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हम फिर मिलेंगे

 
आप से हम फिर मिलेंगे, देख लेना
और हम मिलते रहेंगे, देख लेना
 
कोई हम को छले, कह नहीं सकते
हम किसी को न छलेंगे, देख लेना
 
दुख, पीड़ा, विरह, संताप, विप्लव
दुर्ग ये सारे ढहेंगे, देख लेना
 
लोग जलते हैं तो जलने दीजिएगा
हाथ जलजल कर मलेंगे, देख लेना
 
ओसकण भी मोतियों से जगमगा कर
फुनगियों तक पर हिलेंगे, देख लेना
 
आप खुद लग जाओगे भजने को हम को
हम तुम्हें ऐसा भजेंगे, देख लेना
 
आप कह लेना जो कहना चाहते हो
और फिर हम क्या कहेंगे, देख लेना.
हेमंत नायक

हमारी बेडि़यां

हमारा गांव पश्चिमी उत्तर प्रदेश में है. वहां रिवाज है, जब लड़के की बरात वापस घर आती है तो अगले दिन वरवधू को आंगन में मंडप के नीचे बैठा कर पानी में रंग घोल कर उन पर कुछ पानी के छींटे डाले जाते हैं व मिठाई खिलाई जाती है. इसे ‘मंडप सेराना’ कहते हैं.
हमारे मौसेरे भाई का विवाह था. बारीबारी से सभी रिश्तेदार महिलाएं वरवधू पर रंगघुले पानी के छींटे डालती जा रही थीं. कुछ महिलाएं अति उत्साह में दुलहन के ऊपर बालटियों व अन्य बरतनों में पानी भर कर उड़ेल रही थीं. वधू संकोचवश धीमे स्वर में बारबार मना कर रही थी, ‘सर्दी लग रही है, इतना रंग मत डालिए.’
उसी शाम वधू को बहुत तेज बुखार हो गया. वह अचेत हो गई. डाक्टर ने उसे तुरंत अस्पताल में भरती करने को कहा.
ऐसा भी क्या रिवाज कि नौबत अस्पताल पहुंचने की आ जाए.
तन्मय कटियार, कानपुर (उ.प्र.)
बात कई साल पहले की है. उन दिनों गांव में बच्चों का जन्म घर में ही किसी नर्स या दाई के द्वारा होता था.
मेरी एक सहेली के 3 बेटियों के बाद, फिर कोई बच्चा होने वाला था. उस समय समय के हिसाब से घर में ही प्रसूति हुई और बेटा हुआ. बेटे की खबर से बेटे की दादी इतनी खुश हुईं कि नवजात शिशु को कौर्ड (गर्भ नाल) सहित तराजू में तौलने भागीं ताकि वे बच्चे का 3 बेटियों के बाद होने का अपशगुन मिटा लें. उन की इस जल्दबाजी से दाई भी घबरा गई और कांपते हाथों से सब काम निबटा कर चली गई.
जब मेरी सहेली को अपना बेटा देखने की चाह हुई तो उस ने देखा कि बच्चे की कौर्ड में से खून आ रहा है. उस ने सब को यह बात बताई और किसी डाक्टर को बुलाने को कहा.
डाक्टर ने बच्चे को देखा और कौर्ड ठीक से बांधी व बच्चे को एक इंजैक्शन लगाया.
इस तरह एक अनहोनी होतेहोते बच गई.
सुनीता शर्मा, कानपुर (उ.प्र.)
हमारे यहां हरितालिका (तीज) पर निर्जला व्रत रख कर पंडितों को बुला कर पूजा कर के ही पानी पीने की प्रथा है. हमारे पड़ोस की बहू, जो पहले से ही कुछ बीमार व गर्भवती थी, को दिनभर बिना अन्नजल व दवा के शाम होतेहोते चक्कर के साथ उल्टी होने लगी. उस की सास ने यह कह कर कि व्रत के दिन पानी पीने से अगले जन्म में सांप व अन्न खाने से सूअर के रूप में जन्म होता है, उसे कुछ भी खानेपीने नहीं दिया. देर रात उस की तबीयत इतनी ज्यादा खराब हो गई कि उसे अस्पताल में भरती कराना पड़ा.
उस की तबीयत दोचार दिनों में ठीक हो गई पर उस के गर्भ में पल रहे बच्चे को नहीं बचाया जा सका.
अंजुला अग्रवाल, मीरजापुर (उ.प्र.) 

खेल खिलाड़ी

अभिषेक की कबड्डी
पिछले एक दशक से बौलीवुड की हस्तियों ने खेलों की ओर रुख करना शुरू कर दिया है. पहले क्रिकेट, उस के बाद हौकी, फिर टैनिस के बाद अब कबड्डी जैसे खेलों को बढ़ावा देने के लिए आईपीएल की तर्ज पर प्रो कबड्डी लीग यानी पीकेएल की बारी है.
मशहूर अभिनेता अमिताभ बच्चन के पुत्र अभिषेक बच्चन ने हाल ही में जयपुर कबड्डी टीम खरीद ली है. इस टूर्नामैंट का आयोजन इस वर्ष जुलाईअगस्त में किया जाएगा. 8 शहरों पर आधारित ये टूर्नामैंट घर और बाहर दोनों जगह खेले जाएंगे. इस में 72 भारतीय और पाकिस्तानी खिलाड़ी होंगे जबकि 28 विदेशी. खिलाडि़यों की नीलामी होगी.
टीम के मालिक बनने के बाद अभिषेक बच्चन का कहना था कि यह सम्मान की बात है. यह सस्ता खेल है लेकिन योग्यता की बहुत जरूरत होती है. इन दिनों हर खेल पर कारोबारियों की नजर टिकी हुई है लेकिन एक अच्छी बात यह है कि इस से खिलाडि़यों को एक पहचान मिल रही है. कबड्डी को बढ़ावा देने के लिए जब बड़ीबड़ी हस्तियां इस पर अपना पैसा लगाएंगी तो निश्चित ही कबड्डी के दिन वैसे नहीं रहेंगे और घास के मैदान और मिट्टी में खेलने वाले खिलाड़ी अब मखमली घास व महंगे कारपेट पर खेलते नजर आएंगे और खिलाडि़यों के भी दिन फिर जाएंगे.
 
डोपिंग एक गंभीर समस्या 
जमैका के मशहूर धावक और 100 मीटर के पूर्व रिकौर्डधारी ऐथलीट असाफा पावेल को जमैका के डोपिंग रोधी अनुशासन पैनल ने 18 महीने के लिए प्रतिबंधित कर दिया. पावेल का डोप टैस्ट पिछले वर्ष राष्ट्रीय प्रतियोगिता के दौरान किया गया था जिस में पावेल ने स्टीमुलैंट औक्सिलोफ्रीन जैसे प्रतिबंधित पदार्थ का सेवन किया था. 31 वर्षीय पावेल पर यह प्रतिबंध 21 जून, 2013 से लागू होगा.
डोपिंग के ये मामले राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहले भी उठते रहे हैं लेकिन ऐसे मामले कम होने के बजाय बढ़ते ही जा रहे हैं. विदेशों में तो ये मामले कुछ ज्यादा ही हैं. विदेशी खिलाड़ी अपने खेल के प्रदर्शन को सुधारने के लिए डोपिंग का सहारा लेते हैं, समयसमय पर वे पकड़े भी जाते हैं. सवाल उठता है कि डोपिंग मामले पर खेल प्रशासन इतना सुस्त क्यों है?
अंतर्राष्ट्रीय ओलिंपिक कमेटी की नियमों की बात करें तो डोपिंग के लिए सिर्फ खिलाड़ी ही जिम्मेदार होते हैं. शायद इसलिए खेल प्रशासन या खेल संघ इस पर ज्यादा ध्यान नहीं देते लेकिन खेल प्रशासन के ढुलमुल रवैये से यह बीमारी महामारी की तरह बढ़ती ही जा रही है जो खेल के लिए चिंता का विषय है.
ऐसा नहीं है कि डोपिंग मामले में केवल विदेशी खिलाड़ी ही शामिल होते हैं, ऐसे मामलों में भारतीय खिलाड़ी भी कम नहीं हैं. भारत में ऐथलेटिक्स के अलावा बाकी खेलों में भी डोपिंग के मामले समयसमय पर आते रहे हैं.
पिछले वर्ष इंटरनैशनल ऐथलेटिक्स फैडरेशन ने 44 भारतीय खिलाडि़यों पर डोपिंग के आरोप लगाए और उन्हें निलंबित कर दिया था. नैशनल एंटी डोपिंग एजेंसी यानी नाडा के महानिदेशक मुकुल चटर्जी ने भी माना था कि डोपिंग के बढ़ते मामले वाकई चिंता का विषय हैं.
पिछले वर्ष ही अखबारों की सुर्खियां बनी थीं जब साइकिलिंग की दुनिया के महान खिलाड़ी लांस आर्मस्ट्रांग ने डोपिंग की बात कुबूली थी. उस के बाद आर्मस्ट्रांग से ओलिंपिक पदक भी छीन लिया गया था. आस्ट्रेलियाई खेल जगत के लिए वह काला दिन था. आस्ट्रेलियाई अपराध आयोग ने अपनी जांच में पाया था कि खिलाड़ी कई प्रतिबंधित दवाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं.
बहरहाल, प्रतिबंधित पदार्थों का सेवन करना डोपिंग विरोधी नियमों का सरासर उल्लंघन है और ऐसे नियमों का उल्लंघन करने वालों के साथ सख्त से सख्त कार्यवाही की जानी चाहिए, चाहे वह देशी खिलाड़ी हो या विदेशी. पावेल पर प्रतिबंध लगा कर डोपिंग रोधी अनुशासन पैनल ने सही किया है. यह खिलाडि़यों के लिए सबक है. खेल को खेल की तरह खेलें वरना आर्मस्ट्रांग जैसे महान खिलाड़ी को हीरो से जीरो बनते देर नहीं लगती.      

जीवन की मुसकान

 
पिछले वर्ष की बात है. अचानक मेरे बेटे, जिस की उम्र 48 साल थी, की हार्ट अटैक से मृत्यु हो गई. हम लोग समझ ही नहीं पाए यह सब कैसे हो गया? हम सब चेतनाशून्य हो गए. दिमाग काम नहीं कर रहा था.
तभी हमारी बहूरानी बोली, ‘‘मैं आप की बहू नहीं बेटा हूं.’’ और वास्तव में उस ने अपनी बात को साबित कर के दिखाया और मेरे बेटे के काम को अच्छी तरह संभाल लिया.
बच्चों को भी वह बहुत अच्छी तरह से पाल रही है. यह देख कर मेरे पति कहते हैं कि हमें बहू के रूप में दूसरा बेटा मिल गया है.  
उमा सुशील, गे्रटर कैलाश (न.दि.)
 
उस दिन बाजार से घर लौटते हुए हम ने एक अजीब दृश्य देखा. बाग और सड़क के बीच कंटीले तारों की बाड़ लगाई गई है. एक झबरा कुत्ता तारों के बीच से निकलने के चक्कर में तारों में बुरी तरह उलझ गया था. वह बारबार इधर से उधर कूदता, यहां तक कि उस के बाल इतने जकड़ गए कि वह हिल भी नहीं सकता था. बाग में खेलने वाले छोटेछोटे बच्चे असहाय से खड़े थे.
तभी कुछ बड़े लड़के हाथ में कैंची और दूध का कटोरा लिए वहां पहुंच गए. उन्होंने पुचकार कर कुत्ते के बालों को धीरेधीरे काटना शुरू किया. वे कुछकुछ डर भी रहे थे. जल्द ही कुत्ता तारों से मुक्त हो गया. पर वह दूध की दावत स्वीकार न कर चुपचाप पूंछ दबा कर एक ओर सरक लिया. इस तरह एक बेबस जीव की मदद कर उन बच्चों ने वाकई सराहनीय कार्य किया.
छोटे बच्चे ताली बजा कर खुश हो रहे थे और बड़े बच्चों के मुख पर संतोष का भाव था.
मनोरमा दयाल, नोएडा (उ.प्र.)
 
बात उस समय की है जब मैं बहुत छोटी थी. मैं मम्मीडैडी के साथ शाम को बाजार घूमने गई थी. घूमतेघूमते एक दुकान पर वे दोनों सामान खरीदने लग गए. साथ की दुकान में मैं नेलपौलिश लेने की जिद करने लगी.
वे अपना सामान खरीद कर घर वापस जाने की तैयारी में थे. उन्होंने मुझे समझाने की काफी कोशिश की लेकिन मैं अपनी जिद पर अड़ी रही. उन्होंने सोचा कि मैं उन की बात मान कर उन के पीछे आ जाऊंगी. लेकिन मैं जिद कर के वहीं खड़ी रही और रोती रही.
तभी एक सज्जन वहां आए और मेरे रोने का कारण पूछा. मैं ने उन्हें रोतेरोते सबकुछ बता दिया. उन्होंने मुझ से मेरे घर  का पता पूछा और मुझे घर छोड़ दिया. दूसरी तरफ मेरे मम्मीडैडी का बाजार में मुझे ढूंढ़तेढूंढ़ते बुरा हाल था. जब वे बेहाल हो कर घर पहुंचे तो मुझे घर में सहीसलामत पा कर बहुत खुश हुए.
पूर्णिमा शर्मा, बिलासपुर (हि.प्र.) 
 

सफर अनजाना

कालेज की छुट्टियां समाप्त होने पर मैं दीदी के साथ गोरखपुर से लखनऊ आ रही थी. होस्टल की 2 लड़कियां और मिल गईं. सभी लोग मिल कर बातें करने लगे.
सामने बैठा व्यक्ति मुझे कुछ अजीब लगा क्योंकि वह हम लोगों की बातों को बहुत ध्यान से सुन रहा था. जब सोने का समय हुआ और अन्य लड़कियां चली गईं तब दीदी मुझे सोने को बोल कर सो गईं.
सामने की सीट पर लेटा एक अजनबी अपनी अटैची पर सिर और सीट पर पैर रख कर सो गया. मैं पहले से डरी थी, इसलिए आंखें बंद कर लेटी रही. अचानक मुझे महसूस हुआ कि उस व्यक्ति का हाथ दीदी की तरफ बढ़ रहा है. मैं ने घबरा कर दीदी को जगा दिया.
हड़बड़ा कर दीदी जगीं, ‘‘क्या हुआ?’’ मैं उस व्यक्ति के कारण कुछ बता नहीं पाई. दीदी फिर सो गईं. मैं ने लाइट जला दी तो साइड की सीट पर सोया युवक उठ कर बैठ गया और मुझ से बोला, ‘‘लाइट बंद कर दूं क्योंकि मुझे रोशनी में नींद नहीं आती.’’
‘‘नहीं.’’ मैं जोर से बोली. मैं पत्रिका उलटतीपलटती पढ़ती रही. डर के कारण मैं सोना नहीं चाहती थी. वह लड़का चुपचाप बैठा जागता रहा जबकि पूरा डब्बा नींद के आगोश में समाया हुआ था. पहले तो मुझे डर लगा पर ऐसे समय में उस लड़के के जागने की वजह से मुझे ढाढ़स बंधा कि कोई तो है जो मेरा साथ निभा रहा है.
मैं ने मन ही मन उस अनजान युवक का शुक्रिया अदा किया जिस ने पूरी रात जाग कर मेरे डर से निजात पाने में मेरी अनजानी सहायता की. दो अनजान मुसाफिरों के साथ का रोमांचकारी सफर, जिस में एक मुसाफिर मेरे लिए डर का कारण था तो दूसरा डर दूर भगाने का स्रोत बना.
रेणुका श्रीवास्तव, लखनऊ (उ.प्र.)
 
मैं सपरिवार अंबाला से जम्मू जा रही थी. हमारे सामने वाली बर्थ में जो सहयात्री थे, उन का अलगअलग बर्थ में रिजर्वेशन होने के कारण वे एक ही जगह बैठे थे. मुझे बहुत असुविधा हो रही थी और उन लोगों पर गुस्सा आ रहा था.
एक स्टेशन पर गाड़ी रुकी तो मैं बच्चों के खाने के लिए सामान निकालने लगी तभी झाड़ू लगाने वाली 16-17 साल की एक लड़की डब्बे में आई और किनारे की तरफ रखा मेरा पर्स ले कर भागने लगी. मैं बच्चों को संभालते हुए पीछे भागी तब तक वह डब्बे के दरवाजे तक पहुंच गई.
हमारे सहयात्री व उन के साथ के लोग दरवाजे के पास खड़े थे. उन्होंने लड़की को पकड़ लिया और उस से पर्स छीन कर मुझे दे दिया. पर्स में यात्रा से संबंधित सामान, टिकट तथा रुपए थे. मुझे अपने ऊपर शर्म महसूस हो रही थी कि मेरे रूखे व्यवहार के बाद भी उन लोगों ने मेरी मदद की.
शालिनी बाजपेयी, चंडीगढ़ (पंजाब) द्  

धर्म की मार झेलता जड़बुद्धि समाज

 
धर्म के ठेकेदारों ने अपनी दुकान चलाने के लिए ऐसे प्रतीकों और नंबरों को ईजाद किया है कि धर्मांध लोग आज बढ़चढ़ कर बोलियां लगा कर अपने को धार्मिक होने का परिचय दे रहे हैं. जबकि धार्मिक प्रतीकों और चिह्नों के पीछे के पागलपन और धार्मिक जड़ता के चलते ही हम पिछड़े हैं. पढि़ए श्रीप्रकाश श्रीवास्तव का लेख.
 
धर्म अफीम का काम करता है. इस में दोराय नहीं कि जड़बुद्धि जनता के लिए धर्म सिर्फ मंदिर या मसजिद तक सीमित नहीं रहता बल्कि इस से इतर प्रतीकों व पहचान के लिए भी मारामारी होती है. हाल में, बनारस में एक हिंदू पान विक्रेता को 10 रुपए का एक नोट मिला. उस नोट का नंबर 786786 था. फिर क्या, उस ने अपना दिमाग दौड़ाया. मुसलमानों के बीच उस की चर्चा हो गई. 
बात जंगल में आग की तरह फैल गई. मजेदार बात यह थी कि उस 10 रुपए के नोट को लेने के लिए बाकायदा बोली लगनी शुरू हो गई. उस की कीमत एक मुसलमान ने 25 हजार रुपए तक लगाई क्योंकि उन के अनुसार यह पवित्र नंबर है. जिस के पास होगा, उस पर निश्चय ही खुदा की इनायत बरसेगी. यह कुछ इस तरह से है, जैसे महाभारत में दुर्योधन ने यादव सेना मांगी तो अर्जुन ने कृष्ण को. अब जिस के पास साक्षात ईश्वर होंगे, उसे भला कौन हरा पाएगा. लगता है ऐसा ही वह मुसलमान 10 का नोट 25 हजार में लेने के वक्त सोचता होगा? यह बात अलग है कि खुदा सचमुच में किस का साथ दे रहा है. उस 10 के नोट के वारिस का जो 10 के बदले 25 हजार पा कर मालामाल हो रहा है या वह जो 25 हजार में खरीद कर अपनी तिजोरी खाली कर रहा है.
कुछ साल पहले बकरीद के अवसर पर बकरे की खरीदफरोख्त करते समय एक ऐसा बकरा भी बिकने के लिए आया जिस की पीठ पर ‘अल्लाह’ लिखा था. कीमत लगाई गई 2 लाख रुपए. सोचने वाली बात यह है कि अगर 2 लाख रुपए में ऐसा बकरा खरीद कर कोई खुद को खुदा का सच्चा खिदमतगार साबित करना चाहता है तो वह क्यों नहीं, जिस के पास पहले से यह बकरा मौजूद है. ऐसे बकरे की कुरबानी से कोई सच्चा मुसलमान बनता है तो वह व्यापारी क्यों नहीं बनना चाहता?
हिंदुओं में भी कभी पपीते में गणेशजी की प्रतिमा दिखती है तो कभी दीवारों पर साईंबाबा की तसवीर उभरती है. प्रचार करने पर खासी भीड़ जुटती है. भीड़ जुटी तो धर्म की दुकानदारी भी चमकने लगती है. दरअसल, गणेश दिखे या साईंबाबा, मुख्य मकसद है जड़बुद्धि जनता को चमत्कार में उलझा कर उन का आर्थिक शोषण करना. इस में पंडेपुजारी सफल भी होते हैं.
सवाल इस बात का है कि अगर  10 रुपए के नोट में 786 नंबर हो या बकरे में अल्लाह का नाम उभर कर आता है या फिर गणेश की प्रतिमा पपीते में उभरती है तो क्या चमत्कार होने वाला होता है?
क्या जड़बुद्धि जनता इस बारे में कुछ बताएगी? मान लिया जाए कि 786 वाले नोट को 25 हजार रुपए में खरीद भी लिया जाए, तो उस के नए मालिक की जिंदगी में क्या परिवर्तन होगा? दरअसल, बेचने की मानसिकता के पीछे एक ही तर्क है, किसी तरह धर्म के नाम पर जड़बुद्धि जनता को बेवकूफ बना कर धन ऐंठा जाए. ठीक वैसे ही, जैसे ज्योतिषी व पंडेपुजारी मंदिर में बैठ कर ऐंठ रहे हैं. 
आप की रोजाना की भावी दिनचर्या के बारे में राशि के आधार पर बताने वाले या फिर ढोंगी या तांत्रिकों की गिरफ्तारी की खबर आएदिन अखबारों या टैलीविजन में देखतेसुनते रहते हैं. दूसरों के बारे में भविष्यवाणी करने वाले क्या उन ज्योतिषियों को नहीं पता था कि आज वे गिरफ्तार होने वाले हैं, जब उन्हें अपने ही बारे में पता नहीं तो वे दूसरों के बारे में कैसी भविष्यवाणी करते होंगे?
धर्म की दुकानदारी
धर्म एक संवेदनशील मामला है क्योंकि इस से जुड़ा आस्था का न सिर होता है न पैर. कुछ वर्ष पहले रूस में गीता पर प्रतिबंध लगा, जड़बुद्धि जनता में रोष फैल गया. अमृतसर मंदिर किसी और का बता दिया गया, सिख समाज में विरोध शुरू हो गया. ईश्वर भले ही परेशान न हो, जड़बुद्धि समाज अवश्य परेशान हो जाता है. क्यों? साफ जाहिर है उस के दिमाग में भूसा भरा है या फिर सोचीसमझी कुछ चालाक किस्म के लोगों की नीति है जो जड़बुद्धि लोगों की धार्मिक भावनाएं भड़का कर उन से अपना स्वार्थ सिद्ध करती है.
कुछ वर्ष पहले जब गणेश की प्रतिमाएं दूध पी रही थीं तब ऐसी ही जड़ मानसिकता काम कर रही थी. बिना वैज्ञानिक कारण जाने लोगों ने प्रतिमा को दूध पिलाना शुरू कर दिया. कई वर्ष पहले काशी में एक पुराने गिरजाघर की मीनार से शाम के वक्त धुआं निकलता था, जिसे देखने के लिए हजारों की भीड़ सड़क पर जमा हो जाती थी. अफवाह फैली कि यह धुआं शुभ नहीं व लोगों ने धार्मिक ग्रंथों का हवाला दे कर अशुभ संकेतों की पुष्टि का दावा किया. इस में कितनी सचाई थी, यह तो वही बता सकते थे. हां, इस घटना से अवश्य जनता के बीच भय व्याप्त हो गया. बाद में बीएचयू के वैज्ञानिकों की टीम ने जांचपड़ताल कर के बताया कि शाम को उठने वाला यह धुआं नहीं, बल्कि कीटपतंगों का झुंड था, जो दूर से धुएं का एहसास कराता था.
चांदतारा हो या ॐ, हरा रंग हो या भगवा, इन प्रतीकों से भले ही हम अपनी अलग पहचान बनाते हों, और यह सोचते हों कि इन्हें धारण करने से ईश्वर खुश होता है लेकिन है यह महज अंधविश्वास. 
पाकिस्तान में जगहजगह मसजिदों में आतंकवादी हमले होते हैं, वहीं भारत के मंदिरों में भी हुए, क्या बिगाड़ सके ईश्वर उन का? उलटे आतंकवादी मजे से सांसारिक सुखों को भोग रहे हैं और वे जो इन धार्मिक स्थलों में मारे गए उन के परिजन आज तक कथित ईश्वर से न्याय की उम्मीद कर रहे हैं. ऐसे ईश्वर को क्या कहा जाए जो अपने भक्तों के लिए भी कान में रूई ठूंसे हुए है. अनेक लोग अपने गले में धार्मिक चिह्नों को लटकाए रहते हैं. इस के बाद भी दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं.
धार्मिक प्रतीकों व चिह्नों के पीछे भागने वाले समाज के लिए तरक्की के रास्ते बंद होते हैं. हमारी 2 हजार साल की गुलामी का कारण यही धार्मिक जड़ता थी. क्या हम इस से कभी मुक्त होंगे?
इस मानसिकता को बचाए रखने के लिए धर्म के दुकानदार मेहनत करते हैं और झूठे किस्से व कहानियां सुनाते हैं. जबकि उन के पास समय है फिर भी वे कोई दूसरा काम नहीं करते, धर्म की कमाई खाते हैं.      

पाठकों की समस्याएं

मैं 18 वर्षीय लड़की हूं. मेरी समस्या यह है कि मेरे मम्मीपापा आपस में हमेशा झगड़ते रहते हैं. इस बार तो उन का झगड़ा इस हद तक बढ़ गया कि मम्मी घर छोड़ कर चली गई हैं. मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं इस स्थिति में क्या करूं कि मम्मीपापा का झगड़ा खत्म हो जाए और मम्मी घर वापस आ जाएं?
मातापिता के आपसी झगड़ों से बच्चों का परेशान होना स्वाभाविक है. आप समझदार हैं, इसलिए सब से पहले मम्मीपापा के झगड़े की वजह जानने की कोशिश करें. पापा से इस बारे में बात कर के मम्मी को समझाबुझा कर घर वापस लाएं और समझौता कराएं.
अगर मम्मी की गलती हो तो उन्हें भी समझाएं कि उन का आपस में झगड़ना आप को परेशान और डिस्टर्ब करता है और इतने सालों से इकट्ठे रहते हुए इस उम्र में घर छोड़ना उन्हें शोभा नहीं देता. आप इस बारे में अपने घर के बड़े बुजुर्ग की मदद भी ले सकती हैं.
मैं एक विवाहित पुरुष हूं. मैं पिछले 10 वर्षों से प्रीमैच्योर इजेक्यूलेशन की समस्या से पीडि़त हूं जिस के कारण मेरे और पत्नी के बीच कोई शारीरिक संबंध नहीं हैं. मैं क्या करूं, सलाह दीजिए?
प्रीमैच्योर इजेक्यूलेशन का अर्थ यह नहीं कि आप सैक्स नहीं कर सकते. सैक्स के दौरान उत्तेजना से वीर्य का स्खलन समय से पूर्व होना प्रीमेच्योर इजेक्यूलेशन कहलाता है, जिस का कारक कई बार किशोरावस्था में गलत संगति में पड़ना भी होता है. आप की समस्या का मैडिकल और नौन मैडिकल दोनों इलाज संभव हो सकते हैं. सैक्स के दौरान रिलैक्स करें और यह सोचें कि आप का पार्टनर आप से प्यार करता है न कि आप के और्गेज्म के समय पर ध्यान देता है.
आप इस समस्या के बारे में पत्नी से खुल कर बात करें और फोरप्ले को ऐंजौय करें. इस के अलावा आप यूरोलौजिस्ट साइकोलौजिस्ट व सैक्सोलौजिस्ट से भी संपर्क करें ताकि आप दोनों के बीच बेहतर संबंधों को नई दिशा मिल सके.
मैं 12वीं पास लड़की हूं. मेरी हाइट 5 फुट 5 इंच है और रंग गोरा है. मैं एअरहोस्टेस बनना चाहती हूं. मेरी समस्या यह है कि कुछ माह पूर्व ही मेरा विवाह हुआ है और मेरे पति अभी अमेरिका में रहते हैं. 7-8 माह बाद मैं भी वहीं चली जाऊंगी. मैं चाहती हूं कि वहां जा कर अपने एअरहोस्टेस बनने के सपने को पूरा करूं. मुझे बताइए कि मैं वहां जा कर कौन सा कोर्स करूं और क्या मुझे वहां नौकरी मिलेगी?
आप युवा हैं, पढ़ीलिखी हैं, आकर्षक हैं तो आप को एअरहोस्टेस बनने में कोई समस्या पेश नहीं आएगी. इस क्षेत्र में आने के लिए आप को केबिन कू्र का डिप्लोमा या एफएए यानी फेडरेशन एविएशन सर्टिफिकेट प्राप्त करना होगा. अगर आप की अंगरेजी भाषा के अलावा अन्य विदेशी भाषाओं में भी अच्छी पकड़ है तो आप के लिए इस कैरियर में भविष्य अधिक उज्ज्वल होगा. केबिन कू्र या एफएए सर्टिफिकेट कोर्स के अंतर्गत आप को यात्रियों के साथ व्यवहार, आतंकवाद, फर्स्टएड, जल, वायु व अग्नि से संबंधित आपातस्थितियों से कैसे निबटा जाए, इन विषयों की जानकारी दी जाती है. इस कोर्स के बाद आप वहां की एअरलाइंस में नौकरी के लिए आवेदन कर सकती हैं.
मैं 25 वर्षीय विवाहित महिला हूं. मेरी 8 वर्षीय बेटी है. मेरे पति नोएडा में नौकरी करते हैं और सप्ताहांत शनिवार व रविवार को ही घर पर आते हैं. मैं दिल्ली में अपने ससुराल वालों के साथ रहती हूं. मेरी शिकायत यह है कि मेरे पति मुझे कहीं घुमानेफिराने नहीं ले जाते. हमेशा बहाना बना कर टाल देते हैं. इन दिनों मेरा वजन भी कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है. कहीं उन की मुझ से दूरी बनाने का कारण मेरा मोटापा तो नहीं है? मुझे वजन कम करने के लिए कुछ घरेलू उपाय बताएं.
सप्ताह में 5 दिन घरपरिवार से दूर रहने के बाद शायद आप के पति अपना बाकी समय पूरे परिवार के साथ बिताना चाहते हैं, इसलिए वे आप के बाहर घूमनेफिरने की बात टाल देते हैं. लेकिन आप स्वयं को आकर्षक दिखाने के लिए अपना वजन कम करें, इस के लिए शारीरिक व्यायाम और संतुलित भोजन शैली अपनाएं. खुराक में तैलीय व मसालेदार भोजन के बजाय ताजे फल व सब्जियों को शामिल करें.
जब आप शारीरिक रूप से फिट होंगी और आकर्षक दिखेंगी तो पति खुदबखुद आप की ओर आकर्षित होंगे और आप के साथ अंतरंग पल बिताएंगे.
मैं 23 वर्षीय महिला हूं. 3 वर्ष पूर्व मेरी शादी हुई थी. पति की तरफ से कुछ शारीरिक समस्या के कारण मैं शारीरिक संबंध ठीक से नहीं रख पाई. कुछ समय बाद मेरी मुलाकात एक लड़के से हुई. मुझे उस से प्यार हो गया और हम दोनों ने छिप कर शादी भी कर ली. हम दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी हैं लेकिन समस्या यह है कि मैं गर्भवती होऊंगी तो समाज व मेरे परिवार वाले प्रश्न करेंगे कि ऐसा कैसे संभव हुआ जबकि मेरे पति इस के लिए अक्षम हैं. इस परिस्थिति में मैं क्या करूं? समस्या का समाधान कीजिए.
पहले पति के होते हुए किसी अन्य से शारीरिक संबंध रखना और छिप कर विवाह कर लेना दोनों ही गलत और अमान्य हैं. आप ने परिवारवालों को भी इस बारे में कुछ नहीं बताया. आप के समक्ष 2 विकल्प हैं, या तो आप अपने पति से तलाक ले लें और समाज व परिवार के सामने अपने प्रेमी से विवाह करें. दूसरा, अगर आप अपनी गलती को सुधारना चाहती हैं और पति के साथ ही रहना चाहती हैं तो आजकल उपलब्ध अनेक मैडिकल तकनीकों को अपना सकती हैं. जो भी करें खुल कर परिवार व पति की सलाह से करें. गुपचुप, बिना बताए कुछ भी न करें वरना आप मुसीबत में पड़ सकती हैं.

समझदारी से चुनें कोचिंग सैंटर

 
देशभर में कुकुरमुत्तों सरीखे उग रहे कोचिंग सैंटर भले ही आज शिक्षा व्यवस्था की खामियों का नतीजा हों लेकिन इन के चयन में बच्चे अकसर धोखा खा जाते हैं. ट्यूशन के तौर पर शुरू हो कर कोचिंग में तबदील हुए कोचिंग सैंटर को ले कर अभिभावक व बच्चे कैसे लें सही निर्णय, यह जानने के लिए पढि़ए यह लेख. 
 
बच्चों की पढ़ाई में कोचिंग सैंटरों का योगदान भी होता है. ज्यादातर बच्चे अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए कोचिंग सैंटर जाने लगे हैं. कोचिंग शिक्षा एक कारोबार की तरह हो गई है. बच्चों को अपने यहां लाने की होड़ में कोचिंग सैंटरों का बड़े पैमाने पर प्रचारप्रसार किया जाता है. प्रचार में ऐसा दिखाया जाता है जैसे कोचिंग सैंटर में पढ़ते ही बच्चा टौपर हो जाएगा. अब तो कक्षा 9 या 10 से ही कोचिंग का सिलसिला शुरू हो जाता है. 
सरकार ने कोचिंग पर पाबंदी लगाने के कुछ प्रयास किए पर कोचिंग संस्थान शिक्षा का एक अलग माध्यम बन कर उभरे हैं. देखा जाए तो जो पढ़ाई शुरुआत में ट्यूशन से शुरू होती है वह बड़ी कक्षाओं तक आतेआते कोचिंग में बदल जाती है. अभिभावक और बच्चों के लिए सब से जरूरी यह होता है कि वे सही कोचिंग का चुनाव करें. 
स्टडी मैटेरियल बेहतर हो
गांव, कसबे और शहर हर जगह हर तरह के कोचिंग सैंटर खुल गए हैं. जिस कैरियर में बच्चे ज्यादा जाना चाहते हैं उस की कोचिंग कक्षाएं खूब चल रही हैं. कई कोचिंग संस्थान अपना खुद का स्टडी मैटेरियल बनाते हैं. यह मैटेरियल प्रतियोगी परीक्षाओं में आने वाले प्रश्नों को ले कर तैयार किया जाता है. कोचिंग संस्थानों में बच्चों को प्रतियोगी परीक्षा में आने वाले सिलेबस के आधार पर शिक्षा दी जाती है. इस के लिए सही तरह से प्रैक्टिस भी कराई जाती है. कोचिंग की सफलता वहां पढ़ाने वाले टीचरों के ज्ञान पर निर्भर करती है. इसलिए कोचिंग का चुनाव करते वक्त सब से पहले यह देखें कि वहां पढ़ाने वाले टीचर कैसे हैं. कई बार कोचिंग पढ़ाने वालों में बडे़ नामों का प्रचारप्रसार किया जाता है पर जबकि वे 1-2 क्लास ही कभीकभार लेते हैं. 
रिजल्ट नहीं, गुणवत्ता देखें
कोचिंग संस्थान का प्रचारप्रसार करने में कई बार रिजल्ट को बढ़ाचढ़ा कर दिखाया जाता है. जिन बच्चों को टौपर लिस्ट में शामिल किया जाता है सही माने में वे वहां होते ही नहीं हैं. ऐसे में जरूरी है कि कोचिंग संस्थान के रिजल्ट और टौपर की लिस्ट को पैमाना न मानें. यह देखें कि वहां की पढ़ाई की गुणवत्ता क्या है. कोचिंग में पढ़ने वाले बच्चे अलगअलग तरह के होते हैं, कई बच्चे किसी बात को आसानी से समझ लेते हैं तो कई बच्चे उसे देर से समझते हैं. 
जो कोचिंग संस्थान ऐसे बच्चों को आगे लाने के लिए अपनी पढ़ाई के सिस्टम को बनाता है वह ठीक होता है. सही सिलेबस और स्टडी मैटेरियल के साथ ढंग से पढ़ाई करने से बच्चे को मनचाही सफलता मिल सकती है. 
प्रवेश से पहले पढ़ कर देखें
कोचिंग संस्थान में प्रवेश लेने से पहले छात्र को एक सप्ताह तक वहां पढ़ कर देखना चाहिए. इस के लिए कोचिंग चलाने वाले से बात कर लेनी चाहिए. आमतौर पर कोचिंग संचालक इस के लिए मना नहीं करते हैं. 
इस दौरान छात्र को यह समझ आ जाएगा कि वहां पढ़ाई कैसी हो रही है, वहां का माहौल कैसा है. छात्र ही नहीं, उस के अभिभावकों को भी कोचिंग के संचालक के संपर्क में रहना चाहिए. इस से छात्र के पढ़ने की जानकारी मिलती रहती है. इस से बच्चे के साथसाथ टीचर पर भी एक तरह का मनोवैज्ञानिक दबाव रहता है. 
पढ़ चुके बच्चों से करें बातचीत
कोचिंग के बारे में सब से अच्छी जानकारी वहां के पढ़ने वाले बच्चे दे सकते हैं. ऐसे में उचित यह रहेगा कि कोचिंग का चुनाव करने से पहले वहां पढ़ चुके बच्चों से जानकारी लें. हो सके तो यह देखें कि वहां का स्टडी मैटेरियल कैसा है. वे बच्चों को कैसे प्रैक्टिस कराते हैं. कई बार ज्यादा कमाई के चक्कर में कोचिंग संस्थान वाले एक ही क्लास में बहुत सारे बच्चों का ऐडमिशन ले लेते हैं. 
ऐसे में वे सभी बच्चों पर बराबर ध्यान नहीं दे पाते. आजकल कोचिंग कक्षा में बच्चों को आकर्षित करने के लिए पढ़ाई के आधुनिक साधनों का दिखावा भी किया जाता है. इस में क्लासरूम में एसी लगा होता है. स्पीकर और प्रोजैक्टर से पढ़ाई कराई जाती है. इस को स्मार्ट क्लास का नाम दिया जाता है. ये बातें बहुत महत्त्व नहीं देती हैं. 
अनुशासन से बेहतर माहौल
कोचिंग में हर तरह के बच्चे पढ़ने आते हैं. वे सभी किशोर उम्र के होते हैं. कई बार वे उम्र के नाजुक दौर में प्यार, मोहब्बत, दोस्ती और दुश्मनी जैसे रिश्तों में बंध जाते हैं. किशोर उम्र में ऐसी परेशानियों का प्रभाव सीधा पढ़ाई पर पड़ता है. ऐसे में जरूरी होता है कि कोचिंग कक्षा में अनुशासन पर सही तरह से ध्यान दिया जाता हो. जिस कोचिंग संस्थान में अनुशासन होगा वहां पर बच्चे पढ़ाई के दौरान ऐसी हरकतें नहीं कर पाते. कोचिंग संस्थानों की फीस भी उन के चुनाव में एक बड़ा पैमाना होती है. यह सोचना सही नहीं होता कि जो संस्थान ज्यादा फीस लेगा वह बेहतर पढ़ाई कराएगा. 
सैल्फ प्रैक्टिस दिलाए सफलता
सामान्यतौर पर बच्चा किसी विषय में ही कमजोर होता है. कोचिंग संस्थानों में कई विषय पढ़ाने का पैसा लिया जाता है. ऐसे में यह भी हो सकता है कि जिस विषय में बच्चा कमजोर हो उस विषय की ही कोचिंग उसे कराई जाए. इस में कम पैसे में बच्चे को मदद मिल सकेगी. 
कोचिंग की पढ़ाई का बच्चे को लाभ तभी मिलेगा जब वह कोचिंग में पढ़ाए गए विषयों की पूरी प्रैक्टिस घर में मेहनत से करे. बच्चे को खुद भी अपने लिए बिना हल किए पेपर की मदद से प्रश्नपत्र तैयार करना चाहिए. इस के जरिए कम से कम सप्ताह में 1 बार अपना टैस्ट लेना चाहिए. टैस्ट के लिए तय समय में ही प्रश्नपत्रों को हल करना चाहिए. बाद में प्रश्नों के सही जवाब देख कर पता लगाना चाहिए कि वह कितना सफल रहा है.      

रोजगार की दुनिया में डिगरी पर भारी पड़ते डिप्लोमा

वर्तमान शैक्षिक व्यवस्था में किताबी नहीं बल्कि व्यावहारिकता पर रोजगार की संभावनाएं बढ़ती हैं. लिहाजा, पुरानी डिगरी परंपरा को पीछे छोड़ डिप्लोमा शिक्षा रोजगारपरक भूमिका में आ चुकी है. देशविदेश में बढ़ती डिप्लोमा शिक्षा प्रणाली ने किस तरह से शैक्षणिक व्यवस्था में तबदीलियां की हैं, बता रहे हैं निनाद गौतम.
 
यह बहस हमेशा मौजूद रहेगी कि डिगरी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है या डिप्लोमा. हालांकि शैक्षणिक क्षेत्र में यह लगभग तय है कि डिगरियां, डिप्लोमा से ज्यादा महत्त्वपूर्ण होती हैं. डिगरियों को ज्यादा महत्त्व दिया जाता है. लेकिन व्यावहारिक दुनिया में यानी रोजगार यानी कैरियर की दुनिया में डिगरियों का वही वर्चस्व नहीं है जो अकादमिक स्तर पर है. शर्त यह है कि तमाम मामलों में रोजगार की दुनिया में डिप्लोमा को ज्यादा महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है. इन दिनों डिगरियों के मुकाबले डिप्लोमा कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण साबित हो रहे हैं क्योंकि डिगरियां जहां महज सैद्धांतिक ज्ञान देती हैं, वहीं डिप्लोमा भले सैद्धांतिक ज्ञान में पीछे रहे, लेकिन व्यावहारिक ज्ञान देने में ये कतई पीछे
नहीं रहते.
यही कारण है कि मझोले स्तर के रोजगार मसलन, इलैक्ट्रीशियन, मैडिकल रिप्रैजैंटेटिव, मैकेनिक, आटो मोबाइल कंपनियां वित्तीय विश्लेषण करने वाली कंपनियां, ट्रैवल एजेंसियां, होटल, फोटोग्राफी जैसे दर्जनों ऐसे क्षेत्र हैं जहां डिगरी वालों से ज्यादा महत्त्व डिप्लोमा वालों को दिया जाता है. क्योंकि डिप्लोमा कर के आए नौकरी के इच्छुक न सिर्फ कामकाजी की व्यावहारिक दुनिया से परिचित होते हैं बल्कि एक निश्चित श्रेणी तक वे काम जानते भी हैं. उन में डिगरी वालों के मुकाबले तेजी से काम सीखने की प्रतिभा होती है तथा उन में डिगरी वालों की तरह अकड़ नहीं होती. इसलिए ये टीम भावना के लिए ज्यादा माकूल बैठते हैं.
रोजगारपरक डिप्लोमा
आजकल वे तमाम लोग जिन्हें जल्द से जल्द रोजगार हासिल करना है, बजाय लंबे समय तक उच्च शिक्षा की डिगरी हासिल करने के, वे न्यूनतम पढ़ाई या फिर जिस क्षेत्र में जाना चाहते हैं, डिप्लोमा के लिए न्यूनतम पढ़ाई कर के व्यावहारिक दुनिया में आ जाते हैं. यही कारण है कि नई पीढ़ी में डिप्लोमा के प्रति रुझान ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है. रोजगार देने वाले मानते हैं कि डिप्लोमा होल्डर व्यावहारिक नजरिए से अपने विषय विशेष में कहीं ज्यादा फोकस्ड होते हैं. इसलिए ऐसे रोजगार में जहां सैद्धांतिक ज्ञान की बहुत ज्यादा दरकार न हो वहां डिगरी के मुकाबले डिप्लोमा कहीं ज्यादा सुरक्षित और गारंटी देने वाले हैं.
भारत के विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों से हर साल लगभग 32 लाख स्नातक निकलते हैं या दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय अर्थव्यवस्था में हर साल इतने स्नातक जुड़ जाते हैं. लेकिन हैरानी की बात यह है कि इन डिगरीधारियों में से महज कुछ प्रतिशत ही काम के होते हैं. 
जब केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि हमारी आईआईटीज तो इस पर हंगामा हो गया था लेकिन यही बात एन आर नारायणमूर्ति ने दोहराई कि हमारी आईआईटीज में महज 20 फीसदी काम के स्नातक होते हैं. बाकी सब सिर्फ इसलिए यहां ऐडमिशन पा जाते हैं क्योंकि कोचिंग ने इन्हें पास होने का मशीनी नुस्खा सिखा दिया है. इस पर हंगामा नहीं हुआ क्योंकि नारायणमूर्ति अपने पेशे के सफल नायक हैं और आप यह भी नहीं कह सकते कि वे देश के आईआईटीज को नहीं जानते. नारायणमूर्ति ने आईआईटी से ही अपनी अकादमिक पढ़ाई पूरी की है.
बढ़ती अहमियत
ये कुछ उदाहरण अचानक नहीं आए जो यह साबित करें कि डिप्लोमा कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो रहे हैं. 2009-10 में आई एक रिपोर्ट ने भी यही निष्कर्ष निकाला था कि दूसरे क्षेत्र के स्नातकों को तो छोडि़ए, इंजीनियरिंग जैसे विषय के स्नातकों में भी महज 15 प्रतिशत ही ऐसे होते हैं जो डिगरी हासिल करते ही नौकरी के लायक होते हैं. एन आर नारायणमूर्ति के बाद इनफोसिस के दूसरे महत्त्वपूर्ण सदस्य नंदन नीलकेणी ने भी कहा है : 
‘‘हम अजीब संकट से गुजर रहे हैं. एक तरफ हमारे यहां बड़े पैमाने पर पढ़ेलिखे डिगरीधारी स्नातकों की भरमार है, दूसरी तरफ योग्य लोगों का जबरदस्त अभाव है.’’
देश में किस तरीके से रोजगार और जरूरतमंद स्किल्ड वर्कफोर्स के बीच विरोधाभास की स्थिति है इस का अंदाजा सीआईआई और श्रम मंत्रालय की एक रिपोर्ट से भी लगाया जा सकता है.
जरूरी क्यों डिप्लोमा
रिपोर्ट के मुताबिक, देश में डेढ़ से पौने 2 करोड़ स्किल्ड वर्कफोर्स यानी तकनीकी रूप से कामकाज में दक्ष लोगों की जरूरत है. दूसरी तरफ, देश में 3 करोड़ से ज्यादा महज सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ही बेरोजगार हैं. अगर देश में जितने कुशल लोगों की जरूरत है वे हासिल हो जाएं तो बेरोजगारी की मौजूदा दर में 65 से
70 फीसदी की कमी आ सकती है तथा हमारे जीडीपी में 3 से 3.5 लाख करोड़ रुपए की जीडीपी की बढ़ोत्तरी हो सकती है. इस से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारी पढ़ाई और व्यावहारिक जरूरतों के बीच कितना बड़ा गैप है.
इस गैप को किसी हद तक डिप्लोमा दूर कर सकते हैं क्योंकि डिप्लोमा न सिर्फ व्यावहारिक कामकाजी शिक्षा देते हैं बल्कि डिप्लोमा कम समय में आप को रोजगार के योग्य बना देते हैं. ज्यादातर मामलों में तो डिगरी के मुकाबले ये सस्ते भी पड़ते हैं. यही कारण है कि डिप्लोमा अब लोगों को अपनी तरफ खींचने लगे हैं. रोजगार पाने वालों को भी और रोजगार देने वालों को भी. वास्तव में नौकरी के लिए जरूरी योग्यता महज डिगरी से नहीं आती. यह एटीट्यूड का हिस्सा भी होती है. यह ज्ञान और सजगता का मेल होती है जिस के चलते नौकरी हेतु जरूरी योग्यता का विकास होता है. यह एटीट्यूड भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि कार्य के लिए जरूरी नौलेज और विभिन्न तरह की कुशलताएं. यह कुशलता छात्रों में डिगरी के मुकाबले डिप्लोमा में जल्दी आती है. शायद इसलिए क्योंकि डिगरी देने वाले विश्वविद्यालय डिगरी को महानता के बोझ से लादे रहते हैं. जबकि डिप्लोमा में महानता का कोई हैंगओवर नहीं होता. इसीलिए डिप्लोमा ज्यादा व्यावहारिक हैं. ये रोजगार की दुनिया में ज्यादा काबिले कुबूल हैं.
पाठ्यक्रम में शुमार
यह डिप्लोमा पाठ्यक्रमों का बढ़ता महत्त्व ही है कि आज शायद ही कोई ऐसा विश्वविद्यालय हो जहां एक दर्जन से कम डिप्लोमा पाठ्यक्रम मौजूद न हों. दरअसल, विश्वविद्यालय भी समझ गए हैं कि गरिमा और सम्मान के लबादे भले डिगरी ओढ़े रहें मगर असली फायदा समाज का तो डिप्लोमा से ही होता है. इसलिए डिप्लोमा विश्वविद्यालयों को भी खूब आकर्षित कर रहे हैं. आज की तारीख में डिगरी के साथ तमाम विश्वविद्यालय और शैक्षणिक संस्थान महत्त्वपूर्ण डिप्लोमा पाठ्यक्रम भी करा रहे हैं. दरअसल, शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण बनाने का यही एक जरिया है कि डिप्लोमा और डिगरी पाठ्यक्रम साथसाथ चलाए जाएं जिस से ये दोनों अलगअलग दुनिया का प्रतिनिधित्व न करें.
अकेले डिगरी काफी नहीं
देश में वोकेशनल शिक्षा की पृष्ठभूमि में पौलिटैक्निक्स का ऐतिहासिक महत्त्व है. आईटीआई ने देश को जितने प्रशिक्षित कामगार दिए हैं उस से ज्यादा शायद ही किसी और ने अब तक के इतिहास में दिए हों. आईटीआई से निकले छात्र भले डिगरियों के लिहाज से बहुत चमकदार शैक्षणिक प्रोफाइल न रखते हों, फिर भी देश की उत्पादकता और औद्योगिक परिदृश्य में इन का जबरदस्त योगदान है. हालांकि यह भी सही है कि सूचना प्रौद्योगिकी के श्रम परिदृश्य में छाने के पहले तक इस वोकेशनल एजुकेशन का उतना महत्त्व नहीं था. मगर पिछले कुछ दशकों में जब से सूचना प्रौद्योगिकी अर्थव्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण जरिया बनी है, इस ने वाकई नए सिरे से और व्यापक रूप से अपना महत्त्व हासिल किया है.
सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के बाद सेवा क्षेत्र में जबरदस्त विस्तार हुआ है और यह विस्तार दोनों ही आयाम में हुआ है यानी अवधारणा के स्तर पर और व्यवहारिक उपयोगिता के स्तर पर. इसी से शिक्षा का एक बिलकुल नए किस्म का विकास संभव हुआ है और इस के महत्त्व के नए माने भी उभरे हैं. ज्यादा साफ और सरल शब्दों में कहें तो कैरियर ओरिएंटेड या नौकरी दिलाने वाले पाठ्यक्रम पर नए सिरे से जोर दिया गया है. 
ऐसा नहीं है कि आज डिगरी बेमतलब हो गई है, डिगरी का आज भी महत्त्व है लेकिन अब अकेली डिगरी को कोई बहुत ज्यादा भाव नहीं मिलता. आज डिगरी तब तक महज औपचारिकता है जब तक उस के साथ व्यावहारिक ज्ञान देने वाला कोई डिप्लोमा भी न जुड़ा हो, खासकर बड़े और मैट्रो शहरों में.
नौकरी की गारंटी
इस समय 145 से ज्यादा विभिन्न तरह के डिप्लोमा पाठ्यक्रम अलगअलग विश्वविद्यालयों/संस्थानों से संचालित हो रहे हैं और उन में से कोई भी ऐसा डिप्लोमा नहीं है जो नौकरी दिलाने में सक्षम न हो या दूसरे शब्दों में कहें तो नौकरी दिलवाने में महत्त्वपूर्ण न हो. फिर भी अगर डिप्लोमाओं की इस भारीभरकम सूची में से उन सब से महत्त्वपूर्ण डिप्लोमाओं को चुनना हो जिन्हें हासिल करने के बाद नौकरी की लगभग शतप्रतिशत गारंटी होती है तो ऐसे डिप्लोमा 25 से ज्यादा हैं. जी हां, विभिन्न किस्म के डिप्लोमा पाठ्यक्रमों में ये ऐसे पाठ्यक्रम हैं जिन में नौकरी की लगभग गारंटी है. अगर आप किसी वजह से नौकरी नहीं करते या नहीं हासिल कर पाते तो भी यह गारंटी है कि ये डिप्लोमा पाठ्यक्रम आप को शानदार ए श्रेणी का प्रोफैशनल टैग प्रदान करते हैं. आमतौर पर ये तमाम डिप्लोमा पाठ्यक्रम स्नातक स्तर या उस के बाद के हैं.
अगर इन्हें विभिन्न क्षेत्रों के आधार पर वर्गीकृत करें तो इन 25 डिप्लोमा पाठ्यक्रमों में से 10 पाठ्यक्रम ऐसे हैं जिन्हें किसी भी क्षेत्र का स्नातक सहजता से कर सकता है और 15 ऐसे डिप्लोमा पाठ्यक्रम हैं जिन में कला और मानविकी, विज्ञान और वाणिज्य क्षेत्र के स्नातक डिप्लोमा हासिल कर के महत्त्वपूर्ण ऊंचाई तक पहुंच सकते हैं. विशेष तौर पर कंप्यूटर के क्षेत्र में ये डिप्लोमा पाठ्यक्रम अनिवार्य हो गए हैं.
नौकरी के लिहाज से जो डिप्लोमा पाठ्यक्रम हौट केक हैं, उन में 10 वे पाठ्यक्रम हैं जिन्हें किसी भी क्षेत्र का स्नातक कर सकता है, ऐसे क्षेत्र हैं एडवरटाइजिंग/पीआर, सेल्स ऐंड मार्केटिंग, ट्रैवल ऐंड टूरिज्म, औफिस मैनेजमैंट, कंप्यूटर अप्लीकेशंस, फिटनैस ऐंड योगा, काउंसलिंग ऐंड गाइडैंस, फूड ऐंड न्यूट्रीशन, एनीमेशन और जर्नलिज्म. इन्हें किसी भी क्षेत्र का स्नातक कर सकता है और करने के बाद उस के नौकरी हासिल करने के 100 प्रतिशत अवसर मौजूद होते हैं.
अलगअलग क्षेत्र विशेष के डिप्लोमा पाठ्यक्रमों में कला और मानविकी के क्षेत्र में जो डिप्लोमा नौकरी दिलाने की गारंटी देते हैं उन में क्रिएटिव राइटिंग, डिजाइन, ट्रांसलेशन, लैंग्वेज और पब्लिश्ंिग हैं. जबकि विज्ञान के क्षेत्र में बायोइन्फौर्मेटिक्स, सर्विस इंजीनियरिंग, क्वालिटी इंश्योरैंस, आईपी सर्टिफिकेशन, क्लीनिकल रिसर्च जैसे डिप्लोमा शामिल हैं. इसी तरह वाणिज्य के क्षेत्र में ई-कौमर्स ऐंड अकाउंटिंग, टैक्सेशन, इंश्योरैंस, फाइनैंशियल प्लानिंग, इन्वैस्टमैंट एडवायजरी आदि शामिल हैं.
हालांकि यह कहना कभी भी सही नहीं होगा कि एक दिन व्यावहारिकता के तकाजे के चलते डिगरी पाठ्यक्रम अर्थहीन हो जाएंगे. लेकिन इस बात में कोई दोराय नहीं है कि जिस तरह से पढ़ाईलिखाई में व्यावहारिकता का पुट बढ़ा है, उसे देखते हुए आज डिप्लोमा डिगरी से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गए हैं.

भारतभूमि युगेयुगे

बंगला मिला न्यारा
राजनीति में कब कौन क्या बन जाए, कहना मुश्किल है. लेकिन मनमोहन सिंह अगले प्रधानमंत्री नहीं होंगे, यह जरूर दिखने लगा है. दिल्ली के 3, मोतीलाल नेहरू मार्ग का एक बंगला इन दिनों सजायासंवारा जा रहा है क्योंकि उस में 30 अप्रैल के बाद कभी भी मनमोहन सिंह रहने आ सकते हैं. उन की पत्नी गुरुशरण कौर ने भी इस बाबत हामी भर दी है.
वर्ष 1920 में बने इस बंगले में बीती फरवरी तक शीला दीक्षित रहती थीं. साढ़े 3 एकड़ में फैले इस शानदार बंगले में 4 शयनकक्ष हैं, दफ्तर है और एक जैव विविधता पार्क है. बंगले का सर्वे कर सुरक्षा एजेंसियां सुनिश्चित कर चुकी हैं कि वह सुरक्षा के लिहाज से ठीक है. 10 साल तक देश संभाल चुके मनमोहन सिंह को तय है कि यह बंगला रास आएगा लेकिन उन्हें 7, रेसकोर्स वाले बंगले की याद आती रहेगी.
 
धर्मगुरुओं की राजनीति
जनता तो चाहने लगी है लेकिन वे राजनेता ही हैं जो राजनीति को धर्म के मकड़जाल से मुक्त नहीं होने देना चाहते. मुद्दत बाद नेहरूगांधी परिवार से कोई शाही इमाम के यहां गया तो तुरंत फतवा जारी हो गया कि मुसलमान कांगे्रस को वोट दें.
यह चर्चित डील वैसी ही है जैसी रामदेव व भाजपा के बीच हुई है. वोट मांगने का तरीका अलग है. इस के बाद भी कोई लोकतंत्र में धर्मनिरपेक्षता की बात करे तो उसे मूर्ख ही कहा जा सकता है. विकास, रोजगार, बुनियादी सहूलियतें जैसी बातों और वादों की हकीकत को लोग नहीं देख रहे कि लड़ाई सुशासन देने सेवा करने या भ्रष्टाचार मिटाने के लिए नहीं, बल्कि धर्म थोपने के लिए लड़ी जा रही है जिस से लोग हर स्तर पर कंगाल होते रहे हैं. इसलिए, वोट जरूर डालें.
 
मुलायम की परेशानी
जब भी मुलायम सिंह परेशान होते हैं तो वे तीसरे मोरचे का बेसुरा राग अलापने लगते हैं जो उन के अचेतन मन में गहरे तक बैठ चुका है. तीसरा मोरचा एक आदर्श परिकल्पना है जिस के बारे में सोचते रहने से फायदा यह होता है कि मुलायम भी नरेंद्र मोदी की तरह खुद को प्रधानमंत्री पद की कुरसी पर बैठा पाते हैं.
राजनीति चुनाव के दिनों में रेखागणित की तरह हो जाती  है जिस में अगर, मगर और मान लो जैसे सूत्रों से काम चलाना पड़ता है. इस में भी दिक्कत यह है कि अगर एनडीए सत्ता में आया तो उत्तर प्रदेश में भाजपा दोबारा मजबूत हो जाएगी जिस से अगली विधानसभा में सपा का दबदबा दरक जाएगा.
 
कहां गए केजरीवाल 
चुनाव के ऐलान के वक्त हीरो बना दिए गए आम आदमी पार्टी यानी ‘आप’ के मुखिया अरविंद केजरीवाल को समझ आ गया होगा कि मीडिया जब सजा देता है तो आदमी कहीं का नहीं रह पाता. न्यूज चैनल्स पर चौबीसों घंटे छाए रहने वाले केजरीवाल छोटे परदे से गायब हुए तो इसे मीडिया की साजिश ही कहा जाएगा कि उन्हें तबतब ही दिखाया जबजब किसी ने थप्पड़ मारा.
ऐसा दुनिया में हर कहीं होता है कि सड़क चलते आदमी को जनता सत्ता दे देती है. मीडिया निष्पक्ष न हो तो विवादों और सूचनाओं का आदानप्रदान महानगरों के यातायात सरीखा हो जाता है जिस में वाहनों की भीड़ तो दिखती है पर चालकों का चेहरा नजर नहीं आता. ‘आप’ के प्रत्याशी तो हर कहीं दिख रहे हैं पर केजरीवाल से परहेज किया जा रहा है.
-भारत भूषण श्रीवास्तव द्य
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