चिंता मानव जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है. चिंता किसे नहीं होती और कब नहीं थी? पहले चिंता के क्षेत्र और दायरे कम थे. अब चिंता की परिधि व प्रकार बढ़े हैं. पर चिंतित होने की कोई बात नहीं है. आज बेहतर समाधान भी हाजिर हैं. ये समाधान तकनीकी विकास से संबंधित हैं और विशेषज्ञ सेवाओं से संबंधित भी. आवश्यकता होने पर चिंता के समाधान के लिए व्यावसायिक सेवाएं भी ली जा सकती हैं. जीवन के हर पल को बेहतर बनाने का प्रयास करना हमारा कर्तव्य है, फिर भी जकड़ ही लेती है कोई न कोई चिंता. 

तो आइए, चिंता को चिंता की तरह न लें बल्कि एक चुनौती और अवसर की तरह लें, जो आप के जीवन को बेहतर बनाने आई है, अपनी ओर ध्यान आकर्षित कर के. मात्र पहचान करने की आवश्यकता है कि चिंता का वास्तविक केंद्र बिंदु क्या है? 

कार्यालय संबंधी चिंताएं

कार्यालय का वातावरण एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कारक होता है. देखें, क्या यह वातावरण आप को अच्छा लगता है? यदि नहीं, तो क्या आप निर्लिप्त हो कर कार्य कर सकते हैं? यदि यह भी संभव नहीं लगे और कोई विशेष विवशता न हो तो आप कार्यालय परिवर्तन के बारे में सोच सकते हैं. स्थानांतरण या कोई दूसरा काम भी ढूंढ़ सकते हैं जिस से आप की मानसिक दशा पर घातक प्रभाव न पड़े. शोध अध्ययनों के अनुसार अपने कार्य से संतुष्टि भी मानसिक दशा को प्रभावित करती है.

इस पर भी ध्यान दें कि कार्य करने में आप को आनंद आता है या मात्र धनलाभ के लिए आप कार्यरत हैं? यदि आप ने कार्य का चयन अपनी रुचिव क्षमता के अनुसार किया है तो आप संतुष्ट व सुखी होंगे. इस के लिए आप अपना कोई व्यवसाय भी आरंभ कर सकते हैं जिस में आप अपनी क्षमताओं का उपयोग कर सकें.

पतिपत्नी दोनों ही कामकाजी हों तब भी समस्याएं स्थायी चिंता का विषय बन जाती हैं. समय से कार्यालय पहुंचना, किसी काम के लिए छुट्टी लेना, बच्चों व परिवार की देखभाल आदि पर मतभेद 

हो सकता है. इस तरह के परिवारों का अध्ययन बताता है कि यदि परिवार आर्थिक रूप से समर्थ है तो ‘कामकाज’ यानी नौकरी न करने वाली पत्नी के होने पर सामंजस्य ठीक रहा किंतु जिन परिवारों में पति की आय कम थी वहां भी पूर्णकालिक नौकरी की अपेक्षा अंशकालिक नौकरी करने वाली पत्नियों का परिवार अधिक सुखी था.

यहां यह स्पष्ट करना आवश्यक होगा कि ये परिणाम हर पतिपत्नी पर लागू हों, आवश्यक नहीं. ये नतीजे ‘औसत व अधिकांशत:’ के आधार पर हैं. आगे आप के विचार, व्यक्तित्व व सामंजस्य क्षमता पर ही सब निर्भर है.

इस के अलावा यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि कार्य का आप के स्वास्थ्य पर क्या असर पड़ रहा है. यदि कार्य प्रतिकूल है तो आप को अपने कार्य के बारे में पुनर्विचार करने की आवश्यकता है. अस्वस्थता से कई समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं जो पारिवारिक सुखशांति में बाधक हो सकती हैं. आप की अस्वस्थता का आप के कार्य पर नकारात्मक असर न पड़े, इस के लिए भी खुद को शारीरिक व मानसिक रूप से स्वस्थ रखना आप का कर्तव्य है.

सामाजिक व आर्थिक चिंताएं

सम्मानित जीवन जीने का सब को अधिकार है. सवाल यह है कि सम्मान कैसे प्राप्त करें? समाज में किन मूल्यों या कारकों को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है? यहीं से जन्म लेती है द्विविधा और अनिर्णय की स्थिति, जैसे ईमानदारी को अधिक महत्त्व दिया जाए या भौतिक संसाधनों (कार वगैरह) की प्राप्ति को? इन में से किसी एक को चुनना तब और भी कठिन हो जाता है जब यह भी पता हो कि घोषित व पोषित मूल्यों में अंतर है. दोनों को मापने की कसौटियों में भी विचलन है. ऐसे में क्या करें?

आप अपने व्यवहार, आचरण, रचनात्मकता, सामाजिक चेतना, योग्यता, व्यक्तित्व व विशिष्टता से पहचान बनाएं यह स्थायी और सुंदर भी हैं. अपने समूह व समाज में उन्हीं गुणों व मूल्यों को महत्त्व दें जिन्हें आप महत्त्वपूर्ण और वांछित समझते हैं. 

दूसरों से अधिक धनी होना, जीवनयापन का व्यय बढ़ना, धन को ही स्टेटस का पैमाना मानना, दूसरों से अच्छा पद व व्यवसाय आदि के बारे में सोचते रहना चिंताओं को न्योता देना है, जिस का कोई समाधान नहीं है क्योंकि इस की कोई सीमा नहीं है.

यहां एक उच्चाधिकारी के घर की घटना का उदाहरण लेते हैं. उन के यहां कोई अतिथि आने वाले थे. उन की बेटी घर संवार रही थी. वह बाहर के कमरे यानी बैठक से रैक अंदर ले जाने लगी तो उस के पिताजी ने टोका, ‘‘कहां ले जा रही हो? यहीं रहने दो इसे.’’

‘‘नहीं, इस का परदा अच्छा नहीं लगता, साड़ी का है,’’ वह बोली तो उच्चाधिकारी महोदय ने समझाया, ‘‘इस में संकोच की क्या बात है? हम छोटे हो जाएंगे क्या? यह तो सम्मान का ‘तमगा’ है. हां, कीमती चीज होती तो अवश्य मेरे ईमानदार आचरण को कोई ठेस पहुंचा सकता था, मन ही मन सोच कर कि बहुत बेईमान रहे होंगे. 

इस तरह स्वयं मूल्यस्पष्टता के साथ ही अपने बच्चों को भी सही दिशा दे सकते हैं ताकि उन का ध्यान भी खोखली चीजों में न उलझ कर सार्थक दिशा में लगे. दिखाने की प्रवृत्ति त्याग कर अपनी आवश्यकता के अनुरूप जीवनशैली अपनाएं व सुखी रहें. 

दरअसल, आप के ही वश में होता है इस तरह की चिंताओं को अलविदा कहना.

दांपत्य संबंधी चिंताएं

यदि आप अविवाहित हैं तो विवाह की चिंता (व्यक्ति, स्थान, व्यवसाय, स्तर, व्यक्तित्व आदि) होगी. यदि  ‘अकेले रह गए’ विवाहित हैं तो पुनर्विवाह की भी चिंता हो सकती है, पर यह ध्यान रहे कि पुनर्विवाह बहुधा उच्च आर्थिक स्तर के परिवारों में ही सफल रहे हैं. वैसे बहुत कुछ आप के हाथ में है.

सब से महत्त्वपूर्ण पहलू है सामंजस्य, जो प्रत्येक दंपती के जीवन को प्रभावित करता है. सामंजस्य संबंधी चिंता होनी स्वाभाविक है किंतु दांपत्य में प्रवेश के बाद समायोजन बनाए रखना अनिवार्य है यह भी समझना होगा. आप को लग रहा होगा कि इस ‘लचीलेपन’ के युग में ‘अनिवार्य’ शब्द का प्रयोग एकपक्षीय बात है, लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं है. जरा ध्यान से सोचिए.

आज पतिपत्नी की भूमिका में बदलाव आया है. अंतर्जातीय व विदेशी विवाहों की संख्या बढ़ी है. शैक्षिक योग्यताओं, व्यवसायों में बदलाव आया है. दांपत्य को सार्थक बनाने के लिए पहले से अधिक सहनशक्ति और दूसरे को स्वीकार करने की क्षमता होना आवश्यक है. संक्षेप में, पतिपत्नी में से जो दूसरे को अधिक खुश रख सके वही अधिक योग्य व बुद्धिमान है.

आप प्रश्न कर सकते हैं कि यह व्यक्तिवाद का युग है. पतिपत्नी दोनों को अपनी तरह से जीने का अधिकार है. सत्य है, अपनी तरह जीने का अर्थ एकदूसरे का विरोध नहीं बल्कि सम्मान व स्वीकृति है.

आज विवाहों का विच्छेद सहज ही स्वीकार कर लिया जाता है, कारण चाहे कुछ भी हो. यहां यह जान लें कि आज विवाहों को अटूट बनाए रखना पहले से अधिक आवश्यक है. मौजूदा समय में जबकि अधिकतर परिवार संयुक्त नहीं हैं, पतिपत्नी नौकरी के कारण अलग नगरों में हैं, सगेसंबंधी पहले की तरह संबंध नहीं निभा पा रहे हैं, परिचितों व मित्रों पर भी पूरी तरह निर्भर नहीं रहा जा सकता, ऐसे में जीवनसाथी का मानसिक संबल ही आप को ऐसा साथ दे सकता है जो जीवन की हर तरह की राहों में आप को शक्तिसंपन्न रखेगा. एकदूसरे के भावनात्मक सहयोग व संबल से कठिनतम क्षण भी सहने योग्य हो जाएंगे. इसलिए और भी मजबूती से थामिए इस संबल को जो आप का ही है.

मातापिता संबंधी चिंताएं

स्वयं मातापिता होने के कारण चिंताएं या अपने मातापिता से संबंधित चिंताएं. अपने बच्चों के उत्तम लालनपालन संबंधी चिंताएं या द्विविधात्मक चिंताएं, जैसे भारतीय संस्कार दें या विदेशी चलन की छूट दें.  अपने मातापिता की देखभाल, स्वास्थ्य, इच्छाओं संबंधी चिंताएं. बड़ों की अपेक्षाएं पूरी करें. बच्चों की इच्छाएं पूरी करें. ऐसी कई बातें आप सोचते होंगे.

इन सभी प्रश्नों में दरअसल ‘अपेक्षाएं व छूट’ ही विचारणीय हैं. यथासंभव मातापिता की अपेक्षाएं पूरी करें. कुछ न भी कर पाएं तो उन्हें बताएं कि उन से प्राप्त आदर व प्यार सब अभावपूर्ण कर देगा. बच्चों के लिए एक ही मंत्र है ‘नियंत्रित छूट’. अनुशासन और उस की स्वतंत्रता का सम्मान भी. इस से बालक का स्वतंत्र विकास होगा.

बच्चों को अपना समय अवश्य दें. कई चिंताएं जन्म ही नहीं लेंगी. यह सूत्र व्यस्ततम मातापिता के लिए भी समान रूप से लागू है. अपने मातापिता को अपने साथ ही रखें तो उत्तम होगा. उन के लिए, आप के लिए और आप के बच्चों की खुशी के लिए भी. इस से आप के बच्चों को उदाहरण भी मिलेगा अपने मातापिता के लिए. यदि आप के मातापिता दूर रहते हैं तो भी मिलने जाते रहें, उन की आवश्यकताओं का ध्यान रखें, आर्थिक ही नहीं, भावनात्मक भी. पत्र, टैलीफोन या फिर ईमेल द्वारा उन से जुड़े रहें.

चिंता कैसी भी हो, उसे पहचानें, संभव विकल्पों की सूची बनाएं. फिर उस पर विचार कर के सब से अच्छा और संभव विकल्प चुनें. यही तो जीवन है. जीने के ढंग से इसे और भी सुंदर बनाएं.

 

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...