पीकू 

कब्ज को तख्तोताज पर काबिज करना और उस पर अमिताभ बच्चन व दीपिका पादुकोण जैसे सक्षम अभिनेताओं को बैठाना निर्मातानिर्देशक की खप्त ही कही जाएगी. चुटीले संवादों या वास्तविक लगने वाले माहौल के महान दर्शन करने के लिए जो फिल्मी थिएटर तक चले जाएं उन्हें शौचालय प्रेमी ही कहना पड़ेगा. पीकू का प्रचार चाहे जितना किया जाए पर यह नरेंद्र मोदी की स्वच्छ भारत के नारे की तरह खोखली फिल्म है जिस का उद्देश्य गंद को साफ करना भी नहीं, डाइनिंग टेबल पर परोसना है वह भी सितारों की प्लेट पर. फिल्म में अमिताभ बच्चन और दीपिका ने बड़ा सामाजिक अभिनय किया है पर दर्शक अंत में हाल से निकलते समय अगर साबुन से मलमल कर हाथ और दिमाग न धोएं तो उन में से घंटों बदबू आएगी ही. फिल्म न केवल कब्ज के वहम से पीडि़त एक वृद्ध पिता की कहानी है. यह उस पिता की भी कहानी है जो अपने बुढ़ापे को सुरक्षित करने के लिए अपनी युवा, सुंदर, सफल बेटी को अपने कब्ज और अपनी देखभाल के लिए हर समय बांधे रखता है ताकि वह न सफल हो पाए न शादी कर पाए. ऐसे विषय को लेना और ऐसे धर्म को प्रारंभ से अंत तक महिमामंडित करना फिल्मी परदे का टौयलेटीकरण है.

कहानी दिल्ली के चितरंजन पार्क में रहने वाले बंगाली बाबू भास्कर बनर्जी (अमिताभ बच्चन) और उस की बेटी पीकू (दीपिका पादुकोण) की है. भास्कर बाबू 70 वर्ष के हो चुके हैं. उन्हें हर वक्त कब्ज की शिकायत रहती है. कब्ज को दूर करने के लिए वे होम्योपैथी, आयुर्वेदिक व ऐलोपैथिक दवाओं का सेवन करते रहते हैं. उन्हें ब्लडप्रैशर की भी शिकायत है. उन की बेटी पीकू उन का बीपी चैक करती रहती है. वे यदाकदा अपने मैडिकल टैस्ट कराते रहते हैं परंतु रिपोर्ट्स नौर्मल ही आती हैं. सारा दिन भास्कर बाबू पीकू को अपनी सेवा में लगाए रहते हैं. वे सूसू और पौटी तक के लिए पीकू पर निर्भर हैं. इस से पीकू के औफिस के काम में व्यवधान पड़ता है. जहां कहीं पीकू की शादी की बात चलती है तो भास्कर बाबू उस में अड़ंगा लगाते हैं और यहां तक कहते हैं कि पीकू वर्जिन नहीं है. अचानक एक दिन वे अपने पैतृक घर कोलकाता जाना तय करते हैं. हवाई जहाज में वे जाना नहीं चाहते क्योंकि पेट में गुड़गुड़ होगी और फिर हवाई जहाज में संडास भी छोटा होता है. रेल में वे इसलिए जाना नहीं चाहते क्योंकि रेल में धक्के लगते हैं. इसलिए वे पीकू को सड़क मार्ग से कोलकाता जाने के लिए राजी कर लेते हैं. राणा चौधरी (इरफान) भाड़े की टैक्सी चलाता है. वह भास्कर बाबू, पीकू और उन के नौकर को साथ ले कर कोलकाता के लिए अपनी कार में रवाना होता है. कोलकाता पहुंच कर पीकू राणा चौधरी की ओर आकर्षित होती है. एक दिन वहां भास्कर बाबू साइकिल उठा कर पूरे शहर का चक्कर लगाने निकल पड़ते हैं. खूब डट कर खाते हैं. घर आ कर उन्हें खुल कर पाखाना होता है और उन के चेहरे पर संतोष झलकता है. लेकिन अगले दिन ही वे चिरनिद्रा में लीन हो जाते हैं. इस से पहले राणा चौधरी वापस लौट चुका होता है. दिल्ली में भास्कर बाबू के रिश्तेदार व दोस्त उन की यादों को ताजा करते हैं. फिल्म की यह कहानी हमारे आप के परिवार जैसी लगती है. बेटी बाप की खिदमत बखूबी करती है. हर वक्त उस की पिता से नोकझोंक होती रहती है. कभीकभी वह पिता पर चिल्लाती और खीझती भी है. लेकिन फिर कहती है. बूढ़े पैरेंट्स जिंदा नहीं रह सकते, उन्हें जिंदा रखना पड़ता है. निर्देशक ने पीकू की मनोव्यथा को बहुत खूबसूरती से दिखाया है. वह अपना दुख किसी से कहती नहीं, चुपचाप अपनी आंखों की कोरों को पोंछ लेती है. 70 साल के बूढ़े भास्कर बनर्जी की भूमिका में अमिताभ ने जान डाल दी है. उस का मेकअप बहुत बढि़या किया गया है. इरफान का काम भी अच्छा है. काफी दिनों बाद मौसमी चटर्जी की उपस्थिति अच्छी लगी. फिल्म का निर्देशन काफी अच्छा है. फिल्म में ज्यादा उतारचढ़ाव नहीं है, न ही फिल्म में चौंकाने वाले सीक्वैंस हैं. एक सीधीसच्ची कहानी पर फिल्म बनाई गई है जो आप को यह याद दिलाएगी कि बूढ़े पिता अपनी देखभाल करवाने के लिए कितनी अति करते हैं कि बेटी उन्हें त्यागने की इच्छा करती है. फिल्म का वातावरण बंगाली है. कुछ संवाद बंगाली भाषा में हैं. एकाध गाना भी बंगला में है, जिसे सुन कर कानों में मिठास सी घुलती है. छायांकन अच्छा है. दिल्ली, वाराणसी और कोलकाता की लोकेशनों को खूबसूरती से फिल्माया गया है.

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