केजरीवाल ने मीडिया पर बिकाऊ होने का आरोप लगाया है. ‘आप और मीडिया’ शीर्षक से प्रकाशित संपादकीय में आप ने इसी संदर्भ में विवेचना की है. दरअसल, मीडिया से निष्पक्ष होने की उम्मीद करना आकाशकुसुम की तरह है. मीडिया संचालकों के मौलिक अधिकार की बात से सहमत हुआ भी जाए तो क्या यह कहना बेहद मुश्किल है कि पेड न्यूज और स्वाभाविक दिलचस्पी के बीच कोई सीमा बची है. सबकुछ आपस में गड्डमड्ड हो गया है.

कभी पेड चैनल भी निष्पक्षता का दिखावा कर सकते हैं. कभी एक्सक्लूसिव के चक्कर में अधपकी खबरें भी लपक ली जाती हैं. इलैक्ट्रौनिक मीडिया में न्यूज के साथ व्यूज परोसने की प्रणाली उन्हें आरोपों के दायरे में खड़ा कर देती है.

अधिकांश चैनल एक स्वर में नमो राग गा रहे हैं. सारा मीडिया सिंदूरी दिखता है. हिंदुस्तान के इतिहास में चुनाव प्रचार में इतनी अकूत दौलत का इस्तेमाल आज तक नहीं हुआ. नमो का प्रचार 1,500 लाख करोड़ रुपए का. यह अनुमानित आंकड़ा है. यह व्हाइट मनी तो हो नहीं सकती.

बड़ेबड़े मीडिया हाउस उद्योगपतियों के हैं और उद्योगपति किसी न किसी पार्टी के. ऐसे में आम आदमी पार्टी को तरजीह कौन देगा. जहां समूचा मीडिया दोनों आंखों से खबरें और तीसरी आंख से धन देखता है वहां ‘आप’ को हकीकत का सामना करना पड़ेगा. चैनल, अखबार और वेब मीडिया क्या, पूरा तंत्र ही बाजार के अधीन है, ऐसे में ‘आप’ को थोड़ा धैर्य तो धरना ही पड़ेगा.

इंदिरा किसलय, नागपुर (महा.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘आप और मीडिया’ के अंतर्गत ऐसा प्रतीत होता है कि बड़ी पार्टियों या नेताओं की गलती पर ध्यान नहीं दिया जाता है. मीडिया को अपना व्यवहार एक सा रखना चाहिए.

अरविंद केजरीवाल कुछ समय के लिए मुख्यमंत्री रहे हों किंतु उन्हें जनता ने यह पद दिया था. उन के साथ सौतेला व्यवहार क्यों किया जाता है? सरकार किसी की भी बने, वह ऐसी हो जो अपना कार्यकाल पूरा करे, देशप्रदेश को विकास की ओर ले जाए. जनता को महंगाई से राहत मिले, किसानों को राहत मिले उन्हें हताश हो कर मृत्यु को गले न लगाना पड़े.

कांति पुखार, झांसी (उ.प्र.)

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‘आप और मीडिया’ एक उत्कृष्ट टिप्पणी है. आम आदमी पार्टी हो या कोई भी अन्य पार्टी, मीडिया का काम सत्य को उजागर करना है लेकिन मीडिया और ‘आप’ के बीच विवाद गहरा गया. अरविंद केजरीवाल की घबराहट और बौखलाहट वाजिब है क्योंकि ‘आप’ को एक समर्थक मीडिया की जरूरत है. अन्य पार्टियों की तरह ‘आप’ के पास अनापशनाप की कोई कमाई नहीं है. मीडिया का एकतरफा व्यवहार कुछ नया नहीं है. आमतौर पर अखबार या चैनल अपनीअपनी पसंद के नेताओं को कुछ ज्यादा सहानुभूति से दर्शाते हैं.

अरविंद केजरीवाल को भी यह हक है कि वे मीडिया की आलोचना करें. अगर मीडिया बड़े उद्योगपतियों का है और बड़े उद्योगपति किसी खास पार्टी को समर्थन दे रहे हैं तो उन्हें या किसी को भी शिकायत करने का पूरा अधिकार है.

यह बिलकुल सही बात है कि मीडिया को इस पर तिलमिलाना नहीं चाहिए बल्कि अपनी आलोचना उसी तरह लेनी चाहिए जैसे वह दूसरों की करता है. उसे इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि यदि वह दूसरों की आलोचना करने का अधिकार रखता है तो दूसरे भी उस की बखिया उधेड़ सकते हैं.

कैलाश राम गुप्ता, इलाहाबाद (उ.प्र.)

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संपादकीय टिप्पणी ‘आप और मीडिया’ में आप का यह कहना कि ‘अरविंद केजरीवाल को भी यह हक है कि वे मीडिया की आलोचना करें’ बेशक दुरुस्त है. मगर क्या किसी पर भी बिना किसी सुबूत के आरोप लगाना, आलोचना माना जाएगा? शायद नहीं. बेवजह थोपे जा रहे या फिर अनापशनाप लगाए जा रहे आरोपों को तो ‘खिसियानी बिल्ली खंभा नोचे’ समान ही कहा जाएगा.

यहां न तो मैं केजरीवाल पर आरोप  लगा रहा हूं और न ही मीडिया की वकालत कर रहा हूं बल्कि कहना चाह रहा हूं कि जब दिल्ली विधानसभा के चुनावों में यही मीडिया इन्हीं केजरीवाल की तारीफ के पुल बांधने में लगा था तो उन का प्रिय था. अब अगर वही मीडिया उन की कमियां गिनाने/बताने लगा तो अप्रिय हो गया? केजरीवाल तो यहां तक फरमा गए कि सारा मीडिया बिक गया है.

क्या ऐसा संभव हो सकता है? या फिर जब यही मीडिया उन का गुणगान कर रहा था तो क्या केजरीवाल ने उसे खरीद रखा था? याद करें, केजरीवाल ने कहा था कि कल तक मैं ‘नास्तिक’ था, मगर अब मैं ‘आस्तिक’ यानी भगवान भक्त हो गया हूं. फिर वे यह क्यों भूल जाते हैं कि उन्हीं के भगवान ने गीता में उपदेश दिया था : ‘कर्म किए जा, फल की चिंता मत कर ऐ इंसान, जैसा कर्म करेगा वैसा फल देगा भगवान’ तो फिर आलोचना या प्रशंसा की चिंता क्यों?

ताराचंद देव रैगर, श्रीनिवासपुरी (दिल्ली)

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सरित प्रवाह में संपादकीय ‘सुषमा की नाराजगी’ और ‘आप और मीडिया’ पढ़ कर अच्छा लगा. बात तो काफी गंभीर है. हमारे यहां सब से बड़ी मुसीबत यही है कि हम एकजुट हो कर दुश्मन से कम आपस में ज्यादा झगड़ते हैं. कांगे्रस और भाजपा यह भूल जाती हैं कि चुनाव के बाद दोनों पार्टियों के सांसदों को एकसाथ ही पार्लियामैंट में बैठ कर देश के लिए काम करना है. यह दुश्मनी न तो उन का अपना भला करती है और न ही देश का. ताज्जुब तो यह है कि ‘आप’ ने भी वही घिसापिटा राग अलापना शुरू कर दिया है जबकि वह चाहती तो अपनी सोच को जनता के सामने कुछ नए तरीके से रख सकती थी.

केजरीवाल सच्चे और ईमानदार इंसान हैं और आज की युवा पीढ़ी को रीपे्रजैंट करते हैं. हाल के एक बयान में उन्होंने साफ कर दिया है कि यदि मैं सांसद नहीं बन पाया तो कोई बात नहीं, मेरा अभी तो मकसद मोदी को हराना है.

यही एकदूसरे को हराने, पछाड़ने और नीचा दिखाने की भावना कुछ ऐसी तीव्र हो गई है कि नेतागण यह भी भूल जाते हैं कि सामने वाला दूसरी पार्टी का न हो कर, उन की अपनी पार्टी का ही है. सुषमा स्वराज, मुरली मनोहर जोशी, लालकृष्ण आडवाणी भी अपनी जगह ठीक होते हुए कुछ ऐसी ही लड़ाई लड़ रहे हैं जिस का अंजाम चुनाव के बाद आपसी बैर को बढ़ावा ही देगा.

ओ डी सिंह, बड़ौदा (गुजरात)

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नेताओं को देश की चिंता नहीं

अप्रैल (द्वितीय) अंक में प्रकाशित अग्रलेख ‘आजादी के 67 साल, फिर भी भारत बेहाल’ में देश की वास्तविक दुर्दशा प्रतिबिंबित हुई है. इतनी लंबी अवधि में देश में अगर कुछ भी बदला है तो वह है नेता एवं उन के रिश्तेदारों का रहनसहन. दिनोंदिन कुव्यवस्था, कुशासन एवं भ्रष्टाचार के दलदल में फंसा देश कराह रहा है जबकि चोरचोर मौसेरे भाई, नेतागण अपने स्वार्थसिद्धि के लिए एकदूसरे पर कीचड़ उछालने में लगे हुए हैं.

आजतक शोषित, उत्पीडि़त जनगण को झूठे वादों के कफन में लपेट कर ख्वाबों की मृगतृष्णा में ही भटकाया गया है. दुख की बात यह है कि उन के ही दिए गए वोटों की भीख की बदौलत ये नेतागण एकपति से अरबपति हो गए और भीख का कटोरा देश की जनता को थमा ‘भारत देश महान’ का ध्वजा लहरा रहे हैं.

रेणू श्रीवास्तव, पटना (बिहार)

व्यवस्था का बंटाधार?

अप्रैल (द्वितीय) अंक का अग्रलेख ‘आजादी के 67 साल फिर भी भारत बेहाल’ वास्तविकता के करीब है. देश की व्यवस्था का सही चित्रण लेख में किया गया है. सरकार के सारे विभागों में गंदगी, अव्यवस्था, भ्रष्टाचार व लालफीताशाही का बोलबाला है. सरकारी इमारतें पान की पीक से बदरंग हो गई हैं. विभाग के कर्मचारी कुरसियों से नदारद रहते हैं या फिर सीधेमुंह बात नहीं करते, जनता किस से फरियाद करे.

सड़कों पर ट्रैफिक व्यवस्था का यह आलम है कि वाहनों की बेतरतीब रेलमपेल का सामना कर कोई भी सकुशल घर वापस आ जाए तो बड़ी बात है. जान हथेली पर ले कर सड़कों पर चलना पड़ता है. अतिक्रमण के बीच सड़कें नजर नहीं आतीं.

मंदिरों में भजनकीर्तन का इतना शोर रहता है कि छात्र न पढ़ाई कर सकते हैं और न बीमारों को आराम मिलता है. पंडेपुजारी जनता को गुमराह कर आर्थिक शोषण करते हैं. भंडारों के नाम पर धौंसडपट दे कर व्यापारियों से चंदा वसूल किया जाता है. एक तरफ कुछ लोगों को दो जून की रोटी के लिए दिनभर भागदौड़ कर परिश्रम करना पड़ता है दूसरी ओर कुछ लोग निठल्ले रह कर जनता की कमाई पर ऐशोआराम करते हैं. सचमुच, व्यवस्था का बंटाधार हो चुका है.

श्याम चौरे, इंदौर (म.प्र.)

अंधभक्ति

अप्रैल (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘आशुतोष महाराज : समाधि और संपत्ति पर विवाद’ पढ़ा जो धर्मांध भक्तों बनाम धर्म के अलंबरदारों की आंखों पर बंधी धर्म की पट्टी को उजागर करता है. सच पूछो तो धर्म के ये अंधे भक्त उन भैंसों समान ही हैं जिन के आगे बीन बजाने का कोई फायदा नहीं होता. शायद, इसीलिए तो चाहे डाक्टरों ने तथाकथित समाधिरत आशुतोष महाराज को ‘क्लीनिकली डैड’ घोषित कर दिया हो या फिर उन के मृत शरीर को ‘फ्रीज’ कर के रखा गया हो, उन आंख के अंधों और कान के बहरे सनकी भक्तों को अभी भी वे समाधिरत ही नजर आ रहे हैं. ऐसी स्थिति को क्या कहा/समझा जाए? रही बात उन की अकूत संपत्ति के विवाद की, तो समझ नहीं आता कि क्यों संबंधित राज्य या केंद्र सरकार ऐसी संपत्तियों पर रिसीवर बैठा देती है?

आखिर वह एकत्रित की गई या फिर भक्तों से चढ़ावे के रूप में लूटी गई दौलत है. आखिरकार वह है तो जनता जनार्दन की ही. तो क्यों नहीं उसे सरकारी कोष में समाहित कर गरीबजरूरतमंद लोगों की सेवा में ही लगा दिया जाता? पंडेपुजारियों या महाराज के तथाकथित चेलेचपाटियों को धनदौलत से आखिर लेनादेना भी क्या? क्योंकि असली साधु, संत, महात्माओं को भला धनदौलत से क्या लेनादेना, तो फिर क्यों ऐसे महाराजों की संपत्ति पर किसी को भी विवाद खड़ा कर अनावश्यक खूनखराबा करने की छूट दी जाए और अगर समाधि से महाराज वापस लौटने ही वाले हैं तो फिर ‘यह मेरा, यह इस का’ विवाद उठ ही क्यों रहा है?

टी सी डी गाडेगावलिया, करोल बाग (न.दि.)द्य

दलबदल या दिलबदल

अप्रैल (द्वितीय) अंक में प्रकाशित लेख ‘दलबदल का खेल, नेताओं की ‘राज’ लीला’ पढ़ा. आज राजनीति में आने का मकसद सिर्फ सत्तासुख भोगना और हमेशा पावर में बने रहना है. इसीलिए चारों ओर मौकापरस्ती है. जिस पार्टी की लहर चल रही है उस में शामिल होने के लिए नेता अधिक उतावले होेते हैं. सिद्धांत ताक पर रख कर जोड़तोड़ की राजनीति में लगे हैं. जिसे भी टिकट नहीं मिलता वही पार्टी छोड़ उस पार्टी में शामिल हो जाता है जिस की बुराइयां करने में कभी उस ने कोई कसर नहीं छोड़ी थी. पार्टी को भी उन लोगों से कोई परहेज नहीं होता, फिर चाहे वह उद्योगपति हो या अपराधवृत्ति में लिप्त ही क्यों न हो. उसे तो बस किसी तरह सत्ता में आना है.

यह सिलसिला यहीं भी नहीं थमता. सत्ता में आने के बाद मनमाफिक पद की लालसा बनी रहती है. और न मिलने पर खींचतान शुरू हो जाती है. न संसद चलती है न जनहित में काम होता है.

देश अब काफी जागरूक हो चुका है. दलबदल करने वालों को जनता अच्छा सबक सिखा सकती है. परंतु हमारे यहां सिस्टम में कई खामियां हैं. एक बार प्रत्याशी को चुनने के बाद उसे वापस नहीं भेजा जा सकता. चाहे वह काम करे या न करे. हमें उस पर जवाबदेही फिक्स करनी होगी. जिस क्षेत्र का वह प्रतिनिधित्व कर रहा है उस का दौरा निश्चित अंतराल में करे. जनता का काम कितना किया है, उस का लेखाजोखा प्रस्तुत करे. अगर वह काम नहीं करता है तो उसे हटाने का अधिकार भी जनता को होना चाहिए. चुनाव सुधार के लिए बनने वाले कानूनों में इस बात को भी जगह दी जानी चाहिए. केवल 5 साल में एक बार किसी को भी चुन कर जनता का रहनुमा बना देने से जनता का हित नहीं होगा.       

प्रकाश दर्पे, इंदौर (म.प्र.)

 

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