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पाठकों की समस्याएं

मैं 18 वर्षीय लड़की हूं. मेरी समस्या यह है कि मेरे मम्मीपापा आपस में हमेशा झगड़ते रहते हैं. इस बार तो उन का झगड़ा इस हद तक बढ़ गया कि मम्मी घर छोड़ कर चली गई हैं. मुझे समझ नहीं आ रहा कि मैं इस स्थिति में क्या करूं कि मम्मीपापा का झगड़ा खत्म हो जाए और मम्मी घर वापस आ जाएं?
मातापिता के आपसी झगड़ों से बच्चों का परेशान होना स्वाभाविक है. आप समझदार हैं, इसलिए सब से पहले मम्मीपापा के झगड़े की वजह जानने की कोशिश करें. पापा से इस बारे में बात कर के मम्मी को समझाबुझा कर घर वापस लाएं और समझौता कराएं.
अगर मम्मी की गलती हो तो उन्हें भी समझाएं कि उन का आपस में झगड़ना आप को परेशान और डिस्टर्ब करता है और इतने सालों से इकट्ठे रहते हुए इस उम्र में घर छोड़ना उन्हें शोभा नहीं देता. आप इस बारे में अपने घर के बड़े बुजुर्ग की मदद भी ले सकती हैं.
मैं एक विवाहित पुरुष हूं. मैं पिछले 10 वर्षों से प्रीमैच्योर इजेक्यूलेशन की समस्या से पीडि़त हूं जिस के कारण मेरे और पत्नी के बीच कोई शारीरिक संबंध नहीं हैं. मैं क्या करूं, सलाह दीजिए?
प्रीमैच्योर इजेक्यूलेशन का अर्थ यह नहीं कि आप सैक्स नहीं कर सकते. सैक्स के दौरान उत्तेजना से वीर्य का स्खलन समय से पूर्व होना प्रीमेच्योर इजेक्यूलेशन कहलाता है, जिस का कारक कई बार किशोरावस्था में गलत संगति में पड़ना भी होता है. आप की समस्या का मैडिकल और नौन मैडिकल दोनों इलाज संभव हो सकते हैं. सैक्स के दौरान रिलैक्स करें और यह सोचें कि आप का पार्टनर आप से प्यार करता है न कि आप के और्गेज्म के समय पर ध्यान देता है.
आप इस समस्या के बारे में पत्नी से खुल कर बात करें और फोरप्ले को ऐंजौय करें. इस के अलावा आप यूरोलौजिस्ट साइकोलौजिस्ट व सैक्सोलौजिस्ट से भी संपर्क करें ताकि आप दोनों के बीच बेहतर संबंधों को नई दिशा मिल सके.
मैं 12वीं पास लड़की हूं. मेरी हाइट 5 फुट 5 इंच है और रंग गोरा है. मैं एअरहोस्टेस बनना चाहती हूं. मेरी समस्या यह है कि कुछ माह पूर्व ही मेरा विवाह हुआ है और मेरे पति अभी अमेरिका में रहते हैं. 7-8 माह बाद मैं भी वहीं चली जाऊंगी. मैं चाहती हूं कि वहां जा कर अपने एअरहोस्टेस बनने के सपने को पूरा करूं. मुझे बताइए कि मैं वहां जा कर कौन सा कोर्स करूं और क्या मुझे वहां नौकरी मिलेगी?
आप युवा हैं, पढ़ीलिखी हैं, आकर्षक हैं तो आप को एअरहोस्टेस बनने में कोई समस्या पेश नहीं आएगी. इस क्षेत्र में आने के लिए आप को केबिन कू्र का डिप्लोमा या एफएए यानी फेडरेशन एविएशन सर्टिफिकेट प्राप्त करना होगा. अगर आप की अंगरेजी भाषा के अलावा अन्य विदेशी भाषाओं में भी अच्छी पकड़ है तो आप के लिए इस कैरियर में भविष्य अधिक उज्ज्वल होगा. केबिन कू्र या एफएए सर्टिफिकेट कोर्स के अंतर्गत आप को यात्रियों के साथ व्यवहार, आतंकवाद, फर्स्टएड, जल, वायु व अग्नि से संबंधित आपातस्थितियों से कैसे निबटा जाए, इन विषयों की जानकारी दी जाती है. इस कोर्स के बाद आप वहां की एअरलाइंस में नौकरी के लिए आवेदन कर सकती हैं.
मैं 25 वर्षीय विवाहित महिला हूं. मेरी 8 वर्षीय बेटी है. मेरे पति नोएडा में नौकरी करते हैं और सप्ताहांत शनिवार व रविवार को ही घर पर आते हैं. मैं दिल्ली में अपने ससुराल वालों के साथ रहती हूं. मेरी शिकायत यह है कि मेरे पति मुझे कहीं घुमानेफिराने नहीं ले जाते. हमेशा बहाना बना कर टाल देते हैं. इन दिनों मेरा वजन भी कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है. कहीं उन की मुझ से दूरी बनाने का कारण मेरा मोटापा तो नहीं है? मुझे वजन कम करने के लिए कुछ घरेलू उपाय बताएं.
सप्ताह में 5 दिन घरपरिवार से दूर रहने के बाद शायद आप के पति अपना बाकी समय पूरे परिवार के साथ बिताना चाहते हैं, इसलिए वे आप के बाहर घूमनेफिरने की बात टाल देते हैं. लेकिन आप स्वयं को आकर्षक दिखाने के लिए अपना वजन कम करें, इस के लिए शारीरिक व्यायाम और संतुलित भोजन शैली अपनाएं. खुराक में तैलीय व मसालेदार भोजन के बजाय ताजे फल व सब्जियों को शामिल करें.
जब आप शारीरिक रूप से फिट होंगी और आकर्षक दिखेंगी तो पति खुदबखुद आप की ओर आकर्षित होंगे और आप के साथ अंतरंग पल बिताएंगे.
मैं 23 वर्षीय महिला हूं. 3 वर्ष पूर्व मेरी शादी हुई थी. पति की तरफ से कुछ शारीरिक समस्या के कारण मैं शारीरिक संबंध ठीक से नहीं रख पाई. कुछ समय बाद मेरी मुलाकात एक लड़के से हुई. मुझे उस से प्यार हो गया और हम दोनों ने छिप कर शादी भी कर ली. हम दोनों के बीच शारीरिक संबंध भी हैं लेकिन समस्या यह है कि मैं गर्भवती होऊंगी तो समाज व मेरे परिवार वाले प्रश्न करेंगे कि ऐसा कैसे संभव हुआ जबकि मेरे पति इस के लिए अक्षम हैं. इस परिस्थिति में मैं क्या करूं? समस्या का समाधान कीजिए.
पहले पति के होते हुए किसी अन्य से शारीरिक संबंध रखना और छिप कर विवाह कर लेना दोनों ही गलत और अमान्य हैं. आप ने परिवारवालों को भी इस बारे में कुछ नहीं बताया. आप के समक्ष 2 विकल्प हैं, या तो आप अपने पति से तलाक ले लें और समाज व परिवार के सामने अपने प्रेमी से विवाह करें. दूसरा, अगर आप अपनी गलती को सुधारना चाहती हैं और पति के साथ ही रहना चाहती हैं तो आजकल उपलब्ध अनेक मैडिकल तकनीकों को अपना सकती हैं. जो भी करें खुल कर परिवार व पति की सलाह से करें. गुपचुप, बिना बताए कुछ भी न करें वरना आप मुसीबत में पड़ सकती हैं.

समझदारी से चुनें कोचिंग सैंटर

 
देशभर में कुकुरमुत्तों सरीखे उग रहे कोचिंग सैंटर भले ही आज शिक्षा व्यवस्था की खामियों का नतीजा हों लेकिन इन के चयन में बच्चे अकसर धोखा खा जाते हैं. ट्यूशन के तौर पर शुरू हो कर कोचिंग में तबदील हुए कोचिंग सैंटर को ले कर अभिभावक व बच्चे कैसे लें सही निर्णय, यह जानने के लिए पढि़ए यह लेख. 
 
बच्चों की पढ़ाई में कोचिंग सैंटरों का योगदान भी होता है. ज्यादातर बच्चे अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए कोचिंग सैंटर जाने लगे हैं. कोचिंग शिक्षा एक कारोबार की तरह हो गई है. बच्चों को अपने यहां लाने की होड़ में कोचिंग सैंटरों का बड़े पैमाने पर प्रचारप्रसार किया जाता है. प्रचार में ऐसा दिखाया जाता है जैसे कोचिंग सैंटर में पढ़ते ही बच्चा टौपर हो जाएगा. अब तो कक्षा 9 या 10 से ही कोचिंग का सिलसिला शुरू हो जाता है. 
सरकार ने कोचिंग पर पाबंदी लगाने के कुछ प्रयास किए पर कोचिंग संस्थान शिक्षा का एक अलग माध्यम बन कर उभरे हैं. देखा जाए तो जो पढ़ाई शुरुआत में ट्यूशन से शुरू होती है वह बड़ी कक्षाओं तक आतेआते कोचिंग में बदल जाती है. अभिभावक और बच्चों के लिए सब से जरूरी यह होता है कि वे सही कोचिंग का चुनाव करें. 
स्टडी मैटेरियल बेहतर हो
गांव, कसबे और शहर हर जगह हर तरह के कोचिंग सैंटर खुल गए हैं. जिस कैरियर में बच्चे ज्यादा जाना चाहते हैं उस की कोचिंग कक्षाएं खूब चल रही हैं. कई कोचिंग संस्थान अपना खुद का स्टडी मैटेरियल बनाते हैं. यह मैटेरियल प्रतियोगी परीक्षाओं में आने वाले प्रश्नों को ले कर तैयार किया जाता है. कोचिंग संस्थानों में बच्चों को प्रतियोगी परीक्षा में आने वाले सिलेबस के आधार पर शिक्षा दी जाती है. इस के लिए सही तरह से प्रैक्टिस भी कराई जाती है. कोचिंग की सफलता वहां पढ़ाने वाले टीचरों के ज्ञान पर निर्भर करती है. इसलिए कोचिंग का चुनाव करते वक्त सब से पहले यह देखें कि वहां पढ़ाने वाले टीचर कैसे हैं. कई बार कोचिंग पढ़ाने वालों में बडे़ नामों का प्रचारप्रसार किया जाता है पर जबकि वे 1-2 क्लास ही कभीकभार लेते हैं. 
रिजल्ट नहीं, गुणवत्ता देखें
कोचिंग संस्थान का प्रचारप्रसार करने में कई बार रिजल्ट को बढ़ाचढ़ा कर दिखाया जाता है. जिन बच्चों को टौपर लिस्ट में शामिल किया जाता है सही माने में वे वहां होते ही नहीं हैं. ऐसे में जरूरी है कि कोचिंग संस्थान के रिजल्ट और टौपर की लिस्ट को पैमाना न मानें. यह देखें कि वहां की पढ़ाई की गुणवत्ता क्या है. कोचिंग में पढ़ने वाले बच्चे अलगअलग तरह के होते हैं, कई बच्चे किसी बात को आसानी से समझ लेते हैं तो कई बच्चे उसे देर से समझते हैं. 
जो कोचिंग संस्थान ऐसे बच्चों को आगे लाने के लिए अपनी पढ़ाई के सिस्टम को बनाता है वह ठीक होता है. सही सिलेबस और स्टडी मैटेरियल के साथ ढंग से पढ़ाई करने से बच्चे को मनचाही सफलता मिल सकती है. 
प्रवेश से पहले पढ़ कर देखें
कोचिंग संस्थान में प्रवेश लेने से पहले छात्र को एक सप्ताह तक वहां पढ़ कर देखना चाहिए. इस के लिए कोचिंग चलाने वाले से बात कर लेनी चाहिए. आमतौर पर कोचिंग संचालक इस के लिए मना नहीं करते हैं. 
इस दौरान छात्र को यह समझ आ जाएगा कि वहां पढ़ाई कैसी हो रही है, वहां का माहौल कैसा है. छात्र ही नहीं, उस के अभिभावकों को भी कोचिंग के संचालक के संपर्क में रहना चाहिए. इस से छात्र के पढ़ने की जानकारी मिलती रहती है. इस से बच्चे के साथसाथ टीचर पर भी एक तरह का मनोवैज्ञानिक दबाव रहता है. 
पढ़ चुके बच्चों से करें बातचीत
कोचिंग के बारे में सब से अच्छी जानकारी वहां के पढ़ने वाले बच्चे दे सकते हैं. ऐसे में उचित यह रहेगा कि कोचिंग का चुनाव करने से पहले वहां पढ़ चुके बच्चों से जानकारी लें. हो सके तो यह देखें कि वहां का स्टडी मैटेरियल कैसा है. वे बच्चों को कैसे प्रैक्टिस कराते हैं. कई बार ज्यादा कमाई के चक्कर में कोचिंग संस्थान वाले एक ही क्लास में बहुत सारे बच्चों का ऐडमिशन ले लेते हैं. 
ऐसे में वे सभी बच्चों पर बराबर ध्यान नहीं दे पाते. आजकल कोचिंग कक्षा में बच्चों को आकर्षित करने के लिए पढ़ाई के आधुनिक साधनों का दिखावा भी किया जाता है. इस में क्लासरूम में एसी लगा होता है. स्पीकर और प्रोजैक्टर से पढ़ाई कराई जाती है. इस को स्मार्ट क्लास का नाम दिया जाता है. ये बातें बहुत महत्त्व नहीं देती हैं. 
अनुशासन से बेहतर माहौल
कोचिंग में हर तरह के बच्चे पढ़ने आते हैं. वे सभी किशोर उम्र के होते हैं. कई बार वे उम्र के नाजुक दौर में प्यार, मोहब्बत, दोस्ती और दुश्मनी जैसे रिश्तों में बंध जाते हैं. किशोर उम्र में ऐसी परेशानियों का प्रभाव सीधा पढ़ाई पर पड़ता है. ऐसे में जरूरी होता है कि कोचिंग कक्षा में अनुशासन पर सही तरह से ध्यान दिया जाता हो. जिस कोचिंग संस्थान में अनुशासन होगा वहां पर बच्चे पढ़ाई के दौरान ऐसी हरकतें नहीं कर पाते. कोचिंग संस्थानों की फीस भी उन के चुनाव में एक बड़ा पैमाना होती है. यह सोचना सही नहीं होता कि जो संस्थान ज्यादा फीस लेगा वह बेहतर पढ़ाई कराएगा. 
सैल्फ प्रैक्टिस दिलाए सफलता
सामान्यतौर पर बच्चा किसी विषय में ही कमजोर होता है. कोचिंग संस्थानों में कई विषय पढ़ाने का पैसा लिया जाता है. ऐसे में यह भी हो सकता है कि जिस विषय में बच्चा कमजोर हो उस विषय की ही कोचिंग उसे कराई जाए. इस में कम पैसे में बच्चे को मदद मिल सकेगी. 
कोचिंग की पढ़ाई का बच्चे को लाभ तभी मिलेगा जब वह कोचिंग में पढ़ाए गए विषयों की पूरी प्रैक्टिस घर में मेहनत से करे. बच्चे को खुद भी अपने लिए बिना हल किए पेपर की मदद से प्रश्नपत्र तैयार करना चाहिए. इस के जरिए कम से कम सप्ताह में 1 बार अपना टैस्ट लेना चाहिए. टैस्ट के लिए तय समय में ही प्रश्नपत्रों को हल करना चाहिए. बाद में प्रश्नों के सही जवाब देख कर पता लगाना चाहिए कि वह कितना सफल रहा है.      

रोजगार की दुनिया में डिगरी पर भारी पड़ते डिप्लोमा

वर्तमान शैक्षिक व्यवस्था में किताबी नहीं बल्कि व्यावहारिकता पर रोजगार की संभावनाएं बढ़ती हैं. लिहाजा, पुरानी डिगरी परंपरा को पीछे छोड़ डिप्लोमा शिक्षा रोजगारपरक भूमिका में आ चुकी है. देशविदेश में बढ़ती डिप्लोमा शिक्षा प्रणाली ने किस तरह से शैक्षणिक व्यवस्था में तबदीलियां की हैं, बता रहे हैं निनाद गौतम.
 
यह बहस हमेशा मौजूद रहेगी कि डिगरी ज्यादा महत्त्वपूर्ण है या डिप्लोमा. हालांकि शैक्षणिक क्षेत्र में यह लगभग तय है कि डिगरियां, डिप्लोमा से ज्यादा महत्त्वपूर्ण होती हैं. डिगरियों को ज्यादा महत्त्व दिया जाता है. लेकिन व्यावहारिक दुनिया में यानी रोजगार यानी कैरियर की दुनिया में डिगरियों का वही वर्चस्व नहीं है जो अकादमिक स्तर पर है. शर्त यह है कि तमाम मामलों में रोजगार की दुनिया में डिप्लोमा को ज्यादा महत्त्वपूर्ण माना जा रहा है. इन दिनों डिगरियों के मुकाबले डिप्लोमा कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण साबित हो रहे हैं क्योंकि डिगरियां जहां महज सैद्धांतिक ज्ञान देती हैं, वहीं डिप्लोमा भले सैद्धांतिक ज्ञान में पीछे रहे, लेकिन व्यावहारिक ज्ञान देने में ये कतई पीछे
नहीं रहते.
यही कारण है कि मझोले स्तर के रोजगार मसलन, इलैक्ट्रीशियन, मैडिकल रिप्रैजैंटेटिव, मैकेनिक, आटो मोबाइल कंपनियां वित्तीय विश्लेषण करने वाली कंपनियां, ट्रैवल एजेंसियां, होटल, फोटोग्राफी जैसे दर्जनों ऐसे क्षेत्र हैं जहां डिगरी वालों से ज्यादा महत्त्व डिप्लोमा वालों को दिया जाता है. क्योंकि डिप्लोमा कर के आए नौकरी के इच्छुक न सिर्फ कामकाजी की व्यावहारिक दुनिया से परिचित होते हैं बल्कि एक निश्चित श्रेणी तक वे काम जानते भी हैं. उन में डिगरी वालों के मुकाबले तेजी से काम सीखने की प्रतिभा होती है तथा उन में डिगरी वालों की तरह अकड़ नहीं होती. इसलिए ये टीम भावना के लिए ज्यादा माकूल बैठते हैं.
रोजगारपरक डिप्लोमा
आजकल वे तमाम लोग जिन्हें जल्द से जल्द रोजगार हासिल करना है, बजाय लंबे समय तक उच्च शिक्षा की डिगरी हासिल करने के, वे न्यूनतम पढ़ाई या फिर जिस क्षेत्र में जाना चाहते हैं, डिप्लोमा के लिए न्यूनतम पढ़ाई कर के व्यावहारिक दुनिया में आ जाते हैं. यही कारण है कि नई पीढ़ी में डिप्लोमा के प्रति रुझान ज्यादा तेजी से बढ़ रहा है. रोजगार देने वाले मानते हैं कि डिप्लोमा होल्डर व्यावहारिक नजरिए से अपने विषय विशेष में कहीं ज्यादा फोकस्ड होते हैं. इसलिए ऐसे रोजगार में जहां सैद्धांतिक ज्ञान की बहुत ज्यादा दरकार न हो वहां डिगरी के मुकाबले डिप्लोमा कहीं ज्यादा सुरक्षित और गारंटी देने वाले हैं.
भारत के विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों से हर साल लगभग 32 लाख स्नातक निकलते हैं या दूसरे शब्दों में कहें तो भारतीय अर्थव्यवस्था में हर साल इतने स्नातक जुड़ जाते हैं. लेकिन हैरानी की बात यह है कि इन डिगरीधारियों में से महज कुछ प्रतिशत ही काम के होते हैं. 
जब केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने कहा था कि हमारी आईआईटीज तो इस पर हंगामा हो गया था लेकिन यही बात एन आर नारायणमूर्ति ने दोहराई कि हमारी आईआईटीज में महज 20 फीसदी काम के स्नातक होते हैं. बाकी सब सिर्फ इसलिए यहां ऐडमिशन पा जाते हैं क्योंकि कोचिंग ने इन्हें पास होने का मशीनी नुस्खा सिखा दिया है. इस पर हंगामा नहीं हुआ क्योंकि नारायणमूर्ति अपने पेशे के सफल नायक हैं और आप यह भी नहीं कह सकते कि वे देश के आईआईटीज को नहीं जानते. नारायणमूर्ति ने आईआईटी से ही अपनी अकादमिक पढ़ाई पूरी की है.
बढ़ती अहमियत
ये कुछ उदाहरण अचानक नहीं आए जो यह साबित करें कि डिप्लोमा कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो रहे हैं. 2009-10 में आई एक रिपोर्ट ने भी यही निष्कर्ष निकाला था कि दूसरे क्षेत्र के स्नातकों को तो छोडि़ए, इंजीनियरिंग जैसे विषय के स्नातकों में भी महज 15 प्रतिशत ही ऐसे होते हैं जो डिगरी हासिल करते ही नौकरी के लायक होते हैं. एन आर नारायणमूर्ति के बाद इनफोसिस के दूसरे महत्त्वपूर्ण सदस्य नंदन नीलकेणी ने भी कहा है : 
‘‘हम अजीब संकट से गुजर रहे हैं. एक तरफ हमारे यहां बड़े पैमाने पर पढ़ेलिखे डिगरीधारी स्नातकों की भरमार है, दूसरी तरफ योग्य लोगों का जबरदस्त अभाव है.’’
देश में किस तरीके से रोजगार और जरूरतमंद स्किल्ड वर्कफोर्स के बीच विरोधाभास की स्थिति है इस का अंदाजा सीआईआई और श्रम मंत्रालय की एक रिपोर्ट से भी लगाया जा सकता है.
जरूरी क्यों डिप्लोमा
रिपोर्ट के मुताबिक, देश में डेढ़ से पौने 2 करोड़ स्किल्ड वर्कफोर्स यानी तकनीकी रूप से कामकाज में दक्ष लोगों की जरूरत है. दूसरी तरफ, देश में 3 करोड़ से ज्यादा महज सरकारी आंकड़ों के मुताबिक ही बेरोजगार हैं. अगर देश में जितने कुशल लोगों की जरूरत है वे हासिल हो जाएं तो बेरोजगारी की मौजूदा दर में 65 से
70 फीसदी की कमी आ सकती है तथा हमारे जीडीपी में 3 से 3.5 लाख करोड़ रुपए की जीडीपी की बढ़ोत्तरी हो सकती है. इस से अंदाजा लगाया जा सकता है कि हमारी पढ़ाई और व्यावहारिक जरूरतों के बीच कितना बड़ा गैप है.
इस गैप को किसी हद तक डिप्लोमा दूर कर सकते हैं क्योंकि डिप्लोमा न सिर्फ व्यावहारिक कामकाजी शिक्षा देते हैं बल्कि डिप्लोमा कम समय में आप को रोजगार के योग्य बना देते हैं. ज्यादातर मामलों में तो डिगरी के मुकाबले ये सस्ते भी पड़ते हैं. यही कारण है कि डिप्लोमा अब लोगों को अपनी तरफ खींचने लगे हैं. रोजगार पाने वालों को भी और रोजगार देने वालों को भी. वास्तव में नौकरी के लिए जरूरी योग्यता महज डिगरी से नहीं आती. यह एटीट्यूड का हिस्सा भी होती है. यह ज्ञान और सजगता का मेल होती है जिस के चलते नौकरी हेतु जरूरी योग्यता का विकास होता है. यह एटीट्यूड भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना कि कार्य के लिए जरूरी नौलेज और विभिन्न तरह की कुशलताएं. यह कुशलता छात्रों में डिगरी के मुकाबले डिप्लोमा में जल्दी आती है. शायद इसलिए क्योंकि डिगरी देने वाले विश्वविद्यालय डिगरी को महानता के बोझ से लादे रहते हैं. जबकि डिप्लोमा में महानता का कोई हैंगओवर नहीं होता. इसीलिए डिप्लोमा ज्यादा व्यावहारिक हैं. ये रोजगार की दुनिया में ज्यादा काबिले कुबूल हैं.
पाठ्यक्रम में शुमार
यह डिप्लोमा पाठ्यक्रमों का बढ़ता महत्त्व ही है कि आज शायद ही कोई ऐसा विश्वविद्यालय हो जहां एक दर्जन से कम डिप्लोमा पाठ्यक्रम मौजूद न हों. दरअसल, विश्वविद्यालय भी समझ गए हैं कि गरिमा और सम्मान के लबादे भले डिगरी ओढ़े रहें मगर असली फायदा समाज का तो डिप्लोमा से ही होता है. इसलिए डिप्लोमा विश्वविद्यालयों को भी खूब आकर्षित कर रहे हैं. आज की तारीख में डिगरी के साथ तमाम विश्वविद्यालय और शैक्षणिक संस्थान महत्त्वपूर्ण डिप्लोमा पाठ्यक्रम भी करा रहे हैं. दरअसल, शिक्षा को गुणवत्तापूर्ण बनाने का यही एक जरिया है कि डिप्लोमा और डिगरी पाठ्यक्रम साथसाथ चलाए जाएं जिस से ये दोनों अलगअलग दुनिया का प्रतिनिधित्व न करें.
अकेले डिगरी काफी नहीं
देश में वोकेशनल शिक्षा की पृष्ठभूमि में पौलिटैक्निक्स का ऐतिहासिक महत्त्व है. आईटीआई ने देश को जितने प्रशिक्षित कामगार दिए हैं उस से ज्यादा शायद ही किसी और ने अब तक के इतिहास में दिए हों. आईटीआई से निकले छात्र भले डिगरियों के लिहाज से बहुत चमकदार शैक्षणिक प्रोफाइल न रखते हों, फिर भी देश की उत्पादकता और औद्योगिक परिदृश्य में इन का जबरदस्त योगदान है. हालांकि यह भी सही है कि सूचना प्रौद्योगिकी के श्रम परिदृश्य में छाने के पहले तक इस वोकेशनल एजुकेशन का उतना महत्त्व नहीं था. मगर पिछले कुछ दशकों में जब से सूचना प्रौद्योगिकी अर्थव्यवस्था का एक महत्त्वपूर्ण जरिया बनी है, इस ने वाकई नए सिरे से और व्यापक रूप से अपना महत्त्व हासिल किया है.
सूचना प्रौद्योगिकी के विकास के बाद सेवा क्षेत्र में जबरदस्त विस्तार हुआ है और यह विस्तार दोनों ही आयाम में हुआ है यानी अवधारणा के स्तर पर और व्यवहारिक उपयोगिता के स्तर पर. इसी से शिक्षा का एक बिलकुल नए किस्म का विकास संभव हुआ है और इस के महत्त्व के नए माने भी उभरे हैं. ज्यादा साफ और सरल शब्दों में कहें तो कैरियर ओरिएंटेड या नौकरी दिलाने वाले पाठ्यक्रम पर नए सिरे से जोर दिया गया है. 
ऐसा नहीं है कि आज डिगरी बेमतलब हो गई है, डिगरी का आज भी महत्त्व है लेकिन अब अकेली डिगरी को कोई बहुत ज्यादा भाव नहीं मिलता. आज डिगरी तब तक महज औपचारिकता है जब तक उस के साथ व्यावहारिक ज्ञान देने वाला कोई डिप्लोमा भी न जुड़ा हो, खासकर बड़े और मैट्रो शहरों में.
नौकरी की गारंटी
इस समय 145 से ज्यादा विभिन्न तरह के डिप्लोमा पाठ्यक्रम अलगअलग विश्वविद्यालयों/संस्थानों से संचालित हो रहे हैं और उन में से कोई भी ऐसा डिप्लोमा नहीं है जो नौकरी दिलाने में सक्षम न हो या दूसरे शब्दों में कहें तो नौकरी दिलवाने में महत्त्वपूर्ण न हो. फिर भी अगर डिप्लोमाओं की इस भारीभरकम सूची में से उन सब से महत्त्वपूर्ण डिप्लोमाओं को चुनना हो जिन्हें हासिल करने के बाद नौकरी की लगभग शतप्रतिशत गारंटी होती है तो ऐसे डिप्लोमा 25 से ज्यादा हैं. जी हां, विभिन्न किस्म के डिप्लोमा पाठ्यक्रमों में ये ऐसे पाठ्यक्रम हैं जिन में नौकरी की लगभग गारंटी है. अगर आप किसी वजह से नौकरी नहीं करते या नहीं हासिल कर पाते तो भी यह गारंटी है कि ये डिप्लोमा पाठ्यक्रम आप को शानदार ए श्रेणी का प्रोफैशनल टैग प्रदान करते हैं. आमतौर पर ये तमाम डिप्लोमा पाठ्यक्रम स्नातक स्तर या उस के बाद के हैं.
अगर इन्हें विभिन्न क्षेत्रों के आधार पर वर्गीकृत करें तो इन 25 डिप्लोमा पाठ्यक्रमों में से 10 पाठ्यक्रम ऐसे हैं जिन्हें किसी भी क्षेत्र का स्नातक सहजता से कर सकता है और 15 ऐसे डिप्लोमा पाठ्यक्रम हैं जिन में कला और मानविकी, विज्ञान और वाणिज्य क्षेत्र के स्नातक डिप्लोमा हासिल कर के महत्त्वपूर्ण ऊंचाई तक पहुंच सकते हैं. विशेष तौर पर कंप्यूटर के क्षेत्र में ये डिप्लोमा पाठ्यक्रम अनिवार्य हो गए हैं.
नौकरी के लिहाज से जो डिप्लोमा पाठ्यक्रम हौट केक हैं, उन में 10 वे पाठ्यक्रम हैं जिन्हें किसी भी क्षेत्र का स्नातक कर सकता है, ऐसे क्षेत्र हैं एडवरटाइजिंग/पीआर, सेल्स ऐंड मार्केटिंग, ट्रैवल ऐंड टूरिज्म, औफिस मैनेजमैंट, कंप्यूटर अप्लीकेशंस, फिटनैस ऐंड योगा, काउंसलिंग ऐंड गाइडैंस, फूड ऐंड न्यूट्रीशन, एनीमेशन और जर्नलिज्म. इन्हें किसी भी क्षेत्र का स्नातक कर सकता है और करने के बाद उस के नौकरी हासिल करने के 100 प्रतिशत अवसर मौजूद होते हैं.
अलगअलग क्षेत्र विशेष के डिप्लोमा पाठ्यक्रमों में कला और मानविकी के क्षेत्र में जो डिप्लोमा नौकरी दिलाने की गारंटी देते हैं उन में क्रिएटिव राइटिंग, डिजाइन, ट्रांसलेशन, लैंग्वेज और पब्लिश्ंिग हैं. जबकि विज्ञान के क्षेत्र में बायोइन्फौर्मेटिक्स, सर्विस इंजीनियरिंग, क्वालिटी इंश्योरैंस, आईपी सर्टिफिकेशन, क्लीनिकल रिसर्च जैसे डिप्लोमा शामिल हैं. इसी तरह वाणिज्य के क्षेत्र में ई-कौमर्स ऐंड अकाउंटिंग, टैक्सेशन, इंश्योरैंस, फाइनैंशियल प्लानिंग, इन्वैस्टमैंट एडवायजरी आदि शामिल हैं.
हालांकि यह कहना कभी भी सही नहीं होगा कि एक दिन व्यावहारिकता के तकाजे के चलते डिगरी पाठ्यक्रम अर्थहीन हो जाएंगे. लेकिन इस बात में कोई दोराय नहीं है कि जिस तरह से पढ़ाईलिखाई में व्यावहारिकता का पुट बढ़ा है, उसे देखते हुए आज डिप्लोमा डिगरी से कहीं ज्यादा महत्त्वपूर्ण हो गए हैं.

भारतभूमि युगेयुगे

बंगला मिला न्यारा
राजनीति में कब कौन क्या बन जाए, कहना मुश्किल है. लेकिन मनमोहन सिंह अगले प्रधानमंत्री नहीं होंगे, यह जरूर दिखने लगा है. दिल्ली के 3, मोतीलाल नेहरू मार्ग का एक बंगला इन दिनों सजायासंवारा जा रहा है क्योंकि उस में 30 अप्रैल के बाद कभी भी मनमोहन सिंह रहने आ सकते हैं. उन की पत्नी गुरुशरण कौर ने भी इस बाबत हामी भर दी है.
वर्ष 1920 में बने इस बंगले में बीती फरवरी तक शीला दीक्षित रहती थीं. साढ़े 3 एकड़ में फैले इस शानदार बंगले में 4 शयनकक्ष हैं, दफ्तर है और एक जैव विविधता पार्क है. बंगले का सर्वे कर सुरक्षा एजेंसियां सुनिश्चित कर चुकी हैं कि वह सुरक्षा के लिहाज से ठीक है. 10 साल तक देश संभाल चुके मनमोहन सिंह को तय है कि यह बंगला रास आएगा लेकिन उन्हें 7, रेसकोर्स वाले बंगले की याद आती रहेगी.
 
धर्मगुरुओं की राजनीति
जनता तो चाहने लगी है लेकिन वे राजनेता ही हैं जो राजनीति को धर्म के मकड़जाल से मुक्त नहीं होने देना चाहते. मुद्दत बाद नेहरूगांधी परिवार से कोई शाही इमाम के यहां गया तो तुरंत फतवा जारी हो गया कि मुसलमान कांगे्रस को वोट दें.
यह चर्चित डील वैसी ही है जैसी रामदेव व भाजपा के बीच हुई है. वोट मांगने का तरीका अलग है. इस के बाद भी कोई लोकतंत्र में धर्मनिरपेक्षता की बात करे तो उसे मूर्ख ही कहा जा सकता है. विकास, रोजगार, बुनियादी सहूलियतें जैसी बातों और वादों की हकीकत को लोग नहीं देख रहे कि लड़ाई सुशासन देने सेवा करने या भ्रष्टाचार मिटाने के लिए नहीं, बल्कि धर्म थोपने के लिए लड़ी जा रही है जिस से लोग हर स्तर पर कंगाल होते रहे हैं. इसलिए, वोट जरूर डालें.
 
मुलायम की परेशानी
जब भी मुलायम सिंह परेशान होते हैं तो वे तीसरे मोरचे का बेसुरा राग अलापने लगते हैं जो उन के अचेतन मन में गहरे तक बैठ चुका है. तीसरा मोरचा एक आदर्श परिकल्पना है जिस के बारे में सोचते रहने से फायदा यह होता है कि मुलायम भी नरेंद्र मोदी की तरह खुद को प्रधानमंत्री पद की कुरसी पर बैठा पाते हैं.
राजनीति चुनाव के दिनों में रेखागणित की तरह हो जाती  है जिस में अगर, मगर और मान लो जैसे सूत्रों से काम चलाना पड़ता है. इस में भी दिक्कत यह है कि अगर एनडीए सत्ता में आया तो उत्तर प्रदेश में भाजपा दोबारा मजबूत हो जाएगी जिस से अगली विधानसभा में सपा का दबदबा दरक जाएगा.
 
कहां गए केजरीवाल 
चुनाव के ऐलान के वक्त हीरो बना दिए गए आम आदमी पार्टी यानी ‘आप’ के मुखिया अरविंद केजरीवाल को समझ आ गया होगा कि मीडिया जब सजा देता है तो आदमी कहीं का नहीं रह पाता. न्यूज चैनल्स पर चौबीसों घंटे छाए रहने वाले केजरीवाल छोटे परदे से गायब हुए तो इसे मीडिया की साजिश ही कहा जाएगा कि उन्हें तबतब ही दिखाया जबजब किसी ने थप्पड़ मारा.
ऐसा दुनिया में हर कहीं होता है कि सड़क चलते आदमी को जनता सत्ता दे देती है. मीडिया निष्पक्ष न हो तो विवादों और सूचनाओं का आदानप्रदान महानगरों के यातायात सरीखा हो जाता है जिस में वाहनों की भीड़ तो दिखती है पर चालकों का चेहरा नजर नहीं आता. ‘आप’ के प्रत्याशी तो हर कहीं दिख रहे हैं पर केजरीवाल से परहेज किया जा रहा है.
-भारत भूषण श्रीवास्तव द्य

घूसखोर नोटों के भी दुश्मन

जिस देश में करोड़ों की आबादी दो जून की रोटी के लिए तरसती हो, वहां एक चतुर्थ श्रेणी के कर्मचारी के पास करोड़ों की संपत्ति होना समूचे देश, समाज व सरकार के मुंह पर तमाचा है. घूसखोरी और भ्रष्टाचार के दलदल में आकंठ डूबे सरकारी बाबुओं की कारस्तानी के चलते करोड़ोंअरबों के नोट दफन हो कर रह जाते हैं. जिस के चलते बढ़ती है देश में बेइंतहा महंगाई. कैसे, पड़ताल कर रहे हैं भारत भूषण श्रीवास्तव.
 
टाइमकीपर का ओहदा चपरासी से एक पायदान ऊपर और क्लर्क से एक पायदान नीचे होता है जिस में पगार महज 15 से 20 हजार रुपए के बीच मिलती है. इस रकम से टाइमकीपर अपने परिवार का गुजारा मुश्किल से ही कर पाता है. यह बात मुगालता साबित हुई जब 7 मार्च को इंदौर के पीडब्लूडी महकमे का एक टाइमकीपर गुरु कृपाल सिंह उर्फ पप्पू करोड़ों का आसामी निकला.
इस दिन सुबहसुबह लोकायुक्त पुलिस ने जब पप्पू के घर में छापा मारा तो उस की जायदाद का ब्योरा देख सभी की आंखें फटी की फटी रह गईं. पुलिस वाले तो दूर आम लोगों को भी यकीन करने में काफी हिम्मत जुटानी पड़ी कि एक मामूली सा टाइमकीपर करोड़ों का मालिक हो सकता है. 
चतुर्थ श्रेणी का यह सरकारी मुलाजिम इंदौर के पौश इलाके तिलक नगर में खुद के मकान में रहता था लेकिन उस के इंदौर में ही 1-2 नहीं, बल्कि 14 मकान और हैं.
पप्पू के घर से 13 लाख रुपए नकद बरामद हुए. 11 जगह ख्ेतीकिसानी की जमीनें उस ने खरीद रखी थीं. इस के अलावा उस की तिजोरी में कैद गहनों की कीमत ढाई करोड़ रुपए आंकी गई. बीमा पौलिसियों में भी उस ने भारीभरकम पैसा लगा रखा था. 
कलियुग के इस एक और कुबेर के पास 3 टाटा सफारी कारें थीं, 2 लाइसैंसशुदा बंदूकें भी उस के घर से मिलीं और विदेशी कीमती शराब की 21 बोतलें भी करीने से उस ने सजा रखी थीं. उस के बैंक खातों में 20 लाख के लगभग रुपए जमा थे.
आम बोलचाल की जबान में पप्पू, भोंदू या बुद्धू आदमी को कहा जाता है. पर पप्पू कौन है, यह इस छापे से उजागर हुआ. इस पप्पू की 25 साल की नौकरी में महज 12 लाख रुपए पगार की शक्ल में मिले. मामला किसी जादू से कम नहीं कि इस टाइमकीपर ने रहने, खानेपीने और दीगर खर्चों पर यह पगार खर्च नहीं की उलटे तकरीबन 40 करोड़ रुपए की जायदाद और बना ली.
पकड़े जाने पर पप्पू दलील देता रहा कि तमाम पैसा और जायदाद पुश्तैनी है पर जल्द ही उजागर हो गया कि वह एक मामूली खातेपीते घर का है और पैसों का यह महल उस ने सरकारी नौकरी में आने के बाद खड़ा किया था. इस के पहले वह धार जिले में चपरासी था और कुछ साल पहले ही टाइमकीपर के ओहदे पर तरक्की पा कर इंदौर आया था.
लोगों को हैरत इस बात की है कि सरकारी चपरासी कैसे करोड़ों की घूस खा सकता है और अगर खा सकता है तो इस और ऐसे महकमों के इंजीनियर साहबों को मिलने वाली घूस तो अरबों में होनी चाहिए.
गुरु कृपाल सिंह अब जेल में है लेकिन शक के दायरे में है क्योंकि टाइमकीपर का काम इतना अहम या जिम्मेदारी वाला नहीं होता कि उसे इतनी तगड़ी घूस मिले. इसलिए अंदाजा यह लगाया जा रहा है कि आजकल घूस भी ठेके पर चलने लगी है, मुमकिन है किसी और अफसर ने उसे यह पैसा दे रखा हो जिस की जांच होनी चाहिए.
मुमकिन यह भी है कि पप्पू घूस खाने के साथसाथ बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़ा भी कर रहा हो. लोक निर्माण महकमे में मजदूरों का हिसाबकिताब टाइमकीपर रखता है. अगर उस ने 50 मजदूर भी रोज के 300 रुपए के हिसाब से फर्जी तरीके से भरती कर रखे थे तो रोजाना की रकम
15 हजार और महीने की साढ़े 4 लाख रुपए यानी सालभर की तकरीबन 50 लाख रुपए हो रही थी. 20 साल में उस ने अगर 10 करोड़ रुपए की भी घूस खाई तो मय ब्याज के उस का 40 करोड़ रुपए होना लाजिमी है. वजह, खरीदी गई जायदाद और सोने के गहनों के दाम भी बढ़े.
आजकल रईस से रईस लोग भी मारे डर के घर में 20-25 हजार रुपए से ज्यादा नहीं रखते. लंबे वक्त तक ज्यादा पैसा रखने में दूसरा नुकसान यह होता है कि पैसे की कीमत कम हो जाती है.
एक हालिया सर्वे में दिलचस्प बात यह बताई गई थी कि अगर साल 1985 में आप ने 1 लाख रुपए नकद घर में छोड़े थे तो 2013 में उन की कीमत महज 12 हजार रुपए रह गई थी यानी 18 साल पहले 12 हजार रुपए में आप जितना सामान खरीद सकते थे उसे 2013 में खरीदने के लिए 1 लाख रुपए खर्च करने पड़ते.
पर पप्पू जैसे घूसखोरों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता. जो घूस में मिले नोटों को कूड़ेकरकट की तरह ठूंसठूंस कर घर में जगहजगह रखते हैं. रुपए की कीमत या खरीदी ताकत गिरती है तो गिरती रहे. वजह, इन के पास रोज घूस का पैसा खिंचा चला आता है. दूसरे, घूस के पैसे में खरीदी जमीनजायदाद और गहनों की कीमत हजारों गुना बढ़ जाती है. इसलिए पैसा इन घूसखोरों को हाथ का मैल लगता है.
छापे व नोटों का अंबार 
घूसखोरी और घूसखोरों से देशभर के लोग परेशान हैं लेकिन मध्य प्रदेश घूसखोरों का स्वप्निल स्थल बनता जा रहा है जहां औसतन हर दिन 2 घूसखोर पकड़े जाते हैं और महीने में 1 छापा चौंका देने वाला पड़ता है जिस में बरामद नकदी, जमीनजायदाद और घूसखोर के आलीशान मकान, कारें, गहने वगैरह देख छुटभैये घूसखोरों पर लोगों को तरस आने लगता है और न पकड़े जाने वालों पर फख्र होता है.
ऐसे ही एक छापे में भोपाल के नर्मदा घाटी विकास प्राधिकरण महकमे के एक इंजीनियर प्रह्लाद सिंह पटेल के ई-7,
लाला लाजपतराय कालोनी के बंगला नंबर बी-106 से करोड़ों की जायदाद के कागजात मिले थे. मामूली तरह से रहने वाले प्रह्लाद पटेल के घर में नकदी 57 लाख रुपए की मिली थी. ये नोट उस ने गद्दों, कनस्तरों, पेटियों, रसोई के डब्बों और घर में बने भगवान के मंदिर के पीछे तक छिपा रखे थे. घर के किसी हिस्से का कोई कोना नहीं था, जहां से नोटों की गड्डियां न मिली हों.
प्रह्लाद पटेल के पड़ोसियों की मानें तो वह किसी से ज्यादा बातचीत नहीं करता था और ऐसे सादा, मामूली तरीके से रहता, मानो गुजारा मुश्किल से कर पा रहा हो. उस के महकमे के एक इंजीनियर का कहना है कि वह दफ्तर के लोगों को चाय पिलाने में भी कतराता था यानी कंजूस था और हम समझते रहे कि ईमानदार था. अब जा कर पता चला कि वह बगैर घूस के कोई काम नहीं करता था और सारा माल अकेले हड़प जाता था.
इस मामले में इकलौती नई बात यह थी कि 57 लाख रुपए में से कोई 20 लाख रुपए के नोटों में दीमक लगी हुई थी जिस की परवा इस इंजीनियर को नहीं थी. माल मुफ्त का जो था. लिहाजा, कुछ लाख के नोट सड़ जाएं या खराब हो जाएं, उस की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ना था.
ये नोट बाजार में चलते तो उन की कीमत बनी रहती लेकिन घूसखोरों के पास कितने अरबोंखरबों के नोट रद्दी कागजों जैसे पड़े हैं, इस का अंदाजा कोई नहीं लगा सकता. रिजर्व बैंक नोट छापछाप कर सरकार को तो देता है पर बाजार में कितने व कौन से नोट चल रहे हैं, इस की जिम्मेदारी उस की नहीं बनती.
इन घूसखोरों पर रिश्वत और चारसौबीसी का तो मुकदमा दर्ज होता है पर नोटों के खराब होने की बाबत कोई कार्यवाही नहीं होती. बरामद नकदी सरकारी खजाने में चली जाती है. उन आम लोगों में नहीं बंटती जिन से घूसखोर बेरहमी से घूस लेते हैं.
समझदार घूसखोर जमीनजायदाद बनाते हैं दूसरों के नाम से, यहांवहां पैसा लगाते हैं साले और भाइयों के नाम से. कारोबार करते हैं तो रकम भी बढ़ती जाती है, जिस का हिसाबकिताब देना मुश्किल हो जाता है. मगर इन का लालच खत्म नहीं होता.
काले धन पर तमाम नेता हायहाय करते नजर आते हैं कि विदेशी बैंकों में जमा पैसा वापस लाओ, उस से देश की माली हालत सुधर जाएगी. इन लोगों का ध्यान उन घूसखोरों पर नहीं जाता जो बगैर कुछ करेधरे, अपने घर को ही मिनी स्विस बैंक बना बैठते हैं. अगर एक दिन एक वक्त में एकसाथ तमाम सरकारी मुलाजिमों के घर पर छापा मारा जाए तो खरबों की नकदी बरामद होगी. इस से भी देश की माली हालत सुधरेगी.
घर में नकदी रखना हर किसी का हक है पर उस का हिसाबकिताब सरकार ले पाए तो बात हर्ज की नहीं. ईमानदार और शरीफ आदमी के घर में ज्यादा नकद पैसा रखने की कोई वजह नहीं क्योंकि उस के पास ज्यादा बचता ही नहीं. आमदनी की कमाई का एकचौथाई तो तरहतरह के टैक्स में चला जाता है. 
व्यापारी और कारोबारी ज्यादा नकद नहीं रखते. अपने धंधे में लगा कर उसे और बढ़ाते रहते हैं जो देश की और खुद की तरक्की वाली बात है. पर इन घूसखोरों का क्या, जो नोट तो डकारते जाते हैं पर उन्हें बाजार में नहीं चला पाते.
कुछ समझदार घूसखोर भी हैं जिन्हें नकद रखने के नुकसान का एहसास
था. लिहाजा, उन्होंने घूस का पैसा, जमीनजायदाद, मकानदुकान खरीदी और कारोबार में लगाया. ऐसे ही हैं मध्य प्रदेश के एक जौइंट कमिश्नर रविकांत द्विवेदी, जिन के यहां बीती 30 जनवरी के छापे में कोई 60 करोड़ की बेनामी जायदाद पकड़ी गई. द्विवेदी ने अपनी पत्नी के नाम से होटल व बेटे के नाम से प्रिंटिंग प्रैस खोल रखा था. चूंकि घाटे की चिंता या परवा नहीं थी, इसलिए दोनों कारोबार चल निकले. पकड़े भी गए तो कहते रहे कि यह तो कारोबार से हुई आमदनी थी.
भ्रष्टतंत्र और घूसखोरी
घूसखोर खुद को मिले अधिकारों और आम आदमी की परेशानी का फायदा उठाते हैं. किसान की ऋणपुस्तिका, बही बगैर घूस के नहीं बनते, बच्चों का जन्म प्रमाणपत्र, ड्राइविंग लाइसैंस, मकान बनवाने की इजाजत और अनापत्ति प्रमाणपत्र, पासपोर्ट व नामांतरण जैसे सैकड़ों काम हैं जिन के लिए घूस देनी पड़ती है. ठेके और लाइसैंस तो घूसखोरी की पहली पसंद हैं जिन में एक डील में ही लाखों के वारेन्यारे हो जाते हैं.
इस पर भी घूसखोरों का जी नहीं भरा तो पैसे ले कर डाक्टर, हवलदार और इंस्पैक्टर बनाना शुरू कर दिया. मध्य प्रदेश के व्यवसायिक परीक्षा मंडल का हालिया प्रतियोगी परीक्षाओं का महाघोटाला एक मिसाल है जिस का हर एक आरोपी करोड़पति है. इन लोगों के पास से करोड़ों की नकदी पकड़ी गई और जो नहीं पकड़ पाई वह खरबों की है. नोट सड़ रहे हैं, बेकार पड़े हैं, इस से किसी को सरोकार नहीं. देश में महंगाई के बढ़ने की एक बड़ी वजह यह बेशुमार नकदी भी है जो जाम पड़ी है.

झूठ के प्रचार पर टिका संघ का दलित आंदोलन

कभी दलित चिंतन पर पत्रिकाओं की नुमाइश  तो कभी संघ के पुराने नेताओं को दलित हितैषी छवि में पेश कर संघ खुद को दलितों के बीच स्थापित करने की फिराक में है. इतिहास को तोड़मरोड़ कर की जा रही संघ की दलित सियासत की पोल खोल रहे हैं कंवल भारती.
वर्णव्यवस्था का हिमायती राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ हिंदू धर्म की अपनी सोच को सुधारने के बजाय उसी को सही साबित करने पर तुला हुआ है. संघ दलितों के बीच प्रचारित करना चाहता है कि हिंदू धर्म दलित व शूद्र विरोधी नहीं, समर्थक है. हिंदू धर्म व संघ के पुराने नेता भी दलित हितैषी थे. इस के लिए संघ द्वारा अपने चिरपरिचित रहस्यमय शब्दजाल का सहारा लिया जा रहा है. हिंदू धर्म की और दलित अंबेडकर जैसे नेता द्वारा कही गई बातों को अपने तरीके से परिभाषित कर, सचाई को झुठला कर दलितों को बरगलाने का प्रयास किया जा रहा है.
पत्रिका की आड़ में
कांटे से कांटा निकालने का मर्म समझने में माहिर संघ यह काम प्रचार के जरिए दलित नेता द्वारा ही करा रहा है. इस के लिए 4 साल पहले बाकायदा ‘दलित आंदोलन पत्रिका’ नामक माध्यम ढूंढ़ा गया. संघ ने इस पत्रिका का संपादक वाजपेयी सरकार के समय राष्ट्रीय अनुसूचित जाति, जनजाति आयोग के अध्यक्ष रहे डा. विजय सोनकर शास्त्री को बनाया जो पूरी तरह संघीय सांचे में ढले हुए हैं.
दलितों के प्रति संघ का नजरिया किसी से छिपा नहीं है. संघ सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, समरसता, एकात्मवाद जैसे रहस्यपूर्ण शब्दजाल के सहारे जातिव्यवस्था को बनाए रखने का हिमायती रहा है. संघ परिवार यह जताने की कोशिश करता आया है कि निचली जाति के पुराने संत हिंदू धर्म के समर्थक थे. संघ के हिंदू लेखकों द्वारा कबीर, रैदास को हिंदू धर्म का रक्षक और भीमराव अंबेडकर को हिंदुत्व समर्थक व मुसलिम विरोधी बताया जाता रहा है. इसी कड़ी में 1992 में मुंबई के ‘ब्लिट्ज’ अखबार में ‘डा. अंबेडकर को मुसलिम विरोधी बताते हुए 2 लेख लिखे थे.’
दलितों में सेंध
इन्हीं विचारों को आगे बढ़ाने के लिए संघ ने अपने हिंदी मुखपत्र ‘पांचजन्य’ का सामाजिक न्याय अंक निकाला था और 1996 में अरुण शौरी द्वारा अंबेडकर पर लिखी ‘वर्शिपिंग फौल्स गौड’ का सब को पता है. इसे ले कर दलितों ने काफी हल्ला मचाया था. इन हिंदूवादी विचारों का असर दलितों पर इसलिए नहीं पड़ा क्योंकि वे सब लेखक गैर दलित थे.
असल में इन सब का उद्देश्य अंबेडकर के दलित आंदोलन के प्रतिक्रांति में दलितों में शंकराचार्य की सांस्कृतिक एकता, हेडगेवार का हिंदू राष्ट्रवाद, गोलवलकर का समरसतावाद और दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद स्थापित करना था. संघ यह साबित करना चाहता है कि हिंदू धर्म के इन नेताओं के विचार और अंबेडकर के दलित आंदोलन में समानता है. इस के लिए संघ को ऐसे दलित की जरूरत थी जो उस की विचारधारा में पलाबढ़ा हो.
विजय सोनकर शास्त्री इस कसौटी पर खरे उतरते नजर आए. नतीजतन ‘दलित आंदोलन पत्रिका’ शुरू की गई. जो काम संघ के मुखपत्र ‘पांचजन्य’ और भाजपा के ‘वर्तमान कमल ज्योति’ द्वारा नहीं हो पा रहा था, वह अब ‘दलित आंदोलन पत्रिका’ के जरिए पटरी पर दौड़ाया जाने लगा. इस पत्रिका के हर अंक में अंबेडकर के दलित आंदोलन को हिंदू आवरण में लपेट कर परोसा जा रहा है.
मई, 2013 के अंक में यह दलित संपादक अपने संपादकीय में लिखते हैं, ‘‘दलितोत्थान की दिशा में आदि शंकराचार्य द्वारा चलाया गया सांस्कृतिक एकता का प्रयास अतुल्य था. 4 धामों की स्थापना एवं वर्तमान समय में उन धामों की सर्वस्पर्शिता देश के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के स्थूल उदाहरण हैं. इतना ही नहीं, पूर्व काल में चाणक्य की राजनीतिक एकता और अखंड भारत के एक लंबे कालखंड का स्वरूप आज के राजनीतिक परिदृश्य में चिंतकों एवं विशेषज्ञों को भारतीय राजनीति के पुनरावलोकन के लिए बाध्य कर रहे हैं. इसलिए दलित राजनीति के राष्ट्रवादी स्वरूप की आज परीक्षा की घड़ी है. अद्वितीय राष्ट्रवाद के लिए जानी जाने वाली दलित वर्ग की 1,208 जातियों की वर्तमान समय में अग्निपरीक्षा होगी. संपूर्ण दलित समाज भारत की आंतरिक एवं बाह्य सुरक्षा जैसे मुद्दों पर भी राष्ट्रवादियों के साथ खड़ा दिखाई देगा.’’
संघ का एजेंडा
वाह, डा. विजय सोनकर शास्त्री, शंकराचार्य ने दलितों के उत्थान के लिए कब, कौन से प्रयास किए? शंकराचार्य तो भेदभाव का पूरा इंतजाम कर गए थे. क्या उन्होंने अपने 4 स्थापित मठों में से एक भी दलित शंकराचार्य बनाने का रास्ता साफ किया? जातिगत भेद खत्म कराने की कोई बात की?
इस में संघ का मूल एजेंडा मौजूद है. आंतरिक सुरक्षा का मतलब है हिंदूधर्म और समाज को बचाना और बाह्य सुरक्षा का मतलब सीमा के मुद्दे पर भाजपा का समर्थन करना. शंकराचार्य की सांस्कृतिक एकता में दलित कहां है, यह सवाल डा. विजय सोनकर शास्त्री से पूछा जाना चाहिए.
वे आखिर में लिखते हैं, ‘‘अब आवश्यकता है कि एक बार फिर हिंदू कोड बिल, महिला सशक्तीकरण, आर्थिक उत्थान के सिद्धांत, मजदूर संगठनों की भूमिका और सामाजिक क्षेत्र में सामाजिक समरसता की संस्तुति का स्वागत किया जाए.’’
बेतुके तर्क
इस में नई बात ‘सामाजिक समरसता’ है जिसे अंबेडकर के नाम से जोड़ा गया है और यही संघ परिवार का मूल सामाजिक कार्यक्रम है. सामाजिक समरसता का मतलब है जातीय और वर्गीय संघर्ष को रोकना. संघ के नेता कहते हैं, सामाजिक असमानता का सवाल न उठाओ, हाथ की सभी उंगलियां समान नहीं होतीं, पर उन के बीच समरसता बनाओ.
संघ नेताओं का क्या बकवास तर्क है. क्या उंगलियों की समानता और इंसानों की समानता में फर्क नहीं है? उंगलियों की संरचना प्राकृतिक है जबकि वर्णव्यवस्था में भेदभाव, छुआछूत की व्यवस्था आप के पूर्वजों ने बनाई. ऐसे बचकाने तर्क दे कर संघ वर्णव्यवस्था का समर्थन करता आया है.
समभाव और ममभाव
इसी अंक में दलितों को भाजपा से जोड़ने वाला दूसरा लेख है, ‘बाबासाहब डा. अंबेडकर नरेंद्र मोदी की डायरी में.’ इस में 2 उपशीर्षक हैं, ‘डा. अंबेडकर ने वंचित समाज को दी एक नई पहचान’ और ‘दलित समाज के लिए समभाव और ममभाव आवश्यक.’ दलितों के लिए वंचित शब्द संघ का दिया हुआ है. एक समय मायावती ने भी वंचित शब्द का खूब प्रयोग किया था, जब उन्होंने भाजपा से गठबंधन किया था.
समभाव और ममभाव क्या है? इसे समझाते हुए लेख में कहा गया है, ‘‘हम अपने पुराणों, अपने इतिहास और महापुरुषों की ओर दृष्टि करें तो एक बात स्पष्ट रूप से दिखाई देती है कि उस युग की सिद्धि के मूल में उस समय के युगपुरुषों ने समाज के छोटे से छोटे आदमी को साथ लेने के लिए जागृत प्रयास किया था, उस के बाद ही सफलता मिली थी.’’
ये नरेंद्र मोदी के शब्द हैं, जिन में वे दलितों के प्रति हिंदू संस्कृति में समभाव और ममभाव की मौजूदगी का हवाला दे रहे हैं. इसी तरह का हवाला उन्होंने ममभाव का भी दिया है, ‘‘प्रभु राम को सरयू पार कर चित्रकूट में पहुंचना था तो केवट को साथ लिए बिना वे वहां कैसे पहंचते? अवतारी प्रभु राम के लिए लंका पहुंचना कोई कठिन काम था, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं है, पर लंका जाने के लिए सेतु बांधने के लिए अपने 14 वर्ष के वनवास के समय उन्होेंने वानरों को अपना साथी बनाया था. रामजी ने शबरी को माता कौशल्या से जरा भी कम सम्मान नहीं दिया था.’’
संघ हिंदू धर्मग्रंथों में देवताओं और अवतारों के दिए गए उद्धरणों से उन्हें और हिंदू धर्म को दलित, शूद्र विरोधी नहीं, समर्थक साबित करना चाहता है.
संघ परिवार चाहता है कि दलित जातियां हिंदुत्व के लिए शबरी, हनुमान और वानरों की भूमिका में ही अपने को सीमित रखें.
डा. अंबेडकर और दलित आंदोलन को विकृत रूप में पेश करने वाले संघ परिवार और भाजपा से पूछा जाना चाहिए कि उन का यह ‘समभाव और ममभाव’ उस समय क्यों शत्रुभाव में बदल जाता है जब दलित वर्ग के लोग अपने विकास के लिए आरक्षण की मांग करते हैं. यह समभाव और ममभाव 1992 में मंडल कमीशन के खिलाफ सड़कों पर क्यों आ गया था? क्यों पिछड़ी जातियों के आरक्षण के खिलाफ हिंदू छात्रों से आत्मदाह कराया जा रहा था?
मोदी का सफेद झूठ
नरेंद्र मोदी ने अपने लेख में इतिहास की एक घटना को भी विकृत किया है. वे कहते हैं, ‘‘सामाजिक क्रांति के एक प्रेरणापुरुष वीर मेघमाया भी थे. वीर मेघमाया  के व्यक्तित्व से सारी राज्यव्यवस्था प्रभावित हुई थी. वीर मेघमाया ने समाज के कल्याण के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी. उन्होंने राजसत्ता से मांग की, हमें तुलसी और पीपल की पूजा करने का अवसर मिले. मेघमाया की इस छोटी सी मांग में एक लंबे युग की दिशा थी, दर्शन था. जो विचार अंबेडकर को 19वीं सदी में सूझा, वही विचार वर्षों पूर्व मेघमाया ने सुझाया था कि मेरा समाज इस सांस्कृतिक प्रवाह से कहीं दूर न चला जाए.’’
वाह, नरेंद्र मोदी. सफेद झूठ बोलने में संघ परिवार और आप का कोई मुकाबला नहीं कर सकता. कब अंबेडकर ने मेघमाया की तरह तुलसी और पीपल की पूजा करने का अधिकार मांगा था? सच तो यह है कि न वीर मेघमाया ने तुलसी और पीपल की पूजा का अधिकार मांगा और न ही अंबेडकर ने. जिन वीर मेघमाया की बात नरेंद्र मोदी कर रहे हैं वे अछूत साधु थे, जो विक्रमी संवत 1100 में गुजरात में थे. ब्राह्मणों ने साजिश कर के उन की नरबलि दी थी. बलि से पहले उन्होंने राजा के सामने अछूतों के गले में हांडी और कमर में झाड़ू लटका कर चलने की प्रथा समाप्त करने की शर्त रखी थी, जिस की राजाज्ञा उसी दिन राजा ने जारी की थी. ‘आदिहिंदू’ आंदोलन के प्रवर्तक स्वामी अछूतानंद ने इस घटना पर 1926 में ‘मायानंद बलिदान’ नाम से नाटक लिखा था.
अवसरवादी सियासत
हाल ही में भाजपा के राष्ट्रीय प्रवक्ता चुने जाने के बाद डा. विजय सोनकर शास्त्री, डा. कमलेश वर्मा को दिए साक्षात्कार में एक बात बड़े मार्के की कहते हैं, ‘‘दलित राजनीति का आरंभ तो दलित आंदोलन से होता है किंतु सत्ता प्राप्ति के साथ ही दलित राजनीति का अंत हो जाता है. दक्षिण भारत के या उत्तर भारत के राजनेताओं का क्रियाकलाप, अवसरवादिता के अलावा कुछ नहीं है.’’
लेकिन उन्होंने यह नहीं बताया कि यदि भाजपा से दलित जुड़ते हैं तो दलित राजनीति का उत्थान किस दिशा में होगा? जब उन से पूछा गया कि हिंदुत्व और दलित राजनीति का उत्थान किस दिशा में होगा? जब उन से पूछा गया कि हिंदुत्व और दलित राजनीति के बीच विरोध की स्थिति देखी गई है, भाजपा के भीतर आप कैसे संतुलन बनाएंगे? तो उन्होंने कहा, ‘‘शिक्षा की कमी के कारण दलितों को गुमराह किया गया. अब प्रायोजित भ्रम टूट रहे हैं. अंबेडकर ने 1935 (सन गलत है) में मनुस्मृति को जलाया था, पर 1948 में उन्होंने अपनी किताब ‘द अनटचैबल्स’ में मनु को क्लीन चिट दे दी थी. उन्होंने इसी किताब में लिखा है कि मनुकाल में अस्पृश्यता नहीं थी, यहां तक कि शूद्र और अंत्यज भी भारत में कभी अस्पृश्य नहीं थे. वे कहते हैं कि हिंदू संस्कृति में स्थायी अस्पृश्यता का एक भी उदाहरण नहीं प्राप्त होता है.’’
विजय सोनकर शास्त्री की यह लीपापोती किसी काम आने वाली नहीं है, क्योंकि मनुस्मृति में अस्पृश्यता और शूद्रों के प्रति जघन्य भेदभाव के कानून मौजूद हैं. अगर उन्होंने अंबेडकर की
‘द अनटचैबल्स’ की प्रस्तावना ही पढ़ ली होती तो वे खुद भ्रम के शिकार नहीं होते.
भाजपा के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का यही असली एजेंडा है. वह दलितों समेत सारे हिंदुओं को मुसलिम और ईसाई विरोधी बनाना चाहती है. वह अतीत के जघन्य दुराचारों को भुला देना चाहती है. यह इतिहास की धारा को उलटने का आपराधिक कृत्य है. क्या भाजपा वाले इस बात को नहीं जानते कि अंगरेज और मुसलिम सत्ता में नहीं होते तो दलितों को इंसानी हक और सम्मान नहीं मिल पाते?
ऐसा नहीं है कि सोनकर और संघ परिवार के नीतिनिर्माता और बौद्धिक आचार्य इस बात को न जानते हों, वे जानते हैं. वे मुसलिम और अंगरेज ईसाई शासकों के विरोधी ही इसीलिए हैं कि वे यह जानते हैं कि उन की वजह से ही दलित वर्गों में जागरूकता आई है, जिस के कारण उन के सनातन धर्म का सारा तानाबाना बिखरा है. महावीर, बुद्ध, शक और हूणों से तो ब्राह्मणों ने अपनी धार्मिक व्यवस्था को बचा लिया था पर इसलाम और ईसाइयत को बचाने में काम न आई. यहां तक कि दयानंद और विवेकानंद के प्रयास भी धरे के धरे रह गए. ‘दलित आंदोलन पत्रिका’ के सहारे संघ का एजेंडा भी सफल होने वाला नहीं है, वे चाहे इतिहास को कितना ही तोडे़ंमरोड़ें या लीपापोती करें.

जीत के लिए धार्मिक स्वांग का सहारा

क्या कांग्रेस, भाजपा, सपा और क्या वामपंथी, हर दल धर्म का लबादा ओढ़ कर चुनावी फतह के लिए हर टोटका आजमा रहा है. पूजा, मन्नत और अरदास के भरोसे सत्तासुख का स्वप्न देख रहे सियासतदानों की धर्मलीला से वाकिफ करा रहे हैं शैलेंद्र.
 
 
भारतीय जनता पार्टी के नेता तो हमेशा से ही पूजापाठ और धर्मकर्म को बढ़ावा देते रहते हैं. उन की पूरी राजनीति ही धर्म पर टिकी है. धर्म की सीढ़ी पर चढ़ कर ही उन को सत्ता का सुख मिला है. कांग्रेस भी कभी धर्म के विरोध में नहीं रही. जहां जैसी सुविधा मिली, उस ने धर्म का इस्तेमाल किया. कमाल की बात यह है कि समाजवादी और वामपंथी नीतियों की अगुआई करने वाले नेता भी अब धर्म को जीत का जरिया बनाने से पीछे नहीं हट रहे हैं. दलित विचारधारा में पलेबढे़ नेता खुल कर भले ही इस तरह के धार्मिक कार्यों से पीछे रहते हों पर उन की जीवनशैली में धर्म का एक अलग महत्त्व होने लगा है. चुनावी जीत के लिए जब ऐसे कर्मकांडों का सहारा लिया जाता है तो इस बात का भ्रम टूटने लगता है कि विज्ञान आडंबर को पीछे ढकेल सकता है.  
ऐसे नेता किसी स्कूली बच्चों से नजर आने लगते हैं जो परीक्षा में पास होने के लिए मंदिर में जा कर प्रार्थनापत्र देता है. उसे लगता है कि भगवान उस की  सुन लेंगे और परीक्षा में पास कर देंगे. नेताओं को अगर धर्म और भगवान की भक्ति पर इतना ही भरोसा है तो वे चुनाव प्रचार करने के लिए दरदर क्यों भटकते हैं? तमाम तरह के समझौते कर के लोगों को अपने साथ क्यों लेते हैं? उन को तो केवल भगवान की शरण में जाना चाहिए. वह चुनाव जिता देगा. नेताओं के ऐसे कामों से समाज में रूढि़वादिता और आडंबर को बढ़ावा मिलता है. और यह संविधान की मूल भावना के खिलाफ है.  
जिस तरह से धर्म समाज को बांटने का काम कर रहा है उस से लगता है कि एक दिन ऐसा भी आ सकता है जब एक धर्म के नेता को दूसरे धर्म वाले अपने इलाके में घुसने नहीं देंगे. मंदिरों में दलितों को पूजापाठ न करने देने की घटनाएं अभी भी समाज में मिलती हैं. 
राजनीति का काम केवल सरकार बना कर शासन चलाना भर नहीं होता. राजनीति का काम समाज को रूढि़वादी आडंबर वाली सोच से मुक्त कराना भी होता है. जब नेता खुद ऐसे काम करेंगे तो समाज को क्या सीख देंगे, यह आसानी से समझा जा सकता है. जीत के लिए नेता केवल धार्मिक आडंबर में ही नहीं लगे हैं वे चुनाव में अपना नामांकन दाखिल करने से पहले शुभअशुभ की गणना करने का काम भी करते हैं. ऐसे में चुनाव में जहां तमाम तरह के लोगों की मांग बढ़ी है वहीं इस तरह की पूजापाठ कराने वालों की चांदी हो गई है. अपने इसी गुण के कारण धार्मिक अनुष्ठान कराने वाले लोग सत्ता के सब से करीबी होते हैं. पहले के तमाम उदाहरण मौजूद हैं. 
16वीं लोकसभा चुनाव के दौरान चुनाव लड़ रहे नेता ही नहीं, उन के समर्थक भी ऐसे तमाम अनुष्ठान कराते दिखे. ऐसा लग रहा था कि जीत का रास्ता ऐसे धार्मिक अनुष्ठानों से हो कर ही जाता है. नेता अपने पूजापाठ और अनुष्ठान को बेहद निजी विषय बता कर बात करने से इनकार कर देते हैं. वे भूल जाते हैं कि समाज ने उन को नेता चुना है. ऐसे में उन की निजी राय माने नहीं रखती. उन का हर काम समाज में उदाहरण की तरह देखासमझा जाता है. ऐसे में नेताओं का निजी काम जनता में रूढि़वादी सोच को बढ़ाने का काम करता है. सो, देश में धर्मनिरपेक्ष समाज का निर्माण कैसे होगा, यह सवालों के घेरे में है. 
सोनिया ने भी किया पूजापाठ
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को रायबरेली लोकसभा सीट से अपनी हार का कोई खतरा नहीं है.  सोनिया को इस बात का डर जरूर है कि देश में कांग्रेस की अगुआई में 16वीं लोकसभा का गठन होगा या नहीं. यूपीए वन और टू में कांग्रेस की सरकार बनवा चुकीं सोनिया गांधी ने मौजूदा लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की सफलता के लिए रायबरेली में अपना नामांकन दाखिल करने से पहले विधिवत पूजापाठ की. 
राहुल गांधी क ी अगुआई को ले कर कांग्रेस शुरू से ही भ्रम की हालत में रही है. कांग्रेस पार्टी के एक बडे़ हिस्से की मांग थी कि चुनाव से पहले भाजपा की तरह कांग्रेस को भी अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार राहुल गांधी को घोषित करना चाहिए था. कांग्रेस का दूसरा धड़ा इसे गैरजरूरी मान रहा था. उसे लगता था कि इस से राहुल गांधी को नरेंद्र मोदी का मुकाबला करना पड़ेगा, जिस से चुनाव में कांग्रेस की हार की हालत में राहुल गांधी को निशाना बनना पड़ेगा. 4 राज्यों के विधानसभा चुनाव में हार के बाद जो हालत कांग्रेस की दिखी उस के चलते कांग्रेस ने राहुल गांधी को सीधी लड़ाई से बचाने के लिए उन को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित नहीं किया.  
राहुल गांधी ने जिस तरह से चुनाव के पहले हवनपूजन किया, उस से उन के अंदर आत्मविश्वास की कमी साफ झलकती है. अब देखने वाली बात यह है कि राहुल गांधी का अपनी मां सोनिया गांधी के साथ किया गया हवनपूजन कितना काम आएगा?
धर्म भरोसे स्मृति ईरानी
अभिनेत्री से नेता बनी स्मृति ईरानी भाजपा के टिकट पर राहुल गांधी का मुकाबला करने अमेठी लोकसभा सीट से चुनाव लड़ रही हैं. स्मृति ईरानी अमेठी जाने से पहले लखनऊ के मनकामेश्वर मंदिर गईं. वहां भगवान शंकर की पूजा की. मनकामेश्वर मंदिर के संबंध में लोगों की धारणा यह है कि यहां पूजा और दर्शन करने से मनोकामना पूरी होती है. 
मनकामेश्वर मंदिर में पूजा करने के बाद वे अमेठी के लिए रवाना हो गईं. स्मृति ईरानी को टीवी के सीरियल देखने वाले लोग तुलसी के नाम से जानते हैं. अमेठी पहुंच कर स्मृति ईरानी ने कहा कि उन का मुकाबला कांग्रेस नेता राहुल गांधी से ही है. वे आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार कुमार विश्वास को पूरी तरह से खारिज करती नजर आईं. मनकामेश्वर स्मृति ईरानी की मनोकामना कितनी पूरी करेंगे, यह चुनाव के परिणाम बताएंगे. 
भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से चुनावी मैदान में हैं. वे यहां मुख्यमंत्री के रूप में भी काम कर चुके हैं. वे पहली बार लोकसभा का चुनाव यहां से लड़ रहे हैं. यहां से भाजपा के पूर्व  प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई सांसद रह चुके हैं. इस के बाद उन की खड़ाऊं ले कर लालजी टंडन सांसद रहे. अब की लालजी टंडन पहले खुद चुनाव लड़ना चाहते थे बाद में पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने लखनऊ से चुनाव लड़ने का फैसला किया. राजनाथ सिंह को अपनी जीत का भरोसा नहीं हो रहा था, इसलिए वे अटल का अंगवस्त्र ले कर आ गए. इस के बाद भी जीत में कोई कमी न रह जाए इसलिए वे चुनाव प्रचार से पहले पूजा और गिरजाघर जा कर प्रार्थना करना नहीं भूले. 
समाजवादी नेताओं की पूजापाठ
समाजवादी विचारधारा में धर्म का महत्त्व नहीं था. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण हवनपूजा जैसे कर्मकांडों को आडंबर मानते थे. उन के अनुयायी चाहे बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हों या उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव, सभी चुनाव जीतने की जुगत में पूजा, मन्नत और हवन करने लगे हैं. नीतीश कुमार पहले अपनेआप को पूजापाठ से दूर रखते थे. उन का दावा था कि चुनावी जीत सुशासन से मिलती है. लेकिन इस लोकसभा चुनाव में वे बदल गए हैं. अब वे न केवल हाजीपुर जिले में विशाल मंदिर बनवा रहे हैं, बल्कि पटना से सटे फुलवारीशरीफ में चादर भी चढ़ाने जाने लगे हैं. नीतीश कुमार के मन में प्रधानमंत्री बनने का सपना पल रहा है. ऐसे में उन को लगता है कि अगर भाजपा या कांग्रेस को सरकार बनाने का मौका नहीं मिला तो उन का नंबर लग सकता है. इसलिए वे मंदिर और मजार दोनों जगहों का रास्ता पकड़ने लगे हैं. 
उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों पर अपना दबदबा बताने वाले समाजवादी पार्टी के नेता मुलायम सिंह यादव का मनोबल भी कमजोर पड़ गया है. मुलायम भी खुद को भविष्य का प्रधानमंत्री मान कर चल रहे हैं. इस में कोई कोरकसर न रह जाए, इसलिए वे भी हवनपूजन करने लगे हैं. कृषि एवं धर्मार्थ कार्यमंत्री मनोज पांडेय के सरकारी आवास पर
11 कुंडलीय विजय हवनयज्ञ का आयोजन किया गया. मुलायम ने यज्ञवेदी पर बैठ कर पूजा का कलावा बंधवाया. इस के बाद पुरोहितों से प्रधानमंत्री बनने का आशीर्वाद भी लिया. यह आशीर्वाद मुलायम सिंह यादव के कितना काम आया, यह बाद में पता चलेगा.  
सही काल हेतु समय की गणना
पूजापाठ, मन्नत और अरदास के बाद भी जीत का पूरा भरोसा न बना पाने के कारण नेता अपने नामांकन दाखिल करने के लिए ज्योतिषियों से सही समय की गणना कराते हैं. दक्षिण के राज्यों के ज्यादातर नेता सही समय की गणना कराने के बाद ही वोट डालने का काम करते हैं. जयललिता ने सब से शुभ समय की गणना कराने के बाद अपना और अपनी पार्टी के दूसरे नेताओं को उचित समय पर परचा दाखिल करने का निर्देश दिया. केरल में ज्योतिषियों की एक टीम ने सही समय का आकलन किया. गौरतलब है कि जयललिता भी इस लोकसभा चुनाव के बाद खुद को प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में देख रही हैं. 
द्रविड़ विचारधारा को मानने वाले एमडीएमके प्रमुख वाइको ने भी समय की गणना पर पूरा भरोसा दिखाया. द्रविड़ विचारधारा इस तरह के कर्मकांडों को नहीं मानती, ऐसे में वाइको का इस तरह के काम करना जनता में हैरानी फैलाने वाला था. दक्षिण भारत के कई नेता इस तरह के कर्मकांडों का पहले विरोध करते रहे हैं पर अब वे खुद उस में शामिल हो गए हैं. दरअसल, नेताओं में अब अपनी कुरसी और सत्ता को ले कर जिस तरह की असुरक्षा की भावना फैल गई है उस से उन का भरोसा कर्मकांडों में बढ़ गया है. ये लोग केवल चुनाव के समय ही नहीं, बाकी समय भी वास्तु और ज्योतिष के हिसाब से काम करते हैं. कर्मकांडों का पालन करने वाले नेताओं में अब वे लोग भी शामिल हो गए हैं जिन की विचारधारा भी कर्मकांड और अंधविश्वास का विरोध करती थी. ऐसे में समाज में फैली कुरीतियों और बुराइयों का मुकाबला करने के लिए अब जनता को ही सामने आना पडे़गा. 

आम चुनाव में खास बहूबेटियां

कहीं मैडम हैं तो कहीं बहूबेटी. देश के आम चुनाव की सियासी शतरंज में इस बार परिवार के मोहरे पूरी बिसात पर बिखरे हुए हैं. बहैसियत कार्यकर्ता न तो इन्होंने कुरसियां उठाईं, न झंडे उठाए, न धूप में नारे लगाए और न ही कोई जनप्रतिनिधित्व का कारनामा किया. बावजूद इस के देश की कई लोकसभा सीटों पर नेताजी के नवाबजादे और नवाबजादियां किस तरह चुनावी दंगल में टूट पड़े हैं, बता रहे हैं भारत भूषण श्रीवास्तव.
 
अब न तो बहुएं घूंघट या परदे में हैं और न ही बेटियों पर पहले सी बंदिशें हैं. महिलाओं को मिल रही इस आजादी को राजनीति के जरिए सहजता से समझा जा सकता है. तमाम बड़े दलों और नेताओं ने बहुओं, पत्नियों और बेटियों पर चुनावी दांव आजमाने में कंजूसी नहीं की है. इस दरियादिली के पीछे छिपी मजबूरी या स्वार्थ है लोकप्रियता भुनाना और अपनी एक सीट बढ़ाना.
चुनाव लड़ रही राजनीतिक परिवारों की महिलाओं ने राजनीति बेहद नजदीक से देखी है. हालांकि उन्हें जगह बनाने के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा है लेकिन जीतने के लिए जरूर पसीना बहाना पड़ा है. उन पर दोहरा भार और तनाव है. उन्हें मालूम है कि उन की हार सिर्फ उन की ही नहीं, बल्कि रसूखदार पति, पिता और ससुर की भी होगी. लिहाजा, चेहरे पर पेशेवर नेताओं की तरह हावभाव और मुसकराहट लिए वे मैदान में पूरी शिद्दत से हैं. वे कहीं भाभी हैं तो कहीं दीदी तो कहीं मैडम हैं.
चुनाव प्रचार का उन का कार्यक्रम पार्टी के वरिष्ठ कार्यकर्ता तय करते हैं, क्षेत्र के जातिगत और दूसरे समीकरण भी धीमी आवाज में बताते चलते हैं और पार्टी के भीतर व बाहर अपनों व परायों की पहचान भी कराते हैं.
चिट भी अपनी पट भी अपनी
हर एक का अपना एक अलग स्टाइल है, मतदाता से बात करने का अंदाज है. उन्हें एहसास है कि वोटर उन्हें एक अलग खास निगाह से देखता है. परिवार की, पिता, पति या ससुर की प्रतिष्ठा का भार उन्हें जरूरत से ज्यादा नम्र बना रहा है. यह भी उन्हें मालूम है कि हारीं तो व्यक्तिगत तौर पर कुछ नहीं बिगड़ना लेकिन खासा नुकसान घर के मुखिया और पार्टी का होना तय है. और जीतीं तो कद देशभर में बढ़ना तय है क्योंकि उन की सीट सुर्खियों में है, विरोधियों और मीडिया की निगाह उन पर है. 
ऐसे में बेहद सधे कदमों से इन उम्मीदवारों को चलना पड़ रहा है. भाषणबाजी से ज्यादा वे व्यक्तिगत संपर्कों में भरोसा करती हैं. ऐसे में छोटी सभाओं को संबोधित करने जैसी कई दुश्वारियों से वे बच भी जाती हैं.
सपा का परिवारवाद
उत्तर प्रदेश की कन्नौज लोकसभा सीट से लड़ रही डिंपल यादव का सादगीभरा सौंदर्य उन की समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव की बहू और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की पत्नी होने की पहचान पर अकसर भारी पड़ता दिखता है. 35 वर्षीय डिंपल के चेहरे का आकर्षण और फिटनैस देख सहज नहीं कहा जा सकता कि वे 3 बच्चों की मां हैं. हमेशा साड़ी में लिपटी रहने वाली डिंपल के माथे पर बिंदिया और हाथों में चूडि़यां देख हर कोई कहता है कि बहू हो तो ऐसी.
पर जानने वाले ही जानते हैं कि जब अखिलेश ने उन से लव मैरिज की थी तो मुलायम सिंह अपनी नाराजगी भले ही छिपा गए थे पर नाखुशी पर परदा नहीं डाल पाए थे. अब यही डिंपल ससुर की इतनी चहेती हैं कि यादव परिवार और सपा का प्रतिनिधित्व करने लगी हैं. लखनऊ यूनिवर्सिटी से कौमर्स ग्रेजुएट डिंपल ने कभी सपने में भी राजनीति में जाने की बात नहीं सोची थी लेकिन अखिलेश से दोस्ती प्यार में बदली तो सबकुछ बदल गया और एक मिलिट्री अधिकारी की यह अनुशासित बेटी जल्द ही ससुर की मंशा के मुताबिक सियासी रंगढंग में ढल गई.
मुलायम सिंह सरीखे सख्त और परंपरावादी ससुर का दिल जीत लेने वाली डिंपल एक अच्छी पत्नी भी साबित हुई हैं. अखिलेश को उन का राजनीति में आना पसंद नहीं था पर हालात के चलते उन्होंने ससुर की इच्छा पूरी की तो जल्द ही पति भी मान गए. लेटेस्ट गैजेट्स के इस्तेमाल में माहिर डिंपल पति का फेसबुक अकाउंट देखती हैं और ट्वीट भी करती हैं.
पूरे उत्तर प्रदेश की तरह कन्नौज में भी सपा कार्यकर्ताओं की भरमार है जो अपनी भाभी को जिताने के लिए जीजान लगाए हुए हैं. राजनीति में डिंपल को दोनों तरह के अनुभव हो चुके हैं. 2009 के लोकसभा चुनाव में वे फिरोजाबाद सीट से कांग्रेस के उम्मीदवार और अभिनेता राजबब्बर के हाथों शिकस्त खा चुकी हैं जो कभी मुलायम सिंह के खास शिष्य हुआ करते थे लेकिन बाद में कांग्रेस में चले गए थे और अभी तक मुलायम सिंह के लिए सिरदर्द बने हुए हैं.
पहली बार की हार के झटके से डिंपल शानदार तरीके से बाहर आईं जब वे 2012 में कन्नौज लोकसभा का उपचुनाव निर्विरोध यानी बगैर लड़े जीतीं. इस तरह डिंपल पहली महिला सांसद बनीं जो निर्विरोध चुनी गईं. यह रिकौर्ड शायद ही कभी कोई तोड़ पाए.
कन्नौज में डिंपल का मुख्य मुकाबला भाजपा के सुब्रत पाठक और बसपा के निर्मल तिवारी से है. यह सीट शुरू से ही समाजवादियों का गढ़ रही है. अखिलेश यादव यहां से 3 बार जीते हैं. 2009 के चुनाव में उन्होंने बसपा के महेंद्र वर्मा को 1 लाख से भी ज्यादा वोटों से हराया था. इस के पहले 2004 और 2000 का उपचुनाव भी वे जीते थे. 1995 में मुलायम सिंह इस सीट से जीते थे. 1967 में प्रख्यात समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया भी कन्नौज का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं. 1984 में शीला दीक्षित यहां आ कर चुनाव लड़ी थीं और कांग्रेस लहर में जीती थीं पर 1989 के चुनाव में वे हार गई थीं.
इस लिहाज से 3 अप्रैल को नामांकन दाखिल करते हुए डिंपल का यह कहना ठीक ही था कि कन्नौज उन के लिए घर जैसी सीट है. सियासी गलियारों में फैली यह चर्चा भी निराधार नहीं है कि कांग्रेस यहां से एक सौदेबाजी के तहत उम्मीदवार खड़ा नहीं कर रही और दबाव अगर पड़ा तो ऐसा उम्मीदवार उतारेगी जो बजाय नुकसान के डिंपल को फायदा ही देगा, एवज में सपा अमेठी और रायबरेली से प्रत्याशी नहीं उतारेगी.
फैमिली ड्रामा लालू का
जो हालत उत्तर प्रदेश में मुलायम परिवार की है लगभग वही बिहार में लालू प्रसाद यादव के कुनबे की है जिन की पत्नी राबड़ी देवी और बेटी मीसा भारती यादव दोनों राजद से मैदान में हैं. राबड़ी सारण से तो मीसा पाटलीपुत्र सीट से चुनावी मैदान में हैं.
मुलायम के मुकाबले लालू यादव परिवार की राह कुछ मुश्किल भरी है. वजह, राबड़ी देवी को उन के ही सगे भाई साधु यादव ने चुनौती दी थी पर 4 अप्रैल को नामांकन वापस ले लिया. साधु कभी बहन और बहनोई के दाएं हाथ थे और उन्हें लालू का सब से भरोसमंद माना जाता था. एक वक्त में पटना में साधु यादव का राज चलता था पर अब हालात उलट हैं.
लालू की बड़ी बेटी मीसा का नाम दिलचस्पी भरा है. आपातकाल के दौरान जब वे जेल में थे तब मेंटिनेंस  औफ इंटरनल सिक्यूरिटी ऐक्ट यानी मीसा के नाम पर ही उन्होंने बेटी का नाम रख दिया था. देखने में बेहद सीधी मीसा मातापिता की ही तरह बेबाक और मुंहफट हैं. वे पेशे से डाक्टर हैं पर प्रैक्टिस नहीं करती हैं. उन्होंने एमजीएम मैडिकल कालेज, जमशेदपुर से एमबीबीएस की डिगरी बहैसियत टौपर हासिल की थी. बीते कई सालों से वे पति व बेटियों सहित राबड़ी देवी के सरकारी बंगले में ही रह रही हैं.
मीसा की शादी पेशे से कंप्यूटर इंजीनियर शैलेष यादव के साथ 1999 में धूमधाम से हुई थी. यह शादी लालू यादव के मुख्यमंत्री रहते हुई थी, लिहाजा सुर्खियों में रही थी. मीडिया तो इस के कवरेज के लिए टूट पड़ा था. पटना के नजदीक विहटा निवासी शैलेष ने लखनऊ से एमबीए किया है. उस से पहले उन्होंने बड़ौदा से इंजीनियरिंग की डिगरी ली थी.  एक प्राइवेट बैंक में नौकरी करने के बाद वे इंफोसिस जैसी नामी कंपनी में नौकरी करने लगे थे. मीसा 2 बेटियों की मां हैं.
मौजूदा चुनाव में कई दुश्मनों और तमाम दिक्कतों से घिरे लालू यादव ने आखिरकार कांग्रेस से गठबंधन कर लिया और जैसे ही मीसा को पाटलीपुत्र से टिकट दिया तो उन के खासमखास राजद के धाकड़ नेता रामकृपाल यादव नाराज हो कर भाजपा में चले गए. रामकृपाल का एतराज यह था कि इस सीट से उन्हें उम्मीदवार बनाया जाना चाहिए था. मीसा ने दिल्ली जा कर अपनी तरफ से रिश्ते के इस चाचा को मनाने के लिए सीट छोड़ने की पेशकश भी की थी पर तब तक रामकृपाल को भाजपा फोड़ चुकी थी.
अब मीसा के सामने चुनौती सीट निकालने की है. कांग्रेस का साथ और पिता का नाम कितनी मदद कर पाएंगे, यह तो नतीजा बताएगा पर मीसा का गुस्सा थमने का नाम नहीं ले रहा. एक खास तरीके से चुनरी ओढ़े रहने वाली मीसा अब चाचा और मामा को सबक सिखाने की बात भी कर रही हैं.
जाहिर है लालू की चिंता मीसा के साथसाथ पार्टी के भविष्य की भी है. वे अपनी बढ़ती उम्र और घटते जादू के चलते पार्टी की बागडोर बेटी के हाथ में दे देना चाहते हैं. इस में शैलेष की भूमिका अहम रहेगी जो हालफिलहाल तटस्थ हैं.
सारण और पाटलीपुत्र दोनों सीटों पर लालू की प्रतिष्ठा दांव पर लगी है. पत्नी और बेटी उन की प्रतिष्ठा कायम रख पाएंगी या नहीं यह देखना दिलचस्प होगा. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पूरी कोशिश लालू का खेल बिगाड़ने की है तो भाजपा भी पूरे दमखम से लालू का वजूद व हैसियत मिटाने पर तुली हुई हैं. लालू मीसा को बेहद चाहते हैं और उन्हें जिताने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ने वाले लेकिन अब पहले की तरह सबकुछ उन की मुट्ठी में नहीं है.
इसी तरह बिहार के ही सिवान जिले के दबंग सांसद रहे शहाबुद्दीन पिछले कई सालों से जेल में बंद हैं और इस बार सिवान सीट से उन की बीबी हिना शहाब मैदान में हैं. वहीं बाहुबली नेता पप्पू यादव खुद राजद के टिकट से मधेपुरा से चुनाव लड़ रहे हैं और उन की बीबी रंजीता रंजन सुपौल लोकसभा सीट से कांग्रेस के टिकट से चुनावी मैदान में हैं. वैशाली के बाहुबली नेता मुन्ना शुक्ला की बीबी फिलहाल लालगंज विधानसभा सीट से जदयू की विधायक हैं और वे जदयू के टिकट पर वैशाली लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने के मूड में थीं. जब पार्टी ने टिकट नहीं दिया तो वे कमर कस कर निर्दलीय ही चुनावी अखाड़े में कूद पड़ीं.
प्रिया की पकड़
राजनीतिक परिवारों से ताल्लुक रखती महिलाओं का सब से दिलचस्प मुकाबला उत्तरमध्य मुंबई सीट पर है, जहां से अपने जमाने के 2 दिग्गजों कांग्रेस के सुनील दत्त की बेटी प्रिया दत्त और भाजपा के प्रमोद महाजन की बेटी पूनम महाजन आमनेसामने हैं. पिछले चुनाव में भाजपाई महेश जेठमलानी को तकरीबन पौने 2 लाख वोटों से धूल चटा देने वाली प्रिया अब राजनीति में माहिर हो गई हैं और राहुल गांधी के बेहद नजदीकियों में उन का नाम लिया जाने लगा है. 1984 में इस सीट से सुनील दत्त ने भाजपा के धाकड़ नेता राम जेठमलानी को हराया था. उस हार का बदला लेने के लिए अपने बेटे महेश जेठमलानी को टिकट तो राम जेठमलानी दिला लाए पर जिता नहीं पाए.
उत्तरमध्य मुंबई सीट कांग्रेस का उसी तरह गढ़ बन गई है जिस तरह अमेठी, रायबरेली हैं. इस सीट से ताल्लुक रखती दिलचस्प बात यह है कि जबजब सुनील दत्त लड़े तबतब जीते लेकिन 1996 और 1999 में नहीं लड़े तो कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा. इस लिहाज से उत्तर भारतीय वोटों के सहारे प्रिया मजबूत हैं लेकिन उन की दिक्कत कई स्थानीय दिग्गज

कांग्रेसियों का प्रचार से मुंह मोड़ लेना है जिन में 2 विधायक कृपाशंकर सिंह और आरिफ नसीम प्रमुख हैं.
सुनील दत्त के साथ प्रिया साए की तरह रहीं और इसी दौरान राजनीति सीखी और जल्द उन्हें समझ आ गया कि सफल होने के लिए जरूरी है कि जनता से सीधे संवाद रखा जाए और समाजसेवा के काम भी किए जाते रहें. प्रतिबद्ध कांग्रेसी सुनील दत्त के खेल एवं युवा मामलों के मंत्री रहते उन्होंने 1,800 किलोमीटर की पदयात्रा भी की थी और पिता का खयाल भी खूब रखा था. हालांकि वे फिल्मों से सीधे नहीं जुड़ी हैं पर उन की लोकप्रियता का आलम यह है कि दबंग अभिनेता सलमान खान ने भाजपा से प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी के सामने साफसाफ कहा था कि वे प्रिया दत्त को वोट देंगे. अपने जमाने की मशहूर और कामयाब अभिनेत्री नरगिस दत्त की छवि भी प्रिया में दिखती है.
यह भी सुनील दत्त के लिहाज के साथसाथ प्रिया की लोकप्रियता का डर ही था कि नाना पाटेकर जैसे अक्खड़ अभिनेता ने आम आदमी पार्टी का उन के खिलाफ लड़ने का प्रस्ताव अभिनेत्री प्रिटी जिंटा की तरह ठुकरा दिया था. हर कोई मानता है कि प्रिया अपने पिता का नाम और काम बखूबी संभालने में कामयाब रही हैं. 2 साल पहले प्रिया ने वेश्यावृत्ति को कानूनी अधिकार देने की मांग की थी तो बुद्धिजीवी समुदाय में खासी बहस छिड़ गई थी और अधिकांश लोग उन से सहमत थे.
महाजन की विरासत
पूनम महाजन के हक में भी सबकुछ नहीं है. प्रमोद महाजन की मौत के बाद महाजन परिवार टूट गया था. नतीजतन, पूनम ज्यादा नहीं पढ़ पाईं. भाजपा ने प्रमोद की लोकप्रियता को भुनाने के लिए उन्हें 2009 के विधानसभा चुनाव में घाटकोपर सीट से चुनाव लड़ाया लेकिन वे हार गई थीं. इस हार का दाग बहुत गहरा है. उम्मीदवारी के एलान के साथ ही सब से पहले पूनम, उद्धव ठाकरे को ‘प्रणाम’ करने गई थीं. वजह, शिवसेना का भी इस क्षेत्र में खासा असर है, हालांकि भाजपा की तरफ से वोटदिलाऊ नेताओं का यहां टोटा है.
इन दोनों प्रतिद्वंद्वियों में एक विकट की समानता भाइयों का आपराधिक मामलों में लिप्त होना और उन की उद्दंडता भी है. प्रिया के भाई संजय दत्त प्रतिभाशाली अभिनेता हैं पर मुंबई बम कांड के आरोपी होने के चलते इन दिनों जेल में हैं. पूनम के भाई राहुल कभी ड्रग्स के मामले में फंसे थे. आजकल टीवी कार्यक्रमों में भोंडापन और फूहड़ता बिखेरते नजर आ रहे हैं.
अच्छी बात यह है कि दोनों का दांपत्य जीवन खुशहाल और सुखद है. प्रिया के पति ओवेन रेवकान एक मार्केटिंग कंपनी के डायरैक्टर हैं और पूनम के पति आनंद राव मुंबई के जानेमाने उद्योगपति हैं. इन दोनों के ही पति चुनाव प्रचार में आमतौर पर नहीं दिखते सिर्फ पार्टियों में कभीकभार नजर आते हैं.
भाइयों की बेजा हरकतों से परेशान प्रिया और पूनम दोनों को राजनीति में पिता के नाम का फायदा और बड़ा सहारा मिला हुआ है. भाइयों की जगह विरासत संभाल रही ये दोनों इस बार मुश्किल में हैं. मुंबई उत्तरमध्य सीट के मुकाबले को सपा और आम आदमी पार्टी ने दिलचस्प बना दिया है. ‘आप’ के फिरोज पालखीवाला मशहूर वकील नानी पालखीवाला के बेटे हैं. अंदाजा है कि दोनों का ही खेल बराबरी से बिगाड़ेंगे जबकि सपा के फरहान आजमी प्रिया दत्त को थोड़ा नुकसान पहुंचा सकते हैं.
अनुप्रिया की चुनौती
पिता की छोड़ी बादशाहत को उत्तर प्रदेश की मिर्जापुर लोकसभा सीट से 32 वर्षीय अनुप्रिया पटेल संभालती नजर आ रही हैं. दूसरी नेत्रियों के मुकाबले अनु के नाम से मशहूर अनुप्रिया को राजनीति की गहरी समझ है. इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वाराणसी सीट से नरेंद्र मोदी की जीत सुनिश्चित करने के लिए भाजपा को उन की मनुहार करनी पड़ी थी.
अपना दल के संस्थापक सोनेलाल पटेल की इस बेटी से भाजपा हाथ मिलाने को मजबूर हुई और 2 सीटें छोड़ीं जिन में से मिर्जापुर से वे मैदान में हैं. अभी अनुप्रिया वाराणसी की रोहनिया सीट से विधायक हैं. पिछड़ों के आरक्षण की हिमायती इस आकर्षक नेत्री ने उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में गहरी पैठ बना रखी है. यह क्षेत्र पटेल और कुर्मी वोटों की बहुलता के लिए जाना जाता है.
अनुप्रिया ने 12वीं तक की पढ़ाई कानपुर से की थी. इस के बाद दिल्ली के लेडी श्रीराम कालेज से स्नातक होने के बाद उन्होंने नोएडा की एमिटी यूनिवर्सिटी से मनोविज्ञान में एमए किया और एमबीए करने की इच्छा को भी पूरा किया. अपना दल की महासचिव अनुप्रिया जीत के प्रति आश्वस्त हैं. उन के मुकाबले में बसपा से समुदा बिंद और कांग्रेस से ललितेशपति त्रिपाठी हैं.
अनुप्रिया का व्यक्तित्व पूर्वांचल में लोगों को लुभाता है. वे फर्राटे से अंगरेजी भी बोलती हैं और आएदिन आंदोलन, धरने वगैरह भी करती रहती हैं. अपने सिविल इंजीनियर पति आशीष कुमार का सहयोग उन्हें शुरू से ही मिला हुआ है. पिता सोनेलाल पटेल की मौत और अनुप्रिया की शादी में महज 15 दिन का अंतर था पर आशीष ने अनुप्रिया को टूटने नहीं दिया और राजनीति करने दी.
भतीजा नहीं बेटी
महाराष्ट्र और देशभर की राजनीति के एक और दिग्गज शरद पवार अब 84 साल के हो चुके हैं और इस बार चुनाव नहीं लड़ रहे हैं. उन्होंने अपनी बेटी सुप्रिया सुले को अपनी पार्टी एनसीपी की कमान दे दी है और अपनी सीट बारामती से दोबारा जीतने का जिम्मा भी. कद्दावर मराठा नेता शरद पवार राजीव गांधी की हत्या के बाद प्रधानमंत्री होते अगर तब के उन के सियासी दुश्मन अर्जुन सिंह और एनडी तिवारी ने टंगड़ी न अड़ाई होती. ये दोनों ही नरसिम्हाराव को प्रधानमंत्री बनाने के लिए लामबंद हो गए थे.
अपनेपराए की पहचान में धोखा खा चुके शरद पवार अब हर कदम फूंक कर रखते हैं. इसीलिए अपनी विरासत उन्होंने भतीजे अजीत पवार के बजाय बेटी सुप्रिया को दी जो राज्यसभा में सांसद रह चुकी हैं.
42 वर्षीय, 2 बच्चों की मां सुप्रिया को देख कोई नहीं कह सकता कि वे एक विशिष्ट महिला हैं. वजह, उन का साधारण गृहिणी की तरह रहना और दिखना है. कभी राजनीति से परहेज करने वाली तेजतर्रार सुप्रिया की शादी नामी उद्योगपति सदानंद सुले से हुई और वे विदेश चली गई थीं. पिता की एक गंभीर बीमारी उन की देश में वापसी की वजह बनी. वे वापस आईं और राजनीति के साथसाथ समाजसेवा में भी दिलचस्पी लेने लगीं. 
राजनीतिक परिवारों की दूसरी बहू, बेटियों और पत्नियों की तरह सुप्रिया को भी कभी बहैसियत कार्यकर्ता न कुरसियां बिछानी पड़ीं और न ही फर्श उठाने पड़े. उन्हें सबकुछ परोसा हुआ मिला लेकिन वे इस की उपभोक्ता भर नहीं रहीं. इसलिए अपनी जमीन और पहचान बनाने में भी कामयाब रहीं. जमीनी कार्यकर्ता की अहमियत व उपयोगिता सुप्रिया बेहतर समझने लगी हैं कि जीत महज लोकप्रियता से नहीं, बल्कि कार्यकर्ताओं की मेहनत से मिलती है.
वैभव सुप्रिया ने बचपन से ही देखा है. वे चाहतीं तो एक गृहिणी की तरह भी गुजर कर सकती थीं पर विरासत में मिली राजनीति का मोह वह नहीं छोड़ पाईं और बेटे का फर्ज अदा करते पिता का साम्राज्य संभालने को तैयार हैं. सुप्रिया ने शुरुआत धमाकेदार ढंग से की थी. महिला हितों से जुड़े मुद्दों, भू्रणहत्या और दहेज के मुद्दों को उन्होंने ज्यादा उठाया. दोहरी विदेशी नागरिकता के आरोप और मुकदमे भी झेले, आईपीएल विवाद में भी उन का नाम जुड़ा लेकिन वे जानती हैं कि देश ही नहीं, पूरी दुनिया में राजनीति का एक ही उसूल होता है कि अपनी बचा कर रखो और विरोधी की टांग खींचते रहो.
अगर महाराष्ट्र में कांग्रेसएनसीपी गठबंधन संतोषजनक प्रदर्शन कर पाया तो तय है सुप्रिया सुले भविष्य की एक अहम नेता होंगी. चचेरे भाई अजीत पवार उन का रास्ता छोड़ चुके हैं, जिन्होंने शरद पवार के साथ काफी मेहनत की थी. एक दूसरे नजरिए से देखें तो सुप्रिया ने अजीत का हक ही मारा है पर सियासत के कोई उसूल नहीं होते और इस में सब जायज होता है. यह सुप्रिया की सक्रियता से साबित भी होता है.
आमनेसामने परिवार
एक तरफ जहां ये महिलाएं उत्तराधिकार संभालने के लिए मैदान में हैं तो दूसरी तरफ भारत में एक खूबसूरत चेहरा ऐसा भी है जो पारिवारिक प्रतिष्ठा और राजनीतिक प्रतिस्पर्धा के चलते राजनीति में आया. पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल की बहू और सुखवीर सिंह बादल की पत्नी 47 वर्षीय हरसिमरन कौर बादल शिरोमणि अकाली दल के टिकट से पंजाब की भटिंडा सीट से मैदान में हैं. 2009 के चुनाव में उन्होंने धुरंधर कांग्रेसी अमरिंदर सिंह के बेटे रणइंदर सिंह को हरा कर सनसनी फैला दी थी. 
दरअसल, कभी अमरिंदर ने प्रकाश सिंह बादल पर यह ताना कसा था कि उन में अपने परिवार के किसी सदस्य को चुनाव में उतारने की हिम्मत नहीं है तो जवाब में प्रकाश सिंह बादल ने हिम्मत दिखा दी, जरिया बनीं बहू हरसिमरन.
इस दफा भी हरसिमरन कौर मैदान में हैं. उन के सामने अपने ही देवर मनप्रीत बादल हैं. दूसरी चुनौती आप के उम्मीदवार गायक जस्सी जसपाल से भी मिल रही है. बादल परिवार और प्रकाश सिंह बादल की असल प्रतिष्ठा बहू से है या बेटे से, यह अब मतदाता तय करेंगे लेकिन इस धर्मयुद्ध में फंसी हरसिमरन के चेहरे पर शिकन नहीं है. वे जीत के प्रति आश्वस्त हैं. वे अपने प्रचार में एक बात कह रही हैं कि मनप्रीत कभी किसी का सगा नहीं हो सकता.
सियासी हाशिए पर महिलाएं
घर की महिलाओं के भरोसे कई बड़े नेता हैं पर वे एकदम बेफिक्र नहीं हैं. देश की कोई 50 लोकसभा सीटों से इस बार बेटे, भतीजे, भांजे और साले, दामाद भी चुनाव लड़ रहे हैं. इस लिहाज से राजनीतिक उत्तराधिकारी महिलाओं की संख्या दहाई में न होना बताता है कि सबकुछ ठीकठाक नहीं है. स्त्री जागरूकता, स्वतंत्रता और उत्तराधिकार महज झुनझुने हैं. फलतेफूलते वंशवाद पर अब कोई खास एतराज नहीं जताता. इस का सीधा सा मतलब है कि राजनीति एक व्यवसाय के रूप में स्वीकार ली गई है. हैरानी यह है कि इस में महिलाएं अभी भी कम हैं जिन पर होहल्ला ऐसा मचाया जाता है मानो नेताओं ने सबकुछ उन्हें सौंप दिया हो.
संसद जा कर भी पिता, पति या ससुर के इशारे पर नाचना पड़े तो लगता है राजनीति में भी स्त्री की हैसियत कठपुतली सरीखी है. जवाहरलाल नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी एक उदाहरण भर बन कर रह गई हैं. अब उन की विरासत बहू सोनिया गांधी संभाले हुए हैं पर साफ दिख रहा है कि आखिरकार चलती तो राहुल गांधी की ही है. मौजूदा हालात देख प्रियंका की कांग्रेस में मांग लोकप्रियता की वजह से नहीं थी, न ही महिला होने की वजह से. हकीकत में प्रियंका वाड्रा राहुल से कहीं ज्यादा मेहनती, गंभीर और काबिल हैं पर वे रायबरेली और अमेठी में सिमट कर ही रह जाती हैं तो राजनीति से परे यह एक भारतीय महिला की बेबसी और परतंत्रता ही दिखती है.                         

थर्ड जैंडर को न्याय

सुप्रीम कोर्ट ने किन्नरों को ‘थर्ड जैंडर’  बता कर उन्हें सामाजिक व शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग में रखने का फैसला सुना तो दिया है लेकिन इस पर अमल करना एक पेचीदा काम होगा. वजह, हमारे देश में किन्नरों को हमेशा से हंसी का पात्र समझा जाता है. उन्हें स्कूलकालेजों और दफ्तरों में अपने पास की सीट पर बैठा देखना आम लोगों के लिए पत्थर हजम करने जैसी बात होगी. धार्मिक ग्रंथों में भी उसे हमेशा से कोसा जाता रहा है.
अगर किन्नरों को इस का सुख लेना है तो उन्हें खुद को बदलना होगा. किन्नरों को मुख्यधारा में लाना लोहे के चने चबाने जैसा होगा, क्योंकि यहां का पुरातनपंथी समाज किस तरह कानूनी फैसलों पर भारी पड़ता है, सब जानते हैं.    
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