कहते हैं न, सुनीसुनाई बात में सचाई नहीं होती. जो अपनी आंखों से देखा जाए वही सच होता है. इसी कौंसेप्ट पर रजत कपूर ने यह फिल्म बनाई है. फिल्म मल्टीप्लैक्स कल्चर की है. इस में रिश्तों की सचाई है. एक निम्नमध्यवर्गीय के परिवार का खाका खींचा गया है. परिवार में अपने स्वार्थ से ऊपर उठ कर एक भाई का दूसरे भाई के प्रति प्यार को दिखाया गया है. हालांकि इस तरह की फिल्में कमर्शियली हिट नहीं होतीं फिर भी वे अच्छी होती हैं.
‘आंखों देखी’ हर किसी के मतलब की फिल्म नहीं है, लेकिन इस फिल्म में गहराई है. निर्देशक ने हर किरदार का चित्रण बारीकी से किया है. चूंकि रजत कपूर काफी अरसे से थिएटर से जुड़े रहे, इसलिए इस फिल्म में भी किसी नाटक के मंचन का सा आभास होता है.
फिल्म के लीड रोल में अपनी ऐक्ंिटग का लोहा मनवा चुका संजय मिश्रा है. उस ने अब तक कई फिल्मों में कौमेडी भूमिकाएं की हैं. इस फिल्म में उस की भूमिका एक परिवार के मुखिया की है. बढ़ी दाढ़ी, सिर पर गोल टोपी, फटीचर हालत में वह पुरानी दिल्ली की संकरी गलियों के एक मकान में अपने छोटे भाई, उस की पत्नी, अपनी पत्नी, बेटी व बेटे के साथ रहता है. खुद वह एक ट्रैवल एजेंसी में नौकरी करता है. निर्देशक रजत कपूर ने इस परिवार का खाका बहुत ही खूबसूरती से खींचा है.
फिल्म की कहानी पुरानी दिल्ली के एक मकान में रह रहे बाबूजी (संजय मिश्रा) के परिवार की है. बाबूजी अपने व भाई के परिवार के साथ 2 कमरों के मकान में रहते हैं. एक दिन उन्हें पता चलता है कि उन की बेटी रीटा एक लड़के अज्जू से प्यार की पींगें बढ़ा रही है. घर में तूफान सा उठता है. लेकिन बाबूजी को लगता है कि अज्जू नेक है. वे चुप्पी साध लेते हैं और तय कर लेते हैं कि वे सिर्फ उसी बात पर विश्वास करेंगे जिसे उन्होंने अपनी आंखों से देखा हो. इसी चक्कर में उन्हें नौकरी से निकाल दिया जाता है. घर में उन्हें पत्नी (सीमा भार्गव) की बातें भी सुननी पड़ती हैं. छोटा भाई (रजत कपूर) अपने परिवार के साथ घर छोड़ कर अलग रहने लगता है. जवान बेटे को जुए की लत लग जाती है.
बाबूजी अपने बेटे को जुआरियों के चंगुल से छुड़ाने के लिए उस के द्वारा ली गई कर्ज की रकम को चुकाने के लिए खुद जुआ खेलने लगते हैं और जीती रकम से उस का कर्ज चुकता करते हैं. उन्हें उसी जुआघर में 20 हजार रुपए की नौकरी मिल जाती है. वे अपनी बेटी की शादी उसी लड़के से कर देते हैं. शादी में बाबूजी का छोटा भाई सपरिवार शामिल होता है.
अपने सभी दायित्वों से मुक्त हो कर बाबूजी पत्नी के साथ पहाड़ पर छुट्टियां मनाने जाते हैं. वहां वे एक पहाड़ से खाई में छलांग लगा देते हैं. उन्हें लगता है अब उन्हें मुक्ति मिल गई है और वे खुले आकाश में मानो उड़ रहे हों.
फिल्म की यह कहानी एक परिवार की है. बाबूजी के किरदार में संजय मिश्रा को धीरगंभीर दिखाया गया है. इस किरदार को कभी गुस्सा नहीं आता. पत्नी इरिटेट होती है तो भी वह शांत रहता है. अपने प्रेमी से मिलने की जिद पर बेटी खाना नहीं खाती तो वह मानमनुहार कर उसे अपने हाथों से खाना खिलाता है.
फिल्म का एक सीक्वैंस काफी अच्छा बन पड़ा है, जब बाबूजी को लगता है कि शेर वाकई में दहाड़ता है या नहीं, इस के लिए वे लावलश्कर के साथ चिडि़याघर पहुंचते हैं. वहां जब सच में शेर दहाड़ता है तभी उन्हें यकीन होता है.
कहानी में कोई घुमावफिराव नहीं है. निर्देशन अच्छा है. निर्देशक ने सभी किरदारों को जीवंत दिखाने की कोशिश की है.
संजय मिश्रा के अलावा सभी कलाकार अपनीअपनी भूमिकाओं में फिट हैं. पार्श्व संगीत अनुकूल है. छायांकन ठीकठाक है.