना अनिवार्य है यह भी समझना होगा. आप को लग रहा होगा कि इस ‘लचीलेपन’ के युग में ‘अनिवार्य’ शब्द का प्रयोग एकपक्षीय बात है, लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है. जरा ध्यान से सोचिए.

आज पतिपत्नी की भूमिका में बदलाव आया है. अंतर्जातीय व विदेशी विवाहों की संख्या बढ़ी है. शैक्षिक योग्यताओं, व्यवसायों में बदलाव आया है. दांपत्य को सार्थक बनाने के लिए पहले से अधिक सहनशक्ति और दूसरे को स्वीकार करने की क्षमता होना आवश्यक है. संक्षेप में, पतिपत्नी में से जो दूसरे को अधिक खुश रख सके वही अधिक योग्य व बुद्धिमान है.

आप प्रश्न कर सकते हैं कि यह व्यक्तिवाद का युग है. पतिपत्नी दोनों को अपनी तरह से जीने का अधिकार है. सत्य है, अपनी तरह जीने का अर्थ एकदूसरे का विरोध नहीं बल्कि सम्मान व स्वीकृति है.

आज विवाहों का विच्छेद सहज ही स्वीकार कर लिया जाता है, कारण चाहे कुछ भी हो. यहां यह जान लें कि आज विवाहों को अटूट बनाए रखना पहले से अधिक आवश्यक है. मौजूदा समय में जबकि अधिकतर परिवार संयुक्त नहीं हैं, पतिपत्नी नौकरी के कारण अलग नगरों में हैं, सगेसंबंधी पहले की तरह संबंध नहीं निभा पा रहे हैं, परिचितों व मित्रों पर भी पूरी तरह निर्भर नहीं रहा जा सकता, ऐसे में जीवनसाथी का मानसिक संबल ही आप को ऐसा साथ दे सकता है जो जीवन की हर तरह की राहों में आप को शक्तिसंपन्न रखेगा. एकदूसरे के भावनात्मक सहयोग व संबल से कठिनतम क्षण भी सहने योग्य हो जाएंगे. इसलिए और भी मजबूती से थामिए इस संबल को जो आप का ही है.

मातापिता संबंधी चिंताएं

स्वयं मातापिता होने के कारण चिंताएं या अपने मातापिता से संबंधित चिंताएं. अपने बच्चों के उत्तम लालनपालन संबंधी चिंताएं या द्विविधात्मक चिंताएं, जैसे भारतीय संस्कार दें या विदेशी चलन की छूट दें.  अपने मातापिता की देखभाल, स्वास्थ्य, इच्छाओं संबंधी चिंताएं. बड़ों की अपेक्षाएं पूरी करें. बच्चों की इच्छाएं पूरी करें. ऐसी कई बातें आप सोचते होंगे.

इन सभी प्रश्नों में दरअसल ‘अपेक्षाएं व छूट’ ही विचारणीय हैं. यथासंभव मातापिता की अपेक्षाएं पूरी करें. कुछ न भी कर पाएं तो उन्हें बताएं कि उन से प्राप्त आदर व प्यार सब अभावपूर्ण कर देगा. बच्चों के लिए एक ही मंत्र है ‘नियंत्रित छूट’. अनुशासन और उस की स्वतंत्रता का सम्मान भी. इस से बालक का स्वतंत्र विकास होगा.

बच्चों को अपना समय अवश्य दें. कई चिंताएं जन्म ही नहीं लेंगी. यह सूत्र व्यस्ततम मातापिता के लिए भी समान रूप से लागू है. अपने मातापिता को अपने साथ ही रखें तो उत्तम होगा. उन के लिए, आप के लिए और आप के बच्चों की खुशी के लिए भी. इस से आप के बच्चों को उदाहरण भी मिलेगा अपने मातापिता के लिए. यदि आप के मातापिता दूर रहते हैं तो भी मिलने जाते रहें, उन की आवश्यकताओं का ध्यान रखें, आर्थिक ही नहीं, भावनात्मक भी. पत्र, टैलीफोन या फिर ईमेल द्वारा उन से जुड़े रहें.

चिंता कैसी भी हो, उसे पहचानें, संभव विकल्पों की सूची बनाएं. फिर उस पर विचार कर के सब से अच्छा और संभव विकल्प चुनें. यही तो जीवन है. जीने के ढंग से इसे और भी सुंदर बनाएं.

 

सूक्तियां

स्वयं को जानो
हम अपने को जानना कैसे सीखें? विचार से? कभी नहीं, सिर्फ कर्म से अपना फर्ज पूरा करने की कोशिश करो, तभी तुम जान पाओगे कि तुम्हारे अंदर क्या है.
सलाहमशविरा
जिस की अपनी कोई राय नहीं, बल्कि जो दूसरों की राय और रुचि पर निर्भर रहता है वह गुलाम है.
अतिशयोक्ति
जो अपनी बात को बढ़ाचढ़ा कर कहते हैं वे अपनेआप को छोटा बनाते हैं.
निर्धनता
गरीब वह नहीं जिस के पास कमी है, बल्कि वह जो अधिक चाहता है.
कार्य
दुश्मनी में आ कर किया गया या गर्व की भावना में किया गया काम महान नहीं हो सकता.
सीख
जो आदमी यह समझता है कि हर बात तुरंत उस की समझ में आ जाती है, वह कुछ भी नहीं सीख सकता.
वक्ता
जो अपने को शांत रखना नहीं जानता, कभी अच्छा नहीं बोल सकता. द्य

दिल के टुकड़े

तुम्हारा मुखड़ा रास आ गया
छिपा लो अपने मुखड़े को
 
ठोकर मार दो जी चाहे उसे
भूल जाओ दुखड़े को
 
खो न देना संभाल कर रखो
अपने दिल के टुकड़े को. 
होशियार सिंह
 

रजस्वला

यात्रा के दौरान जौन मैसी व रोजलीन दंपती को 10-12 वर्ष की खून से लथपथ एक बच्ची मिली. बच्ची की देखभाल के दौरान रोजलीन को बच्ची के साथ बलात्कार होने व उस के गर्भवती होने का पता चला. 9 महीने बाद बच्ची ने एक नन्ही जान को जन्म दिया और होश में आने पर बच्ची द्वारा दी जानकारी के आधार पर जौन मैसी बच्ची के मातापिता को ढूंढ़ने के लिए मिर्जापुर के लिए रवाना हो गए. पढि़ए शेष भाग.
सुबह 5 बजे दरवाजे की घंटी सुन उन्हें घबराहट हुई. ‘इतनी सुबह कौन हो सकता है?’ कहते हुए जस्टिस विद्यासागर ने दरवाजे को लैच लगा कर झांका था. बाहर 3-4 अजनबी चेहरों को देख कर उन्हें खीझ हुई. ‘क्या बात है? आप मेरे चैंबर में मिलें, मैं घर पर किसी से नहीं मिलता हूं.’
‘हम पुलिस विभाग से हैं. आप की बच्ची भार्गवी…’ इतना सुनते ही जस्टिस विद्यासागर ने हड़बड़ा कर दरवाजा खोल दिया था.
‘माफ कीजिएगा, सादे कपड़ों में मैं आप लोगों को पहचान नहीं पाया. क्या हमारी बच्ची की कोई खबर मिली?’
‘जी हां, हम रेणुकूट से आए हैं. आप को हमारे साथ चलना होगा. बच्ची इन की देखरेख में है,’ कहते हुए पुलिस वाले ने पीछे खड़े मिस्टर मैसी की ओर इशारा किया था.
‘आप लोग अंदर आइए. बैठिए. मैं…मैं अपने बेटे को बुलाता हूं,’ लड़खड़ाती आवाज में कह कर जस्टिस विद्यासागर बौराए से इधरउधर हो रहे थे और फिर फोन उठा कर नंबर घुमाने लगे. ‘कपिल… कपिल, जल्दी आ जाओ, पुलिस वाले आए हैं…भार्गवी…’ कहतेकहते उन का गला भर्रा गया.
‘आप की बच्ची भार्गवी की खबर है, आप जल्दी आ जाओ,’ पुलिस वाले ने उन के हाथ से चोंगा ले कर बात पूरी की. जस्टिस कुछ कहतेकहते रुक गए और बेंत की कुरसी पर बैठ कर कुरते से ही आंखें पोंछने लगे.
‘मुझ से नाराज हैं सब, अभी 2 महीने पहले ही यहां से गए हैं. क्या करूं, नौकरी ही ऐसी है. बड़ेबड़े अपराधियों से वास्ता पड़ता है. पहले सिर्फ धमकी मिलती थी लेकिन इस बार तो उन्होंने कर ही दिखाया. बच्ची का अपहरण हुए 8-9 महीने हो गए. कैदी ने सुप्रीम कोर्ट में अपील कर फांसी की सजा को उम्रकैद में बदलवा लिया लेकिन मेरा घर तो बरबाद हो गया.’
यह सुनते ही पुलिस वालों के कान खड़े हो गए, ‘क्या आप को अपहरणकर्ताओं का पता था?’
‘दावे के साथ तो नहीं कह सकता पर शक के बिना पर क्या कर सकते थे. सुबूत कोई मिला नहीं. मेरी पत्नी सदमे में चल बसी. बच्चों ने नौकरी से त्यागपत्र देने पर जोर डाला. लेकिन ऐसे डर कर भागने से तो उन के हौसले और बुलंद होते. इसलिए नाराज हो कर मेरे बच्चों ने ही घर छोड़ दिया. एक ने दूसरे शहर में तबादला करा लिया और दूसरा सपरिवार विदेश
चला गया,’ कहतेकहते वे खड़े हो गए, ‘बच्ची…जीवित…है. आप लोगों को कहां मिली?’ उन की भारीभरकम कांपती हुई आवाज बीचबीच में रुक जाती थी, ‘हम ने कहांकहां नहीं ढूंढ़ा? कैसी है मेरी लाड़ली?’ जस्टिस विद्यासागर के चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित खुशी जैसे भाव आजा रहे थे कि अचानक वे रोने लगे.
मिस्टर मैसी ने सहारा दे कर उन्हें बैठाया. सांत्वना के लिए उन के पास शब्द नहीं थे लेकिन एक 65-70 वर्ष के बुजुर्ग को इस तरह रोते देख उन का दिल भर गया.
‘देखिए, इतनी बड़ी आलीशान कोठी कैसे भायंभायं करती है. 8-10 महीनों से बाहर बगीचे की कोई कटाईछंटाई नहीं हुई है. बच्चों ने नौकर, माली, ड्राइवर सब की छुट्टी कर दी. किस पर विश्वास करें, किस पर न करें. फिर घर का माहौल ही ऐसा कहां रहा कि साजसजावट पर कोई ध्यान देता.’
‘अब सब ठीक हो जाएगा. हम ने आप की गुडि़या को बड़े प्यारदुलार से रखा है. उस के आते ही आप के यहां रौनक लौट आएगी,’ मिस्टर मैसी ने उन की जिंदगी से भी ज्यादा उदास उस कोठी की दीवारों पर नजर घुमाते हुए उन्हें आश्वासन दिया.
‘आप लोग चायनाश्ता ले कर आराम से बैठें, मेरे बेटेबहू को अंबाला से आने में थोड़ा वक्त लगेगा,’ कह कर चंदू, चंदू, पुकारते हुए वहां से निकल रसोई की ओर बढ़ने लगे. तभी फोन की घंटी बजने लगी और उन्होंने लपक कर फोन उठा लिया.
‘हैलो, हैलो, भरत, हमारी, भार्गवी मिल गई, पुलिस खबर ले कर आई है. अभी कपिल पहुंचने ही वाला है. फिर हम सब उसे लेने जाएंगे. भरत…तू भी आ जा…’ जस्टिस विद्यासागर भावुक हो कर एक बार फिर रो पड़े थे.
मिस्टर मैसी को उन के बच्चों पर क्रोध आ रहा था. कैसे बच्चे हैं…इतने बड़े हादसे के बाद एक बुजुर्ग को अकेला छोड़ दिया. जो व्यक्ति खुशी को भी बरदाश्त नहीं कर पा रहा है वह अकेलेपन से कैसे लड़ रहा होगा? उन से फोन ले कर इस बार मैसी ने बात पूरी की और थोड़ी देर बाद फोन करने को कह कर रिसीवर रख दिया.
‘दूर विदेश में रहता है लेकिन रोज सवेरे फोन कर मेरा हालचाल पूछता है,’ उस की ओर से सफाई पेश करते हुए जस्टिस कुछ सोचने लगे थे.
‘क्या कुछ घट गया इन 8-10 महीनों में? खैर, अब मैं वहां जा कर पत्नी को शक्ल तो दिखा सकता हूं,’ आसमान की ओर देखते हुए वह अपनेआप से बोलते जा रहे थे.
इस बार मौसम ने अपने तेवर बदले हुए थे. पिछले डेढ़एक महीने से लगातार बरसात की झड़ी लगी रहती थी. देखतेदेखते अस्पताल के चारों ओर दूरदूर तक हरियाली फैल गई थी. भार्गवी अपने पलंग पर बैठी खिड़की के बाहर का नजारा देखती और जब थोड़े मूड में होती तो वह अपने घर के बागबगीचे के बारे में बताती और तुलना करती. बाहर बरामदे की मुंडेर पर भीगे पंख फड़फड़ाते कबूतरों को देख कर अपने तोते के बारे में पूछती.
डाक्टर और रोजलीन से अब वह खुलने लगी थी, ‘मुझे चोट कैसे लगी? मैं कहां से गिर गई थी?’ एक दिन उस ने अपने जख्मों को देखने की जिद पकड़ ली और डाक्टरों को उस के सवालों का जवाब देने में काफी दिक्कत आई. इस नाजुक प्रकरण पर अस्पताल के स्टाफ ने बहुत सावधानी बरती थी. लेकिन ‘दीवारों के भी कान होते हैं’ यह कहावत यों ही तो नहीं बन गई.
छोटे शहर में लोग अकसर एकदूसरे को जानतेपहचानते थे. उन्हें किसी के यहां नए मेहमान आने की खबर नहीं थी फिर इस अस्पताल में कहां से कौन मरीज आई है? किस की यहां पर जचगी हुई है? धीरेधीरे लोगों में कानाफूसी भी हुई और 1-2 लोगों ने एक कदम आगे बढ़ कर गोद लेने की इच्छा भी व्यक्त कर दी. ‘सिस्टर रोजलीन मैसी की रिश्तेदार आई है. उन के यहां खुशखबरी है,’ कह कर बड़े डाक्टर ने लोगों की जिज्ञासा शांत कर दी थी. उन्हें विश्वास था कि 1-2 दिन में भार्गवी के परिवारजन पहुंच जाएंगे और लोगों को आगे बात करने का कोई मौका नहीं मिलेगा.
दूसरी ओर, 15 दिनों की नवजात बच्ची दुनिया के अजीबोगरीब हालात से बेखबर अधिकतर पालने में सोई रहती और भूख लगने पर सिस्टर उपासी की छाती से लग मुंह रगड़ने लगती.
‘डाक्टर, अपने बेटे को 8 महीने दूध पिला कर भी ऐसी अनुभूति नहीं होती है जैसी कि इस नन्ही के होंठ लगने पर होती है,’ कैसी विडंबना थी, किस का खून है? कौन था वह बलात्कारी? मां एक छोटी सी मासूम, जिसे पता ही नहीं कि उस के शरीर का एक अंश उस के बिलकुल पास हो कर भी दूर, अलगअलग उधार ली गई गोद में पल रहा है.
उन का चायनाश्ता खत्म होने से पहले ही बाहर गाड़ी रुकने की आवाज आई. अपनी बच्ची के खोने और मिलने की आधीअधूरी कहानी
सुन कपिल, तरुणा के साथ जस्टिस विद्यासागर भी साथ चलने को तैयार बैठे थे. मिस्टर मैसी ने बच्ची की चोट और लंबी बेहोशी की बात तो बता दी लेकिन उस से बड़ा हादसा जो बच्ची के साथ घट चुका था उसे अभी से बता कर वह कोई खतरा मोल नहीं लेना चाहते थे. अस्पताल पहुंच कर डाक्टर और रोजलीन अपनेआप संभाल लेंगे, ऐसा उन का विश्वास था.
अस्पताल में भी अचानक सब को एकसाथ बच्ची के पास जाना ठीक नहीं, बच्ची इतने बड़े औपरेशन के बाद अभी भी नाजुक हालत में थी. कहीं मातापिता को देख कर बेकाबू होे जाए या ये लोग ही अचानक उसे खींच कर गोद में उठा लें, इसलिए पहले उन्हें पुलिस स्टेशन ले जाना ही तय हुआ.
रोजलीन के साथ एक डाक्टर को भी वहां बुलाया गया. उन से परिचय करवाते हुए तरुणा की आंखें इधरउधर भटक रही थीं. उसे उम्मीद थी कि वे बच्ची को साथ ले कर आई होंगी. पुलिस ने मैसी दंपती को बच्ची मिलने की सारी कहानी बताते हुए फाइल खोल कर उन्हें बेहोशी की हालत में जख्मी मिली बच्ची की कुछ तसवीरें, स्थानीय अखबार में छपी कटिंग, उस के 9 महीने बाद होश में आई बच्ची की कई तसवीरें उन के सामने रख दीं, जिन्हें देखते ही तरुणा सिसकियां भर कर रोने लगी.
‘देखिए, आप लोगों को बड़े धैर्य से काम लेना होगा. बच्ची के साथ अपहरण से भी बड़ी दुर्घटना हुई है,’ कहतेकहते डाक्टर ने पतिपत्नी को चौंका दिया. ‘बच्ची की हालत में सुधार हो रहा है. 1-2 महीने में वह पूरी तरह ठीक हो जाएगी लेकिन भविष्य में वह कभी मां नहीं बन पाएगी…उस का एक बड़ा औपरेशन कर बच्चेदानी निकाल दी गई है.’
‘क्यों? क्यों, डाक्टर?’ तरुणा अपना संयम खो चुकी थी. कपिल ने बड़ी मुश्किल से उसे पकड़ कर बैठाया और फिर रोजलीन के साथ डाक्टर ने भी
9 महीने में घटे पूरे घटनाक्रम को विस्तार से बताना शुरू किया.

‘नहीं, नहीं, डाक्टर, यह कैसे हो सकता है? मेरी मासूम बच्ची तो अभी रजस्वला भी नहीं हुई थी. जिस दिन उस का अपहरण हुआ उस दिन उस की 11वीं वर्षगांठ मनाई जा रही थी,’ कहतेकहते तरुणा की हिचकियां बंध गईं और वह मेज पर सिर रख कर फफक पड़ी थी.
‘आप ठीक कहती हैं. बच्ची तो बहुत छोटी है लेकिन उस की सेहत, उस की बनावट काफी तंदुरुस्त है और उस के शरीर में अंदरूनी परिवर्तन शुरू हो चुके होंगे. यह दुर्घटना नहीं घटती फिर भी बच्ची 1-2 महीने में रजस्वला हो जाती.
‘हमारे इतने वर्षों के अनुभव में यह पहला केस है और इस छोटी उम्र का ही नतीजा है कि प्रसव के बाद उस की हालत बिगड़ गई. यदि हम औपरेशन नहीं करते तो भी अत्यधिक रक्तस्राव से उस का बचना मुश्किल था.’
अब तक तरुणा को संभालना कठिन था. अब कपिल भी सिर झुकाए आंखें पोंछ रहा था और जस्टिस विद्यासागर आंखें नीचे किए एक अपराधी की तरह चुपचाप सुन रहे थे जो कुछ डाक्टर उन्हें विस्तार से बताती जा रही थी.
 ‘अब आप लोगों से मेरा आग्रह है कि बच्ची के पास जाने से पहले आप सब सामान्य हो जाएं. बच्ची को इस बारे में कुछ भी नहीं पता है. उसे तो यही लगता है कि वह गिर गई थी, चोट लगी है और वह अस्पताल में इलाज के लिए भरती है. आप लोग एकएक कर उस से मिलें तो अच्छा होगा. वह आप सब को एकसाथ देख कर खुशी से मचल जाएगी या फिर रोने लगेगी, जिस का उस के स्वास्थ्य पर उलटा असर हो सकता है.’
उसी शाम उन सब ने बारीबारी से बच्ची को जा कर देखा. उस से हलकीफुलकी बातें कीं, उसे सामान्य देख कर चैन की सांस ली. बच्ची को कुछ पता नहीं है कि वह कितने दिनों बाद अपने मातापिता से मिल रही है? वह कहां है? उसे क्या हुआ है? वह सिर्फ यह जानती है कि उसे चोट लगी है. उसे दर्द होता है तो डाक्टर दवा देती हैं.
‘तो क्या अपहरण के बाद बदमाशों ने जो किया वह बेहोशी में किया था या चलती गाड़ी से फेेंके जाने पर सिर की चोट से वह सबकुछ भूल चुकी है. यदि ऐसा है तो प्रकृति का शुक्र है कि कम से कम बच्ची का भविष्य तो सुरक्षित है, वरना यह खौफनाक हादसा उस की जिंदगी बरबाद कर देता,’ कमरे से बाहर निकलते हुए डाक्टर और जस्टिस विद्यासागर यह कहते हुए अपने को तसल्ली दे रहे थे.
तरुणा का तो वहां से हिलना नामुमकिन था. इसलिए रात 8 बजे जैसे ही वर्षा थमी मिस्टर मैसी कपिल, उस के बेटे गौरव और जस्टिस को ले कर अपने घर के लिए निकल पड़े थे, जहां उन्होंने उन के रहने का प्रबंध कर रखा था.
5वें दिन जस्टिस ने चंडीगढ़ लौट चलने की बात की लेकिन डाक्टरों ने अपनी सहमति देने से इनकार किया, ‘पहले बच्ची के टांके कटने दीजिए. उसे अभी महीनोें तक डाक्टरी देखरेख में रहना पड़ेगा. एक नई जगह जा कर नए डाक्टर को दिखाना, उन्हें पूरा इतिहास बताना, तरहतरह के सवालों का जवाब देना, ये सब आप लोगों के हित में नहीं.’
डाक्टर की राय और उन की स्वाभाविक चिंता देख जस्टिस भावुक हो गए. उन्होंने कपिल को सपरिवार वहां छोड़ अकेले ही लौट जाने की इच्छा व्यक्त की.
अभी दूसरे पहलू की चर्चा शुरू भी नहीं हुई थी. नवजात शिशु के बारे में किसी ने कुछ नहीं पूछा था. लेकिन उस नन्ही सी जान को ले कर कोई फैसला तो लेना था. बच्ची जीवित है और इसी अस्पताल में है यह जान कर तरुणा एक बार उसे देखने को लालायित हो गई. लेकिन कपिल ने तुरंत उसे रोक दिया था, ‘देखो, हमारी बेटी सहीसलामत है. इस से ज्यादा न तुम्हें कुछ जानने की जरूरत है न ही किसी को देखने की. इस बुरे सपने को यहीं दफन कर दो और जितनी जल्दी हो सके यहां से लौटने की तैयारी करो.’
तरुणा के कदम रुक गए लेकिन उस की आंखें कई प्रश्न पूछ रही थीं.
‘माफ कीजिएगा, यदि आप लोगों का यही फैसला है तो मैं हाथ फैला कर उस नन्ही जान की भीख मांगती हूं. उसे मेरी खाली झोली में डाल दीजिए,’ कहते हुए रोजलीन ने सचमुच अपना आंचल फैला दिया था, ‘अभी उसे हमारे यहां की एक नर्स, जिस का 8 महीने का बच्चा है, दूध पिला कर उसे पाल रही है.’
उसी शाम मिस्टर मैसी ने एक बार फिर जस्टिस विद्यासागर को बहूबेटे के साथ घर पर बैठाया और गोद देने की कार्यवाही को कानूनी रूप देने का आग्रह किया ताकि भविष्य में किसी तरह की गलतफहमी की गुंजाइश न रहे.
‘देखिए, मेरी नाबालिग बच्ची से उस का कोई संबंध नहीं और हम किसी अपराधी, बलात्कारी के बच्चे पर क्यों दावा करेंगे? आप उस का लालनपालन करना चाहें तो कीजिए वरना कहीं अनाथाश्रम में दे दीजिए.’
‘नहीं, नहीं, ऐसा मत कहिए,’ रोजलीन चीख पड़ी थी. और सचमुच अगले 15 दिनों में पूरे परिवार ने एक बार भी उस नन्ही जान को देखने की इच्छा जाहिर नहीं की थी.
भार्गवी की हालत में तेजी से सुधार हो रहा था. अब वह पूरी तरह अपने घर वालों की देखरेख में थी. इस बीच कपिल अपने पिता के साथ 10 दिनों के लिए अपने शहर लौट गए थे. तरुणा अपने बेटे के साथ वहीं रुकी रही थी. करीब 3 हफ्ते रुकने के बाद एक दिन ऐसा भी आ गया जब डाक्टरों ने भार्गवी के स्वास्थ्य को देखते हुए हरी झंडी दे दी और जस्टिस का पूरा परिवार उस शहर को जल्द ही अलविदा कहने जा रहा था. जाते हुए उन्होंने उन सभी लोगों का दिल से धन्यवाद ही नहीं बल्कि अस्पताल के लिए एक मोटी रकम का चेक भी भार्गवी के हाथों दिलवाया था.
रोजलीन उन्हें विदाई देने नहीं आई बल्कि पिछले 10 दिनों से उस ने भार्गवी के पास जाना भी छोड़ दिया था. पिछले 9 महीनों से बंधे उस अनाम रिश्ते को तोड़ना इतना आसान नहीं होता यदि वह नन्ही जान उस की गोद में न होती. अब वह पूरा समय नवजात शिशु की देखरेख में बिताने लगी थी. उन की विदाई के समय भी वह बच्ची को गोद में लिए सीने से लगाए दूर खड़ी उन्हें जाते हुए देखती रही थी. 2 अक्तूबर को पूरे 11 महीने बाद एक अध्याय हमेशा के लिए बंद हो गया था.
पिछले 9-10 महीनों से मिस्टर मैसी ने अपने सारे कार्यक्रम रद्द कर रखे थे. वे सिर्फ बच्ची की सलमाती की दुआ मांग लौट आते और पतिपत्नी बेहोश बच्ची की सेवाशुश्रूषा में लगे रहते थे. अब भार्गवी को उस के परिवार को सौंप दोनों ने नवजात शिशु के साथ अपने जीवन का नया पन्ना लिखना शुरू किया.
‘ढलती उम्र है तो क्या हुआ? इसी शहर में कई दर्जन बच्चे मेरे हाथों से पैदा हुए हैं, तो क्या मैं इसे नहीं पाल सकती?’ रोजलीन बड़े आत्मविश्वास से कह कर बच्ची को चूम लेती.
उन्होंने भार्गवी परिवार को विदा करने के बाद ही यह खबर फैला दी कि मैसी दंपती ने अपनी बहन की नातिन को गोद लिया है. ताकि कल को उस मासूम के कच्चे मन में कोई खुराफाती दिमाग उलटीसीधी बातें न डाल दे. फिर 7-8 साल की ही बात है. रोजलीन के रिटायर होते ही यहां से कहीं और चले जाना है. बच्ची की बेहतर शिक्षा और लालनपालन के लिए अभी से दोनों ने बहुतकुछ सोचना शुरू कर दिया था.
उन्होंने नवजात शिशु को गोद लेने और उस के नामकरण का उत्सव मनाने की घोषणा कर दी. जीवन में एक नया अनुभव, एक नए उत्साह से पतिपत्नी ने जिंदगी की शुरुआत की. अपने बुढ़ापे की संतान को उन्होंने बड़े लाड़प्यार और अनुशासन में रख कर पालना शुरू किया. आरंभिक वर्षों में उन्हें हमेशा एक डर सा लगा रहता कि कहीं जस्टिस परिवार ने कभी लौट कर अपना दावा ठोंक दिया तो क्या होगा?
कई बार रोजलीन ने समय से पहले ही नौकरी छोड़ कर कहीं दूसरे शहर बस जाने की भी सोची. लेकिन अब अपनी आर्थिक स्थिति को भी मजबूत बनाए रखना जरूरी था, इसलिए जल्दबाजी में ऐसी कोई गलती वह नहीं करना चाहती थी.
समय बीतने के साथसाथ उन के मन का डर निकलता गया और अपनी सेवानिवृत्ति के बाद बहुत सोचविचार कर वे लखनऊ जा कर बस गए थे.
मिस्टर मैसी पुराने दमा रोगी थे. अब अधिकतर बीमार रहने लगे थे. रोजलीन के साथ आस्था नन्ही सी नर्स बन अपने नाना की कुछ अच्छी देखभाल करती रहती थी. आस्था के प्यार में वे इतने जकड़ चुके थे कि तमाम तकलीफों के बाद भी उन्हें मुक्ति नहीं मिल रही थी.
आखिर 2 वर्षों तक जिंदगी और मौत से जूझते हुए एक सुबह आस्था को पूरी तरह रोजलीन को सौंप उन्होंने आंखें मूंद ली थीं.
पति के गुजरने के बाद रोजलीन आस्था को ले कर और भी सतर्क हो गई थी और कभीकभी अचानक चिंतित भी हो जाती. ‘मेरे बाद इस का कौन है?’ जानेअनजाने यह डर उस के दिमाग पर हावी होता जा रहा था.
आज आस्था के मुंह से हमशक्ल वाली बात सुन कर रोजलीन अपने को रोक नहीं पाई और पड़ोस की मरीज को देखने के बाद वहां से निकल आस्था के कालेज चली गई. पूरे रास्ते वह इसी उधेड़बुन में रही, वह उस से क्या पूछेगी? क्या कहेगी? कैसे बात शुरू करेगी? क्या उस के मातापिता ने उसे कुछ बताया होगा? अब वह करीब 30 वर्ष की होगी. क्या उस की शादी हुई होगी? अब तो वह स्वयं डाक्टर बन चुकी है. उसे अपने बारे में सब पता चल ही गया होगा. इन्हीं सारे सवालों में उलझी कालेज के गेट पर पहुंचते ही प्रिंसिपल से मुलाकात हो गई. आस्था की नानी ही गार्डियन हैं, यह कालेज में सब को पता है और वे समयसमय पर कालेज जा कर उस की रिपोर्ट लेती रहती हैं. इसलिए पिं्रसिपल ने मिलते ही ‘आस्था की पढ़ाई बहुत अच्छी चल रही है’ कहा और नानी को आश्वस्त कर दिया.
‘‘बच्चों की परीक्षा चल रही है. इन दिनों कालेज में बाहर से एग्जामिनर आए हैं, क्या उन में कोई डा. भार्गवी व्यास भी हैं?’’ नानी ने हिचकिचाते हुए नाम ले कर ही पूछ लिया था.
‘‘जी हां, बिलकुल आई थीं. वह एनाटौमी की लैक्चरर हैं, कल ही तो आई थीं. उन्होंने 3 दिन की जगह 2 दिन की ही स्वीकृति दी थी क्योंकि पहले से ही उन का कुछ और प्रोग्राम तय था. वे बहुत जल्दी में थीं, उन्हें आज ही दिल्ली लौटना था जहां से रात उन्हें लंदन की फ्लाइट लेनी थी. वे 4 बजे ही निकल गईं. अभी तो हमारा ड्राइवर एअरपोर्ट से लौटा भी नहीं है. आप को कुछ काम था? आप कैसे जानती हैं उन्हें?’’
‘‘जी हां, दरअसल, आस्था उन से मिलवाने की जिद कर रही थी. वह बता रही थी कि उन की शक्ल उस से मिलतीजुलती है. इसलिए उन्हें देखने की इच्छा हुई,’’ बोलते हुए नानी प्रिंसिपल से विदा ले बाहर निकल गईं और सड़क पर चलते हुए सोच रही थीं, क्या यह उन दोनों के हक में ठीक हुआ?

दिन दहाड़े

हम लोग दिल्ली से झांसी आ रहे थे. मथुरा स्टेशन के पास हमारी गाड़ी कुछ देर रुकी, तभी हमारे डब्बे में 2 लड़के चढ़ गए और टे्रन का फर्श झाड़ कर पैसे मांगने लगे. ज्यादातर यात्रियों ने उन्हें कुछ न कुछ पैसे दे दिए.
बाद में जब स्टेशन आया तो मैं ने बाहर जाने के लिए अपनी चप्पलें देखने के लिए नीचे नजर डाली तो मेरे होश उड़ गए. मेरी नई चप्पलें नदारद थीं. डब्बे के अन्य यात्रियों की भी चप्पलें नहीं मिल रही थीं.
फर्श झाड़ने वाले वे लड़के कूड़े के साथ यात्रियों की चप्पलों को भी ले गए थे. इस प्रकार यात्री दिन दहाड़े ठग लिए गए.
अर्पण शांडिल्य, झांसी (उ.प्र.)
बहुत दिनों से हम अपना पुराना सोफा रिपेयर कराने की सोच रहे थे. कुछ दिन में एक सोफा ठीक करने वाला आया. सोफा देखा. बोला, इस का रेक्सीन बदलना पड़ेगा. मैं आप को बढि़या रेक्सीन कम दाम में ला दूंगा.
हम ने उस पर विश्वास कर के दो हजार रुपए उसे दे दिए और वह पैसे ले कर बाजार चला गया. हम लोग पूरा दिन उस का इंतजार करते रहे लेकिन वह वापस नहीं आया. उस दिन के बाद वह आज तक लापता है. इस तरह हम दिन दहाड़े ठगे गए.
सी वी जगनी, बर्दवान (पश्चिम बंगाल)
बात कई साल पुरानी है. एक बार 2 लड़के (सेल्समैन) हमारे यहां आए. वे दोनों देखने में सीधेसादे और मासूम लग रहे थे. वे दोनों तवे बेचने आए थे. उन दोनों ने उस तवे की खासीयत बताते हुए कहा कि इस में रोटी के साथसाथ पापड़ वगैरह भी बना सकते हैं और दाम मात्र 150 रुपए. साथ में एक के साथ एक फ्री भी बताया.
मेरा छोटा बेटा उस समय 10वीं में था, वह पीछे पड़ गया कि मम्मी ले लो, कितनी अच्छी चीज है. मैं भी उन दोनों की बातों में आ गई और उन से तवा खरीद लिया.
बाद में बाजार में एक दुकान में वही तवा देखा तो रेट पूछने पर उन्होंने 35 रुपए एक तवे का मूल्य बताया. इस तरह मैं घर बैठे दिनदहाड़े ठगी गई. उस दिन के बाद से मैं ने सैल्समैनों से कोई भी चीज लेनी बंद कर दी.
आशा गुप्ता, जयपुर (राजस्थान)
मैं ने अपने घर में काम वाली बाई रखी. वह बहुत ही अच्छा काम करती थी. एक दिन उस ने मुझे 3 हजार रुपए एडवांस मांगे.
मैं सोच में पड़ गई कि अगर इसे पैसे नहीं दिए तो यह कल से आना बंद कर देगी, सो मैं ने उसे एडवांस दे दिया.
उस के एक हफ्ते तक तो वह आई और फिर उस ने आना बंद कर दिया. बाद में पता चला वह आसपास के कई घरों से इसी तरह रुपए ले कर चंपत हो गई थी.
तृप्ता, चितरंजनपार्क (नई दिल्ली) 
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