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बेवकूफियां

यशराज बैनर के लिए इस फिल्म की निर्देशिका नूपुर अस्थाना ने इस से पहले इसी बैनर के लिए ‘मुझ से फ्रैंडशिप करोगे’ फिल्म बनाई थी. वह फिल्म युवाओं के मतलब की थी, मगर चल नहीं पाई थी. अब उन्होंने फिर से युवाओं के लिए ‘बेवकूफियां’ बनाई है.

इस में ‘विकी डोनर’ फिल्म में काम कर चुके आयुष्मान खुराना और सोनम कपूर जैसी युवा जोड़ी को ले कर निर्देशिका ने हलकीफुलकी बेवकूफियां ही दिखाई हैं. ये बेवकूफियां बेमतलब, बेतुकी, बेमजा और बेकार सी हैं.

फिल्म युवाओं को ध्यान में रख कर बनाई गई है. इस फिल्म का कौंसेप्ट आर्थिक मंदी और बदलती जीवनशैली है. आर्थिक मंदी का बुरा असर किस तरह युवाओं पर पड़ा कि पैसे के अभाव में उन्हें अपने प्यार तक का बलिदान करना पड़ा, इस फिल्म में यही दिखाया गया है. ‘बिना पैसे के प्यार करना बेवकूफी है’ और ‘प्यार चाहिए या पैसा चाहिए’ जैसा जुमला यह फिल्म चरितार्थ करती है. युवा अगर अपनी गर्लफ्रैंड के साथ इस फिल्म को देखने की सोच रहे हैं तो जरा ठहरिए, कहीं ऐसा न हो कि फिल्म देखने के बाद आप की गर्लफ्रैंड ब्रेकअप कर ले.

कहानी मोहित (आयुष्मान खुराना) और मायरा (सोनम कपूर) की है. दोनों एकदूसरे से प्यार करते हैं. दोनों नौकरी करते हैं. मायरा के पिता विनोद सहगल (ऋषि कपूर) आईएएस अफसर हैं और कड़क हैं. वे मायरा की शादी किसी पैसे वाले से करना चाहते हैं. इधर, रिसैप्शन के दौरान मोहित की नौकरी चली जाती है. मायरा इस बात को अपने पापा से छिपाती है. मोहित भी मायरा के पापा के सामने खुद को बिजी दिखाने में लग जाता है. तभी किसी बात पर मोहित और मायरा का ब्रेकअप हो जाता है. विनोद सहगल मोहित के बारे में सब पता कर लेते हैं. वे मोहित और मायरा को मिलाने का प्लान बनाते हैं. मोहित वैसे तो एमबीए है लेकिन मजबूरी में उसे एक वेटर की नौकरी करनी पड़ती है. आखिरकार, मायरा के पिता अपने प्लान में सफल होते हैं और मायरा व मोहित को आपस में मिलाते हैं.

मध्यांतर से पहले यह कहानी कछुआ चाल से चलती है. मध्यांतर के बाद भी फिल्म बहुत ज्यादा इसलिए आकर्षित नहीं कर पाती क्योंकि फिल्म के मुख्य किरदार आयुष्मान खुराना और सोनम कपूर फ्लैट से नजर आते हैं. सोनम कपूर ने बिकनी पहन कर और लिप टु लिप किस सीन दे कर सैक्सी दिखने की असफल कोशिश की है.

फिल्म की ज्यादातर शूटिंग दिल्ली में की गई है. गीतसंगीत औसत है. टाइटल सौंग थोड़ाबहुत ठीक है. फिल्म सिर्फ टाइमपास बन कर रह गई है.

गैंग औफ घोस्ट्स

‘गैंग औफ घोस्ट्स’ एक हौरर कौमेडी है, जिस में हौरर कम कौमेडी ज्यादा है. भूतों के इस गैंग में बहुत से कलाकार हैं जिन में प्रमुख हैं शरमन जोशी, अनुपम खेर, यशपाल शर्मा, माही गिल, मीरा चोपड़ा, चंकी पांडे, राजपाल यादव, असरानी आदि. ये सारे भूत एक बंगले में रहते हैं और शराब पीते हैं, डांस करते हैं, मौजमस्ती करते हैं परंतु किसी को परेशान नहीं करते. फिर भी निर्देशक ने फिल्म शुरू होने से पहले हनुमान चालीसा का पाठ किया है. लगता है वह खुद भी भूतों पर विश्वास करता है.

‘गैंग औफ घोस्ट्स’ बंगाली फिल्म ‘भूतेर भविष्येत’ पर आधारित है. निर्देशक सतीश कौशिक ने इस फिल्म के किरदारों को आज के जमाने के अनुरूप दिखाया है. उन किरदारों के कौस्ट्यूम्स आधुनिक हैं. उन की चालढाल एकदम आधुनिक है. बस, वे किसी को दिखाई नहीं देते, जब वे खुद चाहते हैं तो दिखाई देते हैं. निर्देशक ने इन भूतों से खुल कर कौमेडी कराई है. फिल्म देख कर लगता ही नहीं कि ये भूत हैं. अच्छा होता कि निर्देशक भूतों की कल्पना न कर कुछ और सोचता, दर्शकों को अंधविश्वास की खाई में तो न धकेलता.

फिल्म के क्लाइमैक्स में बिल्डर माफिया पर व्यंग्य कर संदेश देने की कोशिश की गई है कि बिल्डर्स कंक्रीट के जंगल उगाए जा रहे हैं. शहरों में बड़ेबड़े मौल्स बना कर वे अपनी तिजोरियां भर रहे हैं जबकि गरीब लोगों के पास रहने तक की जगह नहीं होती.

फिल्म की कहानी फिल्मों की कहानियां लिखने वाले राजू (शरमन जोशी) नाम के एक स्ट्रगलर के मुंह से कहलवाई गई है. वह यह कहानी एक फिल्ममेकर को सुनाता है.

शहर में रौयलमैंशन नाम से एक भूतिया बंगला है. बंगले के मालिक राम बहादुर गेंडामल हेमराज (अनुपम खेर) का भूत उस बंगले में रहता है. उस के साथ उस के भाई (चंकी पांडे) की प्रेमिका मनोरंजना देवी (माही गिल) का भूत भी वहां रहता है. उस बंगले में कई अन्य भूत भी रहने आ जाते हैं. गेंडामल का भूत सभी भूतों का इंटरव्यू ले कर उन्हें वहां रहने की स्वीकृति दे देता है. तभी एक दिन गेंडामल के भूत को पता चलता है कि उस के पोतों ने उस बंगले को भूतेरिया नाम के एक बिल्डर को बेच दिया है. वह बिल्डर उस बंगले को तोड़ कर वहां एक मौल बनाना चाहता है. सभी भूत मीटिंग करते हैं. वे एक गुंडे बाबूभाई हथकटा (जैकी श्रौफ) को बुलाते हैं जो उस बिल्डर को डरा कर भगा देता है और बिल्डर वहां मौल न बनाने का फैसला करता है. सारे भूत उस बंगले में फिर से रहने लगते हैं.

यह कहानी राजू एक फिल्म निर्माता को सुनाता है, साथ ही इस रहस्य से भी परदा उठाता है कि वह खुद एक भूत है. कुछ दिन पहले ही कुछ गुंडों ने उस की हत्या कर दी थी और वह भी उस बंगले में रहने चला गया था.

फिल्म की विशेषता है इस के गाने. इस फिल्म के सभी गाने पंजाबी में हैं और पुरानी फिल्मों की तर्ज पर गाए गए हैं. भूतों द्वारा मनाई गई पिकनिक और पुराने गानों पर बनी पैरोडी दिलचस्प है.

निर्देशक ने क्लाइमैक्स में भूतों के दर्द को बयां किया है. माही गिल ने अच्छी ऐक्टिंग की है. अनुपम खेर ने भी हंसाया है. मीरा चोपड़ा प्रियंका चोपड़ा की कजिन है. अब तक वह दक्षिण की फिल्मों में ही अभिनय करती थी. हिंदी की यह उस की पहली फिल्म है. उस ने अपना ग्लैमर दिखाने की कोशिश की है. छायांकन अच्छा है.

 

आंखों देखी

कहते हैं न, सुनीसुनाई बात में सचाई नहीं होती. जो अपनी आंखों से देखा जाए वही सच होता है. इसी कौंसेप्ट पर रजत कपूर ने यह फिल्म बनाई है. फिल्म मल्टीप्लैक्स कल्चर की है. इस में रिश्तों की सचाई है. एक निम्नमध्यवर्गीय के परिवार का खाका खींचा गया है. परिवार में अपने स्वार्थ से ऊपर उठ कर एक भाई का दूसरे भाई के प्रति प्यार को दिखाया गया है. हालांकि इस तरह की फिल्में कमर्शियली हिट नहीं होतीं फिर भी वे अच्छी होती हैं.

‘आंखों देखी’ हर किसी के मतलब की फिल्म नहीं है, लेकिन इस फिल्म में गहराई है. निर्देशक ने हर किरदार का चित्रण बारीकी से किया है. चूंकि रजत कपूर काफी अरसे से थिएटर से जुड़े रहे, इसलिए इस फिल्म में भी किसी नाटक के मंचन का सा आभास होता है.

फिल्म के लीड रोल में अपनी ऐक्ंिटग का लोहा मनवा चुका संजय मिश्रा है. उस ने अब तक कई फिल्मों में कौमेडी भूमिकाएं की हैं. इस फिल्म में उस की भूमिका एक परिवार के मुखिया की है. बढ़ी दाढ़ी, सिर पर गोल टोपी, फटीचर हालत में वह पुरानी दिल्ली की संकरी गलियों के एक मकान में अपने छोटे भाई, उस की पत्नी, अपनी पत्नी, बेटी व बेटे के साथ रहता है. खुद वह एक ट्रैवल एजेंसी में नौकरी करता है. निर्देशक रजत कपूर ने इस परिवार का खाका बहुत ही खूबसूरती से खींचा है.

फिल्म की कहानी पुरानी दिल्ली के एक मकान में रह रहे बाबूजी (संजय मिश्रा) के परिवार की है. बाबूजी अपने व भाई के परिवार के साथ 2 कमरों के मकान में रहते हैं. एक दिन उन्हें पता चलता है कि उन की बेटी रीटा एक लड़के अज्जू से प्यार की पींगें बढ़ा रही है. घर में तूफान सा उठता है. लेकिन बाबूजी को लगता है कि अज्जू नेक है. वे चुप्पी साध लेते हैं और तय कर लेते हैं कि वे सिर्फ उसी बात पर विश्वास करेंगे जिसे उन्होंने अपनी आंखों से देखा हो. इसी चक्कर में उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाता है. घर में उन्हें पत्नी (सीमा भार्गव) की बातें भी सुननी पड़ती हैं. छोटा भाई (रजत कपूर) अपने परिवार के साथ घर छोड़ कर अलग रहने लगता है. जवान बेटे को जुए की लत लग जाती है.

बाबूजी अपने बेटे को जुआरियों के चंगुल से छुड़ाने के लिए उस के द्वारा ली गई कर्ज की रकम को चुकाने के लिए खुद जुआ खेलने लगते हैं और जीती रकम से उस का कर्ज चुकता करते हैं. उन्हें उसी जुआघर में 20 हजार रुपए की नौकरी मिल जाती है. वे अपनी बेटी की शादी उसी लड़के से कर देते हैं. शादी में बाबूजी का छोटा भाई सपरिवार शामिल होता है.

अपने सभी दायित्वों से मुक्त हो कर बाबूजी पत्नी के साथ पहाड़ पर छुट्टियां मनाने जाते हैं. वहां वे एक पहाड़ से खाई में छलांग लगा देते हैं. उन्हें लगता है अब उन्हें मुक्ति मिल गई है और वे खुले आकाश में मानो उड़ रहे हों.

फिल्म की यह कहानी एक परिवार की है. बाबूजी के किरदार में संजय मिश्रा को धीरगंभीर दिखाया गया है. इस किरदार को कभी गुस्सा नहीं आता. पत्नी इरिटेट होती है तो भी वह शांत रहता है. अपने प्रेमी से मिलने की जिद पर बेटी खाना नहीं खाती तो वह मानमनुहार कर उसे अपने हाथों से खाना खिलाता है.

फिल्म का एक सीक्वैंस काफी अच्छा बन पड़ा है, जब बाबूजी को लगता है कि शेर वाकई में दहाड़ता है या नहीं, इस के लिए वे लावलश्कर के साथ चिडि़याघर पहुंचते हैं. वहां जब सच में शेर दहाड़ता है तभी उन्हें यकीन होता है.

कहानी में कोई घुमावफिराव नहीं है. निर्देशन अच्छा है. निर्देशक ने सभी किरदारों को जीवंत दिखाने की कोशिश की है.

संजय मिश्रा के अलावा सभी कलाकार अपनीअपनी भूमिकाओं में फिट हैं. पार्श्व संगीत अनुकूल है. छायांकन ठीकठाक है.

 

क्षेत्रीय सिनेमा की चिंगारी को हवा देती भोभर

राजस्थानी सिनेमा को नए सिरे से स्थापित करती फिल्म भोभर के लेखक व गीतकार रामकुमार सिंह काफी  उत्साहित हैं कि आज भी भोभर को ले कर उत्साही प्रतिक्रियाएं मिल रही हैं. हाल ही में हुई बातचीत में उन्होंने क्षेत्रीय सिनेमा से  जुड़े कई पहलुओं पर राजेश कुमार से बातचीत की. पेश हैं मुख्य अंश :
फिल्म भोभर के शाब्दिक तौर पर क्या माने हैं और इस सिनेमाई यात्रा के अनुभव कैसे रहे?
भोभर एक राजस्थानी शब्द है. इस का शाब्दिक अर्थ है राख में दबी आग. गांवकसबों में ज्यादातर लोग इस आग से परिचित हैं. चूंकि हमारी कहानी एक ऐसी दबी हुई भावना पर है जो आग की तरह राख के नीचे सुलगती रहती है, हमें यह टाइटल मुफीद लगा. फिल्म का मुख्य किरदार एक दिन अपने घर में अपने मित्र को चोरी से घुसते हुए देखता है, उस दोस्त से हुई झड़प और उलाहने से अपनी पत्नी पर शक करने लगता है. सालों तक दोनों के बीच कोई बातचीत नहीं होती. एक वक्त ऐसा आता है जब दोनों एकदूसरे के सामने आते हैं और दोनों के रिश्ते भोभर की तरह सुलगने लगते हैं.
दरअसल, मैं और मेरे मित्र गजेंद्र एस श्रोत्रिय काफी दिनों से राजस्थानी भाषा में एक अच्छी फिल्म बनाना चाहते थे. इस भाषा में इतना कुछ है, इस के बावजूद हमें आश्चर्य होता था कि यहां सिनेमा अपने पैरों पर क्यों खड़ा नहीं हो पा रहा है. इसी दौरान मेरी लिखी कहानी ‘शराबी’ गजेंद्र ने पढ़ी और उन्हें इस पर एक फिल्म बनाने की संभावना नजर आई. हम लोगों के पास बजट नहीं था. फिर भी हम ने हिम्मत कर अपने पैसों से राजस्थानी कलाकारों के साथ यह फिल्म पूरी की.
राजस्थान में इस फिल्म को ले कर क्या प्रतिक्रिया रही और भोभर को बाहर कैसा रिस्पौंस मिला?
‘भोभर’ जयपुर में एक हिंदी फिल्म के साथ रिलीज हुई. ऐसा पहली बार हुआ था जब किसी हिंदी फिल्म के मुकाबले क्षेत्रीय फिल्म का राजस्थान में बौक्स औफिस पर जादू चला. राज्य के बाहर भोभर का वर्ल्ड प्रीमियर यूनान के कोरिंथी शहर में भी हुआ. वहां से भी रेस्पौंस अच्छा था.
इस के अलावा तीसरे जयपुर इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल में हमें काफी प्रशंसा मिली. बेंगलुरु में चौथे स्टैपिंग स्टोन इंटरनैशनल फिल्म फैस्टिवल में भी भोभर की स्क्रीनिंग हुई.
फिल्म भोभर के निर्माण और इस के मुख्य कलाकारों के बारे में?
आप को दिवंगत संगीतकार दान सिंह का आखिरी कंपोजिशन दर्शकों को ‘भोभर’ में मिलेगा. राजीव थानवी और जयनारायण त्रिपाठी की धुनें भी सुनेंगे. गीतों को स्वर दिया है डा. सुमन यादव, राजीव थानवी व शिखा माथुर ने. बैकग्राउंड म्यूजिक अमित ओझा का है तथा सिनेमेटोग्राफी योगेश शर्मा ने की है. फिल्म में लगभग सभी कलाकार राजस्थान के ही हैं और रंगमंच में काम करते रहे हैं. मुख्य भूमिका में अमित सक्सेना (रेवत के किरदार में), उत्तरांशी (सोहनी के किरदार में) और विकास पारीक (पूरण के किरदार में) हैं वहीं रंगमंच के वरिष्ठ कलाकार सत्यनारायण पुरोहित, हरिनारायण और वासुदेव भट्ट ने भी अभिनय किया है. राजस्थान के ही कई कलाकार मसलन, विनोद आचार्य, बबीता मदान, संजय विद्रोही, अनिल मारवारी, निधि जैन, अजय जैन आदि ने भी काम किया है.
गजेंद्र एस श्रोत्रिय से कैसे जुड़े?
गजेंद्र एस श्रोत्रिय, इंजीनियरिंग गे्रजुएट और एमबीए हैं. सिनेमाई जनून के चलते वे इस क्षेत्र में आए हैं. उन की कई लघु फिल्में अंतर्राष्ट्रीय फिल्मोत्सवों में दिखाई गई हैं. बतौर निर्देशक उन की पहली फीचर फिल्म भोभर है. राजस्थानी फिल्म भोभर महज 2 लाख रुपए में बनाई गई है. जहां मैं ने इस फिल्म में लेखक और गीतकार के साथसाथ कोप्रोड्यूसर, प्रोडक्शन इंचार्ज और डिस्ट्रीब्यूटर की जिम्मेदारी संभाली वहीं गजेंद्र ने निर्माण में भी सहयोग दिया.
राजस्थान सिनेमा के अब तक स्थापित न हो पाने के मुख्य कारण क्या हो सकते हैं?
कई कारण हैं. पहला यही कि राजस्थान में कई गीतसंगीत कंपनियां बाजार में छाई तो हैं लेकिन फिल्मों को ले कर कुछ गंभीरता से नहीं किया गया. चालू मसाला फिल्में बनाई गईं. इस के अलावा अगर कोई फिल्मकार अच्छी फिल्म बनाए तो यहां के सिनेमाघर सपोर्ट नहीं करते. हिंदी फिल्मों के लिए तो सारी सुविधाएं हैं लेकिन राजस्थानी फिल्मों के लिए कुछ नहीं. एक बड़ा दिलचस्प किस्सा सुनाता हूं आप को. हम भोभर की रिलीज के सिलसिले में एक मल्टीप्लैक्स चेन से बात कर रहे थे. वे आम फिल्मों की तुलना में हमारी फिल्मों की टिकट दर बढ़ा रहे थे. कारण पूछने पर उन का कहना था कि राजस्थानी ग्रामीण फिल्म देखने वाले बड़े गंवार होते हैं. वे थिएटर को बहुत गंदा करते हैं. इसलिए हम ऐसा कर रहे हैं. अब आप ही बताइए, कैसे होगा राजस्थानी सिनेमा एस्टैब्लिश?
क्षेत्रीय फिल्मों का भाषा के चलते क्षेत्रविशेष में सिमट जाने का खतरा नहीं होता?
बिलकुल होता है. विशेष भाषा होने के चलते फिल्म को उसी इलाके से जुड़े लोग समझ पाते हैं और वृहद दर्शक वर्ग तक फिल्म नहीं पहुंच पाती. लेकिन भोभर के साथ ऐसा नहीं है. हमारी फिल्म भले ही राजस्थानी में हो लेकिन सीन और संवाद इस तरह से लिखे हैं कि हिंदी जानने वालों को भी आसानी में समझ आ जाएं.
राजस्थानी सिनेमा पर काम जारी रहेगा?
बिलकुल जारी रहेगा. हमारी असली ताकत तो यही सिनेमा है. हमारा यहां बड़ा दर्शकवर्ग है. हमारे पास कई सब्जैक्ट हैं जिन पर चर्चा हो रही है. फिलहाल मेरी ही एक कहानी पर चाणक्य जैसा धारावाहिक और ‘पिंजर’ फिल्म बना चुके निर्देशक डा. चंद्र प्रकाश द्विवेदी ‘जेड प्लस’ नाम की फिल्म बना रहे हैं.
फिल्मों में गीतकारों की मौजूदा स्थिति क्या है?
वक्त चाहे क्षेत्रीय फिल्मों का हो या हिंदी फिल्मों का, हर जगह गीतकारों को उन के हिस्से का हक नहीं मिल रहा है. खासकर, चालू मसाला फिल्मों के दौर में स्थिति और भी खराब है.

खेल खिलाड़ी

श्रीनिवासन की फजीहत 
देश की सब से बड़ी अदालत सर्वोच्च न्यायालय ने बीसीसीआई के अध्यक्ष एन श्रीनिवासन को हटा कर उन की जगह क्रिकेटर सुनील गावस्कर को आईपीएल-7 होने तक अंतरिम अध्यक्ष बनाने के आदेश दे दिए. इस से पहले अदालत ने कहा था कि आईपीएल-6 में सट्टेबाजी और स्पौट फिक्ंिसग मामले में निष्पक्ष जांच के लिए श्रीनिवासन पद छोड़ दें लेकिन वे अंतिम समय तक जुगाड़ भिड़ाने में लगे रहे कि कुरसी हाथ से निकलनी नहीं चाहिए और जमे रहे. पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले ने उन के मनसूबे पर पानी फेर दिया.
मामला यों था कि आईपीएल-6 में सट्टेबाजी और स्पौट फिक्ंिसग मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जस्टिस मुकुल मुद्गल कमेटी बनाई थी जिस ने फरवरी माह में सौंपी अपनी रिपोर्ट में बीसीसीआई के अध्यक्ष एन श्रीनिवासन और चेन्नई सुपरकिंग के मालिक गुरुनाथ मयप्पन के अलावा कुछ क्रिकेटरों के नाम भी उजागर किए थे. श्रीनिवासन तभी संदेह के घेरे में आ गए थे जब उन्होंने अपने दामाद गुरुनाथ मयप्पन को एक समिति गठित कर के उन्हें क्लीनचिट दे दी और बीसीसीआई के अध्यक्ष पद से कुछ दिनों के लिए दूर भी रहे. इस ड्रामे के बाद जब मामला थोड़ा शांत हो गया तो अपना दबदबा दिखाते हुए उन्होंने फिर से कुरसी थाम ली.
दरअसल, खेल संघों को राजनीति का अखाड़ा बना दिया गया है और दादागीरी इतनी कि पूछिए मत. चाहे कोई भी खेल संघ हो, इन दिनों हर खेल संघ के ऊंचे पदों पर वही काबिज हैं जिन के पास पैसा और पावर है. इन पदों पर ऐसे लोग जुड़े हुए हैं जिन का खेल से दूरदूर तक वास्ता नहीं लेकिन इतना है कि किसी भी खिलाड़ी को अपनी उंगलियों पर नचाने की कूबत रखते हैं. उन में से श्रीनिवासन भी एक ऐसी ही शख्सीयत हैं लेकिन देश की सर्वोच्च अदालत ने उन की हैसियत बता दी. इस के लिए वे खुद ही जिम्मेदार हैं.
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला स्वागत योग्य है. यह फैसला मनमानी करने वाले क्रिकेट प्रशासन के लिए एक सबक है. कुंडली मार कर बैठे श्रीनिवासन को यह समझना चाहिए था कि इस से न सिर्फ उन की फजीहत हो रही थी बल्कि बीसीसीआई को भी इस का हिस्सा बनना पड़ रहा था. खैर, कुछ भी हो, श्रीनिवासन की छवि धूमिल जरूर हुई है.
सुनील गावस्कर को फिलहाल अध्यक्ष बनाना सही है क्योंकि वे अनुभवी खिलाड़ी हैं और इस से न सिर्फ भारतीय क्रिकेट का भला होगा बल्कि क्रिकेट की बेहतरी के लिए भी अच्छा होगा.
 
60 मिनट का रोमांच
हौकी खेल का समय अब 70 मिनट के बजाय 60 मिनट का होगा. अंतर्राष्ट्रीय हौकी महासंघ यानी एफआईएच ने यह फैसला लिया है. इस खेल में पहले 35 मिनट के 2 हाफ होते थे लेकिन अब 15-15 मिनट के 4 क्वार्टर होंगे. पहले और तीसरे क्वार्टर के बाद 
2 मिनट का बे्रक भी होगा जबकि हाफ टाइम के बाद 10 मिनट का बे्रक वैसा ही रहेगा जैसा पहले था.
समय में बदलाव इसलिए किए गए हैं ताकि यह खेल और रोमांचक बने. अंतर्राष्ट्रीय हौकी महासंघ के अध्यक्ष रोआंद्रो नेगे्र कहते हैं कि हम खेल को रोमांचक बनाना चाहते हैं. बे्रक के दौरान प्रशंसकों को रिप्ले देखने और उसे सही आकलन करने का समय मिलेगा.
इस के अलावा कमेंट्री करने वाले हौकी प्रशंसकों को खेल की बारीकी को सही तरीके से समझा सकेंगे. इस से खिलाडि़यों को भी रणनीति बनाने में मदद मिलेगी.
सवाल है कि क्या 60 मिनट का हौकी मैच कर के ज्यादा रोमांचकारी बन जाएगा? किसी भी मैच में रोमांच पैदा होता है खिलाडि़यों के जोशखरोश, खेलने के तरीके से वे खेल के प्रति कितने समर्पित जनून की हद तक खेल रहे हैं.
क्रिकेट मैच को ज्यादा रोमांचकारी बनाने के लिए 20 ओवर तक सीमित कर दिया तो लोगों के इस खेल के प्रति दीवानेपन का कारण खिलाडि़यों का उत्साह, दिलचस्प अंदाज, खेल के लिए बेहतरीन बंदोबस्त, तैयारियां आदि बातें रही हैं.
देश में हौकी इतने सालों से उपेक्षा का शिकार रहा. न सरकार और न ही खेल संघ ने इस ओर ध्यान दिया. एक समय में नंबर वन रही भारतीय हौकी रसातल में पहुंच गई.
आज हौकी को रोमांचकारी बनाना है तो पहले खिलाडि़यों को जोशीला, पूरी तरह प्रशिक्षित, संतुष्ट करना जरूरी है. यहां बात आती है पैसों की. क्रिकेट से आधा भी पैसा हौकी पर खर्च किया जाए तो हालात काफी सुधर सकते हैं. वरना लस्तपस्त, थकेहारे, अनट्रेंड खिलाडि़यों को 70 मिनट के बजाय 60 मिनट के लिए भी खेल के मैदान में उतारने पर दर्शकों को उन्हें झेलना भारी पड़ेगा. बोरियत के 10 मिनट भी बहुत होते हैं, फिर यहां तो बात 60 मिनटों की है.

पाठकों की समस्याएं

मैं 28 वर्षीय विधवा हूं और मेरा एक 8 वर्षीय बेटा भी है. पिछले दिनों मुझे कालेज के एक लड़के से प्यार हो गया है. मेरे घर पर उस का आनाजाना है और घर वालों के साथ उस का व्यवहार भी अच्छा है. वह मुझ से विवाह करना चाहता है लेकिन डरता है कि कहीं मेरे घर वालों से विवाह की बात करने पर वे उस से नाराज न हो जाएं और विवाह के लिए इनकार न कर दें. आप ही बताइए, मैं क्या करूं?
जब उस लड़के का आप के परिवार वालों से व्यवहार अच्छा है और वे उस के बारे में अच्छी तरह जानते हैं तो उन से विवाह के बारे में बात करने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए. लेकिन फिर भी वह डरता है तो वह अपने किसी दोस्त या नजदीकी रिश्तेदार के जरिए यह बात आप के परिवार वालों से कर सकता है. वैसे, आप के परिवार वालों को भी इस रिश्ते से कोई परेशानी नहीं होगी क्योंकि इस से आप का ही घर बसेगा.
मेरे विवाह को 10 वर्ष हुए हैं. पति की उम्र 31 वर्ष है. समस्या यह है कि पति को सैक्स करने की इच्छा महीने में 2-3 बार ही होती है. मैं जानना चाहती हूं कि क्या इस उम्र में सैक्स की इच्छा कम हो जाती है या पति के साथ अन्य कोई समस्या है?
उम्र का सैक्स की इच्छा से लेनादेना नहीं होता. अगर आप के पति की सैक्स इच्छा कम हो रही है तो इस बारे में उन से खुल कर बात करें, उन्हें औफिस की कोई टैंशन तो नहीं, वे ज्यादा थक तो नहीं जाते या फिर कहीं आप की तरफ से तो कोई कमी नहीं है. इन सब कारणों को जानने की कोशिश करें. इस के अलावा पति की सैक्स इच्छा को जाग्रत करने के लिए नएनए तरीके अपनाएं. इस पर भी बात न बने तो किसी सैक्सोलौजिस्ट से संपर्क करें.
मैं अविवाहित युवती हूं. 4 वर्ष पूर्व मेरी सगाई हुई थी और इस दौरान मंगेतर के साथ मेरे शारीरिक संबंध भी बन गए थे लेकिन किन्हीं कारणों से मेरा वहां से रिश्ता टूट गया और अब मेरी कहीं और शादी हो रही है. मुझे डर है कि क्या सुहागरात के दिन मेरे होने वाले पति को मेरे पूर्व शारीरिक संबंधों का पता चल सकता है? मुझे क्या करना चाहिए सही सलाह दीजिए.
शादी से पूर्व मंगेतर के साथ शारीरिक संबंध बना कर आप ने बहुत बड़ी गलती की लेकिन अब जब आप की कहीं और शादी हो रही है तो इस बारे में अपने होने वाले पति को कुछ भी न बताएं.
जहां तक पति को आप के पूर्व शारीरिक संबंधों के बारे में पता चलने की बात है, उन्हें इस बारे में तब तक पता नहीं चलेगा जब तक आप स्वयं न बताएं या उन्हें कहीं और से न पता चले. इसलिए बेझिझक, बिना डरे अपने वैवाहिक जीवन की शुरुआत करें.
मैं अपने ससुराल के माहौल से काफी परेशान हूं. सासससुर मेरी छोटी सी गलती पर भी पति के कान भरने लगते हैं और पति, बिना मुझ से कुछ जानेसमझे, गालीगलौज करने लगते हैं. बाद में जब मैं सफाई देती हूं और उन्हें पता चलता है कि मेरी कोई गलती नहीं थी तो वे ‘मैं बात नहीं बढ़ाना चाहता’ कह कर टाल देते हैं. मैं पति को इस बारे में समझासमझा कर थक चुकी हूं. कभीकभी मुझे लगता है कि कहीं मैं ही तो ज्यादा इमोशनल नहीं हूं. समस्या सुलझाने में मेरी मदद कीजिए.
आप की बातों से लगता है कि आप के पति कान के कच्चे हैं, शायद इसीलिए आप के विरुद्ध कोई भी बात सुन कर आगबबूला हो जाते हैं और आप से दुर्व्यवहार करने लगते हैं. इस समस्या के समाधान के लिए पहले आप अपने ससुराल वालों से खुल कर बात करें कि आखिर क्यों वे आप की छोटी सी गलती को भी झगड़े का कारण बना देते हैं जिस के कारण आप का रिश्ता तनावपूर्ण हो रहा है.
उन से जानें कि क्या आप की कोई बात उन्हें नापसंद है जिस की वजह से वे ऐसा करते हैं. उस बात को जान कर स्वयं में बदलाव लाएं. इस के अतिरिक्त आप पति का अच्छा मूड देख कर उन से भी इस बारे में बात करें, अपने गुणों से उन्हें खुश करने की कोशिश करें. जब आप दोनों पतिपत्नी के बीच प्यार होगा तो ससुराल वाले भी आप के प्रति अपना व्यवहार बदल लेंगे.
मैं 27 वर्षीय अविवाहित हूं. सेना में नौकरी करता हूं. मुझे 23 वर्षीय बंगाली लड़की से प्यार हो गया है. वह भी मुझे बेहद प्यार करती है. हमारे बीच शारीरिक संबंध नहीं बने हैं. हम दोनों विवाह करना चाहते हैं. कुछ समय पहले उस ने मुझे बताया कि 5 साल पहले उस का विवाह हो चुका है और उस का 4 वर्षीय बेटा भी है, पर अब वह अपने पति से अलग अपने मायके में रहती है, क्योंकि उस के पति का किसी और से अफेयर है. उस लड़की का कहना है कि मैं उस से शादी का फैसला सोचसमझ कर करूं. मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि मैं क्या निर्णय लूं. सही सलाह दीजिए.
यह अच्छी बात है कि उस लड़की ने आप से अपने बारे में कोई भी बात छिपाई नहीं है, और आप दोनों ने विवाह करने से पूर्व शारीरिक संबंध न बना कर भी समझदारी का काम किया है. अब अगर आप दोनों विवाह करना चाहते हैं तो पहले उस लड़की का अपने पति से तलाक लेना जरूरी है.
इस के अतिरिक्त आप इस बारे में अपने परिवार वालों को भी लड़की के बारे में पूरी बात बता दें और उन की राय भी ले लें कि क्या वे एक विवाहित व एक 4 साल के बच्चे की मां को अपनी बहू बनाने को तैयार हैं ताकि बाद में समस्या न हो.

चुनाव में टिकट पाने का आतंकी तरीका

आज फिर मैं पत्नी के ताने सुनतेसुनते 9 बजे सो कर उठा. 3 दिन से वह लगातार कहे जा रही थी, ‘चुनाव होने वाले हैं, कुछ कर लो, किसी अच्छी पार्टी से सांसद या विधानसभा का चुनावी टिकट जुगाड़ लो. यह तो मालूम है कि बुरी तरह हारोगे, फिर भी क्या, अरे तुम्हारे मित्र किशन लालजी को देखो, पिछले बार चुनाव में किसी जुगाड़ से खड़े हो गए थे. मात्र 200 वोट मिले थे, जमानत तक जब्त हो गई थी, पर फिर भी घर में नई कार आ गई थी. मैं तो कहती हूं, कोशिश तो करो, लोग चाहते हैं कि ईमानदार लोग चुनाव जीत कर आएं. तुम तो महान ईमानदार हो, जब कुछ करते ही नहीं तो बेईमानी कैसी? पौपुलर हो, सारे अंकलों और आंटियों का काम मुफ्त में करते रहते हो, किसी के कपड़े प्रैस कराना, किसी की सब्जी लाना, किसी के बच्चों को स्कूल छोड़ना. अरे, कब काम आएंगी तुम्हारी कुर्बानियां? हारने के बाद भी अपनी कुछ इज्जत तो बन ही जाएगी, पुराने, सड़े से स्कूटर में तो अब तुम्हारे साथ बैठने को भी दिल नहीं करता.’
पत्नी बोल तो सच रही थी. कुछ नहीं करने से तो अच्छा है कि चुनाव में खड़े हो जाओ. आज पहली बार मुझे लगा कि वह ठीक बोल रही है. पहली बार पिताजी का कुरतापायजामा पहना. फिर सोचा कि यदि चुनाव में खड़े ही होना है तो किसी बड़े दल से ही टिकट प्राप्त क्यों न करें. सोचतेसोचते एक बड़े दल के मुख्यालय पहुंच गया, वहां पूरा चुनावी माहौल था, बहुत से लोग पेड़ के नीचे खड़े थे, बहुत से मूंगफली खा रहे थे, कुछ बतिया रहे थे. कुछ पेपर पढ़ रहे थे और कुछ पेपर बिछा कर उसी के ऊपर सो रहे थे. पहली बार लगा कि मेरे अलावा दुनिया में और भी बहुत निठल्ले हैं.
अंदर जाने की जुगत में देखा कि मुख्यालय  के गेट पर 2 दरबान खड़े थे. मौका देख कर मैं अंदर जाने लगा, तो उन में से एक ने मुझे रोका और पूछा, ‘‘कहां जा रहे हो?’’
मैं ने जवाब दिया, ‘‘भाई, चुनाव लड़ने की इच्छा है, टिकट लेने आया हूं.’’
मेरी बात सुन कर दोनों हंसने लगे, बोले, ‘‘अच्छा, नेता हो? किस चुनाव के लिए टिकट चाहते हो?’’
मैं ने जवाब दिया, ‘‘जिस का भी मिल जाए, लोकसभा का, विधानसभा या निगम पार्षद का, कुछ भी मिल जाए, मैं तो देश की सेवा करना चाहता हूं.’’
मेरे जवाब पर दोनों फिर हंसने लगे, बोले, ‘‘अच्छा बताइए, आप को ही टिकट क्यों मिले?’’
मैं ने जवाब दिया, ‘‘हम ईमानदार हैं, मेहनती हैं, अपने महल्ले में सब के चहेते हैं.’’
मेरी बात सुन कर वे दोनों हंसतेहंसते लगभग लोटपोट हो गए.
उन में से एक बोला, ‘‘अरे भैया, इतने सारे गुण हैं तो फिर आप का टिकट तो पक्का है.’’
मैं उस की बात सुन कर बहुत खुश हुआ, अपने पर गुस्सा भी आया कि यदि चुनाव के लिए टिकट मिलना इतना आसान था तो नाहक ही मैं ने इतना वक्त बरबाद किया. फिर मैं ने उन से पूछा, ‘‘भैया, क्या आप लोग भी टिकट वितरण की कमेटी में हैं?’’
एक बोला, ‘‘हां भैया, क्यों नहीं, अध्यक्ष साहब ने हम दोनों को गेट की स्क्रीनिंग कमेटी में रखा है. आप की तरह बहुत से होनहार और गुणी लोग चुनाव का टिकट लेने आते हैं, उन का हम खयाल रखते हैं,’’ फिर बोला, ‘‘भाई साहब, आप सामने जो पेड़ देख रहे हैं न, वहीं जा कर आराम करिए, जब अंदर से बुलावा आएगा, हम आप को बुला लेंगे.’’
मैं बुझे मन से पेड़ के नीचे पहुंच गया, जहां पहले से ही बहुत लोग अपना टाइम पास कर रहे थे. कुछ लोग तो इतनी मूंगफली खा चुके थे कि छिलकों का तकिया बना कर सो रहे थे. मैं ने सोचा कि ये सब जरूर वे लोग हैं जिन के नेता अंदर चुनाव का टिकट लेने के लिए गए हैं, और ये सब उन के स्वागत के लिए इंतजार कर रहे हैं. पर पूछने पर मालूम हुआ कि वे सब लोग भी टिकटार्थी हैं. मैं ने एक पास बैठे सज्जन से पूछा, ‘‘भैया, क्या अपने नेता का इंतजार कर रहे हो?’’ जवाब मिला, ‘‘नहीं, हम तो खुद नेता हैं और चुनाव के लिए टिकट के दावेदार हैं.’’
पता चला कि कई महीनों से यहीं डेरा डाले बैठे हैं. उन को अंदर अभी तक नहीं बुलाया गया. पर मुझे इस बात की चिंता नहीं थी क्योंकि मुझे मालूम था कि मैं एक ईमानदार और पौपुलर आदमी हूं, टिकट तो मुझे मिलेगा ही.
उसी समय देखा कि मुख्यालय के गेट से एक व्यक्ति निकला, ढेर सारे समर्थकों के साथ, लोग जिंदाबाद, जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे, ढेर सारे लोग हारफूल पहना रहे थे, ढोलनगाड़ों के साथ वे वहां से चल दिए. पास वाले ने मुझ से कहा, ‘‘देखो, इसे टिकट मिला गया. साला अव्वल दरजे का भ्रष्ट था.’’
उस दिन शाम होने तक भी मेरा बुलावा नहीं आया. झक मार कर मैं खाली हाथ वापस घर आया और पत्नी के ताने सुने.
मेरे साथ इस तरह का व्यवहार 3 दिन तक चलता रहा, रोज मुख्यालय जाता और शाम को खाली हाथ लौट आता और फिर पत्नी के ताने सुनतेसुनते सो जाता. गार्ड मुख्यालय के अंदर घुसने ही नहीं देते थे. एक बार उन से मिन्नत की कि कम से कम मेरी अर्जी तो अंदर पहुंचा दो, तो रहम कर के अर्जी उन्होंने ले ली और जेब में रख ली और बोले, ‘‘नेताजी, आराम करो, अंदर से बुलावा आएगा तो बुला लेंगे.’’
मैं ने सोचा कि बुलाएंगे कैसे, जब अर्जी अंदर ही नहीं पहुंच रही है.
मैं धीरेधीरे डिप्रैशन में जा रहा था. उसी अवस्था में मैं पेड़ के नीचे एक व्यक्ति के पास पहुंचा जो मेरी तरह ही रोज आता था. पूरा पेपर पढ़ता था और वहीं उस को बिछा कर सो जाता था. मैं ने उसे अपनी व्यथा सुनाई. सुन कर वह बोला, ‘‘अरे भैया, हम तो 10 सालों से टिकट के लिए कोशिश कर रहे हैं. पर क्या करें, देते ही नहीं. कहते हैं, आप के खिलाफ कोई भ्रष्टाचार की शिकायत नहीं है, चुनाव क्या खाक लड़ोगे. फिर भी यदि आप टिकट चाहते हो तो उस मूंगफली वाले के पास पहुंच जाओ जो शायद तुम्हारी मदद कर सके. वह खुद भी चुनाव लड़ना चाहता था, पर हताश हो कर यहीं, कुछ सालों से मूंगफली बेच कर हम लोगों की सेवा कर रहा है.’’
मेरी परेशानी सुन कर मूंगफली वाला पहले तो हंसा. फिर बिना मेरे और्डर के 250 ग्राम मूंगफली तौल के मुझे टिका दीं. मैं मजबूर था, मैं ने उसे पूरे पैसे दिए और इंतजार करने लगा कि पता नहीं वह क्या उपाय बताएगा. थोड़ी देर के बाद वह बोला, ‘‘अरे भैया, मैं तो 20 साल से चुनावी टिकट का प्रयास कर रहा हूं, फिर हार कर कुछ दिनों से यहीं मूंगफली बेचने लगा हूं. मैं तो कहता हूं, आप भी बेचने लगो, चुनाव लड़ने से तो यही बेहतर है. पर आजकल, जब से लोगों को मालूम हुआ है कि एक बड़े नेता जो प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं, पहले चाय बेचा करते थे, तब से चाय की गुमटी लगाने पर लोगों का ज्यादा जोर है. यदि कहो तो मैं तुम्हें अपने एक दोस्त के पास भेज सकता हूं, जो चाय की गुमटी बनवाने में आप की मदद कर सकता है.’’
उस की ये बातें सुन कर मेरे अहं को चोट पहुंची. उस की दी हुई सारी की सारी मूंगफली गुस्से में मैं उसी के ठेले पर छोड़ कर घर आ गया. जाने के पहले मैं मुख्यालय के गेट पर खड़े दोनों गार्डों के पास गया. बड़े अदब से पूछा, ‘‘सर, आज 4-5 दिन हो गए हैं, हमारी बात कुछ आगे बढ़ी या नहीं?’’
सुन कर दोनों हंसने लगे. बोले, ‘‘हां, क्यों नहीं? बहुत आगे बढ़ी है, पार्टी तुम्हें प्रधानमंत्री बनाने की सोच रही है, तुम तो घर जाओ, पार्टी वाले खुद ही आएंगे तुम्हारे पास.’’
ऐसा बोल कर वे दोनों फिर हंसने लगे. मेरे अहं को आज के दिन ही दूसरी बार चोट पहुंची.
आज फिर मैं मुंह लटका कर चुपचाप घर में घुस गया, बिना खाना खाए सो गया. दूसरे दिन पत्नी ने हिलाहिला कर जगाने की कोशिश की. मैं सोने का बहाना बना कर बिस्तर में पड़ा रहा. मुझे मालूम था, वह फिर मुझे चुनाव के टिकट के लिए भेजेगी, पर मैं तैयार नहीं था. रोज मेरी फजीहत हो रही थी. पर वह अड़ी हुई थी. बोली, ‘‘जल्दी तैयार हो जाओ और आज साथ में खाना ले जाना.’’
मैं ने पूछा, ‘‘खाना क्यों? वहां तो सब लोग मूंगफली खा कर पेट भरते हैं, फिर मैं अकेला क्यों?’’
बोली, ‘‘तुम नहीं समझोगे, मैं जैसा बोलूं वैसा करते जाओ.’’
मैं मजबूरी में उठ गया.
मेरी पत्नी ने मेरा एक पुराना टिफिन बौक्स निकाला, जिसे यदि हम बिजली के रंगबिरंगे तारों से नहीं बांधे तो सारा खाना बाहर निकल पड़े. नीचे के डब्बे में उस ने परांठे रखे और ऊपर के डब्बे में गोभी की सब्जी. मैं ने कहा, ‘‘ऊपर का डब्बा खाली है, उस में दाल रख दो.’’
सुन कर गुस्सा हो गई, बोली, ‘‘हां, वहां दाल खाने ही तो जा रहे हो, चुनाव के लिए टिकट तो ला नहीं सकते, बस लोगों के कपड़े प्रैस करवाओ और उन के बच्चों को स्कूल से घर लाओ.’’
मेरे निकम्मेपन से वह बहुत गुस्सा थी, पर इन्हीं कामों की वजह से मैं महल्ले में इतना पौपुलर था. वह दोबारा अंदर गई और कबाड़े से एक पुरानी अलार्म घड़ी ले आई, जिसे हम लोगों ने इसलिए फेंक दिया था क्योंकि वह समय तो ठीक नहीं बताती थी पर इतनी जोर से टिकटिक करती थी कि घोड़ा बेच कर सोने वाला भी जाग जाए. पत्नी ने उस में पूरी चाबी भरी और उस घड़ी को टिफिन के ऊपर के खाली डब्बे में रख दिया. फिर टिफिन को पुराने बिजली के रंगबिरंगे तारों से बांध कर एक थैली में रख कर मुझे दे दिया और बोली, ‘‘जाओ, अब चुनाव के लिए टिकट ले आओ, शर्तिया मिलेगा. बस, तुम से यदि कोई पूछे कि इस थैली में क्या है तो बिना मुंह खोले उन को यह थैली दिखा देना.’’

मुझे कुछ समझ नहीं आया पर कुछ और पूछता तो वह फिर भड़क जाती. सिर्फ यह पूछा, ‘‘मैं यह खाना वहां कितने बजे खाऊं?’’
वह बोली, ‘‘तुम्हें ये खाना, खाने के लिए नहीं दिखाने के लिए दे रही हूं. कोई पूछे तो बस चुपचाप थैली खोल कर दिखा देना.’’
मैं कुछ समझा नहीं, पर चुप रहना बेहतर समझा.
आज फिर मैं समय पर पार्टी के मुख्यालय पहुंच गया. टिकटार्थी आज भी जगहजगह खड़े हुए थे, मूंगफली खा रहे थे, सो रहे थे, पेपर पढ़ रहे थे, कुछ ताश भी खेल रहे थे. अधिकतर चेहरों को मैं अब पहचानने लगा था. शायद ये उन लोगों के लिए समय काटने का साधन बन गया था. पर आज मैं बहुत आत्मसम्मान के साथ टिकट लेने आया था. सीधे पार्टी मुख्यालय के मुख्यद्वार से अंदर जाने लगा. इस बार भी रोज की तरह वही 2 मुस्टंडे गार्ड खड़े थे. मुझे देख कर अंदर जाने से रोक दिया और दोनों हंसने लगे. बोले, ‘‘नेताजी, अभी भी चुनाव लड़ने का भूत सिर से नहीं उतरा?’’
मैं कोई जवाब दिए बगैर अंदर जाने लगा. दोनों ने अपने डंडों से मुझे रोक दिया. बोले, ‘‘नेताजी, ऐसे अंदर नहीं जा सकते, वैसे भी आप ने हम से चायपानी तक के लिए पूछा नहीं, फिर अंदर क्या भेंट चढ़ाओगे टिकट पाने के लिए?’’
मैं फिर कुछ नहीं बोला और फिर अंदर जाने की कोशिश करने लगा. दोनों को गुस्सा आ गया. एक ने पूछा, ‘‘नेताजी, जबरदस्ती अंदर जाने की कोशिश कर रहे हो और यह तो बताओ इस थैली में क्या है?’’
मैं थैली आगे करते हुए बोला, ‘‘आप खुद ही देख लो.’’
गार्ड ने थैली में झांक कर देखा, उस के चेहरे पर अचानक भय के भाव उभर आए, बोला, ‘‘अरे, इस में तो बम है.’’
वह क्या कोई भी उस थैली में रंगबिरंगे बिजली के तारों से टिफिन के डब्बों को बंधा देख कर और ऊपर के डब्बे से घड़ी की टिकटिक सुन कर बम ही समझेगा. मुझे पहली बार पत्नी की चतुराई का पता चला. मैं वही थैली दूसरे गार्ड को दिखाने के लिए मुड़ा, पर देखा कि वह वहां से गायब हो चुका था. फिर मैं पहले गार्ड की तरफ मुड़ा, पर वह भी ‘थैली में बम है, थैली में बम है’ चिल्लाता हुआ भागा जा रहा था. उस को इस तरह चिल्लाते हुए और भागते देख आसपास के सभी इंसान और पेड़ के नीचे बैठे टिकटार्थी गायब हो चुके थे.
मुख्यालय के अंदर घुसा, कोई रोकने वाला नहीं था. होंगे तो भी बम की खबर सुन कर सब इधरउधर छिप गए होंगे. मैं बड़े मजे से अपनी थैली ले कर उस कक्ष में पहुंचा जहां पार्टी के बड़े नेता चुनाव के लिए टिकट वितरण करते थे. अंदर देखा कि 3 बड़े नेता टेबल के पीछे बैठे हैं और भय से कांप रहे हैं. मुझे और मेरी थैली देख कर डर से और ज्यादा कांपने लगे. डर के आपस में चिपट गए. सब की घिग्घी बंधी हुई थी. मैं सामने की कुरसी पर बैठ गया और अपने टिफिन की थैली को उन की ही टेबल के ऊपर रख दिया. थोड़ी देर बाद उन में से एक ने बोलने की हिम्मत की. बोला, ‘‘भाई, क्या चाहते हो हम लोगों से?’’
मैं बोला, ‘‘कुछ नहीं, कोई भी चुनाव लड़ने के लिए आप की पार्टी का टिकट चाहता हूं. ईमानदार हूं, अपने महल्ले में बेहद पौपुलर हूं.’’
उन में से एक बोला, ‘‘तो भाई, रोकता कौन है तुम्हें. बोलो तो, किस चुनाव का टिकट चाहिए हम से? पर यह बम तो दूर रख दीजिए.’’
वे बात मुझ से कर रहे थे, पर उन के कान घड़ी की टिकटिक में लगे हुए थे और डर रहे थे कि किसी भी समय बम फट सकता है. मैं ने कहा, ‘‘जिस चुनाव के लिए आप ठीक समझो, दे दीजिए.’’
बोले, ‘‘संसद का दे देते हैं. पर इस थैली को तो हटाओ यहां से.’’
तीनों ने मिल कर एक आदेशपत्र पार्टी की तरफ से लिख कर दिया, जिसे हम चुनाव के लिए टिकट कहते हैं. यही हमें चुनाव अधिकारी को देना था यह बताने के लिए कि हम इस पार्टी से उम्मीदवार हैं.
मैं ने टिकट लिया और जाने लगा. उन की जान में जान आई. पर न जाने जाते हुए मुझे एक अक्ल की बात सूझ गई. मैं ने कहा, ‘‘भाई, अभी तो आप ने मुझे टिकट दे दिया है पर मेरे जाते ही आप एक दूसरा आदेशपत्र जारी कर दोगे जिस में चुनाव अधिकारी के लिए निर्देश होंगे कि मेरी दावेदारी निरस्त की जाती है.’’
मेरा सोचना ठीक था, वे आपस में इसी योजना के लिए कानाफूसी कर रहे थे. मेरी बात सुन कर बोले, ‘‘अच्छा, हम एक और आदेशपत्र आप को देते हैं, जिस में लिख देंगे कि आप की दावेदारी अंतिम है और आगे किसी भी तरह का फेरबदल अमान्य होगा.’’
उन की बात सुन कर मैं खुश हो गया और वे इसीलिए खुश दिख रहे थे कि मैं वहां से जा रहा था और वे सहीसलामत थे. जिस चुनाव के टिकट पाने के लिए मैं इतने दिनों से चक्कर काट रहा था, वह मुझे कुछ ही पलों में इस आसान तरीके से मिल गया. जाते हुए उन के चेहरे के भाव देखे तो लगा जैसे कोई बकरा कसाई के हाथों से कटने से बच गया हो. मुझे जाते हुए देख कर, थैली की तरफ इशारा कर के बोले, ‘‘भैया, यह तो लेते जाइए.’’
मैं ने कहा, ‘‘हां, जरूर.’’
मैं ने आराम से मुख्यालय परिसर का अच्छी तरह मुआयना किया और फिर वहां से बाहर आ गया. पूरे मुख्यालय में सन्नाटा फैला हुआ था. पर जब मैं बाहर के गेट के पास पहुंचा तो देखा बाहर कुछ अलग ही माहौल है. मुख्यालय के मुख्य गेट के चारों तरफ पुलिस के जवान अर्धगोलाकार की स्थिति में खड़े थे, सभी के हाथों में बंदूकें थीं. उन के अफसर
के पास लाउडस्पीकर था, पास ही बम निरोधक कर्मचारी, बम निरोधक वरदी में खड़े हुए थे. चारों तरफ मीडिया के लोग कैमरे और माइक ले कर खड़े हुए थे. ऐसा लग रहा था कि सब लोग सांस रोक कर मेरे बाहर निकलने का इंतजार कर रहे थे.
जैसे ही मैं गेट के बाहर दिखा, वे सब हरकत में आ गए. लाउडस्पीकर पकड़े अफसर ने घोषणा की, ‘‘आप जो कोई भी हो और जिस आतंकवादी संगठन से हो, आप को निर्देश दिया जाता है कि आप हाथ में पकड़े बम को जमीन पर रख दें और अपनेआप को पुलिस के हवाले कर दें.’’
सुन कर मुझे हंसी आ गई. मेरे खाने को वे बम समझ रहे थे. मैं ने चिल्ला कर कहा, ‘‘भाई, कोई बम नहीं है, यह मेरा खाना है,’’ और फिर उस लाउडस्पीकर वाले अफसर की ओर बढ़ा. बोला, ‘‘मैं तो नहीं खा पाया, आप लोग ही खा लें.’’
डर कर सब पीछे हटने लगे, कोई मेरी बात मानने को तैयार नहीं था. बारबार मुझ से सरैंडर करने के लिए उद्घोषणा हो रही थी.
आखिरकार, मैं ने हंसते हुए, अपनी थैली नीचे रख दी. देख कर दर्शकों ने तालियां बजानी शुरू कर दीं और ‘भारतमाता की जय’ के नारे लगाने शुरू कर दिए. पुलिस वालों ने मुझे हथकड़ी पहना दी.
मैं हंसने लगा, जो अफसर मेरे हाथ में रखी थैली से डर रहा था, अब निडर हो गया था और मेरे पास सट कर खड़ा हो गया, क्योंकि मीडिया वाले मेरी फोटो खींच रहे थे. मेरे बारबार कहने के बाद भी कि मेरे पास कोई बमवम नहीं है, कोई मानने को तैयार नहीं था.
बम निरोधक दस्ते वाले पूरे सुरक्षा कवच के साथ मेरे पास आए. एक ने मेरे टिफिन को उठाया. फिर एक बार दर्शकों ने तालियां बजाईं और ‘भारतमाता की जय’ के नारे लगाए. मैं हंस दिया. इस पर एक बड़े, ऊंचे पुलिस अफसर की छड़ी भी मेरी पीठ पर पड़ी और मैं तिलमिला गया. फिर भी मुझे हंसी आ रही थी. मेरा टिफिन उठा कर दूर ले जाया गया.
बम निरोधक दस्ते के लोगों ने थैली के अंदर से मेरे टिफिन को संभाल कर निकाला. लाल, नीले, पीले बिजली के तारों को बारीकी से परखा, फिर एक वायरकटर से नीले तार को काट दिया. इस पर जनता ने उत्साह से तालियां बजाईं, भारतमाता की जय बोली. पर फिर भी दस्ते वाले लोग पसोपेश में दिखाई दे रहे थे क्योंकि घड़ी की टिकटिक की आवाज जोरों से आ रही थी. इस बार लाल तार को काटा, फिर भी टिकटिक की आवाज जारी रही. फिर गुस्से में सभी तारों को काट दिया गया जिस से मेरा टिफिन खुलने से बचने के लिए बांधा गया था. सब लोग पसोपेश में दिखाई दे रहे थे कि यह कैसा बम है.
सभी तार कटने से अचानक टिफिन के डब्बे अपनेआप खुल गए, खाना बाहर गिरने लगा. टिकटिक करती अलार्म घड़ी भी बाहर गिर गई. गुस्से में बम निरोधक दस्ते के लोगों ने अपने कवच फेंक दिए. मीडिया वाले अब निडर हो कर गिरे हुए खाने व टिकटिक करती हुई घड़ी की फोटो खींच रहे थे. भीड़ अब पुलिस वालों के खिलाफ ‘हायहाय’ के नारे लगाने लगी थी. मैं ये सब देख कर हंस रहा था. मेरी पत्नी के बनाए हुए परांठे और सब्जी की खुशबू पास में खड़े हुए लोगों तक पहुंच रही थी. पुलिस वालों के लिए ये शर्मनाक स्थिति थी. आसपास के मीडिया वाले खबर पहुंचा रहे थे कि ‘खोदा पहाड़ और निकली चुहिया.’ पुलिस वाले लगातार मुझे गाली दिए जा रहे थे.
घड़ी और खाने का टिफिन ले कर वे मेरे और अफसर के पास आए. बोले, ‘‘सर, कुछ नहीं मिला. इस आदमी ने जबरदस्ती झूठा आतंक फैलाने की कोशिश की थी. सर, इसे गिरफ्तार कर लेना चाहिए.’’
मैं बोला, ‘‘यह कैसे हो सकता है. मैं ने क्या किया है. मैं तो चुनाव के लिए टिकट लेने अंदर जाना चाहता था. मेरे हाथ में यह खाने का टिफिन था और ऊपर के डब्बे में समय देखने के लिए यह घड़ी. गार्डों ने मुझ से पूछा कि इस थैली में क्या है, मैं ने कहा, खुद ही देख लो. बस, पता नहीं खुद वे ही ‘बम है, बम है’ कहते हुए भाग खड़े हुए. इस में मैं क्या कर सकता हूं.’’
दोनों गार्ड वहीं खड़े थे, मेरी बात पर सहमति जताई. अफसर ने मेरी हथकड़ी खुलवा दी और मुझे बाइज्जत छोड़ दिया.
दूसरे दिन मैं मीडिया में छाया हुआ था. अब मेरे पास चुनाव लड़ने का टिकट भी था, पत्नी बहुत खुश थी. चुनाव में इसी पार्टी से खड़ा हुआ. चुनाव के 4 दिन बाद परिणाम आए, मुझे सिर्फ 50 वोट मिले. मुझे गम नहीं था. क्योंकि चुनाव में मुझे इतना चंदा और पार्टी से चुनावफंड मिल चुका था कि मैं ने एक नई चमचमाती कार ले ली थी.

इन्हें भी आजमाइए

? दरवाजे या खिड़कियों के शीशों को धुंधला करने से आप बाहर की तेज रोशनी और गरमी से बच सकते हैं. इस के लिए वारनिश को गरम कीजिए तथा उस में सेंधा नमक घोल दीजिए. घोल को ब्रश की सहायता से शीशे पर पोत दीजिए. शीशे धुंधले हो जाएंगे.
? दीवार पर या अलमारी में लगा हुआ कागज कुछ समय बाद गंदा हो जाता है. उसे साफ करने के लिए पहले मुलायम कपड़े से उस की धूल पोंछ लें. फिर मुलायम डबलरोटी का गोला बना कागज पर रगड़ें. कागज नए की तरह चमक जाएगा.
? किसी बदबूदार बरतन से बदबू दूर कर के साफ करना हो तो गरम पानी में जरा सा कपूर घोल कर बरतन धो डालें. फिर सोडे के
पानी से धो लें. बरतन बदबूरहित और साफ हो जाएगा.
? बच्चों के एकदो जोड़ी कपड़े, मोजे, जूते अलग से रखें ताकि अचानक कहीं घूमनेफिरने का कार्यक्रम बन जाए तो उन्हें झट से पहना कर तैयार करने में देरी न लगे.
? कलफ किए गए कपड़ों पर प्रैस करने से प्रैस की तली पर दाग पड़ गए हों तो सूखी राख से उस की सतह को रगड़ कर सूखे कपड़े से पोंछ लें. अन्य कपड़ों पर दाग लगने का डर नहीं रहेगा.

बिसात

जिद में आके, ये बात मत करना
वक्त से दोदो हाथ मत करना
 
जाते पंछी से घोंसले ने कहा
लौट आने में रात मत करना
 
गजनवी आके लूट ले न कोई
दिल को तू सोमनाथ मत करना
 
हर कदम पर शकुनि की चालें हैं
जिंदगी को बिसात मत करना
 
शंका, कुशंका, वहम, अंदेशे
इतना भी एहतियात मत करना
 
बोझ बन जाए जो सफर में ‘शशि’
ऐसे लोगों का साथ मत करना.
 डा. शशि श्रीवास्तव
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