धर्म के ठेकेदारों ने अपनी दुकान चलाने के लिए ऐसे प्रतीकों और नंबरों को ईजाद किया है कि धर्मांध लोग आज बढ़चढ़ कर बोलियां लगा कर अपने को धार्मिक होने का परिचय दे रहे हैं. जबकि धार्मिक प्रतीकों और चिह्नों के पीछे के पागलपन और धार्मिक जड़ता के चलते ही हम पिछड़े हैं. पढि़ए श्रीप्रकाश श्रीवास्तव का लेख.
 
धर्म अफीम का काम करता है. इस में दोराय नहीं कि जड़बुद्धि जनता के लिए धर्म सिर्फ मंदिर या मसजिद तक सीमित नहीं रहता बल्कि इस से इतर प्रतीकों व पहचान के लिए भी मारामारी होती है. हाल में, बनारस में एक हिंदू पान विक्रेता को 10 रुपए का एक नोट मिला. उस नोट का नंबर 786786 था. फिर क्या, उस ने अपना दिमाग दौड़ाया. मुसलमानों के बीच उस की चर्चा हो गई. 
बात जंगल में आग की तरह फैल गई. मजेदार बात यह थी कि उस 10 रुपए के नोट को लेने के लिए बाकायदा बोली लगनी शुरू हो गई. उस की कीमत एक मुसलमान ने 25 हजार रुपए तक लगाई क्योंकि उन के अनुसार यह पवित्र नंबर है. जिस के पास होगा, उस पर निश्चय ही खुदा की इनायत बरसेगी. यह कुछ इस तरह से है, जैसे महाभारत में दुर्योधन ने यादव सेना मांगी तो अर्जुन ने कृष्ण को. अब जिस के पास साक्षात ईश्वर होंगे, उसे भला कौन हरा पाएगा. लगता है ऐसा ही वह मुसलमान 10 का नोट 25 हजार में लेने के वक्त सोचता होगा? यह बात अलग है कि खुदा सचमुच में किस का साथ दे रहा है. उस 10 के नोट के वारिस का जो 10 के बदले 25 हजार पा कर मालामाल हो रहा है या वह जो 25 हजार में खरीद कर अपनी तिजोरी खाली कर रहा है.
कुछ साल पहले बकरीद के अवसर पर बकरे की खरीदफरोख्त करते समय एक ऐसा बकरा भी बिकने के लिए आया जिस की पीठ पर ‘अल्लाह’ लिखा था. कीमत लगाई गई 2 लाख रुपए. सोचने वाली बात यह है कि अगर 2 लाख रुपए में ऐसा बकरा खरीद कर कोई खुद को खुदा का सच्चा खिदमतगार साबित करना चाहता है तो वह क्यों नहीं, जिस के पास पहले से यह बकरा मौजूद है. ऐसे बकरे की कुरबानी से कोई सच्चा मुसलमान बनता है तो वह व्यापारी क्यों नहीं बनना चाहता?
हिंदुओं में भी कभी पपीते में गणेशजी की प्रतिमा दिखती है तो कभी दीवारों पर साईंबाबा की तसवीर उभरती है. प्रचार करने पर खासी भीड़ जुटती है. भीड़ जुटी तो धर्म की दुकानदारी भी चमकने लगती है. दरअसल, गणेश दिखे या साईंबाबा, मुख्य मकसद है जड़बुद्धि जनता को चमत्कार में उलझा कर उन का आर्थिक शोषण करना. इस में पंडेपुजारी सफल भी होते हैं.
सवाल इस बात का है कि अगर  10 रुपए के नोट में 786 नंबर हो या बकरे में अल्लाह का नाम उभर कर आता है या फिर गणेश की प्रतिमा पपीते में उभरती है तो क्या चमत्कार होने वाला होता है?
क्या जड़बुद्धि जनता इस बारे में कुछ बताएगी? मान लिया जाए कि 786 वाले नोट को 25 हजार रुपए में खरीद भी लिया जाए, तो उस के नए मालिक की जिंदगी में क्या परिवर्तन होगा? दरअसल, बेचने की मानसिकता के पीछे एक ही तर्क है, किसी तरह धर्म के नाम पर जड़बुद्धि जनता को बेवकूफ बना कर धन ऐंठा जाए. ठीक वैसे ही, जैसे ज्योतिषी व पंडेपुजारी मंदिर में बैठ कर ऐंठ रहे हैं. 
आप की रोजाना की भावी दिनचर्या के बारे में राशि के आधार पर बताने वाले या फिर ढोंगी या तांत्रिकों की गिरफ्तारी की खबर आएदिन अखबारों या टैलीविजन में देखतेसुनते रहते हैं. दूसरों के बारे में भविष्यवाणी करने वाले क्या उन ज्योतिषियों को नहीं पता था कि आज वे गिरफ्तार होने वाले हैं, जब उन्हें अपने ही बारे में पता नहीं तो वे दूसरों के बारे में कैसी भविष्यवाणी करते होंगे?
धर्म की दुकानदारी
धर्म एक संवेदनशील मामला है क्योंकि इस से जुड़ा आस्था का न सिर होता है न पैर. कुछ वर्ष पहले रूस में गीता पर प्रतिबंध लगा, जड़बुद्धि जनता में रोष फैल गया. अमृतसर मंदिर किसी और का बता दिया गया, सिख समाज में विरोध शुरू हो गया. ईश्वर भले ही परेशान न हो, जड़बुद्धि समाज अवश्य परेशान हो जाता है. क्यों? साफ जाहिर है उस के दिमाग में भूसा भरा है या फिर सोचीसमझी कुछ चालाक किस्म के लोगों की नीति है जो जड़बुद्धि लोगों की धार्मिक भावनाएं भड़का कर उन से अपना स्वार्थ सिद्ध करती है.
कुछ वर्ष पहले जब गणेश की प्रतिमाएं दूध पी रही थीं तब ऐसी ही जड़ मानसिकता काम कर रही थी. बिना वैज्ञानिक कारण जाने लोगों ने प्रतिमा को दूध पिलाना शुरू कर दिया. कई वर्ष पहले काशी में एक पुराने गिरजाघर की मीनार से शाम के वक्त धुआं निकलता था, जिसे देखने के लिए हजारों की भीड़ सड़क पर जमा हो जाती थी. अफवाह फैली कि यह धुआं शुभ नहीं व लोगों ने धार्मिक ग्रंथों का हवाला दे कर अशुभ संकेतों की पुष्टि का दावा किया. इस में कितनी सचाई थी, यह तो वही बता सकते थे. हां, इस घटना से अवश्य जनता के बीच भय व्याप्त हो गया. बाद में बीएचयू के वैज्ञानिकों की टीम ने जांचपड़ताल कर के बताया कि शाम को उठने वाला यह धुआं नहीं, बल्कि कीटपतंगों का झुंड था, जो दूर से धुएं का एहसास कराता था.
चांदतारा हो या ॐ, हरा रंग हो या भगवा, इन प्रतीकों से भले ही हम अपनी अलग पहचान बनाते हों, और यह सोचते हों कि इन्हें धारण करने से ईश्वर खुश होता है लेकिन है यह महज अंधविश्वास. 
पाकिस्तान में जगहजगह मसजिदों में आतंकवादी हमले होते हैं, वहीं भारत के मंदिरों में भी हुए, क्या बिगाड़ सके ईश्वर उन का? उलटे आतंकवादी मजे से सांसारिक सुखों को भोग रहे हैं और वे जो इन धार्मिक स्थलों में मारे गए उन के परिजन आज तक कथित ईश्वर से न्याय की उम्मीद कर रहे हैं. ऐसे ईश्वर को क्या कहा जाए जो अपने भक्तों के लिए भी कान में रूई ठूंसे हुए है. अनेक लोग अपने गले में धार्मिक चिह्नों को लटकाए रहते हैं. इस के बाद भी दुर्घटनाओं में मारे जाते हैं.
धार्मिक प्रतीकों व चिह्नों के पीछे भागने वाले समाज के लिए तरक्की के रास्ते बंद होते हैं. हमारी 2 हजार साल की गुलामी का कारण यही धार्मिक जड़ता थी. क्या हम इस से कभी मुक्त होंगे?
इस मानसिकता को बचाए रखने के लिए धर्म के दुकानदार मेहनत करते हैं और झूठे किस्से व कहानियां सुनाते हैं. जबकि उन के पास समय है फिर भी वे कोई दूसरा काम नहीं करते, धर्म की कमाई खाते हैं.      

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...