आज फिर मैं पत्नी के ताने सुनतेसुनते 9 बजे सो कर उठा. 3 दिन से वह लगातार कहे जा रही थी, ‘चुनाव होने वाले हैं, कुछ कर लो, किसी अच्छी पार्टी से सांसद या विधानसभा का चुनावी टिकट जुगाड़ लो. यह तो मालूम है कि बुरी तरह हारोगे, फिर भी क्या, अरे तुम्हारे मित्र किशन लालजी को देखो, पिछले बार चुनाव में किसी जुगाड़ से खड़े हो गए थे. मात्र 200 वोट मिले थे, जमानत तक जब्त हो गई थी, पर फिर भी घर में नई कार आ गई थी. मैं तो कहती हूं, कोशिश तो करो, लोग चाहते हैं कि ईमानदार लोग चुनाव जीत कर आएं. तुम तो महान ईमानदार हो, जब कुछ करते ही नहीं तो बेईमानी कैसी? पौपुलर हो, सारे अंकलों और आंटियों का काम मुफ्त में करते रहते हो, किसी के कपड़े प्रैस कराना, किसी की सब्जी लाना, किसी के बच्चों को स्कूल छोड़ना. अरे, कब काम आएंगी तुम्हारी कुर्बानियां? हारने के बाद भी अपनी कुछ इज्जत तो बन ही जाएगी, पुराने, सड़े से स्कूटर में तो अब तुम्हारे साथ बैठने को भी दिल नहीं करता.’
पत्नी बोल तो सच रही थी. कुछ नहीं करने से तो अच्छा है कि चुनाव में खड़े हो जाओ. आज पहली बार मुझे लगा कि वह ठीक बोल रही है. पहली बार पिताजी का कुरतापायजामा पहना. फिर सोचा कि यदि चुनाव में खड़े ही होना है तो किसी बड़े दल से ही टिकट प्राप्त क्यों न करें. सोचतेसोचते एक बड़े दल के मुख्यालय पहुंच गया, वहां पूरा चुनावी माहौल था, बहुत से लोग पेड़ के नीचे खड़े थे, बहुत से मूंगफली खा रहे थे, कुछ बतिया रहे थे. कुछ पेपर पढ़ रहे थे और कुछ पेपर बिछा कर उसी के ऊपर सो रहे थे. पहली बार लगा कि मेरे अलावा दुनिया में और भी बहुत निठल्ले हैं.
अंदर जाने की जुगत में देखा कि मुख्यालय के गेट पर 2 दरबान खड़े थे. मौका देख कर मैं अंदर जाने लगा, तो उन में से एक ने मुझे रोका और पूछा, ‘‘कहां जा रहे हो?’’
मैं ने जवाब दिया, ‘‘भाई, चुनाव लड़ने की इच्छा है, टिकट लेने आया हूं.’’
मेरी बात सुन कर दोनों हंसने लगे, बोले, ‘‘अच्छा, नेता हो? किस चुनाव के लिए टिकट चाहते हो?’’
मैं ने जवाब दिया, ‘‘जिस का भी मिल जाए, लोकसभा का, विधानसभा या निगम पार्षद का, कुछ भी मिल जाए, मैं तो देश की सेवा करना चाहता हूं.’’
मेरे जवाब पर दोनों फिर हंसने लगे, बोले, ‘‘अच्छा बताइए, आप को ही टिकट क्यों मिले?’’
मैं ने जवाब दिया, ‘‘हम ईमानदार हैं, मेहनती हैं, अपने महल्ले में सब के चहेते हैं.’’
मेरी बात सुन कर वे दोनों हंसतेहंसते लगभग लोटपोट हो गए.
उन में से एक बोला, ‘‘अरे भैया, इतने सारे गुण हैं तो फिर आप का टिकट तो पक्का है.’’
मैं उस की बात सुन कर बहुत खुश हुआ, अपने पर गुस्सा भी आया कि यदि चुनाव के लिए टिकट मिलना इतना आसान था तो नाहक ही मैं ने इतना वक्त बरबाद किया. फिर मैं ने उन से पूछा, ‘‘भैया, क्या आप लोग भी टिकट वितरण की कमेटी में हैं?’’
एक बोला, ‘‘हां भैया, क्यों नहीं, अध्यक्ष साहब ने हम दोनों को गेट की स्क्रीनिंग कमेटी में रखा है. आप की तरह बहुत से होनहार और गुणी लोग चुनाव का टिकट लेने आते हैं, उन का हम खयाल रखते हैं,’’ फिर बोला, ‘‘भाई साहब, आप सामने जो पेड़ देख रहे हैं न, वहीं जा कर आराम करिए, जब अंदर से बुलावा आएगा, हम आप को बुला लेंगे.’’
मैं बुझे मन से पेड़ के नीचे पहुंच गया, जहां पहले से ही बहुत लोग अपना टाइम पास कर रहे थे. कुछ लोग तो इतनी मूंगफली खा चुके थे कि छिलकों का तकिया बना कर सो रहे थे. मैं ने सोचा कि ये सब जरूर वे लोग हैं जिन के नेता अंदर चुनाव का टिकट लेने के लिए गए हैं, और ये सब उन के स्वागत के लिए इंतजार कर रहे हैं. पर पूछने पर मालूम हुआ कि वे सब लोग भी टिकटार्थी हैं. मैं ने एक पास बैठे सज्जन से पूछा, ‘‘भैया, क्या अपने नेता का इंतजार कर रहे हो?’’ जवाब मिला, ‘‘नहीं, हम तो खुद नेता हैं और चुनाव के लिए टिकट के दावेदार हैं.’’
पता चला कि कई महीनों से यहीं डेरा डाले बैठे हैं. उन को अंदर अभी तक नहीं बुलाया गया. पर मुझे इस बात की चिंता नहीं थी क्योंकि मुझे मालूम था कि मैं एक ईमानदार और पौपुलर आदमी हूं, टिकट तो मुझे मिलेगा ही.
उसी समय देखा कि मुख्यालय के गेट से एक व्यक्ति निकला, ढेर सारे समर्थकों के साथ, लोग जिंदाबाद, जिंदाबाद के नारे लगा रहे थे, ढेर सारे लोग हारफूल पहना रहे थे, ढोलनगाड़ों के साथ वे वहां से चल दिए. पास वाले ने मुझ से कहा, ‘‘देखो, इसे टिकट मिला गया. साला अव्वल दरजे का भ्रष्ट था.’’
उस दिन शाम होने तक भी मेरा बुलावा नहीं आया. झक मार कर मैं खाली हाथ वापस घर आया और पत्नी के ताने सुने.
मेरे साथ इस तरह का व्यवहार 3 दिन तक चलता रहा, रोज मुख्यालय जाता और शाम को खाली हाथ लौट आता और फिर पत्नी के ताने सुनतेसुनते सो जाता. गार्ड मुख्यालय के अंदर घुसने ही नहीं देते थे. एक बार उन से मिन्नत की कि कम से कम मेरी अर्जी तो अंदर पहुंचा दो, तो रहम कर के अर्जी उन्होंने ले ली और जेब में रख ली और बोले, ‘‘नेताजी, आराम करो, अंदर से बुलावा आएगा तो बुला लेंगे.’’
मैं ने सोचा कि बुलाएंगे कैसे, जब अर्जी अंदर ही नहीं पहुंच रही है.
मैं धीरेधीरे डिप्रैशन में जा रहा था. उसी अवस्था में मैं पेड़ के नीचे एक व्यक्ति के पास पहुंचा जो मेरी तरह ही रोज आता था. पूरा पेपर पढ़ता था और वहीं उस को बिछा कर सो जाता था. मैं ने उसे अपनी व्यथा सुनाई. सुन कर वह बोला, ‘‘अरे भैया, हम तो 10 सालों से टिकट के लिए कोशिश कर रहे हैं. पर क्या करें, देते ही नहीं. कहते हैं, आप के खिलाफ कोई भ्रष्टाचार की शिकायत नहीं है, चुनाव क्या खाक लड़ोगे. फिर भी यदि आप टिकट चाहते हो तो उस मूंगफली वाले के पास पहुंच जाओ जो शायद तुम्हारी मदद कर सके. वह खुद भी चुनाव लड़ना चाहता था, पर हताश हो कर यहीं, कुछ सालों से मूंगफली बेच कर हम लोगों की सेवा कर रहा है.’’
मेरी परेशानी सुन कर मूंगफली वाला पहले तो हंसा. फिर बिना मेरे और्डर के 250 ग्राम मूंगफली तौल के मुझे टिका दीं. मैं मजबूर था, मैं ने उसे पूरे पैसे दिए और इंतजार करने लगा कि पता नहीं वह क्या उपाय बताएगा. थोड़ी देर के बाद वह बोला, ‘‘अरे भैया, मैं तो 20 साल से चुनावी टिकट का प्रयास कर रहा हूं, फिर हार कर कुछ दिनों से यहीं मूंगफली बेचने लगा हूं. मैं तो कहता हूं, आप भी बेचने लगो, चुनाव लड़ने से तो यही बेहतर है. पर आजकल, जब से लोगों को मालूम हुआ है कि एक बड़े नेता जो प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं, पहले चाय बेचा करते थे, तब से चाय की गुमटी लगाने पर लोगों का ज्यादा जोर है. यदि कहो तो मैं तुम्हें अपने एक दोस्त के पास भेज सकता हूं, जो चाय की गुमटी बनवाने में आप की मदद कर सकता है.’’
उस की ये बातें सुन कर मेरे अहं को चोट पहुंची. उस की दी हुई सारी की सारी मूंगफली गुस्से में मैं उसी के ठेले पर छोड़ कर घर आ गया. जाने के पहले मैं मुख्यालय के गेट पर खड़े दोनों गार्डों के पास गया. बड़े अदब से पूछा, ‘‘सर, आज 4-5 दिन हो गए हैं, हमारी बात कुछ आगे बढ़ी या नहीं?’’
सुन कर दोनों हंसने लगे. बोले, ‘‘हां, क्यों नहीं? बहुत आगे बढ़ी है, पार्टी तुम्हें प्रधानमंत्री बनाने की सोच रही है, तुम तो घर जाओ, पार्टी वाले खुद ही आएंगे तुम्हारे पास.’’
ऐसा बोल कर वे दोनों फिर हंसने लगे. मेरे अहं को आज के दिन ही दूसरी बार चोट पहुंची.
आज फिर मैं मुंह लटका कर चुपचाप घर में घुस गया, बिना खाना खाए सो गया. दूसरे दिन पत्नी ने हिलाहिला कर जगाने की कोशिश की. मैं सोने का बहाना बना कर बिस्तर में पड़ा रहा. मुझे मालूम था, वह फिर मुझे चुनाव के टिकट के लिए भेजेगी, पर मैं तैयार नहीं था. रोज मेरी फजीहत हो रही थी. पर वह अड़ी हुई थी. बोली, ‘‘जल्दी तैयार हो जाओ और आज साथ में खाना ले जाना.’’
मैं ने पूछा, ‘‘खाना क्यों? वहां तो सब लोग मूंगफली खा कर पेट भरते हैं, फिर मैं अकेला क्यों?’’
बोली, ‘‘तुम नहीं समझोगे, मैं जैसा बोलूं वैसा करते जाओ.’’
मैं मजबूरी में उठ गया.
मेरी पत्नी ने मेरा एक पुराना टिफिन बौक्स निकाला, जिसे यदि हम बिजली के रंगबिरंगे तारों से नहीं बांधे तो सारा खाना बाहर निकल पड़े. नीचे के डब्बे में उस ने परांठे रखे और ऊपर के डब्बे में गोभी की सब्जी. मैं ने कहा, ‘‘ऊपर का डब्बा खाली है, उस में दाल रख दो.’’
सुन कर गुस्सा हो गई, बोली, ‘‘हां, वहां दाल खाने ही तो जा रहे हो, चुनाव के लिए टिकट तो ला नहीं सकते, बस लोगों के कपड़े प्रैस करवाओ और उन के बच्चों को स्कूल से घर लाओ.’’
मेरे निकम्मेपन से वह बहुत गुस्सा थी, पर इन्हीं कामों की वजह से मैं महल्ले में इतना पौपुलर था. वह दोबारा अंदर गई और कबाड़े से एक पुरानी अलार्म घड़ी ले आई, जिसे हम लोगों ने इसलिए फेंक दिया था क्योंकि वह समय तो ठीक नहीं बताती थी पर इतनी जोर से टिकटिक करती थी कि घोड़ा बेच कर सोने वाला भी जाग जाए. पत्नी ने उस में पूरी चाबी भरी और उस घड़ी को टिफिन के ऊपर के खाली डब्बे में रख दिया. फिर टिफिन को पुराने बिजली के रंगबिरंगे तारों से बांध कर एक थैली में रख कर मुझे दे दिया और बोली, ‘‘जाओ, अब चुनाव के लिए टिकट ले आओ, शर्तिया मिलेगा. बस, तुम से यदि कोई पूछे कि इस थैली में क्या है तो बिना मुंह खोले उन को यह थैली दिखा देना.’’
मुझे कुछ समझ नहीं आया पर कुछ और पूछता तो वह फिर भड़क जाती. सिर्फ यह पूछा, ‘‘मैं यह खाना वहां कितने बजे खाऊं?’’
वह बोली, ‘‘तुम्हें ये खाना, खाने के लिए नहीं दिखाने के लिए दे रही हूं. कोई पूछे तो बस चुपचाप थैली खोल कर दिखा देना.’’
मैं कुछ समझा नहीं, पर चुप रहना बेहतर समझा.
आज फिर मैं समय पर पार्टी के मुख्यालय पहुंच गया. टिकटार्थी आज भी जगहजगह खड़े हुए थे, मूंगफली खा रहे थे, सो रहे थे, पेपर पढ़ रहे थे, कुछ ताश भी खेल रहे थे. अधिकतर चेहरों को मैं अब पहचानने लगा था. शायद ये उन लोगों के लिए समय काटने का साधन बन गया था. पर आज मैं बहुत आत्मसम्मान के साथ टिकट लेने आया था. सीधे पार्टी मुख्यालय के मुख्यद्वार से अंदर जाने लगा. इस बार भी रोज की तरह वही 2 मुस्टंडे गार्ड खड़े थे. मुझे देख कर अंदर जाने से रोक दिया और दोनों हंसने लगे. बोले, ‘‘नेताजी, अभी भी चुनाव लड़ने का भूत सिर से नहीं उतरा?’’
मैं कोई जवाब दिए बगैर अंदर जाने लगा. दोनों ने अपने डंडों से मुझे रोक दिया. बोले, ‘‘नेताजी, ऐसे अंदर नहीं जा सकते, वैसे भी आप ने हम से चायपानी तक के लिए पूछा नहीं, फिर अंदर क्या भेंट चढ़ाओगे टिकट पाने के लिए?’’
मैं फिर कुछ नहीं बोला और फिर अंदर जाने की कोशिश करने लगा. दोनों को गुस्सा आ गया. एक ने पूछा, ‘‘नेताजी, जबरदस्ती अंदर जाने की कोशिश कर रहे हो और यह तो बताओ इस थैली में क्या है?’’
मैं थैली आगे करते हुए बोला, ‘‘आप खुद ही देख लो.’’
गार्ड ने थैली में झांक कर देखा, उस के चेहरे पर अचानक भय के भाव उभर आए, बोला, ‘‘अरे, इस में तो बम है.’’
वह क्या कोई भी उस थैली में रंगबिरंगे बिजली के तारों से टिफिन के डब्बों को बंधा देख कर और ऊपर के डब्बे से घड़ी की टिकटिक सुन कर बम ही समझेगा. मुझे पहली बार पत्नी की चतुराई का पता चला. मैं वही थैली दूसरे गार्ड को दिखाने के लिए मुड़ा, पर देखा कि वह वहां से गायब हो चुका था. फिर मैं पहले गार्ड की तरफ मुड़ा, पर वह भी ‘थैली में बम है, थैली में बम है’ चिल्लाता हुआ भागा जा रहा था. उस को इस तरह चिल्लाते हुए और भागते देख आसपास के सभी इंसान और पेड़ के नीचे बैठे टिकटार्थी गायब हो चुके थे.
मुख्यालय के अंदर घुसा, कोई रोकने वाला नहीं था. होंगे तो भी बम की खबर सुन कर सब इधरउधर छिप गए होंगे. मैं बड़े मजे से अपनी थैली ले कर उस कक्ष में पहुंचा जहां पार्टी के बड़े नेता चुनाव के लिए टिकट वितरण करते थे. अंदर देखा कि 3 बड़े नेता टेबल के पीछे बैठे हैं और भय से कांप रहे हैं. मुझे और मेरी थैली देख कर डर से और ज्यादा कांपने लगे. डर के आपस में चिपट गए. सब की घिग्घी बंधी हुई थी. मैं सामने की कुरसी पर बैठ गया और अपने टिफिन की थैली को उन की ही टेबल के ऊपर रख दिया. थोड़ी देर बाद उन में से एक ने बोलने की हिम्मत की. बोला, ‘‘भाई, क्या चाहते हो हम लोगों से?’’
मैं बोला, ‘‘कुछ नहीं, कोई भी चुनाव लड़ने के लिए आप की पार्टी का टिकट चाहता हूं. ईमानदार हूं, अपने महल्ले में बेहद पौपुलर हूं.’’
उन में से एक बोला, ‘‘तो भाई, रोकता कौन है तुम्हें. बोलो तो, किस चुनाव का टिकट चाहिए हम से? पर यह बम तो दूर रख दीजिए.’’
वे बात मुझ से कर रहे थे, पर उन के कान घड़ी की टिकटिक में लगे हुए थे और डर रहे थे कि किसी भी समय बम फट सकता है. मैं ने कहा, ‘‘जिस चुनाव के लिए आप ठीक समझो, दे दीजिए.’’
बोले, ‘‘संसद का दे देते हैं. पर इस थैली को तो हटाओ यहां से.’’
तीनों ने मिल कर एक आदेशपत्र पार्टी की तरफ से लिख कर दिया, जिसे हम चुनाव के लिए टिकट कहते हैं. यही हमें चुनाव अधिकारी को देना था यह बताने के लिए कि हम इस पार्टी से उम्मीदवार हैं.
मैं ने टिकट लिया और जाने लगा. उन की जान में जान आई. पर न जाने जाते हुए मुझे एक अक्ल की बात सूझ गई. मैं ने कहा, ‘‘भाई, अभी तो आप ने मुझे टिकट दे दिया है पर मेरे जाते ही आप एक दूसरा आदेशपत्र जारी कर दोगे जिस में चुनाव अधिकारी के लिए निर्देश होंगे कि मेरी दावेदारी निरस्त की जाती है.’’
मेरा सोचना ठीक था, वे आपस में इसी योजना के लिए कानाफूसी कर रहे थे. मेरी बात सुन कर बोले, ‘‘अच्छा, हम एक और आदेशपत्र आप को देते हैं, जिस में लिख देंगे कि आप की दावेदारी अंतिम है और आगे किसी भी तरह का फेरबदल अमान्य होगा.’’
उन की बात सुन कर मैं खुश हो गया और वे इसीलिए खुश दिख रहे थे कि मैं वहां से जा रहा था और वे सहीसलामत थे. जिस चुनाव के टिकट पाने के लिए मैं इतने दिनों से चक्कर काट रहा था, वह मुझे कुछ ही पलों में इस आसान तरीके से मिल गया. जाते हुए उन के चेहरे के भाव देखे तो लगा जैसे कोई बकरा कसाई के हाथों से कटने से बच गया हो. मुझे जाते हुए देख कर, थैली की तरफ इशारा कर के बोले, ‘‘भैया, यह तो लेते जाइए.’’
मैं ने कहा, ‘‘हां, जरूर.’’
मैं ने आराम से मुख्यालय परिसर का अच्छी तरह मुआयना किया और फिर वहां से बाहर आ गया. पूरे मुख्यालय में सन्नाटा फैला हुआ था. पर जब मैं बाहर के गेट के पास पहुंचा तो देखा बाहर कुछ अलग ही माहौल है. मुख्यालय के मुख्य गेट के चारों तरफ पुलिस के जवान अर्धगोलाकार की स्थिति में खड़े थे, सभी के हाथों में बंदूकें थीं. उन के अफसर
के पास लाउडस्पीकर था, पास ही बम निरोधक कर्मचारी, बम निरोधक वरदी में खड़े हुए थे. चारों तरफ मीडिया के लोग कैमरे और माइक ले कर खड़े हुए थे. ऐसा लग रहा था कि सब लोग सांस रोक कर मेरे बाहर निकलने का इंतजार कर रहे थे.
जैसे ही मैं गेट के बाहर दिखा, वे सब हरकत में आ गए. लाउडस्पीकर पकड़े अफसर ने घोषणा की, ‘‘आप जो कोई भी हो और जिस आतंकवादी संगठन से हो, आप को निर्देश दिया जाता है कि आप हाथ में पकड़े बम को जमीन पर रख दें और अपनेआप को पुलिस के हवाले कर दें.’’
सुन कर मुझे हंसी आ गई. मेरे खाने को वे बम समझ रहे थे. मैं ने चिल्ला कर कहा, ‘‘भाई, कोई बम नहीं है, यह मेरा खाना है,’’ और फिर उस लाउडस्पीकर वाले अफसर की ओर बढ़ा. बोला, ‘‘मैं तो नहीं खा पाया, आप लोग ही खा लें.’’
डर कर सब पीछे हटने लगे, कोई मेरी बात मानने को तैयार नहीं था. बारबार मुझ से सरैंडर करने के लिए उद्घोषणा हो रही थी.
आखिरकार, मैं ने हंसते हुए, अपनी थैली नीचे रख दी. देख कर दर्शकों ने तालियां बजानी शुरू कर दीं और ‘भारतमाता की जय’ के नारे लगाने शुरू कर दिए. पुलिस वालों ने मुझे हथकड़ी पहना दी.
मैं हंसने लगा, जो अफसर मेरे हाथ में रखी थैली से डर रहा था, अब निडर हो गया था और मेरे पास सट कर खड़ा हो गया, क्योंकि मीडिया वाले मेरी फोटो खींच रहे थे. मेरे बारबार कहने के बाद भी कि मेरे पास कोई बमवम नहीं है, कोई मानने को तैयार नहीं था.
बम निरोधक दस्ते वाले पूरे सुरक्षा कवच के साथ मेरे पास आए. एक ने मेरे टिफिन को उठाया. फिर एक बार दर्शकों ने तालियां बजाईं और ‘भारतमाता की जय’ के नारे लगाए. मैं हंस दिया. इस पर एक बड़े, ऊंचे पुलिस अफसर की छड़ी भी मेरी पीठ पर पड़ी और मैं तिलमिला गया. फिर भी मुझे हंसी आ रही थी. मेरा टिफिन उठा कर दूर ले जाया गया.
बम निरोधक दस्ते के लोगों ने थैली के अंदर से मेरे टिफिन को संभाल कर निकाला. लाल, नीले, पीले बिजली के तारों को बारीकी से परखा, फिर एक वायरकटर से नीले तार को काट दिया. इस पर जनता ने उत्साह से तालियां बजाईं, भारतमाता की जय बोली. पर फिर भी दस्ते वाले लोग पसोपेश में दिखाई दे रहे थे क्योंकि घड़ी की टिकटिक की आवाज जोरों से आ रही थी. इस बार लाल तार को काटा, फिर भी टिकटिक की आवाज जारी रही. फिर गुस्से में सभी तारों को काट दिया गया जिस से मेरा टिफिन खुलने से बचने के लिए बांधा गया था. सब लोग पसोपेश में दिखाई दे रहे थे कि यह कैसा बम है.
सभी तार कटने से अचानक टिफिन के डब्बे अपनेआप खुल गए, खाना बाहर गिरने लगा. टिकटिक करती अलार्म घड़ी भी बाहर गिर गई. गुस्से में बम निरोधक दस्ते के लोगों ने अपने कवच फेंक दिए. मीडिया वाले अब निडर हो कर गिरे हुए खाने व टिकटिक करती हुई घड़ी की फोटो खींच रहे थे. भीड़ अब पुलिस वालों के खिलाफ ‘हायहाय’ के नारे लगाने लगी थी. मैं ये सब देख कर हंस रहा था. मेरी पत्नी के बनाए हुए परांठे और सब्जी की खुशबू पास में खड़े हुए लोगों तक पहुंच रही थी. पुलिस वालों के लिए ये शर्मनाक स्थिति थी. आसपास के मीडिया वाले खबर पहुंचा रहे थे कि ‘खोदा पहाड़ और निकली चुहिया.’ पुलिस वाले लगातार मुझे गाली दिए जा रहे थे.
घड़ी और खाने का टिफिन ले कर वे मेरे और अफसर के पास आए. बोले, ‘‘सर, कुछ नहीं मिला. इस आदमी ने जबरदस्ती झूठा आतंक फैलाने की कोशिश की थी. सर, इसे गिरफ्तार कर लेना चाहिए.’’
मैं बोला, ‘‘यह कैसे हो सकता है. मैं ने क्या किया है. मैं तो चुनाव के लिए टिकट लेने अंदर जाना चाहता था. मेरे हाथ में यह खाने का टिफिन था और ऊपर के डब्बे में समय देखने के लिए यह घड़ी. गार्डों ने मुझ से पूछा कि इस थैली में क्या है, मैं ने कहा, खुद ही देख लो. बस, पता नहीं खुद वे ही ‘बम है, बम है’ कहते हुए भाग खड़े हुए. इस में मैं क्या कर सकता हूं.’’
दोनों गार्ड वहीं खड़े थे, मेरी बात पर सहमति जताई. अफसर ने मेरी हथकड़ी खुलवा दी और मुझे बाइज्जत छोड़ दिया.
दूसरे दिन मैं मीडिया में छाया हुआ था. अब मेरे पास चुनाव लड़ने का टिकट भी था, पत्नी बहुत खुश थी. चुनाव में इसी पार्टी से खड़ा हुआ. चुनाव के 4 दिन बाद परिणाम आए, मुझे सिर्फ 50 वोट मिले. मुझे गम नहीं था. क्योंकि चुनाव में मुझे इतना चंदा और पार्टी से चुनावफंड मिल चुका था कि मैं ने एक नई चमचमाती कार ले ली थी.
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